०३

[तृतीय सर्ग]

भागसूचना

ताराका विलाप, श्रीरामचन्द्रजीका उसे समझाना तथा सुग्रीवका राजपद प्राप्त करना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहते वालिनि रणे रामेण परमात्मना।
दुद्रुवुर्वानराः सर्वे किष्किन्धां भयविह्वलाः॥ १॥

मूलम्

निहते वालिनि रणे रामेण परमात्मना।
दुद्रुवुर्वानराः सर्वे किष्किन्धां भयविह्वलाः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! परमात्मा रामके द्वारा युद्धमें वालीके मारे जानेपर समस्त वानरगण भयसे व्याकुल होकर किष्किन्धापुरीमें दौड़े गये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तारामूचुर्महाभागे हतो वाली रणाजिरे।
अङ्गदं परिरक्षाद्य मन्त्रिणः परिनोदय॥२॥

मूलम्

तारामूचुर्महाभागे हतो वाली रणाजिरे।
अङ्गदं परिरक्षाद्य मन्त्रिणः परिनोदय॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

और तारासे बोले—‘‘हे महाभागे! वानरराज वाली युद्धक्षेत्रमें मारे गये। अब आप राजकुमार अंगदकी रक्षा कीजिये और मन्त्रियोंको सावधान कर दीजिये॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्द्वारकपाटादीन् बद्‍ध्वा रक्षामहे पुरीम्।
वानराणां तु राजानमङ्गदं कुरु भामिनि॥ ३॥

मूलम्

चतुर्द्वारकपाटादीन् बद्‍ध्वा रक्षामहे पुरीम्।
वानराणां तु राजानमङ्गदं कुरु भामिनि॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भामिनि! हमलोग चारों द्वारोंके किवाड़ आदि लगाकर नगरकी रक्षा करते हैं, आप अंगदको वानरोंका राजा बनाइये॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहतं वालिनं श्रुत्वा तारा शोकविमूर्च्छिता।
अताडयत्स्वपाणिभ्यां शिरो वक्षश्च भूरिशः॥ ४॥

मूलम्

निहतं वालिनं श्रुत्वा तारा शोकविमूर्च्छिता।
अताडयत्स्वपाणिभ्यां शिरो वक्षश्च भूरिशः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वालीको मरा हुआ सुनकर तारा शोकसे मूर्च्छित हो गयी और अपने सिर तथा छातीको बारम्बार हाथोंसे पीटने लगी॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमङ्गदेन राज्येन नगरेण धनेन वा।
इदानीमेव निधनं यास्यामि पतिना सह॥ ५॥

मूलम्

किमङ्गदेन राज्येन नगरेण धनेन वा।
इदानीमेव निधनं यास्यामि पतिना सह॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और बोली—‘‘मुझे अंगद, राज्य, नगर और धन आदिसे क्या काम है, मैं तो अभी अपने पतिदेवके साथ ही प्राण त्याग करूँगी’’॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा त्वरिता तत्र रुदती मुक्तमूर्धजा।
ययौ तारातिशोकार्ता यत्र भर्तृकलेवरम्॥ ६॥

मूलम्

इत्युक्त्वा त्वरिता तत्र रुदती मुक्तमूर्धजा।
ययौ तारातिशोकार्ता यत्र भर्तृकलेवरम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कह वह रोती हुई तुरंत ही वहाँ गयी जहाँ उसके पतिका देह पड़ा हुआ था, उस समय वह अत्यन्त शोकाकुल थी और उसके बाल बिखरे हुए थे॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतितं वालिनं दृष्ट्वा रक्तैः पांसुभिरावृतम्।
रुदती नाथनाथेति पतिता तस्य पादयोः॥ ७॥

मूलम्

पतितं वालिनं दृष्ट्वा रक्तैः पांसुभिरावृतम्।
रुदती नाथनाथेति पतिता तस्य पादयोः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ वालीको रक्त और धूलिसे लथपथ पड़ा देख वह ‘हा नाथ! हा नाथ!’ कहकर रोती हुई उसके पैरोंपर गिर पड़ी॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करुणं विलपन्ती सा ददर्श रघुनन्दनम्।
राम मां जहि बाणेन येन वाली हतस्त्वया॥ ८॥

