[प्रथम सर्ग]
भागसूचना
वानर-सेनाका प्रस्थान
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावद्भाषितं वाक्यं श्रुत्वा रामो हनूमतः।
उवाचानन्तरं वाक्यं हर्षेण महतावृतः॥ १॥
मूलम्
यथावद्भाषितं वाक्यं श्रुत्वा रामो हनूमतः।
उवाचानन्तरं वाक्यं हर्षेण महतावृतः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! हनुमान् जी के ज्यों-के-त्यों कहे हुए वाक्योंको सुननेके अनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने अति हर्षसे भरकर ये वचन कहे—॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यं कृतं हनुमता देवैरपि सुदुष्करम्।
मनसापि यदन्येन स्मर्तुं शक्यं न भूतले॥ २॥
मूलम्
कार्यं कृतं हनुमता देवैरपि सुदुष्करम्।
मनसापि यदन्येन स्मर्तुं शक्यं न भूतले॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हनुमान् जी ने जो कार्य किया है उसका करना देवताओंको भी अति कठिन है, पृथ्वीतलपर और कोई तो उसका मनसे भी स्मरण नहीं कर सकता॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतयोजनविस्तीर्णं लङ्घयेत्कः पयोनिधिम्।
लङ्कां च राक्षसैर्गुप्तां को वा धर्षयितुं क्षमः॥ ३॥
मूलम्
शतयोजनविस्तीर्णं लङ्घयेत्कः पयोनिधिम्।
लङ्कां च राक्षसैर्गुप्तां को वा धर्षयितुं क्षमः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भला, ऐसा कौन है जो सौ योजन विस्तारवाले समुद्रको लाँघने और राक्षसोंसे सुरक्षित लंकापुरीका ध्वंस करनेमें समर्थ हो?॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृत्यकार्यं हनुमता कृतं सर्वमशेषतः।
सुग्रीवस्येदृशो लोके न भूतो न भविष्यति॥ ४॥
मूलम्
भृत्यकार्यं हनुमता कृतं सर्वमशेषतः।
सुग्रीवस्येदृशो लोके न भूतो न भविष्यति॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् ने सुग्रीवके समग्र सेवक-धर्मको खूब निभाया। संसारमें ऐसा न कोई हुआ और न आगे होगा ही॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च रघुवंशश्च लक्ष्मणश्च कपीश्वरः।
जानक्या दर्शनेनाद्य रक्षिताः स्मो हनूमता॥ ५॥
मूलम्
अहं च रघुवंशश्च लक्ष्मणश्च कपीश्वरः।
जानक्या दर्शनेनाद्य रक्षिताः स्मो हनूमता॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् ने जानकीजीको देखकर आज मुझको तथा रघुवंश, लक्ष्मण और सुग्रीव आदि सभीको बचा लिया है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा सुकृतं कार्यं जानक्याः परिमार्गणम्।
समुद्रं मनसा स्मृत्वा सीदतीव मनो मम॥ ६॥
मूलम्
सर्वथा सुकृतं कार्यं जानक्याः परिमार्गणम्।
समुद्रं मनसा स्मृत्वा सीदतीव मनो मम॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जानकीजीकी खोजका कार्य तो बिलकुल ठीक हो गया, किन्तु समुद्रकी याद आनेसे मेरा मन व्यथित-सा होने लगता है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं नक्रझषाकीर्णं समुद्रं शतयोजनम्।
लङ्घयित्वा रिपुं हन्यां कथं द्रक्ष्यामि जानकीम्॥ ७॥
मूलम्
कथं नक्रझषाकीर्णं समुद्रं शतयोजनम्।
