०४

[चतुर्थ सर्ग]

भागसूचना

हनुमान् और रावणका संवाद तथा लंकादहन

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान्तं कपीन्द्रं धृतपाशबन्धनं
विलोकयन्तं नगरं विभीतवत्।
अताडयन्मुष्टितलैः सुकोपनाः
पौराः समन्तादनुयान्त ईक्षितुम्॥ १॥

मूलम्

यान्तं कपीन्द्रं धृतपाशबन्धनं
विलोकयन्तं नगरं विभीतवत्।
अताडयन्मुष्टितलैः सुकोपनाः
पौराः समन्तादनुयान्त ईक्षितुम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! ब्रह्मपाशसे बँधे हुए श्रीहनुमान् जी जब डरे हुएके समान नगर देखते जा रहे थे, उस समय उन्हें देखनेके लिये इधर-उधरसे इकट्ठे हुए पुरवासी उनके पीछे-पीछे चलते हुए उन्हें क्रोधपूर्वक घूँसोंसे मारने लगे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मास्त्रमेनं क्षणमात्रसङ्गमं
कृत्वा गतं ब्रह्मवरेण सत्वरम्।
ज्ञात्वा हनूमानपि फल्गुरज्जुभि-
र्धृतो ययौ कार्यविशेषगौरवात्॥ २॥

मूलम्

ब्रह्मास्त्रमेनं क्षणमात्रसङ्गमं
कृत्वा गतं ब्रह्मवरेण सत्वरम्।
ज्ञात्वा हनूमानपि फल्गुरज्जुभि-
र्धृतो ययौ कार्यविशेषगौरवात्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीके वरके प्रभावसे ब्रह्मास्त्र हनुमान् जी के शरीरका क्षणभरके लिये स्पर्श कर तुरंत चला गया। यह बात जानकर भी श्रीहनुमान् जी विशेष कार्य सम्पादन करनेके लिये तुच्छ रस्सियोंसे ही बँधे हुए रावणके पास चले गये॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभान्तरस्थस्य च रावणस्य तं
पुरो निधायाह बलारिजित्तदा।
बद्धो मया ब्रह्मवरेण वानरः
समागतोऽनेन हता महासुराः॥ ३॥

मूलम्

सभान्तरस्थस्य च रावणस्य तं
पुरो निधायाह बलारिजित्तदा।
बद्धो मया ब्रह्मवरेण वानरः
समागतोऽनेन हता महासुराः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रजित् उन्हें सभामें स्थित रावणके सामने ले गया और बोला—‘‘मैं इस वानरको ब्रह्माके वरके प्रभावसे बाँध लाया हूँ; इसीने हमारे बड़े-बड़े वीर राक्षस मारे हैं॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्युक्तमत्रार्य विचार्य मन्त्रिभि-
र्विधीयतामेष न लौकिको हरिः।
ततो विलोक्याह स राक्षसेश्वरः
प्रहस्तमग्रे स्थितमञ्जनाद्रिभम्॥ ४ ॥

मूलम्

यद्युक्तमत्रार्य विचार्य मन्त्रिभि-
र्विधीयतामेष न लौकिको हरिः।
ततो विलोक्याह स राक्षसेश्वरः
प्रहस्तमग्रे स्थितमञ्जनाद्रिभम्॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मन्त्रियोंके साथ विचारकर इसके लिये जैसा उचित समझें वैसा विधान करें। यह कोई साधारण वानर नहीं है।’’ तब राक्षसराज रावणने सामने बैठे हुए कज्जलगिरिके समान कृष्णवर्ण प्रहस्तसे कहा—॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहस्त पृच्छैनमसौ किमागतः
किमत्र कार्यं कुत एव वानरः।
वनं किमर्थं सकलं विनाशितं
हताः किमर्थं मम राक्षसा बलात्॥ ५॥

मूलम्

प्रहस्त पृच्छैनमसौ किमागतः
किमत्र कार्यं कुत एव वानरः।
वनं किमर्थं सकलं विनाशितं
हताः किमर्थं मम राक्षसा बलात्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘प्रहस्त! इस बंदरसे पूछो तो सही, यह यहाँ क्यों आया है? इसका क्या कार्य है? यह कहाँसे आया है? इसने मेरा सारा वन क्यों उजाड़ डाला? और मेरे राक्षस वीरोंको बलात् क्यों मारा?’’॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्तो हनुमन्तमादरात्
पप्रच्छ केन प्रहितोऽसि वानर।
भयं च ते मास्तु विमोक्ष्यसे मया
सत्यं वदस्वाखिलराजसन्निधौ॥ ६॥

