०२

[द्वितीय सर्ग]

भागसूचना

रावणद्वारा विभीषणका तिरस्कार

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्कायां रावणो दृष्ट्वा कृतं कर्म हनूमता।
दुष्करं दैवतैर्वापि ह्रिया किञ्चिदवाङ्मुखः॥ १॥
आहूय मन्त्रिणः सर्वानिदं वचनमब्रवीत्।
हनूमता कृतं कर्म भवद्भिर्दृष्टमेव तत्॥ २॥

मूलम्

लङ्कायां रावणो दृष्ट्वा कृतं कर्म हनूमता।
दुष्करं दैवतैर्वापि ह्रिया किञ्चिदवाङ्मुखः॥ १॥
आहूय मन्त्रिणः सर्वानिदं वचनमब्रवीत्।
हनूमता कृतं कर्म भवद्भिर्दृष्टमेव तत्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! इधर लंकामें श्रीहनुमान् जी का देवताओंके लिये भी दुष्कर कृत्य देख रावणने अपने समस्त मन्त्रियोंको बुलाकर लज्जासे सिर नीचा करके कहा—‘‘हनुमान् ने जो-जो कर्म किया वह सब आपलोगोंने देखा ही है॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्य लङ्कां दुर्धर्षां दृष्ट्वा सीतां दुरासदाम्।
हत्वा च राक्षसान् वीरानक्षं मन्दोदरीसुतम्॥ ३॥
दग्ध्वा लङ्कामशेषेण लङ्घयित्वा च सागरम्।
युष्मान् सर्वानतिक्रम्य स्वस्थोऽगात्पुनरेव सः॥ ४॥

मूलम्

प्रविश्य लङ्कां दुर्धर्षां दृष्ट्वा सीतां दुरासदाम्।
हत्वा च राक्षसान् वीरानक्षं मन्दोदरीसुतम्॥ ३॥
दग्ध्वा लङ्कामशेषेण लङ्घयित्वा च सागरम्।
युष्मान् सर्वानतिक्रम्य स्वस्थोऽगात्पुनरेव सः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दुष्प्रवेश्य लंकामें घुसकर सर्वथा दुष्प्राप्य सीतासे मिला तथा उसने अन्य राक्षस वीरोंके साथ मन्दोदरीके पुत्र अक्षको मारकर सम्पूर्ण लंकाको जला दिया और फिर आप सब लोगोंका तिरस्कार कर कुशलपूर्वक समुद्र लाँघकर लौट गया॥ ३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कर्तव्यमितोऽस्माभिर्यूयं मन्त्रविशारदाः।
मन्त्रयध्वं प्रयत्नेन यत्कृतं मे हितं भवेत्॥ ५॥

मूलम्

किं कर्तव्यमितोऽस्माभिर्यूयं मन्त्रविशारदाः।
मन्त्रयध्वं प्रयत्नेन यत्कृतं मे हितं भवेत्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सब लोग नीति-निपुण हैं, अतः अब हमें क्या करना चाहिये और क्या करनेसे हमारा हित हो सकता है—इसका प्रयत्नपूर्वक विचार कीजिये’’॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्य वचः श्रुत्वा राक्षसास्तमथाब्रुवन्।
देव शङ्का कुतो रामात्तव लोकजितो रणे॥ ६॥

मूलम्

रावणस्य वचः श्रुत्वा राक्षसास्तमथाब्रुवन्।
देव शङ्का कुतो रामात्तव लोकजितो रणे॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके वचन सुनकर राक्षसोंने उससे कहा— ‘‘देव! आपको रामसे क्या शंका है? आपने तो युद्धमें समस्त लोकोंको जीत लिया है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रस्तु बद्‍ध्वा निक्षिप्तः पुत्रेण तव पत्तने।
जित्वा कुबेरमानीय पुष्पकं भुज्यते त्वया॥ ७॥

