[द्वितीय सर्ग]
भागसूचना
वालीका वध और भगवान् के साथ उसका सम्भाषण
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं स्वात्मपरिष्वङ्गनिर्धूताशेषकल्मषम्।
रामः सुग्रीवमालोक्य सस्मितं वाक्यमब्रवीत्॥ १॥
मायां मोहकरीं तस्मिन् वितन्वन् कार्यसिद्धये।
सखे त्वदुक्तं यत्तन्मां सत्यमेव न संशयः॥ २॥
मूलम्
इत्थं स्वात्मपरिष्वङ्गनिर्धूताशेषकल्मषम्।
रामः सुग्रीवमालोक्य सस्मितं वाक्यमब्रवीत्॥ १॥
मायां मोहकरीं तस्मिन् वितन्वन् कार्यसिद्धये।
सखे त्वदुक्तं यत्तन्मां सत्यमेव न संशयः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—‘हे पार्वति! इस प्रकार अपने संसर्गसे जिसके सब पाप दूर हो गये हैं उस सुग्रीवकी ओर देखते हुए श्रीरघुनाथजी कार्य सिद्ध करनेके लिये उसपर अपनी मोह उत्पन्न करनेवाली मायाका विस्तार करते हुए मुसकराकर बोले—‘‘मित्र! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है वह निस्सन्देह सब ठीक है॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किन्तु लोका वदिष्यन्ति मामेवं रघुनन्दनः।
कृतवान् िकं कपीन्द्राय सख्यं कृत्वाग्निसाक्षिकम्॥ ३॥
मूलम्
किन्तु लोका वदिष्यन्ति मामेवं रघुनन्दनः।
कृतवान् िकं कपीन्द्राय सख्यं कृत्वाग्निसाक्षिकम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथापि (यदि तुम राज्यादिसे उपराम हो जाओगे तो) लोग मेरे लिये कहेंगे कि रघुनाथजीने वानरराज सुग्रीवसे अग्निको साक्षी बनाकर मित्रता की; किन्तु उन्होंने उसका कौन-सा काम सिद्ध किया?॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति लोकापवादो मे भविष्यति न संशयः।
तस्मादाह्वय भद्रं ते गत्वा युद्धाय वालिनम्॥ ४॥
मूलम्
इति लोकापवादो मे भविष्यति न संशयः।
तस्मादाह्वय भद्रं ते गत्वा युद्धाय वालिनम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार लोगोंमें मेरी निन्दा होगी इसमें सन्देह नहीं। अतः तुम्हारा कल्याण हो, तुम अभी जाकर वालीको युद्धके लिये ललकारो॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणेनैकेन तं हत्वा राज्ये त्वामभिषेचये।
तथेति गत्वा सुग्रीवः किष्किन्धोपवनं द्रुतम्॥ ५॥
मूलम्
बाणेनैकेन तं हत्वा राज्ये त्वामभिषेचये।
तथेति गत्वा सुग्रीवः किष्किन्धोपवनं द्रुतम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं उसे एक ही बाणसे मारकर तुम्हें राजपदपर अभिषिक्त कर दूँगा।’’ तब सुग्रीव ‘बहुत अच्छा’ कह तुरंत ही किष्किन्धापुरीके उपवनमें गया और अति घोर शब्दसे गरजकर वालीको युद्धके लिये पुकारा॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा शब्दं महानादं तमाह्वयत वालिनम्।
तच्छ्रुत्वा भ्रातृनिनदं रोषताम्रविलोचनः॥ ६॥
निर्जगाम गृहाच्छीघ्रं सुग्रीवो यत्र वानरः।
तमापतन्तं सुग्रीवः शीघ्रं वक्षस्यताडयत्॥ ७॥
मूलम्
कृत्वा शब्दं महानादं तमाह्वयत वालिनम्।
तच्छ्रुत्वा भ्रातृनिनदं रोषताम्रविलोचनः॥ ६॥
निर्जगाम गृहाच्छीघ्रं सुग्रीवो यत्र वानरः।
तमापतन्तं सुग्रीवः शीघ्रं वक्षस्यताडयत्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाईका सिंहनाद सुनते ही वालीके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वह तत्काल अपने घरसे निकलकर वानरराज सुग्रीवके पास आया। उसके आते ही सुग्रीवने तुरंत उसके वक्षःस्थलमें प्रहार किया॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवमपि मुष्टिभ्यां जघान क्रोधमूर्च्छितः।
वाली तमपि सुग्रीव एवं क्रुद्धौ परस्परम्॥ ८॥
अयुद्ध्येतामेकरूपौ दृष्ट्वारामोऽतिविस्मितः।
न मुमोच तदा बाणं सुग्रीववधशङ्कया॥ ९॥
मूलम्
सुग्रीवमपि मुष्टिभ्यां जघान क्रोधमूर्च्छितः।
वाली तमपि सुग्रीव एवं क्रुद्धौ परस्परम्॥ ८॥
अयुद्ध्येतामेकरूपौ दृष्ट्वारामोऽतिविस्मितः।
