०६

[षष्ठ सर्ग]

भागसूचना

सीताजीकी खोज, वानरोंका गुहाप्रवेश और स्वयम्प्रभाचरित्र

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा रामं समासीनं गुहाद्वारि शिलातले।
चैलाजिनधरं श्यामं जटामौलिविराजितम्॥ १॥
विशालनयनं शान्तं स्मितचारुमुखाम्बुजम्।
सीताविरहसन्तप्तं पश्यन्तं मृगपक्षिणः॥ २॥
रथाद्दूरात्समुत्पत्य वेगात्सुग्रीवलक्ष्मणौ।
रामस्य पादयोरग्रे पेततुर्भक्तिसंयुतौ॥ ३॥

मूलम्

दृष्ट्वा रामं समासीनं गुहाद्वारि शिलातले।
चैलाजिनधरं श्यामं जटामौलिविराजितम्॥ १॥
विशालनयनं शान्तं स्मितचारुमुखाम्बुजम्।
सीताविरहसन्तप्तं पश्यन्तं मृगपक्षिणः॥ २॥
रथाद्दूरात्समुत्पत्य वेगात्सुग्रीवलक्ष्मणौ।
रामस्य पादयोरग्रे पेततुर्भक्तिसंयुतौ॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! मृगचर्म और जटा-मुकुटसे सुशोभित, विशाल नयन, सस्मित मनोहर मुखारविन्द, शान्तमूर्ति, श्यामशरीर भगवान् रामको सीताजीकी विरह-व्यथासे सन्तप्त होकर मृग और पक्षियोंकी ओर निहारते हुए गुफाके द्वारपर एक शिलाखण्डपर बैठे देख सुग्रीव और लक्ष्मण दूरसे ही तुरंत रथसे उतर पड़े और अत्यन्त भक्ति-भावसे श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें जा गिरे॥ १—३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः सुग्रीवमालिङ्‍ग्य पृष्ट्वानामयमन्तिके।
स्थापयित्वा यथान्यायं पूजयामास धर्मवित्॥ ४॥

मूलम्

रामः सुग्रीवमालिङ्‍ग्य पृष्ट्वानामयमन्तिके।
स्थापयित्वा यथान्यायं पूजयामास धर्मवित्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजीने सुग्रीवको गले लगाकर उनकी कुशल पूछी तथा अपने पास बिठाकर उनका यथोचित सत्कार किया॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद्‍रघुश्रेष्ठं सुग्रीवो भक्तिनम्रधीः।
देव पश्य समायान्तीं वानराणां महाचमूम्॥ ५॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद्‍रघुश्रेष्ठं सुग्रीवो भक्तिनम्रधीः।
देव पश्य समायान्तीं वानराणां महाचमूम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुग्रीवने भक्तिवश अति विनीत होकर श्रीरघुनाथजीसे कहा—‘‘भगवन्! देखिये, वानरोंकी यह महान् सेना आ रही है॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलाचलाद्रिसम्भूता मेरुमन्दरसन्निभाः।
नानाद्वीपसरिच्छैलवासिनः पर्वतोपमाः॥ ६॥
असङ्ख्याताः समायान्ति हरयः कामरूपिणः।
सर्वे देवांशसम्भूताः सर्वे युद्धविशारदाः॥ ७॥

मूलम्

कुलाचलाद्रिसम्भूता मेरुमन्दरसन्निभाः।
नानाद्वीपसरिच्छैलवासिनः पर्वतोपमाः॥ ६॥
असङ्ख्याताः समायान्ति हरयः कामरूपिणः।
सर्वे देवांशसम्भूताः सर्वे युद्धविशारदाः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! हिमालय आदि कुलपर्वतोंपर उत्पन्न हुए, सुमेरु और मन्दराचलके समान डील-डौलवाले, भिन्न-भिन्न द्वीप, नदीतट और पर्वतोंके ऊपर रहनेवाले तथा पर्वतके समान अगणित विशालकाय वानर आ रहे हैं। ये सभी देवताओंके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। ये इच्छानुसार रूप धारण कर सकते हैं और युद्ध करनेमें भी अति कुशल हैं॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र केचिद्‍गजबलाः केचिद्दशगजोपमाः।
गजायुतबलाः केचिदन्येऽमितबलाः प्रभो॥ ८॥

मूलम्

अत्र केचिद्‍गजबलाः केचिद्दशगजोपमाः।
गजायुतबलाः केचिदन्येऽमितबलाः प्रभो॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! इनमेंसे किन्हींमें एक, किन्हींमें दस और किन्हींमें दस हजार हाथियोंका बल है तथा किन्हींके बलका तो कोई परिमाण ही नहीं है॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिदञ्जनकूटाभाः केचित्कनकसन्निभाः।
केचिद्रक्तान्तवदना दीर्घवालास्तथापरे॥ ९॥

मूलम्

केचिदञ्जनकूटाभाः केचित्कनकसन्निभाः।
केचिद्रक्तान्तवदना दीर्घवालास्तथापरे॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखिये, कोई कज्जलगिरिके समान काले हैं, कोई सुवर्णके समान सुनहरे हैं, किन्हींका मुख रक्तवर्ण है और किन्हींके शरीरपर बड़े-बड़े बाल हैं॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धस्फटिकसंकाशाः केचिद्‍राक्षससन्निभाः।
गर्जन्तः परितो यान्ति वानरा युद्धकाङ्क्षिणः॥ १०॥

मूलम्

शुद्धस्फटिकसंकाशाः केचिद्‍राक्षससन्निभाः।
गर्जन्तः परितो यान्ति वानरा युद्धकाङ्क्षिणः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई शुद्ध स्फटिकमणिके समान दिखायी देते हैं और कोई राक्षस-जैसे मालूम पड़ते हैं। ये सभी वानर युद्धके लिये अति उतावले हैं, इसीलिये गर्जते हुए इधर-उधर दौड़ रहे हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वदाज्ञाकारिणः सर्वे फलमूलाशनाः प्रभो।
ऋक्षाणामधिपो वीरो जाम्बवान्नाम बुद्धिमान्॥ ११॥
एष मे मन्त्रिणां श्रेष्ठः कोटिभल्लूकवृन्दपः।
हनूमानेष विख्यातो महासत्त्वपराक्रमः॥ १२॥
वायुपुत्रोऽतितेजस्वी मन्त्री बुद्धिमतां वरः।
नलो नीलश्च गवयो गवाक्षो गन्धमादनः॥ १३॥
शरभो मैन्दवश्चैव गजः पनस एव च।
बलीमुखो दधिमुखः सुषेणस्तार एव च॥ १४॥
केसरी च महासत्त्वः पिता हनुमतो बली।
एते ते यूथपा राम प्राधान्येन मयोदिताः॥ १५॥

