०४

[चतुर्थ सर्ग]

भागसूचना

समुद्र-तरण, लंका-निरीक्षण तथा रावण-शुक-संवाद

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुमारभमाणस्तु तत्र रामेश्वरं शिवम्।
संस्थाप्य पूजयित्वाह रामो लोकहिताय च॥ १॥

मूलम्

सेतुमारभमाणस्तु तत्र रामेश्वरं शिवम्।
संस्थाप्य पूजयित्वाह रामो लोकहिताय च॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! सेतुबन्धके आरम्भ होनेपर भगवान् रामने रामेश्वर महादेवकी स्थापना कर उनका पूजन करते हुए लोकहितके लिये इस प्रकार कहा—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणमेत्सेतुबन्धं यो दृष्ट्वा रामेश्वरं शिवम्।
ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मुच्यते मदनुग्रहात्॥ २॥

मूलम्

प्रणमेत्सेतुबन्धं यो दृष्ट्वा रामेश्वरं शिवम्।
ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मुच्यते मदनुग्रहात्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘जो पुरुष रामेश्वर शिवका दर्शन कर सेतुबन्धको प्रणाम करेगा वह मेरी कृपासे ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जायगा॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुबन्धे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा रामेश्वरं हरम्।
सङ्कल्पनियतो भूत्वा गत्वा वाराणसीं नरः॥ ३॥
आनीय गङ्गासलिलं रामेशमभिषिच्य च।
समुद्रे क्षिप्ततद्भारो ब्रह्म प्राप्नोत्यसंशयम्॥ ४॥

मूलम्

सेतुबन्धे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा रामेश्वरं हरम्।
सङ्कल्पनियतो भूत्वा गत्वा वाराणसीं नरः॥ ३॥
आनीय गङ्गासलिलं रामेशमभिषिच्य च।
समुद्रे क्षिप्ततद्भारो ब्रह्म प्राप्नोत्यसंशयम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई पुरुष सेतुबन्धमें स्नान कर रामेश्वर महादेवके दर्शन करे और फिर संकल्पपूर्वक काशी जाकर वहाँसे गंगाजल लावे तथा उससे रामेश्वरका अभिषेक कर उस जलके पात्रको समुद्रमें डाल दे तो वह निस्सन्देह ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है’’॥ ३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतानि प्रथमेनाह्ना योजनानि चतुर्दश।
द्वितीयेन तथा चाह्ना योजनानि तु विंशतिः॥ ५॥
तृतीयेन तथा चाह्ना योजनान्येकविंशतिः।
चतुर्थेन तथा चाह्ना द्वाविंशतिरिति श्रुतम्॥ ६॥
पञ्चमेन त्रयोविंशद्योजनानि समन्ततः।
बबन्ध सागरे सेतुं नलो वानरसत्तमः॥ ७॥

मूलम्

कृतानि प्रथमेनाह्ना योजनानि चतुर्दश।
द्वितीयेन तथा चाह्ना योजनानि तु विंशतिः॥ ५॥
तृतीयेन तथा चाह्ना योजनान्येकविंशतिः।
चतुर्थेन तथा चाह्ना द्वाविंशतिरिति श्रुतम्॥ ६॥
पञ्चमेन त्रयोविंशद्योजनानि समन्ततः।
बबन्ध सागरे सेतुं नलो वानरसत्तमः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुना जाता है वानरश्रेष्ठ नलने पहले दिन चौदह योजन, दूसरे दिन बीस योजन, तीसरे दिन इक्कीस योजन, चौथे दिन बाईस योजन और पाँचवें दिन तेईस योजन समुद्रपर पुल बाँधा॥ ५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैव जग्मुः कपयो योजनानां शतं द्रुतम्।
असङ्ख्याताः सुवेलाद्रिं रुरुधुः प्लवगोत्तमाः॥ ८॥

मूलम्

तेनैव जग्मुः कपयो योजनानां शतं द्रुतम्।
असङ्ख्याताः सुवेलाद्रिं रुरुधुः प्लवगोत्तमाः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी पुलसे वानरगण तुरंत ही सौ योजन समुद्रके उस पार चले गये और फिर असंख्य वानरवीरोंने सुवेल-पर्वतको घेर लिया॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुह्य मारुतिं रामो लक्ष्मणोऽप्यङ्गदं तथा।
दिदृक्षू राघवो लङ्कामारुरोहाचलं महत्॥ ९॥

