[अष्टम सर्ग]
भागसूचना
सम्पातिकी आत्मकथा
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ते कौतुकाविष्टाः सम्पातिं सर्ववानराः।
पप्रच्छुर्भगवन् ब्रूहि स्वमुदन्तं त्वमादितः॥ १॥
मूलम्
अथ ते कौतुकाविष्टाः सम्पातिं सर्ववानराः।
पप्रच्छुर्भगवन् ब्रूहि स्वमुदन्तं त्वमादितः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! यह सुनकर उन सब वानरोंने बड़े कुतूहलमें भरकर सम्पातिसे पूछा—‘‘भगवन्! आप आरम्भसे ही अपना वृत्तान्त सुनाइये’’॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पातिः कथयामास स्ववृत्तान्तं पुरा कृतम्।
अहं पुरा जटायुश्च भ्रातरौ रूढयौवनौ॥ २॥
बलेन दर्पितावावां बलजिज्ञासया खगौ।
सूर्यमण्डलपर्यन्तं गन्तुमुत्पतितौ मदात्॥ ३॥
मूलम्
सम्पातिः कथयामास स्ववृत्तान्तं पुरा कृतम्।
अहं पुरा जटायुश्च भ्रातरौ रूढयौवनौ॥ २॥
बलेन दर्पितावावां बलजिज्ञासया खगौ।
सूर्यमण्डलपर्यन्तं गन्तुमुत्पतितौ मदात्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सम्पातिने पहले जैसा-जैसा किया था, वह सब वृत्तान्त सुनाते हुए कहा—पूर्वकालमें मैं और भाई जटायु जिस समय पूर्ण युवा थे, बलके गर्वसे उन्मत्त होकर यह जाननेके लिये कि हममें कितना बल है, बड़े घमण्डसे आकाशमें सूर्यमण्डलपर्यन्त जानेको उड़े॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुयोजनसाहस्रं गतौ तत्र प्रतापितः।
जटायुस्तं परित्रातुं पक्षैराच्छाद्य मोहतः॥ ४॥
स्थितोऽहं रश्मिभिर्दग्धपक्षोऽस्मिन्विन्ध्यमूर्धनि।
पतितो दूरपतनान्मूर्च्छितोऽहं कपीश्वराः॥ ५॥
मूलम्
बहुयोजनसाहस्रं गतौ तत्र प्रतापितः।
जटायुस्तं परित्रातुं पक्षैराच्छाद्य मोहतः॥ ४॥
स्थितोऽहं रश्मिभिर्दग्धपक्षोऽस्मिन्विन्ध्यमूर्धनि।
पतितो दूरपतनान्मूर्च्छितोऽहं कपीश्वराः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब हम कई सहस्र योजन ऊँचे चले गये तो जटायु (सूर्यके तेजसे) जलने लगा। मैं उसकी रक्षाके लिये मोहवश उसे अपने पंखोंसे ढककर चलने लगा और अन्तमें सूर्यकी किरणोंसे पंख जल जानेके कारण यहाँ विन्ध्याचलके शिखरपर गिर पड़ा और हे कपीश्वरो! बहुत ऊँचेसे गिरनेके कारण मूर्च्छित हो गया॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनत्रयात्पुनः प्राणसहितो दग्धपक्षकः।
देशं वा गिरिकूटान्वा न जाने भ्रान्तमानसः॥ ६॥
मूलम्
दिनत्रयात्पुनः प्राणसहितो दग्धपक्षकः।
देशं वा गिरिकूटान्वा न जाने भ्रान्तमानसः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तीन दिन पश्चात् मुझे चेत हुआ तो पंख जल जानेसे मेरा चित्त भ्रममें पड़ गया और मैं यह कुछ भी न जान सका कि यह कौन-सा देश अथवा गिरिशिखर है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शनैरुन्मील्य नयने दृष्ट्वा तत्राश्रमं शुभम्।
शनैः शनैराश्रमस्य समीपं गतवानहम्॥ ७॥
मूलम्
शनैरुन्मील्य नयने दृष्ट्वा तत्राश्रमं शुभम्।
शनैः शनैराश्रमस्य समीपं गतवानहम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर धीरे-धीरे नेत्र खोलनेपर मुझे वहाँ एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया। तब मैं शनैः-शनैः उस आश्रमके पास गया॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्द्रमा नाम मुनिराड् दृष्ट्वा मां विस्मितोऽवदत्।
