[नवम सर्ग]
भागसूचना
समुद्रोल्लंघनकी मन्त्रणा
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते विहायसा गृध्रराजे वानरपुङ्गवाः।
हर्षेण महताविष्टाः सीतादर्शनलालसाः॥ १॥
मूलम्
गते विहायसा गृध्रराजे वानरपुङ्गवाः।
हर्षेण महताविष्टाः सीतादर्शनलालसाः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! गृध्रराज सम्पातिके आकाश-मार्गसे चले जानेपर सीताजीके दर्शनोंके लिये अति उत्कण्ठित वानरगण (उनका पता लग जानेके कारण) अत्यन्त हर्षित हुए॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुः समुद्रं पश्यन्तो नक्रचक्रभयङ्करम्।
तरङ्गादिभिरुन्नद्धमाकाशमिव दुर्ग्रहम्॥ २॥
परस्परमवोचन् वै कथमेनं तरामहे।
उवाच चाङ्गदस्तत्र शृणुध्वं वानरोत्तमाः॥ ३॥
मूलम्
ऊचुः समुद्रं पश्यन्तो नक्रचक्रभयङ्करम्।
तरङ्गादिभिरुन्नद्धमाकाशमिव दुर्ग्रहम्॥ २॥
परस्परमवोचन् वै कथमेनं तरामहे।
उवाच चाङ्गदस्तत्र शृणुध्वं वानरोत्तमाः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु जब उन्होंने नाकों और भँवर आदिके कारण अत्यन्त भयंकर उत्ताल तरंगोंसे उछलते हुए तथा आकाशके समान दुर्लङ्घ्य समुद्रकी ओर देखा तो वे आपसमें कहने लगे कि हम इसे किस प्रकार पार कर सकेंगे। तब अंगदजीने कहा—‘‘हे वानरश्रेष्ठगण! सुनिये—॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तोऽत्यन्तबलिनः शूराश्च कृतविक्रमाः।
को वात्र वारिधिं तीर्त्वा राजकार्यं करिष्यति॥ ४॥
मूलम्
भवन्तोऽत्यन्तबलिनः शूराश्च कृतविक्रमाः।
को वात्र वारिधिं तीर्त्वा राजकार्यं करिष्यति॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोग सभी अत्यन्त बलवान्, शूरवीर और पराक्रमी हैं। अतः आपमेंसे ऐसा कौन है जो समुद्र लाँघकर राजकार्य सम्पन्न करे॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां वानराणां स प्राणदाता न संशयः।
तदुत्तिष्ठतु मे शीघ्रं पुरतो यो महाबलः॥ ५॥
मूलम्
एतेषां वानराणां स प्राणदाता न संशयः।
तदुत्तिष्ठतु मे शीघ्रं पुरतो यो महाबलः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह निस्सन्देह इन समस्त वानरोंको प्राण-दान करनेवाला होगा। अतः जो महाबलवान् वीर ऐसा हो वह शीघ्र ही मेरे सामने आवे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानराणां च सर्वेषां रामसुग्रीवयोरपि।
स एव पालको भूयान्नात्र कार्या विचारणा॥ ६॥
मूलम्
वानराणां च सर्वेषां रामसुग्रीवयोरपि।
स एव पालको भूयान्नात्र कार्या विचारणा॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें कोई सन्देह नहीं, वही सम्पूर्ण वानरोंकी, सुग्रीवकी और स्वयं भगवान् रामकी भी रक्षा करनेवाला होगा’’॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते युवराजेन तूष्णीं वानरसैनिकाः।
आसन्नोचुः किञ्चिदपि परस्परविलोकिनः॥ ७॥
मूलम्
इत्युक्ते युवराजेन तूष्णीं वानरसैनिकाः।
आसन्नोचुः किञ्चिदपि परस्परविलोकिनः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवराज अंगदके इस प्रकार कहनेपर समस्त वानर-सेनापति चुपचाप बैठे रहे, किसीके मुखसे एक शब्द भी न निकला, परस्पर एक-दूसरेका मुख ताकते रह गये॥ ७॥
मूलम् (वचनम्)
अङ्गद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्यतां वै बलं सर्वैः प्रत्येकं कार्यसिद्धये।
केन वा साध्यते कार्यं जानीमस्तदनन्तरम्॥ ८॥