मूलम्

आरुह्य मारुतिं रामो लक्ष्मणोऽप्यङ्गदं तथा।
दिदृक्षू राघवो लङ्कामारुरोहाचलं महत्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामकी लंका देखनेकी इच्छा होनेपर रामचन्द्रजी हनुमान् के और लक्ष्मणजी अंगदके

Misc Detail

ऊपर बैठकर उस महान् पर्वतपर चढ़ गये॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा लङ्कां सुविस्तीर्णां नानाचित्रध्वजाकुलाम्।
चित्रप्रासादसम्बाधां स्वर्णप्राकारतोरणाम्॥ १०॥

मूलम्

दृष्ट्वा लङ्कां सुविस्तीर्णां नानाचित्रध्वजाकुलाम्।
चित्रप्रासादसम्बाधां स्वर्णप्राकारतोरणाम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा कि लंकापुरी अति विस्तीर्ण है। वह नाना प्रकारकी ध्वजाओं, विचित्र प्रासादों तथा सुवर्णनिर्मित परकोटों और तोरणोंसे सुसज्जित है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिखाभिः शतघ्नीभिः सङ्क्रमैश्च विराजिताम्।
प्रासादोपरि विस्तीर्णप्रदेशे दशकन्धरः॥ ११॥
मन्त्रिभिः सहितो वीरैः किरीटदशकोज्ज्वलः।
नीलाद्रिशिखराकारः कालमेघसमप्रभः॥ १२॥

मूलम्

परिखाभिः शतघ्नीभिः सङ्क्रमैश्च विराजिताम्।
प्रासादोपरि विस्तीर्णप्रदेशे दशकन्धरः॥ ११॥
मन्त्रिभिः सहितो वीरैः किरीटदशकोज्ज्वलः।
नीलाद्रिशिखराकारः कालमेघसमप्रभः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह (सब ओरसे) खाइयों, तोपों और संक्रमों (सुरंगों)-से सुशोभित है। उसके एक राजभवनके ऊपर अति विस्तृत भागमें अपने वीर मन्त्रियोंके सहित रावण बैठा है। उसके सिरोंपर दस मुकुट सुशोभित हैं, वह नीलाचलके शिखरके समान आकारवाला एवं श्याम मेघकी-सी आभावाला है॥ ११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नदण्डैः सितच्छत्रैरनेकैः परिशोभितः।
एतस्मिन्नन्तरे बद्धो मुक्तो रामेण वै शुकः॥ १३॥
वानरैस्ताडितः सम्यग् दशाननमुपागतः।
प्रहसन् रावणः प्राह पीडितः किं परैः शुक॥ १४॥

मूलम्

रत्नदण्डैः सितच्छत्रैरनेकैः परिशोभितः।
एतस्मिन्नन्तरे बद्धो मुक्तो रामेण वै शुकः॥ १३॥
वानरैस्ताडितः सम्यग् दशाननमुपागतः।
प्रहसन् रावणः प्राह पीडितः किं परैः शुक॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके रत्नदण्डयुक्त श्वेत छत्रोंसे उसकी अपूर्व शोभा हो रही है। इसी समय भगवान् रामद्वारा बाँधकर छोड़ा हुआ शुक नामक दैत्य वानरोंसे भली प्रकार मार खाकर रावणके पास पहुँचा। उसे देखकर रावणने हँसते हुए पूछा— ‘‘शुक! क्या शत्रुओंने तुम्हें कुछ कष्ट पहुँचाया है?’’॥ १३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्य वचः श्रुत्वा शुको वचनमब्रवीत्।
सागरस्योत्तरे तीरेऽब्रवं ते वचनं यथा।
तत उत्प्लुत्य कपयो गृहीत्वा मां क्षणात्ततः॥ १५॥

