०५

[पञ्चम सर्ग]

भागसूचना

भगवान् रामका शोक और लक्ष्मणजीका किष्किन्धापुरीमें जाना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तु पर्वतस्याग्रे मणिसानौ निशामुखे।
सीताविरहजं शोकमसहन्निदमब्रवीत्॥ १॥

मूलम्

रामस्तु पर्वतस्याग्रे मणिसानौ निशामुखे।
सीताविरहजं शोकमसहन्निदमब्रवीत्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! एक दिन प्रदोषकाल (रात्रिके प्रथम भाग)-में प्रवर्षण पर्वतके मणिमय शिखरपर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी सीताजीके विरहजनित सन्तापको सहन न कर सकनेके कारण इस प्रकार बोले—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य लक्ष्मण मे सीता राक्षसेन हृता बलात्।
मृतामृता वा निश्चेतुं न जानेऽद्यापि भामिनीम्॥ २॥

मूलम्

पश्य लक्ष्मण मे सीता राक्षसेन हृता बलात्।
मृतामृता वा निश्चेतुं न जानेऽद्यापि भामिनीम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘लक्ष्मण! देखो, हमारी सीताको राक्षस बलात् हर ले गया; वह सुन्दरी जीवित है या मर गयी—इसका निश्चय करनेके लिये हमें अभीतक कुछ भी पता नहीं लगा॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवतीति मम ब्रूयात्कश्चिद्वा प्रियकृत्स मे।
यदि जानामि तां साध्वीं जीवन्तीं यत्र कुत्र वा॥ ३॥
हठादेवाहरिष्यामि सुधामिव पयोनिधेः।
प्रतिज्ञां शृणु मे भ्रातर्येन मे जनकात्मजा॥ ४॥
नीता तं भस्मसात्कुर्यां सपुत्रबलवाहनम्।
हे सीते चन्द्रवदने वसन्ती राक्षसालये॥ ५॥
दुःखार्त्ता मामपश्यन्ती कथं प्राणान् धरिष्यसि।
चन्द्रोऽपि भानुवद्भाति मम चन्द्राननां विना॥ ६॥

मूलम्

जीवतीति मम ब्रूयात्कश्चिद्वा प्रियकृत्स मे।
यदि जानामि तां साध्वीं जीवन्तीं यत्र कुत्र वा॥ ३॥
हठादेवाहरिष्यामि सुधामिव पयोनिधेः।
प्रतिज्ञां शृणु मे भ्रातर्येन मे जनकात्मजा॥ ४॥
नीता तं भस्मसात्कुर्यां सपुत्रबलवाहनम्।
हे सीते चन्द्रवदने वसन्ती राक्षसालये॥ ५॥
दुःखार्त्ता मामपश्यन्ती कथं प्राणान् धरिष्यसि।
चन्द्रोऽपि भानुवद्भाति मम चन्द्राननां विना॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई मुझे यह समाचार सुनावे कि ‘वह जीवित है’ तो वह मेरा बड़ा ही उपकार करेगा। यदि मुझे उस साध्वीके जीवित रहनेका पता लग जाय तो फिर वह कहीं भी क्यों न हो, समुद्रमेंसे अमृतके समान मैं जैसे होगा वैसे उसे अवश्य ही तुरंत ले आऊँगा। भाई! मेरी प्रतिज्ञा सुनो—‘जो दुष्ट मेरी जानकीको ले गया है उसे पुत्र, सेना और वाहनोंके सहित मैं भस्म कर डालूँगा।’ हे चन्द्रवदने सीते! मुझे न देखनेसे अत्यन्त दुःखातुर होकर राक्षसके घरमें रहती हुई तुम किस प्रकार प्राण धारण करोगी? हा! चन्द्रमुखी सीताके बिना तो मुझे चन्द्रमा भी सूर्यके समान (तापप्रद) जान पड़ता है॥ ३—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्र त्वं जानकीं स्पृष्ट्वा करैर्मां स्पृश शीतलैः।
सुग्रीवोऽपि दयाहीनो दुःखितं मां न पश्यति॥ ७॥

मूलम्

चन्द्र त्वं जानकीं स्पृष्ट्वा करैर्मां स्पृश शीतलैः।
सुग्रीवोऽपि दयाहीनो दुःखितं मां न पश्यति॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे चन्द्र! तुम अपनी किरणोंसे पहले जानकीको स्पर्श करो, (उनका स्पर्श करनेसे वे शीतल हो जायँगी) फिर उन शीतल किरणोंसे मुझे स्पर्श करना। हाय! सुग्रीव भी कैसा निर्दयी हो गया है जो मुझ दुःखियाकी ओर नहीं झाँकता॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं निष्कण्टकं प्राप्य स्त्रीभिः परिवृतो रहः।
कृतघ्नो दृश्यते व्यक्तं पानासक्तोऽतिकामुकः॥ ८॥