मूलम्

त्वदाज्ञाकारिणः सर्वे फलमूलाशनाः प्रभो।
ऋक्षाणामधिपो वीरो जाम्बवान्नाम बुद्धिमान्॥ ११॥
एष मे मन्त्रिणां श्रेष्ठः कोटिभल्लूकवृन्दपः।
हनूमानेष विख्यातो महासत्त्वपराक्रमः॥ १२॥
वायुपुत्रोऽतितेजस्वी मन्त्री बुद्धिमतां वरः।
नलो नीलश्च गवयो गवाक्षो गन्धमादनः॥ १३॥
शरभो मैन्दवश्चैव गजः पनस एव च।
बलीमुखो दधिमुखः सुषेणस्तार एव च॥ १४॥
केसरी च महासत्त्वः पिता हनुमतो बली।
एते ते यूथपा राम प्राधान्येन मयोदिताः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! ये सब आपकी आज्ञाका पालन करनेवाले और फल-मूल आदि ही खानेवाले हैं। (इनके निर्वाहके लिये आपको कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी।) ये रीछोंके अधिपति जाम्बवान् बड़े ही वीर और बुद्धिमान् हैं। ये एक करोड़ भालुओंके यूथपति हैं और मेरे मन्त्रियोंमें अग्रगण्य हैं। अपने महान् बल और पराक्रमके लिये सर्वत्र विख्यात ये परम तेजस्वी पवन-पुत्र हनूमान् जी हैं। ये बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और मेरे (प्रमुख) मन्त्री हैं। इनके अतिरिक्त हे रामजी! नल, नील, गवय, गवाक्ष, गन्धमादन, शरभ, मैन्दव, गज, पनस, बलीमुख, दधिमुख, सुषेण, तार तथा हनुमान् के पिता महाबली और परम धीर केसरी—ये मेरे प्रधान-प्रधान यूथपति हैं, सो मैंने आपको बता दिये॥ ११—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महात्मानो महावीर्याः शक्रतुल्यपराक्रमाः।
एते प्रत्येकतः कोटिकोटिवानरयूथपाः॥ १६॥

मूलम्

महात्मानो महावीर्याः शक्रतुल्यपराक्रमाः।
एते प्रत्येकतः कोटिकोटिवानरयूथपाः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सब बड़े महात्मा, वीर और इन्द्रके समान पराक्रमी हैं; तथा इनमेंसे प्रत्येक करोड़ों वानरोंके यूथका अधिपति है॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवाज्ञाकारिणः सर्वे सर्वे देवांशसम्भवाः।
एष वालिसुतः श्रीमानङ्गदो नाम विश्रुतः॥ १७॥

मूलम्

तवाज्ञाकारिणः सर्वे सर्वे देवांशसम्भवाः।
एष वालिसुतः श्रीमानङ्गदो नाम विश्रुतः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सभी आपके आज्ञाकारी और देवताओंके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। ये वालीके पुत्र परम विख्यात श्रीमान् अंगदजी हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वालितुल्यबलो वीरो राक्षसानां बलान्तकः।
एते चान्ये च बहवस्त्वदर्थे त्यक्तजीविताः॥ १८॥

मूलम्

वालितुल्यबलो वीरो राक्षसानां बलान्तकः।
एते चान्ये च बहवस्त्वदर्थे त्यक्तजीविताः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये भी वालीके समान ही बलवान् और राक्षसदलका दलन करनेवाले हैं। इस प्रकार ये सब तथा और भी बहुत-से वानर-वीर आपके लिये प्राण निछावर करनेको उद्यत हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योद्धारः पर्वताग्रैश्च निपुणाः शत्रुघातने।
आज्ञापय रघुश्रेष्ठ सर्वे ते वशवर्तिनः॥ १९॥

मूलम्

योद्धारः पर्वताग्रैश्च निपुणाः शत्रुघातने।
आज्ञापय रघुश्रेष्ठ सर्वे ते वशवर्तिनः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पर्वत-शिखर लेकर लड़ा करते हैं और शत्रुका नाश करनेमें बड़े कुशल हैं। हे रघुश्रेष्ठ! ये सब आपके अधीन हैं, आप इन्हें इच्छानुसार आज्ञा दीजिये’’॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः सुग्रीवमालिङ्‍ग्य हर्षपूर्णाश्रुलोचनः।
प्राह सुग्रीव जानासि सर्वं त्वं कार्यगौरवम्॥ २०॥

मूलम्

रामः सुग्रीवमालिङ्‍ग्य हर्षपूर्णाश्रुलोचनः।
प्राह सुग्रीव जानासि सर्वं त्वं कार्यगौरवम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजीने नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भरकर सुग्रीवको हृदयसे लगा लिया और कहा—‘‘सुग्रीव! तुम मेरे कार्यकी कठिनताके विषयमें जानते ही हो॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गणार्थं हि जानक्या नियुङ्क्ष्व यदि रोचते।
श्रुत्वा रामस्य वचनं सुग्रीवः प्रीतमानसः॥ २१॥
प्रेषयामास बलिनो वानरान् वानरर्षभः।
दिक्षु सर्वासु विविधान् वानरान् प्रेष्य सत्वरम्॥ २२॥
दक्षिणां दिशमत्यर्थं प्रयत्नेन महाबलान्।
युवराजं जाम्बवन्तं हनूमन्तं महाबलम्॥ २३॥
नलं सुषेणं शरभं मैन्दं द्विविदमेव च।
प्रेषयामास सुग्रीवो वचनं चेदमब्रवीत्॥ २४॥

