[तृतीय सर्ग]
भागसूचना
जानकीजीसे भेंट, वाटिका-विध्वंस और ब्रह्मपाश-बन्धन
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्बन्धनेन वा मोक्ष्ये शरीरं राघवं विना।
जीवितेन फलं किं स्यान्मम रक्षोऽधिमध्यतः॥ १॥
मूलम्
उद्बन्धनेन वा मोक्ष्ये शरीरं राघवं विना।
जीवितेन फलं किं स्यान्मम रक्षोऽधिमध्यतः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! इस प्रकार रोते-रोते सीताजीने सोचा—‘‘अच्छा तो मैं फाँसी लगाकर ही अपना शरीर क्यों न छोड़ दूँ? इन राक्षसियोंके बीचमें रहकर रघुनाथजीके बिना जीनेसे लाभ ही क्या है?॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घा वेणी ममात्यर्थमुद्बन्धाय भविष्यति।
एवं निश्चितबुद्धिं तां मरणायाथ जानकीम्॥ २॥
विलोक्य हनुमान् किञ्चिद्विचार्यैतदभाषत।
शनैः शनैः सूक्ष्मरूपो जानक्याः श्रोत्रगं वचः॥ ३॥
मूलम्
दीर्घा वेणी ममात्यर्थमुद्बन्धाय भविष्यति।
एवं निश्चितबुद्धिं तां मरणायाथ जानकीम्॥ २॥
विलोक्य हनुमान् किञ्चिद्विचार्यैतदभाषत।
शनैः शनैः सूक्ष्मरूपो जानक्याः श्रोत्रगं वचः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
फाँसी लगानेके लिये मेरी लंबी बेणी पर्याप्त होगी।’’ जानकीजीको इस प्रकार मरनेका निश्चय करती देख सूक्ष्मरूपधारी श्रीहनुमान् जी हृदयमें कुछ विचारकर उनके कानोंमें पड़नेयोग्य धीमी वाणीसे शनैः-शनैः इस प्रकार कहने लगे—॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक्ष्वाकुवंशसम्भूतो राजा दशरथो महान्।
अयोध्याधिपतिस्तस्य चत्वारो लोकविश्रुताः॥ ४॥
पुत्रा देवसमाः सर्वे लक्षणैरुपलक्षिताः।
रामश्च लक्ष्मणश्चैव भरतश्चैव शत्रुहा॥ ५॥
मूलम्
इक्ष्वाकुवंशसम्भूतो राजा दशरथो महान्।
अयोध्याधिपतिस्तस्य चत्वारो लोकविश्रुताः॥ ४॥
पुत्रा देवसमाः सर्वे लक्षणैरुपलक्षिताः।
रामश्च लक्ष्मणश्चैव भरतश्चैव शत्रुहा॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘इक्ष्वाकु-वंशमें उत्पन्न हुए अयोध्याधिपति महाराज दशरथ बड़े प्रतापी थे। उनके त्रिलोकीमें विख्यात चार पुत्र हुए। वे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चारों ही देवताओंके समान शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठो रामः पितुर्वाक्याद्दण्डकारण्यमागतः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया भार्यया सह॥ ६॥
उवास गौतमीतीरे पञ्चवट्यां महामनाः।
तत्र नीता महाभागा सीता जनकनन्दिनी॥ ७॥
रहिते रामचन्द्रेण रावणेन दुरात्मना।
ततो रामोऽतिदुःखार्तो मार्गमाणोऽथ जानकीम्॥ ८॥
जटायुषं पक्षिराजमपश्यत्पतितं भुवि।
तस्मै दत्त्वा दिवं शीघ्रमृष्यमूकमुपागमत्॥ ९॥
मूलम्
ज्येष्ठो रामः पितुर्वाक्याद्दण्डकारण्यमागतः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया भार्यया सह॥ ६॥
उवास गौतमीतीरे पञ्चवट्यां महामनाः।
तत्र नीता महाभागा सीता जनकनन्दिनी॥ ७॥
रहिते रामचन्द्रेण रावणेन दुरात्मना।
ततो रामोऽतिदुःखार्तो मार्गमाणोऽथ जानकीम्॥ ८॥
जटायुषं पक्षिराजमपश्यत्पतितं भुवि।
तस्मै दत्त्वा दिवं शीघ्रमृष्यमूकमुपागमत्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे बड़े भाई राम भ्राता लक्ष्मण और भार्या सीताके सहित अपने पिताकी आज्ञासे दण्डकारण्यमें आये थे। वे महामना वहाँ गौतमी नदीके तीरपर पंचवटी-आश्रममें रहते थे। उस आश्रमसे श्रीरामचन्द्रजीकी अनुपस्थितिमें दुरात्मा रावण महाभागा जनकनन्दिनी सीताजीको ले गया। तब अति शोकाकुल भगवान् रामने जानकीजीको इधर-उधर ढूँढ़ते हुए पृथ्वीपर पड़े पक्षिराज जटायुको देखा। उसे तुरंत ही दिव्यधाम पहुँचाकर वे ऋष्यमूक-पर्वतपर आये॥ ६—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवेण कृता मैत्री रामस्य विदितात्मनः।
तद्भार्याहारिणं हत्वा वालिनं रघुनन्दनः॥ १०॥
राज्येऽभिषिच्य सुग्रीवं मित्रकार्यं चकार सः।
सुग्रीवस्तु समानाप्य वानरान् वानरप्रभुः॥ ११॥
प्रेषयामास परितो वानरान् परिमार्गणे।
सीतायास्तत्र चैकोऽहं सुग्रीवसचिवो हरिः॥ १२॥
सम्पातिवचनाच्छीघ्रमुल्लङ्घ्य शतयोजनम्।
समुद्रं नगरीं लङ्कां विचिन्वञ्जानकीं शुभाम्॥ १३॥
शनैरशोकवनिकां विचिन्वञ् शिंशपातरुम्।
अद्राक्षं जानकीमत्र शोचन्तीं दुःखसम्प्लुताम्॥ १४॥
रामस्य महिषीं देवीं कृतकृत्योऽहमागतः।
इत्युक्त्वोपररामाथ मारुतिर्बुद्धिमत्तरः॥ १५॥
मूलम्
सुग्रीवेण कृता मैत्री रामस्य विदितात्मनः।
तद्भार्याहारिणं हत्वा वालिनं रघुनन्दनः॥ १०॥
राज्येऽभिषिच्य सुग्रीवं मित्रकार्यं चकार सः।
सुग्रीवस्तु समानाप्य वानरान् वानरप्रभुः॥ ११॥
प्रेषयामास परितो वानरान् परिमार्गणे।
सीतायास्तत्र चैकोऽहं सुग्रीवसचिवो हरिः॥ १२॥
सम्पातिवचनाच्छीघ्रमुल्लङ्घ्य शतयोजनम्।
समुद्रं नगरीं लङ्कां विचिन्वञ्जानकीं शुभाम्॥ १३॥
शनैरशोकवनिकां विचिन्वञ् शिंशपातरुम्।
अद्राक्षं जानकीमत्र शोचन्तीं दुःखसम्प्लुताम्॥ १४॥
रामस्य महिषीं देवीं कृतकृत्योऽहमागतः।