मूलम्

करुणं विलपन्ती सा ददर्श रघुनन्दनम्।
राम मां जहि बाणेन येन वाली हतस्त्वया॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार करुणक्रन्दन करते हुए उसकी दृष्टि श्रीरघुनाथजीपर पड़ी। (उन्हें देखकर वह बोली—) ‘‘राम! आपने जिस बाणसे वालीको मारा है उसीसे मुझे भी मार डालिये॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छामि पतिसालोक्यं पतिर्मामभिकाङ्क्षते।
स्वर्गेऽपि न सुखं तस्य मां विना रघुनन्दन॥ ९॥

मूलम्

गच्छामि पतिसालोक्यं पतिर्मामभिकाङ्क्षते।
स्वर्गेऽपि न सुखं तस्य मां विना रघुनन्दन॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे मैं तुरंत ही पतिलोकको चली जाऊँ; वे मेरी बाट देख रहे होंगे; क्योंकि हे रघुनन्दन! मेरे बिना उन्हें स्वर्गमें भी चैन नहीं होगा॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्नीवियोगजं दुःखमनुभूतं त्वयानघ।
वालिने मां प्रयच्छाशु पत्नीदानफलं भवेत्॥ १०॥

मूलम्

पत्नीवियोगजं दुःखमनुभूतं त्वयानघ।
वालिने मां प्रयच्छाशु पत्नीदानफलं भवेत्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अनघ! पत्नीके वियोगका दुःख आपने अनुभव किया ही है (अतः आपको उसकी तीव्रताका अनुमान हो ही सकता है।) इसलिये अब आप मुझे वालीके पास पहुँचा दीजिये। इससे आपको स्त्री-दानका फल मिलेगा॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीव त्वं सुखं राज्यं दापितं वालिघातिना।
रामेण रुमया सार्धं भुङ्क्ष्व सापत्नवर्जितम्॥ ११॥

मूलम्

सुग्रीव त्वं सुखं राज्यं दापितं वालिघातिना।
रामेण रुमया सार्धं भुङ्क्ष्व सापत्नवर्जितम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीव! तुम्हें वालीको मारनेवाले रामने राज्य दिला ही दिया है। अब उस निष्कण्टक राज्यको तुम रुमाके साथ सुखपूर्वक भोगो’’॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं विलपन्तीं तां तारां रामो महामनाः।
सान्त्वयामास दयया तत्त्वज्ञानोपदेशतः॥ १२॥

मूलम्

इत्येवं विलपन्तीं तां तारां रामो महामनाः।
सान्त्वयामास दयया तत्त्वज्ञानोपदेशतः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विलाप करती हुई उस ताराको महामना रामने दयापूर्वक तत्त्वज्ञानका उपदेश देकर शान्त किया॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं भीरु शोचसि व्यर्थं शोकस्याविषयं पतिम्।
पतिस्तवायं देहो वा जीवो वा वद तत्त्वतः॥ १३॥
पञ्चात्मको जडो देहस्त्वङ्मांसरुधिरास्थिमान्।
कालकर्मगुणोत्पन्नः सोऽप्यास्तेऽद्यापि ते पुरः॥ १४॥

मूलम्

किं भीरु शोचसि व्यर्थं शोकस्याविषयं पतिम्।
पतिस्तवायं देहो वा जीवो वा वद तत्त्वतः॥ १३॥
पञ्चात्मको जडो देहस्त्वङ्मांसरुधिरास्थिमान्।
कालकर्मगुणोत्पन्नः सोऽप्यास्तेऽद्यापि ते पुरः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले—‘‘अयि भीरु! तेरा पति शोक करनेयोग्य नहीं है, तू उसके लिये व्यर्थ क्यों शोक करती है? तू विचारकर ठीक-ठीक बता वास्तवमें तेरा पति यह देह है या इसमें रहनेवाला जीव? (यदि यह देह ही तेरा पति है तो) यह तो जड़ पंचभूतमय एवं त्वचा, मांस, रुधिर और अस्थियोंसे बना हुआ है तथा काल, कर्म और गुणोंसे उत्पन्न हुआ है और वह तो अब भी तेरे सामने पड़ा है (फिर उसके लिये शोक क्यों करती है?)॥ १३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्यसे जीवमात्मानं जीवस्तर्हि निरामयः।
न जायते न म्रियते न तिष्ठति न गच्छति॥ १५॥

