[तृतीय सर्ग]
भागसूचना
विभीषणकी शरणागति, समुद्र-निग्रह तथा सेतु-बन्धका आरम्भ
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणो महाभागश्चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सह।
आगत्य गगने रामसम्मुखे समवस्थितः॥ १॥
मूलम्
विभीषणो महाभागश्चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सह।
आगत्य गगने रामसम्मुखे समवस्थितः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! तदनन्तर महाभाग विभीषण अपने चार मन्त्रियोंके साथ आकर आकाशमें श्रीरघुनाथजीके सामने उपस्थित हुए॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चैरुवाच भोः स्वामिन् राम राजीवलोचन।
रावणस्यानुजोऽहं ते दारहर्तुर्विभीषणः॥ २॥
नाम्ना भ्रात्रा निरस्तोऽहं त्वामेव शरणं गतः।
हितमुक्तं मया देव तस्य चाविदितात्मनः॥ ३॥
मूलम्
उच्चैरुवाच भोः स्वामिन् राम राजीवलोचन।
रावणस्यानुजोऽहं ते दारहर्तुर्विभीषणः॥ २॥
नाम्ना भ्रात्रा निरस्तोऽहं त्वामेव शरणं गतः।
हितमुक्तं मया देव तस्य चाविदितात्मनः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और ऊँचे स्वरसे कहने लगे—‘‘हे कमलनयन प्रभो राम! मैं आपकी भार्याका हरण करनेवाले रावणका छोटा भाई हूँ। मेरा नाम विभीषण है। मुझे भाईने निकाल दिया है, इसलिये मैं आपकी शरणमें आया हूँ। हे देव! मैंने उस अज्ञानीके हितकी बात कही थी॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतां रामाय वैदेहीं प्रेषयेति पुनः पुनः।
उक्तोऽपि न शृणोत्येव कालपाशवशं गतः॥ ४॥
मूलम्
सीतां रामाय वैदेहीं प्रेषयेति पुनः पुनः।
उक्तोऽपि न शृणोत्येव कालपाशवशं गतः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे बार-बार कहा है कि ‘तुम विदेहनन्दिनी सीताको रामके पास भेज दो,’ तथापि कालके वशीभूत होनेके कारण वह कुछ सुनता ही नहीं है॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्तुं मां खड्गमादाय प्राद्रवद्राक्षसाधमः।
ततोऽचिरेण सचिवैश्चतुर्भिः सहितो भयात्॥ ५॥
त्वामेव भवमोक्षाय मुमुक्षुः शरणं गतः।
विभीषणवचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत्॥ ६॥
मूलम्
हन्तुं मां खड्गमादाय प्राद्रवद्राक्षसाधमः।
ततोऽचिरेण सचिवैश्चतुर्भिः सहितो भयात्॥ ५॥
त्वामेव भवमोक्षाय मुमुक्षुः शरणं गतः।
विभीषणवचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय वह राक्षसाधम मुझे तलवारसे मारनेके लिये दौड़ा; तब मैं भयसे तुरंत ही अपने चार मन्त्रियोंके सहित संसार-पाशसे मुक्त होनेके लिये मुमुक्षु होकर आपकी ही शरणमें चला आया हूँ’’। विभीषणके ये वचन सुनकर सुग्रीवने कहा—॥ ५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वासार्हो न ते राम मायावी राक्षसाधमः।
सीताहर्तुर्विशेषेण रावणस्यानुजो बली॥ ७॥
मूलम्
विश्वासार्हो न ते राम मायावी राक्षसाधमः।
सीताहर्तुर्विशेषेण रावणस्यानुजो बली॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे राम! इस मायावी राक्षसाधमका कुछ विश्वास न करना चाहिये। (यदि कोई और होता तब कोई विशेष चिन्ताकी बात भी नहीं थी; किन्तु) यह तो सीताका हरण करनेवाले रावणका ही छोटा भाई है और वैसे भी बहुत बलवान् दिखायी देता है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रिभिः सायुधैरस्मान् विवरे निहनिष्यति।
तदाज्ञापय मे देव वानरैर्हन्यतामयम्॥ ८॥
मूलम्
मन्त्रिभिः सायुधैरस्मान् विवरे निहनिष्यति।
तदाज्ञापय मे देव वानरैर्हन्यतामयम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अपने सशस्त्र मन्त्रियोंके साथ किसी समय एकान्तमें हमें मार डालेगा। अतः हे प्रभो! मुझे आज्ञा दीजिये मैं इसे वानरोंसे मरवा डालूँ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममैवं भाति ते राम बुद्ध्या किं निश्चितं वद।
श्रुत्वा सुग्रीववचनं रामः सस्मितमब्रवीत्॥ ९॥
मूलम्
ममैवं भाति ते राम बुद्ध्या किं निश्चितं वद।
श्रुत्वा सुग्रीववचनं रामः सस्मितमब्रवीत्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! मुझे तो ऐसा ही जँचता है, आपका इस विषयमें क्या निश्चय है, सो कहिये।’ सुग्रीवके वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने मुसकराकर कहा—॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीच्छामि कपिश्रेष्ठ लोकान् सर्वान् सहेश्वरान्।
निमिषार्धेन संहन्यां सृजामि निमिषार्धतः॥ १०॥
अतो मयाभयं दत्तं शीघ्रमानय राक्षसम्॥ ११॥
मूलम्
यदीच्छामि कपिश्रेष्ठ लोकान् सर्वान् सहेश्वरान्।
निमिषार्धेन संहन्यां सृजामि निमिषार्धतः॥ १०॥
अतो मयाभयं दत्तं शीघ्रमानय राक्षसम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे कपिश्रेष्ठ! यदि मेरी इच्छा हो तो मैं आधे निमेषमें ही लोकपालोंके सहित सम्पूर्ण लोकोंको नष्ट कर सकता हूँ और आधे निमेषमें ही सबको रच सकता हूँ, अतः (तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो) मैं इस राक्षसको अभयदान देता हूँ, तुम इसे शीघ्र ही ले आओ॥ १०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥ १२॥
मूलम्
