०२

[द्वितीय सर्ग]

भागसूचना

हनुमान् जी का वाटिकामें जाना तथा रावणका सीताजीको भय दिखलाना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जगाम हनुमान् लङ्कां परमशोभनाम्।
रात्रौ सूक्ष्मतनुर्भूत्वा बभ्राम परितः पुरीम्॥ १॥

मूलम्

ततो जगाम हनुमान् लङ्कां परमशोभनाम्।
रात्रौ सूक्ष्मतनुर्भूत्वा बभ्राम परितः पुरीम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! तदनन्तर श्रीहनुमान् जी अति सुशोभिता लंकापुरीमें गये और सूक्ष्म शरीर धारण कर रात्रिमें नगरमें सब ओर घूमते रहे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतान्वेषणकार्यार्थी प्रविवेश नृपालयम्।
तत्र सर्वप्रदेशेषु विविच्य हनुमान् कपिः॥ २॥
नापश्यज्जानकीं स्मृत्वा ततो लङ्काभिभाषितम्।
जगाम हनुमान् शीघ्रमशोकवनिकां शुभाम्॥ ३॥

मूलम्

सीतान्वेषणकार्यार्थी प्रविवेश नृपालयम्।
तत्र सर्वप्रदेशेषु विविच्य हनुमान् कपिः॥ २॥
नापश्यज्जानकीं स्मृत्वा ततो लङ्काभिभाषितम्।
जगाम हनुमान् शीघ्रमशोकवनिकां शुभाम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीका पता लगानेके लिये वे राजमन्दिरमें घुस गये, वहाँ सब ओर ढूँढ़नेपर भी जब उन्हें जानकीजी न मिलीं तो उन्हें लंकिनीका कथन याद आया और वे तुरंत ही अति मनोज्ञ अशोकवाटिकामें पहुँचे॥ २-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरपादपसम्बाधां रत्नसोपानवापिकाम्।
नानापक्षिमृगाकीर्णां स्वर्णप्रासादशोभिताम्॥ ४॥

मूलम्

सुरपादपसम्बाधां रत्नसोपानवापिकाम्।
नानापक्षिमृगाकीर्णां स्वर्णप्रासादशोभिताम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वाटिका कल्पवृक्षोंसे पूर्ण थी, उसकी बावड़ियोंकी सीढ़ियाँ रत्नजटित थीं, उसमें नाना प्रकारके पक्षी और मृगगण विचर रहे थे तथा सुवर्णनिर्मित महलोंकी अपूर्व शोभा थी॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलैरानम्रशाखाग्रपादपैः परिवारिताम्।
विचिन्वन् जानकीं तत्र प्रतिवृक्षं मरुत्सुतः॥ ५॥
ददर्शाभ्रंलिहं तत्र चैत्यप्रासादमुत्तमम्।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नो मणिस्तम्भशतान्वितम्॥ ६॥

मूलम्

फलैरानम्रशाखाग्रपादपैः परिवारिताम्।
विचिन्वन् जानकीं तत्र प्रतिवृक्षं मरुत्सुतः॥ ५॥
ददर्शाभ्रंलिहं तत्र चैत्यप्रासादमुत्तमम्।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नो मणिस्तम्भशतान्वितम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वाटिका फलोंके भारसे झुकी हुई शाखाओंवाले वृक्षोंसे घिरी हुई थी। वहाँ प्रत्येक वृक्षके नीचे जानकीजीको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पवननन्दन हनुमान् जी ने एक अति सुन्दर देवालय देखा। वह इतना ऊँचा था कि उसके शिखर बादलोंसे टकराते थे। सैकड़ों मणिमय-स्तम्भोंसे युक्त उस देवालयको देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ॥ ५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समतीत्य पुनर्गत्वा किञ्चिद्दूरं स मारुतिः।
ददर्श शिंशपावृक्षमत्यन्तनिविडच्छदम्॥ ७॥

मूलम्

समतीत्य पुनर्गत्वा किञ्चिद्दूरं स मारुतिः।
ददर्श शिंशपावृक्षमत्यन्तनिविडच्छदम्॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे कुछ और आगे बढ़े तो उन्होंने एक अत्यन्त घने पत्तोंवाला शिंशपा (सीसम)-का वृक्ष देखा॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्टातपमाकीर्णं स्वर्णवर्णविहङ्गमम्।
तन्मूले राक्षसीमध्ये स्थितां जनकनन्दिनीम्॥ ८॥
ददर्श हनुमान् वीरो देवतामिव भूतले।
एकवेणीं कृशां दीनां मलिनाम्बरधारिणीम्॥ ९॥