लङ्घयित्वा रिपुं हन्यां कथं द्रक्ष्यामि जानकीम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाक और मकरोंसे भरे हुए सौ योजन विस्तारवाले समुद्रको लाँघकर मैं शत्रुको कैसे मारूँगा? और जानकीजीको कैसे देख सकूँगा?’’॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तु रामवचनं सुग्रीवः प्राह राघवम्।
समुद्रं लङ्घयिष्यामो महानक्रझषाकुलम्॥ ८॥
लङ्कां च विधमिष्यामो हनिष्यामोऽद्य रावणम्।
चिन्तां त्यज रघुश्रेष्ठ चिन्ता कार्यविनाशिनी॥ ९॥
मूलम्
श्रुत्वा तु रामवचनं सुग्रीवः प्राह राघवम्।
समुद्रं लङ्घयिष्यामो महानक्रझषाकुलम्॥ ८॥
लङ्कां च विधमिष्यामो हनिष्यामोऽद्य रावणम्।
चिन्तां त्यज रघुश्रेष्ठ चिन्ता कार्यविनाशिनी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीके ये वचन सुनकर सुग्रीव उनसे बोला—‘‘हम बड़े-बड़े नाक और मछलियोंसे पूर्ण समुद्रको लाँघ जायँगे और शीघ्र ही लंकाको विध्वंसकर रावणका भी नाश करेंगे। रघुनाथजी! आप चिन्ता छोड़िये, चिन्ता तो कार्य बिगाड़नेवाली होती है॥ ८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान् पश्य महासत्त्वान् शूरान् वानरपुङ्गवान्।
त्वत्प्रियार्थं समुद्युक्तान् प्रवेष्टुमपि पावकम्॥ १०॥
मूलम्
एतान् पश्य महासत्त्वान् शूरान् वानरपुङ्गवान्।
त्वत्प्रियार्थं समुद्युक्तान् प्रवेष्टुमपि पावकम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप इन महापराक्रमी और शूरवीर वानरवीरोंको देखिये। ये आपका प्रिय करनेके लिये अग्निमें प्रवेश करनेको भी तैयार हैं॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्रतरणे बुद्धिं कुरुष्व प्रथमं ततः।
दृष्ट्वा लङ्कां दशग्रीवो हत इत्येव मन्महे॥ ११॥
मूलम्
समुद्रतरणे बुद्धिं कुरुष्व प्रथमं ततः।
दृष्ट्वा लङ्कां दशग्रीवो हत इत्येव मन्महे॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले समुद्रपार करनेका विचार कीजिये, फिर लंकाके तो दर्शन होते ही हम रावणको मरा हुआ ही समझते हैं॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहि पश्याम्यहं कञ्चित्त्रिषु लोकेषु राघव।
गृहीतधनुषो यस्ते तिष्ठेदभिमुखो रणे॥ १२॥
मूलम्
नहि पश्याम्यहं कञ्चित्त्रिषु लोकेषु राघव।
गृहीतधनुषो यस्ते तिष्ठेदभिमुखो रणे॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राघव! त्रिलोकीमें मुझे ऐसा कोई वीर दिखायी नहीं देता जो आपके धनुष ग्रहण करनेपर युद्धमें सामने डटा रहे॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा नो जयो राम भविष्यति न संशयः।
निमित्तानि च पश्यामि तथा भूतानि सर्वशः॥ १३॥
मूलम्
सर्वथा नो जयो राम भविष्यति न संशयः।
निमित्तानि च पश्यामि तथा भूतानि सर्वशः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! इसमें तनिक भी सन्देह नहीं सब प्रकारसे जीत हमारी ही होगी; क्योंकि मुझे सब ओर ऐसे ही कारण (शकुन) दिखायी दे रहे हैं’’॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीववचनं श्रुत्वा भक्तिवीर्यसमन्वितम्।
अङ्गीकृत्याब्रवीद्रामो हनूमन्तं पुरःस्थितम्॥ १४॥