मूलम्

ततः प्रहस्तो हनुमन्तमादरात्
पप्रच्छ केन प्रहितोऽसि वानर।
भयं च ते मास्तु विमोक्ष्यसे मया
सत्यं वदस्वाखिलराजसन्निधौ॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रहस्तने हनुमान् जी से आदरपूर्वक पूछा— ‘‘वानर! तुम्हें किसने भेजा है? तुम डरो मत; राजराजेश्वरके सामने सब बात सच-सच बतला दो; फिर मैं तुम्हें छुड़ा दूँगा’’॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिहर्षात्पवनात्मजो रिपुं
निरीक्ष्य लोकत्रयकण्टकासुरम्।
वक्तुं प्रचक्रे रघुनाथसत्कथां
क्रमेण रामं मनसा स्मरन्मुहुः॥ ७॥

मूलम्

ततोऽतिहर्षात्पवनात्मजो रिपुं
निरीक्ष्य लोकत्रयकण्टकासुरम्।
वक्तुं प्रचक्रे रघुनाथसत्कथां
क्रमेण रामं मनसा स्मरन्मुहुः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अपने शत्रु त्रिलोकीके कण्टकरूप राक्षसराज रावणको देखकर पवननन्दन हनुमान् जी ने हृदयमें बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण कर अति हर्षित हो क्रमसे रघुनाथजीकी सुन्दर कथा कहनी आरम्भ की॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु स्फुटं देवगणाद्यमित्र हे
रामस्य दूतोऽहमशेषहृत्स्थितेः।
यस्याखिलेशस्य हृताधुना त्वया
भार्या स्वनाशाय शुनेव सद्धविः॥ ८॥

मूलम्

शृणु स्फुटं देवगणाद्यमित्र हे
रामस्य दूतोऽहमशेषहृत्स्थितेः।
यस्याखिलेशस्य हृताधुना त्वया
भार्या स्वनाशाय शुनेव सद्धविः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगे—‘‘हे देवादिके शत्रु रावण! तुम साफ-साफ सुनो; कुत्ता जिस प्रकार हविको चुरा ले जाता है उसी प्रकार तुमने अपना नाश करानेके लिये जिन अखिलेश्वरकी साध्वी भार्याको हर लिया है, मैं उन्हीं सर्वान्तर्यामी भगवान् रामका दूत हूँ॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राघवोऽभ्येत्य मतङ्गपर्वतं
सुग्रीवमैत्रीमनलस्य सन्निधौ।
कृत्वैकबाणेन निहत्य वालिनं
सुग्रीवमेवाधिपतिं चकार तम्॥ ९॥

मूलम्

स राघवोऽभ्येत्य मतङ्गपर्वतं
सुग्रीवमैत्रीमनलस्य सन्निधौ।
कृत्वैकबाणेन निहत्य वालिनं
सुग्रीवमेवाधिपतिं चकार तम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन श्रीरघुनाथजीने मतंगपर्वतपर आकर अग्निके साक्ष्यमें सुग्रीवसे मित्रता की और एक ही बाणसे वालीको मारकर सुग्रीवको वानरोंका राजा बना दिया॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वानराणामधिपो महाबली
महाबलैर्वानरयूथकोटिभिः।
रामेण सार्धं सह लक्ष्मणेन भोः
प्रवर्षणेऽमर्षयुतोऽवतिष्ठते॥ १०॥

मूलम्

स वानराणामधिपो महाबली
महाबलैर्वानरयूथकोटिभिः।
रामेण सार्धं सह लक्ष्मणेन भोः
प्रवर्षणेऽमर्षयुतोऽवतिष्ठते॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! इस समय वे महाबली वानरराज और भी करोड़ों महाशूरवीर वानर-यूथोंके साथ राम और लक्ष्मणके सहित अति क्रोधयुक्त हो प्रवर्षण पर्वतपर विराजमान हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सञ्चोदितास्तेन महाहरीश्वरा
धरासुतां मार्गयितुं दिशो दश।
तत्राहमेकः पवनात्मजः कपिः
सीतां विचिन्वञ्छनकैः समागतः॥ ११॥

मूलम्

सञ्चोदितास्तेन महाहरीश्वरा
धरासुतां मार्गयितुं दिशो दश।
तत्राहमेकः पवनात्मजः कपिः
सीतां विचिन्वञ्छनकैः समागतः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने श्रीजानकीजीको ढूँढ़नेके लिये दसों दिशाओंमें बड़े-बड़े वानरेश्वर भेजे हैं। उन्हींमेंसे एक वानर मैं वायुका पुत्र हूँ, मैं सीताजीको धीरे-धीरे ढूँढ़ता हुआ यहाँ आया हूँ॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टा मया पद्मपलाशलोचना
सीता कपित्वाद्विपिनं विनाशितम्।
दृष्ट्वा ततोऽहं रभसा समागतान्
मां हन्तुकामान् धृतचापसायकान्॥ १२॥
मया हतास्ते परिरक्षितं वपुः
प्रियो हि देहोऽखिलदेहिनां प्रभो।
ब्रह्मास्त्रपाशेन निबध्य मां ततः
समागमन्मेघनिनादनामकः॥ १३॥