इत्युक्त्वोपररामाथ मारुतिर्बुद्धिमत्तरः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर आत्मदर्शी भगवान् रामने सुग्रीवसे मित्रता की और उसकी स्त्रीका हरण करनेवाले दुष्ट वालीको मारकर उसे राज्यपदपर अभिषिक्त किया। इस प्रकार श्रीरघुनन्दनने मित्रका कार्य सिद्ध किया। वानरराज सुग्रीवने भी समस्त वानरोंको बुलाकर सब ओर सीताजीकी खोज करनेके लिये भेजा। उन्हींमेंसे एक मैं भी सुग्रीवका मन्त्री वानर हूँ। मैं सम्पातिके कथनानुसार सौ योजन समुद्र लाँघकर तुरंत लंकापुरीमें आया और यहाँ सर्वत्र शुभलक्षणा सीताजीको ढूँढ़ा। शनैः-शनैः अशोकवाटिकामें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैंने यह शिंशपा वृक्ष देखा और यहाँ रामचन्द्रजीकी महारानी देवी जानकीजीको अतिक्लेशसे शोक करते पाया। इनके दर्शनसे मेरा यहाँ आना सफल हो गया।’’ ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् श्रीहनुमान् जी मौन हो गये॥ १०—१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता क्रमेण तत्सर्वं श्रुत्वा विस्मयमाययौ।
किमिदं मे श्रुतं व्योम्नि वायुना समुदीरितम्॥ १६॥
मूलम्
सीता क्रमेण तत्सर्वं श्रुत्वा विस्मयमाययौ।
किमिदं मे श्रुतं व्योम्नि वायुना समुदीरितम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रमशः ये सब बातें सुनकर सीताजीको बड़ा विस्मय हुआ और वे कहने लगीं—‘मैंने जो आकाशमें शब्द सुना है वह क्या वायुका उच्चारण किया हुआ है?॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नो वा मे मनोभ्रान्तिर्यदि वा सत्यमेव तत्।
निद्रा मे नास्ति दुःखेन जानाम्येतत्कुतो भ्रमः॥ १७॥
मूलम्
स्वप्नो वा मे मनोभ्रान्तिर्यदि वा सत्यमेव तत्।
निद्रा मे नास्ति दुःखेन जानाम्येतत्कुतो भ्रमः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा स्वप्न या मेरे मनकी भ्रान्ति है? अथवा यह सब सत्य ही तो नहीं है, क्योंकि दुःखके कारण नींद तो मुझे आती नहीं (फिर स्वप्न कैसे हो सकता है?) और मैं प्रत्यक्ष सुन रही हूँ इसलिये यह भ्रम भी कैसे हो सकता है? (अतः निश्चय ही यह सब यथार्थ है)॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन मे कर्णपीयूषं वचनं समुदीरितम्।
स दृश्यतां महाभागः प्रियवादी ममाग्रतः॥ १८॥
मूलम्
येन मे कर्णपीयूषं वचनं समुदीरितम्।
स दृश्यतां महाभागः प्रियवादी ममाग्रतः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुतरां, जिसने मेरे कानोंको अमृतके समान प्रिय लगनेवाले ये वचन कहे हैं वह प्रियभाषी महाभाग मेरे सामने प्रकट हों’॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तज्जानकीवाक्यं हनुमान् पत्रषण्डतः।
अवतीर्य शनैः सीतापुरतः समवस्थितः॥ १९॥
मूलम्
श्रुत्वा तज्जानकीवाक्यं हनुमान् पत्रषण्डतः।
अवतीर्य शनैः सीतापुरतः समवस्थितः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जानकीजीके ये वचन सुनकर हनुमान् जी शनैः-शनैः उस वृक्षके पत्र-भागसे उतरकर सीताजीके सामने खड़े हो गये॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलविङ्कप्रमाणाङ्गो रक्तास्यः पीतवानरः।
ननाम शनकैः सीतां प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः॥ २०॥
मूलम्
कलविङ्कप्रमाणाङ्गो रक्तास्यः पीतवानरः।
ननाम शनकैः सीतां प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन्होंने अरुण वदन, पीतवर्ण और कलविंक (चटक) पक्षीके बराबर आकारवाले वानरके रूपसे धीरेसे सामने आकर सीताजीको हाथ जोड़कर प्रणाम किया॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तं जानकी भीता रावणोऽयमुपागतः।
मां मोहयितुमायातो मायया वानराकृतिः॥ २१॥
मूलम्
दृष्ट्वा तं जानकी भीता रावणोऽयमुपागतः।
मां मोहयितुमायातो मायया वानराकृतिः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर जानकीजीको यह भय हुआ कि मुझे फँसानेके लिये मायासे वानररूप धारणकर यह रावण ही आया है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं चिन्तयित्वा सा तूष्णीमासीदधोमुखी।
पुनरप्याह तां सीतां देवि यत्त्वं विशङ्कसे॥ २२॥
नाहं तथाविधो मातस्त्यज शङ्कां मयि स्थिताम्।
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्य परमात्मनः॥ २३॥
सचिवोऽहं हरीन्द्रस्य सुग्रीवस्य शुभप्रदे।
वायोः पुत्रोऽहमखिलप्राणभूतस्य शोभने॥ २४॥
मूलम्
इत्येवं चिन्तयित्वा सा तूष्णीमासीदधोमुखी।
पुनरप्याह तां सीतां देवि यत्त्वं विशङ्कसे॥ २२॥
नाहं तथाविधो मातस्त्यज शङ्कां मयि स्थिताम्।
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्य परमात्मनः॥ २३॥
सचिवोऽहं हरीन्द्रस्य सुग्रीवस्य शुभप्रदे।
वायोः पुत्रोऽहमखिलप्राणभूतस्य शोभने॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सोचकर वे चुपचाप नीचेको मुख किये बैठी रहीं। तब हनुमान् जी ने सीताजीसे फिर कहा—‘‘देवि! आप जैसी आशंका कर रही हैं मैं वह नहीं हूँ। हे मातः! मेरे विषयमें आपको जो शंका हो रही है उसे दूर करें। हे शुभप्रदे! मैं तो कोसलाधिपति परमात्मा रामका दास और वानरराज सुग्रीवका मन्त्री हूँ तथा हे शोभने! सम्पूर्ण जगत् के प्राणस्वरूप पवनदेवका मैं पुत्र हूँ’’॥ २२—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा जानकी प्राह हनूमन्तं कृताञ्जलिम्।
वानराणां मनुष्याणां सङ्गतिर्घटते कथम्॥ २५॥
यथा त्वं रामचन्द्रस्य दासोऽहमिति भाषसे।
तामाह मारुतिः प्रीतो जानकीं पुरतः स्थितः॥ २६॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा जानकी प्राह हनूमन्तं कृताञ्जलिम्।
वानराणां मनुष्याणां सङ्गतिर्घटते कथम्॥ २५॥
यथा त्वं रामचन्द्रस्य दासोऽहमिति भाषसे।
तामाह मारुतिः प्रीतो जानकीं पुरतः स्थितः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर श्रीजानकीजीने हाथ बाँधे खड़े हुए हनुमान् जी से कहा—‘‘तुम जो कहते हो कि मैं श्रीरामचन्द्रजीका दास हूँ, सो भला वानर और मनुष्योंकी मित्रता कैसे हो सकती है?’’ तब सामने खड़े हुए हनुमान् जी ने प्रसन्न होकर जानकीजीसे कहा—॥ २५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋष्यमूकमगाद्रामः शबर्या नोदितः सुधीः।