मूलम्

अदृष्टातपमाकीर्णं स्वर्णवर्णविहङ्गमम्।
तन्मूले राक्षसीमध्ये स्थितां जनकनन्दिनीम्॥ ८॥
ददर्श हनुमान् वीरो देवतामिव भूतले।
एकवेणीं कृशां दीनां मलिनाम्बरधारिणीम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके नीचे धूप कभी नहीं जाती थी और वह सुनहरे पक्षियोंसे आकीर्ण था। वीरवर हनुमान् जी ने देखा कि उस वृक्षके नीचे श्रीजानकीजी पृथ्वीपर स्थित देवताके समान राक्षसियोंसे घिरी हुई बैठी हैं। उनके बालोंकी जुड़कर एक वेणी हो गयी है, वे अत्यन्त दुर्बल और दीन-अवस्थामें हैं तथा मैले-कुचैले वस्त्र धारण किये हुए हैं॥ ८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमौ शयानां शोचन्तीं रामरामेति भाषिणीम्।
त्रातारं नाधिगच्छन्तीमुपवासकृशां शुभाम्॥ १०॥

मूलम्

भूमौ शयानां शोचन्तीं रामरामेति भाषिणीम्।
त्रातारं नाधिगच्छन्तीमुपवासकृशां शुभाम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी अवस्थामें पृथ्वीपर पड़ी हुई वे अतिशोकपूर्वक ‘राम-राम’ कह रही हैं। उन्हें अपना कोई रक्षक भी दिखायी नहीं देता और वे उपवास करनेसे अति दुर्बल हो गयी हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाखान्तच्छदमध्यस्थो ददर्श कपिकुञ्जरः।
कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं दृष्ट्वा जनकनन्दिनीम्॥ ११॥
मयैव साधितं कार्यं रामस्य परमात्मनः।
ततः किलकिलाशब्दो बभूवान्तःपुराद्‍बहिः॥ १२॥

मूलम्

शाखान्तच्छदमध्यस्थो ददर्श कपिकुञ्जरः।
कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं दृष्ट्वा जनकनन्दिनीम्॥ ११॥
मयैव साधितं कार्यं रामस्य परमात्मनः।
ततः किलकिलाशब्दो बभूवान्तःपुराद्‍बहिः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कपिश्रेष्ठ श्रीहनुमान् जी शाखाओंके पत्तोंमें छिपकर उन्हें देखने लगे और मन-ही-मन कहने लगे कि ‘आज जानकीजीको देखकर मैं कृतार्थ हो गया, कृतार्थ हो गया! अहा! परमात्मा रामका कार्य मेरे ही द्वारा सिद्ध हुआ।’ इसी समय अन्तःपुरमेंसे बड़े किलकिला शब्दकी आवाज आयी॥ ११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमेतदिति सल्ँलीनो वृक्षपत्रेषु मारुतिः।
आयान्तं रावणं तत्र स्त्रीजनैः परिवारितम्॥ १३॥

मूलम्

किमेतदिति सल्ँलीनो वृक्षपत्रेषु मारुतिः।
आयान्तं रावणं तत्र स्त्रीजनैः परिवारितम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी ने यह सोचकर कि ‘यह क्या गड़बड़ है’ वृक्षके पत्तोंमें छिपे-छिपे देखा कि स्त्रियोंसे घिरा हुआ रावण उसी ओर आ रहा है॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशास्यं विंशतिभुजं नीलाञ्जनचयोपमम्।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नः पत्रषण्डेष्वलीयत॥ १४॥

मूलम्

दशास्यं विंशतिभुजं नीलाञ्जनचयोपमम्।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नः पत्रषण्डेष्वलीयत॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके दस मुख, बीस भुजा और कज्जल-समूहके समान काले शरीरको देखकर हनुमान् जी को बड़ा विस्मय हुआ और वे पत्तोंमें छिप गये॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणो राघवेणाशु मरणं मे कथं भवेत्।
सीतार्थमपि नायाति रामः किं कारणं भवेत्॥ १५॥
इत्येवं चिन्तयन्नित्यं राममेव सदा हृदि।
तस्मिन्दिनेऽपररात्रौ रावणो राक्षसाधिपः॥ १६॥
स्वप्ने रामेण सन्दिष्टः कश्चिदागत्य वानरः।
कामरूपधरः सूक्ष्मो वृक्षाग्रस्थोऽनुपश्यति॥ १७॥