मूलम्

रावणस्य वचः श्रुत्वा शुको वचनमब्रवीत्।
सागरस्योत्तरे तीरेऽब्रवं ते वचनं यथा।
तत उत्प्लुत्य कपयो गृहीत्वा मां क्षणात्ततः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके वचन सुनकर शुकने कहा—‘‘समुद्रके उत्तरतटपर जाकर ज्यों ही मैं आपका सन्देश सुनाने लगा त्यों ही कुछ वानरोंने उछलकर मुझे तत्क्षण पकड़ लिया॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुष्टिभिर्नखदन्तैश्च हन्तुं लोप्तुं प्रचक्रमुः।
ततो मां राम रक्षेति क्रोशन्तं रघुपुङ्गवः॥ १६॥
विसृज्यतामिति प्राह विसृष्टोऽहं कपीश्वरैः।
ततोऽहमागतो भीत्या दृष्ट्वा तद्वानरं बलम्॥ १७॥

मूलम्

मुष्टिभिर्नखदन्तैश्च हन्तुं लोप्तुं प्रचक्रमुः।
ततो मां राम रक्षेति क्रोशन्तं रघुपुङ्गवः॥ १६॥
विसृज्यतामिति प्राह विसृष्टोऽहं कपीश्वरैः।
ततोऽहमागतो भीत्या दृष्ट्वा तद्वानरं बलम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

और मुझे घूँसों, नखों एवं दाँतोंसे मारने तथा लुप्त करनेका आयोजन करने लगे। तब ‘हे राम! मेरी रक्षा करो’ इस प्रकार मुझे पुकारते सुन रघुश्रेष्ठ रामने कहा—‘इसे छोड़ दो।’ इससे उन वानरोंने मुझे छोड़ दिया। तब मैं वानरोंकी सेना देखकर बड़ा डरता-डरता यहाँ आया हूँ॥ १६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसानां बलौघस्य वानरेन्द्रबलस्य च।
नैतयोर्विद्यते सन्धिर्देवदानवयोरिव॥ १८॥

मूलम्

राक्षसानां बलौघस्य वानरेन्द्रबलस्य च।
नैतयोर्विद्यते सन्धिर्देवदानवयोरिव॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे विचारसे देव और दानवोंके समान राक्षसोंके दलबल और वानरोंकी सेनामें किसी प्रकार मेल नहीं हो सकता॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरप्राकारमायान्ति क्षिप्रमेकतरं कुरु।
सीतां वास्मै प्रयच्छाशु युद्धं वा दीयतां प्रभो॥ १९॥

मूलम्

पुरप्राकारमायान्ति क्षिप्रमेकतरं कुरु।
सीतां वास्मै प्रयच्छाशु युद्धं वा दीयतां प्रभो॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! वे शीघ्र ही नगरके परकोटेपर आनेवाले हैं, आप दोनोंमेंसे कोई एक काम कीजिये—या तो उन्हें सीता दे दीजिये और या उनके साथ युद्ध कीजिये॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामाह रामस्त्वं ब्रूहि रावणं मद्वचः शुक।
यद्‍बलं च समाश्रित्य सीतां मे हृतवानसि॥ २०॥
तद्दर्शय यथाकामं ससैन्यः सहबान्धवः।
श्वःकाले नगरीं लङ्कां सप्राकारां सतोरणाम्॥ २१॥
राक्षसं च बलं पश्य शरैर्विध्वंसितं मया।
घोररोषमहं मोक्ष्ये बलं धारय रावण॥ २२॥