मूलम्

इन्द्रस्तु बद्‍ध्वा निक्षिप्तः पुत्रेण तव पत्तने।
जित्वा कुबेरमानीय पुष्पकं भुज्यते त्वया॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके पुत्रने इन्द्रको बाँधकर अपनी राजधानीमें डाल लिया था और आप स्वयं भी कुबेरको जीतकर उसका पुष्पक विमान लाकर भोगते हैं॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमो जितः कालदण्डाद्भयं नाभूत्तव प्रभो।
वरुणो हुङ्कृतेनैव जितः सर्वेऽपि राक्षसाः॥ ८॥

मूलम्

यमो जितः कालदण्डाद्भयं नाभूत्तव प्रभो।
वरुणो हुङ्कृतेनैव जितः सर्वेऽपि राक्षसाः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपने यमराजको भी जीत लिया, उसके कालदण्डसे भी आपको कोई भय नहीं हुआ तथा वरुण और समस्त राक्षसोंको आपने हुंकारसे ही जीत लिया था॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयो महासुरो भीत्या कन्यां दत्त्वा स्वयं तव।
त्वद्वशे वर्ततेऽद्यापि किमुतान्ये महासुराः॥ ९॥

मूलम्

मयो महासुरो भीत्या कन्यां दत्त्वा स्वयं तव।
त्वद्वशे वर्ततेऽद्यापि किमुतान्ये महासुराः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

और महासुरोंकी तो बात ही क्या है, स्वयं मयासुर भी आपके भयसे आपको अपनी कन्या देकर आजतक आपके अधीन बना हुआ है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमद्धर्षणं यत्तु तदवज्ञाकृतं च नः।
वानरोऽयं किमस्माकमस्मिन्पौरुषदर्शने॥ १०॥
इत्युपेक्षितमस्माभिर्धर्षणं तेन किं भवेत्।
वयं प्रमत्ताः किं तेन वञ्चिताः स्मो हनूमता॥ ११॥
जानीमो यदि तं सर्वे कथं जीवन् गमिष्यति।
आज्ञापय जगत्कृत्स्नमवानरममानुषम्॥ १२॥
कृत्वायास्यामहे सर्वे प्रत्येकं वा नियोजय।
कुम्भकर्णस्तदा प्राह रावणं राक्षसेश्वरम्॥ १३॥

मूलम्

हनूमद्धर्षणं यत्तु तदवज्ञाकृतं च नः।
वानरोऽयं किमस्माकमस्मिन्पौरुषदर्शने॥ १०॥
इत्युपेक्षितमस्माभिर्धर्षणं तेन किं भवेत्।
वयं प्रमत्ताः किं तेन वञ्चिताः स्मो हनूमता॥ ११॥
जानीमो यदि तं सर्वे कथं जीवन् गमिष्यति।
आज्ञापय जगत्कृत्स्नमवानरममानुषम्॥ १२॥
कृत्वायास्यामहे सर्वे प्रत्येकं वा नियोजय।
कुम्भकर्णस्तदा प्राह रावणं राक्षसेश्वरम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् ने जो हमारा तिरस्कार किया है वह तो हमारी ही उपेक्षासे हुआ है। हमने यह सोचकर कि यह वानर है इसे पुरुषार्थ दिखानेमें क्या रखा है उसकी उपेक्षा कर दी थी, नहीं तो वह हमारी अवज्ञा क्या कर सकता था?। अतः असावधान रहनेके कारण यदि हमें हनुमान् ने ठग लिया तो इससे क्या हुआ? यदि हम सब उसे जानते तो वह जीता हुआ कैसे जा सकता था? आप हमें आज्ञा दीजिये, हम सब अभी जाकर पृथ्वीको वानर और मनुष्योंसे शून्य कर आते हैं। अथवा हममेंसे एक-एकको ही इस कार्यके लिये नियुक्त कीजिये’’। तदनन्तर राक्षसराज रावणसे कुम्भकर्ण बोला—॥ १०— १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरब्धं यत्त्वया कर्म स्वात्मनाशाय केवलम्।
न दृष्टोऽसि तदा भाग्यात्त्वं रामेण महात्मना॥ १४॥