मूलम्
उच्यतां वै बलं सर्वैः प्रत्येकं कार्यसिद्धये।
केन वा साध्यते कार्यं जानीमस्तदनन्तरम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगद बोले—अच्छा, इस कार्यको करनेके लिये सब लोग अपनी शक्तिका वर्णन करो। तब इस बातका पता चल जायगा कि इसे कौन साध सकेगा॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा प्रोचुर्वीरा बलं पृथक्।
योजनानां दशारभ्य दशोत्तरगुणं जगुः॥ ९॥
मूलम्
अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा प्रोचुर्वीरा बलं पृथक्।
योजनानां दशारभ्य दशोत्तरगुणं जगुः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगदजीकी यह बात सुनकर सब वानर-वीर पृथक्-पृथक् अपना बल बतलाने लगे। उनमेंसे एक-एकने दस योजनसे लेकर क्रमशः दस-दस योजन अधिक जानेतककी अपनी सामर्थ्य बतायी॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतादर्वाग्जाम्बवांस्तु प्राह मध्ये वनौकसाम्।
पुरा त्रिविक्रमे देवे पादं भूमानलक्षणम्॥ १०॥
त्रिःसप्तकृत्वोऽहमगां प्रदक्षिणविधानतः।
इदानीं वार्धकग्रस्तो न शक्नोमि विलङ्घितुम्॥ ११॥
मूलम्
शतादर्वाग्जाम्बवांस्तु प्राह मध्ये वनौकसाम्।
पुरा त्रिविक्रमे देवे पादं भूमानलक्षणम्॥ १०॥
त्रिःसप्तकृत्वोऽहमगां प्रदक्षिणविधानतः।
इदानीं वार्धकग्रस्तो न शक्नोमि विलङ्घितुम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें उन सब वनचरोंमेंसे जाम्बवान् ने अपनी शक्ति सौ योजनके भीतरतक जानेकी बतायी। वे बोले—‘‘पूर्वकालमें जब भगवान् ने त्रिविक्रम अवतार लिया था तो मैं उनके पृथ्वीके बराबर परिमाणवाले चरणके चारों ओर परिक्रमा करनेके लिये इक्कीस बार फिरा था। किन्तु अब मुझे वृद्धावस्थाने दबा लिया है इसलिये मैं समुद्रको नहीं लाँघ सकता’’॥ १०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गदोऽप्याह मे गन्तुं शक्यं पारं महोदधेः।
पुनर्लङ्घनसामर्थ्यं न जानाम्यस्ति वा न वा॥ १२॥
मूलम्
अङ्गदोऽप्याह मे गन्तुं शक्यं पारं महोदधेः।
पुनर्लङ्घनसामर्थ्यं न जानाम्यस्ति वा न वा॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगदजीने भी कहा—‘‘मैं इस महासागरके पार तो जा सकता हूँ, किन्तु फिर लौटनेकी सामर्थ्य है या नहीं यह नहीं जानता’’॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह जाम्बवान् वीरस्त्वं राजा नो नियामकः।
न युक्तं त्वां नियोक्तुं मे त्वं समर्थोऽसि यद्यपि॥ १३॥
मूलम्
तमाह जाम्बवान् वीरस्त्वं राजा नो नियामकः।
न युक्तं त्वां नियोक्तुं मे त्वं समर्थोऽसि यद्यपि॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वीरवर जाम्बवान् ने उनसे कहा—‘‘अंगदजी! इस कार्यके करनेमें यद्यपि आप सर्वथा समर्थ हैं तथापि आपको इस कार्यमें नियुक्त करना हमें ठीक नहीं जँचता, क्योंकि आप हमारे नायक और नियामक हैं’’॥ १३॥
मूलम् (वचनम्)
अङ्गद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चेत्पूर्ववत्सर्वे स्वप्स्यामो दर्भविष्टरे।
केनापि न कृतं कार्यं जीवितुं च न शक्यते॥ १४॥
मूलम्
एवं चेत्पूर्ववत्सर्वे स्वप्स्यामो दर्भविष्टरे।
केनापि न कृतं कार्यं जीवितुं च न शक्यते॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगद बोले—‘‘यदि ऐसी बात है, तो हम सबको (प्रायोपवेशनका संकल्प करके) फिर पूर्ववत् कुशासनोंपर ही पड़ रहना चाहिये; क्योंकि यह काम तो किसीसे हुआ नहीं, फिर जीवन भी कैसे रह सकता है’’॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह जाम्बवान् वीरो दर्शयिष्यामि ते सुत।