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा यह नियम है कि जो एक बार भी मेरी शरण आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे अभय माँगता है, उसे मैं समस्त प्राणियोंसे निर्भय कर देता हूँ’’॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्य वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो हृष्टमानसः।
विभीषणमथानाय्य दर्शयामास राघवम्॥ १३॥
मूलम्
रामस्य वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो हृष्टमानसः।
विभीषणमथानाय्य दर्शयामास राघवम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामके ये वचन सुनकर सुग्रीवने अति प्रसन्नचित्तसे विभीषणको लाकर रघुनाथजीसे मिलाया॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणस्तु साष्टाङ्गं प्रणिपत्य रघूत्तमम्।
हर्षगद्गदया वाचा भक्त्या च परयान्वितः॥ १४॥
रामं श्यामं विशालाक्षं प्रसन्नमुखपङ्कजम्।
धनुर्बाणधरं शान्तं लक्ष्मणेन समन्वितम्॥ १५॥
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा स्तोतुं समुपचक्रमे॥ १६॥
मूलम्
विभीषणस्तु साष्टाङ्गं प्रणिपत्य रघूत्तमम्।
हर्षगद्गदया वाचा भक्त्या च परयान्वितः॥ १४॥
रामं श्यामं विशालाक्षं प्रसन्नमुखपङ्कजम्।
धनुर्बाणधरं शान्तं लक्ष्मणेन समन्वितम्॥ १५॥
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा स्तोतुं समुपचक्रमे॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषणने रघुनाथजीको साष्टांग प्रणाम किया और हर्षसे गद्गदकण्ठ हो परम भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर शान्तमूर्ति प्रसन्नवदनारविन्द विशालनयन श्यामसुन्दर धनुर्बाणधारी भगवान् रामकी लक्ष्मणजीके सहित स्तुति करनी आरम्भ की॥ १४—१६॥
मूलम् (वचनम्)
विभीषण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते राम राजेन्द्र नमः सीतामनोरम।
नमस्ते चण्डकोदण्ड नमस्ते भक्तवत्सल॥ १७॥
मूलम्
नमस्ते राम राजेन्द्र नमः सीतामनोरम।
नमस्ते चण्डकोदण्ड नमस्ते भक्तवत्सल॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषण बोले—‘हे राजराजेश्वर राम! आपको नमस्कार है। हे सीताके मनमें रमण करनेवाले! आपको नमस्कार है। हे प्रचण्डधनुर्धर! आपको नमस्कार है। हे भक्तवत्सल! आपको बारम्बार नमस्कार है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽनन्ताय शान्ताय रामायामिततेजसे।
सुग्रीवमित्राय च ते रघूणां पतये नमः॥ १८॥
मूलम्
नमोऽनन्ताय शान्ताय रामायामिततेजसे।
सुग्रीवमित्राय च ते रघूणां पतये नमः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अनन्त, शान्त, अतुलतेजोमय, सुग्रीवसखा रघुकुलनायक भगवान् राम! आपको नमस्कार है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगदुत्पत्तिनाशानां कारणाय महात्मने।
त्रैलोक्यगुरवेऽनादिगृहस्थाय नमो नमः॥ १९॥
मूलम्
जगदुत्पत्तिनाशानां कारणाय महात्मने।
त्रैलोक्यगुरवेऽनादिगृहस्थाय नमो नमः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो संसारकी उत्पत्ति और नाशके कारण हैं, त्रिलोकीके गुरु और अनादिकालीन गृहस्थ* हैं, उन महात्मा रामको बारम्बार नमस्कार है॥ १९॥
पादटिप्पनी
- प्रकृतिरूपा पत्नीके साथ भगवान् का अनादि सम्बन्ध है, इसलिये वे अनादि गृहस्थ हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमादिर्जगतां राम त्वमेव स्थितिकारणम्।
त्वमन्ते निधनस्थानं स्वेच्छाचारस्त्वमेव हि॥ २०॥
मूलम्
त्वमादिर्जगतां राम त्वमेव स्थितिकारणम्।
त्वमन्ते निधनस्थानं स्वेच्छाचारस्त्वमेव हि॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप संसारकी उत्पत्ति और स्थितिके कारण हैं तथा अन्तमें आप ही उसके लयस्थान हैं; आप अपने इच्छानुसार विहार करनेवाले हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चराचराणां भूतानां बहिरन्तश्च राघव।
व्याप्यव्यापकरूपेण भवान् भाति जगन्मयः॥ २१॥
मूलम्
चराचराणां भूतानां बहिरन्तश्च राघव।
व्याप्यव्यापकरूपेण भवान् भाति जगन्मयः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राघव! चराचर भूतोंके भीतर और बाहर व्याप्य-व्यापकरूपसे आप विश्वरूप ही भास रहे हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मायया हृतज्ञाना नष्टात्मानो विचेतसः।
गतागतं प्रपद्यन्ते पापपुण्यवशात्सदा॥ २२॥
मूलम्
त्वन्मायया हृतज्ञाना नष्टात्मानो विचेतसः।
गतागतं प्रपद्यन्ते पापपुण्यवशात्सदा॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी मायाने जिनका सदसद्विवेक हर लिया है, वे नष्ट-बुद्धि मूढ़ पुरुष अपने पाप-पुण्यके वशीभूत होकर संसारमें बारम्बार आते-जाते रहते हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावत्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा।
यावन्न ज्ञायते ज्ञानं चेतसानन्यगामिना॥ २३॥
मूलम्
तावत्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा।
यावन्न ज्ञायते ज्ञानं चेतसानन्यगामिना॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक मनुष्य एकाग्रचित्तसे आपके ज्ञानस्वरूपको नहीं जानता तभीतक सीपीमें चाँदीके समान यह संसार सत्य प्रतीत होता है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदज्ञानात्सदा युक्ताः पुत्रदारगृहादिषु।