सम्पाते किमिदं तेऽद्य विरूपं केन वा कृतम्॥ ८॥
मूलम्
चन्द्रमा नाम मुनिराड् दृष्ट्वा मां विस्मितोऽवदत्।
सम्पाते किमिदं तेऽद्य विरूपं केन वा कृतम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ चन्द्रमा नामक मुनीश्वर रहते थे। उन्होंने मुझे देखकर विस्मयपूर्वक कहा—‘‘सम्पाते! यह क्या, तुम्हें आज इस प्रकार विरूप किसने कर दिया?॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि त्वामहं पूर्वमत्यन्तं बलवानसि।
दग्धौ किमर्थं ते पक्षौ कथ्यतां यदि मन्यसे॥ ९॥
मूलम्
जानामि त्वामहं पूर्वमत्यन्तं बलवानसि।
दग्धौ किमर्थं ते पक्षौ कथ्यतां यदि मन्यसे॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हें पहलेसे ही जानता हूँ; तुम तो बड़े बलवान् हो, फिर तुम्हारे पंख कैसे जल गये? यदि तुम ठीक समझो तो अपना सब वृत्तान्त कहो’’॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्वचेष्टितं सर्वं कथयित्वातिदुःखितः।
अब्रवं मुनिशार्दूलं दह्येऽहं दाववह्निना॥ १०॥
कथं धारयितुं शक्तो विपक्षो जीवितं प्रभो।
इत्युक्तोऽथ मुनिर्वीक्ष्य मां दयार्द्रविलोचनः॥ ११॥
मूलम्
ततः स्वचेष्टितं सर्वं कथयित्वातिदुःखितः।
अब्रवं मुनिशार्दूलं दह्येऽहं दाववह्निना॥ १०॥
कथं धारयितुं शक्तो विपक्षो जीवितं प्रभो।
इत्युक्तोऽथ मुनिर्वीक्ष्य मां दयार्द्रविलोचनः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने उन मुनिश्रेष्ठको अपनी सब करतूत सुनायी और फिर अति दुःखित होकर उनसे कहा—‘‘अब मैं दावाग्निमें जल मरूँगा; क्योंकि हे प्रभो! बिना पंखोंके मैं किस प्रकार जीवन धारण कर सकता हूँ?’’। मेरे इस प्रकार कहनेपर मुनिवर दयावश नेत्रोंमें जल भरकर मेरी ओर देखते हुए बोले—॥ १०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु वत्स वचो मेऽद्य श्रुत्वा कुरु यथेप्सितम्।
देहमूलमिदं दुःखं देहः कर्मसमुद्भवः॥ १२॥
मूलम्
शृणु वत्स वचो मेऽद्य श्रुत्वा कुरु यथेप्सितम्।
देहमूलमिदं दुःखं देहः कर्मसमुद्भवः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘बच्चा! अब तुम मेरी बात सुनो। उसे सुनकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वही करना। इस दुःखका आश्रय देह ही है और देह कर्मजन्य है॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म प्रवर्तते देहेऽहंबुद्ध्या पुरुषस्य हि।
अहङ्कारस्त्वनादिः स्यादविद्यासम्भवो जडः॥ १३॥
मूलम्
कर्म प्रवर्तते देहेऽहंबुद्ध्या पुरुषस्य हि।
अहङ्कारस्त्वनादिः स्यादविद्यासम्भवो जडः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष जब देहमें अहं-बुद्धि करता है तभी कर्मकी प्रवृत्ति होती है और यह अविद्या-जनित जड अहंकार अनादि है॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिच्छायया सदा युक्तस्तप्तायः पिण्डवत्सदा।
तेन देहस्य तादात्म्याद्देहश्चेतनवान् भवेत्॥ १४॥
मूलम्
चिच्छायया सदा युक्तस्तप्तायः पिण्डवत्सदा।
तेन देहस्य तादात्म्याद्देहश्चेतनवान् भवेत्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अग्निसे) तप्त लोहपिण्डके समान यह अहंकार सर्वदा चिदाभाससे व्याप्त है। उस चिदाभासविशिष्ट अहंकारका देहसे तादात्म्य (ऐक्य) होनेके कारण देह चेतनायुक्त होता है॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहोऽहमिति बुद्धिः स्यादात्मनोऽहङ्कृतेर्बलात्।