मूलम्

राज्यं निष्कण्टकं प्राप्य स्त्रीभिः परिवृतो रहः।
कृतघ्नो दृश्यते व्यक्तं पानासक्तोऽतिकामुकः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! निष्कण्टक राज्य पाकर मद्यपानमें आसक्त हुआ वह कामकिंकर स्त्रियोंसे घिरा एकान्तमें पड़ा रहता है। इससे वह स्पष्ट ही बड़ा कृतघ्न दीख पड़ता है॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायाति शरदं पश्यन्नपि मार्गयितुं प्रियाम्।
पूर्वोपकारिणं दुष्टः कृतघ्नो विस्मृतो हि माम्॥ ९॥

मूलम्

नायाति शरदं पश्यन्नपि मार्गयितुं प्रियाम्।
पूर्वोपकारिणं दुष्टः कृतघ्नो विस्मृतो हि माम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद्-ऋतुका आगमन देखकर भी वह प्राणप्रिया सीताकी खोज करानेके लिये नहीं आया। मैंने उसका पहले उपकार किया है तथापि वह दुष्ट कृतघ्न होकर मुझे भूल गया॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्मि सुग्रीवमप्येवं सपुरं सहबान्धवम्।
वाली यथा हतो मेऽद्य सुग्रीवोऽपि तथा भवेत्॥ १०॥

मूलम्

हन्मि सुग्रीवमप्येवं सपुरं सहबान्धवम्।
वाली यथा हतो मेऽद्य सुग्रीवोऽपि तथा भवेत्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(जिस प्रकार मुझे सीताको हर ले जानेवालेका नाश करना है) उसी प्रकार मैं सुग्रीवको भी उसके नगर और बन्धु-बान्धवोंके सहित मार डालूँगा। जैसे वाली मेरे हाथसे मारा गया वैसे ही आज सुग्रीव भी मारा जायगा’’॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति रुष्टं समालोक्य राघवं लक्ष्मणोऽब्रवीत्।
इदानीमेव गत्वाहं सुग्रीवं दुष्टमानसम्॥ ११॥
मामाज्ञापय हत्वा तमायास्ये राम तेऽन्तिकम्।
इत्युक्त्वा धनुरादाय स्वयं तूणीरमेव च॥ १२॥
गन्तुमभ्युद्यतं वीक्ष्य रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
न हन्तव्यस्त्वया वत्स सुग्रीवो मे प्रियः सखा॥ १३॥

मूलम्

इति रुष्टं समालोक्य राघवं लक्ष्मणोऽब्रवीत्।
इदानीमेव गत्वाहं सुग्रीवं दुष्टमानसम्॥ ११॥
मामाज्ञापय हत्वा तमायास्ये राम तेऽन्तिकम्।
इत्युक्त्वा धनुरादाय स्वयं तूणीरमेव च॥ १२॥
गन्तुमभ्युद्यतं वीक्ष्य रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
न हन्तव्यस्त्वया वत्स सुग्रीवो मे प्रियः सखा॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार रघुनाथजीको क्रुद्ध देखकर लक्ष्मणजी बोले—‘‘हे राम! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं अभी जाकर दुष्टचित्त सुग्रीवको मारकर आपके पास लौट आता हूँ।’’ ऐसा कह हाथमें धनुष और तरकश लेकर लक्ष्मणजीको अपने-आप ही जानेके लिये उद्यत देख श्रीरामचन्द्रजी बोले—‘‘वत्स! सुग्रीव मेरा प्यारा मित्र है, तुम उसे मारना मत॥ ११—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्तु भीषय सुग्रीवं वालिवत्त्वं हनिष्यसे।
इत्युक्त्वा शीघ्रमादाय सुग्रीवप्रतिभाषितम्॥ १४॥
आगत्य पश्चाद्यत्कार्यं तत्करिष्याम्यसंशयम्।
तथेति लक्ष्मणोऽगच्छत्त्वरितो भीमविक्रमः॥ १५॥
किष्किन्धां प्रति कोपेन निर्दहन्निव वानरान्।

मूलम्

किन्तु भीषय सुग्रीवं वालिवत्त्वं हनिष्यसे।
इत्युक्त्वा शीघ्रमादाय सुग्रीवप्रतिभाषितम्॥ १४॥
आगत्य पश्चाद्यत्कार्यं तत्करिष्याम्यसंशयम्।
तथेति लक्ष्मणोऽगच्छत्त्वरितो भीमविक्रमः॥ १५॥
किष्किन्धां प्रति कोपेन निर्दहन्निव वानरान्।

अनुवाद (हिन्दी)