मूलम्
सुग्रीववचनं श्रुत्वा भक्तिवीर्यसमन्वितम्।
अङ्गीकृत्याब्रवीद्रामो हनूमन्तं पुरःस्थितम्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवके ये भक्ति और पुरुषार्थसे भरे वचन सुनकर भगवान् रामने उन्हें सादर स्वीकार किया और फिर सामने खड़े हुए हनुमान् जी से कहा—॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन केन प्रकारेण लङ्घयामो महार्णवम्।
लङ्कास्वरूपं मे ब्रूहि दुःसाध्यं देवदानवैः॥ १५॥
ज्ञात्वा तस्य प्रतीकारं करिष्यामि कपीश्वर।
श्रुत्वा रामस्य वचनं हनूमान् विनयान्वितः॥ १६॥
उवाच प्राञ्जलिर्देव यथा दृष्टं ब्रवीमि ते।
लङ्का दिव्या पुरी देव त्रिकूटशिखरे स्थिता॥ १७॥
मूलम्
येन केन प्रकारेण लङ्घयामो महार्णवम्।
लङ्कास्वरूपं मे ब्रूहि दुःसाध्यं देवदानवैः॥ १५॥
ज्ञात्वा तस्य प्रतीकारं करिष्यामि कपीश्वर।
श्रुत्वा रामस्य वचनं हनूमान् विनयान्वितः॥ १६॥
उवाच प्राञ्जलिर्देव यथा दृष्टं ब्रवीमि ते।
लङ्का दिव्या पुरी देव त्रिकूटशिखरे स्थिता॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हम जैसे-तैसे समुद्र तो पार करेंगे ही, किन्तु तुम लंकाका रूप तो बताओ। सुना है, उसे जीतना तो देवता और दानवोंको भी अत्यन्त कठिन है। हे कपीश्वर! उसका स्वरूप विदित होनेपर मैं उसका कोई प्रतीकार सोचूँगा’। रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर हनुमान् जी ने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा—‘‘देव! मैंने जैसा कुछ देखा है वह आपसे निवेदन करता हूँ। दिव्यपुरी लंका त्रिकूटपर्वतके शिखरपर बसी हुई है॥ १५—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्णप्राकारसहिता स्वर्णाट्टालकसंयुता।
परिखाभिः परिवृता पूर्णाभिर्निर्मलोदकैः॥ १८॥
मूलम्
स्वर्णप्राकारसहिता स्वर्णाट्टालकसंयुता।
परिखाभिः परिवृता पूर्णाभिर्निर्मलोदकैः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका सोनेका परकोटा है और उसमें सोनेकी ही अट्टालिकाएँ हैं तथा वह निर्मल जलसे भरी खाइयोंसे घिरी हुई है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानोपवनशोभाढ्या दिव्यवापीभिरावृता।
गृहैर्विचित्रशोभाढ्यैर्मणिस्तम्भमयैः शुभैः॥ १९॥
मूलम्
नानोपवनशोभाढ्या दिव्यवापीभिरावृता।
गृहैर्विचित्रशोभाढ्यैर्मणिस्तम्भमयैः शुभैः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेकों उपवनोंके कारण उसकी अत्यन्त शोभा हो रही है और उसमें जहाँ-तहाँ बहुत-सी बावड़ियाँ तथा विचित्र शोभासम्पन्न मणिस्तम्भयुक्त भवन शोभायमान हैं॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चिमद्वारमासाद्य गजवाहाः सहस्रशः।
उत्तरे द्वारि तिष्ठन्ति साश्ववाहाः सपत्तयः॥ २०॥
तिष्ठन्त्यर्बुदसङ्ख्याकाः प्राच्यामपि तथैव च।
रक्षिणो राक्षसा वीरा द्वारं दक्षिणमाश्रिताः॥ २१॥
मूलम्
पश्चिमद्वारमासाद्य गजवाहाः सहस्रशः।
उत्तरे द्वारि तिष्ठन्ति साश्ववाहाः सपत्तयः॥ २०॥
तिष्ठन्त्यर्बुदसङ्ख्याकाः प्राच्यामपि तथैव च।