मूलम्

मार्गणार्थं हि जानक्या नियुङ्क्ष्व यदि रोचते।
श्रुत्वा रामस्य वचनं सुग्रीवः प्रीतमानसः॥ २१॥
प्रेषयामास बलिनो वानरान् वानरर्षभः।
दिक्षु सर्वासु विविधान् वानरान् प्रेष्य सत्वरम्॥ २२॥
दक्षिणां दिशमत्यर्थं प्रयत्नेन महाबलान्।
युवराजं जाम्बवन्तं हनूमन्तं महाबलम्॥ २३॥
नलं सुषेणं शरभं मैन्दं द्विविदमेव च।
प्रेषयामास सुग्रीवो वचनं चेदमब्रवीत्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम ठीक समझो तो इन्हें यथायोग्य जानकीजीकी खोजके लिये नियुक्त कर दो।’’ रामका यह वचन सुनकर वानरश्रेष्ठ सुग्रीवने प्रसन्न होकर बहुत-से बलवान् वानरोंको सीताकी खोजके लिये भेजा। इस प्रकार तुरंत ही समस्त दिशाओंमें अनेकों वानरोंको भेजकर दक्षिणदिशामें अधिक प्रयत्नके साथ महाबली युवराज अंगद, जाम्बवान्, हनूमान्, नल, सुषेण, शरभ, मैन्द और द्विविद आदिको भेजा तथा उनसे इस प्रकार कहा—॥ २१—२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचिन्वन्तु प्रयत्नेन भवन्तो जानकीं शुभाम्।
मासादर्वाङ्‍‍निवर्तध्वं मच्छासनपुरःसराः॥ २५॥

मूलम्

विचिन्वन्तु प्रयत्नेन भवन्तो जानकीं शुभाम्।
मासादर्वाङ्‍‍निवर्तध्वं मच्छासनपुरःसराः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘मेरी आज्ञासे तुम सब लोग बड़े प्रयत्नसे शुभलक्षणा जानकीजीकी खोज करो और एक मासके भीतर ही लौट आओ॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतामदृष्ट्वा यदि वो मासादूर्ध्वं दिनं भवेत्।
तदा प्राणान्तिकं दण्डं मत्तः प्राप्स्यथ वानराः॥ २६॥

मूलम्

सीतामदृष्ट्वा यदि वो मासादूर्ध्वं दिनं भवेत्।
तदा प्राणान्तिकं दण्डं मत्तः प्राप्स्यथ वानराः॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि सीताको बिना देखे तुम्हें एक माससे एक दिन भी अधिक हो जायगा तो हे वानरो! याद रखो, तुम्हें मेरे हाथसे प्राणान्तदण्ड भोगना पड़ेगा’’॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति प्रस्थाप्य सुग्रीवो वानरान् भीमविक्रमान्।
रामस्य पार्श्वे श्रीरामं नत्वा चोपविवेश सः॥ २७॥

मूलम्

इति प्रस्थाप्य सुग्रीवो वानरान् भीमविक्रमान्।
रामस्य पार्श्वे श्रीरामं नत्वा चोपविवेश सः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महापराक्रमी वानरोंको इस प्रकार भेजकर सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजीको प्रणामकर उनके पास जा बैठे॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्तं मारुतिं दृष्ट्वा रामो वचनमब्रवीत्।
अभिज्ञानार्थमेतन्मे ह्यङ्गुलीयकमुत्तमम्॥ २८॥
मन्नामाक्षरसंयुक्तं सीतायै दीयतां रहः।
अस्मिन् कार्ये प्रमाणं हि त्वमेव कपिसत्तम।
जानामि सत्त्वं ते सर्वं गच्छ पन्थाः शुभस्तव॥ २९॥

मूलम्

गच्छन्तं मारुतिं दृष्ट्वा रामो वचनमब्रवीत्।
अभिज्ञानार्थमेतन्मे ह्यङ्गुलीयकमुत्तमम्॥ २८॥
मन्नामाक्षरसंयुक्तं सीतायै दीयतां रहः।
अस्मिन् कार्ये प्रमाणं हि त्वमेव कपिसत्तम।
जानामि सत्त्वं ते सर्वं गच्छ पन्थाः शुभस्तव॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पवननन्दन हनुमान् को जाते देख श्रीरघुनाथजीने कहा—‘‘[हे कपिश्रेष्ठ!] तुम मेरी यह अँगूठी ले जाओ, इसपर मेरे नामाक्षर गुदे हुए हैं। इसे अपने परिचयके लिये तुम एकान्तमें सीताजीको देना। हे कपिश्रेष्ठ! इस कार्यमें तुम्हीं समर्थ हो। मैं तुम्हारा बुद्धिबल अच्छी तरह जानता हूँ। अच्छा, जाओ। तुम्हारा मार्ग कल्याणमय हो’’॥ २८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कपीनां राज्ञा ते विसृष्टाः परिमार्गणे।
सीताया अङ्गदमुखा बभ्रमुस्तत्र तत्र ह॥ ३०॥

मूलम्

एवं कपीनां राज्ञा ते विसृष्टाः परिमार्गणे।
सीताया अङ्गदमुखा बभ्रमुस्तत्र तत्र ह॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वानरराज सुग्रीवके भेजे हुए वे अंगदादि वानरगण सीताजीकी खोज करते हुए पृथिवीपर जहाँ-तहाँ विचरने लगे॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रमन्तो विन्ध्यगहने ददृशुः पर्वतोपमम्।
राक्षसं भीषणाकारं भक्षयन्तं मृगान् गजान्॥ ३१॥

मूलम्

भ्रमन्तो विन्ध्यगहने ददृशुः पर्वतोपमम्।
राक्षसं भीषणाकारं भक्षयन्तं मृगान् गजान्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

घूमते-घूमते उन्होंने विन्ध्याचलके गहन वनमें एक पर्वताकार भयंकर राक्षस देखा, जो जंगलके मृग और हाथियोंको पकड़-पकड़कर खा रहा था॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणोऽयमिति ज्ञात्वा केचिद्वानरपुङ्गवाः।
जघ्नुः किलकिलाशब्दं मुञ्चन्तो मुष्टिभिः क्षणात्॥ ३२॥

मूलम्

रावणोऽयमिति ज्ञात्वा केचिद्वानरपुङ्गवाः।
जघ्नुः किलकिलाशब्दं मुञ्चन्तो मुष्टिभिः क्षणात्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ वानरोंने यह समझकर कि ‘यही रावण है’ बड़ा किलकिला शब्द करते हुए उसे एक क्षणमें ही घूँसोंसे मार डाला॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं रावण इत्युक्त्वा ययुरन्यन्महद्वनम्।
तृषार्ताः सलिलं तत्र नाविन्दन् हरिपुङ्गवाः॥ ३३॥

मूलम्

नायं रावण इत्युक्त्वा ययुरन्यन्महद्वनम्।
तृषार्ताः सलिलं तत्र नाविन्दन् हरिपुङ्गवाः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर (उसे इतनी सुगमतासे मरा हुआ देखकर) ‘यह रावण नहीं है’ ऐसा कहते हुए वे एक-दूसरे घोर वनमें गये। वहाँ उन्हें बड़ी प्यास लगी किन्तु जल कहीं भी दिखायी न देता था॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभ्रमन्तो महारण्ये शुष्ककण्ठोष्ठतालुकाः।
ददृशुर्गह्वरं तत्र तृणगुल्मावृतं महत्॥ ३४॥