मूलम्

मामाह रामस्त्वं ब्रूहि रावणं मद्वचः शुक।
यद्‍बलं च समाश्रित्य सीतां मे हृतवानसि॥ २०॥
तद्दर्शय यथाकामं ससैन्यः सहबान्धवः।
श्वःकाले नगरीं लङ्कां सप्राकारां सतोरणाम्॥ २१॥
राक्षसं च बलं पश्य शरैर्विध्वंसितं मया।
घोररोषमहं मोक्ष्ये बलं धारय रावण॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामने मुझसे कहा है कि ‘शुक! रावणसे मेरी ओरसे कहना कि जिस शक्तिके भरोसे तुमने हमारी जानकीको हरा है उसे भली प्रकार अपनी सेना और बन्धु-बान्धवोंके सहित मुझे दिखलाना। तू कल ही प्राकार और तोरणादिके सहित लंकापुरी और राक्षसोंकी सेनाको मेरे बाणोंसे विध्वस्त हुई देखेगा। रावण! उस समय मैं भयंकर क्रोध छोड़ूँगा, तू अपने बलको स्थिर रखना’॥ २०—२२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वोपररामाथ रामः कमललोचनः।
एकस्थानगता यत्र चत्वारः पुरुषर्षभाः॥ २३॥
श्रीरामो लक्ष्मणश्चैव सुग्रीवश्च विभीषणः।
एत एव समर्थास्ते लङ्कां नाशयितुं प्रभो॥ २४॥
उत्पाट्य भस्मीकरणे सर्वे तिष्ठन्तु वानराः।
तस्य यादृग् बलं दृष्टं रूपं प्रहरणानि च॥ २५॥
वधिष्यति पुरं सर्वमेकस्तिष्ठन्तु ते त्रयः।
पश्य वानरसेनां तामसङ्ख्यातां प्रपूरिताम्॥ २६॥

मूलम्

इत्युक्त्वोपररामाथ रामः कमललोचनः।
एकस्थानगता यत्र चत्वारः पुरुषर्षभाः॥ २३॥
श्रीरामो लक्ष्मणश्चैव सुग्रीवश्च विभीषणः।
एत एव समर्थास्ते लङ्कां नाशयितुं प्रभो॥ २४॥
उत्पाट्य भस्मीकरणे सर्वे तिष्ठन्तु वानराः।
तस्य यादृग् बलं दृष्टं रूपं प्रहरणानि च॥ २५॥
वधिष्यति पुरं सर्वमेकस्तिष्ठन्तु ते त्रयः।
पश्य वानरसेनां तामसङ्ख्यातां प्रपूरिताम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर कमलनयन भगवान् राम चुप हो गये। ‘‘हे प्रभो! और सब वानर एक ओर रहें तो भी एक साथ मिल जानेपर, लंकाको जड़से उखाड़कर उसे भस्म और नष्ट करनेमें तो राम, लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण—ये चार पुरुषश्रेष्ठ ही पर्याप्त हैं। और मैंने जैसे उनके बल, रूप और अस्त्र-शस्त्रादि देखे हैं उससे तो यही मालूम होता है कि और तीनों अन्यत्र रहें, अकेले राम ही समस्त नगरको नष्ट कर सकते हैं। अब सब ओर फैली हुई वानरोंकी उस असंख्य सेनाको देखिये॥ २३—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्जन्ति वानरास्तत्र पश्य पर्वतसन्निभाः।
न शक्यास्ते गणयितुं प्राधान्येन ब्रवीमि ते॥ २७॥

मूलम्

गर्जन्ति वानरास्तत्र पश्य पर्वतसन्निभाः।
न शक्यास्ते गणयितुं प्राधान्येन ब्रवीमि ते॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखिये, ये पर्वतसदृश वानरवीर कैसे गर्ज रहे हैं। इन्हें गिना नहीं जा सकता, इसलिये मैं आपको इनमेंसे प्रधान-प्रधान बतलाता हूँ॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष योऽभिमुखो लङ्कां नदंस्तिष्ठति वानरः।
यूथपानां सहस्राणां शतेन परिवारितः॥ २८॥
सुग्रीवसेनाधिपतिर्नीलो नामाग्निनन्दनः।
एष पर्वतशृङ्गाभः पद्मकिञ्जल्कसन्निभः॥ २९॥
स्फोटयत्यभिसंरब्धो लाङ्गूलं च पुनः पुनः।
युवराजोऽङ्गदो नाम वालिपुत्रोऽतिवीर्यवान्॥ ३०॥