मूलम्

दृष्टा मया पद्मपलाशलोचना
सीता कपित्वाद्विपिनं विनाशितम्।
दृष्ट्वा ततोऽहं रभसा समागतान्
मां हन्तुकामान् धृतचापसायकान्॥ १२॥
मया हतास्ते परिरक्षितं वपुः
प्रियो हि देहोऽखिलदेहिनां प्रभो।
ब्रह्मास्त्रपाशेन निबध्य मां ततः
समागमन्मेघनिनादनामकः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं कमलदललोचना जानकीजीका दर्शन कर चुका हूँ, फिर अपने वानर-स्वभावसे मैंने वन उजाड़ दिया और जब मैंने राक्षसोंको बड़े वेगसे धनुष-बाण आदि लेकर अपनेको मारनेके लिये आते देखा, तो उन्हें मारकर अपनी शरीर-रक्षा की, क्योंकि हे राजन्! अपना शरीर तो सभी देहधारियोंको प्यारा होता है। फिर यह मेघनाद नामक राक्षस मुझे ब्रह्मपाशमें बाँधकर यहाँ ले आया॥ १२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृष्ट्वैव मां ब्रह्मवरप्रभावत-
स्त्यक्त्वा गतं सर्वमवैमि रावण।
तथाप्यहं बद्ध इवागतो हितं
प्रवक्तुकामः करुणारसार्द्रधीः॥ १४॥

मूलम्

स्पृष्ट्वैव मां ब्रह्मवरप्रभावत-
स्त्यक्त्वा गतं सर्वमवैमि रावण।
तथाप्यहं बद्ध इवागतो हितं
प्रवक्तुकामः करुणारसार्द्रधीः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! मैं यद्यपि यह जानता था कि ब्रह्माजीके वरके प्रभावसे वह ब्रह्मपाश मुझे छूते ही चला गया, तथापि करुणावश तुम्हारे हितकी बात बतानेके लिये मैं बँधे हुएके समान यहाँ चला आया॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचार्य लोकस्य विवेकतो गतिं
न राक्षसीं बुद्धिमुपैहि रावण।
दैवीं गतिं संसृतिमोक्षहैतुकीं
समाश्रयात्यन्तहिताय देहिनः॥ १५॥

मूलम्

विचार्य लोकस्य विवेकतो गतिं
न राक्षसीं बुद्धिमुपैहि रावण।
दैवीं गतिं संसृतिमोक्षहैतुकीं
समाश्रयात्यन्तहिताय देहिनः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! तुम विवेकपूर्वक संसारकी गतिका विचार करो; राक्षसी बुद्धिको अंगीकार मत करो और संसार-बन्धनसे छुटानेवाली प्राणियोंकी अत्यन्त हितकारिणी दैवी गतिका आश्रय लो॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं ब्रह्मणो ह्युत्तमवंशसम्भवः
पौलस्त्यपुत्रोऽसि कुबेरबान्धवः।
देहात्मबुद्‍ध्यापि च पश्य राक्षसो
नास्यात्मबुद्‍ध्या किमु राक्षसो नहि॥ १६॥

मूलम्

त्वं ब्रह्मणो ह्युत्तमवंशसम्भवः
पौलस्त्यपुत्रोऽसि कुबेरबान्धवः।
देहात्मबुद्‍ध्यापि च पश्य राक्षसो
नास्यात्मबुद्‍ध्या किमु राक्षसो नहि॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम ब्रह्माजीके अति उत्तम वंशमें उत्पन्न हुए हो तथा पुलस्त्यनन्दन विश्रवाके पुत्र और कुबेरके भाई हो; अतः देखो, तुम तो देहात्मबुद्धिसे भी राक्षस नहीं हो; फिर आत्मबुद्धिसे राक्षस नहीं हो—इसमें तो कहना ही क्या है?॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरबुद्धीन्द्रियदुःखसन्तति-
र्न ते न च त्वं तव निर्विकारतः।
अज्ञानहेतोश्च तथैव सन्तते-
रसत्त्वमस्याः स्वपतो हि दृश्यवत्॥ १७॥