मूलम्

मन्यसे जीवमात्मानं जीवस्तर्हि निरामयः।
न जायते न म्रियते न तिष्ठति न गच्छति॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यदि तू जीवको अपना पति मानती है तो भी तुझे शोक न करना चाहिये, क्योंकि वह निर्विकार है। वह न उत्पन्न होता है, न मरता है, न स्थिर रहता है और न आता-जाता है॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्त्री पुमान् वा षण्ढो वा जीवः सर्वगतोऽव्ययः।
एक एवाद्वितीयोऽयमाकाशवदलेपकः।
नित्यो ज्ञानमयः शुद्धः स कथं शोकमर्हति॥ १६॥

मूलम्

न स्त्री पुमान् वा षण्ढो वा जीवः सर्वगतोऽव्ययः।
एक एवाद्वितीयोऽयमाकाशवदलेपकः।
नित्यो ज्ञानमयः शुद्धः स कथं शोकमर्हति॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव सर्वव्यापी और अव्यय है, वह स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक कुछ भी नहीं है बल्कि एक अद्वितीय, आकाशके समान निर्लेप, नित्य, ज्ञानमय और शुद्ध है; फिर वह शोचनीय कैसे हो सकता है?’’॥ १६॥

मूलम् (वचनम्)

तारोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहोऽचित्काष्ठवद्‍राम जीवो नित्यश्चिदात्मकः।
सुखदुःखादिसम्बन्धः कस्य स्याद्‍राम मे वद॥ १७॥

मूलम्

देहोऽचित्काष्ठवद्‍राम जीवो नित्यश्चिदात्मकः।
सुखदुःखादिसम्बन्धः कस्य स्याद्‍राम मे वद॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तारा बोली—हे राम! देह तो काष्ठके समान जड है और जीव नित्य तथा चैतन्यस्वरूप है, (उसका नाश हो नहीं सकता) फिर सुख-दुःखादिका सम्बन्ध किससे होता है, यह मुझे बतलाइये॥ १७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीराम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहङ्कारादिसम्बन्धो यावद्देहेन्द्रियैः सह।
संसारस्तावदेव स्यादात्मनस्त्वविवेकिनः॥ १८॥

मूलम्

अहङ्कारादिसम्बन्धो यावद्देहेन्द्रियैः सह।
संसारस्तावदेव स्यादात्मनस्त्वविवेकिनः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी बोले—जबतक देह और इन्द्रियोंके साथ ‘मैं’-‘मेरापन’ आदिका सम्बन्ध रहता है, तबतक आत्मा और अनात्माके विवेकसे रहित जीवका सुख-दुःखादिके भोगरूप संसारसे सम्बन्ध रहता है॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथ्यारोपितसंसारो न स्वयं विनिवर्तते।
विषयान्ध्यायमानस्य स्वप्ने मिथ्यागमो यथा॥ १९॥

मूलम्

मिथ्यारोपितसंसारो न स्वयं विनिवर्तते।
विषयान्ध्यायमानस्य स्वप्ने मिथ्यागमो यथा॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह संसार आत्मामें मिथ्या ही आरोपित हुआ है तथापि ज्ञानोदयके बिना यह अपने-आप निवृत्त नहीं होता? जिस प्रकार विषयोंका निरन्तर ध्यान करनेवाले पुरुषको स्वप्नमें अनेक पदार्थ दीखते हैं, परन्तु वे होते मिथ्या ही हैं॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाद्यविद्यासम्बन्धात्तत्कार्याहङ्कृतेस्तथा।
संसारोऽपार्थकोऽपि स्याद्‍रागद्वेषादिसङ्कुलः॥ २०॥

मूलम्

अनाद्यविद्यासम्बन्धात्तत्कार्याहङ्कृतेस्तथा।
संसारोऽपार्थकोऽपि स्याद्‍रागद्वेषादिसङ्कुलः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनादि अविद्या और उसके कार्य अहंकारके सम्बन्धसे स्थित हुआ यह संसार निरर्थक (अत्यन्त मिथ्या) होते हुए भी राग-द्वेष आदिसे पूर्ण है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन एव हि संसारो बन्धश्चैव मनः शुभे।
आत्मा मनः समानत्वमेत्य तद्‍गतबन्धभाक्॥ २१॥