मूलम्

एष योऽभिमुखो लङ्कां नदंस्तिष्ठति वानरः।
यूथपानां सहस्राणां शतेन परिवारितः॥ २८॥
सुग्रीवसेनाधिपतिर्नीलो नामाग्निनन्दनः।
एष पर्वतशृङ्गाभः पद्मकिञ्जल्कसन्निभः॥ २९॥
स्फोटयत्यभिसंरब्धो लाङ्गूलं च पुनः पुनः।
युवराजोऽङ्गदो नाम वालिपुत्रोऽतिवीर्यवान्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह वानर जो लंकाकी ओर देखकर बारम्बार गर्ज रहा है और एक लाख यूथपतियोंसे घिरा हुआ है, वानरराज सुग्रीवका सेनापति अग्निनन्दन ‘नील’ है। जो कमल-केशरकी-सी आभावाला तथा पर्वत-शिखरके समान विशालकाय है एवं रोषपूर्वक बारम्बार अपनी पूँछ पटक रहा है, वह अति वीर्यवान् वालिपुत्र युवराज ‘अंगद’ है॥ २८—३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन दृष्टा जनकजा रामस्यातीववल्लभा।
हनूमानेष विख्यातो हतो येन तवात्मजः॥ ३१॥

मूलम्

येन दृष्टा जनकजा रामस्यातीववल्लभा।
हनूमानेष विख्यातो हतो येन तवात्मजः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने रामकी अत्यन्त प्रिया जनक-नन्दिनी सीताको देखा और आपके पुत्रका वध किया, यह वही विख्यात वीर ‘हनुमान्’ है॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतो रजतसङ्काशो महाबुद्धिपराक्रमः।
तूर्णं सुग्रीवमागम्य पुनर्गच्छति वानरः॥ ३२॥
यस्त्वेष सिंहसङ्काशः पश्यत्यतुलविक्रमः।
रम्भो नाम महासत्त्वो लङ्कां नाशयितुं क्षमः॥ ३३॥

मूलम्

श्वेतो रजतसङ्काशो महाबुद्धिपराक्रमः।
तूर्णं सुग्रीवमागम्य पुनर्गच्छति वानरः॥ ३२॥
यस्त्वेष सिंहसङ्काशः पश्यत्यतुलविक्रमः।
रम्भो नाम महासत्त्वो लङ्कां नाशयितुं क्षमः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी कान्ति चाँदीके समान शुक्ल वर्ण है, जो बड़ी शीघ्रतासे सुग्रीवके पास आकर फिर लौट जाता है तथा जो महाबुद्धिमान्, पुरुषार्थी और सिंहके समान अतुलित पराक्रमी वानर इधर देख रहा है वह ‘रम्भ’ है। लंकाको नष्ट करनेमें यह अकेला ही समर्थ है॥ ३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष पश्यति वै लङ्कां दिधक्षन्निव वानरः।
शरभो नाम राजेन्द्र कोटियूथपनायकः॥ ३४॥

मूलम्

एष पश्यति वै लङ्कां दिधक्षन्निव वानरः।
शरभो नाम राजेन्द्र कोटियूथपनायकः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेश्वर! यह दूसरा वानर जो लंकाकी ओर इस प्रकार देखता है मानो जला ही डालेगा, करोड़ यूथपतियोंका नायक ‘शरभ’ है॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पनसश्च महावीर्यो मैन्दश्च द्विविदस्तथा।
नलश्च सेतुकर्तासौ विश्वकर्मसुतो बली॥ ३५॥

मूलम्

पनसश्च महावीर्यो मैन्दश्च द्विविदस्तथा।
नलश्च सेतुकर्तासौ विश्वकर्मसुतो बली॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके अतिरिक्त महापराक्रमी पनस, मैन्द, द्विविद और सेतु बाँधनेवाला विश्वकर्माका पुत्र महाबली नल—ये सब भी प्रधान-प्रधान योद्धा हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वानराणां वर्णने वा सङ्ख्याने वा क ईश्वरः।
शूराः सर्वे महाकायाः सर्वे युद्धाभिकाङ्क्षिणः॥ ३६॥

मूलम्

वानराणां वर्णने वा सङ्ख्याने वा क ईश्वरः।
शूराः सर्वे महाकायाः सर्वे युद्धाभिकाङ्क्षिणः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन वानरोंका वर्णन करने और गिननेकी सामर्थ्य किसमें है। ये सभी बड़े शूरवीर, विशालकाय और युद्धके लिये उत्सुक हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्ताः सर्वे चूर्णयितुं लङ्कां रक्षोगणैः सह।
एतेषां बलसङ्ख्यानं प्रत्येकं वच्मि ते शृणु॥ ३७॥