मूलम्

रावणो राघवेणाशु मरणं मे कथं भवेत्।
सीतार्थमपि नायाति रामः किं कारणं भवेत्॥ १५॥
इत्येवं चिन्तयन्नित्यं राममेव सदा हृदि।
तस्मिन्दिनेऽपररात्रौ रावणो राक्षसाधिपः॥ १६॥
स्वप्ने रामेण सन्दिष्टः कश्चिदागत्य वानरः।
कामरूपधरः सूक्ष्मो वृक्षाग्रस्थोऽनुपश्यति॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणको सदा यही चिन्ता रहती थी कि ‘किस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे जल्दी-से-जल्दी मेरा मरण हो, न जाने क्या कारण है कि वे अभीतक सीताके लिये भी नहीं आये?’ इस प्रकार निरन्तर भगवान् रामका ही हृदयमें स्मरण रहनेसे राक्षसराज रावणने उसी दिन शेषरात्रिमें स्वप्नमें देखा कि रामका सन्देश लेकर आया हुआ कोई स्वेच्छारूपधारी वानर सूक्ष्म शरीरसे वृक्षकी शाखापर बैठा हुआ देख रहा है॥ १५—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति दृष्ट्वाद्भुतं स्वप्नं स्वात्मन्येवानुचिन्त्य सः।
स्वप्नः कदाचित्सत्यः स्यादेवं तत्र करोम्यहम्॥ १८॥
जानकीं वाक्शरैर्विद्‍ध्वा दुःखितां नितरामहम्।
करोमि दृष्ट्वा रामाय निवेदयतु वानरः॥ १९॥

मूलम्

इति दृष्ट्वाद्भुतं स्वप्नं स्वात्मन्येवानुचिन्त्य सः।
स्वप्नः कदाचित्सत्यः स्यादेवं तत्र करोम्यहम्॥ १८॥
जानकीं वाक्शरैर्विद्‍ध्वा दुःखितां नितरामहम्।
करोमि दृष्ट्वा रामाय निवेदयतु वानरः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अद्भुत स्वप्नको देखकर उसने अपने मनमें सोचा—‘कदाचित् यह स्वप्न ठीक ही हो; अतः अब अशोकवनमें चलकर मुझे एक काम करना चाहिये—मैं जानकीजीको अपने वाग्बाणोंसे बेधकर अत्यन्त दुःखी करूँ, जिससे वह वानर यह सब देखकर रामचन्द्रजीको सुनावे’॥ १८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं चिन्तयन् सीतासमीपमगमद्‍द्रुतम्।
नूपुराणां किङ्किणीनां श्रुत्वा शिञ्जितमङ्गना॥ २०॥
सीता भीता लीयमाना स्वात्मन्येव सुमध्यमा।
अधोमुख्यश्रुनयना स्थिता रामार्पितान्तरा॥ २१॥

मूलम्

इत्येवं चिन्तयन् सीतासमीपमगमद्‍द्रुतम्।
नूपुराणां किङ्किणीनां श्रुत्वा शिञ्जितमङ्गना॥ २०॥
सीता भीता लीयमाना स्वात्मन्येव सुमध्यमा।
अधोमुख्यश्रुनयना स्थिता रामार्पितान्तरा॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सोचकर वह तुरंत सीताजीके पास चला। (उसके साथकी स्त्रियोंके) नूपुर (पायजेब) और किंकिणी (करधनी) आदिकी झनकार सुनकर सुन्दर कटिवाली कल्याणी सीताजी घबड़ाकर अपने शरीरको सिकोड़ नीचेको मुख करके बैठ गयीं। उस समय उनके नेत्रोंमें जल भर आया और हृदय भगवान् राममें लग गया॥ २०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणोऽपि तदा सीतामालोक्याह सुमध्यमे।
मां दृष्ट्वा किं वृथा सुभ्रु स्वात्मन्येव विलीयसे॥ २२॥

मूलम्

रावणोऽपि तदा सीतामालोक्याह सुमध्यमे।
मां दृष्ट्वा किं वृथा सुभ्रु स्वात्मन्येव विलीयसे॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीको देखकर रावण बोला—‘‘हे कमनीय कटि और सुन्दर भृकुटिवाली! तू मुझे देखकर वृथा क्यों इतनी सिकुड़ती है?॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो वनचराणां हि मध्ये तिष्ठति सानुजः।
कदाचिद्दृश्यते कैश्चित्कदाचिन्नैव दृश्यते॥ २३॥

मूलम्

रामो वनचराणां हि मध्ये तिष्ठति सानुजः।
कदाचिद्दृश्यते कैश्चित्कदाचिन्नैव दृश्यते॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब राम तो अपने भाईके साथ वनचरोंमें रहता है, वह कभी तो किसीको दिखायी देता है और कभी दिखायी भी नहीं देता॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया तु बहुधा लोकाः प्रेषितास्तस्य दर्शने।
न पश्यन्ति प्रयत्नेन वीक्षमाणाः समन्ततः॥ २४॥