मूलम्

मन एव हि संसारो बन्धश्चैव मनः शुभे।
आत्मा मनः समानत्वमेत्य तद्‍गतबन्धभाक्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे शुभे! मन ही संसार है और मन ही बन्धन है। उस अनात्म वस्तु मनके साथ (अन्योन्याध्याससे) एक हो जानेसे ही यह आत्मा तद्‍गत सुख-दुःखादिके बन्धनमें पड़ता है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा विशुद्धः स्फटिकोऽलक्तकादिसमीपगः।
तत्तद्वर्णयुगाभाति वस्तुतो नास्ति रञ्जनम्॥ २२॥

मूलम्

यथा विशुद्धः स्फटिकोऽलक्तकादिसमीपगः।
तत्तद्वर्णयुगाभाति वस्तुतो नास्ति रञ्जनम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्फटिकमणि स्वभावसे शुक्लवर्ण होनेपर भी लाख आदिके समीप होनेपर उसीके रंगकी मालूम होने लगती है, परन्तु वास्तवमें उसमें वह रंग नहीं होता॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धीन्द्रियादिसामीप्यादात्मनः संसृतिर्बलात्।
आत्मा स्वलिङ्गं तु मनः परिगृह्य तदुद्भवान्॥ २३॥
कामान् जुषन् गुणैर्बद्धः संसारे वर्ततेऽवशः।
आदौ मनोगुणान् सृष्ट्वा ततः कर्माण्यनेकधा॥ २४॥
शुक्ललोहितकृष्णानि गतयस्तत्समानतः।
एवं कर्मवशाज्जीवो भ्रमत्याभूतसम्प्लवम्॥ २५॥

मूलम्

बुद्धीन्द्रियादिसामीप्यादात्मनः संसृतिर्बलात्।
आत्मा स्वलिङ्गं तु मनः परिगृह्य तदुद्भवान्॥ २३॥
कामान् जुषन् गुणैर्बद्धः संसारे वर्ततेऽवशः।
आदौ मनोगुणान् सृष्ट्वा ततः कर्माण्यनेकधा॥ २४॥
शुक्ललोहितकृष्णानि गतयस्तत्समानतः।
एवं कर्मवशाज्जीवो भ्रमत्याभूतसम्प्लवम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैसे ही बुद्धि और इन्द्रिय आदिकी सन्निधिसे आत्माको बलात् संसारकी प्रतीति होती है। आत्मा, अपने लिंग (पहचाननेके साधन) मनको स्वीकार कर उससे प्राप्त होनेवाले विषयोंका सेवन करता हुआ उसके राग-द्वेषादि गुणोंमें बँधकर विवश हो संसार-चक्रमें फँसा रहता है। पहले वह राग-द्वेषादि मनके गुणोंकी रचना करता है और फिर (उनके योगसे) नाना प्रकारके कर्म करता है। वे कर्म शुक्ल (जप, ध्यानादि), लोहित (हिंसामय यज्ञ-यागादि) और कृष्ण (मद्यपानादि पापकर्म) तीन प्रकारके होते हैं। उन कर्मोंके अनुसार ही उसकी गतियाँ होती हैं। इस प्रकार यह जीव कर्मोंके वशीभूत होकर प्रलयपर्यन्त आवागमनके चक्रमें पड़ा रहता है॥ २३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वोपसंहृतौ जीवो वासनाभिः स्वकर्मभिः।
अनाद्यविद्यावशगस्तिष्ठत्यभिनिवेशतः॥ २६॥

मूलम्

सर्वोपसंहृतौ जीवो वासनाभिः स्वकर्मभिः।
अनाद्यविद्यावशगस्तिष्ठत्यभिनिवेशतः॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रलयकालमें सब भूतोंका लय हो जानेपर भी अपने कर्ता-भोक्तापनके अभिनिवेशसे यह अपनी वासनाओं और कर्मोंके साथ अनादि अविद्यासे आच्छादित हुआ रहता है॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्टिकाले पुनः पूर्ववासनामानसैः सह।
जायते पुनरप्येवं घटीयन्त्रमिवावशः॥ २७॥

मूलम्

सृष्टिकाले पुनः पूर्ववासनामानसैः सह।
जायते पुनरप्येवं घटीयन्त्रमिवावशः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब नवीन सृष्टि आरम्भ होती है, तब यह विवश होकर अपनी पूर्व वासनाओंसे युक्त मनके सहित घटीयन्त्रके समान फिर उत्पन्न हो जाता है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा पुण्यविशेषेण लभते सङ्गतिं सताम्।
मद्भक्तानां सुशान्तानां तदा मद्विषया मतिः॥ २८॥