मूलम्

शक्ताः सर्वे चूर्णयितुं लङ्कां रक्षोगणैः सह।
एतेषां बलसङ्ख्यानं प्रत्येकं वच्मि ते शृणु॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसोंके सहित लंकाको चूर्ण करनेमें ये सभी समर्थ हैं। अब मैं इनमेंसे प्रत्येककी सेनाकी संख्या बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनिये॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषां कोटिसहस्राणि नव पञ्च च सप्त च।
तथा शङ्खसहस्राणि तथार्बुदशतानि च॥ ३८॥

मूलम्

एषां कोटिसहस्राणि नव पञ्च च सप्त च।
तथा शङ्खसहस्राणि तथार्बुदशतानि च॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे प्रत्येकके नीचे इक्कीस हजार करोड़, हजारों शंख और सैकड़ों अरब सेना है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवसचिवानां ते बलमेतत्प्रकीर्तितम्।
अन्येषां तु बलं नाहं वक्तुं शक्तोऽस्मि रावण॥ ३९॥

मूलम्

सुग्रीवसचिवानां ते बलमेतत्प्रकीर्तितम्।
अन्येषां तु बलं नाहं वक्तुं शक्तोऽस्मि रावण॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे रावण! यह तो मैंने सुग्रीवके मन्त्रियोंकी ही सेना बतायी है, उनके अतिरिक्त औरोंकी सेना गिनानेमें तो मैं सर्वथा असमर्थ हूँ॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो न मानुषः साक्षादादिनारायणः परः।
सीता साक्षाज्जगद्धेतुश्चिच्छक्तिर्जगदात्मिका॥ ४०॥

मूलम्

रामो न मानुषः साक्षादादिनारायणः परः।
सीता साक्षाज्जगद्धेतुश्चिच्छक्तिर्जगदात्मिका॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

राम भी कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, वे साक्षात् आदिनारायण परमात्मा हैं और सीताजी जगत् की कारणरूपा साक्षात् जगद्‍रूपिणी चित्-शक्ति हैं॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताभ्यामेव समुत्पन्नं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
तस्माद्‍रामाश्च सीता च जगतस्तस्थुषश्च तौ॥ ४१॥
पितरौ पृथिवीपाल तयोर्वैरी कथं भवेत्।
अजानता त्वयानीता जगन्मातैव जानकी॥ ४२॥

मूलम्

ताभ्यामेव समुत्पन्नं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
तस्माद्‍रामाश्च सीता च जगतस्तस्थुषश्च तौ॥ ४१॥
पितरौ पृथिवीपाल तयोर्वैरी कथं भवेत्।
अजानता त्वयानीता जगन्मातैव जानकी॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनोंसे ही समस्त स्थावर-जंगम संसार उत्पन्न हुआ है, अतः राम और सीता स्थावर-जंगम जगत् के माता-पिता हैं। हे पृथिवीपते! सोचो तो उनका वैरी कोई कैसे हो सकता है? आप जिस जानकीको अनजानमें ले आये हैं, वे साक्षात् जगन्माता ही हैं॥ ४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणनाशिनि संसारे शरीरे क्षणभङ्गुरे।
पञ्चभूतात्मके राजंश्चतुर्विंशतितत्त्वके॥ ४३॥
मलमांसास्थिदुर्गन्धभूयिष्ठेऽहङ्कृतालये।
कैवास्था व्यतिरिक्तस्य काये तव जडात्मके॥ ४४॥

मूलम्

क्षणनाशिनि संसारे शरीरे क्षणभङ्गुरे।
पञ्चभूतात्मके राजंश्चतुर्विंशतितत्त्वके॥ ४३॥
मलमांसास्थिदुर्गन्धभूयिष्ठेऽहङ्कृतालये।
कैवास्था व्यतिरिक्तस्य काये तव जडात्मके॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले संसारमें चौबीस तत्त्वोंके* समूहरूप इस क्षणभंगुर पांचभौतिक शरीरमें जिसमें मल, मांस, अस्थि आदि दुर्गन्धयुक्त पदार्थोंकी ही अधिकता है और जो अहंकारका आश्रयस्थान तथा जडरूप है आप क्या आस्था करते हैं? आप तो इससे सर्वथा पृथक् हैं॥ ४३-४४॥