रक्षिणो राक्षसा वीरा द्वारं दक्षिणमाश्रिताः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पश्चिमद्वारपर हजारों गजारोही, उत्तरद्वारपर पैदल सेनाके सहित बहुत-से घुड़सवार, पूर्वद्वारपर एक अरब राक्षस वीर और दक्षिणद्वारपर भी इतने ही रक्षक रहते हैं॥ २०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यकक्षेऽप्यसङ्ख्याता गजाश्वरथपत्तयः।
रक्षयन्ति सदा लङ्कां नानास्त्रकुशलाः प्रभो॥ २२॥
मूलम्
मध्यकक्षेऽप्यसङ्ख्याता गजाश्वरथपत्तयः।
रक्षयन्ति सदा लङ्कां नानास्त्रकुशलाः प्रभो॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! उसके मध्यभागमें भी हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी असंख्य सेना रहकर नगरकी रक्षा करती है। वे सब नाना प्रकारके शस्त्र चलानेमें अत्यन्त कुशल हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्क्रमैर्विविधैर्लङ्का शतघ्नीभिश्च संयुता।
एवं स्थितेऽपि देवेश शृणु मे तत्र चेष्टितम्॥ २३॥
मूलम्
सङ्क्रमैर्विविधैर्लङ्का शतघ्नीभिश्च संयुता।
एवं स्थितेऽपि देवेश शृणु मे तत्र चेष्टितम्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार लंकामें जानेका मार्ग नाना प्रकारके संक्रम (सुरंग) और शतघ्नियों (तोपों)-से सुरक्षित है; किन्तु हे देवेश्वर! यह सब कुछ होते हुए भी मैंने जो कुछ किया है वह सुनिये॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशाननबलौघस्य चतुर्थांशो मया हतः।
दग्ध्वा लङ्कां पुरीं स्वर्णप्रासादो धर्षितो मया॥ २४॥
मूलम्
दशाननबलौघस्य चतुर्थांशो मया हतः।
दग्ध्वा लङ्कां पुरीं स्वर्णप्रासादो धर्षितो मया॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने रावणकी चौथाई सेना मार डाली और लंकापुरीको जलाकर उसका सोनेका महल नष्ट कर दिया॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतघ्न्यः सङ्क्रमाश्चैव नाशिता मे रघूत्तम।
देव त्वद्दर्शनादेव लङ्का भस्मीकृता भवेत्॥ २५॥
मूलम्
शतघ्न्यः सङ्क्रमाश्चैव नाशिता मे रघूत्तम।
देव त्वद्दर्शनादेव लङ्का भस्मीकृता भवेत्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! संक्रमों और तोपोंको मैंने तोड़ डाला। हे देव! (मुझे तो विश्वास है) आपकी दृष्टि पड़ते ही लंका भस्मीभूत हो जायगी॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्थानं कुरु देवेश गच्छामो लवणाम्बुधेः।
तीरं सह महावीरैर्वानरौघैः समन्ततः॥ २६॥
मूलम्
प्रस्थानं कुरु देवेश गच्छामो लवणाम्बुधेः।
तीरं सह महावीरैर्वानरौघैः समन्ततः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवेश्वर! अब चलनेकी तैयारी कीजिये। हम सब ओरसे महाबलवान् वानरवीरोंकी सेना लेकर क्षार (खारे पानीके) समुद्रके तटपर चलें’॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यमुवाच रघुनन्दनः।
सुग्रीव सैनिकान् सर्वान् प्रस्थानायाभिनोदय॥ २७॥
इदानीमेव विजयो मुहूर्तः परिवर्तते।
अस्मिन्मुहूर्ते गत्वाहं लङ्कां राक्षससङ्कुलाम्॥ २८॥
सप्राकारां सुदुर्धर्षां नाशयामि सरावणाम्।