मूलम्

यदा पुण्यविशेषेण लभते सङ्गतिं सताम्।
मद्भक्तानां सुशान्तानां तदा मद्विषया मतिः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय किसी विशेष पुण्यपरिपाकसे इसे मेरे भक्त और शान्तचित्त महात्माओंकी संगति मिलती है उस समय इसका चित्त मेरी ओर लगता है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्कथाश्रवणे श्रद्धा दुर्लभा जायते ततः।
ततः स्वरूपविज्ञानमनायासेन जायते॥ २९॥

मूलम्

मत्कथाश्रवणे श्रद्धा दुर्लभा जायते ततः।
ततः स्वरूपविज्ञानमनायासेन जायते॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे मेरी कथा सुननेमें इसकी श्रद्धा होती है, जो बहुत ही दुर्लभ है। मेरी कथा सुननेसे इसको अनायास ही मेरे स्वरूपका ज्ञान हो जाता है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदाचार्यप्रसादेन वाक्यार्थज्ञानतः क्षणात्।
देहेन्द्रियमनःप्राणाहङ्कृतिभ्यः पृथक् स्थितम्॥ ३०॥
स्वात्मानुभवतः सत्यमानन्दात्मानमद्वयम्।
ज्ञात्वा सद्यो भवेन्मुक्तः सत्यमेव मयोदितम्॥ ३१॥

मूलम्

तदाचार्यप्रसादेन वाक्यार्थज्ञानतः क्षणात्।
देहेन्द्रियमनःप्राणाहङ्कृतिभ्यः पृथक् स्थितम्॥ ३०॥
स्वात्मानुभवतः सत्यमानन्दात्मानमद्वयम्।
ज्ञात्वा सद्यो भवेन्मुक्तः सत्यमेव मयोदितम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय गुरु-कृपाद्वारा तत्त्वमसि आदि महावाक्योंके अर्थ-ज्ञानसे तथा स्वयं अपने अनुभवसे भी यह अपने सच्चिदानन्दस्वरूप अद्वितीय आत्माको देह, इन्द्रिय, मन, प्राण और अहंकारादिसे पृथक् जानकर एक क्षणमें ही तुरंत मुक्त हो जाता है। हे तारे! मैंने यह वास्तविक सत्य तुझसे कह दिया॥ ३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं मयोदितं सम्यगालोचयति योऽनिशम्।
तस्य संसारदुःखानि न स्पृशन्ति कदाचन॥ ३२॥

मूलम्

एवं मयोदितं सम्यगालोचयति योऽनिशम्।
तस्य संसारदुःखानि न स्पृशन्ति कदाचन॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे कहे हुए इस परमार्थ ज्ञानका जो अहर्निश मनन करता है, उसे सांसारिक दुःख कभी स्पर्श नहीं करते॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमप्येतन्मया प्रोक्तमालोचय विशुद्धधीः।
न स्पृश्यसे दुःखजालैः कर्मबन्धाद्विमोक्ष्यसे॥ ३३॥

मूलम्

त्वमप्येतन्मया प्रोक्तमालोचय विशुद्धधीः।
न स्पृश्यसे दुःखजालैः कर्मबन्धाद्विमोक्ष्यसे॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू भी शुद्धचित्त होकर मेरे इस उपदेशका मनन कर। ऐसा करनेसे क्लेश-कलाप तुझे छू भी न सकेंगे और तू कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जायगी॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वजन्मनि ते सुभ्रु कृता मद्भक्तिरुत्तमा।
अतस्तव विमोक्षाय रूपं मे दर्शितं शुभे॥ ३४॥

मूलम्

पूर्वजन्मनि ते सुभ्रु कृता मद्भक्तिरुत्तमा।
अतस्तव विमोक्षाय रूपं मे दर्शितं शुभे॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुभ्रु! अपने पूर्वजन्ममें तूने मेरी उत्कृष्ट भक्ति की थी, इसीलिये हे सुन्दरि! तुझे मुक्त करनेके लिये मैंने अपना दर्शन दिया है॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यात्वा मद्‍रूपमनिशमालोचय मयोदितम्।
प्रवाहपतितं कार्यं कुर्वत्यपि न लिप्यसे॥ ३५॥