तन्मूल एष संसारः सुखदुःखादिसाधकः॥ १५॥
मूलम्
देहोऽहमिति बुद्धिः स्यादात्मनोऽहङ्कृतेर्बलात्।
तन्मूल एष संसारः सुखदुःखादिसाधकः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहंकारके कारण ही आत्माको ‘मैं देह हूँ’ यह बुद्धि होती है और उसीके कारण यह सुख-दुःखादिका देनेवाला जन्म-मरणरूप संसार प्राप्त होता है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनो निर्विकारस्य मिथ्या तादात्म्यतः सदा।
देहोऽहं कर्मकर्ताहमिति सङ्कल्प्य सर्वदा॥ १६॥
जीवः करोति कर्माणि तत्फलैर्बद्ध्यतेऽवशः।
ऊर्ध्वाधो भ्रमते नित्यं पापपुण्यात्मकः स्वयम्॥ १७॥
मूलम्
आत्मनो निर्विकारस्य मिथ्या तादात्म्यतः सदा।
देहोऽहं कर्मकर्ताहमिति सङ्कल्प्य सर्वदा॥ १६॥
जीवः करोति कर्माणि तत्फलैर्बद्ध्यतेऽवशः।
ऊर्ध्वाधो भ्रमते नित्यं पापपुण्यात्मकः स्वयम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्विकार आत्माके साथ देहके इस मिथ्या तादात्म्यसे ही जीव सर्वदा यह संकल्प करके कि ‘मैं देह हूँ और कर्मोंका करनेवाला हूँ’ नाना प्रकारके कर्म करता है तथा विवश होकर उनके फलोंसे बँधता है। और इस प्रकार पाप-पुण्यके वशीभूत होकर सदा ऊँची-नीची योनियोंमें भ्रमता रहता है॥ १६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं मयाधिकं पुण्यं यज्ञदानादि निश्चितम्।
स्वर्गं गत्वा सुखं भोक्ष्य इति सङ्कल्पवान् भवेत्॥ १८॥
मूलम्
कृतं मयाधिकं पुण्यं यज्ञदानादि निश्चितम्।
स्वर्गं गत्वा सुखं भोक्ष्य इति सङ्कल्पवान् भवेत्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ऐसे संकल्प करने लगता है कि मैंने यज्ञ, दान आदि बहुत-से पुण्यकर्म किये हैं। अतः मैं निश्चय ही स्वर्गमें जाकर सुख भोगूँगा॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवाध्यासतस्तत्र चिरं भुक्त्वा सुखं महत्।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन्कर्मचोदितः॥ १९॥
मूलम्
तथैवाध्यासतस्तत्र चिरं भुक्त्वा सुखं महत्।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन्कर्मचोदितः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे अध्याससे वह वहाँ (जाकर) चिरकालतक महान् सुख भोगता है और अन्तमें पुण्यक्षय हो जानेपर प्रारब्धकी प्रेरणासे, इच्छा न रहते हुए भी नीचे गिरता है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित्वा मण्डले चेन्दोस्ततो नीहारसंयुतः।
भूमौ पतित्वा व्रीह्यादौ तत्र स्थित्वा चिरं पुनः॥ २०॥
मूलम्
पतित्वा मण्डले चेन्दोस्ततो नीहारसंयुतः।
भूमौ पतित्वा व्रीह्यादौ तत्र स्थित्वा चिरं पुनः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘पहले वह चन्द्रमण्डलपर गिरता है। वहाँसे (चन्द्ररश्मियोंके द्वारा) कुहरेके साथ पृथ्वीपर आकर बहुत दिनोंतक व्रीहि आदि धान्योंमें रहता है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वा चतुर्विधं भोज्यं पुरुषैर्भुज्यते ततः।
रेतो भूत्वा पुनस्तेन ऋतौ स्त्रीयोनिसिञ्चितः॥ २१॥
मूलम्
भूत्वा चतुर्विधं भोज्यं पुरुषैर्भुज्यते ततः।