मूलम्

शरीरबुद्धीन्द्रियदुःखसन्तति-
र्न ते न च त्वं तव निर्विकारतः।
अज्ञानहेतोश्च तथैव सन्तते-
रसत्त्वमस्याः स्वपतो हि दृश्यवत्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तुम वास्तवमें कौन हो सो मैं बतलाता हूँ—) तुम सर्वथा निर्विकार हो; इसलिये शरीर, बुद्धि, इन्द्रियाँ और दुःखादि—ये न तुम्हारे (गुण) हैं और न तुम स्वयं हो। इन सबका कारण अज्ञान है और स्वप्नदृश्यके समान ये सब असत् हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु सत्यं तव नास्ति विक्रिया
विकारहेतुर्न च तेऽद्वयत्वतः।
यथा नभः सर्वगतं न लिप्यते
तथा भवान् देहगतोऽपि सूक्ष्मकः।
देहेन्द्रियप्राणशरीरसङ्गत-
स्त्वात्मेति बुद्‍ध्वाखिलबन्धभाग्भवेत्॥ १८॥

मूलम्

इदं तु सत्यं तव नास्ति विक्रिया
विकारहेतुर्न च तेऽद्वयत्वतः।
यथा नभः सर्वगतं न लिप्यते
तथा भवान् देहगतोऽपि सूक्ष्मकः।
देहेन्द्रियप्राणशरीरसङ्गत-
स्त्वात्मेति बुद्‍ध्वाखिलबन्धभाग्भवेत्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बिलकुल सत्य है कि तुम्हारे आत्मस्वरूपमें कोई विकार नहीं है; क्योंकि अद्वितीय होनेसे उसमें कोई विकारका कारण ही नहीं है। जिस प्रकार आकाश सर्वत्र होनेसे भी (किसी पदार्थके गुण-दोषसे) लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तुम देहमें रहते हुए भी सूक्ष्मरूप होनेसे उसके सुख-दुःखादि विकारोंसे लिप्त नहीं होते। ‘आत्मा देह, इन्द्रिय, प्राण और शरीरसे मिला हुआ है’ ऐसी बुद्धि ही सारे बन्धनोंका कारण होती है॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्मात्रमेवाहमजोऽहमक्षरो
ह्यानन्दभावोऽहमिति प्रमुच्यते।
देहोऽप्यनात्मा पृथिवीविकारजो
न प्राण आत्मानिल एष एव सः॥ १९॥

मूलम्

चिन्मात्रमेवाहमजोऽहमक्षरो
ह्यानन्दभावोऽहमिति प्रमुच्यते।
देहोऽप्यनात्मा पृथिवीविकारजो
न प्राण आत्मानिल एष एव सः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ‘मैं चिन्मात्र अजन्मा अविनाशी तथा आनन्दस्वरूप ही हूँ’ इस बुद्धिसे जीव मुक्त हो जाता है। पृथ्वीका विकार होनेसे देह भी अनात्मा है और प्राण वायुरूप ही है, अतः यह भी आत्मा नहीं है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोऽप्यहङ्कारविकार एव नो
न चापि बुद्धिः प्रकृतेर्विकारजा।
आत्मा चिदानन्दमयोऽविकारवान्
देहादिसङ्घाद्व्यतिरिक्त ईश्वरः॥ २०॥

मूलम्

मनोऽप्यहङ्कारविकार एव नो
न चापि बुद्धिः प्रकृतेर्विकारजा।
आत्मा चिदानन्दमयोऽविकारवान्
देहादिसङ्घाद्व्यतिरिक्त ईश्वरः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहंकारका कार्य मन अथवा प्रकृतिके विकारसे उत्पन्न हुई बुद्धि भी आत्मा नहीं है। आत्मा तो चिदानन्दस्वरूप, अविकारी तथा देहादि संघातसे पृथक् और उसका स्वामी है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरञ्जनो मुक्त उपाधितः सदा
ज्ञात्वैवमात्मानमितो विमुच्यते।
अतोऽहमात्यन्तिकमोक्षसाधनं
वक्ष्ये शृणुष्वावहितो महामते॥ २१॥

मूलम्

निरञ्जनो मुक्त उपाधितः सदा
ज्ञात्वैवमात्मानमितो विमुच्यते।
अतोऽहमात्यन्तिकमोक्षसाधनं
वक्ष्ये शृणुष्वावहितो महामते॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह निर्मल और सर्वदा उपाधिरहित है; उसका इस प्रकार ज्ञान होते ही मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है। अतः हे महामते! मैं तुम्हें आत्यन्तिक मोक्षका साधन बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णोर्हि भक्तिः सुविशोधनं धिय-
स्ततो भवेज्ज्ञानमतीव निर्मलम्।
विशुद्धतत्त्वानुभवो भवेत्ततः
सम्यग्विदित्वा परमं पदं व्रजेत्॥ २२॥