आनेष्यामि च सीतां मे दक्षिणाक्षि स्फुरत्यधः॥ २९॥
मूलम्
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यमुवाच रघुनन्दनः।
सुग्रीव सैनिकान् सर्वान् प्रस्थानायाभिनोदय॥ २७॥
इदानीमेव विजयो मुहूर्तः परिवर्तते।
अस्मिन्मुहूर्ते गत्वाहं लङ्कां राक्षससङ्कुलाम्॥ २८॥
सप्राकारां सुदुर्धर्षां नाशयामि सरावणाम्।
आनेष्यामि च सीतां मे दक्षिणाक्षि स्फुरत्यधः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी का कथन सुनकर श्रीरघुनाथजीने कहा— ‘‘सुग्रीव! सब सैनिकोंको इसी समय कूच करनेकी आज्ञा दो, क्योंकि इस समय विजय नामक मुहूर्त बीत रहा है। इस मुहूर्तमें जाकर मैं राक्षससंकुलित लंकाको, जो परकोटे आदिके कारण अति दुर्जय है; रावणके सहित नष्ट कर दूँगा और सीताजीको ले आऊँगा। इस समय मेरी दायीं आँखका नीचेका भाग फड़क रहा है॥ २७—२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयातु वाहिनी सर्वा वानराणां तरस्विनाम्।
रक्षन्तु यूथपाः सेनामग्रे पृष्ठे च पार्श्वयोः॥ ३०॥
मूलम्
प्रयातु वाहिनी सर्वा वानराणां तरस्विनाम्।
रक्षन्तु यूथपाः सेनामग्रे पृष्ठे च पार्श्वयोः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय बलवान् वानरोंकी सम्पूर्ण सेना चले; जो यूथपति हों वे अपने-अपने यूथकी आगे-पीछे और इधर-उधरसे रक्षा करें॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमन्तमथारुह्य गच्छाम्यग्रेऽङ्गदं ततः।
आरुह्य लक्ष्मणो यातु सुग्रीव त्वं मया सह॥ ३१॥
मूलम्
हनूमन्तमथारुह्य गच्छाम्यग्रेऽङ्गदं ततः।
आरुह्य लक्ष्मणो यातु सुग्रीव त्वं मया सह॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं हनुमान् के कन्धेपर चढ़कर सबसे आगे चलता हूँ, उसके पीछे लक्ष्मण अंगदके ऊपर चढ़कर चलें और हे सुग्रीव! तुम मेरे साथ चलो॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजो गवाक्षो गवयो मैन्दो द्विविद एव च।
नलो नीलः सुषेणश्च जाम्बवांश्च तथापरे॥ ३२॥
सर्वे गच्छन्तु सर्वत्र सेनायाः शत्रुघातिनः।
इत्याज्ञाप्य हरीन् रामः प्रतस्थे सहलक्ष्मणः॥ ३३॥
मूलम्
गजो गवाक्षो गवयो मैन्दो द्विविद एव च।
नलो नीलः सुषेणश्च जाम्बवांश्च तथापरे॥ ३२॥
सर्वे गच्छन्तु सर्वत्र सेनायाः शत्रुघातिनः।
इत्याज्ञाप्य हरीन् रामः प्रतस्थे सहलक्ष्मणः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
गज, गवाक्ष, गवय, मैन्द, द्विविद, नल, नील, सुषेण और जाम्बवान् तथा शत्रुओंका नाश करनेवाले और भी समस्त सेनापतिगण सेनाके चारों ओर चलें।’’ वानरोंको इस प्रकार आज्ञा दे श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीके सहित कूच किया॥ ३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवसहितो हर्षात्सेनामध्यगतो विभुः।
वारणेन्द्रनिभाः सर्वे वानराः कामरूपिणः॥ ३४॥
मूलम्
सुग्रीवसहितो हर्षात्सेनामध्यगतो विभुः।