मूलम्

आरब्धं यत्त्वया कर्म स्वात्मनाशाय केवलम्।
न दृष्टोऽसि तदा भाग्यात्त्वं रामेण महात्मना॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘आपने जो कार्य आरम्भ किया है वह केवल आपका नाश करनेके लिये ही है। सौभाग्यवश इतना ही अच्छा हुआ कि सीताजीको चुरानेके समय महात्मा रामने आपको नहीं देखा॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि पश्यति रामस्त्वां जीवन्नायासि रावण।
रामो न मानुषो देवः साक्षान्नारायणोऽव्ययः॥ १५॥

मूलम्

यदि पश्यति रामस्त्वां जीवन्नायासि रावण।
रामो न मानुषो देवः साक्षान्नारायणोऽव्ययः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! यदि उस समय राम आपको देख लेते तो आप जीते-जागते नहीं लौट सकते थे। राम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, वे साक्षात् अव्यय नारायणदेव हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता भगवती लक्ष्मी रामपत्नी यशस्विनी।
राक्षसानां विनाशाय त्वयानीता सुमध्यमा॥ १६॥

मूलम्

सीता भगवती लक्ष्मी रामपत्नी यशस्विनी।
राक्षसानां विनाशाय त्वयानीता सुमध्यमा॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामकी पत्नी यशस्विनी सीताजी साक्षात् भगवती लक्ष्मी हैं, उस सुन्दरीको आप राक्षसोंके नाशके लिये ही लाये हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषपिण्डमिवागीर्य महामीनो यथा तथा।
आनीता जानकी पश्चात्त्वया किं वा भविष्यति॥ १७॥

मूलम्

विषपिण्डमिवागीर्य महामीनो यथा तथा।
आनीता जानकी पश्चात्त्वया किं वा भविष्यति॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार कोई महामत्स्य विषका पिण्ड निगल जाय उसी प्रकार आप (अपने नाशके लिये) जानकीको ले आये हैं, न जाने आगे क्या होना है?॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यप्यनुचितं कर्म त्वया कृतमजानता।
सर्वं समं करिष्यामि स्वस्थचित्तो भव प्रभो॥ १८॥

मूलम्

यद्यप्यनुचितं कर्म त्वया कृतमजानता।
सर्वं समं करिष्यामि स्वस्थचित्तो भव प्रभो॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि आपने अनजानमें यह बड़ा ही अनुचित कार्य किया है, तथापि आप शान्त होइये, मैं सब काम ठीक किये देता हूँ॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा वाक्यमिन्द्रजिदब्रवीत्।
देहि देव ममानुज्ञां हत्वा रामं सलक्ष्मणम्।
सुग्रीवं वानरांश्चैव पुनर्यास्यामि तेऽन्तिकम्॥ १९॥

मूलम्

कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा वाक्यमिन्द्रजिदब्रवीत्।
देहि देव ममानुज्ञां हत्वा रामं सलक्ष्मणम्।
सुग्रीवं वानरांश्चैव पुनर्यास्यामि तेऽन्तिकम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुम्भकर्णके ये वचन सुनकर इन्द्रजित् बोला—‘प्रभो! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं अभी लक्ष्मणके सहित राम, सुग्रीव और समस्त वानरोंको मारकर आपके पास लौट आता हूँ’’॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रागतो भागवतप्रधानो
विभीषणो बुद्धिमतां वरिष्ठः।
श्रीरामपादद्वय एकतानः
प्रणम्य देवारिमुपोपविष्टः॥ २०॥

मूलम्

तत्रागतो भागवतप्रधानो
विभीषणो बुद्धिमतां वरिष्ठः।
श्रीरामपादद्वय एकतानः
प्रणम्य देवारिमुपोपविष्टः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय वहाँ भागवत-प्रधान बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विभीषणजी आये। उनके अन्तःकरणकी वृत्ति एकाग्रतापूर्वक भगवान् रामके चरणयुगलमें लगी हुई थी। वहाँ आकर वे देवशत्रु रावणको प्रणाम कर उसके पास बैठ गये॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोक्य कुम्भश्रवणादिदैत्यान्
मत्तप्रमत्तानतिविस्मयेन।
विलोक्य कामातुरमप्रमत्तो
दशाननं प्राह विशुद्धबुद्धिः॥ २१॥