केवल यह कहकर कि ‘तू वालीके समान मारा जायगा’ उसे डराना और फिर शीघ्र ही उसका उत्तर लेकर आ जाना। उस समय जो कुछ करना होगा मैं अवश्य वही करूँगा’’। तब महापराक्रमी लक्ष्मणजी ‘बहुत अच्छा’ कह तुरंत ही किष्किन्धापुरीमें आये। उस समय उन्होंने क्रोधसे ऐसा उग्र रूप धारण किया था कि मानो सम्पूर्ण वानरोंको भस्म कर डालेंगे॥ १४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वज्ञो नित्यलक्ष्मीको विज्ञानात्मापि राघवः॥ १६॥
सीतामनुशुशोचार्त्तः प्राकृतः प्राकृतामिव।
बुद्‍ध्यादिसाक्षिणस्तस्य मायाकार्यातिवर्तिनः॥ १७॥
रागादिरहितस्यास्य तत्कार्यं कथमुद्भवेत्।
ब्रह्मणोक्तमृतं कर्तुं राज्ञो दशरथस्य हि॥ १८॥
तपसः फलदानाय जातो मानुषवेषधृक्।
मायया मोहिताः सर्वे जना अज्ञानसंयुताः॥ १९॥
कथमेषां भवेन्मोक्ष इति विष्णुर्विचिन्तयन्।
कथां प्रथयितुं लोके सर्वलोकमलापहाम्॥ २०॥
रामायणाभिधां रामो भूत्वा मानुषचेष्टकः।
क्रोधं मोहं च कामं च व्यवहारार्थसिद्धये॥ २१॥
तत्तत्कालोचितं गृह्णन् मोहयत्यवशाः प्रजाः।
अनुरक्त इवाशेषगुणेषु गुणवर्जितः॥ २२॥

मूलम्

सर्वज्ञो नित्यलक्ष्मीको विज्ञानात्मापि राघवः॥ १६॥
सीतामनुशुशोचार्त्तः प्राकृतः प्राकृतामिव।
बुद्‍ध्यादिसाक्षिणस्तस्य मायाकार्यातिवर्तिनः॥ १७॥
रागादिरहितस्यास्य तत्कार्यं कथमुद्भवेत्।
ब्रह्मणोक्तमृतं कर्तुं राज्ञो दशरथस्य हि॥ १८॥
तपसः फलदानाय जातो मानुषवेषधृक्।
मायया मोहिताः सर्वे जना अज्ञानसंयुताः॥ १९॥
कथमेषां भवेन्मोक्ष इति विष्णुर्विचिन्तयन्।
कथां प्रथयितुं लोके सर्वलोकमलापहाम्॥ २०॥
रामायणाभिधां रामो भूत्वा मानुषचेष्टकः।
क्रोधं मोहं च कामं च व्यवहारार्थसिद्धये॥ २१॥
तत्तत्कालोचितं गृह्णन् मोहयत्यवशाः प्रजाः।
अनुरक्त इवाशेषगुणेषु गुणवर्जितः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी सर्वज्ञ और ज्ञानस्वरूप हैं। श्रीलक्ष्मीजी सर्वदा उनकी सेवामें रहती हैं; तथापि साधारण स्त्रीके वियोगसे शोक करते हुए प्राकृत पुरुषके समान वे सीताजीके शोकसे विह्वल हो रहे हैं। वे प्रभु बुद्धि आदिके साक्षी, मायाके कार्योंसे परे और राग-द्वेष आदि विकारोंसे रहित हैं, फिर इन विकारोंका कार्यरूप शोक उन्हें कैसे हो सकता है? उन्होंने तो ब्रह्माजीकी वाणी सत्य करने और महाराज दशरथको उनकी तपस्याका फल देनेके लिये ही मनुष्यरूपसे अवतार लिया है। ‘सब लोग मायासे मोहित होकर अज्ञानके वशीभूत हो गये हैं, उससे इनका किस प्रकार छुटकारा हो’ यह सोचकर भगवान् विष्णु अपनी सकल-लोकमलापहारिणी रामायण नामकी कथाका लोकमें विस्तार करनेके लिये रामरूप होकर मनुष्यके समान अनेकों लीलाएँ करते हुए व्यवहारकी सिद्धिके लिये समयानुकूल क्रोध, मोह और काम आदि विकारोंको स्वीकार करके विकारोंके वशीभूत हुई प्रजाको अपनी लीलासे मोहित कर रहे हैं। किन्तु सम्पूर्ण गुणोंमें अनुरक्त-से दिखलायी देते हुए भी वे वास्तवमें उन सबसे रहित हैं॥ १६—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञानमूर्तिर्विज्ञानशक्तिः साक्ष्यगुणान्वितः।
अतः कामादिभिर्नित्यमविलिप्तो यथा नभः॥ २३॥

मूलम्

विज्ञानमूर्तिर्विज्ञानशक्तिः साक्ष्यगुणान्वितः।
अतः कामादिभिर्नित्यमविलिप्तो यथा नभः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञान ही उनकी शक्ति है तथा एकमात्र साक्षी और गुणातीत हैं। इसलिये वे आकाशके समान काम आदि (मनोविकारों)-से सर्वदा अलिप्त हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विन्दन्ति मुनयः केचिज्जानन्ति जनकादयः।
तद्भक्ता निर्मलात्मानः सम्यग् जानन्ति नित्यदा।
भक्तचित्तानुसारेण जायते भगवानजः॥ २४॥