सुग्रीवो ऋष्यमूकस्थो दृष्टवान् रामलक्ष्मणौ॥ २७॥
भीतो मां प्रेषयामास ज्ञातुं रामस्य हृद्गतम्।
ब्रह्मचारिवपुर्धृत्वा गतोऽहं रामसन्निधिम्॥ २८॥
मूलम्
ऋष्यमूकमगाद्रामः शबर्या नोदितः सुधीः।
सुग्रीवो ऋष्यमूकस्थो दृष्टवान् रामलक्ष्मणौ॥ २७॥
भीतो मां प्रेषयामास ज्ञातुं रामस्य हृद्गतम्।
ब्रह्मचारिवपुर्धृत्वा गतोऽहं रामसन्निधिम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
शबरीकी प्रेरणासे परम बुद्धिमान् भगवान् राम ऋष्यमूक पर्वतपर आये। उस पर्वतपर बैठे हुए सुग्रीवने जब (दूरहीसे) राम और लक्ष्मणको आते देखा तो मनमें भय मानकर मुझे उनका आशय जाननेके लिये भेजा। तब मैं ब्रह्मचारीका वेष बनाकर रामजीके पास आया॥ २७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा रामस्य सद्भावं स्कन्धोपरि निधाय तौ।
नीत्वा सुग्रीवसामीप्यं सख्यं चाकरवं तयोः॥ २९॥
मूलम्
ज्ञात्वा रामस्य सद्भावं स्कन्धोपरि निधाय तौ।
नीत्वा सुग्रीवसामीप्यं सख्यं चाकरवं तयोः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उनका शुद्ध भाव जानकर उन्हें कन्धेपर चढ़ा सुग्रीवके पास ले गया तथा (राम और सुग्रीव) दोनोंकी मित्रता करा दी॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवस्य हृता भार्या वालिना तं रघूत्तमः।
जघानैकेन बाणेन ततो राज्येऽभ्यषेचयत्॥ ३०॥
सुग्रीवं वानराणां स प्रेषयामास वानरान्।
दिग्भ्यो महाबलान् वीरान् भवत्याः परिमार्गणे॥ ३१॥
मूलम्
सुग्रीवस्य हृता भार्या वालिना तं रघूत्तमः।
जघानैकेन बाणेन ततो राज्येऽभ्यषेचयत्॥ ३०॥
सुग्रीवं वानराणां स प्रेषयामास वानरान्।
दिग्भ्यो महाबलान् वीरान् भवत्याः परिमार्गणे॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवकी पत्नीको वालीने छीन लिया था। रघुनाथजीने उसे एक ही बाणसे मारकर सुग्रीवको वानरोंके राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया। तब सुग्रीवने आपकी खोजके लिये बड़े-बड़े वीर और पराक्रमी वानरोंको दिशा-विदिशाओंमें भेजा॥ ३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छन्तं राघवो दृष्ट्वा मामभाषत सादरम्॥ ३२॥
मूलम्
गच्छन्तं राघवो दृष्ट्वा मामभाषत सादरम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मुझे चलता देख श्रीरघुनाथजीने मुझसे आदरपूर्वक कहा—॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि कार्यमशेषं मे स्थितं मारुतनन्दन।
ब्रूहि मे कुशलं सर्वं सीतायै लक्ष्मणस्य च॥ ३३॥
मूलम्
त्वयि कार्यमशेषं मे स्थितं मारुतनन्दन।
ब्रूहि मे कुशलं सर्वं सीतायै लक्ष्मणस्य च॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे पवननन्दन! मेरा सब काम तुम्हारे ऊपर निर्भर है। तुम सीताजीसे मेरी और लक्ष्मणकी सब कुशल कहना॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गुलीयकमेतन्मे परिज्ञानार्थमुत्तमम्।
सीतायै दीयतां साधु मन्नामाक्षरमुद्रितम्॥ ३४॥
मूलम्
अङ्गुलीयकमेतन्मे परिज्ञानार्थमुत्तमम्।
सीतायै दीयतां साधु मन्नामाक्षरमुद्रितम्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अपनी पहचानके लिये मेरी यह उत्तम अँगूठी जिसपर मेरे नामके अक्षर खुदे हुए हैं, सीताजीको अति सावधानीसे दे देना’॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्रददौ मह्यं कराग्रादङ्गुलीयकम्।
प्रयत्नेन मयानीतं देवि पश्याङ्गुलीयकम्॥ ३५॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्रददौ मह्यं कराग्रादङ्गुलीयकम्।
प्रयत्नेन मयानीतं देवि पश्याङ्गुलीयकम्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर उन्होंने अपनी अँगुलीसे उतारकर वह अँगूठी मुझे दी। मैं उसे बड़ी सावधानीसे लाया हूँ। देवि! आप यह अँगूठी देखिये’’॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्रददौ देव्यै मुद्रिकां मारुतात्मजः।
नमस्कृत्य स्थितो दूराद्बद्धाञ्जलिपुटो हरिः॥ ३६॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्रददौ देव्यै मुद्रिकां मारुतात्मजः।
नमस्कृत्य स्थितो दूराद्बद्धाञ्जलिपुटो हरिः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह हनुमान् जी ने वह अँगूठी देवी जानकीजीको दे दी और नमस्कार कर हाथ जोड़े हुए दूर खड़े हो गये॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा सीता प्रमुदिता रामनामाङ्कितां तदा।
मुद्रिकां शिरसा धृत्वा स्रवदानन्दनेत्रजा॥ ३७॥
मूलम्
दृष्ट्वा सीता प्रमुदिता रामनामाङ्कितां तदा।
मुद्रिकां शिरसा धृत्वा स्रवदानन्दनेत्रजा॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रामनामांकिता मुद्रिकाको देखकर सीताजी अति आनन्दित हुईं और उसे सिरसे लगाकर नेत्रोंसे आनन्दाश्रु बहाने लगीं॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपे मे प्राणदाता त्वं बुद्धिमानसि राघवे।
भक्तोऽसि प्रियकारी त्वं विश्वासोऽस्ति तवैव हि॥ ३८॥
मूलम्
कपे मे प्राणदाता त्वं बुद्धिमानसि राघवे।
भक्तोऽसि प्रियकारी त्वं विश्वासोऽस्ति तवैव हि॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे कहने लगीं—‘‘कपिवर! तुम मेरे प्राणदाता हो। तुम बड़े ही बुद्धिमान् और रघुनाथजीके भक्त तथा प्रियकारी हो। मुझे निश्चय है, उनको भी तुम्हारा ही पूर्ण विश्वास है॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नो चेन्मत्सन्निधिं चान्यं पुरुषं प्रेषयेत्कथम्।
