[चतुर्थ सर्ग]
भागसूचना
भगवान् रामका लक्ष्मणजीसे क्रियायोगका वर्णन करना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र वार्षिकदिनानि राघवो
लीलया मणिगुहासु सञ्चरन्।
पक्वमूलफलभोगतोषितो
लक्ष्मणेन सहितोऽवसत्सुखम्॥ १॥
मूलम्
तत्र वार्षिकदिनानि राघवो
लीलया मणिगुहासु सञ्चरन्।
पक्वमूलफलभोगतोषितो
लक्ष्मणेन सहितोऽवसत्सुखम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! वहाँ श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणजीके साथ लीलासे ही मणिमय गुफाओंमें विचरते और पके हुए फल-मूल खाकर निर्वाह करते हुए वर्षाके दिनोंमें आनन्दपूर्वक रहे॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वातनुन्नजलपूरितमेघा-
नन्तरस्तनितवैद्युतगर्भान्।
वीक्ष्य विस्मयमगाद्गजयूथा-
न्यद्वदाहितसुकाञ्चनकक्षान्॥ २॥
मूलम्
वातनुन्नजलपूरितमेघा-
नन्तरस्तनितवैद्युतगर्भान्।
वीक्ष्य विस्मयमगाद्गजयूथा-
न्यद्वदाहितसुकाञ्चनकक्षान्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुसे प्रेरित सजल मेघोंको देखकर, जो अपने भीतर कौंधती हुई बिजलीके कारण सुनहरी झूलोंसे युक्त हाथियोंके झुंडके समान प्रतीत होते थे, उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ करता था॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवघासं समास्वाद्य हृष्टपुष्टमृगद्विजाः।
धावन्तः परितो रामं वीक्ष्य विस्फारितेक्षणाः॥ ३॥
मूलम्
नवघासं समास्वाद्य हृष्टपुष्टमृगद्विजाः।
धावन्तः परितो रामं वीक्ष्य विस्फारितेक्षणाः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
नवीन घासके खानेसे हृष्ट-पुष्ट हुए मृग और पक्षिगण जब कभी इधर-उधर दौड़ते हुए श्रीरामचन्द्रजीको देख लेते तो उनकी ओर टकटकी लगाये रह जाते॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चलन्ति सदाध्याननिष्ठा इव मुनीश्वराः।
रामं मानुषरूपेण गिरिकाननभूमिषु॥ ४॥
चरन्तं परमात्मानं ज्ञात्वा सिद्धगणा भुवि।
मृगपक्षिगणा भूत्वा राममेवानुसेविरे॥ ५॥
मूलम्
न चलन्ति सदाध्याननिष्ठा इव मुनीश्वराः।
रामं मानुषरूपेण गिरिकाननभूमिषु॥ ४॥
चरन्तं परमात्मानं ज्ञात्वा सिद्धगणा भुवि।
मृगपक्षिगणा भूत्वा राममेवानुसेविरे॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और ध्याननिष्ठ मुनीश्वरोंके समान इधर-उधर जाना भूलकर जहाँ-के-तहाँ खड़े रह जाते। इस समय परमात्मा रामको मनुष्यरूपसे पर्वत और वनोंमें विचरते जानकर बहुत-से सिद्धगण पृथ्वीपर मृग और पक्षियोंके रूपसे सदा उन्हींकी सेवामें रहने लगे॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रिरेकदा राममेकान्ते ध्यानतत्परम्।
समाधिविरमे भक्त्या प्रणयाद्विनयान्वितः॥ ६॥
अब्रवीद्देव ते वाक्यात्पूर्वोक्ताद्विगतो मम।
अनाद्यविद्यासम्भूतः संशयो हृदि संस्थितः॥ ७॥
मूलम्
सौमित्रिरेकदा राममेकान्ते ध्यानतत्परम्।
समाधिविरमे भक्त्या प्रणयाद्विनयान्वितः॥ ६॥
अब्रवीद्देव ते वाक्यात्पूर्वोक्ताद्विगतो मम।
अनाद्यविद्यासम्भूतः संशयो हृदि संस्थितः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन एकान्तमें ध्यान करते हुए भगवान् रामसे उनकी समाधि खुलनेपर सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मणजीने अति प्रेम और भक्तिसे नम्रतापूर्वक कहा—‘‘भगवन्! आपने मुझे जो उपदेश पहले दिया था उसे मेरे हृदयका अनादि अविद्याजन्य सन्देह तो दूर हो गया है॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं श्रोतुमिच्छामि क्रियामार्गेण राघव।