मूलम्

मया तु बहुधा लोकाः प्रेषितास्तस्य दर्शने।
न पश्यन्ति प्रयत्नेन वीक्षमाणाः समन्ततः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने तो उसे देखनेके लिये कितने ही लोग भेजे, किन्तु बहुत प्रयत्नपूर्वक सब ओर देखनेपर भी वह उनको कहीं दिखायी नहीं दिया॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं करिष्यसि रामेण निःस्पृहेण सदा त्वयि।
त्वया सदालिङ्गितोऽपि समीपस्थोऽपि सर्वदा॥ २५॥
हृदयेऽस्य न च स्नेहस्त्वयि रामस्य जायते।
त्वत्कृतान् सर्वभोगांश्च त्वद्‍गुणानपि राघवः॥ २६॥
भुञ्जानोऽपि न जानाति कृतघ्नो निर्गुणोऽधमः।
त्वमानीता मया साध्वी दुःखशोकसमाकुला॥ २७॥
इदानीमपि नायाति भक्तिहीनः कथं व्रजेत्।
निःसत्त्वो निर्ममो मानी मूढः पण्डितमानवान्॥ २८॥

मूलम्

किं करिष्यसि रामेण निःस्पृहेण सदा त्वयि।
त्वया सदालिङ्गितोऽपि समीपस्थोऽपि सर्वदा॥ २५॥
हृदयेऽस्य न च स्नेहस्त्वयि रामस्य जायते।
त्वत्कृतान् सर्वभोगांश्च त्वद्‍गुणानपि राघवः॥ २६॥
भुञ्जानोऽपि न जानाति कृतघ्नो निर्गुणोऽधमः।
त्वमानीता मया साध्वी दुःखशोकसमाकुला॥ २७॥
इदानीमपि नायाति भक्तिहीनः कथं व्रजेत्।
निःसत्त्वो निर्ममो मानी मूढः पण्डितमानवान्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब रामसे तुझे क्या काम है? वह तो तुझसे सदा उदासीन रहता है। सदा तेरे पास रहते हुए और सदा तुझसे आलिंगित होते हुए भी उसके हृदयमें अभीतक तेरे प्रति स्नेह नहीं हुआ। रामको तुझसे जितने भोग प्राप्त हुए हैं और तुझमें जितने गुण हैं उन सबको भोगकर भी वह कृतघ्न, गुणहीन और अधम कभी उनकी याद भी नहीं करता। देखो, मैं तुम्हें हर ले आया, तुम उसकी सुशीला पत्नी हो और इस समय दुःख-शोकसे व्याकुल हो रही हो तो भी वह अभीतक नहीं आया; जब उसे तुझमें प्रेम ही नहीं है तो आता कैसे? वह सर्वथा असमर्थ, ममताशून्य, अभिमानी, मूर्ख और अपनेको बड़ा बुद्धिमान् माननेवाला है॥ २५—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराधमं त्वद्विमुखं किं करिष्यसि भामिनि।
त्वय्यतीव समासक्तं मां भजस्वासुरोत्तमम्॥ २९॥

मूलम्

नराधमं त्वद्विमुखं किं करिष्यसि भामिनि।
त्वय्यतीव समासक्तं मां भजस्वासुरोत्तमम्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भामिनि! अपनेसे उदासीन उस नराधमसे तुझे क्या लेना है?* देख, मैं राक्षसश्रेष्ठ तुझसे अत्यन्त प्रेम करता हूँ, अतः तू मुझे ही अंगीकार कर॥ २९॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ २३ से २८ श्लोकतक रावणने गूढ़भावसे निन्दाके मिषसे भगवान् रामकी स्तुति की है। इनका तात्पर्य इस प्रकार है—
    राम अपने भाईके सहित वनवासी तपस्वियोंमें रहते हैं। उनमेंसे वे (ध्यान-धारणादिद्वारा) कभी किसीको दिखायी देते हैं और कभी (ध्यान-धारणासे भी) दिखायी नहीं देते॥ २३॥ मैंने तो उनका साक्षात्कार करनेके लिये कई बार अपनी इन्द्रियोंको उधर लगाया है, किन्तु बहुत कुछ प्रयत्न करनेपर भी मुझे उनका साक्षात्कार नहीं हुआ॥ २४॥ (तुम साक्षात् योगमाया हो, परब्रह्मरूप रामके साथ तुम्हारा सदा सहवास है और उसके साथ तादात्म्य भी है किन्तु) फिर भी वह सर्वदा निःस्पृह और असंग है। उसे तुम्हारी परवा नहीं है॥ २५॥ निःस्पृह और असंग होनेसे परब्रह्मरूप रामको तुम मायारूपिणीसे बन्धन भी नहीं होता और न वह तुम्हारे (मायाके) गुण या भोगोंमें ही फँसता है॥ २६॥ सांख्यवादीगण (उपचारसे) उसे भोक्ता भी कहते हैं तथापि उन्हींके मतानुसार ‘जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः’ इस श्रुतिके अनुसार वह ‘मैं भोक्ता हूँ’ ऐसा अभिमान नहीं करता। इसी प्रकार वह कृतघ्न (किये हुए कर्मोंका नाश करनेवाला), निर्गुण (सत्त्व, रज, तमसे रहित) और अधम (न धमति शब्दविषयो भवति—जो शब्दका विषय न हो अर्थात् अशब्द) भी है॥ २७॥ उसकी मायापर प्रीति नहीं है इसलिये वह अभीतक नहीं आया। इससे रावण अपनेको लक्ष्य करके कहता है कि वह अब भी मेरे हृदयमें नहीं आता, क्योंकि भक्तिहीन होनेसे मेरा हृदय उसतक कैसे पहुँच सकता है? वह निर्गुण, ममतारहित, अमानी, मूढ़ (म्=शिवः+उः=ब्रह्मा ताभ्याम् ऊढः—ध्यानविषयन्नीतः अर्थात् शिव और ब्रह्माके ध्येय) और विद्वानोंमें सम्मानित है॥ २८॥ नराधम (नराः अधमाः यस्मात् स नराधमः मनुष्य जिससे अधम हैं अर्थात् पुरुषोत्तम), विमुख (माया-पराङ्मुख)।
विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वनागानां यक्षकिन्नरयोषिताम्।
भविष्यसि नियोक्त्री त्वं यदि मां प्रतिपद्यसे॥ ३०॥