मूलम्

विष्णोर्हि भक्तिः सुविशोधनं धिय-
स्ततो भवेज्ज्ञानमतीव निर्मलम्।
विशुद्धतत्त्वानुभवो भवेत्ततः
सम्यग्विदित्वा परमं पदं व्रजेत्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुकी भक्ति बुद्धिको अत्यन्त शुद्ध करनेवाली है, उसीसे अत्यन्त निर्मल आत्मज्ञान होता है। आत्मज्ञानसे शुद्ध आत्मतत्त्वका अनुभव होता है और उससे दृढ़ बोध हो जानेसे मनुष्य परमपद प्राप्त करता है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो भजस्वाद्य हरिं रमापतिं
रामं पुराणं प्रकृतेः परं विभुम्।
विसृज्य मौर्ख्यं हृदि शत्रुभावनां
भजस्व रामं शरणागतप्रियम्।
सीतां पुरस्कृत्य सपुत्रबान्धवो
रामं नमस्कृत्य विमुच्यसे भयात्॥ २३॥

मूलम्

अतो भजस्वाद्य हरिं रमापतिं
रामं पुराणं प्रकृतेः परं विभुम्।
विसृज्य मौर्ख्यं हृदि शत्रुभावनां
भजस्व रामं शरणागतप्रियम्।
सीतां पुरस्कृत्य सपुत्रबान्धवो
रामं नमस्कृत्य विमुच्यसे भयात्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम प्रकृतिसे परे, पुराणपुरुष, सर्वव्यापक आदिनारायण, लक्ष्मीपति, हरि, भगवान् रामका भजन करो। अपने हृदयमें स्थित शत्रुभावरूप मूर्खताको छोड़ दो और शरणागतवत्सल रामका भजन करो। सीताजीको आगे कर अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंके सहित भगवान् रामकी शरण जाकर उन्हें नमस्कार करो। इससे तुम भयसे छूट जाओगे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं परात्मानमभावयञ्जनो
भक्त्या हृदिस्थं सुखरूपमद्वयम्।
कथं परं तीरमवाप्नुयाज्जनो
भवाम्बुधेर्दुःखतरङ्गमालिनः॥ २४॥

मूलम्

रामं परात्मानमभावयञ्जनो
भक्त्या हृदिस्थं सुखरूपमद्वयम्।
कथं परं तीरमवाप्नुयाज्जनो
भवाम्बुधेर्दुःखतरङ्गमालिनः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अपने हृदयमें स्थित अद्वितीय सुखस्वरूप परमात्मा रामका भक्तिपूर्वक ध्यान नहीं करता वह दुःख-तरंगावलिसे पूर्ण इस संसार-समुद्रका पार कैसे पा सकता है?॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नो चेत्त्वमज्ञानमयेन वह्निना
ज्वलन्तमात्मानमरक्षितारिवत्।
नयस्यधोऽधः स्वकृतैश्च पातकै-
र्विमोक्षशङ्का न च ते भविष्यति॥ २५॥

मूलम्

नो चेत्त्वमज्ञानमयेन वह्निना
ज्वलन्तमात्मानमरक्षितारिवत्।
नयस्यधोऽधः स्वकृतैश्च पातकै-
र्विमोक्षशङ्का न च ते भविष्यति॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम भगवान् रामका भजन न करोगे तो अज्ञानरूपी अग्निसे जलते हुए अपने-आपको शत्रुके समान सुरक्षित नहीं रख सकोगे और उसे अपने किये हुए पापोंसे उत्तरोत्तर नीचेकी ओर ही ले जाओगे; फिर तुम्हारे मोक्षकी कोई सम्भावना न रहेगी’’॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वामृतास्वादसमानभाषितं
तद्वायुसूनोर्दशकन्धरोऽसुरः।
अमृष्यमाणोऽतिरुषा कपीश्वरं
जगाद रक्तान्तविलोचनो ज्वलन्॥ २६॥

मूलम्

श्रुत्वामृतास्वादसमानभाषितं
तद्वायुसूनोर्दशकन्धरोऽसुरः।
अमृष्यमाणोऽतिरुषा कपीश्वरं
जगाद रक्तान्तविलोचनो ज्वलन्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनसुतके इस अमृतसदृश मधुर भाषणको सुनकर राक्षसराज रावण उसे सहन न कर सका और अत्यन्त क्रोधसे नेत्र लालकर मन-ही-मन जलता हुआ हनुमान् जी से बोला—॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं ममाग्रे विलपस्यभीतवत्
प्लवङ्गमानामधमोऽसि दुष्टधीः।
क एष रामः कतमो वनेचरो
निहन्मि सुग्रीवयुतं नराधमम्॥ २७॥