वारणेन्द्रनिभाः सर्वे वानराः कामरूपिणः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् राम अति हर्षसे सुग्रीवके साथ सेनाके बीचमें जा रहे थे। समस्त वानरगण गजराजके समान बड़े डीलवाले और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले थे॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्ष्वेलन्तः परिगर्जन्तो जग्मुस्ते दक्षिणां दिशम्।
भक्षयन्तो ययुः सर्वे फलानि च मधूनि च॥ ३५॥
मूलम्
क्ष्वेलन्तः परिगर्जन्तो जग्मुस्ते दक्षिणां दिशम्।
भक्षयन्तो ययुः सर्वे फलानि च मधूनि च॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब बड़े वेगसे उछलते-कूदते, गरजते और फल तथा मधु खाते दक्षिण दिशाको चले॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रुवन्तो राघवस्याग्रे हनिष्यामोऽद्य रावणम्।
एवं ते वानरश्रेष्ठा गच्छन्त्यतुलविक्रमाः॥ ३६॥
मूलम्
ब्रुवन्तो राघवस्याग्रे हनिष्यामोऽद्य रावणम्।
एवं ते वानरश्रेष्ठा गच्छन्त्यतुलविक्रमाः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे अतुल पराक्रमी वानरश्रेष्ठ श्रीरघुनाथजीके सामने ‘हम आज ही रावणको मार डालेंगे’ ऐसा कहते हुए जा रहे थे॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिभ्यामुह्यमानौ तौ शुशुभाते रघूत्तमौ।
नक्षत्रैः सेवितौ यद्वच्चन्द्रसूर्याविवाम्बरे॥ ३७॥
मूलम्
हरिभ्यामुह्यमानौ तौ शुशुभाते रघूत्तमौ।
नक्षत्रैः सेवितौ यद्वच्चन्द्रसूर्याविवाम्बरे॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् और अंगदके कन्धोंपर जाते हुए वे दोनों रघुश्रेष्ठ ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो आकाश-मण्डलमें नक्षत्रोंसे सुसेवित सूर्य और चन्द्रमा हों॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवृत्य पृथिवीं कृत्स्नां जगाम महती चमूः।
प्रस्फोटयन्तः पुच्छाग्रानुद्वहन्तश्च पादपान्॥ ३८॥
शैलानारोहयन्तश्च जग्मुर्मारुतवेगतः।
असङ्ख्याताश्च सर्वत्र वानराः परिपूरिताः॥ ३९॥
मूलम्
आवृत्य पृथिवीं कृत्स्नां जगाम महती चमूः।
प्रस्फोटयन्तः पुच्छाग्रानुद्वहन्तश्च पादपान्॥ ३८॥
शैलानारोहयन्तश्च जग्मुर्मारुतवेगतः।
असङ्ख्याताश्च सर्वत्र वानराः परिपूरिताः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह महान् सेना सम्पूर्ण पृथिवीको घेरकर चल रही थी। वानरगण अपनी पूँछ फटकारते और पेड़ोंको उखाड़ते हुए पर्वतोंपर उछलते-कूदते वायुवेगसे जा रहे थे। उस समय सब ओर असंख्य वानर भरे हुए दीख पड़ते थे॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृष्टास्ते जग्मुरत्यर्थं रामेण परिपालिताः।
गता चमूर्दिवारात्रं क्वचिन्नासज्जत क्षणम्॥ ४०॥
मूलम्
हृष्टास्ते जग्मुरत्यर्थं रामेण परिपालिताः।
गता चमूर्दिवारात्रं क्वचिन्नासज्जत क्षणम्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् रामसे सुरक्षित होकर वे प्रसन्नतापूर्वक बड़ी तेजीसे जा रहे थे। वह वानर-सेना रात-दिन चलती थी, कहीं एक क्षणको भी न रुकती थी॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काननानि विचित्राणि पश्यन्मलयसह्ययोः।
ते सह्यं समतिक्रम्य मलयं च तथा गिरिम्॥ ४१॥
आययुश्चानुपूर्व्येण समुद्रं भीमनिःस्वनम्।