हनूमन् दृष्टमखिलं मम दुःखादिकं त्वया॥ ३९॥
मूलम्
नो चेन्मत्सन्निधिं चान्यं पुरुषं प्रेषयेत्कथम्।
हनूमन् दृष्टमखिलं मम दुःखादिकं त्वया॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ऐसा न होता तो तुम पर-पुरुषको वे मेरे पास क्यों भेजते? हनुमन्! मेरी सारी आपदाएँ तुमने देख ही ली हैं॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं कथय रामाय यथा मे जायते दया।
मासद्वयावधि प्राणाः स्थास्यन्ति मम सत्तम॥ ४०॥
मूलम्
सर्वं कथय रामाय यथा मे जायते दया।
मासद्वयावधि प्राणाः स्थास्यन्ति मम सत्तम॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामको ये सब बातें सुना देना जिससे उन्हें मुझपर दया उत्पन्न हो। हे साधुश्रेष्ठ! अब मेरे प्राण दो ही मास और रहेंगे॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागमिष्यति चेद्रामो भक्षयिष्यति मां खलः।
अतः शीघ्रं कपीन्द्रेण सुग्रीवेण समन्वितः॥ ४१॥
वानरानीकपैः सार्धं हत्वा रावणमाहवे।
सपुत्रं सबलं रामो यदि मां मोचयेत्प्रभुः॥ ४२॥
तत्तस्य सदृशं वीर्यं वीर वर्णय वर्णितम्।
यथा मां तारयेद्रामो हत्वा शीघ्रं दशाननम्॥ ४३॥
तथा यतस्व हनुमन् वाचा धर्ममवाप्नुहि।
मूलम्
नागमिष्यति चेद्रामो भक्षयिष्यति मां खलः।
अतः शीघ्रं कपीन्द्रेण सुग्रीवेण समन्वितः॥ ४१॥
वानरानीकपैः सार्धं हत्वा रावणमाहवे।
सपुत्रं सबलं रामो यदि मां मोचयेत्प्रभुः॥ ४२॥
तत्तस्य सदृशं वीर्यं वीर वर्णय वर्णितम्।
यथा मां तारयेद्रामो हत्वा शीघ्रं दशाननम्॥ ४३॥
तथा यतस्व हनुमन् वाचा धर्ममवाप्नुहि।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि इस बीचमें रघुनाथजी न आये तो यह दुष्ट मुझे खा जायगा। अतः यदि भगवान् राम वानरराज सुग्रीवके सहित अन्य वानरयूथपोंको लेकर तुरंत ही रावणको पुत्र और सेनाके सहित संग्राममें मारकर मुझे छुड़ायेंगे तो ही उनका यह पुरुषार्थ ठीक होगा और तभी तुम इस वर्णन किये पुरुषार्थका वर्णन करना। हे हनुमन्! तुम भी ऐसी युक्तिसे उनसे सब बातें कहना जिससे वे शीघ्र ही रावणको मारकर मेरा उद्धार करें। ऐसा करके तुम भी वाचिक पुण्य प्राप्त करो’’॥ ४१—४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमानपि तामाह देवि दृष्टो यथा मया॥ ४४॥
रामः सलक्ष्मणः शीघ्रमागमिष्यति सायुधः।
सुग्रीवेण ससैन्येन हत्वा दशमुखं बलात् ॥ ४५॥
समानेष्यति देवि त्वामयोध्यां नात्र संशयः।
मूलम्
हनूमानपि तामाह देवि दृष्टो यथा मया॥ ४४॥
रामः सलक्ष्मणः शीघ्रमागमिष्यति सायुधः।
सुग्रीवेण ससैन्येन हत्वा दशमुखं बलात् ॥ ४५॥
समानेष्यति देवि त्वामयोध्यां नात्र संशयः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब हनुमान् जी ने भी उनसे कहा—‘‘देवि! मैंने जैसा कुछ देखा है उससे तो यही प्रतीत होता है कि लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र ही अस्त्र-शस्त्र लेकर सेनायुक्त सुग्रीवके सहित आयेंगे और रावणको बलपूर्वक मारकर तुम्हें अयोध्या ले जायँगे। देवि! इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है’’॥ ४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह जानकी रामः कथं वारिधिमाततम्॥ ४६॥
तीर्त्वायास्यत्यमेयात्मा वानरानीकपैः सह।
हनूमानाह मे स्कन्धावारुह्य पुरुषर्षभौ॥ ४७॥
आयास्यतः ससैन्यश्च सुग्रीवो वानरेश्वरः।
विहायसा क्षणेनैव तीर्त्वा वारिधिमाततम्॥ ४८॥
निर्दहिष्यति रक्षौघांस्त्वत्कृते नात्र संशयः।
अनुज्ञां देहि मे देवि गच्छामि त्वरयान्वितः॥ ४९॥
द्रष्टुं रामं सह भ्रात्रा त्वरयामि तवान्तिकम्।
देवि किञ्चिदभिज्ञानं देहि मे येन राघवः॥ ५०॥
मूलम्
तमाह जानकी रामः कथं वारिधिमाततम्॥ ४६॥
तीर्त्वायास्यत्यमेयात्मा वानरानीकपैः सह।
हनूमानाह मे स्कन्धावारुह्य पुरुषर्षभौ॥ ४७॥
आयास्यतः ससैन्यश्च सुग्रीवो वानरेश्वरः।
विहायसा क्षणेनैव तीर्त्वा वारिधिमाततम्॥ ४८॥
निर्दहिष्यति रक्षौघांस्त्वत्कृते नात्र संशयः।
अनुज्ञां देहि मे देवि गच्छामि त्वरयान्वितः॥ ४९॥
द्रष्टुं रामं सह भ्रात्रा त्वरयामि तवान्तिकम्।
देवि किञ्चिदभिज्ञानं देहि मे येन राघवः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर जानकीजी कहने लगीं—‘‘भगवान् राम अमेयात्मा हैं, (उनके शरीरका कोई माप नहीं है, वे सर्वव्यापक हैं) किन्तु वानर-यूथपोंके साथ वे किस प्रकार समुद्रको पार करके यहाँ आयेंगे?’’ हनुमान् जी बोले—‘‘वे दोनों नरश्रेष्ठ मेरे कन्धोंपर चढ़कर आयेंगे और वानरराज सुग्रीव सेनासहित इस विस्तीर्ण समुद्रको आकाश-मार्गसे एक क्षणमें पारकर तुम्हें प्राप्त करनेके लिये सम्पूर्ण राक्षस-समूहको भस्म कर डालेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। हे देवि! अब मुझे आज्ञा दो; मैं अभी-अभी अनुजसहित भगवान् रामका दर्शन करनेके लिये जाता हूँ और उन्हें तुरंत तुम्हारे पास लानेका प्रयत्न करता हूँ! देवि! मुझे कोई ऐसा चिह्न दो जिससे श्रीरघुनाथजी मेरा विश्वास करें। उसे लेकर मैं बड़ी सावधानीसे उत्सुकतापूर्वक उनके पास जाऊँगा’’॥ ४६—५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वसेन्मां प्रयत्नेन ततो गन्ता समुत्सुकः।
ततः किञ्चिद्विचार्याथ सीता कमललोचना॥ ५१॥
विमुच्य केशपाशान्ते स्थितं चूडामणिं ददौ।
अनेन विश्वसेद्रामस्त्वां कपीन्द्र सलक्ष्मणः॥ ५२॥
मूलम्
विश्वसेन्मां प्रयत्नेन ततो गन्ता समुत्सुकः।