पादटिप्पनी
  • प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पंचभूत और शब्द-स्पर्श आदि उनके पाँच विषय-ये सब मिलकर चौबीस तत्त्व कहलाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्कृते ब्रह्महत्यादिपातकानि कृतानि ते।
भोगभोक्ता तु यो देहः स देहोऽत्र पतिष्यति॥ ४५॥

मूलम्

यत्कृते ब्रह्महत्यादिपातकानि कृतानि ते।
भोगभोक्ता तु यो देहः स देहोऽत्र पतिष्यति॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाय! जिस शरीरके लिये आपने ब्रह्महत्यादि अनेकों पाप किये हैं, सम्पूर्ण भोगोंका भोक्ता वह शरीर तो यहीं पड़ा रह जायगा!॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यपापे समायातो जीवेन सुखदुःखयोः।
कारणे देहयोगादिनात्मनः कुरुतोऽनिशम्॥ ४६॥

मूलम्

पुण्यपापे समायातो जीवेन सुखदुःखयोः।
कारणे देहयोगादिनात्मनः कुरुतोऽनिशम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुख-दुःखके कारणरूप (पूर्व-जन्मकृत) पाप-पुण्य जीवके साथ ही जाते हैं और वे ही देह-सम्बन्ध आदिके द्वारा जीवको अहर्निश सुख-दुःखकी प्राप्ति कराते हैं॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद्देहोऽस्मि कर्तास्मीत्यात्माहंकुरुतेऽवशः।
अध्यासात्तावदेव स्याज्जन्मनाशादिसम्भवः॥ ४७॥

मूलम्

यावद्देहोऽस्मि कर्तास्मीत्यात्माहंकुरुतेऽवशः।
अध्यासात्तावदेव स्याज्जन्मनाशादिसम्भवः॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक अज्ञानजन्य अध्यासके कारण जीव ‘मैं देह हूँ, मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अभिमान करता है तभीतक उसे विवश होकर जन्म-मृत्यु आदि भोगने पड़ते हैं॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्त्वं त्यज देहादावभिमानं महामते।
आत्मातिनिर्मलः शुद्धो विज्ञानात्माचलोऽव्ययः॥ ४८॥

मूलम्

तस्मात्त्वं त्यज देहादावभिमानं महामते।
आत्मातिनिर्मलः शुद्धो विज्ञानात्माचलोऽव्ययः॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे महामते! आप देह आदिमें अभिमान छोड़िये। आत्मा तो अत्यन्त निर्मल, शुद्ध-स्वरूप, विज्ञानमय, अविचल और अविकारी है॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाज्ञानवशतो बन्धं प्रतिपद्य विमुह्यति।
तस्मात्त्वं शुद्धभावेन ज्ञात्वात्मानं सदा स्मर॥ ४९॥

मूलम्

स्वाज्ञानवशतो बन्धं प्रतिपद्य विमुह्यति।
तस्मात्त्वं शुद्धभावेन ज्ञात्वात्मानं सदा स्मर॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने अज्ञानके कारण ही वह बन्धनमें पड़कर मोहको प्राप्त होता है। अतः आप आत्माको शुद्ध भावसे जानकर नित्य उसीका स्मरण कीजिये॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरतिं भज सर्वत्र पुत्रदारगृहादिषु।
निरयेष्वपि भोगः स्याच्छ्वशूकरतनावपि॥ ५०॥

मूलम्

विरतिं भज सर्वत्र पुत्रदारगृहादिषु।
निरयेष्वपि भोगः स्याच्छ्वशूकरतनावपि॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र, स्त्री और गृह आदि सभीसे उपराम हो जाइये, क्योंकि भोग तो कुत्ते और शूकरादिकी योनिमें तथा नरकादिमें भी मिल सकते हैं॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहं लब्ध्वा विवेकाढ्यं द्विजत्वं च विशेषतः।
तत्रापि भारते वर्षे कर्मभूमौ सुदुर्लभम्॥ ५१॥
को विद्वानात्मसात्कृत्वा देहं भोगानुगो भवेत्।