भवदाराधनं लोके यथा कुर्वन्ति योगिनः॥ ८॥
मूलम्
इदानीं श्रोतुमिच्छामि क्रियामार्गेण राघव।
भवदाराधनं लोके यथा कुर्वन्ति योगिनः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु हे राघव! योगिजन क्रियामार्ग (पूजा-पद्धति)-से जिस प्रकार संसारमें आपकी आराधना किया करते हैं, इस समय मैं उसे सुनना चाहता हूँ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमेव सदा प्राहुर्योगिनो मुक्तिसाधनम्।
नारदोऽपि तथा व्यासो ब्रह्मा कमलसम्भवः॥ ९॥
मूलम्
इदमेव सदा प्राहुर्योगिनो मुक्तिसाधनम्।
नारदोऽपि तथा व्यासो ब्रह्मा कमलसम्भवः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त योगिजन एवं देवर्षि नारद, महर्षि व्यास और कमलयोनि श्रीब्रह्माजी भी इसीको मुक्तिका साधन बतलाते हैं॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मक्षत्रादिवर्णानामाश्रमाणां च मोक्षदम्।
स्त्रीशूद्राणां च राजेन्द्र सुलभं मुक्तिसाधनम्।
तव भक्ताय मे भ्रात्रे ब्रूहि लोकोपकारकम्॥ १०॥
मूलम्
ब्रह्मक्षत्रादिवर्णानामाश्रमाणां च मोक्षदम्।
स्त्रीशूद्राणां च राजेन्द्र सुलभं मुक्तिसाधनम्।
तव भक्ताय मे भ्रात्रे ब्रूहि लोकोपकारकम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजराजेश्वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य आदि आश्रमोंको मोक्ष देनेवाला यही साधन है और स्त्री तथा शूद्रोंकी भी इसी साधनसे सुगमतासे मुक्ति हो सकती है। हे प्रभो! मैं आपका भक्त और भाई हूँ; अतः आप मुझसे इस लोकोपकारी साधनका वर्णन कीजिये’’॥ १०॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम पूजाविधानस्य नान्तोऽस्ति रघुनन्दन।
तथापि वक्ष्ये सङ्क्षेपाद्यथावदनुपूर्वशः॥ ११॥
मूलम्
मम पूजाविधानस्य नान्तोऽस्ति रघुनन्दन।
तथापि वक्ष्ये सङ्क्षेपाद्यथावदनुपूर्वशः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—हे रघुकुलनन्दन लक्ष्मण! मेरी पूजा-विधिका कोई अन्त नहीं है तथापि मैं क्रमशः उसका संक्षेपमें यथावत् वर्णन करता हूँ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वगृह्योक्तप्रकारेण द्विजत्वं प्राप्य मानवः।
सकाशात्सद्गुरोर्मन्त्रं लब्ध्वा मद्भक्तिसंयुतः॥ १२॥
मूलम्
स्वगृह्योक्तप्रकारेण द्विजत्वं प्राप्य मानवः।
सकाशात्सद्गुरोर्मन्त्रं लब्ध्वा मद्भक्तिसंयुतः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी भक्तिसे सम्पन्न मनुष्य अपनी शाखाके गृह्यसूत्रद्वारा बतलाये गये प्रकारसे (उपनयन-संस्कारके अनन्तर) द्विजत्व प्राप्त कर भक्तिपूर्वक सद्गुरुके पास जाय और उनसे मन्त्र ग्रहण करे॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन सन्दर्शितविधिर्मामेवाराधयेत्सुधीः।
हृदये वानले वार्चेत्प्रतिमादौ विभावसौ॥ १३॥
मूलम्
तेन सन्दर्शितविधिर्मामेवाराधयेत्सुधीः।
हृदये वानले वार्चेत्प्रतिमादौ विभावसौ॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि उन गुरुदेवकी बतायी हुई विधिसे अपने हृदयमें, अग्निमें, प्रतिमा आदिमें अथवा सूर्यमें केवल मेरी ही सेवा-पूजा करे॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शालग्रामशिलायां वा पूजयेन्मामतन्द्रितः।