रमन्ते विषयान् सर्वानन्ते दुःखप्रदान् विभो॥ २४॥
मूलम्
त्वदज्ञानात्सदा युक्ताः पुत्रदारगृहादिषु।
रमन्ते विषयान् सर्वानन्ते दुःखप्रदान् विभो॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विभो! आपको न जाननेसे ही लोग पुत्र, स्त्री और गृह आदिमें आसक्त होकर अन्तमें दुःख देनेवाले विषयोंमें सुख मानते हैं॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमिन्द्रोऽग्निर्यमो रक्षो वरुणश्च तथानिलः।
कुबेरश्च तथा रुद्रस्त्वमेव पुरुषोत्तम॥ २५॥
मूलम्
त्वमिन्द्रोऽग्निर्यमो रक्षो वरुणश्च तथानिलः।
कुबेरश्च तथा रुद्रस्त्वमेव पुरुषोत्तम॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पुरुषोत्तम! आप ही इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण और वायु हैं तथा आप ही कुबेर और रुद्र हैं॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमणोरप्यणीयांश्च स्थूलात् स्थूलतरः प्रभो।
त्वं पिता सर्वलोकानां माता धाता त्वमेव हि॥ २६॥
मूलम्
त्वमणोरप्यणीयांश्च स्थूलात् स्थूलतरः प्रभो।
त्वं पिता सर्वलोकानां माता धाता त्वमेव हि॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आप अणु-से-अणु और महान्-से-महान् हैं तथा आप ही समस्त लोकोंके पिता, माता और धाता (धारण-पोषण करनेवाले) हैं॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिमध्यान्तरहितः परिपूर्णोऽच्युतोऽव्ययः।
त्वं पाणिपादरहितश्चक्षुःश्रोत्रविवर्जितः॥ २७॥
मूलम्
आदिमध्यान्तरहितः परिपूर्णोऽच्युतोऽव्ययः।
त्वं पाणिपादरहितश्चक्षुःश्रोत्रविवर्जितः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित सर्वत्र परिपूर्ण अच्युत और अविनाशी हैं। आप हाथ-पाँवसे रहित तथा नेत्र और कर्णहीन हैं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोता द्रष्टा ग्रहीता च जवनस्त्वं खरान्तक।
कोशेभ्यो व्यतिरिक्तस्त्वं निर्गुणो निरुपाश्रयः॥ २८॥
मूलम्
श्रोता द्रष्टा ग्रहीता च जवनस्त्वं खरान्तक।
कोशेभ्यो व्यतिरिक्तस्त्वं निर्गुणो निरुपाश्रयः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथापि हे खरान्तक! आप सब कुछ देखनेवाले, सब कुछ सुननेवाले, सब कुछ ग्रहण करनेवाले और बड़े वेगवान् हैं। हे प्रभो! आप अन्नमय आदि पाँचों कोशोंसे रहित तथा निर्गुण और निराश्रय हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्विकल्पो निर्विकारो निराकारो निरीश्वरः।
षड्भावरहितोऽनादिः पुरुषः प्रकृतेः परः॥ २९॥
मूलम्
निर्विकल्पो निर्विकारो निराकारो निरीश्वरः।
षड्भावरहितोऽनादिः पुरुषः प्रकृतेः परः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप निर्विकल्प, निर्विकार और निराकार हैं, आपका कोई प्रेरक नहीं है, आप (उत्पत्ति, वृद्धि, परिणाम, क्षय, जीर्णता और नाश—इन) छः भाव-विकारोंसे रहित हैं तथा प्रकृतिसे अतीत अनादि पुरुष हैं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायया गृह्यमाणस्त्वं मनुष्य इव भाव्यसे।
ज्ञात्वा त्वां निर्गुणमजं वैष्णवा मोक्षगामिनः॥ ३०॥
मूलम्
मायया गृह्यमाणस्त्वं मनुष्य इव भाव्यसे।
ज्ञात्वा त्वां निर्गुणमजं वैष्णवा मोक्षगामिनः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायाके कारण ही आप साधारण मनुष्यके समान प्रतीत होते हैं, वैष्णवजन आपको निर्गुण और अजन्मा जानकर मोक्ष प्राप्त करते हैं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं त्वत्पादसद्भक्तिनिःश्रेणीं प्राप्य राघव।
इच्छामि ज्ञानयोगाख्यं सौधमारोढुमीश्वर॥ ३१॥
मूलम्
अहं त्वत्पादसद्भक्तिनिःश्रेणीं प्राप्य राघव।
इच्छामि ज्ञानयोगाख्यं सौधमारोढुमीश्वर॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राघव! हे प्रभो! मैं आपके चरण-कमलकी विशुद्ध भक्तिरूप सीढ़ी पाकर ज्ञानयोग नामक राजभवनके शिखरपर चढ़ना चाहता हूँ॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः सीतापते राम नमः कारुणिकोत्तम।
रावणारे नमस्तुभ्यं त्राहि मां भवसागरात्॥ ३२॥
मूलम्
नमः सीतापते राम नमः कारुणिकोत्तम।
रावणारे नमस्तुभ्यं त्राहि मां भवसागरात्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कारुणिकश्रेष्ठ सीतापते राम! आपको नमस्कार है; हे रावणारे! आपको बारम्बार नमस्कार है; आप इस संसार-सागरसे मेरी रक्षा कीजिये’’॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रसन्नः प्रोवाच श्रीरामो भक्तवत्सलः।
वरं वृणीष्व भद्रं ते वाञ्छितं वरदोऽस्म्यहम्॥ ३३॥
मूलम्
ततः प्रसन्नः प्रोवाच श्रीरामो भक्तवत्सलः।
वरं वृणीष्व भद्रं ते वाञ्छितं वरदोऽस्म्यहम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भक्तवत्सल भगवान् रामने प्रसन्न होकर कहा—‘‘विभीषण! तेरा कल्याण हो, मैं तुझे वर देना चाहता हूँ; अतः तेरी जो इच्छा हो वही वर माँग ले’’॥ ३३॥
मूलम् (वचनम्)
विभीषण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि कृतकार्योऽस्मि राघव।