येनास्माकं कार्यसिद्धिर्भविष्यत्यचिरेण च॥ १५॥
मूलम्
तमाह जाम्बवान् वीरो दर्शयिष्यामि ते सुत।
येनास्माकं कार्यसिद्धिर्भविष्यत्यचिरेण च॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वीरवर जाम्बवान् ने कहा—‘बेटा! जिसके हाथसे हमारा यह कार्य बहुत शीघ्र ही सिद्ध होगा, उस वीरको मैं तुझे दिखलाता हूँ’’॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा जाम्बवान् प्राह हनूमन्तमवस्थितम्।
हनूमन् किं रहस्तूष्णीं स्थीयते कार्यगौरवे॥ १६॥
प्राप्तेऽज्ञेनेव सामर्थ्यं दर्शयाद्य महाबल।
त्वं साक्षाद्वायुतनयो वायुतुल्यपराक्रमः॥ १७॥
मूलम्
इत्युक्त्वा जाम्बवान् प्राह हनूमन्तमवस्थितम्।
हनूमन् किं रहस्तूष्णीं स्थीयते कार्यगौरवे॥ १६॥
प्राप्तेऽज्ञेनेव सामर्थ्यं दर्शयाद्य महाबल।
त्वं साक्षाद्वायुतनयो वायुतुल्यपराक्रमः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यों कहकर जाम्बवान् ने वहाँ बैठे हुए हनुमान् जी से कहा—‘‘हे हनूमन्! इस महान् कार्यके उपस्थित होनेपर आप इस प्रकार अनजानके समान चुपचाप एकान्तमें क्यों बैठे हैं? हे महावीर! आप साक्षात् पवनदेवके पुत्र हैं और उन्हींके समान पराक्रमी हैं, अतः आज अपनी सामर्थ्य दिखलाइये॥ १६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकार्यार्थमेव त्वं जनितोऽसि महात्मना।
जातमात्रेण ते पूर्वं दृष्ट्वोद्यन्तं विभावसुम्॥ १८॥
पक्वं फलं जिघृक्षामीत्युत्प्लुतं बालचेष्टया।
योजनानां पञ्चशतं पतितोऽसि ततो भुवि॥ १९॥
मूलम्
रामकार्यार्थमेव त्वं जनितोऽसि महात्मना।
जातमात्रेण ते पूर्वं दृष्ट्वोद्यन्तं विभावसुम्॥ १८॥
पक्वं फलं जिघृक्षामीत्युत्प्लुतं बालचेष्टया।
योजनानां पञ्चशतं पतितोऽसि ततो भुवि॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा वायुने राम-कार्यके लिये ही आपको उत्पन्न किया है। जिस समय आपका जन्म हुआ था उसी समय आप सूर्यको उदय हुआ देखकर ‘इस पके फलको लेना चाहिये’ इस इच्छासे बाललीलासे ही पाँच सौ योजन ऊँचे उछलकर पृथ्वीपर गिरे थे॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वद्बलमाहात्म्यं को वा शक्नोति वर्णितुम्।
उत्तिष्ठ कुरु रामस्य कार्यं नः पाहि सुव्रत॥ २०॥
मूलम्
अतस्त्वद्बलमाहात्म्यं को वा शक्नोति वर्णितुम्।
उत्तिष्ठ कुरु रामस्य कार्यं नः पाहि सुव्रत॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः ऐसा कौन है जो आपके बलका माहात्म्य वर्णन कर सके। हे सुव्रत! आप खड़े हो जाइये और यह रामकार्य करके हम सबकी रक्षा कीजिये’’॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा जाम्बवतो वाक्यं हनूमानतिहर्षितः।
चकार नादं सिंहस्य ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव॥ २१॥
मूलम्
श्रुत्वा जाम्बवतो वाक्यं हनूमानतिहर्षितः।
चकार नादं सिंहस्य ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाम्बवान् के ये वचन सुनकर हनूमान् जी अति प्रसन्न हुए और उन्होंने समस्त ब्रह्माण्डको मानो कम्पायमान करते हुए घोर सिंहनाद किया॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभूव पर्वताकारस्त्रिविक्रम इवापरः।
लङ्घयित्वा जलनिधिं कृत्वा लङ्कां च भस्मसात्॥ २२॥