रेतो भूत्वा पुनस्तेन ऋतौ स्त्रीयोनिसिञ्चितः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) चार प्रकारके अन्नरूपसे पुरुषोंद्वारा खाया जाता है और वीर्यरूपमें परिणत हो जाता है। तदनन्तर वह उसके द्वारा ऋतुकालमें स्त्रीकी योनिमें डाला जाता है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योनिरक्तेन संयुक्तं जरायुपरिवेष्टितम्।
दिनेनैकेन कललं भूत्वा रूढत्वमाप्नुयात्॥ २२॥
मूलम्
योनिरक्तेन संयुक्तं जरायुपरिवेष्टितम्।
दिनेनैकेन कललं भूत्वा रूढत्वमाप्नुयात्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
योनिमें स्थित रजसे मिलकर वह एक दिनमें ही झिल्लीसे लिपटे हुए कललके रूपमें परिणत होकर कुछ कठिन-सा हो जाता है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्पुनः पञ्चरात्रेण बुद्बुदाकारतामियात्।
सप्तरात्रेण तदपि मांसपेशित्वमाप्नुयात् ॥ २३॥
मूलम्
तत्पुनः पञ्चरात्रेण बुद्बुदाकारतामियात्।
सप्तरात्रेण तदपि मांसपेशित्वमाप्नुयात् ॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पाँच रात्रिमें वह बुद्बुदाकार हो जाता है और सात रात्रि बीतनेपर मांसपेशीके समान (अण्डाकार) हो जाता है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षमात्रेण सा पेशी रुधिरेण परिप्लुता।
तस्या एवाङ्कुरोत्पत्तिः पञ्चविंशतिरात्रिषु॥ २४॥
मूलम्
पक्षमात्रेण सा पेशी रुधिरेण परिप्लुता।
तस्या एवाङ्कुरोत्पत्तिः पञ्चविंशतिरात्रिषु॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पंद्रह दिनके भीतर उस पेशीमें रुधिर भर जाता है और पचीस रात्रिके पश्चात् उसमें अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रीवा शिरश्च स्कन्धश्च पृष्ठवंशस्तथोदरम्।
पञ्चधाङ्गानि चैकैकं जायन्ते मासतः क्रमात्॥ २५॥
मूलम्
ग्रीवा शिरश्च स्कन्धश्च पृष्ठवंशस्तथोदरम्।
पञ्चधाङ्गानि चैकैकं जायन्ते मासतः क्रमात्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक मास हो जानेपर उसमें एक-एक करके क्रमशः ग्रीवा, सिर, कन्धे, रीढ़की हड्डी और पेट—ये पाँच अंग उत्पन्न हो जाते हैं॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाणिपादौ तथा पार्श्वः कटिर्जानु तथैव च।
मासद्वयात्प्रजायन्ते क्रमेणैव न चान्यथा॥ २६॥
मूलम्
पाणिपादौ तथा पार्श्वः कटिर्जानु तथैव च।
मासद्वयात्प्रजायन्ते क्रमेणैव न चान्यथा॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर दो महीनेमें क्रमशः हाथ, पाँव, पसलियाँ, कमर और घुटने बन जाते हैं। इस क्रममें कभी भेद नहीं पड़ता॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभिर्मासैः प्रजायन्ते अङ्गानां सन्धयः क्रमात्।
सर्वाङ्गुल्यः प्रजायन्ते क्रमान्मासचतुष्टये॥ २७॥
मूलम्
त्रिभिर्मासैः प्रजायन्ते अङ्गानां सन्धयः क्रमात्।
सर्वाङ्गुल्यः प्रजायन्ते क्रमान्मासचतुष्टये॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी क्रमसे तीन महीनेमें उसमें अंगोंकी सन्धियाँ तथा चार महीनेमें समस्त अंगुलियाँ उत्पन्न हो जाती हैं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नासा कर्णौ च नेत्रे च जायन्ते पञ्चमासतः।
दन्तपङ्कतिर्नखा गुह्यं पञ्चमे जायते तथा॥ २८॥
मूलम्
नासा कर्णौ च नेत्रे च जायन्ते पञ्चमासतः।
दन्तपङ्कतिर्नखा गुह्यं पञ्चमे जायते तथा॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच मास होनेपर नाक, कान और नेत्र बनते हैं तथा पाँचवें मासमें ही दन्तावली, नख और गुह्य स्थान भी उत्पन्न होते हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्वाक्षण्मासतश्छिद्रं कर्णयोर्भवति स्फुटम्।