प्रातःस्नानं प्रकुर्वीत प्रथमं देहशुद्धये॥ १४॥
वेदतन्त्रोदितैर्मन्त्रैर्मृल्लेपनविधानतः।
सन्ध्यादि कर्म यन्नित्यं तत्कुर्याद्विधिना बुधः॥ १५॥
मूलम्
शालग्रामशिलायां वा पूजयेन्मामतन्द्रितः।
प्रातःस्नानं प्रकुर्वीत प्रथमं देहशुद्धये॥ १४॥
वेदतन्त्रोदितैर्मन्त्रैर्मृल्लेपनविधानतः।
सन्ध्यादि कर्म यन्नित्यं तत्कुर्याद्विधिना बुधः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा सावधान होकर शालग्राम-शिलामें ही मेरी उपासना करे। बुद्धिमान् उपासकको चाहिये कि सबसे पहले देह-शुद्धिके लिये प्रातःकाल ही वैदिक तथा तान्त्रिक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए शरीरमें विधिवत् मृत्तिका आदि लगाकर स्नान करे और फिर नियमानुसार सन्ध्या आदि नित्यकर्म करे॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्कल्पमादौ कुर्वीत सिद्ध्यर्थं कर्मणां सुधीः।
स्वगुरुं पूजयेद्भक्त्या मद्बुद्ध्या पूजको मम॥ १६॥
मूलम्
सङ्कल्पमादौ कुर्वीत सिद्ध्यर्थं कर्मणां सुधीः।
स्वगुरुं पूजयेद्भक्त्या मद्बुद्ध्या पूजको मम॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी पूजा करनेवाला मतिमान् पुरुष कर्मोंकी सिद्धिके लिये पहले संकल्प करे और फिर अपने गुरुदेवमें मेरी ही भावना रखकर उनकी पूजा करे॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिलायां स्नपनं कुर्यात्प्रतिमासु प्रमार्जनम्।
प्रसिद्धैर्गन्धपुष्पाद्यैर्मत्पूजा सिद्धिदायिका॥ १७॥
मूलम्
शिलायां स्नपनं कुर्यात्प्रतिमासु प्रमार्जनम्।
प्रसिद्धैर्गन्धपुष्पाद्यैर्मत्पूजा सिद्धिदायिका॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी मूर्ति यदि शिलारूप हो तो स्नान करावे और यदि प्रतिमाकार हो तो केवल मार्जन ही करे। फिर प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गन्ध और पुष्प आदिसे पूजा करे। इस प्रकार की हुई मेरी पूजा शीघ्र ही फल देनेवाली होती है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमायिकोऽनुवृत्त्या मां पूजयेन्नियतव्रतः।
प्रतिमादिष्वलङ्कारः प्रियो मे कुलनन्दन॥ १८॥
अग्नौ यजेत हविषा भास्करे स्थण्डिले यजेत्।
भक्तेनोपहृतं प्रीत्यै श्रद्धया मम वार्यपि॥ १९॥
मूलम्
अमायिकोऽनुवृत्त्या मां पूजयेन्नियतव्रतः।
प्रतिमादिष्वलङ्कारः प्रियो मे कुलनन्दन॥ १८॥
अग्नौ यजेत हविषा भास्करे स्थण्डिले यजेत्।
भक्तेनोपहृतं प्रीत्यै श्रद्धया मम वार्यपि॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि अग्निमें पूजा करनी हो तो आहुतिद्वारा करे और यदि सूर्यमें करनी हो तो वेदीमें सूर्यका आकार बनाकर करे। भक्तके द्वारा श्रद्धापूर्वक निवेदन किया हुआ जल भी मेरी प्रसन्नताका कारण होता है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं पुनर्भक्ष्यभोज्यादि गन्धपुष्पाक्षतादिकम्।
पूजाद्रव्याणि सर्वाणि सम्पाद्यैवं समारभेत्॥ २०॥
मूलम्
किं पुनर्भक्ष्यभोज्यादि गन्धपुष्पाक्षतादिकम्।