रावणं सकुलं हत्वानेष्ये जनकनन्दिनीम्।
यद्वा बद्ध्वा गले रज्ज्वा रावणं वामपाणिना॥ २३॥
लङ्कां सपर्वतां धृत्वा रामस्याग्रे क्षिपाम्यहम्।
यद्वा दृष्ट्वैव यास्यामि जानकीं शुभलक्षणाम्॥ २४॥
मूलम्
बभूव पर्वताकारस्त्रिविक्रम इवापरः।
लङ्घयित्वा जलनिधिं कृत्वा लङ्कां च भस्मसात्॥ २२॥
रावणं सकुलं हत्वानेष्ये जनकनन्दिनीम्।
यद्वा बद्ध्वा गले रज्ज्वा रावणं वामपाणिना॥ २३॥
लङ्कां सपर्वतां धृत्वा रामस्याग्रे क्षिपाम्यहम्।
यद्वा दृष्ट्वैव यास्यामि जानकीं शुभलक्षणाम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे त्रिविक्रम भगवान् के समान वे पर्वताकार हो गये, (और कहने लगे—) ‘‘हे वानरो! मैं समुद्रको लाँघकर लंकाको भस्म कर डालूँगा और रावणको उसके कुलसहित मारकर श्रीजानकीजीको ले आऊँगा; अथवा कहो तो रावणके गलेमें रस्सी डालकर और लंकाको त्रिकूट पर्वतसहित बायें हाथपर उठाकर भगवान् रामके आगे ले जाकर डाल दूँ या केवल शुभलक्षणा जानकीजीको देखकर ही चला आऊँ’’॥ २२—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं जाम्बवानिदमब्रवीत्।
दृष्ट्वैवागच्छ भद्रं ते जीवन्तीं जानकीं शुभाम्॥ २५॥
मूलम्
श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं जाम्बवानिदमब्रवीत्।
दृष्ट्वैवागच्छ भद्रं ते जीवन्तीं जानकीं शुभाम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी के ये वचन सुनकर जाम्बवान् ने कहा— ‘‘हे वीर! तुम्हारा शुभ हो, तुम केवल शुभलक्षणा जानकीजीको जीती-जागती देखकर ही चले आओ॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चाद्रामेण सहितो दर्शयिष्यसि पौरुषम्।
कल्याणं भवताद्भद्र गच्छतस्ते विहायसा॥ २६॥
गच्छन्तं रामकार्यार्थं वायुस्त्वामनुगच्छतु।
इत्याशीर्भिः समामन्त्र्य विसृष्टः प्लवगाधिपैः॥ २७॥
महेन्द्राद्रिशिरो गत्वा बभूवाद्भुतदर्शनः॥ २८॥
मूलम्
पश्चाद्रामेण सहितो दर्शयिष्यसि पौरुषम्।
कल्याणं भवताद्भद्र गच्छतस्ते विहायसा॥ २६॥
गच्छन्तं रामकार्यार्थं वायुस्त्वामनुगच्छतु।
इत्याशीर्भिः समामन्त्र्य विसृष्टः प्लवगाधिपैः॥ २७॥
महेन्द्राद्रिशिरो गत्वा बभूवाद्भुतदर्शनः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर रामचन्द्रजीके साथ जाकर अपना पुरुषार्थ दिखलाना। हे भद्र! आकाशमार्गसे जाते हुए तुम्हारा कल्याण हो। रामकार्यके लिये जाते समय वायु तुम्हारा अनुगमन करें’’। इस प्रकार आशीर्वादोंसे अभिनन्दन करते हुए वानरयूथपोंके विदा करनेपर हनुमान् जी महेन्द्रपर्वतके शिखरपर चढ़ गये। वहाँ उन्होंने अद्भुत रूप धारण किया॥ २६—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानगेन्द्रप्रतिमो महात्मा
सुवर्णवर्णोऽरुणचारुवक्त्रः।
महाफणीन्द्राभसुदीर्घबाहु-
र्वातात्मजोऽदृश्यत सर्वभूतैः॥ २९॥
मूलम्
महानगेन्द्रप्रतिमो महात्मा
सुवर्णवर्णोऽरुणचारुवक्त्रः।
महाफणीन्द्राभसुदीर्घबाहु-
र्वातात्मजोऽदृश्यत सर्वभूतैः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय समस्त प्राणियोंको वायुपुत्र महात्मा हनुमान् जी महान् पर्वतराजके समान विशालकाय, सुवर्णवर्ण अरुण (बालसूर्य)-के समान मनोहर मुखवाले और महान् सर्पराजके समान दीर्घ भुजाओंवाले दिखलायी देने लगे॥ २९॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे नवमः सर्गः॥ ९॥
समाप्तमिदं किष्किन्धाकाण्डम्