मूलम्

विन्दन्ति मुनयः केचिज्जानन्ति जनकादयः।
तद्भक्ता निर्मलात्मानः सम्यग् जानन्ति नित्यदा।
भक्तचित्तानुसारेण जायते भगवानजः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके वास्तविक स्वरूपको कोई-कोई मुनिजन, जनकादि राजर्षिगण तथा उनके विशुद्धचित्त भक्तजन ही सदा ठीक-ठीक जान पाते हैं, वे अजन्मा भगवान् भक्तकी भावनाके अनुसार अवतार लेते हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणोऽपि तदा गत्वा किष्किन्धानगरान्तिकम्।
ज्याघोषमकरोत्तीव्रं भीषयन् सर्ववानरान्॥ २५॥

मूलम्

लक्ष्मणोऽपि तदा गत्वा किष्किन्धानगरान्तिकम्।
ज्याघोषमकरोत्तीव्रं भीषयन् सर्ववानरान्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर लक्ष्मणजीने किष्किन्धापुरीके पास पहुँचकर सम्पूर्ण वानरोंको भयभीत करते हुए अपने धनुषकी प्रत्यंचाका बड़ा भयंकर टंकार किया॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा प्राकृतास्तत्र वानरा वप्रमूर्धनि।
चक्रुः किलकिलाशब्दं धृतपाषाणपादपाः॥ २६॥
तान्दृष्ट्वा क्रोधताम्राक्षो वानरान् लक्ष्मणस्तदा।
निर्मूलान्कर्तुमुद्युक्तो धनुरानम्य वीर्यवान्॥ २७॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा प्राकृतास्तत्र वानरा वप्रमूर्धनि।
चक्रुः किलकिलाशब्दं धृतपाषाणपादपाः॥ २६॥
तान्दृष्ट्वा क्रोधताम्राक्षो वानरान् लक्ष्मणस्तदा।
निर्मूलान्कर्तुमुद्युक्तो धनुरानम्य वीर्यवान्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय नगरके परकोटेपर चढ़े हुए कुछ साधारण वानर लक्ष्मणजीको देखकर अपने हाथोंमें पत्थर और वृक्षादि लेकर किलकारी मारने लगे। उन वानरोंको देखकर वीरवर लक्ष्मणजीके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे धनुष चढ़ाकर उनका मूलोच्छेद करनेके लिये तत्पर हुए॥ २६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शीघ्रं समाप्लुत्य ज्ञात्वा लक्ष्मणमागतम्॥ २८॥
निवार्य वानरान् सर्वानङ्गदो मन्त्रिसत्तमः।
गत्वा लक्ष्मणसामीप्यं प्रणनाम स दण्डवत्॥ २९॥

मूलम्

ततः शीघ्रं समाप्लुत्य ज्ञात्वा लक्ष्मणमागतम्॥ २८॥
निवार्य वानरान् सर्वानङ्गदो मन्त्रिसत्तमः।
गत्वा लक्ष्मणसामीप्यं प्रणनाम स दण्डवत्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लक्ष्मणजीको आये जान वहाँ मन्त्रिवर अंगदजी तुरंत ही उछलकर आये और उन्होंने सब वानरोंको रोककर उनके पास जाकर दण्डवत् प्रणाम किया॥ २८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽङ्गदं परिष्वज्य लक्ष्मणः प्रियवर्धनः।
उवाच वत्स गच्छ त्वं पितृव्याय निवेदय॥ ३०॥
मामागतं राघवेण चोदितं रौद्रमूर्तिना।
तथेति त्वरितं गत्वा सुग्रीवाय न्यवेदयत्॥ ३१॥
लक्ष्मणः क्रोधताम्राक्षः पुरद्वारि बहिः स्थितः।
तच्छ्रुत्वातीव सन्त्रस्तः सुग्रीवो वानरेश्वरः॥ ३२॥