त्वत्पाददर्शनादेव विमुक्तोऽस्मि न संशयः॥ ३४॥
मूलम्
धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि कृतकार्योऽस्मि राघव।
त्वत्पाददर्शनादेव विमुक्तोऽस्मि न संशयः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषण बोले—‘‘हे रघुनन्दन! मैं तो आपके चरणोंका दर्शन पाकर ही धन्य और कृतकृत्य हो गया; मुझे जो कुछ पाना था वह मिल गया। अब तो मैं निस्सन्देह मुक्त हो गया॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति मत्सदृशो धन्यो नास्ति मत्सदृशः शुचिः।
नास्ति मत्सदृशो लोके राम त्वन्मूर्तिदर्शनात्॥ ३५॥
मूलम्
नास्ति मत्सदृशो धन्यो नास्ति मत्सदृशः शुचिः।
नास्ति मत्सदृशो लोके राम त्वन्मूर्तिदर्शनात्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आपकी मनोहर मूर्तिका दर्शन करनेसे आज मेरे समान कोई धन्य और पवित्र नहीं है, अब इस संसारमें (किसी भी प्रकार) मेरी समता करनेवाला कोई नहीं है॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मबन्धविनाशाय त्वज्ज्ञानं भक्तिलक्षणम्।
त्वद्ध्यानं परमार्थं च देहि मे रघुनन्दन॥ ३६॥
मूलम्
कर्मबन्धविनाशाय त्वज्ज्ञानं भक्तिलक्षणम्।
त्वद्ध्यानं परमार्थं च देहि मे रघुनन्दन॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनन्दन! कर्म-बन्धनको नष्ट करनेके लिये आप मुझे अपनी भक्तिसे प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अपने परमार्थ-स्वरूपका साक्षात् करानेवाला ध्यान दीजिये॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न याचे राम राजेन्द्र सुखं विषयसम्भवम्।
त्वत्पादकमले सक्ता भक्तिरेव सदास्तु मे॥ ३७॥
मूलम्
न याचे राम राजेन्द्र सुखं विषयसम्भवम्।
त्वत्पादकमले सक्ता भक्तिरेव सदास्तु मे॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजराजेश्वर राम! मुझे विषयजन्य सुखकी इच्छा नहीं है; मैं तो यही चाहता हूँ कि आपके चरण-कमलोंमें सर्वदा मेरी आसक्तिरूपा भक्ति बनी रहे’’॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओमित्युक्त्वा पुनः प्रीतो रामः प्रोवाच राक्षसम्।
शृणु वक्ष्यामि ते भद्रं रहस्यं मम निश्चितम्॥ ३८॥
मूलम्
ओमित्युक्त्वा पुनः प्रीतो रामः प्रोवाच राक्षसम्।
शृणु वक्ष्यामि ते भद्रं रहस्यं मम निश्चितम्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रघुनाथजीने ‘तथास्तु’ कहकर विभीषणसे प्रसन्न होकर कहा—‘‘भद्र! सुनो, मैं तुम्हें अपना निश्चित रहस्य सुनाता हूँ॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्तानां प्रशान्तानां योगिनां वीतरागिणाम्।
हृदये सीतया नित्यं वसाम्यत्र न संशयः॥ ३९॥
मूलम्
मद्भक्तानां प्रशान्तानां योगिनां वीतरागिणाम्।
हृदये सीतया नित्यं वसाम्यत्र न संशयः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मेरे शान्तस्वभाव, विरक्त और योगनिष्ठ भक्त हैं, उनके हृदयमें मैं सीताजीके सहित सदा रहता हूँ—इसमें सन्देह नहीं॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्त्वं सर्वदा शान्तः सर्वकल्मषवर्जितः।
मां ध्यात्वा मोक्ष्यसे नित्यं घोरसंसारसागरात्॥ ४०॥
मूलम्
तस्मात्त्वं सर्वदा शान्तः सर्वकल्मषवर्जितः।
मां ध्यात्वा मोक्ष्यसे नित्यं घोरसंसारसागरात्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम सर्वदा शान्त और पापरहित रहकर मेरा ध्यान करनेसे घोर संसार-सागरसे पार हो जाओगे॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु लिखेद्यः शृणुयादपि।
मत्प्रीतये ममाभीष्टं सारूप्यं समवाप्नुयात्॥ ४१॥
मूलम्
स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु लिखेद्यः शृणुयादपि।
मत्प्रीतये ममाभीष्टं सारूप्यं समवाप्नुयात्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मुझे प्रसन्न करनेके लिये इस स्तोत्रको पढ़ता, लिखता अथवा सुनता है वह मेरा प्रिय सारूप्यपद प्राप्त करता है’’॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं प्राह श्रीरामो भक्तभक्तिमान्।
पश्यत्विदानीमेवैष मम सन्दर्शने फलम्॥ ४२॥
मूलम्
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं प्राह श्रीरामो भक्तभक्तिमान्।
पश्यत्विदानीमेवैष मम सन्दर्शने फलम्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषणसे ऐसा कह भक्तवत्सल श्रीरामने लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘लक्ष्मण! यह अभी मेरे दर्शनका फल देखे॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लङ्काराज्येऽभिषेक्ष्यामि जलमानय सागरात्।
यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत्तिष्ठति मेदिनी॥ ४३॥
यावन्मम कथा लोके तावद्राज्यं करोत्वसौ।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणेनाम्बु ह्यानाय्य कलशेन तम्॥ ४४॥
लङ्काराज्याधिपत्यार्थमभिषेकं रमापतिः।
कारयामास सचिवैर्लक्ष्मणेन विशेषतः॥ ४५॥
मूलम्
लङ्काराज्येऽभिषेक्ष्यामि जलमानय सागरात्।
यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत्तिष्ठति मेदिनी॥ ४३॥