पूजाद्रव्याणि सर्वाणि सम्पाद्यैवं समारभेत्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थ और गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि पूजा-सामग्रीकी तो बात ही क्या है? अतः पहले पूजाकी सब सामग्री इकट्ठी कर फिर मेरी पूजा आरम्भ करे॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चैलाजिनकुशैः सम्यगासनं परिकल्पयेत्।
तत्रोपविश्य देवस्य सम्मुखे शुद्धमानसः॥ २१॥
मूलम्
चैलाजिनकुशैः सम्यगासनं परिकल्पयेत्।
तत्रोपविश्य देवस्य सम्मुखे शुद्धमानसः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अब जिस प्रकार पूजा करनी चाहिये वह बतलाता हूँ—) पहले क्रमशः कुशा, मृगचर्म और वस्त्र बिछाकर आसन बनावे तथा उसपर शुद्धचित्तसे इष्टदेवके सम्मुख बैठे॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो न्यासं प्रकुर्वीत मातृकाबहिरान्तरम्।
केशवादि ततः कुर्यात्तत्त्वन्यासं ततः परम्॥ २२॥
मन्मूर्तिपञ्जरन्यासं मन्त्रन्यासं ततो न्यसेत्।
प्रतिमादावपि तथा कुर्यान्नित्यमतन्द्रितः॥ २३॥
मूलम्
ततो न्यासं प्रकुर्वीत मातृकाबहिरान्तरम्।
केशवादि ततः कुर्यात्तत्त्वन्यासं ततः परम्॥ २२॥
मन्मूर्तिपञ्जरन्यासं मन्त्रन्यासं ततो न्यसेत्।
प्रतिमादावपि तथा कुर्यान्नित्यमतन्द्रितः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर बहिर्मातृका और अन्तर्मातृका न्यास करे तथा केशव, नारायण आदि चौबीस नामोंका न्यास करके तत्त्वन्यास करे। उसके पश्चात् [विष्णुपंजरोक्त विधिसे] मेरी मूर्तिमें पंजरन्यास तथा मन्त्रन्यास करे। मेरी प्रतिमा आदिमें भी निरालस्य-भावसे उसी प्रकार न्यास करना चाहिये॥ २२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलशं स्वपुरो वामे क्षिपेत्पुष्पादि दक्षिणे।
अर्घ्यपाद्यप्रदानार्थं मधुपर्कार्थमेव च॥ २४॥
तथैवाचमनार्थं तु न्यसेत्पात्रचतुष्टयम्।
हृत्पद्मे भानुविमले मत्कलां जीवसंज्ञिताम्॥ २५॥
ध्यायेत्स्वदेहमखिलं तया व्याप्तमरिन्दम।
तामेवावाहयेन्नित्यं प्रतिमादिषु मत्कलाम्॥ २६॥
मूलम्
कलशं स्वपुरो वामे क्षिपेत्पुष्पादि दक्षिणे।
अर्घ्यपाद्यप्रदानार्थं मधुपर्कार्थमेव च॥ २४॥
तथैवाचमनार्थं तु न्यसेत्पात्रचतुष्टयम्।
हृत्पद्मे भानुविमले मत्कलां जीवसंज्ञिताम्॥ २५॥
ध्यायेत्स्वदेहमखिलं तया व्याप्तमरिन्दम।
तामेवावाहयेन्नित्यं प्रतिमादिषु मत्कलाम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अपने सामने बायीं ओर कलश और दायीं ओर पुष्प आदि सामग्री रखे, उसी तरह अर्घ्य, पाद्य, मधुपर्क और आचमनके लिये चार पात्र रखे। तत्पश्चात् अपने सूर्यके समान तेजस्वी हृदय-कमलमें जीवनाम्नी मेरी कलाका ध्यान करे और हे शत्रुदमन! अपने सम्पूर्ण शरीरको उससे व्याप्त देखे तथा प्रतिमा आदिका पूजन करते समय भी उन [प्रतिमा आदि]-में उस जीवकलाका ही आवाहन करे॥ २४—२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवस्त्रविभूषणैः।
यावच्छक्योपचारैर्वा त्वर्चयेन्माममायया॥ २७॥
मूलम्
पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवस्त्रविभूषणैः।
यावच्छक्योपचारैर्वा त्वर्चयेन्माममायया॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण आदिसे अथवा जो कुछ सामग्री मिल सके, उसीसे निष्कपट होकर मेरी पूजा करे॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभवे सति कर्पूरकुङ्कुमागरुचन्दनैः।
अर्चयेन्मन्त्रवन्नित्यं सुगन्धकुसुमैः शुभैः॥ २८॥
मूलम्