मूलम्

देहं लब्ध्वा विवेकाढ्यं द्विजत्वं च विशेषतः।
तत्रापि भारते वर्षे कर्मभूमौ सुदुर्लभम्॥ ५१॥
को विद्वानात्मसात्कृत्वा देहं भोगानुगो भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

सदसद्-विवेक-बुद्धिसे युक्त मनुष्य-शरीर पाकर, उसमें भी विशेषतः द्विजत्व पाकर और अति दुर्लभ कर्मभूमि भारतवर्षमें जन्म ग्रहण कर, ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो देहमें आत्मबुद्धि कर भोगोंका सेवन करेगा?॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्त्वं ब्राह्मणो भूत्वा पौलस्त्यतनयश्च सन्॥ ५२॥
अज्ञानीव सदा भोगाननुधावसि किं मुधा।
इतः परं वा त्यक्त्वा त्वं सर्वसङ्गं समाश्रय॥ ५३॥
राममेव परात्मानं भक्तिभावेन सर्वदा।
सीतां समर्प्य रामाय तत्पादानुचरो भव॥ ५४॥

मूलम्

अतस्त्वं ब्राह्मणो भूत्वा पौलस्त्यतनयश्च सन्॥ ५२॥
अज्ञानीव सदा भोगाननुधावसि किं मुधा।
इतः परं वा त्यक्त्वा त्वं सर्वसङ्गं समाश्रय॥ ५३॥
राममेव परात्मानं भक्तिभावेन सर्वदा।
सीतां समर्प्य रामाय तत्पादानुचरो भव॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अतः आप ब्राह्मण-शरीर और सो भी पुलस्त्यनन्दन विश्रवाके पुत्र होकर अज्ञानीके समान सदा ही इन भोगोंकी ओर व्यर्थ क्यों दौड़ते हैं? आजसे आप सब प्रकारका संग छोड़कर अति भक्तिभावसे सदा परमात्मा रामका ही आश्रय लीजिये और सीताजीको भगवान् रामके अर्पण कर उनके चरणकमलोंकी सेवा कीजिये॥ ५२—५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तः सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं प्रयास्यसि।
नो चेद्‍गमिष्यसेऽधोऽधः पुनरावृत्तिवर्जितः।
अङ्गीकुरुष्व मद्वाक्यं हितमेव वदामि ते॥ ५५॥

मूलम्

विमुक्तः सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं प्रयास्यसि।
नो चेद्‍गमिष्यसेऽधोऽधः पुनरावृत्तिवर्जितः।
अङ्गीकुरुष्व मद्वाक्यं हितमेव वदामि ते॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आप ऐसा करेंगे तो सब पापोंसे छूटकर विष्णुलोक प्राप्त करेंगे, नहीं तो पुनः ऊपर लौटनेसे वंचित रहकर उत्तरोत्तर नीचेके लोकोंमें ही जाते रहेंगे। मैं आपके हितकी ही बात कहता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्सङ्गतिं कुरु भजस्व हरिं शरण्यं
श्रीराघवं मरकतोपलकान्तिकान्तम्।
सीतासमेतमनिशं धृतचापबाणं
सुग्रीवलक्ष्मणविभीषणसेविताङ्घ्रिम्॥ ५६॥

मूलम्

सत्सङ्गतिं कुरु भजस्व हरिं शरण्यं
श्रीराघवं मरकतोपलकान्तिकान्तम्।
सीतासमेतमनिशं धृतचापबाणं
सुग्रीवलक्ष्मणविभीषणसेविताङ्घ्रिम्॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! आप अहर्निश सत्संग कीजिये और जिनके शरीरकी कान्ति मरकतमणिके समान है तथा सुग्रीव, लक्ष्मण और विभीषण जिनके चरणकमलोंकी सेवा कर रहे हैं, उन शरणागतवत्सल, धनुर्बाणधारी श्रीरघुनाथजीका सीताजीके सहित भजन कीजिये’’॥ ५६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