मूलम्

देवगन्धर्वनागानां यक्षकिन्नरयोषिताम्।
भविष्यसि नियोक्त्री त्वं यदि मां प्रतिपद्यसे॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तू मेरे अधीन रहेगी तो देव, गन्धर्व, नाग, यक्ष और किन्नर आदिकी स्त्रियोंका शासन करेगी’’॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्य वचः श्रुत्वा सीतामर्षसमन्विता।
उवाचाधोमुखी भूत्वा निधाय तृणमन्तरे॥ ३१॥

मूलम्

रावणस्य वचः श्रुत्वा सीतामर्षसमन्विता।
उवाचाधोमुखी भूत्वा निधाय तृणमन्तरे॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके ये वचन सुनकर सीताजीको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सिर नीचा कर लिया और बीचमें तृण रखकर* कहा—॥ ३१॥

पादटिप्पनी
  • पतिव्रता स्त्रीको पर-पुरुषसे प्रत्यक्ष वार्तालाप नहीं करना चाहिये। यदि कोई अनिवार्य प्रसंग आ पड़े तो भी कोई जड वस्तु ही बीचमें रख लेनी चाहिये। इस नियमके अनुसार ही सीताजीने बीचमें तृण रखा था।
विश्वास-प्रस्तुतिः

राघवाद्‍‍बिभ्यता नूनं भिक्षुरूपं त्वया धृतम्।
रहिते राघवाभ्यां त्वं शुनीव हविरध्वरे॥ ३२॥
हृतवानसि मां नीच तत्फलं प्राप्स्यसेऽचिरात्।
यदा रामशराघातविदारितवपुर्भवान्॥ ३३॥
ज्ञास्यसेऽमानुषं रामं गमिष्यसि यमान्तिकम्।
समुद्रं शोषयित्वा वा शरैर्बद्‍ध्वाथ वारिधिम्॥ ३४॥
हन्तुं त्वां समरे रामो लक्ष्मणेन समन्वितः।
आगमिष्यत्यसन्देहो द्रक्ष्यसे राक्षसाधम॥ ३५॥