विभवे सति कर्पूरकुङ्कुमागरुचन्दनैः।
अर्चयेन्मन्त्रवन्नित्यं सुगन्धकुसुमैः शुभैः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि धनवान् हो तो नित्यप्रति कर्पूर, कुंकुम, अगरु, चन्दन और अत्युत्तम सुगन्धित पुष्पोंसे मन्त्रोच्चारण करता हुआ मेरी पूजा करे॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशावरणपूजां वै ह्यागमोक्तां प्रकारयेत्।
नीराजनैर्धूपदीपैर्नैवेद्यैर्बहुविस्तरैः॥ २९॥
मूलम्
दशावरणपूजां वै ह्यागमोक्तां प्रकारयेत्।
नीराजनैर्धूपदीपैर्नैवेद्यैर्बहुविस्तरैः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा नीराजन (पाँच बत्तियोंकी आरती), धूप, दीप और नाना प्रकारके नैवेद्योंद्वारा वेदोक्त दशावरण-पूजा-विधिसे मेरा अर्चन करे॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धयोपहरेन्नित्यं श्रद्धाभुगहमीश्वरः।
होमं कुर्यात्प्रयत्नेन विधिना मन्त्रकोविदः॥ ३०॥
मूलम्
श्रद्धयोपहरेन्नित्यं श्रद्धाभुगहमीश्वरः।
होमं कुर्यात्प्रयत्नेन विधिना मन्त्रकोविदः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्यप्रति अति श्रद्धाके साथ सब पदार्थ निवेदन करे; क्योंकि मैं परमात्मा श्रद्धाका ही भूखा हूँ। मन्त्रविधिको जाननेवाला उपासक पूजाके अनन्तर विधिपूर्वक हवन करे॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगस्त्येनोक्तमार्गेण कुण्डेनागमवित्तमः।
जुहुयान्मूलमन्त्रेण पुंसूक्तेनाथवा बुधः॥ ३१॥
मूलम्
अगस्त्येनोक्तमार्गेण कुण्डेनागमवित्तमः।
जुहुयान्मूलमन्त्रेण पुंसूक्तेनाथवा बुधः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रविधिके जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि अगस्त्य मुनिकी बतायी हुई विधिसे कुण्ड बनाकर उसमें गुरुके दिये हुए मूलमन्त्रसे अथवा पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे आहुति छोड़े॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवौपासनाग्नौ वा चरुणा हविषा तथा।
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं दिव्याभरणभूषितम्॥ ३२॥
ध्यायेदनलमध्यस्थं होमकाले सदा बुधः।
पार्षदेभ्यो बलिं दत्त्वा होमशेषं समापयेत्॥ ३३॥
मूलम्
अथवौपासनाग्नौ वा चरुणा हविषा तथा।
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं दिव्याभरणभूषितम्॥ ३२॥
ध्यायेदनलमध्यस्थं होमकाले सदा बुधः।
पार्षदेभ्यो बलिं दत्त्वा होमशेषं समापयेत्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा अग्निहोत्रकी अग्निमें ही चरु तथा हविसे हवन करे। हवन करते समय बुद्धिमान् याजक होमाग्निमें तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले सर्वालंकारविभूषित भगवान् यज्ञपुरुषके रूपमें परमात्माका सदा ध्यान करे और फिर मेरे पार्षदोंके लिये बलि देकर होम समाप्त कर दे॥ ३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जपं प्रकुर्वीत ध्यायेन्मां यतवाक् स्मरन्।
मुखवासं च ताम्बूलं दत्त्वा प्रीतिसमन्वितः॥ ३४॥
मदर्थे नृत्यगीतादि स्तुतिपाठादि कारयेत्।
प्रणमेद्दण्डवद्भूमौ हृदये मां निधाय च॥ ३५॥
मूलम्
ततो जपं प्रकुर्वीत ध्यायेन्मां यतवाक् स्मरन्।
मुखवासं च ताम्बूलं दत्त्वा प्रीतिसमन्वितः॥ ३४॥
मदर्थे नृत्यगीतादि स्तुतिपाठादि कारयेत्।