यावन्मम कथा लोके तावद्राज्यं करोत्वसौ।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणेनाम्बु ह्यानाय्य कलशेन तम्॥ ४४॥
लङ्काराज्याधिपत्यार्थमभिषेकं रमापतिः।
कारयामास सचिवैर्लक्ष्मणेन विशेषतः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम समुद्रसे जल ले आओ; मैं इसे लंकाके राज्यपर अभिषिक्त किये देता हूँ। जबतक चन्द्र-सूर्य और पृथ्वीकी स्थिति है तथा जबतक लोकमें मेरी कथा रहेगी तबतक यह लंकाका राज्य करेगा’’। ऐसा कह श्रीरमापतिने लक्ष्मणजीसे कलशमें जल मँगवाया और मन्त्रियों तथा विशेषतः लक्ष्मणजीसे उसे लंकाके राज्यपदपर अभिषिक्त कराया॥ ४३—४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु साध्विति ते सर्वे वानरास्तुष्टुवुर्भृशम्।
सुग्रीवोऽपि परिष्वज्य विभीषणमथाब्रवीत्॥ ४६॥
मूलम्
साधु साध्विति ते सर्वे वानरास्तुष्टुवुर्भृशम्।
सुग्रीवोऽपि परिष्वज्य विभीषणमथाब्रवीत्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय समस्त वानर प्रसन्न होकर ‘धन्य है, धन्य है’ ऐसा कहने लगे; और सुग्रीवने विभीषणको गले लगाकर कहा—॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषण वयं सर्वे रामस्य परमात्मनः।
किङ्करास्तत्र मुख्यस्त्वं भक्त्या रामपरिग्रहात्।
रावणस्य विनाशे त्वं साहाय्यं कर्तुमर्हसि॥ ४७॥
मूलम्
विभीषण वयं सर्वे रामस्य परमात्मनः।
किङ्करास्तत्र मुख्यस्त्वं भक्त्या रामपरिग्रहात्।
रावणस्य विनाशे त्वं साहाय्यं कर्तुमर्हसि॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘विभीषण! हम सब परमात्मा रामके दास हैं, तथापि तुम हम सबमें प्रधान हो; क्योंकि तुमने केवल भक्तिसे ही उनकी शरण ली है। अब तुम्हें रावणका नाश करानेमें हमारी सहायता करनी चाहिये’’॥ ४७॥
मूलम् (वचनम्)
विभीषण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं कियान्सहायत्वे रामस्य परमात्मनः।
किं तु दास्यं करिष्येऽहं भक्त्या शक्त्या ह्यमायया॥ ४८॥
मूलम्
अहं कियान्सहायत्वे रामस्य परमात्मनः।
किं तु दास्यं करिष्येऽहं भक्त्या शक्त्या ह्यमायया॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषण बोले—मैं परमात्मा रामकी क्या सहायता कर सकता हूँ, तथापि मुझसे जैसी कुछ बनेगी निष्कपट होकर भक्तिभावसे उनकी सेवा करता रहूँगा॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशग्रीवेण सन्दिष्टः शुको नाम महासुरः।
संस्थितो ह्यम्बरे वाक्यं सुग्रीवमिदमब्रवीत्॥ ४९॥
मूलम्
दशग्रीवेण सन्दिष्टः शुको नाम महासुरः।
संस्थितो ह्यम्बरे वाक्यं सुग्रीवमिदमब्रवीत्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय रावणका भेजा हुआ शुक नामका महादैत्य आकाशमें स्थित होकर सुग्रीवसे इस प्रकार बोला—॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामाह रावणो राजा भ्रातरं राक्षसाधिपः।
महाकुलप्रसूतस्त्वं राजासि वनचारिणाम्॥ ५०॥
मूलम्
त्वामाह रावणो राजा भ्रातरं राक्षसाधिपः।
महाकुलप्रसूतस्त्वं राजासि वनचारिणाम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राक्षसराज रावण तुम्हें अपने भाईके समान मानते हैं, उन्होंने तुम्हारे लिये कहा है कि तुम बड़े कुलमें उत्पन्न हुए हो और वानरोंके राजा हो॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम भ्रातृसमानस्त्वं तव नास्त्यर्थविप्लवः।
अहं यदहरं भार्यां राजपुत्रस्य किं तव॥ ५१॥
मूलम्
मम भ्रातृसमानस्त्वं तव नास्त्यर्थविप्लवः।
अहं यदहरं भार्यां राजपुत्रस्य किं तव॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मेरे भाईके समान हो और तुम्हारा कोई स्वार्थघात भी नहीं हुआ है। यदि मैंने किसी राजकुमारकी स्त्रीको हर ही लिया तो उससे तुम्हें क्या?॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किष्किन्धां याहि हरिभिर्लङ्का शक्या न दैवतैः।
प्राप्तुं किं मानवैरल्पसत्त्वैर्वानरयूथपैः॥ ५२॥
मूलम्
किष्किन्धां याहि हरिभिर्लङ्का शक्या न दैवतैः।
प्राप्तुं किं मानवैरल्पसत्त्वैर्वानरयूथपैः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम अपने वानरोंके सहित किष्किन्धाको लौट जाओ। लंकाको पाना तो देवताओंके लिये भी कठिन है, फिर अल्पशक्ति मनुष्य और वानरयूथपोंकी तो बात ही क्या है?’’॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रापयन्तं वचनं तूर्णमुत्प्लुत्य वानराः।
प्रापद्यन्त तदा क्षिप्रं निहन्तुं दृढमुष्टिभिः॥ ५३॥
मूलम्
तं प्रापयन्तं वचनं तूर्णमुत्प्लुत्य वानराः।
प्रापद्यन्त तदा क्षिप्रं निहन्तुं दृढमुष्टिभिः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय शुक इस प्रकार सन्देश सुना रहा था, वानरोंने अपने सुदृढ़ घूँसोंसे मारनेके लिये उसे तुरंत ही उछलकर पकड़ लिया॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानरैर्हन्यमानस्तु शुको राममथाब्रवीत्।
न दूतान् घ्नन्ति राजेन्द्र वानरान् वारय प्रभो॥ ५४॥
मूलम्
वानरैर्हन्यमानस्तु शुको राममथाब्रवीत्।