मूलम्

ध्यात्वा मद्‍रूपमनिशमालोचय मयोदितम्।
प्रवाहपतितं कार्यं कुर्वत्यपि न लिप्यसे॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू रात-दिन मेरे रूपका ध्यान करती हुई मेरे उपदेशका मनन कर। ऐसा करनेसे प्रारब्ध-क्रमसे प्राप्त हुए कर्मोंको करती हुई भी तू उनसे लिप्त न होगी॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरामेणोदितं सर्वं श्रुत्वा तारातिविस्मिता।
देहाभिमानजं शोकं त्यक्त्वा नत्वा रघूत्तमम्॥ ३६॥
आत्मानुभवसन्तुष्टा जीवन्मुक्ता बभूव ह।
क्षणसङ्गममात्रेण रामेण परमात्मना॥ ३७॥
अनादिबन्धं निर्धूय मुक्ता सापि विकल्मषा।
सुग्रीवोऽपि च तच्छ्रुत्वा रामवक्त्रात्समीरितम्॥ ३८॥
जहावज्ञानमखिलं स्वस्थचित्तोऽभवत्तदा।
ततः सुग्रीवमाहेदं रामो वानरपुङ्गवम्॥ ३९॥

मूलम्

श्रीरामेणोदितं सर्वं श्रुत्वा तारातिविस्मिता।
देहाभिमानजं शोकं त्यक्त्वा नत्वा रघूत्तमम्॥ ३६॥
आत्मानुभवसन्तुष्टा जीवन्मुक्ता बभूव ह।
क्षणसङ्गममात्रेण रामेण परमात्मना॥ ३७॥
अनादिबन्धं निर्धूय मुक्ता सापि विकल्मषा।
सुग्रीवोऽपि च तच्छ्रुत्वा रामवक्त्रात्समीरितम्॥ ३८॥
जहावज्ञानमखिलं स्वस्थचित्तोऽभवत्तदा।
ततः सुग्रीवमाहेदं रामो वानरपुङ्गवम्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामका यह अद्भुत उपदेश सुनकर ताराको बड़ा ही विस्मय हुआ और उसने देहाभिमानजनित शोक छोड़कर श्रीरघुनाथजीको प्रणाम किया तथा आत्मानुभवसे सन्तुष्ट होकर वह तत्काल जीवन्मुक्त हो गयी। परमात्मा रामके क्षणमात्रके सत्संगसे वह अनादि अविद्याके बन्धनको काटकर निष्पाप और मुक्त हो गयी। भगवान् के श्रीमुखका वक्तव्य सुनकर सुग्रीवका भी समस्त अज्ञान जाता रहा और वह शान्तचित्त हो गया। तदनन्तर भगवान् ने वानरश्रेष्ठ सुग्रीवसे कहा—॥ ३६—३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुर्ज्येष्ठस्य पुत्रेण यद्युक्तं साम्परायिकम्।
कुरु सर्वं यथान्यायं संस्कारादि ममाज्ञया॥ ४०॥

मूलम्

भ्रातुर्ज्येष्ठस्य पुत्रेण यद्युक्तं साम्परायिकम्।
कुरु सर्वं यथान्यायं संस्कारादि ममाज्ञया॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे सुग्रीव! तुम मेरी आज्ञासे बेटा अंगदके द्वारा अपने बड़े भाईका जो कुछ शास्त्रोक्त और्ध्वदैहिक कर्म हो वह सब विधिपूर्वक करो’’॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति बलिभिर्मुख्यैर्वानरैः परिणीय तम्।
वालिनं पुष्पके क्षिप्त्वा सर्वराजोपचारकैः॥ ४१॥
भेरीदुन्दुभिनिर्घोषैर्ब्राह्मणैर्मन्त्रिभिः सह।
यूथपैर्वानरैः पौरैस्तारया चाङ्गदेन च॥ ४२॥
गत्वा चकार तत्सर्वं यथाशास्त्रं प्रयत्नतः।
स्नात्वा जगाम रामस्य समीपं मन्त्रिभिः सह॥ ४३॥