पायुर्मेढ्रमुपस्थं च नाभिश्चापि भवेन्नृणाम्॥ २९॥
मूलम्
अर्वाक्षण्मासतश्छिद्रं कर्णयोर्भवति स्फुटम्।
पायुर्मेढ्रमुपस्थं च नाभिश्चापि भवेन्नृणाम्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
छठे मासके आरम्भमें ही कानोंके छिद्र स्पष्ट हो जाते हैं तथा इसी समय गुदा, स्त्री-पुरुषके भेदसे योनि अथवा लिंग तथा नाभि उत्पन्न होते हैं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तमे मासि रोमाणि शिरः केशास्तथैव च।
विभक्तावयवत्वं च सर्वं सम्पद्यतेऽष्टमे॥ ३०॥
मूलम्
सप्तमे मासि रोमाणि शिरः केशास्तथैव च।
विभक्तावयवत्वं च सर्वं सम्पद्यतेऽष्टमे॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सातवें महीनेमें रोम और सिरके केश प्रकट होते हैं तथा आठवें महीनेमें सब अंगोंपांग अलग-अलग स्पष्ट हो जाते हैं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जठरे वर्धते गर्भः स्त्रिया एवं विहङ्गम।
पञ्चमे मासि चैतन्यं जीवः प्राप्नोति सर्वशः॥ ३१॥
मूलम्
जठरे वर्धते गर्भः स्त्रिया एवं विहङ्गम।
पञ्चमे मासि चैतन्यं जीवः प्राप्नोति सर्वशः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे पक्षिन्! इस प्रकार स्त्रीके गर्भाशयमें गर्भ बढ़ता है। जिस समय पाँचवाँ महीना होता है उसी समय जीवको चेतना-शक्ति प्राप्त हो जाती है॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभिसूत्राल्परन्ध्रेण मातृभुक्तान्नसारतः।
वर्धते गर्भगः पिण्डो न म्रियेत स्वकर्मतः॥ ३२॥
मूलम्
नाभिसूत्राल्परन्ध्रेण मातृभुक्तान्नसारतः।
वर्धते गर्भगः पिण्डो न म्रियेत स्वकर्मतः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
गर्भस्थित पिण्ड अपनी नाभिमें लगे हुए नालके सूक्ष्म छिद्रसे प्राप्त माताके खाये हुए अन्नके रससे बढ़ता है और अपने कर्म-वश मरता नहीं है॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मृत्वा सर्वाणि जन्मानि पूर्वकर्माणि सर्वशः।
जठरानलतप्तोऽयमिदं वचनमब्रवीत्॥ ३३॥
मूलम्
स्मृत्वा सर्वाणि जन्मानि पूर्वकर्माणि सर्वशः।
जठरानलतप्तोऽयमिदं वचनमब्रवीत्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अपने सम्पूर्ण पूर्व-जन्मोंका और कर्मोंका स्मरण करके जठरानलसे सन्तप्त हुआ यह जीव इस प्रकार कहता है—॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानायोनिसहस्रेषु जायमानोऽनुभूतवान्।
पुत्रदारादिसम्बन्धं कोटिशः पशुबान्धवान्॥ ३४॥
मूलम्
नानायोनिसहस्रेषु जायमानोऽनुभूतवान्।
पुत्रदारादिसम्बन्धं कोटिशः पशुबान्धवान्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘पहले कई सहस्र योनियोंमें उत्पन्न होकर मैंने करोड़ों बन्धु-बान्धव, पशुवर्ग और स्त्री-पुत्रादिके सम्बन्धका अनुभव किया है॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुटुम्बभरणासक्त्या न्यायान्यायैर्धनार्जनम्।
कृतं नाकरवं विष्णुचिन्तां स्वप्नेऽपि दुर्भगः॥ ३५॥
मूलम्
कुटुम्बभरणासक्त्या न्यायान्यायैर्धनार्जनम्।