मूलम्

विलोक्य कुम्भश्रवणादिदैत्यान्
मत्तप्रमत्तानतिविस्मयेन।
विलोक्य कामातुरमप्रमत्तो
दशाननं प्राह विशुद्धबुद्धिः॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ बैठकर उन्होंने एक बार कुम्भकर्ण आदि समस्त मदोन्मत्त राक्षसोंको अति विस्मयके साथ देखा। फिर यह भी देखा कि रावण कामातुर है, (वह किसीकी माननेवाला नहीं है।) तथापि अति निर्मलबुद्धि होनेसे वे अपने कर्तव्यमें सावधान थे, इसलिये उन्होंने रावणसे कहा—॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कुम्भकर्णेन्द्रजितौ च राजं-
स्तथा महापार्श्वमहोदरौ तौ।
निकुम्भकुम्भौ च तथातिकायः
स्थातुं न शक्ता युधि राघवस्य॥ २२॥

मूलम्

न कुम्भकर्णेन्द्रजितौ च राजं-
स्तथा महापार्श्वमहोदरौ तौ।
निकुम्भकुम्भौ च तथातिकायः
स्थातुं न शक्ता युधि राघवस्य॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे राजन्! युद्धमें रघुनाथजीके सामने कुम्भकर्ण, इन्द्रजित् , महापार्श्व, महोदर, निकुम्भ, कुम्भ तथा अतिकाय आदि कोई भी नहीं ठहर सकते॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीताभिधानेन महाग्रहेण
ग्रस्तोऽसि राजन् न च ते विमोक्षः।
तामेव सत्कृत्य महाधनेन
दत्त्वाभिरामाय सुखी भव त्वम्॥ २३॥

मूलम्

सीताभिधानेन महाग्रहेण
ग्रस्तोऽसि राजन् न च ते विमोक्षः।
तामेव सत्कृत्य महाधनेन
दत्त्वाभिरामाय सुखी भव त्वम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! आपको सीता नामक एक प्रबल ग्रहने ग्रस्त कर लिया है, इससे आपका छुटकारा इस तरह नहीं हो सकता। अब आप उसे सत्कारपूर्वक बहुत-से धनके साथ श्रीरामचन्द्रजीको लौटा दीजिये और सुखी हो जाइये॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्न रामस्य शिताः शिलीमुखा
लङ्कामभिव्याप्य शिरांसि रक्षसाम्।
छिन्दन्ति तावद्‍रघुनायकस्य भो-
स्तां जानकीं त्वं प्रतिदातुमर्हसि॥ २४॥

मूलम्

यावन्न रामस्य शिताः शिलीमुखा
लङ्कामभिव्याप्य शिरांसि रक्षसाम्।
छिन्दन्ति तावद्‍रघुनायकस्य भो-
स्तां जानकीं त्वं प्रतिदातुमर्हसि॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक श्रीरामचन्द्रजीके तीक्ष्ण बाण लंकामें व्याप्त होकर राक्षसोंके सिर नहीं काटते, तबतक ही उचित है कि आप उन्हें जानकीजी सौंप दें॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्नगाभाः कपयो महाबला
हरीन्द्रतुल्या नखदंष्ट्रयोधिनः।
लङ्कां समाक्रम्य विनाशयन्ति ते
तावद्‍द्रुतं देहि रघूत्तमाय ताम्॥ २५॥

मूलम्

यावन्नगाभाः कपयो महाबला
हरीन्द्रतुल्या नखदंष्ट्रयोधिनः।
लङ्कां समाक्रम्य विनाशयन्ति ते
तावद्‍द्रुतं देहि रघूत्तमाय ताम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

नख और दाढ़ोंसे ही लड़नेवाले, सिंहके समान महाबलवान् वे पर्वताकार वानरगण जबतक लंकामें फैलकर उसे नष्ट-भ्रष्ट नहीं करते तभीतक आप सीताजीको जल्दी-से-जल्दी श्रीरघुनाथजीको सौंप दीजिये॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवन्न रामेण विमोक्ष्यसे त्वं
गुप्तः सुरेन्द्रैरपि शङ्करेण।
न देवराजाङ्कगतो न मृत्योः
पाताललोकानपि सम्प्रविष्टः॥ २६॥