मूलम्

तथेति बलिभिर्मुख्यैर्वानरैः परिणीय तम्।
वालिनं पुष्पके क्षिप्त्वा सर्वराजोपचारकैः॥ ४१॥
भेरीदुन्दुभिनिर्घोषैर्ब्राह्मणैर्मन्त्रिभिः सह।
यूथपैर्वानरैः पौरैस्तारया चाङ्गदेन च॥ ४२॥
गत्वा चकार तत्सर्वं यथाशास्त्रं प्रयत्नतः।
स्नात्वा जगाम रामस्य समीपं मन्त्रिभिः सह॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ‘जो आज्ञा’ कह मुख्य-मुख्य बलवान् वानरोंके साथ वालीके शवको फूलोंके विमानपर रखकर समस्त राजोचित उपचारोंके सहित भेरी और दुन्दुभि आदिका घोष करते हुए ब्राह्मण, मन्त्रिवर्ग, यूथपति वानरगण, पुरवासी, तारा और अंगदके साथ उसे ले जाकर सुग्रीवने बड़े प्रयत्नसे शास्त्रानुकूल सब संस्कार किये और फिर स्नानादि करके मन्त्रियोंके साथ रामके पास लौट आया॥ ४१—४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नत्वा रामस्य चरणौ सुग्रीवः प्राह हृष्टधीः।
राज्यं प्रशाधि राजेन्द्र वानराणां समृद्धिमत्॥ ४४॥
दासोऽहं ते पादपद्मं सेवे लक्ष्मणवच्चिरम्।
इत्युक्तो राघवः प्राह सुग्रीवं सस्मितं वचः॥ ४५॥

मूलम्

नत्वा रामस्य चरणौ सुग्रीवः प्राह हृष्टधीः।
राज्यं प्रशाधि राजेन्द्र वानराणां समृद्धिमत्॥ ४४॥
दासोऽहं ते पादपद्मं सेवे लक्ष्मणवच्चिरम्।
इत्युक्तो राघवः प्राह सुग्रीवं सस्मितं वचः॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ आकर सुग्रीवने प्रसन्नचित्तसे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रणाम करके कहा—‘‘हे राजराजेश्वर! वानरोंके इस समृद्धिसम्पन्न राज्यका शासन कीजिये। मैं तो आपका दास हूँ; लक्ष्मणके समान मैं भी सदा आपके चरणकमलोंकी सेवा करता रहूँगा’’। यह सुनकर श्रीरघुनाथजीने सुग्रीवसे मुसकराते हुए कहा—॥ ४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेवाहं न सन्देहः शीघ्रं गच्छ ममाज्ञया।
पुरराज्याधिपत्ये त्वं स्वात्मानमभिषेचय॥ ४६॥

मूलम्

त्वमेवाहं न सन्देहः शीघ्रं गच्छ ममाज्ञया।
पुरराज्याधिपत्ये त्वं स्वात्मानमभिषेचय॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘सुग्रीव! मैं और तू एक ही हैं—इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं। मेरी आज्ञासे तुम तुरंत ही जाकर किष्किन्धाके राजपदपर अपना अभिषेक कराओ॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगरं न प्रवेक्ष्यामि चतुर्दश समाः सखे।
आगमिष्यति मे भ्राता लक्ष्मणः पत्तनं तव॥ ४७॥

मूलम्

नगरं न प्रवेक्ष्यामि चतुर्दश समाः सखे।
आगमिष्यति मे भ्राता लक्ष्मणः पत्तनं तव॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सखे! मैं चौदह वर्षतक किसी भी नगरमें प्रवेश नहीं कर सकता; इसलिये तुम्हारे राज्याभिषेकके समय भाई लक्ष्मण तुम्हारे नगरमें आयेगा॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गदं यौवराज्ये त्वमभिषेचय सादरम्।
अहं समीपे शिखरे पर्वतस्य सहानुजः॥ ४८॥
वत्स्यामि वर्षदिवसांस्ततस्त्वं यत्नवान् भव।
किञ्चित्कालं पुरे स्थित्वा सीतायाः परिमागर्णे॥ ४९॥