कृतं नाकरवं विष्णुचिन्तां स्वप्नेऽपि दुर्भगः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझ अभागेने उस समय स्वप्नमें भी भगवान् विष्णुका स्मरण नहीं किया; बस, अपने कुटुम्बके भरण-पोषणमें आसक्त होकर न्याय अथवा अन्यायसे धन कमानेमें ही लगा रहा॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं तत्फलं भुञ्जे गर्भदुःखं महत्तरम्।
अशाश्वते शाश्वतवद्देहे तृष्णासमन्वितः॥ ३६॥
मूलम्
इदानीं तत्फलं भुञ्जे गर्भदुःखं महत्तरम्।
अशाश्वते शाश्वतवद्देहे तृष्णासमन्वितः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब उसका फलस्वरूप यह अति महान् गर्भ-दुःख भोग रहा हूँ और इस नश्वर देहको नित्य-सा समझकर इसकी तृष्णामें फँसा हुआ हूँ॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकार्याण्येव कृतवान् न कृतं हितमात्मनः।
इत्येवं बहुधा दुःखमनुभूय स्वकर्मतः॥ ३७॥
मूलम्
अकार्याण्येव कृतवान् न कृतं हितमात्मनः।
इत्येवं बहुधा दुःखमनुभूय स्वकर्मतः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सदा अकार्य (कर्म) ही करता रहा, कभी अपना हित-साधन नहीं किया। अतः अपने कर्मानुसार मैं इसी प्रकार बहुत-से दुःख भोगता रहा॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदा निष्क्रमणं मे स्याद्गर्भान्निरयसन्निभात्।
इत ऊर्ध्वं नित्यमहं विष्णुमेवानुपूजये॥ ३८॥
मूलम्
कदा निष्क्रमणं मे स्याद्गर्भान्निरयसन्निभात्।
इत ऊर्ध्वं नित्यमहं विष्णुमेवानुपूजये॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब न जाने इस नरकतुल्य गर्भसे मैं कब निकलूँगा। फिर तो मैं सर्वदा श्रीविष्णुभगवान् की ही उपासना करूँगा’’॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यादि चिन्तयञ्जीवो योनियन्त्रप्रपीडितः।
जायमानोऽतिदुःखेन नरकात्पातकी यथा॥ ३९॥
मूलम्
इत्यादि चिन्तयञ्जीवो योनियन्त्रप्रपीडितः।
जायमानोऽतिदुःखेन नरकात्पातकी यथा॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी ही चिन्ता करते-करते वह जीव योनियन्त्रसे पीड़ित होता हुआ अति कष्टसे जन्म लेता है, जैसे कोई पापी जीव नरकसे निकलता हो॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूतिव्रणान्निपतितः कृमिरेष इवापरः।
ततो बाल्यादिदुःखानि सर्व एवं विभुञ्जते॥ ४०॥
मूलम्
पूतिव्रणान्निपतितः कृमिरेष इवापरः।
ततो बाल्यादिदुःखानि सर्व एवं विभुञ्जते॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय यह दुर्गन्धित व्रण (घाव)-से गिरे हुए एक कीड़ेके समान होता है। फिर इसे बाल्यादि अवस्थाओंके क्लेश भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार सभी देहधारियोंको ये कष्ट उठाने पड़ते हैं॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया चैवानुभूतानि सर्वत्र विदितानि च।
न वर्णितानि मे गृध्र यौवनादिषु सर्वतः॥ ४१॥
मूलम्
त्वया चैवानुभूतानि सर्वत्र विदितानि च।
न वर्णितानि मे गृध्र यौवनादिषु सर्वतः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे गृध्र! इसके पीछे होनेवाले युवावस्था आदिके सब दुःख तूने भी स्वयं देखे ही हैं और भी सब इन्हें जानते ही हैं, इसलिये मैंने इनका वर्णन नहीं किया॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं देहोऽहमित्यस्मादभ्यासान्निरयादिकम्।
गर्भवासादिदुःखानि भवन्त्यभिनिवेशतः॥ ४२॥
मूलम्
एवं देहोऽहमित्यस्मादभ्यासान्निरयादिकम्।