प्रणमेद्दण्डवद्भूमौ हृदये मां निधाय च॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मौन होकर मेरा ध्यान और स्मरण करता हुआ जप करे। फिर प्रीतिपूर्वक ताम्बूल और मुखवास देकर मेरे लिये नृत्य, गान और स्तुति-पाठ आदि करावे और हृदयमें मेरी मनोहर मूर्तिको धारण कर पृथिवीपर लोटकर साष्टांग दण्डवत् करे॥ ३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरस्याधाय मद्दत्तं प्रसादं भावनामयम्।
पाणिभ्यां मत्पदे मूर्ध्नि गृहीत्वा भक्तिसंयुतः॥ ३६॥
रक्ष मां घोरसंसारादित्युक्त्वा प्रणमेत्सुधीः।
उद्वासयेद्यथापूर्वं प्रत्यग्ज्योतिषि संस्मरन्॥ ३७॥
मूलम्
शिरस्याधाय मद्दत्तं प्रसादं भावनामयम्।
पाणिभ्यां मत्पदे मूर्ध्नि गृहीत्वा भक्तिसंयुतः॥ ३६॥
रक्ष मां घोरसंसारादित्युक्त्वा प्रणमेत्सुधीः।
उद्वासयेद्यथापूर्वं प्रत्यग्ज्योतिषि संस्मरन्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे दिये हुए भावनामय प्रसादको ‘यह भगवत्प्रसाद है’ ऐसी भावनासे सिरपर रखे और भक्तिभावसे विभोर हो मेरे चरणोंको अपने मस्तकपर रखकर और ‘हे प्रभो! इस भयंकर संसारसे मुझे बचाओ’ ऐसा कहकर मुझे प्रणाम करे, उसके बाद बुद्धिमान् उपासकको चाहिये कि प्रतिमामें आवाहन की हुई जीवकलाको ‘वह मुझहीमें प्रवेश कर गयी है’ ऐसी भावना करते हुए विसर्जन करे॥ ३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तप्रकारेण पूजयेद्विधिवद्यदि।
इहामुत्र च संसिद्धिं प्राप्नोति मदनुग्रहात्॥ ३८॥
मूलम्
एवमुक्तप्रकारेण पूजयेद्विधिवद्यदि।
इहामुत्र च संसिद्धिं प्राप्नोति मदनुग्रहात्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष उपर्युक्त प्रकारसे मेरी विधिपूर्वक पूजा करता है, वह मेरी कृपासे इहलोक और परलोक दोनों जगह सिद्धि प्राप्त करता है॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्तो यदि मामेवं पूजां चैव दिने दिने।
करोति मम सारूप्यं प्राप्नोत्येव न संशयः॥ ३९॥
मूलम्
मद्भक्तो यदि मामेवं पूजां चैव दिने दिने।
करोति मम सारूप्यं प्राप्नोत्येव न संशयः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मेरा भक्त इस प्रकार नित्यप्रति पूजा करे तो वह मेरा सारूप्य प्राप्त कर लेता है इसमें संदेह नहीं॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं रहस्यं परमं च पावनं
मयैव साक्षात्कथितं सनातनम्।
पठत्यजस्रं यदि वा शृणोति यः
स सर्वपूजाफलभाङ् न संशयः॥ ४०॥
मूलम्
इदं रहस्यं परमं च पावनं
मयैव साक्षात्कथितं सनातनम्।
पठत्यजस्रं यदि वा शृणोति यः
स सर्वपूजाफलभाङ् न संशयः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अति गोपनीय पूजाविधि परम पवित्र और सनातन है। इसे साक्षात् मैंने ही अपने मुखसे कहा है। जो पुरुष इसे निरन्तर पढ़ता या सुनता है उसे निस्सन्देह सम्पूर्ण पूजाका फल मिलता है॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं परात्मा श्रीरामः क्रियायोगमनुत्तमम्।
पृष्टः प्राह स्वभक्ताय शेषांशाय महात्मने॥ ४१॥
मूलम्
एवं परात्मा श्रीरामः क्रियायोगमनुत्तमम्।
पृष्टः प्राह स्वभक्ताय शेषांशाय महात्मने॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपने अनन्य भक्त शेषावतार महात्मा लक्ष्मणजीके पूछनेपर परमात्मा श्रीरामचन्द्रजीने इस अत्युत्तम क्रियायोगका उन्हें उपदेश किया॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनः प्राकृतवद्रामो मायामालम्ब्य दुःखितः।