न दूतान् घ्नन्ति राजेन्द्र वानरान् वारय प्रभो॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरोंके मारनेपर शुकने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—‘‘हे राजेन्द्र! (विज्ञजन) दूतको मारा नहीं करते, अतः हे प्रभो! इन वानरोंको रोकिये’’॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः श्रुत्वा तदा वाक्यं शुकस्य परिदेवितम्।
मा वधिष्टेति रामस्तान् वारयामास वानरान्॥ ५५॥
मूलम्
रामः श्रुत्वा तदा वाक्यं शुकस्य परिदेवितम्।
मा वधिष्टेति रामस्तान् वारयामास वानरान्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकका यह करुणायुक्त वचन सुनकर रामने ‘इसे मत मारो’ ऐसा कहकर वानरोंको रोक दिया॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरम्बरमासाद्य शुकः सुग्रीवमब्रवीत्।
ब्रूहि राजन् दशग्रीवं किं वक्ष्यामि व्रजाम्यहम्॥ ५६॥
मूलम्
पुनरम्बरमासाद्य शुकः सुग्रीवमब्रवीत्।
ब्रूहि राजन् दशग्रीवं किं वक्ष्यामि व्रजाम्यहम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शुकने फिर आकाशमें चढ़कर सुग्रीवसे कहा—‘‘हे राजन्! मैं जाता हूँ; कहिये, रावणको आपकी ओरसे क्या उत्तर दूँ?’’॥ ५६॥
मूलम् (वचनम्)
सुग्रीव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वाली मम भ्राता तथा त्वं राक्षसाधम।
हन्तव्यस्त्वं मया यत्नात्सपुत्रबलवाहनः॥ ५७॥
ब्रूहि मे रामचन्द्रस्य भार्यां हृत्वा क्व यास्यसि।
ततो रामाज्ञया धृत्वा शुकं बध्वान्वरक्षयत्॥ ५८॥
मूलम्
यथा वाली मम भ्राता तथा त्वं राक्षसाधम।
हन्तव्यस्त्वं मया यत्नात्सपुत्रबलवाहनः॥ ५७॥
ब्रूहि मे रामचन्द्रस्य भार्यां हृत्वा क्व यास्यसि।
ततो रामाज्ञया धृत्वा शुकं बध्वान्वरक्षयत्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवने कहा—उससे कहना, जिस प्रकार मैंने अपने भाई वालीको मारा था, हे राक्षसाधम! उसी प्रकार तू भी अपने पुत्र, सेना और वाहनादिके सहित मेरे हाथसे मारा जायगा। तू हमारे रामचन्द्रजीकी भार्याका हरण करके अब कहाँ जा सकता है? तदनन्तर भगवान् रामकी आज्ञासे शुकको पकड़ उन्होंने बन्धनमें डालकर वानरोंकी रक्षामें छोड़ दिया॥ ५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शार्दूलोऽपि ततः पूर्वं दृष्ट्वा कपिबलं महत्।
यथावत्कथयामास रावणाय स राक्षसः॥ ५९॥
मूलम्
शार्दूलोऽपि ततः पूर्वं दृष्ट्वा कपिबलं महत्।
यथावत्कथयामास रावणाय स राक्षसः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकसे पहले ही शार्दूल नामक राक्षसने वानरोंकी महान् सेना देखकर रावणसे उसका यथावत् वर्णन कर दिया था॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घचिन्तापरो भूत्वा निःश्वसन्नास मन्दिरे।
ततः समुद्रमावेक्ष्य रामो रक्तान्तलोचनः॥ ६०॥
मूलम्
दीर्घचिन्तापरो भूत्वा निःश्वसन्नास मन्दिरे।
ततः समुद्रमावेक्ष्य रामो रक्तान्तलोचनः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब सुनकर रावणको बड़ी चिन्ता हुई और वह दीर्घ निःश्वास छोड़ता अपने महलमें बैठा रहा। इसी समय भगवान् रामने समुद्रकी ओर देखकर क्रोधसे नेत्र लाल कर कहा—॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य लक्ष्मण दुष्टोऽसौ वारिधिर्मामुपागतम्।
नाभिनन्दति दुष्टात्मा दर्शनार्थं ममानघ॥ ६१॥
मूलम्
पश्य लक्ष्मण दुष्टोऽसौ वारिधिर्मामुपागतम्।
नाभिनन्दति दुष्टात्मा दर्शनार्थं ममानघ॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘लक्ष्मण! देखो, यह समुद्र कैसा दुष्ट है? मैं इसके तीरपर आया हूँ; किन्तु हे अनघ! इस दुरात्माने दर्शन करके भी मेरा अभिनन्दन नहीं किया॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानाति मानुषोऽयं मे किं करिष्यति वानरैः।
अद्य पश्य महाबाहो शोषयिष्यामि वारिधिम्॥ ६२॥
मूलम्
जानाति मानुषोऽयं मे किं करिष्यति वानरैः।
अद्य पश्य महाबाहो शोषयिष्यामि वारिधिम्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह समझता है, ‘यह एक मनुष्य ही तो है, वानरोंके साथ मिलकर भी यह मेरा क्या कर सकता है?’ सो हे महाबाहो! देखो, आज मैं इसे सुखाये डालता हूँ॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादेनैव गमिष्यन्ति वानरा विगतज्वराः।
इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्ष आरोपितधनुर्धरः॥ ६३॥
तूणीराद्बाणमादाय कालाग्निसदृशप्रभम्।
सन्धाय चापमाकृष्य रामो वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ६४॥
मूलम्
पादेनैव गमिष्यन्ति वानरा विगतज्वराः।
इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्ष आरोपितधनुर्धरः॥ ६३॥
तूणीराद्बाणमादाय कालाग्निसदृशप्रभम्।
सन्धाय चापमाकृष्य रामो वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वानरगण निश्चिन्त होकर पैदल ही इसके पार चले जायँगे।’’ ऐसा कह भगवान् रामने क्रोधसे नेत्र लाल कर अपना धनुष चढ़ाया और तूणीरसे एक कालाग्निके समान तेजोमय बाण निकाल कर उसे धनुषपर रखकर खींचते हुए कहा—॥ ६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यन्तु सर्वभूतानि रामस्य शरविक्रमम्।
इदानीं भस्मसात्कुर्यां समुद्रं सरितां पतिम्॥ ६५॥
मूलम्
पश्यन्तु सर्वभूतानि रामस्य शरविक्रमम्।