मूलम्

अङ्गदं यौवराज्ये त्वमभिषेचय सादरम्।
अहं समीपे शिखरे पर्वतस्य सहानुजः॥ ४८॥
वत्स्यामि वर्षदिवसांस्ततस्त्वं यत्नवान् भव।
किञ्चित्कालं पुरे स्थित्वा सीतायाः परिमागर्णे॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदको तुम आदरपूर्वक यौवराज्यपदपर अभिषिक्त करना। अब मैं वर्षाके दिनोंमें भाई लक्ष्मणके साथ यहाँ पास ही पर्वत-शिखरपर रहूँगा, सो तुम कुछ दिन नगरमें रहकर फिर सीताजीकी खोज करानेका प्रयत्न करना॥ ४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साष्टाङ्गं प्रणिपत्याह सुग्रीवो रामपादयोः।
यदाज्ञापयसे देव तत्तथैव करोम्यहम्॥ ५०॥

मूलम्

साष्टाङ्गं प्रणिपत्याह सुग्रीवो रामपादयोः।
यदाज्ञापयसे देव तत्तथैव करोम्यहम्॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें साष्टांग दण्डवत् करके कहा—‘‘भगवन्! आपकी जैसी आज्ञा होगी मैं वही करूँगा’’॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातश्च रामेण सुग्रीवस्तु सलक्ष्मणः।
गत्वा पुरं तथा चक्रे यथा रामेण चोदितः॥ ५१॥

मूलम्

अनुज्ञातश्च रामेण सुग्रीवस्तु सलक्ष्मणः।
गत्वा पुरं तथा चक्रे यथा रामेण चोदितः॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भगवान् रामकी आज्ञा पा सुग्रीव लक्ष्मणजीको साथ लेकर किष्किन्धापुरीमें गये और जैसे-जैसे श्रीरामचन्द्रजीने करनेको कहा था सब कार्य वैसे ही किया॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवेण यथान्यायं पूजितो लक्ष्मणस्तदा।
आगत्य राघवं शीघ्रं प्रणिपत्योपतस्थिवान्॥ ५२॥

मूलम्

सुग्रीवेण यथान्यायं पूजितो लक्ष्मणस्तदा।
आगत्य राघवं शीघ्रं प्रणिपत्योपतस्थिवान्॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सुग्रीवसे यथोचित आदर पा लक्ष्मणजी श्रीरघुनाथजीके पास चले आये और उनके चरणोंमें प्रणाम कर उनकी सेवामें उपस्थित हो गये॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामो जगामाशु लक्ष्मणेन समन्वितः।
प्रवर्षणगिरेरूर्ध्वं शिखरं भूरिविस्तरम्॥ ५३॥

मूलम्

ततो रामो जगामाशु लक्ष्मणेन समन्वितः।
प्रवर्षणगिरेरूर्ध्वं शिखरं भूरिविस्तरम्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजी तत्काल ही लक्ष्मणके साथ प्रवर्षण पर्वतके ऊपर अति विस्तीर्ण शिखरपर गये॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकं गह्वरं दृष्ट्वा स्फाटिकं दीप्तिमच्छुभम्।
वर्षवातातपसहं फलमूलसमीपगम्।
वासाय रोचयामास तत्र रामः सलक्ष्मणः॥ ५४॥

मूलम्

तत्रैकं गह्वरं दृष्ट्वा स्फाटिकं दीप्तिमच्छुभम्।
वर्षवातातपसहं फलमूलसमीपगम्।
वासाय रोचयामास तत्र रामः सलक्ष्मणः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने स्फटिकमणिकी एक स्वच्छ और प्रकाशमान गुफा देखी। उसमें वर्षा, वायु और धूपसे बचनेका सुभीता था तथा पास ही कन्द, मूल और फल भी लगे हुए थे। उसे देखकर श्रीराम और लक्ष्मणने वहीं रहना पसंद किया॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यमूलफलपुष्पसंयुते
मौक्तिकोपमजलौघपल्वले।
चित्रवर्णमृगपक्षिशोभिते
पर्वते रघुकुलोत्तमोऽवसत्॥ ५५॥

मूलम्

दिव्यमूलफलपुष्पसंयुते
मौक्तिकोपमजलौघपल्वले।
चित्रवर्णमृगपक्षिशोभिते
पर्वते रघुकुलोत्तमोऽवसत्॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी दिव्य मूल, फल और फूलोंसे सम्पन्न, मोतीके समान स्वच्छ जलवाले सरोवरोंसे युक्त और चित्र-विचित्र मृग तथा पक्षियोंसे सुशोभित उस प्रवर्षण पर्वतपर रहने लगे॥ ५५॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे तृतीयः सर्गः॥ ३॥