मूलम्

विभ्रमन्तो महारण्ये शुष्ककण्ठोष्ठतालुकाः।
ददृशुर्गह्वरं तत्र तृणगुल्मावृतं महत्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भयंकर वनमें घूमते-घूमते उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये; तब उन्होंने वहाँ तृण, गुल्म और लता आदिसे ढँकी हुई एक विशाल गुहा देखी॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्द्रपक्षान् क्रौञ्चहंसान्निःसृतान्ददृशुस्ततः।
अत्रास्ते सलिलं नूनं प्रविशामो महागुहाम्॥ ३५॥
इत्युक्त्वा हनुमानग्रे प्रविवेश तमन्वयुः।
सर्वे परस्परं धृत्वा बाहून्बाहुभिरुत्सुकाः॥ ३६॥

मूलम्

आर्द्रपक्षान् क्रौञ्चहंसान्निःसृतान्ददृशुस्ततः।
अत्रास्ते सलिलं नूनं प्रविशामो महागुहाम्॥ ३५॥
इत्युक्त्वा हनुमानग्रे प्रविवेश तमन्वयुः।
सर्वे परस्परं धृत्वा बाहून्बाहुभिरुत्सुकाः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमेंसे उन्होंने भींगे हुए पंखोंवाले क्रौंच और हंसोंको निकलते देखा। तब यह कहकर कि ‘चलो इस गुहामें चलें, इसमें अवश्य जल होगा’ सबसे आगे हनुमान् जी ने उसमें प्रवेश किया, उनके ही पीछे अन्य सब वानर भी एक-दूसरेकी बाँह-में-बाँह डालकर उत्सुकतापूर्वक उसमें घुस गये॥ ३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्धकारे महद्दूरं गत्वापश्यन् कपीश्वराः।
जलाशयान् मणिनिभतोयान् कल्पद्रुमोपमान्॥ ३७॥
वृक्षान् पक्वफलैर्नम्रान् मधुद्रोणसमन्वितान्।
गृहान् सर्वगुणोपेतान् मणिवस्त्रादिपूरितान्॥ ३८॥
दिव्यभक्ष्यान्नसहितान् मानुषैः परिवर्जितान्।
विस्मितास्तत्र भवने दिव्ये कनकविष्टरे॥ ३९॥
प्रभया दीप्यमानां तु ददृशुः स्त्रियमेककाम्।
ध्यायन्तीं चीरवसनां योगिनीं योगमास्थिताम्॥ ४०॥

मूलम्

अन्धकारे महद्दूरं गत्वापश्यन् कपीश्वराः।
जलाशयान् मणिनिभतोयान् कल्पद्रुमोपमान्॥ ३७॥
वृक्षान् पक्वफलैर्नम्रान् मधुद्रोणसमन्वितान्।
गृहान् सर्वगुणोपेतान् मणिवस्त्रादिपूरितान्॥ ३८॥
दिव्यभक्ष्यान्नसहितान् मानुषैः परिवर्जितान्।
विस्मितास्तत्र भवने दिव्ये कनकविष्टरे॥ ३९॥
प्रभया दीप्यमानां तु ददृशुः स्त्रियमेककाम्।
ध्यायन्तीं चीरवसनां योगिनीं योगमास्थिताम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत दूरतक अन्धकारहीमें जानेके अनन्तर उन वानरोंने देखा कि वहाँ (स्फटिक) मणिके समान स्वच्छ जलसे पूर्ण कई सरोवर हैं; उनके पास ही पके फलोंके भारसे झुके हुए कल्पतरुके समान सुन्दर वृक्ष हैं जिनमें शहदके छत्ते लगे हुए हैं। पास ही, मणिमय वस्त्रालंकारोंसे युक्त और दिव्य भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्रियोंसे पूर्ण सर्वगुणसम्पन्न निर्जन भवन हैं। उनमेंसे एक दिव्य भवनमें उन्होंने अति आश्चर्यचकित हो एक रमणीको अकेली सुवर्णसिंहासनपर विराजमान देखा। वह सुन्दरी योगाभ्यासमें तत्पर एक योगिनी थी, अपने तेजसे वह उस स्थानको प्रकाशित कर रही थी तथा शरीरपर चीर-वस्त्र धारण किये उस समय ध्यान कर रही थी॥ ३७—४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणेमुस्तां महाभागां भक्त्या भीत्या च वानराः।
दृष्ट्वा तान् वानरान् देवी प्राह यूयं किमागताः॥ ४१॥
कुतो वा कस्य दूता वा मत्स्थानं किं प्रधर्षथ।
तच्छ्रुत्वा हनुमानाह शृणु वक्ष्यामि देवि ते॥ ४२॥

मूलम्

प्रणेमुस्तां महाभागां भक्त्या भीत्या च वानराः।
दृष्ट्वा तान् वानरान् देवी प्राह यूयं किमागताः॥ ४१॥
कुतो वा कस्य दूता वा मत्स्थानं किं प्रधर्षथ।
तच्छ्रुत्वा हनुमानाह शृणु वक्ष्यामि देवि ते॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महाभागा युवतीको देखकर वानरोंने भय और प्रीतिसे उसे प्रणाम किया। तब उस देवीने उनकी ओर देखकर कहा—‘‘तुमलोग क्यों और कहाँसे आये हो? तुम किसके दूत हो? तथा मेरे स्थानको क्यों भ्रष्ट कर रहे हो?’’ यह सुनकर हनुमान् जी ने कहा—‘‘देवि! मैं आपसे सब वृत्तान्त निवेदन करता हूँ, सुनिये—॥ ४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोध्याधिपतिः श्रीमान् राजा दशरथः प्रभुः।
तस्य पुत्रो महाभागो ज्येष्ठो राम इति श्रुतः॥ ४३॥