गर्भवासादिदुःखानि भवन्त्यभिनिवेशतः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ‘मैं देह हूँ’ इस अभ्याससे उत्पन्न हुए देहाभिमानके कारण जीवको नरक और गर्भवास आदि अनेक दुःख उठाने पड़ते हैं॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्देहद्वयादन्यमात्मानं प्रकृतेः परम्।
ज्ञात्वा देहादिममतां त्यक्त्वात्मज्ञानवान् भवेत्॥ ४३॥
मूलम्
तस्माद्देहद्वयादन्यमात्मानं प्रकृतेः परम्।
ज्ञात्वा देहादिममतां त्यक्त्वात्मज्ञानवान् भवेत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मनुष्यको चाहिये कि अपने आत्माको प्रकृतिसे अतीत तथा स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रकारके शरीरोंसे पृथक् जानकर देहादिकी ममता छोड़कर आत्म-ज्ञानसम्पन्न हो॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाग्रदादिविनिर्मुक्तं सत्यज्ञानादिलक्षणम्।
शुद्धं बुद्धं सदा शान्तमात्मानमवधारयेत्॥ ४४॥
मूलम्
जाग्रदादिविनिर्मुक्तं सत्यज्ञानादिलक्षणम्।
शुद्धं बुद्धं सदा शान्तमात्मानमवधारयेत्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्माको सर्वदा जाग्रत् आदि अवस्थाओंसे रहित, सत्-चित्स्वरूप तथा शुद्ध, बुद्ध और शान्तरूप जाने॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिदात्मनि परिज्ञाते नष्टे मोहेऽज्ञसम्भवे।
देहः पततु वारब्धकर्मवेगेन तिष्ठतु॥ ४५॥
योगिनो न हि दुःखं वा सुखं वाज्ञानसम्भवम्।
मूलम्
चिदात्मनि परिज्ञाते नष्टे मोहेऽज्ञसम्भवे।
देहः पततु वारब्धकर्मवेगेन तिष्ठतु॥ ४५॥
योगिनो न हि दुःखं वा सुखं वाज्ञानसम्भवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
चेतनस्वरूप आत्माका ज्ञान हो जानेपर जब अज्ञानजनित मोह नष्ट हो जाता है तो फिर यह देह प्रारब्ध-कर्मके वेगसे रहे अथवा जाय योगीको किसी प्रकारका अज्ञानजन्य सुख-दुःख नहीं होता॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्देहेन सहितो यावत्प्रारब्धसङ्क्षयः॥ ४६॥
तावत्तिष्ठ सुखेन त्वं धृतकञ्चुकसर्पवत्।
अन्यद्वक्ष्यामि ते पक्षिन् शृणु मे परमं हितम्॥ ४७॥
मूलम्
तस्माद्देहेन सहितो यावत्प्रारब्धसङ्क्षयः॥ ४६॥
तावत्तिष्ठ सुखेन त्वं धृतकञ्चुकसर्पवत्।
अन्यद्वक्ष्यामि ते पक्षिन् शृणु मे परमं हितम्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अतः जबतक तेरा प्रारब्ध क्षय न हो तबतक काँचुलीसहित सर्पके समान आनन्दपूर्वक देह धारण करके रह। इसके अतिरिक्त हे पक्षिन्! तेरे परम हितकी एक बात और बतलाता हूँ, सुन॥ ४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणोऽव्ययः।
रावणस्य वधार्थाय दण्डकानागमिष्यति॥ ४८॥
मूलम्
त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणोऽव्ययः।
रावणस्य वधार्थाय दण्डकानागमिष्यति॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रेतायुगमें अविनाशी नारायणदेव महाराज दशरथके यहाँ अवतार लेकर रावणका वध करनेके लिये अपनी भार्या सीता और भाई लक्ष्मणके सहित दण्डकारण्यमें आयेंगे॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतया भार्यया सार्धं लक्ष्मणेन समन्वितः।
तत्राश्रमे जनकजां भ्रातृभ्यां रहिते वने॥ ४९॥
रावणश्चोरवन्नीत्वा लङ्कायां स्थापयिष्यति।
तस्याः सुग्रीवनिर्देशाद्वानराः परिमार्गणे॥ ५०॥
आगमिष्यन्ति जलधेस्तीरं तत्र समागमः।