मूलम्

राघवाद्‍‍बिभ्यता नूनं भिक्षुरूपं त्वया धृतम्।
रहिते राघवाभ्यां त्वं शुनीव हविरध्वरे॥ ३२॥
हृतवानसि मां नीच तत्फलं प्राप्स्यसेऽचिरात्।
यदा रामशराघातविदारितवपुर्भवान्॥ ३३॥
ज्ञास्यसेऽमानुषं रामं गमिष्यसि यमान्तिकम्।
समुद्रं शोषयित्वा वा शरैर्बद्‍ध्वाथ वारिधिम्॥ ३४॥
हन्तुं त्वां समरे रामो लक्ष्मणेन समन्वितः।
आगमिष्यत्यसन्देहो द्रक्ष्यसे राक्षसाधम॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरे नीच! इसमें सन्देह नहीं, श्रीरघुनाथजीसे डरकर ही तूने भिक्षुका रूप धारण किया था और उन दोनों रघुश्रेष्ठोंकी अनुपस्थितिमें ही, कुत्ता जिस प्रकार सूनी यज्ञशालासे हवि ले जाता है उसी प्रकार तू मुझे हर लाया है; सो बहुत शीघ्र ही उसका फल पायेगा। जिस समय भगवान् रामकी बाणवर्षासे विदीर्ण होकर तू यमलोकको जायगा, उस समय ही तू अमानव रामको जानेगा। अरे राक्षसाधम! इसमें सन्देह नहीं; तू शीघ्र ही देखेगा कि तुझे युद्धमें मारनेके लिये भाई लक्ष्मणसहित भगवान् राम समुद्रको सुखाकर अथवा उसपर बाणोंका पुल बनाकर यहाँ आयेंगे और तुझे पुत्र और सेनाके सहित मारकर मुझे अयोध्यापुरी ले जायँगे’’॥ ३२—३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां सपुत्रं सहबलं हत्वा नेष्यति मां पुरम्।
श्रुत्वा रक्षःपतिः क्रुद्धो जानक्याः परुषाक्षरम्॥ ३६॥
वाक्यं क्रोधसमाविष्टः खड्गमुद्यम्य सत्वरः।
हन्तुं जनकराजस्य तनयां ताम्रलोचनः॥ ३७॥

मूलम्

त्वां सपुत्रं सहबलं हत्वा नेष्यति मां पुरम्।
श्रुत्वा रक्षःपतिः क्रुद्धो जानक्याः परुषाक्षरम्॥ ३६॥
वाक्यं क्रोधसमाविष्टः खड्गमुद्यम्य सत्वरः।
हन्तुं जनकराजस्य तनयां ताम्रलोचनः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजीके ये कठोर वचन सुनकर राक्षसराज रावणको अत्यन्त क्रोध हुआ और वह क्रोधसे नेत्र लाल कर तुरंत ही खड्ग खींचकर जनकनन्दिनी सीताजीको मारनेपर उतारू हो गया॥ ३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दोदरी निवार्याह पतिं पतिहिते रता।
त्यजैनां मानुषीं दीनां दुःखितां कृपणां कृशाम्॥ ३८॥

मूलम्

मन्दोदरी निवार्याह पतिं पतिहिते रता।
त्यजैनां मानुषीं दीनां दुःखितां कृपणां कृशाम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पतिके हितमें तत्पर रहनेवाली महारानी मन्दोदरीने अपने पतिको रोकते हुए कहा—‘‘पतिदेव! इस दीना, क्षीणा, दुःखिया एवं कातर मानवीको छोड़ दीजिये॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वनागानां बह्व्यः सन्ति वराङ्गनाः।
त्वामेव वरयन्त्युच्चैर्मदमत्तविलोचनाः॥ ३९॥

मूलम्

देवगन्धर्वनागानां बह्व्यः सन्ति वराङ्गनाः।
त्वामेव वरयन्त्युच्चैर्मदमत्तविलोचनाः॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके लिये तो देवता, गन्धर्व और नागादिकोंकी ऐसी अनेकों मदमत्तनयना मनोहारिणी महिलाएँ हैं, जो बड़े चावसे आपहीको वरण करना चाहती हैं’’॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद्दशग्रीवो राक्षसीर्विकृताननाः।
यथा मे वशगा सीता भविष्यति सकामना।
तथा यतध्वं त्वरितं तर्जनादरणादिभिः॥ ४०॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद्दशग्रीवो राक्षसीर्विकृताननाः।
यथा मे वशगा सीता भविष्यति सकामना।
तथा यतध्वं त्वरितं तर्जनादरणादिभिः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणने बहुत-सी विकराल वदनवाली राक्षसियोंसे कहा—‘‘हे निशाचरियो! भय अथवा आदर जिस उपायसे भी सीता कामनायुक्त होकर शीघ्र ही मेरे अधीन हो जाय, तुम सब लोग वही करो॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विमासाभ्यन्तरे सीता यदि मे वशगा भवेत्।
तदा सर्वसुखोपेता राज्यं भोक्ष्यति सा मया॥ ४१॥

मूलम्

द्विमासाभ्यन्तरे सीता यदि मे वशगा भवेत्।
तदा सर्वसुखोपेता राज्यं भोक्ष्यति सा मया॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि दो महीनेके भीतर वह मेरे वशीभूत हो जायगी तो सर्व-सुख-सम्पन्न होकर वह मेरे साथ राज्य भोगेगी॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मासद्वयादूर्ध्वं मच्छय्यां नाभिनन्दति।
तदा मे प्रातराशाय हत्वा कुरुत मानुषीम्॥ ४२॥