मूलम्

अयोध्याधिपतिः श्रीमान् राजा दशरथः प्रभुः।
तस्य पुत्रो महाभागो ज्येष्ठो राम इति श्रुतः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम ऐश्वर्यसम्पन्न महाराज दशरथ अयोध्याके अधिपति थे। उनके महाभाग्यशाली ज्येष्ठ पुत्र राम-नामसे विख्यात हैं॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य सभार्यः सानुजो वनम्।
गतस्तत्र हृता भार्या तस्य साध्वी दुरात्मना॥ ४४॥
रावणेन ततो रामः सुग्रीवं सानुजो ययौ।
सुग्रीवो मित्रभावेन रामस्य प्रियवल्लभाम्॥ ४५॥
मृगयध्वमिति प्राह ततो वयमुपागताः।
ततो वनं विचिन्वन्तो जानकीं जलकाङ्क्षिणः॥ ४६॥
प्रविष्टा गह्वरं घोरं दैवादत्र समागताः।
त्वं वा किमर्थमत्रासि का वा त्वं वद नः शुभे॥ ४७॥

मूलम्

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य सभार्यः सानुजो वनम्।
गतस्तत्र हृता भार्या तस्य साध्वी दुरात्मना॥ ४४॥
रावणेन ततो रामः सुग्रीवं सानुजो ययौ।
सुग्रीवो मित्रभावेन रामस्य प्रियवल्लभाम्॥ ४५॥
मृगयध्वमिति प्राह ततो वयमुपागताः।
ततो वनं विचिन्वन्तो जानकीं जलकाङ्क्षिणः॥ ४६॥
प्रविष्टा गह्वरं घोरं दैवादत्र समागताः।
त्वं वा किमर्थमत्रासि का वा त्वं वद नः शुभे॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने पिताकी आज्ञा मानकर अपनी भार्या और छोटे भाईके सहित वनमें आये थे, यहाँ उनकी परम साध्वी पत्नीको दुरात्मा रावण हर ले गया। तब वे अपने अनुजके सहित वानरराज सुग्रीवके पास आये। सुग्रीवने उनसे मित्र-भाव हो जानेके कारण हमें यह आज्ञा दी है कि तुमलोग रामकी प्राणप्रियाकी खोज करो। अतः हम वहींसे आये हैं। यहाँ वनमें जानकीको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हमें जलकी आवश्यकता हुई। इससे हम इस भयंकर कन्दरामें घुसे और दैवयोगसे यहाँ आ गये। हे शुभे! आप यहाँ किसलिये रहती हैं और कौन हैं? यह हमें बताइये’’॥ ४४—४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगिनी च तथा दृष्ट्वा वानरान् प्राह हृष्टधीः।
यथेष्टं फलमूलानि जग्ध्वा पीत्वामृतं पयः॥ ४८॥
आगच्छत ततो वक्ष्ये मम वृत्तान्तमादितः।
तथेति भुक्त्वा पीत्वा च हृष्टास्ते सर्ववानराः॥ ४९॥

मूलम्

योगिनी च तथा दृष्ट्वा वानरान् प्राह हृष्टधीः।
यथेष्टं फलमूलानि जग्ध्वा पीत्वामृतं पयः॥ ४८॥
आगच्छत ततो वक्ष्ये मम वृत्तान्तमादितः।
तथेति भुक्त्वा पीत्वा च हृष्टास्ते सर्ववानराः॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब देखकर उस योगिनीको बड़ा हर्ष हुआ और वह वानरोंसे बोली—‘‘पहले तुम इच्छानुसार फल-मूलादि खाकर अमृतमय जल पान करो। फिर मेरे पास आना, तब मैं आरम्भसे तुम्हें अपना सब वृत्तान्त सुनाऊँगी।’’ तब उन वानरोंने ‘बहुत अच्छा’ कह यथेष्ट फल-मूलादि खाकर जल पीया और फिर प्रसन्नचित्तसे उस देवीके पास आकर हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ ४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव्याः समीपं गत्वा ते बद्धाञ्जलिपुटाः स्थिताः।
ततः प्राह हनूमन्तं योगिनी दिव्यदर्शना॥ ५०॥

मूलम्

देव्याः समीपं गत्वा ते बद्धाञ्जलिपुटाः स्थिताः।
ततः प्राह हनूमन्तं योगिनी दिव्यदर्शना॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वह दिव्यदर्शना योगिनी हनूमान् जी से इस प्रकार कहने लगी—॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेमा नाम पुरा दिव्यरूपिणी विश्वकर्मणः।
पुत्री महेशं नृत्येन तोषयामास भामिनी॥ ५१॥

मूलम्

हेमा नाम पुरा दिव्यरूपिणी विश्वकर्मणः।
पुत्री महेशं नृत्येन तोषयामास भामिनी॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘पूर्वकालमें विश्वकर्माकी हेमा नामवाली एक दिव्यरूपिणी पुत्री थी। उस सुन्दरीने अपने नृत्यसे श्रीमहादेवजीको प्रसन्न किया॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टो महेशः प्रददाविदं दिव्यपुरं महत्।
अत्र स्थिता सा सुदती वर्षाणामयुतायुतम्॥ ५२॥

मूलम्

तुष्टो महेशः प्रददाविदं दिव्यपुरं महत्।
अत्र स्थिता सा सुदती वर्षाणामयुतायुतम्॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसन्न होनेपर श्रीशंकरने उसे यह विशाल और दिव्य नगर (रहनेके लिये) दिया। यहाँ वह सुन्दर दाँतोंवाली हजारों वर्ष रही॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या अहं सखी विष्णुतत्परा मोक्षकाङ्क्षिणी।
नाम्ना स्वयम्प्रभा दिव्यगन्धर्वतनया पुरा॥ ५३॥
गच्छन्ती ब्रह्मलोकं सा मामाहेदं तपश्चर।
अत्रैव निवसन्ती त्वं सर्वप्राणिविवर्जिते॥ ५४॥

मूलम्

तस्या अहं सखी विष्णुतत्परा मोक्षकाङ्क्षिणी।
नाम्ना स्वयम्प्रभा दिव्यगन्धर्वतनया पुरा॥ ५३॥
गच्छन्ती ब्रह्मलोकं सा मामाहेदं तपश्चर।
अत्रैव निवसन्ती त्वं सर्वप्राणिविवर्जिते॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उसकी सखी दिव्य नामक गन्धर्वकी पुत्री हूँ। मेरा नाम स्वयम्प्रभा है। मुझे मोक्षकी इच्छा है। अतः मैं सर्वदा विष्णुभगवान् की उपासनामें तत्पर रहती हूँ। पूर्वकालमें जब वह ब्रह्मलोकको जाने लगी, तब उसने मुझसे कहा कि ‘तू सब प्रकारके प्राणियोंसे रहित इस स्थानमें ही रहकर तपस्या कर॥ ५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणोऽव्ययः।
भूभारहरणार्थाय विचरिष्यति कानने॥ ५५॥