ततः किञ्चिद्विचार्याथ सीता कमललोचना॥ ५१॥
विमुच्य केशपाशान्ते स्थितं चूडामणिं ददौ।
अनेन विश्वसेद्रामस्त्वां कपीन्द्र सलक्ष्मणः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कमललोचना सीताजीने कुछ सोच-विचारकर अपने केशपाशमें स्थित चूडामणिको निकाला और उसे हनुमान् जी को देकर कहा—‘हे कपिवर! इससे भगवान् राम और लक्ष्मण तुम्हारा विश्वास करेंगे॥ ५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिज्ञानार्थमन्यच्च वदामि तव सुव्रत।
चित्रकूटगिरौ पूर्वमेकदा रहसि स्थितः।
मदङ्के शिर आधाय निद्राति रघुनन्दनः॥ ५३॥
मूलम्
अभिज्ञानार्थमन्यच्च वदामि तव सुव्रत।
चित्रकूटगिरौ पूर्वमेकदा रहसि स्थितः।
मदङ्के शिर आधाय निद्राति रघुनन्दनः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सुव्रत! उनको विश्वास दिलानेके लिये एक बात और बतलाती हूँ—एक दिन चित्रकूट पर्वतपर श्रीरघुनाथजी एकान्तमें मेरी गोदमें सिर रखे सो रहे थे॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐन्द्रः काकस्तदागत्य नखैस्तुण्डेन चासकृत्।
मत्पादाङ्गुष्ठमारक्तं विददारामिषाशया॥ ५४॥
मूलम्
ऐन्द्रः काकस्तदागत्य नखैस्तुण्डेन चासकृत्।
मत्पादाङ्गुष्ठमारक्तं विददारामिषाशया॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय इन्द्रका पुत्र (जयन्त) काक-वेषमें वहाँ आया और मांसके लोभसे मेरे पैरके लाल-लाल अँगूठेको अपनी चोंच तथा पंजोंसे फाड़ डाला॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामः प्रबुद्ध्याथ दृष्ट्वा पादं कृतव्रणम्।
केन भद्रे कृतं चैतद्विप्रियं मे दुरात्मना॥ ५५॥
मूलम्
ततो रामः प्रबुद्ध्याथ दृष्ट्वा पादं कृतव्रणम्।
केन भद्रे कृतं चैतद्विप्रियं मे दुरात्मना॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब श्रीरामचन्द्रजी जागे तो मेरे पैरमें घाव हुआ देखकर बोले—‘‘प्रिये! किस दुरात्माने मेरा यह अप्रिय किया है?॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा पुरतोऽपश्यद्वायसं मां पुनः पुनः।
अभिद्रवन्तं रक्ताक्तनखतुण्डं चुकोप ह॥ ५६॥
मूलम्
इत्युक्त्वा पुरतोऽपश्यद्वायसं मां पुनः पुनः।
अभिद्रवन्तं रक्ताक्तनखतुण्डं चुकोप ह॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे यह कह ही रहे थे कि उन्होंने अपने सामने उस कौएको बारम्बार मेरी ओर आते देखा। उसकी चोंच और पंजे रुधिरसे सने हुए थे। उसे देखकर उन्हें बड़ा क्रोध हुआ॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृणमेकमुपादाय दिव्यास्त्रेणाभियोज्य तत्।
चिक्षेप लीलया रामो वायसोपरि तज्ज्वलत्॥ ५७॥
अभ्यद्रवद्वायसश्च भीतो लोकान् भ्रमन्पुनः।
इन्द्रब्रह्मादिभिश्चापि न शक्यो रक्षितुं तदा॥ ५८॥
रामस्य पादयोरग्रेऽपतद्भीत्या दयानिधेः।
शरणागतमालोक्य रामस्तमिदमब्रवीत्॥ ५९॥
मूलम्
तृणमेकमुपादाय दिव्यास्त्रेणाभियोज्य तत्।
चिक्षेप लीलया रामो वायसोपरि तज्ज्वलत्॥ ५७॥
अभ्यद्रवद्वायसश्च भीतो लोकान् भ्रमन्पुनः।
इन्द्रब्रह्मादिभिश्चापि न शक्यो रक्षितुं तदा॥ ५८॥
रामस्य पादयोरग्रेऽपतद्भीत्या दयानिधेः।
शरणागतमालोक्य रामस्तमिदमब्रवीत्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने तुरंत ही एक तृण उठाया और उसपर दिव्यास्त्रका प्रयोग करके उस प्रज्वलित अस्त्रको लीलासे ही उस कौएकी ओर फेंक दिया। तब वह काक भी भयभीत होकर भागा और त्रिलोकीमें भटकता फिरा; किन्तु जब इन्द्र, ब्रह्मा आदिसे भी उसकी रक्षा न हो सकी तो बहुत ही डरता-डरता दयानिधान भगवान् रामके चरणोंमें गिरा। उसे शरणागत देख श्रीरामचन्द्रजीने उससे कहा—॥ ५७—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोघमेतदस्त्रं मे दत्त्वैकाक्षमितो व्रज।
सव्यं दत्त्वा गतः काक एवं पौरुषवानपि॥ ६०॥
उपेक्षते किमर्थं मामिदानीं सोऽपि राघवः।
मूलम्
अमोघमेतदस्त्रं मे दत्त्वैकाक्षमितो व्रज।
सव्यं दत्त्वा गतः काक एवं पौरुषवानपि॥ ६०॥
उपेक्षते किमर्थं मामिदानीं सोऽपि राघवः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा यह अस्त्र अमोघ है (यह कभी व्यर्थ नहीं जा सकता)। अतः तू केवल अपनी एक आँख देकर यहाँसे चला जा।’ तब वह काक अपनी बायीं आँख देकर चला गया। जो ऐसे पुरुषार्थी हैं वे ही श्रीरघुनाथजी न जाने इस समय क्यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं?’॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमानपि तामाह श्रुत्वा सीतानुभाषितम्॥ ६१॥
देवि त्वां यदि जानाति स्थितामत्र रघूत्तमः।
करिष्यति क्षणाद्भस्म लङ्कां राक्षसमण्डिताम्॥ ६२॥
मूलम्
हनूमानपि तामाह श्रुत्वा सीतानुभाषितम्॥ ६१॥
देवि त्वां यदि जानाति स्थितामत्र रघूत्तमः।
करिष्यति क्षणाद्भस्म लङ्कां राक्षसमण्डिताम्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजीका यह कथन सुनकर हनुमान् जी ने कहा—‘‘देवि! जिस समय श्रीरघुनाथजीको तुम्हारे यहाँ होनेका पता चलेगा उस समय इस राक्षस-मण्डल-मण्डिता लंकाको वे एक क्षणमें ही भस्म कर डालेंगे’’॥ ६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानकी प्राह तं वत्स कथं त्वं योत्स्यसेऽसुरैः।
अतिसूक्ष्मवपुः सर्वे वानराश्च भवादृशाः॥ ६३॥
मूलम्
जानकी प्राह तं वत्स कथं त्वं योत्स्यसेऽसुरैः।
अतिसूक्ष्मवपुः सर्वे वानराश्च भवादृशाः॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जानकीजीने कहा—‘‘वत्स! तुम अत्यन्त सूक्ष्म शरीरवाले हो, अतः राक्षसोंसे कैसे लड़ सकोगे? और सब वानर भी तो तुम्हारे ही समान होंगे?’’॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तद्वचनं देव्यै पूर्वरूपमदर्शयत्।