मूलम्

कथं ममाग्रे विलपस्यभीतवत्
प्लवङ्गमानामधमोऽसि दुष्टधीः।
क एष रामः कतमो वनेचरो
निहन्मि सुग्रीवयुतं नराधमम्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरे दुष्टबुद्धे! तू वानरोंमें अधम है। मेरे सामने इस प्रकार निर्भयके समान कैसे प्रलाप कर रहा है? यह राम और वनचर सुग्रीव हैं क्या चीज? उस नराधमको तो सुग्रीवके सहित मैं ही मार डालूँगा॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां चाद्य हत्वा जनकात्मजां ततो
निहन्मि रामं सहलक्ष्मणं ततः।
सुग्रीवमग्रे बलिनं कपीश्वरं
सवानरं हन्म्यचिरेण वानर।
श्रुत्वा दशग्रीववचः स मारुति-
र्विवृद्धकोपेन दहन्निवासुरम्॥ २८॥

मूलम्

त्वां चाद्य हत्वा जनकात्मजां ततो
निहन्मि रामं सहलक्ष्मणं ततः।
सुग्रीवमग्रे बलिनं कपीश्वरं
सवानरं हन्म्यचिरेण वानर।
श्रुत्वा दशग्रीववचः स मारुति-
र्विवृद्धकोपेन दहन्निवासुरम्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐ वानर! पहले तो आज तुझे ही मारूँगा, फिर जानकीका वध करूँगा, तदनन्तर लक्ष्मणके सहित रामको मारूँगा और उनसे पहले उस बड़े बली वानरराज सुग्रीवको उसकी वानरसेनाके सहित कुछ ही देरमें मार डालूँगा।’’ रावणके ये वचन सुनकर हनुमान् जी अपने बढ़े हुए क्रोधसे उसे जलाते हुए-से बोले—॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे समा रावणकोटयोऽधम
रामस्य दासोऽहमपारविक्रमः।
श्रुत्वातिकोपेन हनूमतो वचो
दशाननो राक्षसमेवमब्रवीत्॥ २९॥
पार्श्वे स्थितं मारय खण्डशः कपिं
पश्यन्तु सर्वेऽसुरमित्रबान्धवाः।
निवारयामास ततो विभीषणो
महासुरं सायुधमुद्यतं वधे।
राजन् वधार्हो न भवेत्कथञ्चन
प्रतापयुक्तैः परराजवानरः॥ ३०॥

मूलम्

न मे समा रावणकोटयोऽधम
रामस्य दासोऽहमपारविक्रमः।
श्रुत्वातिकोपेन हनूमतो वचो
दशाननो राक्षसमेवमब्रवीत्॥ २९॥
पार्श्वे स्थितं मारय खण्डशः कपिं
पश्यन्तु सर्वेऽसुरमित्रबान्धवाः।
निवारयामास ततो विभीषणो
महासुरं सायुधमुद्यतं वधे।
राजन् वधार्हो न भवेत्कथञ्चन
प्रतापयुक्तैः परराजवानरः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरे अधम! मेरी समानता तो करोड़ रावण भी नहीं कर सकते; जानता नहीं, मैं भगवान् रामका दास हूँ, मेरे पराक्रमका कोई ठिकाना नहीं है।’’ हनुमान् जी के ये वचन सुनकर रावणने अत्यन्त क्रोधपूर्वक अपनी बगलमें खड़े हुए एक राक्षससे कहा—‘अरे! इस वानरके टुकड़े-टुकड़े करके मार डाल, जिससे सब राक्षस, मित्र तथा बन्धुगण इस कौतुकको देखें।’ तब विभीषणने हथियार लेकर मारनेके लिये तैयार हुए उस प्रचण्ड राक्षसको रोककर कहा—‘‘राजन्! प्रतापी पुरुषोंको अन्य राज्यके वानर-दूतको किसी प्रकार भी न मारना चाहिये॥ २९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतेऽस्मिन्वानरे दूते वार्तां को वा निवेदयेत्।
रामाय त्वं यमुद्दिश्य वधाय समुपस्थितः॥ ३१॥

मूलम्

हतेऽस्मिन्वानरे दूते वार्तां को वा निवेदयेत्।
रामाय त्वं यमुद्दिश्य वधाय समुपस्थितः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि यह वानर-दूत मारा गया तो जिनका वध करनेके लिये आप उद्यत हुए हैं उन रामको यह समाचार कौन सुनावेगा?