मूलम्

ततोऽङ्गदं परिष्वज्य लक्ष्मणः प्रियवर्धनः।
उवाच वत्स गच्छ त्वं पितृव्याय निवेदय॥ ३०॥
मामागतं राघवेण चोदितं रौद्रमूर्तिना।
तथेति त्वरितं गत्वा सुग्रीवाय न्यवेदयत्॥ ३१॥
लक्ष्मणः क्रोधताम्राक्षः पुरद्वारि बहिः स्थितः।
तच्छ्रुत्वातीव सन्त्रस्तः सुग्रीवो वानरेश्वरः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रियवर्धन श्रीलक्ष्मणजीने अंगदको हृदयसे लगाकर कहा—‘‘वत्स! तुम अभी जाकर अपने काका सुग्रीवको सूचना दो कि श्रीरघुनाथजी तुमसे अत्यन्त क्रुद्ध हैं और उनकी प्रेरणासे मैं यहाँ आया हूँ।’’ यह सुनकर अंगदने ‘बहुत अच्छा’ कह तुरंत ही सारा समाचार सुग्रीवको जा सुनाया और बोला कि ‘लक्ष्मणजी क्रोधसे नेत्र लाल किये बाहर नगरके द्वारपर खड़े हैं’। यह सुनकर वानरराज सुग्रीवको बड़ा ही भय हुआ॥ ३०—३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहूय मन्त्रिणां श्रेष्ठं हनूमन्तमथाब्रवीत्।
गच्छ त्वमङ्गदेनाशु लक्ष्मणं विनयान्वितः॥ ३३॥
सान्त्वयन्कोपितं वीरं शनैरानय सादरम्।
प्रेषयित्वा हनूमन्तं तारामाह कपीश्वरः॥ ३४॥

मूलम्

आहूय मन्त्रिणां श्रेष्ठं हनूमन्तमथाब्रवीत्।
गच्छ त्वमङ्गदेनाशु लक्ष्मणं विनयान्वितः॥ ३३॥
सान्त्वयन्कोपितं वीरं शनैरानय सादरम्।
प्रेषयित्वा हनूमन्तं तारामाह कपीश्वरः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने मन्त्रिप्रवर हनूमान् जी को बुलाकर कहा—‘‘तुम अंगदके साथ तुरंत ही लक्ष्मणजीके पास जाओ और उन क्रोधित हुए वीरवरको धीरे-धीरे अति विनयपूर्वक शान्त कर आदरपूर्वक अपने साथ यहाँ ले आओ।’’ इस प्रकार हनूमान् जी को भेजकर कपिराज सुग्रीवने तारासे कहा—॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं गच्छ सान्त्वयन्ती तं लक्ष्मणं मृदुभाषितैः।
शान्तमन्तःपुरं नीत्वा पश्चाद्दर्शय मेऽनघे॥ ३५॥

मूलम्

त्वं गच्छ सान्त्वयन्ती तं लक्ष्मणं मृदुभाषितैः।
शान्तमन्तःपुरं नीत्वा पश्चाद्दर्शय मेऽनघे॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे अनघे! तुम आगे जाकर अपनी मधुर वाणीसे वीरवर लक्ष्मणको शान्त करो और जब वे शान्त हो जायँ तब उन्हें अन्तःपुरमें लाकर मुझसे मिलाओ’’॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवत्विति ततस्तारा मध्यकक्षं समाविशत्।
हनूमानङ्गदेनैव सहितो लक्ष्मणान्तिकम्॥ ३६॥
गत्वा ननाम शिरसा भक्त्या स्वागतमब्रवीत्।
एहि वीर महाभाग भवद्‍गृहमशङ्कितम्॥ ३७॥

मूलम्

भवत्विति ततस्तारा मध्यकक्षं समाविशत्।
हनूमानङ्गदेनैव सहितो लक्ष्मणान्तिकम्॥ ३६॥
गत्वा ननाम शिरसा भक्त्या स्वागतमब्रवीत्।
एहि वीर महाभाग भवद्‍गृहमशङ्कितम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर तारा ‘बहुत अच्छा’ कह बीचकी ड्योढ़ीमें आ गयी। इधर अंगदके सहित हनूमान् जी लक्ष्मणजीके पास आये और उन्हें सिर नवाकर भक्तिपूर्वक स्वागत करते हुए बोले—‘‘हे महाभाग वीरवर! निःशंक होकर आइये, यह घर आपहीका है॥ ३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्य राजदारादीन् दृष्ट्वा सुग्रीवमेव च।
यदाज्ञापयसे पश्चात्तत्सर्वं करवाणि भोः॥ ३८॥

मूलम्

प्रविश्य राजदारादीन् दृष्ट्वा सुग्रीवमेव च।
यदाज्ञापयसे पश्चात्तत्सर्वं करवाणि भोः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें पधारकर राजमहिषियोंसे और महाराज सुग्रीवसे मिलिये। फिर आपकी जो आज्ञा होगी हम वही करेंगे’’॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा लक्ष्मणं भक्त्या करे गृह्य स मारुतिः।
आनयामास नगरमध्याद्‍राजगृहं प्रति॥ ३९॥

मूलम्

इत्युक्त्वा लक्ष्मणं भक्त्या करे गृह्य स मारुतिः।
आनयामास नगरमध्याद्‍राजगृहं प्रति॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कह पवननन्दन हनूमान् जी भक्तिपूर्वक लक्ष्मणजीका हाथ पकड़कर उन्हें नगरके बीचसे होकर राजमन्दिरको ले चले॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यंस्तत्र महासौधान् यूथपानां समन्ततः।
जगाम भवनं राज्ञः सुरेन्द्रभवनोपमम्॥ ४०॥