अवतीर्य हनूमन्तं रामः सुग्रीवसंयुतः॥ ४२॥
सलिलाभ्याशमासाद्य रामो वचनमब्रवीत्।
आगताः स्मो वयं सर्वे समुद्रं मकरालयम्॥ ४३॥
इतो गन्तुमशक्यं नो निरुपायेन वानराः।
अत्र सेनानिवेशोऽस्तु मन्त्रयामोऽस्य तारणे॥ ४४॥
मूलम्
काननानि विचित्राणि पश्यन्मलयसह्ययोः।
ते सह्यं समतिक्रम्य मलयं च तथा गिरिम्॥ ४१॥
आययुश्चानुपूर्व्येण समुद्रं भीमनिःस्वनम्।
अवतीर्य हनूमन्तं रामः सुग्रीवसंयुतः॥ ४२॥
सलिलाभ्याशमासाद्य रामो वचनमब्रवीत्।
आगताः स्मो वयं सर्वे समुद्रं मकरालयम्॥ ४३॥
इतो गन्तुमशक्यं नो निरुपायेन वानराः।
अत्र सेनानिवेशोऽस्तु मन्त्रयामोऽस्य तारणे॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें वे सब लोग मलयाचल और सह्याद्रिके विचित्र वनोंको देखते हुए उन दोनों पर्वतोंको पार कर क्रमशः भयंकर गर्जना करनेवाले समुद्रके तटपर पहुँच गये। तब श्रीरामचन्द्रजी हनुमान् जी के कन्धेसे उतरकर सुग्रीवके साथ जलके निकट आये और बोले—‘‘हे वानरगण! हमलोग मकरादिसे पूर्ण समुद्रके तटपर तो आ गये, किन्तु अब आगे बिना कोई विशेष उपाय किये हम नहीं जा सकते। अतः अब यहीं सेनाकी छावनी डाली जाय। हमलोग समुद्र पार करनेके विषयमें परस्पर परामर्श करेंगे’’॥ ४१—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा रामस्य वचनं सुग्रीवः सागरान्तिके।
सेनां न्यवेशयत्क्षिप्रं रक्षितां कपिकुञ्जरैः॥ ४५॥
मूलम्
श्रुत्वा रामस्य वचनं सुग्रीवः सागरान्तिके।
सेनां न्यवेशयत्क्षिप्रं रक्षितां कपिकुञ्जरैः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामके वचन सुनकर सुग्रीवने तुरंत ही समुद्रके निकट सेनाका पड़ाव डाला और बहुत-से प्रधान-प्रधान वानर-वीर उनकी रक्षा करने लगे॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पश्यन्तो विषेदुस्तं सागरं भीमदर्शनम्।
महोन्नततरङ्गाढ्यं भीमनक्रभयङ्करम्॥ ४६॥
मूलम्
ते पश्यन्तो विषेदुस्तं सागरं भीमदर्शनम्।
महोन्नततरङ्गाढ्यं भीमनक्रभयङ्करम्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे लोग उत्ताल तरंगोंसे पूर्ण तथा दारुण नाक आदिके कारण भयंकर समुद्रको देखकर मन-ही-मन विषाद करने लगे॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगाधं गगनाकारं सागरं वीक्ष्य दुःखिताः।
तरिष्यामः कथं घोरं सागरं वरुणालयम्॥ ४७॥
मूलम्
अगाधं गगनाकारं सागरं वीक्ष्य दुःखिताः।
तरिष्यामः कथं घोरं सागरं वरुणालयम्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आकाशके समान अगाध समुद्रको देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे सोचने लगे कि ‘हम इस घोर वरुणालयको कैसे पार करेंगे॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्तव्योऽस्माभिरद्यैव रावणो राक्षसाधमः।
इति चिन्ताकुलाः सर्वे रामपार्श्वे व्यवस्थिताः॥ ४८॥
मूलम्
हन्तव्योऽस्माभिरद्यैव रावणो राक्षसाधमः।
इति चिन्ताकुलाः सर्वे रामपार्श्वे व्यवस्थिताः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसाधम रावणको तो हमें आज ही मारना है (पर मारें कैसे?)’ इस प्रकार सब लोग अति चिन्ताग्रस्त हो श्रीरघुनाथजीके पास बैठ गये॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः सीतामनुस्मृत्य दुःखेन महतावृतः।