मूलम्

जीवन्न रामेण विमोक्ष्यसे त्वं
गुप्तः सुरेन्द्रैरपि शङ्करेण।
न देवराजाङ्कगतो न मृत्योः
पाताललोकानपि सम्प्रविष्टः॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो भले ही इन्द्र और शंकर भी आपकी रक्षा करें अथवा देवराज इन्द्र और मृत्यु भी आपको गोदमें लेकर बचायें या आप पातालमें भी घुस जायँ, तो भी रामसे आप जीवित नहीं बच सकते’॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभं हितं पवित्रं च विभीषणवचः खलः।
प्रतिजग्राह नैवासौ म्रियमाण इवौषधम्॥ २७॥

मूलम्

शुभं हितं पवित्रं च विभीषणवचः खलः।
प्रतिजग्राह नैवासौ म्रियमाण इवौषधम्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभीषणके इन शुभ, हितकर और पवित्र वचनोंको दुष्ट रावणने इसी प्रकार ग्रहण नहीं किया, जैसे मरनेवाला पुरुष औषध ग्रहण नहीं करता॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालेन नोदितो दैत्यो विभीषणमथाब्रवीत्।
मद्दत्तभोगैः पुष्टाङ्गो मत्समीपे वसन्नपि॥ २८॥
प्रतीपमाचरत्येष ममैव हितकारिणः।
मित्रभावेन शत्रुर्मे जातो नास्त्यत्र संशयः॥ २९॥

मूलम्

कालेन नोदितो दैत्यो विभीषणमथाब्रवीत्।
मद्दत्तभोगैः पुष्टाङ्गो मत्समीपे वसन्नपि॥ २८॥
प्रतीपमाचरत्येष ममैव हितकारिणः।
मित्रभावेन शत्रुर्मे जातो नास्त्यत्र संशयः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

बल्कि वह दुष्ट दैत्य कालकी प्रेरणासे विभीषणसे इस प्रकार कहने लगा—‘‘देखो, यह मेरे ही दिये हुए भोगोंसे पुष्ट होकर और मेरे ही पास रहकर भी मुझ अपने हित-कर्ताके ही विरुद्ध चलता है; निस्सन्देह यह मित्ररूपसे मेरा शत्रु ही प्रकट हुआ है॥ २८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनार्येण कृतघ्नेन सङ्गतिर्मे न युज्यते।
विनाशमभिकाङ्क्षन्ति ज्ञातीनां ज्ञातयः सदा॥ ३०॥

मूलम्

अनार्येण कृतघ्नेन सङ्गतिर्मे न युज्यते।
विनाशमभिकाङ्क्षन्ति ज्ञातीनां ज्ञातयः सदा॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अनार्य और कृतघ्नका मेरे साथ रहना ठीक नहीं है। प्रायः यह देखनेमें आता है कि जातिवाले अपने ही जाति-भाइयोंके नाशकी सदा इच्छा किया करते हैं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽन्यस्त्वेवंविधं ब्रूयाद्वाक्यमेकं निशाचरः।
हन्मि तस्मिन् क्षणे एव धिक् त्वां रक्षः कुलाधमम्॥ ३१॥

मूलम्

योऽन्यस्त्वेवंविधं ब्रूयाद्वाक्यमेकं निशाचरः।
हन्मि तस्मिन् क्षणे एव धिक् त्वां रक्षः कुलाधमम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई और राक्षस ऐसा एक भी वाक्य कहता तो मैं उसे उसी क्षण मार डालता।
अरे नीच! तू राक्षसकुलमें अत्यन्त अधम है, तुझे धिक्कार है’’॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणेनैवमुक्तः सन्परुषं स विभीषणः।
उत्पपात सभामध्याद्‍गदापाणिर्महाबलः॥ ३२॥