मूलम्

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणोऽव्ययः।
भूभारहरणार्थाय विचरिष्यति कानने॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रेतायुगमें साक्षात् अव्यय नारायण राजा दशरथके यहाँ जन्म लेकर पृथ्वीका भार उतारनेके लिये वनमें विचरेंगे॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गन्तो वानरास्तस्य भार्यामायान्ति ते गुहाम्।
पूजयित्वाथ तान् नत्वा रामं स्तुत्वा प्रयत्नतः॥ ५६॥
यातासि भवनं विष्णोर्योगिगम्यं सनातनम्।
इतोऽहं गन्तुमिच्छामि रामं द्रष्टुं त्वरान्विता॥ ५७॥
यूयं पिदध्वमक्षीणि गमिष्यथ बहिर्गुहाम्।
तथैव चक्रुस्ते वेगाद्‍गताः पूर्वस्थितं वनम्॥ ५८॥

मूलम्

मार्गन्तो वानरास्तस्य भार्यामायान्ति ते गुहाम्।
पूजयित्वाथ तान् नत्वा रामं स्तुत्वा प्रयत्नतः॥ ५६॥
यातासि भवनं विष्णोर्योगिगम्यं सनातनम्।
इतोऽहं गन्तुमिच्छामि रामं द्रष्टुं त्वरान्विता॥ ५७॥
यूयं पिदध्वमक्षीणि गमिष्यथ बहिर्गुहाम्।
तथैव चक्रुस्ते वेगाद्‍गताः पूर्वस्थितं वनम्॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी भार्याको ढूँढ़ते हुए कुछ वानर तेरी गुहामें आयेंगे। उनका भली प्रकार सत्कार कर तू रामचन्द्रजीकी (उनके पास जाकर) प्रयत्नपूर्वक वन्दना और स्तुति करके भगवान् विष्णुके नित्यधामको चली जायगी, जो योगियोंको ही प्राप्त होनेयोग्य है।’ अतः अब मैं तुरंत ही भगवान् रामका दर्शन करनेके लिये जाना चाहती हूँ। तुमलोग अपनी-अपनी आँखें मूँद लो, अभी गुहाके बाहर पहुँच जाओगे’’। उन्होंने ऐसा ही किया और तुरंत ही पहले वनमें पहुँच गये॥ ५६—५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सापि त्यक्त्वा गुहां शीघ्रं ययौ राघवसन्निधिम्।
तत्र रामं ससुग्रीवं लक्ष्मणं च ददर्श ह॥ ५९॥

मूलम्

सापि त्यक्त्वा गुहां शीघ्रं ययौ राघवसन्निधिम्।
तत्र रामं ससुग्रीवं लक्ष्मणं च ददर्श ह॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर वह योगिनी भी उस गुहाको छोड़कर तत्काल श्रीरघुनाथजीके पास आयी और वहाँ सुग्रीव तथा लक्ष्मणजीके सहित उनका दर्शन किया॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा प्रदक्षिणं रामं प्रणम्य बहुशः सुधीः।
आह गद्‍गदया वाचा रोमाञ्चिततनूरुहा॥ ६०॥

मूलम्

कृत्वा प्रदक्षिणं रामं प्रणम्य बहुशः सुधीः।
आह गद्‍गदया वाचा रोमाञ्चिततनूरुहा॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बुद्धिमतीने श्रीरामचन्द्रजीकी प्रदक्षिणा कर उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और फिर पुलकित-तनु होकर गद्‍गददवाणीसे इस प्रकार कहने लगी—॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासी तवाहं राजेन्द्र दर्शनार्थमिहागता।
बहुवर्षसहस्राणि तप्तं मे दुश्चरं तपः॥ ६१॥
गुहायां दर्शनार्थं ते फलितं मेऽद्य तत्तपः।
अद्य हि त्वां नमस्यामि मायायाः परतः स्थितम्॥ ६२॥
सर्वभूतेषु चालक्ष्यं बहिरन्तरवस्थितम्।
योगमायाजवनिकाच्छन्नो मानुषविग्रहः॥ ६३॥
न लक्ष्यसेऽज्ञानदृशां शैलूष इव रूपधृक्।
महाभागवतानां त्वं भक्तियोगविधित्सया॥ ६४॥
अवतीर्णोऽसि भगवन् कथं जानामि तामसी।
लोके जानातु यः कश्चित्तव तत्त्वं रघूत्तम॥ ६५॥
ममैतदेव रूपं ते सदा भातु हृदालये।
राम ते पादयुगलं दर्शितं मोक्षदर्शनम्॥ ६६॥
अदर्शनं भवार्णानां सन्मार्गपरिदर्शनम्।

मूलम्

दासी तवाहं राजेन्द्र दर्शनार्थमिहागता।
बहुवर्षसहस्राणि तप्तं मे दुश्चरं तपः॥ ६१॥
गुहायां दर्शनार्थं ते फलितं मेऽद्य तत्तपः।
अद्य हि त्वां नमस्यामि मायायाः परतः स्थितम्॥ ६२॥
सर्वभूतेषु चालक्ष्यं बहिरन्तरवस्थितम्।
योगमायाजवनिकाच्छन्नो मानुषविग्रहः॥ ६३॥
न लक्ष्यसेऽज्ञानदृशां शैलूष इव रूपधृक्।
महाभागवतानां त्वं भक्तियोगविधित्सया॥ ६४॥
अवतीर्णोऽसि भगवन् कथं जानामि तामसी।
लोके जानातु यः कश्चित्तव तत्त्वं रघूत्तम॥ ६५॥
ममैतदेव रूपं ते सदा भातु हृदालये।
राम ते पादयुगलं दर्शितं मोक्षदर्शनम्॥ ६६॥
अदर्शनं भवार्णानां सन्मार्गपरिदर्शनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजाधिराज! मैं आपकी दासी आपके दर्शनोंके लिये यहाँ आयी हूँ; मैंने आपका दर्शन पानेके लिये ही गुहामें रहकर सहस्रों वर्षोंसे बड़ी कठोर तपस्या की है। आज मेरा वह तप सफल हो गया। अहो! आज (यह कैसा शुभ दिन है कि) मैं साक्षात् मायातीत तथा समस्त भूतोंमें अलक्षितभावसे बाहर-भीतर विराजमान आप परमेश्वरको प्रणाम कर रही हूँ। आप अपने शुद्धस्वरूपको योगमायासे आवृत कर मनुष्य-शरीरमें प्रकट हुए हैं। अतः जिस प्रकार मायिकरूप धारण करनेवाले मायावीको साधारण पुरुष नहीं देख सकते, उसी प्रकार आपके शुद्धस्वरूपको अज्ञानी लोग नहीं देख सकते। हे भगवन्! आपने महान् भगवद्भक्तोंके भक्तियोगका विधान करनेके लिये ही अवतार लिया है। मैं तमोगुणी बुद्धिवाली आपको कैसे जान सकती हूँ? हे रघुश्रेष्ठ! संसारमें जो कोई आपका परमतत्त्व जानते हों वे उसे भले ही जाना करें, मेरे हृदयभवनमें तो सदा आपका यही रूप विराजमान रहे। हे राम! आज मुझे आपके उन मोक्षदायक चरणकमलोंका दर्शन हुआ है, जो संसाररूपी सरितासे पार करनेवाले और सन्मार्गका ज्ञान करानेवाले हैं॥ ६१—६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनपुत्रकलत्रादिविभूतिपरिदर्पितः।
अकिञ्चनधनं त्वाद्य नाभिधातुं जनोऽर्हति॥ ६७॥