मूलम्

पश्यंस्तत्र महासौधान् यूथपानां समन्ततः।
जगाम भवनं राज्ञः सुरेन्द्रभवनोपमम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लक्ष्मणजी मार्गमें जहाँ-तहाँ यूथपति वानरोंके महल देखते हुए इन्द्रभवनके समान अति शोभायमान राजभवनमें पहुँचे॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यकक्षे गता तत्र तारा ताराधिपानना।
सर्वाभरणसम्पन्ना मदरक्तान्तलोचना॥ ४१॥

मूलम्

मध्यकक्षे गता तत्र तारा ताराधिपानना।
सर्वाभरणसम्पन्ना मदरक्तान्तलोचना॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ बीचकी ड्योढ़ीमें चन्द्रवदना तारा बैठी थी; वह सम्पूर्ण आभूषणोंसे विभूषिता थी तथा उसके नेत्र मदसे कुछ अरुणवर्ण हो रहे थे॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच लक्ष्मणं नत्वा स्मितपूर्वाभिभाषिणी।
एहि देवर भद्रं ते साधुस्त्वं भक्तवत्सलः॥ ४२॥

मूलम्

उवाच लक्ष्मणं नत्वा स्मितपूर्वाभिभाषिणी।
एहि देवर भद्रं ते साधुस्त्वं भक्तवत्सलः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मधुरभाषिणी तारा लक्ष्मणजीको प्रणाम कर मुसकराती हुई बोली—‘‘आइये देवर! आपका शुभ हो! आप बड़े ही साधुस्वभाव और भक्तवत्सल हैं॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं कोपमाकार्षीर्भक्ते भृत्ये कपीश्वरे।
बहुकालमनाश्वासं दुःखमेवानुभूतवान्॥ ४३॥

मूलम्

किमर्थं कोपमाकार्षीर्भक्ते भृत्ये कपीश्वरे।
बहुकालमनाश्वासं दुःखमेवानुभूतवान्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने अपने भक्त और अनुगत वानरराज सुग्रीवपर किस कारण इतना कोप किया? उसने तो बहुत दिनोंसे बिना किसी प्रकारका सहारा मिले दुःख-ही-दुःख भोगा है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदानीं बहुदुःखौघाद्भवद्भिरभिरक्षितः।
भवत्प्रसादात्सुग्रीवः प्राप्तसौख्यो महामतिः॥ ४४॥

मूलम्

इदानीं बहुदुःखौघाद्भवद्भिरभिरक्षितः।
भवत्प्रसादात्सुग्रीवः प्राप्तसौख्यो महामतिः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब आपलोगोंने ही उसे बड़े दुःखसमूहसे निकाला है। आपहीकी कृपासे महामति सुग्रीवको यह सुख देखनेमें आया है॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामासक्तो रघुपतेः सेवार्थं नागतो हरिः।
आगमिष्यन्ति हरयो नानादेशगताः प्रभो॥ ४५॥

मूलम्

कामासक्तो रघुपतेः सेवार्थं नागतो हरिः।
आगमिष्यन्ति हरयो नानादेशगताः प्रभो॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जातिका वानर है, इसलिये कामासक्त होकर श्रीरघुनाथजीकी सेवामें उपस्थित नहीं हुआ। हे प्रभो! अब शीघ्र ही विविध देशोंसे बहुत-से वानर आनेवाले हैं॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेषितो दशसाहस्रा हरयो रघुसत्तम।
आनेतुं वानरान् दिग्भ्यो महापर्वतसन्निभान्॥ ४६॥

मूलम्

प्रेषितो दशसाहस्रा हरयो रघुसत्तम।
आनेतुं वानरान् दिग्भ्यो महापर्वतसन्निभान्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! अब दिशा-विदिशाओंसे महापर्वतके समान बड़े-बड़े डीलवाले असंख्य वानरोंको लानेके लिये दस सहस्र बंदर भेजे गये हैं॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवः स्वयमागत्य सर्ववानरयूथपैः।
वधयिष्यति दैत्यौघान् रावणं च हनिष्यति॥ ४७॥

मूलम्

सुग्रीवः स्वयमागत्य सर्ववानरयूथपैः।
वधयिष्यति दैत्यौघान् रावणं च हनिष्यति॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीव स्वयं जाकर उन सब वानर-यूथपतियोंके द्वारा दैत्यदलका संहार करावेगा और स्वयं रावणका वध करेगा॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयैव सहितोऽद्यैव गन्ता वानरपुङ्गवः।
पश्यान्तर्भवनं तत्र पुत्रदारसुहृद्‍वृतम्॥ ४८॥