मूलम्

यदि मासद्वयादूर्ध्वं मच्छय्यां नाभिनन्दति।
तदा मे प्रातराशाय हत्वा कुरुत मानुषीम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यदि दो महीनेतक भी यह मेरी शय्यापर आना स्वीकार न करे तो इस मानवीको मारकर मेरा प्रातःकालका कलेवा बना देना’’॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा प्रययौ स्त्रीभी रावणोऽन्तःपुरालयम्।
राक्षस्यो जानकीमेत्य भीषयन्त्यः स्वतर्जनैः॥ ४३॥

मूलम्

इत्युक्त्वा प्रययौ स्त्रीभी रावणोऽन्तःपुरालयम्।
राक्षस्यो जानकीमेत्य भीषयन्त्यः स्वतर्जनैः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कह रावण अपनी स्त्रियोंके साथ अन्तःपुरको चला गया और राक्षसियाँ सीताजीके पास आकर उन्हें अपने-अपने उपायोंसे भयभीत करने लगीं॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैका जानकीमाह यौवनं ते वृथा गतम्।
रावणेन समासाद्य सफलं तु भविष्यति॥ ४४॥

मूलम्

तत्रैका जानकीमाह यौवनं ते वृथा गतम्।
रावणेन समासाद्य सफलं तु भविष्यति॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे एक बोली—‘‘जानकि! तेरा यौवन वृथा ही गया, यदि तू रावणका सहवास करे तो यह सफल हो जाय’’॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरा चाह कोपेन किं विलम्बेन जानकि।
इदानीं छेद्यतामङ्गं विभज्य च पृथक् पृथक्॥ ४५॥
अन्या तु खड्गमुद्यम्य जानकीं हन्तुमुद्यता।
अन्या करालवदना विदार्यास्यमभीषयत् ॥ ४६॥

मूलम्

अपरा चाह कोपेन किं विलम्बेन जानकि।
इदानीं छेद्यतामङ्गं विभज्य च पृथक् पृथक्॥ ४५॥
अन्या तु खड्गमुद्यम्य जानकीं हन्तुमुद्यता।
अन्या करालवदना विदार्यास्यमभीषयत् ॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरीने क्रोध दिखाते हुए कहा—‘‘जानकि! अब (हमारी बात माननेमें) देर क्यों करती है?’ इसी प्रकार कोई खड्ग निकालकर जानकीजीको मारनेके लिये तैयार होकर बोली कि ‘‘इसके अंगोंको काटकर अभी अलग-अलग कर डालो।’’ तथा कोई भयंकर मुखवाली राक्षसी अपना मुख फाड़कर डराने लगी॥ ४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तां भीषयन्तीस्ता राक्षसीर्विकृताननाः।
निवार्य त्रिजटा वृद्धा राक्षसी वाक्यमब्रवीत्॥ ४७॥

मूलम्

एवं तां भीषयन्तीस्ता राक्षसीर्विकृताननाः।
निवार्य त्रिजटा वृद्धा राक्षसी वाक्यमब्रवीत्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सीताजीको इस प्रकार डराती हुई उन विकृतवदना राक्षसियोंको रोककर त्रिजटा नामकी एक वृद्धा राक्षसी बोली—॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुध्वं दुष्टराक्षस्यो मद्वाक्यं वो हितं भवेत्॥ ४८॥

मूलम्

शृणुध्वं दुष्टराक्षस्यो मद्वाक्यं वो हितं भवेत्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरी दुष्टा राक्षसियो! मेरी बात सुनो, इसीसे तुम्हारा हित होगा॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भीषयध्वं रुदतीं नमस्कुरुत जानकीम्।
इदानीमेव मे स्वप्ने रामः कमललोचनः॥ ४९॥
आरुह्यैरावतं शुभ्रं लक्ष्मणेन समागतः।
दग्ध्वा लङ्कापुरीं सर्वां हत्वा रावणमाहवे॥ ५०॥
आरोप्य जानकीं स्वाङ्के स्थितो दृष्टोऽगमूर्धनि।
रावणो गोमयह्रदे तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः॥ ५१॥
अगाहत्पुत्रपौत्रैश्च कृत्वा वदनमालिकाम्।
विभीषणस्तु रामस्य सन्निधौ हृष्टमानसः॥ ५२॥
सेवां करोति रामस्य पादयोर्भक्तिसंयुतः।
सर्वथा रावणं रामो हत्वा सकुलमञ्जसा॥ ५३॥
विभीषणायाधिपत्यं दत्त्वा सीतां शुभाननाम्।
अङ्के निधाय स्वपुरीं गमिष्यति न संशयः॥ ५४॥