मूलम्

धनपुत्रकलत्रादिविभूतिपरिदर्पितः।
अकिञ्चनधनं त्वाद्य नाभिधातुं जनोऽर्हति॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे आदिपुरुष! जो मनुष्य धन, पुत्र, कलत्र और विभूति आदिके मदसे उन्मत्त हो रहा है, वह आपकी स्तुति नहीं कर सकता; क्योंकि आप तो अकिंचनोंके ही सर्वस्व हैं॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तगुणमार्गाय निष्किञ्चनधनाय ते॥ ६८॥
नमः स्वात्माभिरामाय निर्गुणाय गुणात्मने।
कालरूपिणमीशानमादिमध्यान्तवर्जितम्॥ ६९॥
समं चरन्तं सर्वत्र मन्ये त्वां पुरुषं परम्।
देव ते चेष्टितं कश्चिन्न वेद नृविडम्बनम्॥ ७०॥

मूलम्

निवृत्तगुणमार्गाय निष्किञ्चनधनाय ते॥ ६८॥
नमः स्वात्माभिरामाय निर्गुणाय गुणात्मने।
कालरूपिणमीशानमादिमध्यान्तवर्जितम्॥ ६९॥
समं चरन्तं सर्वत्र मन्ये त्वां पुरुषं परम्।
देव ते चेष्टितं कश्चिन्न वेद नृविडम्बनम्॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गुणोंकी पहुँचसे बाहर, निष्किंचनोंके धन, अपने आत्मस्वरूपमें ही रमण करनेवाले और (स्वरूपसे) निर्गुण तथा (आरोपसे) सगुण हैं, उन आपको मैं बारम्बार प्रणाम करती हूँ। मैं आपको कालरूपसे सबका नियन्ता, आदि, मध्य और अन्तसे रहित, सर्वत्र समानभावसे व्याप्त तथा परात्पर पुरुष मानती हूँ। हे देव! मानव-चरित्रोंका अनुकरण करते हुए आप जो-जो लीलाएँ करते हैं, उनका मर्म कोई भी नहीं जान सकता॥ ६८—७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेऽस्ति कश्चिद्दयितो द्वेष्यो वापर एव च।
त्वन्मायापिहितात्मानस्त्वां पश्यन्ति तथाविधम्॥ ७१॥

मूलम्

न तेऽस्ति कश्चिद्दयितो द्वेष्यो वापर एव च।
त्वन्मायापिहितात्मानस्त्वां पश्यन्ति तथाविधम्॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आपका न कोई प्रिय है, न अप्रिय है और न उदासीन है। आपकी मायासे जिनके अन्तःकरण आवृत हैं, वे ही लोग (अपनी-अपनी भावनाके अनुसार) आपको वैसा देखते हैं॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजस्याकर्तुरीशस्य देवतिर्यङ्नरादिषु।
जन्मकर्मादिकं यद्यत्तदत्यन्तविडम्बनम्॥ ७२॥

मूलम्

अजस्याकर्तुरीशस्य देवतिर्यङ्नरादिषु।
जन्मकर्मादिकं यद्यत्तदत्यन्तविडम्बनम्॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अजन्मा, अकर्ता और ईश्वर हैं। आपके जो देव, तिर्यक् और मनुष्य आदि योनियोंमें जन्म और कर्म होते हैं वह आपकी महान् लीला ही है॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामाहुरक्षरं जातं कथाश्रवणसिद्धये।
केचित्कोसलराजस्य तपसः फलसिद्धये॥ ७३॥

मूलम्

त्वामाहुरक्षरं जातं कथाश्रवणसिद्धये।
केचित्कोसलराजस्य तपसः फलसिद्धये॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘कहते हैं, आप अविनाशी ईश्वरने (अपनी कीर्ति फैलाकर) कथा-श्रवणकी सिद्धिके लिये ही अवतार लिया। कोई यह भी कहते हैं कि कोसलाधिपति महाराज दशरथको उनकी तपस्याका फल देनेके लिये आपने जन्म लिया है॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौसल्यया प्रार्थ्यमानं जातमाहुः परे जनाः।
दुष्टराक्षसभूभारहरणायार्थितो विभुः॥ ७४॥
ब्रह्मणा नररूपेण जातोऽयमिति केचन।
शृण्वन्ति गायन्ति च ये कथास्ते रघुनन्दन॥ ७५॥
पश्यन्ति तव पादाब्जं भवार्णवसुतारणम्।
त्वन्मायागुणबद्धाहं व्यतिरिक्तं गुणाश्रयम्॥ ७६॥
कथं त्वां देव जानीयां स्तोतुं वाविषयं विभुम्।
नमस्यामि रघुश्रेष्ठं बाणासनशरान्वितम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सुग्रीवादिभिरन्वितम्॥ ७७॥