हा सीतेति वदन्नैव निद्रां लेभे कथञ्चन॥ ४२॥
मूलम्
पुनः प्राकृतवद्रामो मायामालम्ब्य दुःखितः।
हा सीतेति वदन्नैव निद्रां लेभे कथञ्चन॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर श्रीरामचन्द्रजी अपनी मायाका अवलम्बन कर साधारण पुरुषोंके समान दुःखित-से दिखायी देने लगे। वे ‘हा सीते! हा सीते!’ कहते हुए सारी रात यों ही बिता देते, उन्हें किसी प्रकार नींद न आती॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे तत्र किष्किन्धायां सुबुद्धिमान्।
हनूमान् प्राह सुग्रीवमेकान्ते कपिनायकम्॥ ४३॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे तत्र किष्किन्धायां सुबुद्धिमान्।
हनूमान् प्राह सुग्रीवमेकान्ते कपिनायकम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय किष्किन्धापुरीमें परम बुद्धिमान् हनूमान् जी ने वानरराज सुग्रीवसे एकान्तमें कहा—॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि तवैव हितमुत्तमम्।
रामेण ते कृतः पूर्वमुपकारो ह्यनुत्तमः॥ ४४॥
मूलम्
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि तवैव हितमुत्तमम्।
रामेण ते कृतः पूर्वमुपकारो ह्यनुत्तमः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे राजन्! सुनिये, मैं आपके बड़े हितकी बात कहता हूँ। देखिये, श्रीरामचन्द्रजीने पहले आपका कितना बड़ा उपकार किया है॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतघ्नवत्त्वया नूनं विस्मृतः प्रतिभाति मे।
त्वत्कृते निहतो वाली वीरस्त्रैलोक्यसम्मतः॥ ४५॥
राज्ये प्रतिष्ठितोऽसि त्वं तारां प्राप्तोऽसि दुर्लभाम्।
स रामः पर्वतस्याग्रे भ्रात्रा सह वसन् सुधीः॥ ४६॥
त्वदागमनमेकाग्रमीक्षते कार्यगौरवात्।
त्वं तु वानरभावेन स्त्रीसक्तो नावबुद्ध्यसे॥ ४७॥
मूलम्
कृतघ्नवत्त्वया नूनं विस्मृतः प्रतिभाति मे।
त्वत्कृते निहतो वाली वीरस्त्रैलोक्यसम्मतः॥ ४५॥
राज्ये प्रतिष्ठितोऽसि त्वं तारां प्राप्तोऽसि दुर्लभाम्।
स रामः पर्वतस्याग्रे भ्रात्रा सह वसन् सुधीः॥ ४६॥
त्वदागमनमेकाग्रमीक्षते कार्यगौरवात्।
त्वं तु वानरभावेन स्त्रीसक्तो नावबुद्ध्यसे॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु मुझे मालूम होता है आप कृतघ्नके समान उसे भूल गये हैं। अहो! आपहीके लिये जिन्होंने त्रिलोकमान्य वीरवर वालीको मारा और आपको राज्यपदपर बैठाया तथा (जिनकी कृपासे) आपको परम दुर्लभ तारा मिली वे ही बुद्धिमान् भगवान् राम अपने भाईके साथ पर्वत-शिखरपर रहते हुए अपने भारी कार्यके लिये एकाग्रचित्तसे आपके आनेकी बाट देख रहे हैं। किन्तु आप वानर-स्वभावके अनुसार स्त्री-लम्पट होकर सब कुछ भूल गये॥ ४५—४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोमीति प्रतिज्ञाय सीतायाः परिमार्गणम्।
न करोषि कृतघ्नस्त्वं हन्यसे वालिवद् द्रुतम्॥ ४८॥
मूलम्
करोमीति प्रतिज्ञाय सीतायाः परिमार्गणम्।
न करोषि कृतघ्नस्त्वं हन्यसे वालिवद् द्रुतम्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने सीताजीकी खोजके विषयमें ‘मैं अवश्य करूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके भी अभीतक कुछ नहीं किया। आप बड़े ही कृतघ्न हैं। मालूम होता है वालीके समान आप भी शीघ्र ही कालके गालमें जायँगे’॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमद्वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो भयविह्वलः।