विलप्य जानकीं सीतां बहुधा कार्यमानुषः॥ ४९॥
अद्वितीयश्चिदात्मैकः परमात्मा सनातनः।
यस्तु जानाति रामस्य स्वरूपं तत्त्वतो जनः॥ ५०॥
तं न स्पृशति दुःखादि किमुतानन्दमव्ययम्।
दुःखहर्षभयक्रोधलोभमोहमदादयः ॥ ५१॥
अज्ञानलिङ्गान्येतानि कुतः सन्ति चिदात्मनि।
देहाभिमानिनो दुःखं न देहस्य चिदात्मनः॥ ५२॥
मूलम्
रामः सीतामनुस्मृत्य दुःखेन महतावृतः।
विलप्य जानकीं सीतां बहुधा कार्यमानुषः॥ ४९॥
अद्वितीयश्चिदात्मैकः परमात्मा सनातनः।
यस्तु जानाति रामस्य स्वरूपं तत्त्वतो जनः॥ ५०॥
तं न स्पृशति दुःखादि किमुतानन्दमव्ययम्।
दुःखहर्षभयक्रोधलोभमोहमदादयः ॥ ५१॥
अज्ञानलिङ्गान्येतानि कुतः सन्ति चिदात्मनि।
देहाभिमानिनो दुःखं न देहस्य चिदात्मनः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर श्रीरामचन्द्रजी भी सीताकी यादकर महान् दुःखमें डूब गये। वे यद्यपि एक अद्वितीय चिन्मात्र परमात्मा सनातन पुरुष थे, तथापि कार्यवश मनुष्यरूप होनेके कारण जानकीजीके लिये नाना प्रकारसे विलाप करने लगे। जो पुरुष परमात्मा रामका वास्तविक स्वरूप जानता है उसे भी दुःखादि स्पर्श नहीं कर सकते, फिर आनन्दस्वरूप अविनाशी भगवान् रामकी तो बात ही क्या है? दुःख, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह और मद आदि सब अज्ञानके ही चिह्न हैं; चिदात्मा राममें ये कैसे हो सकते हैं? देहका दुःख देहाभिमानीको ही होता है, चेतन आत्माको नहीं॥ ४९—५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रसादे द्वयाभावात्सुखमात्रं हि दृश्यते।
बुद्ध्याद्यभावात्संशुद्धे दुःखं तत्र न दृश्यते।
अतो दुःखादिकं सर्वं बुद्धेरेव न संशयः॥ ५३॥
मूलम्
सम्प्रसादे द्वयाभावात्सुखमात्रं हि दृश्यते।
बुद्ध्याद्यभावात्संशुद्धे दुःखं तत्र न दृश्यते।
अतो दुःखादिकं सर्वं बुद्धेरेव न संशयः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
समाधि-अवस्थामें द्वैत-प्रपंचका अभाव हो जानेके कारण वहाँ केवल सुखका ही साक्षात्कार होता है। उस अवस्थामें बुद्धि आदिका अभाव हो जानेसे शुद्ध आत्मामें दुःखका लेश भी दिखायी नहीं देता। अतः इसमें सन्देह नहीं ये दुःखादि सब बुद्धिके ही धर्म हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः परात्मा पुरुषः पुराणो
नित्योदितो नित्यसुखो निरीहः।
तथापि मायागुणसङ्गतोऽसौ
सुखीव दुःखीव विभाव्यतेऽबुधैः॥ ५४॥
मूलम्
रामः परात्मा पुरुषः पुराणो
नित्योदितो नित्यसुखो निरीहः।
तथापि मायागुणसङ्गतोऽसौ
सुखीव दुःखीव विभाव्यतेऽबुधैः॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् राम परमात्मा, पुराणपुरुष, नित्यप्रकाश-स्वरूप, नित्यसुख-स्वरूप और निरीह हैं; किन्तु अज्ञानी पुरुषोंको वे मायिक गुणोंके सम्बन्धसे सुखी या दुःखी-से प्रतीत होते हैं॥ ५४॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे प्रथमः सर्गः॥ १॥