मूलम्

न भीषयध्वं रुदतीं नमस्कुरुत जानकीम्।
इदानीमेव मे स्वप्ने रामः कमललोचनः॥ ४९॥
आरुह्यैरावतं शुभ्रं लक्ष्मणेन समागतः।
दग्ध्वा लङ्कापुरीं सर्वां हत्वा रावणमाहवे॥ ५०॥
आरोप्य जानकीं स्वाङ्के स्थितो दृष्टोऽगमूर्धनि।
रावणो गोमयह्रदे तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः॥ ५१॥
अगाहत्पुत्रपौत्रैश्च कृत्वा वदनमालिकाम्।
विभीषणस्तु रामस्य सन्निधौ हृष्टमानसः॥ ५२॥
सेवां करोति रामस्य पादयोर्भक्तिसंयुतः।
सर्वथा रावणं रामो हत्वा सकुलमञ्जसा॥ ५३॥
विभीषणायाधिपत्यं दत्त्वा सीतां शुभाननाम्।
अङ्के निधाय स्वपुरीं गमिष्यति न संशयः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम इन रोती-बिलखती जानकीजीको मत डराओ, बल्कि इन्हें नमस्कार करो। मैंने अभी-अभी स्वप्नमें देखा है कि कमललोचन भगवान् राम लक्ष्मणके साथ श्वेत ऐरावत हाथीपर चढ़कर आये हैं और मैंने उन्हें सम्पूर्ण लंकापुरीको जलाकर तथा रावणको युद्धमें मारकर सीताजीको अपनी गोदमें लिये पर्वत-शिखरपर बैठे हुए देखा है। रावण गलेमें मुण्डमाला पहने, शरीरमें तैल लगाये, नंगा होकर अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ गोबरके कुण्डमें डुबकी लगा रहा है और विभीषण प्रसन्नचित्तसे रघुनाथजीके पास बैठा हुआ अति भक्तिपूर्वक उनकी चरण-सेवा कर रहा है। इससे निश्चय होता है कि रामचन्द्रजी अनायास ही रावणका कुलसहित नाश कर विभीषणको लंकाका राज्य देंगे और सुमुखी सीताको गोदमें बिठाकर निस्सन्देह अपने नगरको चले जायँगे’॥ ४९—५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिजटाया वचः श्रुत्वा भीतास्ता राक्षसस्त्रियः।
तूष्णीमासंस्तत्र तत्र निद्रावशमुपागताः॥ ५५॥

मूलम्

त्रिजटाया वचः श्रुत्वा भीतास्ता राक्षसस्त्रियः।
तूष्णीमासंस्तत्र तत्र निद्रावशमुपागताः॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिजटाके ये वचन सुनकर राक्षसियाँ डर गयीं। वे चुपचाप जहाँ-तहाँ बैठ गयीं और कुछ देर पीछे उन्हें नींद आ गयी॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तर्जिता राक्षसीभिः सा सीता भीतातिविह्वला।
त्रातारं नाधिगच्छन्ती दुःखेन परिमूर्च्छिता॥ ५६॥

मूलम्

तर्जिता राक्षसीभिः सा सीता भीतातिविह्वला।
त्रातारं नाधिगच्छन्ती दुःखेन परिमूर्च्छिता॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसियोंके डरानेसे सीताजी अत्यन्त भयभीत और विह्वल हो गयीं और अपना कोई सहायक न देखकर वे दुःखसे मूर्च्छित हो गयीं॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रुभिः पूर्णनयना चिन्तयन्तीदमब्रवीत्।
प्रभाते भक्षयिष्यन्ति राक्षस्यो मां न संशयः।
इदानीमेव मरणं केनोपायेन मे भवेत्॥ ५७॥

मूलम्

अश्रुभिः पूर्णनयना चिन्तयन्तीदमब्रवीत्।
प्रभाते भक्षयिष्यन्ति राक्षस्यो मां न संशयः।
इदानीमेव मरणं केनोपायेन मे भवेत्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आँखोंमें आँसू भरकर अति चिन्ताकुल होकर इस प्रकार कहने लगीं—‘‘इसमें सन्देह नहीं, प्रातःकाल होते ही राक्षसियाँ मुझे खा जायँगी। ऐसा कौन उपाय है जिससे मुझे अभी मौत आ जाय’’॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सुदुःखेन परिप्लुता सा
विमुक्तकण्ठं रुदती चिराय।
आलम्ब्य शाखां कृतनिश्चया मृतौ
न जानती कञ्चिदुपायमङ्गना॥ ५८॥

मूलम्

एवं सुदुःखेन परिप्लुता सा
विमुक्तकण्ठं रुदती चिराय।
आलम्ब्य शाखां कृतनिश्चया मृतौ
न जानती कञ्चिदुपायमङ्गना॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मौतका निश्चय करके भी उसका कोई साधन न देखकर कल्याणी सीता वृक्षकी शाखा पकड़े हुए अत्यन्त दुःखसे भरकर बहुत देरतक फूट-फूटकर रोती रहीं॥ ५८॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