मूलम्

रावणेनैवमुक्तः सन्परुषं स विभीषणः।
उत्पपात सभामध्याद्‍गदापाणिर्महाबलः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके इस प्रकार कटुवचन कहनेपर महाबली विभीषण हाथमें गदा लेकर सभासे उड़े॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं गगनस्थोऽब्रवीद्वचः।
क्रोधेन महताविष्टो रावणं दशकन्धरम्।
मा विनाशमुपैहि त्वं प्रियवादिनमेव माम्॥ ३३॥
धिक्करोषि तथापि त्वं ज्येष्ठो भ्राता पितुः समः।
कालो राघवरूपेण जातो दशरथालये॥ ३४॥

मूलम्

चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं गगनस्थोऽब्रवीद्वचः।
क्रोधेन महताविष्टो रावणं दशकन्धरम्।
मा विनाशमुपैहि त्वं प्रियवादिनमेव माम्॥ ३३॥
धिक्करोषि तथापि त्वं ज्येष्ठो भ्राता पितुः समः।
कालो राघवरूपेण जातो दशरथालये॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और अपने चार मन्त्रियोंके साथ आकाशमें स्थित होकर अत्यन्त क्रोधमें भरकर दशशीश रावणसे कहा—‘‘मैं तुम्हारे हितकी बात कहनेवाला हूँ, फिर भी तुम मुझे धिक्कारते हो! तथापि मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा नाश न हो, क्योंकि तुम मेरे बड़े भाई हो; अतः पिताके समान हो। तुम्हारा काल रघुनाथजीके रूपसे महाराज दशरथके घरमें प्रकट हो गया है॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काली सीताभिधानेन जाता जनकनन्दिनी।
तावुभावागतावत्र भूमेर्भारापनुत्तये॥ ३५॥

मूलम्

काली सीताभिधानेन जाता जनकनन्दिनी।
तावुभावागतावत्र भूमेर्भारापनुत्तये॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और महाशक्ति काली ‘सीता’ नामसे जनकजीकी पुत्री हुई हैं। ये दोनों पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही यहाँ आये हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैव प्रेरितस्त्वं तु न शृणोषि हितं मम।
श्रीरामः प्रकृतेः साक्षात्परस्तात्सर्वदा स्थितः॥ ३६॥

मूलम्

तेनैव प्रेरितस्त्वं तु न शृणोषि हितं मम।
श्रीरामः प्रकृतेः साक्षात्परस्तात्सर्वदा स्थितः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हींकी प्रेरणासे तुम मेरा हितकर वचन नहीं सुनते। भगवान् राम सर्वदा साक्षात् प्रकृतिसे परे हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहिरन्तश्च भूतानां समः सर्वत्र संस्थितः।
नामरूपादिभेदेन तत्तन्मय इवामलः॥ ३७॥

मूलम्

बहिरन्तश्च भूतानां समः सर्वत्र संस्थितः।
नामरूपादिभेदेन तत्तन्मय इवामलः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्राणियोंके बाहर-भीतर सर्वत्र समानभावसे स्थित हैं और नित्य निर्मल होते हुए भी नाम-रूप आदि भेदसे विभिन्न-से भासते हैं॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा नानाप्रकारेषु वृक्षेष्वेको महानलः।
तत्तदाकृतिभेदेन भिद्यतेऽज्ञानचक्षुषाम्॥ ३८॥
पञ्चकोशादिभेदेन तत्तन्मय इवाबभौ।
नीलपीतादियोगेन निर्मलः स्फटिको यथा॥ ३९॥

मूलम्

यथा नानाप्रकारेषु वृक्षेष्वेको महानलः।
तत्तदाकृतिभेदेन भिद्यतेऽज्ञानचक्षुषाम्॥ ३८॥
पञ्चकोशादिभेदेन तत्तन्मय इवाबभौ।
नीलपीतादियोगेन निर्मलः स्फटिको यथा॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार अज्ञानी पुरुषोंकी दृष्टिमें एक ही महाग्नि नाना प्रकारके वृक्षोंमें उनके आकार-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है अथवा जैसे शुद्ध स्फटिकमणि नील-पीतादि रंगोंकी सन्निधिमात्रसे ही नील-पीत आदि वर्णोंवाली प्रतीत होती है, वैसे ही पंचकोश आदिके भेदसे आत्मा तद्रूप-सा भासता है॥ ३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव नित्यमुक्तोऽपि स्वमायागुणबिम्बितः।
कालः प्रधानं पुरुषोऽव्यक्तं चेति चतुर्विधः॥ ४०॥