इदानीं भस्मसात्कुर्यां समुद्रं सरितां पतिम्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘समस्त प्राणी रामके बाणका पराक्रम देखें; मैं इसी समय नदीपति समुद्रको भस्म किये डालता हूँ’’॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवति रामे तु सशैलवनकानना।
चचाल वसुधा द्यौश्च दिशश्च तमसावृताः॥ ६६॥
मूलम्
एवं ब्रुवति रामे तु सशैलवनकानना।
चचाल वसुधा द्यौश्च दिशश्च तमसावृताः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् रामके ऐसा कहते ही वन और पर्वतादिके सहित सम्पूर्ण पृथ्वी हिलने लगी तथा आकाश और दिशाओंमें अन्धकार छा गया॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चुक्षुभे सागरो वेलां भयाद्योजनमत्यगात्।
तिमिनक्रझषा मीनाः प्रतप्ताः परितत्रसुः॥ ६७॥
मूलम्
चुक्षुभे सागरो वेलां भयाद्योजनमत्यगात्।
तिमिनक्रझषा मीनाः प्रतप्ताः परितत्रसुः॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्र क्षुभित हो गया और भयके कारण अपने तटसे एक योजन आगे बढ़ आया; तथा बड़े-बड़े मत्स्य, नाक, मकर और मछलियाँ सन्तप्त होकर भयभीत हो गये॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे साक्षात्सागरो दिव्यरूपधृक्।
दिव्याभरणसम्पन्नः स्वभासा भासयन् दिशः॥ ६८॥
स्वान्तःस्थदिव्यरत्नानि कराभ्यां परिगृह्य सः।
पादयोः पुरतः क्षिप्त्वा रामस्योपायनं बहु॥ ६९॥
दण्डवत्प्रणिपत्याह रामं रक्तान्तलोचनम्।
त्राहि त्राहि जगन्नाथ राम त्रैलोक्यरक्षक॥ ७०॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे साक्षात्सागरो दिव्यरूपधृक्।
दिव्याभरणसम्पन्नः स्वभासा भासयन् दिशः॥ ६८॥
स्वान्तःस्थदिव्यरत्नानि कराभ्यां परिगृह्य सः।
पादयोः पुरतः क्षिप्त्वा रामस्योपायनं बहु॥ ६९॥
दण्डवत्प्रणिपत्याह रामं रक्तान्तलोचनम्।
त्राहि त्राहि जगन्नाथ राम त्रैलोक्यरक्षक॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय नाना प्रकारके दिव्य आभूषण धारण किये दिव्यरूपधारी समुद्र, हाथोंमें अपने ही भीतर स्थित दिव्य रत्न लिये, अपने प्रकाशसे दसों दिशाओंको प्रकाशित करता, स्वयं उपस्थित हुआ और भगवान् रामचन्द्रजीके चरणोंके आगे नाना प्रकारके उपहार रख, जिनके नेत्रोंके मध्यभाग क्रोधसे लाल हो रहे हैं उन रघुनाथजीको साष्टांग दण्डवत् कर बोला—‘हे त्रैलोक्यरक्षक जगत्पति राम! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो॥ ६८—७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जडोऽहं राम ते सृष्टः सृजता निखिलं जगत्।
स्वभावमन्यथा कर्तुं कः शक्तो देवनिर्मितम्॥ ७१॥
मूलम्
जडोऽहं राम ते सृष्टः सृजता निखिलं जगत्।
स्वभावमन्यथा कर्तुं कः शक्तो देवनिर्मितम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! सम्पूर्ण संसारकी रचना करते समय आपने मुझे जड ही बनाया था; फिर आपके बनाये स्वभावको कोई कैसे बदल सकता है?॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थूलानि पञ्चभूतानि जडान्येव स्वभावतः।
सृष्टानि भवतैतानि त्वदाज्ञां लङ्घयन्ति न॥ ७२॥
मूलम्
स्थूलानि पञ्चभूतानि जडान्येव स्वभावतः।
सृष्टानि भवतैतानि त्वदाज्ञां लङ्घयन्ति न॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचों स्थूल भूतोंको आपने स्वभावसे जड ही बनाया है, वे आपकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकते॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामसादहमो राम भूतानि प्रभवन्ति हि।
कारणानुगमात्तेषां जडत्वं तामसं स्वतः॥ ७३॥
मूलम्
तामसादहमो राम भूतानि प्रभवन्ति हि।
कारणानुगमात्तेषां जडत्वं तामसं स्वतः॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! भूत तामस अहंकारसे उत्पन्न होते हैं, अतः अपने कारणका अनुगमन करनेसे उनमें तमोरूप जडत्व तो स्वतःसिद्ध है॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गुणस्त्वं निराकारो यदा मायागुणन् प्रभो।
लीलयाङ्गीकरोषि त्वं तदा वैराजनामवान्॥ ७४॥
मूलम्
निर्गुणस्त्वं निराकारो यदा मायागुणन् प्रभो।
लीलयाङ्गीकरोषि त्वं तदा वैराजनामवान्॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आप निर्गुण और निराकार हैं। जिस समय आप लीलासे ही मायिक गुणोंको अंगीकार करते हैं उस समय आपका नाम ‘वैराज’ पड़ जाता है॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणात्मनो विराजश्च सत्त्वाद्देवा बभूविरे।
रजोगुणात्प्रजेशाद्या मन्योर्भूतपतिस्तव॥ ७५॥
मूलम्
गुणात्मनो विराजश्च सत्त्वाद्देवा बभूविरे।
रजोगुणात्प्रजेशाद्या मन्योर्भूतपतिस्तव॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस गुणमय विराट्के सात्त्विकांशसे देवगण, राजसांशसे प्रजापतिगण और तामसांशसे रुद्रगण उत्पन्न होते हैं॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामहं मायया छन्नं लीलया मानुषाकृतिम्॥ ७६॥
जडबुद्धिर्जडो मूर्खः कथं जानामि निर्गुणम्।
दण्ड एव हि मूर्खाणां सन्मार्गप्रापकः प्रभो॥ ७७॥
भूतानाममरश्रेष्ठ पशूनां लगुडो यथा।
शरणं ते व्रजामीशं शरण्यं भक्तवत्सल।
अभयं देहि मे राम लङ्कामार्गं ददामि ते॥ ७८॥
मूलम्
त्वामहं मायया छन्नं लीलया मानुषाकृतिम्॥ ७६॥