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो वधसमं किञ्चिदन्यच्चिन्तय वानरे।
सचिह्नो गच्छतु हरिर्यं दृष्ट्वायास्यति द्रुतम्॥ ३२॥
रामः सुग्रीवसहितस्ततो युद्धं भवेत्तव।
विभीषणवचः श्रुत्वा रावणोऽप्येतदब्रवीत्॥ ३३॥

मूलम्

अतो वधसमं किञ्चिदन्यच्चिन्तय वानरे।
सचिह्नो गच्छतु हरिर्यं दृष्ट्वायास्यति द्रुतम्॥ ३२॥
रामः सुग्रीवसहितस्ततो युद्धं भवेत्तव।
विभीषणवचः श्रुत्वा रावणोऽप्येतदब्रवीत्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इस वानरके लिये वधके समान ही कोई और दण्ड निश्चय कीजिये, जिसका चिह्न लेकर यह वानर जाय और उसे देखकर सुग्रीवके सहित राम तुरंत ही आयें और फिर उनसे आपका युद्ध हो।’’ विभीषणका कथन सुनकर रावण भी यों बोला—॥ ३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वानराणां हि लाङ्गूले महामानो भवेत्किल।
अतो वस्त्रादिभिः पुच्छं वेष्टयित्वा प्रयत्नतः॥ ३४॥
वह्निना योजयित्वैनं भ्रामयित्वा पुरेऽभितः।
विसर्जयत पश्यन्तु सर्वे वानरयूथपाः॥ ३५॥

मूलम्

वानराणां हि लाङ्गूले महामानो भवेत्किल।
अतो वस्त्रादिभिः पुच्छं वेष्टयित्वा प्रयत्नतः॥ ३४॥
वह्निना योजयित्वैनं भ्रामयित्वा पुरेऽभितः।
विसर्जयत पश्यन्तु सर्वे वानरयूथपाः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘वानरोंको पूँछपर बड़ी ममता होती है। अतः इसकी पूँछको वस्त्रादिसे खूब लपेट दो और फिर उसमें आग लगाकर इसे नगरमें चारों ओर घुमाकर छोड़ दो, जिससे समस्त वानर-यूथपति इसकी वह दुर्दशा देखें॥ ३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति शणपट्टैश्च वस्त्रैरन्यैरनेकशः।
तैलाक्तैर्वेष्टयामासुर्लाङ्गूलं मारुतेर्दृढम्॥ ३६॥
पुच्छाग्रे किञ्चिदनलं दीपयित्वाथ राक्षसाः।
रज्जुभिः सुदृढं बद्‍ध्वा धृत्वा तं बलिनोऽसुराः॥ ३७॥
समन्ताद् भ्रामयामासुश्चोरोऽयमिति वादिनः।
तूर्यघोषैर्घोषयन्तस्ताडयन्तो मुहुर्मुहुः॥ ३८॥

मूलम्

तथेति शणपट्टैश्च वस्त्रैरन्यैरनेकशः।
तैलाक्तैर्वेष्टयामासुर्लाङ्गूलं मारुतेर्दृढम्॥ ३६॥
पुच्छाग्रे किञ्चिदनलं दीपयित्वाथ राक्षसाः।
रज्जुभिः सुदृढं बद्‍ध्वा धृत्वा तं बलिनोऽसुराः॥ ३७॥
समन्ताद् भ्रामयामासुश्चोरोऽयमिति वादिनः।
तूर्यघोषैर्घोषयन्तस्ताडयन्तो मुहुर्मुहुः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राक्षसोंने ‘बहुत अच्छा’ कह हनुमान् जी की पूँछ सनके पट्टोंसे और तेलमें भीगे हुए नाना प्रकारके चिथड़ोंसे बड़ी दृढ़तासे लपेटी और पूँछके सिरेपर थोड़ी-सी आग लगाकर उन्हें दृढ़तापूर्वक रस्सीसे बाँधकर कुछ बलवान् राक्षस उन्हें मारते और बारम्बार तुरही बजाकर यह कहते हुए कि ‘यह चोर है’ नगरमें सब ओर घुमाने लगे॥ ३६—३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमतापि तत्सर्वं सोढं किञ्चिच्चिकीर्षुणा।
गत्वा तु पश्चिमद्वारसमीपं तत्र मारुतिः॥ ३९॥
सूक्ष्मो बभूव बन्धेभ्यो निःसृतः पुनरप्यसौ।
बभूव पर्वताकारस्तत उत्प्लुत्य गोपुरम्॥ ४०॥
तत्रैकं स्तम्भमादाय हत्वा तान् रक्षिणः क्षणात्।
विचार्य कार्यशेषं स प्रासादाग्राद् गृहाद् गृहम्॥ ४१॥
उत्प्लुत्योत्प्लुत्य सन्दीप्तपुच्छेन महता कपिः।
ददाह लङ्कामखिलां साट्टप्रासादतोरणाम्॥ ४२॥