प्रत्युवाच हनूमन्तं सत्यमेव त्वयोदितम्॥ ४९॥
मूलम्
हनूमद्वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो भयविह्वलः।
प्रत्युवाच हनूमन्तं सत्यमेव त्वयोदितम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनूमान् जी के वचन सुनकर सुग्रीव भयसे विह्वल हो गये और बोले—‘‘हनूमान्! तुम ठीक ही कहते हो॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रं कुरु ममाज्ञां त्वं वानराणां तरस्विनाम्।
सहस्राणि दशेदानीं प्रेषयाशु दिशो दश॥ ५०॥
मूलम्
शीघ्रं कुरु ममाज्ञां त्वं वानराणां तरस्विनाम्।
सहस्राणि दशेदानीं प्रेषयाशु दिशो दश॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तुम मेरी आज्ञासे शीघ्र ही दसों दिशाओंमें बड़े शीघ्रगामी दस सहस्र वानर भेजो॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तद्वीपगतान्सर्वान्वानरानानयन्तु ते।
पक्षमध्ये समायान्तु सर्वे वानरपुङ्गवाः॥ ५१॥
मूलम्
सप्तद्वीपगतान्सर्वान्वानरानानयन्तु ते।
पक्षमध्ये समायान्तु सर्वे वानरपुङ्गवाः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सातों द्वीपोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण वानरोंको यहाँ ले आवें और जितने मुख्य-मुख्य वानर हैं वे सब यहाँ एक पक्षके भीतर आ जायँ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये पक्षमतिवर्तन्ते ते वध्या मे न संशयः।
इत्याज्ञाप्य हनूमन्तं सुग्रीवो गृहमाविशत्॥ ५२॥
मूलम्
ये पक्षमतिवर्तन्ते ते वध्या मे न संशयः।
इत्याज्ञाप्य हनूमन्तं सुग्रीवो गृहमाविशत्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कोई एक पक्षतक यहाँ न आयेगा वह निस्सन्देह मेरे हाथों मारा जायगा।’’ हनूमान् जी को इस प्रकार आज्ञा देकर सुग्रीव (फिर) अपने घरमें चले गये॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवाज्ञां पुरस्कृत्य हनूमान् मन्त्रिसत्तमः।
तत्क्षणे प्रेषयामास हरीन् दश दिशः सुधीः॥ ५३॥
मूलम्
सुग्रीवाज्ञां पुरस्कृत्य हनूमान् मन्त्रिसत्तमः।
तत्क्षणे प्रेषयामास हरीन् दश दिशः सुधीः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवकी आज्ञा पा परम बुद्धिमान् मन्त्रिप्रवर श्रीहनूमान् जी ने तत्काल ही बहुत-से वानर दसों दिशाओंमें भेज दिये॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगणितगुणसत्त्वान् वायुवेगप्रचारान्
वनचरगणमुख्यान् पर्वताकाररूपान्।
पवनहितकुमारः प्रेषयामास दूता-
नतिरभसतरात्मा दानमानादितृप्तान्॥ ५४॥
मूलम्
अगणितगुणसत्त्वान् वायुवेगप्रचारान्
वनचरगणमुख्यान् पर्वताकाररूपान्।
पवनहितकुमारः प्रेषयामास दूता-
नतिरभसतरात्मा दानमानादितृप्तान्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अगणित गुण और पराक्रमशाली थे तथा वायुके समान वेगवान् और पर्वतके समान स्थूलकाय थे, उन मुख्य-मुख्य वानर दूतोंको राम-कार्यके लिये अति उतावले पवननन्दन श्रीहनूमान् जी ने दान-मानसे सन्तुष्ट कर सब ओर भेज दिया॥ ५४॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