मूलम्

स एव नित्यमुक्तोऽपि स्वमायागुणबिम्बितः।
कालः प्रधानं पुरुषोऽव्यक्तं चेति चतुर्विधः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे (श्रीभगवान् ही) नित्यमुक्त होकर भी अपनी मायाके गुणोंमें प्रतिबिम्बित होकर काल, प्रधान, पुरुष और अव्यक्त इन चार प्रकारके नामोंसे कहे जाते हैं॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधानपुरुषाभ्यां स जगत्कृत्स्नं सृजत्यजः।
कालरूपेण कलनां जगतः कुरुतेऽव्ययः॥ ४१॥

मूलम्

प्रधानपुरुषाभ्यां स जगत्कृत्स्नं सृजत्यजः।
कालरूपेण कलनां जगतः कुरुतेऽव्ययः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अजन्मा होकर भी प्रधान और पुरुषरूपसे सम्पूर्ण जगत् की रचना करते हैं और अविनाशी होकर भी कालरूपसे जगत् का संहार करते हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालरूपी स भगवान् रामरूपेण मायया॥ ४२॥
ब्रह्मणा प्रार्थितो देवस्त्वद्वधार्थमिहागतः।
तदन्यथा कथं कुर्यात्सत्यसंकल्प ईश्वरः॥ ४३॥

मूलम्

कालरूपी स भगवान् रामरूपेण मायया॥ ४२॥
ब्रह्मणा प्रार्थितो देवस्त्वद्वधार्थमिहागतः।
तदन्यथा कथं कुर्यात्सत्यसंकल्प ईश्वरः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही कालरूपी भगवान् ब्रह्माकी प्रार्थनासे आपका वध करनेके लिये मायासे रामरूप होकर यहाँ आये हैं। ईश्वर सत्यसंकल्प हैं, इसलिये वे अपनी प्रतिज्ञाको अन्यथा कैसे कर सकते हैं॥ ४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनिष्यति त्वां रामस्तु सपुत्रबलवाहनम्।
हन्यमानं न शक्नोमि द्रष्टुं रामेण रावण॥ ४४॥
त्वां राक्षसकुलं कृत्स्नं ततो गच्छामि राघवम्।
मयि याते सुखी भूत्वा रमस्व भवने चिरम्॥ ४५॥

मूलम्

हनिष्यति त्वां रामस्तु सपुत्रबलवाहनम्।
हन्यमानं न शक्नोमि द्रष्टुं रामेण रावण॥ ४४॥
त्वां राक्षसकुलं कृत्स्नं ततो गच्छामि राघवम्।
मयि याते सुखी भूत्वा रमस्व भवने चिरम्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राम अवश्य ही आपको पुत्र, सेना और वाहनादिके सहित मारेंगे। हे रावण! मैं रामद्वारा सम्पूर्ण राक्षसवंश और आपका संहार होता नहीं देख सकता। अतः मैं रघुनाथजीके पास जाता हूँ। मेरे चले जानेपर आप आनन्दपूर्वक अपने महलमें बहुत समयतक भोग भोगना’’॥ ४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभीषणो रावणवाक्यतः क्षणा-
द्विसृज्य सर्वं सपरिच्छदं गृहम्।
जगाम रामस्य पदारविन्दयोः
सेवाभिकाङ्क्षी परिपूर्णमानसः॥ ४६॥

मूलम्

विभीषणो रावणवाक्यतः क्षणा-
द्विसृज्य सर्वं सपरिच्छदं गृहम्।
जगाम रामस्य पदारविन्दयोः
सेवाभिकाङ्क्षी परिपूर्णमानसः॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सन्तुष्टचित्त विभीषण रावणके कठोर भाषणसे एक क्षणमें ही समस्त सामग्रीके सहित अपने घरको छोड़कर भगवान् रामके चरणकमलोंकी सेवाकी कामनासे उनके पास चले गये॥ ४६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