मूलम्

त्वयैव सहितोऽद्यैव गन्ता वानरपुङ्गवः।
पश्यान्तर्भवनं तत्र पुत्रदारसुहृद्‍वृतम्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कपिश्रेष्ठ आज ही आपके साथ श्रीरघुनाथजीकी सेवामें उपस्थित होगा। चलिये, अन्तःपुरमें पधारिये। वहाँ सुग्रीव अपने पुत्र, स्त्री और सुहृद्‍गणसे घिरा हुआ बैठा है। उससे मिलकर उसे अभयदान दीजिये और अपने साथ ही श्रीरामचन्द्रजीके पास ले जाइये’’॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा सुग्रीवमभयं दत्त्वा नय सहैव ते।
ताराया वचनं श्रुत्वा कृशक्रोधोऽथ लक्ष्मणः॥ ४९॥
जगामान्तःपुरं यत्र सुग्रीवो वानरेश्वरः।
रुमामालिङ्‍ग्य सुग्रीवः पर्यङ्के पर्यवस्थितः॥ ५०॥

मूलम्

दृष्ट्वा सुग्रीवमभयं दत्त्वा नय सहैव ते।
ताराया वचनं श्रुत्वा कृशक्रोधोऽथ लक्ष्मणः॥ ४९॥
जगामान्तःपुरं यत्र सुग्रीवो वानरेश्वरः।
रुमामालिङ्‍ग्य सुग्रीवः पर्यङ्के पर्यवस्थितः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ताराका कथन सुनकर लक्ष्मणजीका क्रोध ठंडा पड़ गया और वे अन्तःपुरमें जहाँ वानरराज सुग्रीव थे, गये। सुग्रीव अपनी भार्या रुमाको गले लगाये पलंगपर पड़े थे॥ ४९—५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा लक्ष्मणमत्यर्थमुत्पपातातिभीतवत्।
तं दृष्ट्वा लक्ष्मणः क्रुद्धो मदविह्वलितेक्षणम्॥ ५१॥
सुग्रीवं प्राह दुर्वृत्त विस्मृतोऽसि रघूत्तमम्।
वाली येन हतो वीरः स बाणोऽद्य प्रतीक्षते॥ ५२॥

मूलम्

दृष्ट्वा लक्ष्मणमत्यर्थमुत्पपातातिभीतवत्।
तं दृष्ट्वा लक्ष्मणः क्रुद्धो मदविह्वलितेक्षणम्॥ ५१॥
सुग्रीवं प्राह दुर्वृत्त विस्मृतोऽसि रघूत्तमम्।
वाली येन हतो वीरः स बाणोऽद्य प्रतीक्षते॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीको देखते ही वे अत्यन्त भयभीतके समान उछलकर खड़े हो गये। उनके नेत्र मदसे विह्वल हो रहे थे। उन्हें ऐसी दशामें देखकर श्रीलक्ष्मणजीने अति क्रोधित होकर कहा—‘‘अरे दुःशील! तू रघुनाथजीको भूल गया? (तू नहीं जानता—) जिस बाणके द्वारा वीरवर वाली मारा गया था वही आज तेरी प्रतीक्षा कर रहा है। मालूम होता है, मेरे हाथसे मारा जाकर तू भी वालीके मार्गसे ही जाना चाहता है’’॥ ५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव वालिनो मार्गं गमिष्यसि मया हतः।
एवमत्यन्तपरुषं वदन्तं लक्ष्मणं तदा॥ ५३॥
उवाच हनुमान् वीरः कथमेवं प्रभाषसे।
त्वत्तोऽधिकतरो रामे भक्तोऽयं वानराधिपः॥ ५४॥

मूलम्

त्वमेव वालिनो मार्गं गमिष्यसि मया हतः।
एवमत्यन्तपरुषं वदन्तं लक्ष्मणं तदा॥ ५३॥
उवाच हनुमान् वीरः कथमेवं प्रभाषसे।
त्वत्तोऽधिकतरो रामे भक्तोऽयं वानराधिपः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीको इस प्रकार अति कठोर भाषण करते देख वीरवर हनुमान् जी बोले—‘‘महाराज! ऐसी बातें क्यों कहते हैं? ये वानरराज श्रीरामचन्द्रजीके आपसे भी अधिक भक्त हैं॥ ५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामकार्यार्थमनिशं जागर्ति न तु विस्मृतः।
आगताः परितः पश्य वानराः कोटिशः प्रभो॥ ५५॥

मूलम्

रामकार्यार्थमनिशं जागर्ति न तु विस्मृतः।
आगताः परितः पश्य वानराः कोटिशः प्रभो॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामके कार्यके लिये ये रात-दिन जागते रहते हैं। ये उसे भूल नहीं गये हैं। प्रभो! देखिये, ये करोड़ों वानर इसीलिये सब ओरसे आ रहे हैं॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गमिष्यन्त्यचिरेणैव सीतायाः परिमार्गणम्।
साधयिष्यति सुग्रीवो रामकार्यमशेषतः॥ ५६॥