मेरुमन्दरसङ्काशं रक्षोगणविभीषणम्॥ ६४॥
मूलम्
श्रुत्वा तद्वचनं देव्यै पूर्वरूपमदर्शयत्।
मेरुमन्दरसङ्काशं रक्षोगणविभीषणम्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवी जानकीजीके ये वचन सुनकर हनुमान् जी ने उन्हें अपना पूर्वरूप दिखलाया जो मेरु और मन्दर पर्वतके समान अति विशाल और राक्षसोंको भय उत्पन्न करनेवाला था॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा सीता हनूमन्तं महापर्वतसन्निभम्।
हर्षेण महताविष्टा प्राह तं कपिकुञ्जरम्॥ ६५॥
मूलम्
दृष्ट्वा सीता हनूमन्तं महापर्वतसन्निभम्।
हर्षेण महताविष्टा प्राह तं कपिकुञ्जरम्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी को महापर्वतके समान विशालकाय देखकर सीताजीको अपार आनन्द हुआ और वे उन कपिश्रेष्ठसे कहने लगीं—॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थोऽसि महासत्त्व द्रक्ष्यन्ति त्वां महाबलम्।
राक्षस्यस्ते शुभः पन्था गच्छ रामान्तिकं द्रुतम्॥ ६६॥
मूलम्
समर्थोऽसि महासत्त्व द्रक्ष्यन्ति त्वां महाबलम्।
राक्षस्यस्ते शुभः पन्था गच्छ रामान्तिकं द्रुतम्॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे महासत्त्व! तुम बड़े ही सामर्थ्यवान् हो; अच्छा, अब तुम शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजीके पास जाओ; अन्यथा तुझ महाबली वीरको राक्षसियाँ देख लेंगी, तुम्हारा मार्ग कल्याणमय हो’’॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुभुक्षितः कपिः प्राह दर्शनात्पारणं मम।
भविष्यति फलैः सर्वैस्तव दृष्टौ स्थितैर्हि मे॥ ६७॥
मूलम्
बुभुक्षितः कपिः प्राह दर्शनात्पारणं मम।
भविष्यति फलैः सर्वैस्तव दृष्टौ स्थितैर्हि मे॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी को भूख लगी हुई थी। वे बोले—‘‘देवि! आपका दर्शन कर चुका, अब मुझे आपके सामने लगे हुए फलोंसे पारण करना है’’॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्तः स जानक्या भक्षयित्वा फलं कपिः।
ततः प्रस्थापितोऽगच्छज्जानकीं प्रणिपत्य सः।
किञ्चिद्दूरमथो गत्वा स्वात्मन्येवान्वचिन्तयत्॥ ६८॥
मूलम्
तथेत्युक्तः स जानक्या भक्षयित्वा फलं कपिः।
ततः प्रस्थापितोऽगच्छज्जानकीं प्रणिपत्य सः।
किञ्चिद्दूरमथो गत्वा स्वात्मन्येवान्वचिन्तयत्॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब जानकीजीके ‘बहुत अच्छा’ कहनेपर कपिवरने वे फल खाये और उनके विदा करनेपर उन्हें प्रणाम करके चल दिये। फिर कुछ दूर चलनेपर उन्होंने अपने मनमें सोचा॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यार्थमागतो दूतः स्वामिकार्याविरोधतः।
अन्यत्किञ्चिदसम्पाद्य गच्छत्यधम एव सः॥ ६९॥
मूलम्
कार्यार्थमागतो दूतः स्वामिकार्याविरोधतः।
अन्यत्किञ्चिदसम्पाद्य गच्छत्यधम एव सः॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘जो दूत अपने स्वामीके कार्यके लिये आकर उसमें किसी प्रकारका विघ्न न करनेवाला कोई और कार्य न करके यों ही चला जाता है वह अधम ही है॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोऽहं किञ्चिदन्यच्च कृत्वा दृष्ट्वाथ रावणम्।
सम्भाष्य च ततो रामदर्शनार्थं व्रजाम्यहम्॥ ७०॥
मूलम्
अतोऽहं किञ्चिदन्यच्च कृत्वा दृष्ट्वाथ रावणम्।
सम्भाष्य च ततो रामदर्शनार्थं व्रजाम्यहम्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं कुछ और भी करूँगा और रावणसे मिलकर तथा बातचीत कर फिर श्रीरघुनाथजीके दर्शनार्थ जाऊँगा’’॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चित्य मनसा वृक्षषण्डान्महाबलः।
उत्पाट्याशोकवनिकां निर्वृक्षामकरोत्क्षणात्॥ ७१॥
मूलम्
इति निश्चित्य मनसा वृक्षषण्डान्महाबलः।
उत्पाट्याशोकवनिकां निर्वृक्षामकरोत्क्षणात्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनमें ऐसा निश्चय कर महाबली हनुमान् जी ने वृक्षोंको उखाड़कर अशोकवाटिकाको एक क्षणमें ही वृक्षहीन कर दिया॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीताश्रयनगं त्यक्त्वा वनं शून्यं चकार सः।
उत्पाटयन्तं विपिनं दृष्ट्वा राक्षसयोषितः॥ ७२॥
अपृच्छञ् जानकीं कोऽसौ वानराकृतिरुद्भटः॥ ७३॥
मूलम्
सीताश्रयनगं त्यक्त्वा वनं शून्यं चकार सः।
उत्पाटयन्तं विपिनं दृष्ट्वा राक्षसयोषितः॥ ७२॥
अपृच्छञ् जानकीं कोऽसौ वानराकृतिरुद्भटः॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके नीचे श्रीसीताजी बैठी थीं उस वृक्षको छोड़कर शेष समस्त वाटिकाको उन्होंने उजाड़ डाला। उन्हें वन उजाड़ते देख राक्षसियोंने जानकीजीसे पूछा—‘‘यह वानराकार विकट वीर कौन है?’’॥ ७२-७३॥
मूलम् (वचनम्)
जानक्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्य एव जानन्ति मायां राक्षसनिर्मिताम्।
नाहमेनं विजानामि दुःखशोकसमाकुला॥ ७४॥
मूलम्
भवत्य एव जानन्ति मायां राक्षसनिर्मिताम्।
नाहमेनं विजानामि दुःखशोकसमाकुला॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जानकीजी बोलीं—इस राक्षसी मायाको आप ही लोग जानें। दुःख और शोकसे आतुर मैं क्या जानूँ?॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तास्त्वरितं गत्वा राक्षस्यो भयपीडिताः।
हनूमता कृतं सर्वं रावणाय न्यवेदयन्॥ ७५॥
मूलम्
इत्युक्तास्त्वरितं गत्वा राक्षस्यो भयपीडिताः।