त्वया तैः कारणवशाद्भविष्यति न संशयः॥ ५१॥
मूलम्
सीतया भार्यया सार्धं लक्ष्मणेन समन्वितः।
तत्राश्रमे जनकजां भ्रातृभ्यां रहिते वने॥ ४९॥
रावणश्चोरवन्नीत्वा लङ्कायां स्थापयिष्यति।
तस्याः सुग्रीवनिर्देशाद्वानराः परिमार्गणे॥ ५०॥
आगमिष्यन्ति जलधेस्तीरं तत्र समागमः।
त्वया तैः कारणवशाद्भविष्यति न संशयः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ दोनों भाइयोंके तपोवनसे चले जानेपर रावण श्रीजानकीजीको सूने आश्रमसे चोरके समान ले जाकर लंकामें रखेगा। तदनन्तर वानरराज सुग्रीवकी आज्ञासे उन्हें खोजते हुए कुछ वानरगण समुद्रतटपर आयेंगे, वहाँ किसी कारण-विशेषसे तेरे साथ उनका समागम होगा—इसमें सन्देह नहीं॥ ४९—५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा सीतास्थितिं तेभ्यः कथयस्व यथार्थतः।
तदैव तव पक्षौ द्वावुत्पत्स्येते पुनर्नवौ॥ ५२॥
मूलम्
तदा सीतास्थितिं तेभ्यः कथयस्व यथार्थतः।
तदैव तव पक्षौ द्वावुत्पत्स्येते पुनर्नवौ॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब तू उन्हें सीताजीका ठीक-ठीक पता बतला देना। बस, उसी समय तेरे फिर नये पंख उत्पन्न हो जायँगे’’॥ ५२॥
मूलम् (वचनम्)
सम्पातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोधयामास मां चन्द्रनामा मुनिकुलेश्वरः।
पश्यन्तु पक्षौ मे जातौ नूतनावतिकोमलौ॥ ५३॥
मूलम्
बोधयामास मां चन्द्रनामा मुनिकुलेश्वरः।
पश्यन्तु पक्षौ मे जातौ नूतनावतिकोमलौ॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पाति बोला—(हे वानरेश्वरगण!) इस प्रकार मुझे चन्द्र नामक मुनीश्वरने समझाया। (इससे मैं शान्त होकर इस समयकी प्रतीक्षामें रहने लगा।) देखिये अब मेरे यह अति कोमल नवीन पंख निकल आये हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सीतां द्रक्ष्यथ निश्चयम्।
यत्नं कुरुध्वं दुर्लङ्घ्यसमुद्रस्य विलङ्घने॥ ५४॥
मूलम्
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सीतां द्रक्ष्यथ निश्चयम्।
यत्नं कुरुध्वं दुर्लङ्घ्यसमुद्रस्य विलङ्घने॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोगोंका कल्याण हो, अब मैं जाना चाहता हूँ। इसमें सन्देह नहीं, आपलोग सीताजीको अवश्य देखेंगे। केवल इस दुर्लङ्घ्य समुद्रके लाँघनेका प्रयत्न कीजिये॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नामस्मृतिमात्रतोऽपरिमितं
संसारवारांनिधिं
तीर्त्वा गच्छति दुर्जनोऽपि परमं
विष्णोः पदं शाश्वतम्।
तस्यैव स्थितिकारिणस्त्रिजगतां
रामस्य भक्ताः प्रिया
यूयं किं न समुद्रमात्रतरणे
शक्ताः कथं वानराः॥ ५५॥
मूलम्
यन्नामस्मृतिमात्रतोऽपरिमितं
संसारवारांनिधिं
तीर्त्वा गच्छति दुर्जनोऽपि परमं
विष्णोः पदं शाश्वतम्।
तस्यैव स्थितिकारिणस्त्रिजगतां
रामस्य भक्ताः प्रिया
यूयं किं न समुद्रमात्रतरणे
शक्ताः कथं वानराः॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे वानरगण! जिनके नामके स्मरणमात्रसे बड़े दुष्टजन भी इस अपार संसार-सागरको पार करके भगवान् विष्णुके सनातन परमपदको प्राप्त कर लेते हैं, आपलोग तो त्रिलोकीकी स्थिति करनेवाले उन्हीं भगवान् रामके प्रिय भक्तगण हैं। फिर इस क्षुद्र समुद्रमात्रको पार करनेमें आप क्यों समर्थ न होंगे?॥ ५५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥ ८॥