मूलम्

हनूमतापि तत्सर्वं सोढं किञ्चिच्चिकीर्षुणा।
गत्वा तु पश्चिमद्वारसमीपं तत्र मारुतिः॥ ३९॥
सूक्ष्मो बभूव बन्धेभ्यो निःसृतः पुनरप्यसौ।
बभूव पर्वताकारस्तत उत्प्लुत्य गोपुरम्॥ ४०॥
तत्रैकं स्तम्भमादाय हत्वा तान् रक्षिणः क्षणात्।
विचार्य कार्यशेषं स प्रासादाग्राद् गृहाद् गृहम्॥ ४१॥
उत्प्लुत्योत्प्लुत्य सन्दीप्तपुच्छेन महता कपिः।
ददाह लङ्कामखिलां साट्टप्रासादतोरणाम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी ने भी कुछ कौतुक करनेकी इच्छासे यह सब सहन कर लिया। जिस समय वे पश्चिमद्वारपर पहुँचे उस समय तुरंत ही सूक्ष्मरूप होकर उन बन्धनोंमेंसे निकल गये और फिर पर्वताकार हो उछलकर द्वारके कँगूरेपर चढ़ गये। वहाँसे उन्होंने एक स्तम्भ उखाड़कर एक क्षणमें ही उन समस्त रक्षकोंको मार डाला और फिर अपना शेष कार्य निश्चय कर उस प्रासादके अग्रभागसे एक घरसे दूसरे घरपर छलाँग मारते हुए अपनी जलती हुई लंबी पूँछसे महल, अटारी और बन्दनवारादिसे युक्त समस्त लंकापुरीमें आग लगा दी॥ ३९—४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा तात पुत्र नाथेति क्रन्दमानाः समन्ततः।
व्याप्ताः प्रासादशिखरेऽप्यारूढा दैत्ययोषितः॥ ४३॥
देवता इव दृश्यन्ते पतन्त्यः पावकेऽखिलाः।
विभीषणगृहं त्यक्त्वा सर्वं भस्मीकृतं पुरम्॥ ४४॥

मूलम्

हा तात पुत्र नाथेति क्रन्दमानाः समन्ततः।
व्याप्ताः प्रासादशिखरेऽप्यारूढा दैत्ययोषितः॥ ४३॥
देवता इव दृश्यन्ते पतन्त्यः पावकेऽखिलाः।
विभीषणगृहं त्यक्त्वा सर्वं भस्मीकृतं पुरम्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय ‘हा तात! हा पुत्र! हा नाथ!’ कहकर सब ओर फैली हुई, महलोंके ऊपर भी चढ़ी हुई तथा अग्निमें गिरती हुई समस्त दैत्यस्त्रियाँ देवताओंके समान मालूम होती थीं। इस प्रकार हनुमान् जी ने विभीषणके घरको छोड़कर और सारा नगर भस्म कर डाला॥ ४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्प्लुत्य जलधौ हनूमान् मारुतात्मजः।
लाङ्गूलं मज्जयित्वान्तः स्वस्थचित्तो बभूव सः॥ ४५॥

मूलम्

तत उत्प्लुत्य जलधौ हनूमान् मारुतात्मजः।
लाङ्गूलं मज्जयित्वान्तः स्वस्थचित्तो बभूव सः॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पवनात्मज हनुमान् जी उछलकर समुद्रमें कूद पड़े और अपनी पूँछ बुझाकर स्वस्थचित्त हो गये॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायोः प्रियसखित्वाच्च सीतया प्रार्थितोऽनलः।
न ददाह हरेः पुच्छं बभूवात्यन्तशीतलः॥ ४६॥

मूलम्

वायोः प्रियसखित्वाच्च सीतया प्रार्थितोऽनलः।
न ददाह हरेः पुच्छं बभूवात्यन्तशीतलः॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी प्रार्थनासे तथा वायुका प्रिय मित्र होनेके कारण अग्निने हनुमान् जी की पूँछ नहीं जलायी। उनके लिये वह अत्यन्त शीतल हो गया॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्नामसंस्मरणधूतसमस्तपापा-
स्तापत्रयानलमपीह तरन्ति सद्यः।
तस्यैव किं रघुवरस्य विशिष्टदूतः
सन्तप्यते कथमसौ प्रकृतानलेन॥ ४७॥

मूलम्

यन्नामसंस्मरणधूतसमस्तपापा-
स्तापत्रयानलमपीह तरन्ति सद्यः।
तस्यैव किं रघुवरस्य विशिष्टदूतः
सन्तप्यते कथमसौ प्रकृतानलेन॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके नाम-स्मरणसे मनुष्य समस्त पापोंसे छूटकर तुरंत ही तापत्रयरूप अग्निको पार कर जाते हैं, उन्हीं श्रीरघुनाथजीके विशिष्ट दूतको यह प्राकृत अग्नि भला किस प्रकार ताप पहुँचा सकता था?॥ ४७॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