हनूमता कृतं सर्वं रावणाय न्यवेदयन्॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जानकीजीके इस प्रकार कहनेपर भयपीडिता राक्षसियोंने रावणके पास जा उसे हनुमान् जी की सारी करतूत कह सुनायी॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव कश्चिन्महासत्त्वो वानराकृतिदेहभृत्।
सीतया सह सम्भाष्य ह्यशोकवनिकां क्षणात्।
उत्पाट्य चैत्यप्रासादं बभञ्जामितविक्रमः॥ ७६॥
प्रासादरक्षिणः सर्वान् हत्वा तत्रैव तस्थिवान्।
तच्छ्रुत्वा तूर्णमुत्थाय वनभङ्गं महाप्रियम्॥ ७७॥
किङ्करान् प्रेषयामास नियुतं राक्षसाधिपः।
निभग्नचैत्यप्रासादप्रथमान्तरसंस्थितः ॥ ७८॥
हनुमान् पर्वताकारो लोहस्तम्भकृतायुधः।
किञ्चिल्लाङ्गूूलचलनो रक्तास्यो भीषणाकृतिः॥ ७९॥
मूलम्
देव कश्चिन्महासत्त्वो वानराकृतिदेहभृत्।
सीतया सह सम्भाष्य ह्यशोकवनिकां क्षणात्।
उत्पाट्य चैत्यप्रासादं बभञ्जामितविक्रमः॥ ७६॥
प्रासादरक्षिणः सर्वान् हत्वा तत्रैव तस्थिवान्।
तच्छ्रुत्वा तूर्णमुत्थाय वनभङ्गं महाप्रियम्॥ ७७॥
किङ्करान् प्रेषयामास नियुतं राक्षसाधिपः।
निभग्नचैत्यप्रासादप्रथमान्तरसंस्थितः ॥ ७८॥
हनुमान् पर्वताकारो लोहस्तम्भकृतायुधः।
किञ्चिल्लाङ्गूूलचलनो रक्तास्यो भीषणाकृतिः॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कहने लगीं—‘‘देव! एक बड़े पराक्रमी वानराकार प्राणीने सीताजीसे सम्भाषण कर एक क्षणमें ही सारी अशोकवाटिका उजाड़ दी है। उस महापराक्रमीने मन्दिरके प्रासादको भी तोड़ डाला और उसके सब रक्षकोंको मारकर इस समय भी वह वहीं बैठा हुआ है।’’ वनविध्वंसका यह महान् अप्रिय समाचार सुनकर राक्षसराज रावण तुरंत उठा और उसने दस लाख सेवकोंको भेजा। इधर पर्वताकार हनुमान् जी लोहेके खम्भको शस्त्ररूपसे लिये हुए उस टूटे-फूटे मन्दिरके प्रथम भागमें बैठे थे। उनकी पूँछ कुछ-कुछ हिल रही थी तथा मुख अरुणवर्ण और आकृति भयानक थी॥ ७६—७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपतन्तं महासङ्घं राक्षसानां ददर्श सः।
चकार सिंहनादं च श्रुत्वा ते मुमुहुर्भृशम्॥ ८०॥
मूलम्
आपतन्तं महासङ्घं राक्षसानां ददर्श सः।
चकार सिंहनादं च श्रुत्वा ते मुमुहुर्भृशम्॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसोंके समूहको आया देख उन्होंने घोर सिंहनाद किया, जिसे सुनकर वे सब अत्यन्त स्तब्ध हो गये॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमन्तमथो दृष्ट्वा राक्षसा भीषणाकृतिम्।
निर्जघ्नुर्विविधास्त्रौघैः सर्वराक्षसघातिनम्॥ ८१॥
मूलम्
हनूमन्तमथो दृष्ट्वा राक्षसा भीषणाकृतिम्।
निर्जघ्नुर्विविधास्त्रौघैः सर्वराक्षसघातिनम्॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सम्पूर्ण राक्षसोंको मारनेवाले भीषणाकार हनुमान् जी को देखकर राक्षसोंने उनपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र छोड़े॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्थाय हनुमान् मुद्गरेण समन्ततः।
निष्पिपेष क्षणादेव मशकानिव यूथपः॥ ८२॥
मूलम्
तत उत्थाय हनुमान् मुद्गरेण समन्ततः।
निष्पिपेष क्षणादेव मशकानिव यूथपः॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर यूथपति गजराज जैसे मच्छरोंको मसल डालता है, वैसे ही हनुमान् जी ने उठकर अपने मुद्गरसे एक क्षणमें ही सबको चारों ओरसे पीस डाला॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहतान् किङ्करान् श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः।
पञ्च सेनापतींस्तत्र प्रेषयामास दुर्मदान्॥ ८३॥
मूलम्
निहतान् किङ्करान् श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः।
पञ्च सेनापतींस्तत्र प्रेषयामास दुर्मदान्॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने किंकरोंका मरण सुनकर रावण क्रोधसे पागल हो गया और उसने वहाँ पाँच बड़े बाँके सेनापतियोंको (अपनी सेनाके साथ) भेजा॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमानपि तान्सर्वाल्लोहस्तम्भेन चाहनत्।
ततः क्रुद्धो मन्त्रिसुतान् प्रेषयामास सप्त सः॥ ८४॥
मूलम्
हनूमानपि तान्सर्वाल्लोहस्तम्भेन चाहनत्।
ततः क्रुद्धो मन्त्रिसुतान् प्रेषयामास सप्त सः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी ने अपने लोह-स्तम्भसे तुरंत ही उन सबको मार डाला। तब उसने अति क्रोधित होकर सात मन्त्रिपुत्रोंको भेजा॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतानपि तान् सर्वान् पूर्ववद्वानरेश्वरः।
क्षणान्निःशेषतो हत्वा लोहस्तम्भेन मारुतिः॥ ८५॥
मूलम्
आगतानपि तान् सर्वान् पूर्ववद्वानरेश्वरः।
क्षणान्निःशेषतो हत्वा लोहस्तम्भेन मारुतिः॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानराधीश पवननन्दनने वहाँ आनेपर उन सबको भी पहलेकी भाँति एक क्षणमें ही उस लोहस्तम्भसे मार डाला॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वस्थानमुपाश्रित्य प्रतीक्षन् राक्षसान् स्थितः।
ततो जगाम बलवान् कुमारोऽक्षः प्रतापवान्॥ ८६॥
मूलम्
पूर्वस्थानमुपाश्रित्य प्रतीक्षन् राक्षसान् स्थितः।
ततो जगाम बलवान् कुमारोऽक्षः प्रतापवान्॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अपने पूर्वस्थानमें ही बैठकर अन्य राक्षसोंके आनेकी बाट देखने लगे। तब अति बलवान् और प्रतापशाली राजकुमार अक्ष आया॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्पपात हनुमान् दृष्ट्वाकाशे समुद्गरः।
गगनात्त्वरितो मूर्ध्नि मुद्गरेण व्यताडयत् ॥ ८७॥