जडबुद्धिर्जडो मूर्खः कथं जानामि निर्गुणम्।
दण्ड एव हि मूर्खाणां सन्मार्गप्रापकः प्रभो॥ ७७॥
भूतानाममरश्रेष्ठ पशूनां लगुडो यथा।
शरणं ते व्रजामीशं शरण्यं भक्तवत्सल।
अभयं देहि मे राम लङ्कामार्गं ददामि ते॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! लीलावश मायासे आच्छन्न होकर मनुष्यरूप हुए आप निर्गुण परमात्माको मैं जडबुद्धि मूर्ख कैसे जान सकता हूँ; हे अमरश्रेष्ठ प्रभो! पशुओंको जैसे लाठी ठीक-ठीक मार्गमें ले जाती है उसी प्रकार (मुझ-जैसे) मूर्ख जीवोंके लिये तो दण्ड ही सन्मार्गपर लानेवाला होता है। हे भक्तवत्सल भगवान् राम! आप शरणागतरक्षककी मैं शरण हूँ। आप मुझे अभयदान दीजिये। मैं आपको लंकामें जानेका मार्ग दूँगा॥ ७६—७८॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोघोऽयं महाबाणः कस्मिन्देशे निपात्यताम्।
लक्ष्यं दर्शय मे शीघ्रं बाणस्यामोघपातिनः॥ ७९॥
मूलम्
अमोघोऽयं महाबाणः कस्मिन्देशे निपात्यताम्।
लक्ष्यं दर्शय मे शीघ्रं बाणस्यामोघपातिनः॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—मेरा यह महाबाण व्यर्थ जानेवाला नहीं है; अतः इसे किस ओर चलावें; शीघ्र ही मुझे इस अमोघ बाणका लक्ष्य बताओ॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्य वचनं श्रुत्वा करे दृष्ट्वा महाशरम्।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥ ८०॥
मूलम्
रामस्य वचनं श्रुत्वा करे दृष्ट्वा महाशरम्।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामका यह वचन सुनकर और उनके हाथमें वह महाबाण देखकर महातेजस्वी समुद्रने रघुनाथजीसे कहा—॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोत्तरप्रदेशे तु द्रुमकुल्य इति श्रुतः।
प्रदेशस्तत्र बहवः पापात्मानो दिवानिशम्॥ ८१॥
बाधन्ते मां रघुश्रेष्ठ तत्र ते पात्यतां शरः।
रामेण सृष्टो बाणस्तु क्षणादाभीरमण्डलम्॥ ८२॥
हत्वा पुनः समागत्य तूणीरे पूर्ववत्स्थितः।
ततोऽब्रवीद्रघुश्रेष्ठं सागरो विनयान्वितः॥ ८३॥
मूलम्
रामोत्तरप्रदेशे तु द्रुमकुल्य इति श्रुतः।
प्रदेशस्तत्र बहवः पापात्मानो दिवानिशम्॥ ८१॥
बाधन्ते मां रघुश्रेष्ठ तत्र ते पात्यतां शरः।
रामेण सृष्टो बाणस्तु क्षणादाभीरमण्डलम्॥ ८२॥
हत्वा पुनः समागत्य तूणीरे पूर्ववत्स्थितः।
ततोऽब्रवीद्रघुश्रेष्ठं सागरो विनयान्वितः॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! उत्तरकी ओर एक ‘द्रुमकुल्य’ नामक देश है। वहाँ बहुत-से पापी रहते हैं। वे मुझे रात-दिन पीड़ा पहुँचाते हैं। हे रघुश्रेष्ठ! आप अपना यह बाण वहीं गिराइये।’’ तदनन्तर रामका छोड़ा हुआ वह बाण एक क्षणमें ही समस्त आभीरमण्डलको मारकर फिर पूर्ववत् तरकशमें लौट आया। तब समुद्रने रघुनाथजीसे अति विनीत भावसे कहा—॥ ८१—८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नलः सेतुं करोत्वस्मिन् जले मे विश्वकर्मणः।
सुतो धीमान् समर्थोऽस्मिन् कार्ये लब्धवरो हरिः॥ ८४॥
मूलम्
नलः सेतुं करोत्वस्मिन् जले मे विश्वकर्मणः।
सुतो धीमान् समर्थोऽस्मिन् कार्ये लब्धवरो हरिः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! विश्वकर्माका पुत्र नल मेरे जलपर पुल निर्माण करे। वह चतुर वानर वरके प्रभावसे इस कार्यको करनेमें समर्थ है॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीर्तिं जानन्तु ते लोकाः सर्वलोकमलापहाम्।
इत्युक्त्वा राघवं नत्वा ययौ सिन्धुरदृश्यताम्॥ ८५॥
मूलम्
कीर्तिं जानन्तु ते लोकाः सर्वलोकमलापहाम्।
इत्युक्त्वा राघवं नत्वा ययौ सिन्धुरदृश्यताम्॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे सब लोग आपकी संसारमलापहारिणी कीर्ति जान जायँगे।’’ रघुनाथजीसे इस प्रकार कह समुद्र उन्हें प्रणामकर अन्तर्धान हो गया॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामस्तु सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां समन्वितः।
नलमाज्ञापयच्छीघ्रं वानरैः सेतुबन्धने॥ ८६॥
मूलम्
ततो रामस्तु सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां समन्वितः।
नलमाज्ञापयच्छीघ्रं वानरैः सेतुबन्धने॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सुग्रीव और लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजीने नलको वानरोंकी सहायतासे तुरंत पुल बाँधनेकी आज्ञा दी॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽतिहृष्टः प्लवगेन्द्रयूथपै-
र्महानगेन्द्रप्रतिमैर्युतो नलः।
बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं
सुविस्तृतं पर्वतपादपैर्दृढम्॥ ८७॥
मूलम्
ततोऽतिहृष्टः प्लवगेन्द्रयूथपै-
र्महानगेन्द्रप्रतिमैर्युतो नलः।
बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं
सुविस्तृतं पर्वतपादपैर्दृढम्॥ ८७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब नलने महापर्वतके समान अन्य वानरयूथपतियोंके साथ अति प्रसन्नतापूर्वक पर्वत और वृक्षादिकोंसे एक सौ योजन लंबा अति विस्तीर्ण और सुदृढ़ पुल बनाया॥ ८७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे तृतीयः सर्गः॥ ३॥