मूलम्

गमिष्यन्त्यचिरेणैव सीतायाः परिमार्गणम्।
साधयिष्यति सुग्रीवो रामकार्यमशेषतः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सब शीघ्र ही सीताजीकी खोजके लिये जायँगे और महाराज सुग्रीव रामचन्द्रजीका सब कार्य भली प्रकार सिद्ध करेंगे’’॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं सौमित्रिर्लज्जितोऽभवत्।
सुग्रीवोऽप्यर्घ्यपाद्याद्यैर्लक्ष्मणं समपूजयत्॥ ५७॥

मूलम्

श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं सौमित्रिर्लज्जितोऽभवत्।
सुग्रीवोऽप्यर्घ्यपाद्याद्यैर्लक्ष्मणं समपूजयत्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी के ये वचन सुनकर लक्ष्मणजी लज्जित हो गये। तदनन्तर सुग्रीवने अर्घ्य और पाद्य आदिसे लक्ष्मणजीकी भली प्रकार पूजा की॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलिङ्‍ग्य प्राह रामस्य दासोऽहं तेन रक्षितः।
रामः स्वतेजसा लोकान् क्षणार्द्धेनैव जेष्यति॥ ५८॥

मूलम्

आलिङ्‍ग्य प्राह रामस्य दासोऽहं तेन रक्षितः।
रामः स्वतेजसा लोकान् क्षणार्द्धेनैव जेष्यति॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा उनसे गले मिलकर कहा—‘‘श्रीमन्! मैं तो रामका दास हूँ, उन्हींने मेरी रक्षा की है; वे अपने तेजसे आधे क्षणमें ही सम्पूर्ण लोकोंको जीत सकते हैं॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहायमात्रमेवाहं वानरैः सहितः प्रभो।
सौमित्रिरपि सुग्रीवं प्राह किञ्चिन्मयोदितम्॥ ५९॥
तत्क्षमस्व महाभाग प्रणयाद्भाषितं मया।
गच्छामोऽद्यैव सुग्रीव रामस्तिष्ठति कानने॥ ६०॥
एक एवातिदुःखार्त्तो जानकीविरहात्प्रभुः।
तथेति रथमारुह्य लक्ष्मणेन समन्वितः॥ ६१॥
वानरैः सहितो राजा राममेवान्वपद्यत॥ ६२॥

मूलम्

सहायमात्रमेवाहं वानरैः सहितः प्रभो।
सौमित्रिरपि सुग्रीवं प्राह किञ्चिन्मयोदितम्॥ ५९॥
तत्क्षमस्व महाभाग प्रणयाद्भाषितं मया।
गच्छामोऽद्यैव सुग्रीव रामस्तिष्ठति कानने॥ ६०॥
एक एवातिदुःखार्त्तो जानकीविरहात्प्रभुः।
तथेति रथमारुह्य लक्ष्मणेन समन्वितः॥ ६१॥
वानरैः सहितो राजा राममेवान्वपद्यत॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मैं तो अपनी वानर-सेनाके साथ केवल उनका सहायकमात्र हूँगा (मुझसे भला उनका क्या कार्य सिद्ध होगा, वे तो स्वयं ही सर्वसमर्थ हैं)।’’ तब लक्ष्मणजीने भी सुग्रीवसे कहा—‘‘हे महाभाग! मैंने भी प्रणय-कोपवश आपसे जो कुछ अनुचित कहा है वह क्षमा करें। भगवान् राम वनमें अकेले ही हैं और वे श्रीजानकीजीके विरहसे अति व्याकुल हैं, अतः हम आज ही वहाँ चलेंगे।’’ तब वानरराज सुग्रीव ‘हाँ ठीक है’ ऐसा कहकर लक्ष्मणजीके सहित रथमें चढ़े और वानरोंके साथ श्रीरामचन्द्रजीके पास चले॥ ५९—६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेरीमृदङ्गैर्बहुऋक्षवानरैः
श्वेतातपत्रैर्व्यजनैश्च शोभितः।
नीलाङ्गदाद्यैर्हनुमत्प्रधानैः
समावृतो राघवमभ्यगाद्धरिः॥ ६३॥

मूलम्

भेरीमृदङ्गैर्बहुऋक्षवानरैः
श्वेतातपत्रैर्व्यजनैश्च शोभितः।
नीलाङ्गदाद्यैर्हनुमत्प्रधानैः
समावृतो राघवमभ्यगाद्धरिः॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय (उनकी सवारीकी अपूर्व शोभा थी—) भेरी और मृदंग आदि नाना प्रकारके बाजे बज रहे थे तथा बहुत-से रीछ, वानर श्वेत छत्र और चँवर लिये उन्हें अत्यन्त सुशोभित कर रहे थे। इस प्रकार वानरराज सुग्रीव बड़े ठाट-बाटसे नील, अंगद और हनूमान् आदि मुख्य-मुख्य वानरोंके साथ श्रीरघुनाथजीके पास चले॥ ६३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥ ५॥