हत्वा तमक्षं निःशेषं बलं सर्वं चकार सः॥ ८८॥
मूलम्
तमुत्पपात हनुमान् दृष्ट्वाकाशे समुद्गरः।
गगनात्त्वरितो मूर्ध्नि मुद्गरेण व्यताडयत् ॥ ८७॥
हत्वा तमक्षं निःशेषं बलं सर्वं चकार सः॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर हनुमान् जी अपना मुद्गर लेकर आकाशमें उड़ गये और बड़े वेगसे ऊपरसे ही उसके मस्तकपर मुद्गरका प्रहार किया। इस प्रकार अक्षको मारकर उसकी सेनाका भी नामो-निशान मिटा दिया॥ ८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः श्रुत्वा कुमारस्य वधं राक्षसपुङ्गवः।
क्रोधेन महताविष्ट इन्द्रजेतारमब्रवीत्॥ ८९॥
पुत्र गच्छाम्यहं तत्र यत्रास्ते पुत्रहा रिपुः।
हत्वा तमथवा बद्ध्वा आनयिष्यामि तेऽन्तिकम्॥ ९०॥
मूलम्
ततः श्रुत्वा कुमारस्य वधं राक्षसपुङ्गवः।
क्रोधेन महताविष्ट इन्द्रजेतारमब्रवीत्॥ ८९॥
पुत्र गच्छाम्यहं तत्र यत्रास्ते पुत्रहा रिपुः।
हत्वा तमथवा बद्ध्वा आनयिष्यामि तेऽन्तिकम्॥ ९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमार अक्षके वधका वृत्तान्त पाकर राक्षसराज रावण अत्यन्त क्रोधमें भरकर इन्द्रजित् से बोला— ‘‘बेटा! जहाँ मेरे पुत्रको मारनेवाला मेरा शत्रु है मैं वहाँ जाता हूँ और उसे मारकर या बाँधकर तेरे पास लाता हूँ’’॥ ८९-९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रजित्पितरं प्राह त्यज शोकं महामते।
मयि स्थिते किमर्थं त्वं भाषसे दुःखितं वचः॥ ९१॥
मूलम्
इन्द्रजित्पितरं प्राह त्यज शोकं महामते।
मयि स्थिते किमर्थं त्वं भाषसे दुःखितं वचः॥ ९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रजित् ने पितासे कहा—‘‘हे महामते! शोक न कीजिये; मेरे रहते हुए आप ऐसे दुःखमय वचन क्यों बोलते हैं?॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बद्ध्वानेष्ये द्रुतं तात वानरं ब्रह्मपाशतः।
इत्युक्त्वा रथमारुह्य राक्षसैर्बहुभिर्वृतः॥ ९२॥
जगाम वायुपुत्रस्य समीपं वीरविक्रमः।
ततोऽतिगर्जितं श्रुत्वा स्तम्भमुद्यम्य वीर्यवान्॥ ९३॥
उत्पपात नभोदेशं गरुत्मानिव मारुतिः।
ततो भ्रमन्तं नभसि हनूमन्तं शिलीमुखैः॥ ९४॥
विद्ध्वा तस्य शिरोभागमिषुभिश्चाष्टभिः पुनः।
हृदयं पादयुगलं षड्भिरेकेन वालधिम्॥ ९५॥
भेदयित्वा ततो घोरं सिंहनादमथाकरोत्।
ततोऽतिहर्षाद्धनुमान् स्तम्भमुद्यम्य वीर्यवान्॥ ९६॥
जघान सारथिं साश्वं रथं चाचूर्णयत्क्षणात्।
ततोऽन्यं रथमादाय मेघनादो महाबलः॥ ९७॥
शीघ्रं ब्रह्मास्त्रमादाय बद्ध्वा वानरपुङ्गवम्।
निनाय निकटं राज्ञो रावणस्य महाबलः॥ ९८॥
मूलम्
बद्ध्वानेष्ये द्रुतं तात वानरं ब्रह्मपाशतः।
इत्युक्त्वा रथमारुह्य राक्षसैर्बहुभिर्वृतः॥ ९२॥
जगाम वायुपुत्रस्य समीपं वीरविक्रमः।
ततोऽतिगर्जितं श्रुत्वा स्तम्भमुद्यम्य वीर्यवान्॥ ९३॥
उत्पपात नभोदेशं गरुत्मानिव मारुतिः।
ततो भ्रमन्तं नभसि हनूमन्तं शिलीमुखैः॥ ९४॥
विद्ध्वा तस्य शिरोभागमिषुभिश्चाष्टभिः पुनः।
हृदयं पादयुगलं षड्भिरेकेन वालधिम्॥ ९५॥
भेदयित्वा ततो घोरं सिंहनादमथाकरोत्।
ततोऽतिहर्षाद्धनुमान् स्तम्भमुद्यम्य वीर्यवान्॥ ९६॥
जघान सारथिं साश्वं रथं चाचूर्णयत्क्षणात्।
ततोऽन्यं रथमादाय मेघनादो महाबलः॥ ९७॥
शीघ्रं ब्रह्मास्त्रमादाय बद्ध्वा वानरपुङ्गवम्।
निनाय निकटं राज्ञो रावणस्य महाबलः॥ ९८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं उस वानरको शीघ्र ही ब्रह्मपाशमें बाँधकर लिये आता हूँ।’’ ऐसा कह वह महापराक्रमी वीर रथपर चढ़ा और बहुत-से राक्षसोंके साथ पवनपुत्र हनुमान् के पास पहुँचा। तब वीर्यवान् हनुमान् जी भयंकर सिंहनाद सुन हाथमें स्तम्भ लिये गरुड़के समान आकाशमें उड़ गये। उन्हें आकाशमें उड़ते देख इन्द्रजित् ने आठ बाणोंसे उनके सिरको बींधा, फिर छः बाणोंसे उनके हृदय और दोनों चरणोंको तथा एकसे उनकी पूँछको बींधकर वह घोर सिंहनाद करने लगा। तब महाबलवान् हनुमान् जी ने भी अति प्रसन्नतासे स्तम्भ उठाकर एक क्षणमें ही उसके सारथीको मार डाला और घोड़ोंके सहित उसके रथको चूर्ण कर दिया। तब महाबली मेघनाद (इन्द्रजित्)-ने दूसरे रथपर चढ़कर तुरंत ही वानरश्रेष्ठ हनुमान् जी को ब्रह्मपाशसे बाँध लिया और उन्हें राक्षसराज रावणके पास ले गया॥ ९२—९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नाम सततं जपन्ति ये-
ऽज्ञानकर्मकृतबन्धनं क्षणात्।
सद्य एव परिमुच्य तत्पदं
यान्ति कोटिरविभासुरं शिवम्॥ ९९॥
तस्यैव रामस्य पदाम्बुजं सदा
हृत्पद्ममध्ये सुनिधाय मारुतिः।
सदैव निर्मुक्तसमस्तबन्धनः
किं तस्य पाशैरितरैश्च बन्धनैः॥ १००॥
मूलम्
यस्य नाम सततं जपन्ति ये-
ऽज्ञानकर्मकृतबन्धनं क्षणात्।
सद्य एव परिमुच्य तत्पदं
यान्ति कोटिरविभासुरं शिवम्॥ ९९॥
तस्यैव रामस्य पदाम्बुजं सदा
हृत्पद्ममध्ये सुनिधाय मारुतिः।
सदैव निर्मुक्तसमस्तबन्धनः
किं तस्य पाशैरितरैश्च बन्धनैः॥ १००॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके नामका निरन्तर जप करनेवाले भक्तजन एक क्षणमें ही अज्ञानकृत बन्धनको काटकर करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान उनके परम कल्याणमय पदको तत्काल प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं भगवान् रामके चरणकमलोंको सदा अपने हृदयकमलमें धारण करनेसे हनुमान् जी सदा ही समस्त बन्धनोंसे छूटे हुए हैं। उनका ब्रह्मपाश अथवा और किसी बन्धनसे क्या हो सकता है?॥ ९९-१००॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे तृतीयः सर्गः॥ ३॥