मूलम्

कौसल्यया प्रार्थ्यमानं जातमाहुः परे जनाः।
दुष्टराक्षसभूभारहरणायार्थितो विभुः॥ ७४॥
ब्रह्मणा नररूपेण जातोऽयमिति केचन।
शृण्वन्ति गायन्ति च ये कथास्ते रघुनन्दन॥ ७५॥
पश्यन्ति तव पादाब्जं भवार्णवसुतारणम्।
त्वन्मायागुणबद्धाहं व्यतिरिक्तं गुणाश्रयम्॥ ७६॥
कथं त्वां देव जानीयां स्तोतुं वाविषयं विभुम्।
नमस्यामि रघुश्रेष्ठं बाणासनशरान्वितम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सुग्रीवादिभिरन्वितम्॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हीं लोगोंका कहना है कि आप कौसल्याजीकी प्रार्थनासे प्रकट हुए हैं; तथा किन्हीं-किन्हींका मत ऐसा भी है कि ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर भूमिके भारभूत राक्षसोंका नाश करनेके लिये ही आप सर्वव्यापक होते हुए भी मनुष्यरूपसे अवतीर्ण हुए हैं। हे रघुनन्दन! जो लोग आपकी कथाओंको सुनेंगे या कहेंगे वे अवश्य ही संसार-सागरको पार करनेके लिये नौकारूप आपके चरण-कमलोंका दर्शन करेंगे। हे देव! मैं आपकी मायाके गुणोंके वशीभूत हूँ, फिर उन गुणोंसे अत्यन्त पृथक् और उनके आश्रयरूप आपको मैं कैसे जान सकती हूँ? ऐसे ही वाणीके विषय न होनेके कारण मैं आप विभुकी स्तुति भी कैसे कर सकती हूँ? अतः भाई लक्ष्मण और सुग्रीवादि (पार्षदों)-के सहित आप धनुर्बाणधारी रघुश्रेष्ठको मैं केवल प्रणाम करती हूँ?’’॥ ७४—७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुतो रघुश्रेष्ठः प्रसन्नः प्रणताघहृत्।
उवाच योगिनीं भक्तां किं ते मनसि काङ्क्षितम्॥ ७८॥

मूलम्

एवं स्तुतो रघुश्रेष्ठः प्रसन्नः प्रणताघहृत्।
उवाच योगिनीं भक्तां किं ते मनसि काङ्क्षितम्॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके इस प्रकार स्तुति करनेसे प्रणतपापापहारी श्रीरघुनाथजी अति प्रसन्न हुए और उस अनन्यभक्ता योगिनीसे बोले—‘‘तेरी हार्दिक इच्छा क्या है?’’॥ ७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा प्राह राघवं भक्त्या भक्तिं ते भक्तवत्सल।
यत्र कुत्रापि जाताया निश्चलां देहि मे प्रभो॥ ७९॥

मूलम्

सा प्राह राघवं भक्त्या भक्तिं ते भक्तवत्सल।
यत्र कुत्रापि जाताया निश्चलां देहि मे प्रभो॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अति भक्तिपूर्वक श्रीरघुनाथजीसे कहा—‘‘हे भक्तवत्सल प्रभो! मैं जहाँ कहीं भी जन्म लूँ आप मुझे अपनी अविचल भक्ति दीजिये॥ ७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्भक्तेषु सदा सङ्गो भूयान्मे प्राकृतेषु न।
जिह्वा मे रामरामेति भक्त्या वदतु सर्वदा॥ ८०॥

मूलम्

त्वद्भक्तेषु सदा सङ्गो भूयान्मे प्राकृतेषु न।
जिह्वा मे रामरामेति भक्त्या वदतु सर्वदा॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक जन्ममें मेरा संग आपके भक्तोंसे ही हो, संसारी लोगोंसे न हो और मेरी जिह्वा सदा भक्तिपूर्वक ‘राम-राम’ ऐसा रटा करे॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानसं श्यामलं रूपं सीतालक्ष्मणसंयुतम्।
धनुर्बाणधरं पीतवाससं मुकुटोज्ज्वलम्॥ ८१॥
अङ्गदैर्नूपुरैर्मुक्ताहारैः कौस्तुभकुण्डलैः।
भान्तं स्मरतु मे राम वरं नान्यं वृणे प्रभो॥ ८२॥

मूलम्

मानसं श्यामलं रूपं सीतालक्ष्मणसंयुतम्।
धनुर्बाणधरं पीतवाससं मुकुटोज्ज्वलम्॥ ८१॥
अङ्गदैर्नूपुरैर्मुक्ताहारैः कौस्तुभकुण्डलैः।
भान्तं स्मरतु मे राम वरं नान्यं वृणे प्रभो॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे राम! मेरा मन आपकी उस शोभायमान श्यामल मूर्तिका श्रीसीताजी और लक्ष्मणके सहित सर्वदा चिन्तन करता रहे, जो धनुष-बाण धारण किये हुए है तथा जो पीताम्बरधारी, मुकुट-विभूषित एवं भुजबंद, नूपुर, मोतियोंकी माला, कौस्तुभमणि और कुण्डलोंसे सुशोभित है। हे प्रभो! इसके सिवा मैं और कोई वर नहीं माँगती’’॥ ८१-८२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीराम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवत्वेवं महाभागे गच्छ त्वं बदरीवनम्।
तत्रैव मां स्मरन्ती त्वं त्यक्त्वेदं भूतपञ्चकम्।
मामेव परमात्मानमचिरात्प्रतिपद्यसे॥ ८३॥

मूलम्

भवत्वेवं महाभागे गच्छ त्वं बदरीवनम्।
तत्रैव मां स्मरन्ती त्वं त्यक्त्वेदं भूतपञ्चकम्।
मामेव परमात्मानमचिरात्प्रतिपद्यसे॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी बोले—हे महाभागे! ऐसा ही होगा। अब तू बदरिकाश्रमको जा, वहाँ मेरा स्मरण करती हुई तू शीघ्र ही इस पांचभौतिक शरीरको छोड़कर मुझ परमात्माको ही प्राप्त हो जायगी॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा रघूत्तमवचोऽमृतसारकल्पं
गत्वा तदैव बदरीतरुषण्डजुष्टम्।
तीर्थं तदा रघुपतिं मनसा स्मरन्ती
त्यक्त्वा कलेवरमवाप परं पदं सा॥ ८४॥

मूलम्

श्रुत्वा रघूत्तमवचोऽमृतसारकल्पं
गत्वा तदैव बदरीतरुषण्डजुष्टम्।
तीर्थं तदा रघुपतिं मनसा स्मरन्ती
त्यक्त्वा कलेवरमवाप परं पदं सा॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुनाथजीके ये अमृतके समान मधुर वचन सुनकर स्वयम्प्रभा उसी समय पुण्यक्षेत्र बदरिकाश्रमको चली गयी जहाँ बहुत-से बेरोंके वृक्ष लगे हुए हैं। वहाँ अपने अन्तःकरणमें श्रीरघुनाथजीका स्मरण करती हुई वह अन्तमें शरीर-पात होनेपर परमपदको प्राप्त हुई॥ ८४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे षष्ठः सर्गः॥ ६॥