न मुमोच तदा बाणं सुग्रीववधशङ्कया॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर वालीने भी क्रोधातुर होकर सुग्रीवपर अपने दोनों घूँसोंसे प्रहार किया और सुग्रीवने वालीपर आक्रमण किया। इस प्रकार वे दोनों ही अति क्रोधपूर्वक एक-दूसरेसे लड़ने लगे। उन दोनोंका रूप ऐसा समान था कि श्रीरामचन्द्रजी उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो गये (और उनमेंसे कौन वाली है तथा कौन सुग्रीव? यह न पहचान सके)। अतः इस आशंकासे कि कहीं सुग्रीव न मारा जाय, बाण नहीं छोड़ा॥ ८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुद्राव सुग्रीवो वमन् रक्तं भयाकुलः।
वाली स्वभवनं यातः सुग्रीवो राममब्रवीत्॥ १०॥
मूलम्
ततो दुद्राव सुग्रीवो वमन् रक्तं भयाकुलः।
वाली स्वभवनं यातः सुग्रीवो राममब्रवीत्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें सुग्रीव भयातुर होकर रक्त वमन करता हुआ भागा और वाली अपने घर चला गया। तब सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं मां घातयसे राम शत्रुणा भ्रातृरूपिणा।
यदि मद्धनने वाञ्छा त्वमेव जहि मां विभो॥ ११॥
मूलम्
किं मां घातयसे राम शत्रुणा भ्रातृरूपिणा।
यदि मद्धनने वाञ्छा त्वमेव जहि मां विभो॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! क्या आप इस भ्रातारूपी शत्रुसे मुझे मरवाना चाहते हैं? हे प्रभो! यदि आपकी इच्छा मुझे मरवानेकी ही है तो आप स्वयं ही मार डालिये॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मे प्रत्ययं कृत्वा सत्यवादिन् रघूत्तम।
उपेक्षसे किमर्थं मां शरणागतवत्सल॥ १२॥
मूलम्
एवं मे प्रत्ययं कृत्वा सत्यवादिन् रघूत्तम।
उपेक्षसे किमर्थं मां शरणागतवत्सल॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सत्यवादी शरणागतवत्सल रघुनाथजी! मुझे इस प्रकार विश्वास दिलाकर अब आप मेरी उपेक्षा क्यों करते हैं?’’॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा सुग्रीववचनं रामः साश्रुविलोचनः।
आलिङ्ग्य मा स्म भैषीस्त्वं दृष्ट्वा वामेकरूपिणौ॥ १३॥
मित्रघातित्वमाशङ्क्य मुक्तवान् सायकं न हि।
इदानीमेव ते चिह्नं करिष्ये भ्रमशान्तये॥ १४॥
मूलम्
श्रुत्वा सुग्रीववचनं रामः साश्रुविलोचनः।
आलिङ्ग्य मा स्म भैषीस्त्वं दृष्ट्वा वामेकरूपिणौ॥ १३॥
मित्रघातित्वमाशङ्क्य मुक्तवान् सायकं न हि।
इदानीमेव ते चिह्नं करिष्ये भ्रमशान्तये॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवके ये वचन सुनकर रामचन्द्रजीने उसे हृदयसे लगा लिया और नेत्रोंमें जल भरकर कहा—‘‘भैया! डरो मत, तुम दोनोंको एक रूप देखकर मैंने इस भयसे कि कहीं मित्रका वध न हो जाय, बाण नहीं छोड़ा। अब इस भ्रमको दूर करनेके लिये मैं तुम्हारे शरीरमें कोई चिह्न कर दूँगा॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वाह्वय पुनः शत्रुं हतं द्रक्ष्यसि वालिनम्।
रामोऽहं त्वां शपे भ्रातर्हनिष्यामि रिपुं क्षणात्॥ १५॥
मूलम्
गत्वाह्वय पुनः शत्रुं हतं द्रक्ष्यसि वालिनम्।
रामोऽहं त्वां शपे भ्रातर्हनिष्यामि रिपुं क्षणात्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार तुम फिर जाकर अपने शत्रुको पुकारो। अबकी बार तुम वालीको अवश्य मरा हुआ देखोगे। भैया! मैं राम तुम्हारी शपथ करके कहता हूँ कि इस बार मैं अवश्य एक क्षणमें ही तुम्हारे शत्रुको मार डालूँगा’’॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याश्वास्य स सुग्रीवं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
सुग्रीवस्य गले पुष्पमालामामुच्य पुष्पिताम्॥ १६॥
मूलम्
इत्याश्वास्य स सुग्रीवं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
सुग्रीवस्य गले पुष्पमालामामुच्य पुष्पिताम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवको इस प्रकार ढाढ़स बँधाकर श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘लक्ष्मण! सुग्रीवके गलेमें एक फूले हुए पुष्पोंकी माला डाल दो॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेषयस्व महाभाग सुग्रीवं वालिनं प्रति।
लक्ष्मणस्तु तदा बद्ध्वा गच्छ गच्छेति सादरम्॥ १७॥
प्रेषयामास सुग्रीवं सोऽपि गत्वा तथाकरोत्।
पुनरप्यद्भुतं शब्दं कृत्वा वालिनमाह्वयत्॥ १८॥
मूलम्
प्रेषयस्व महाभाग सुग्रीवं वालिनं प्रति।
लक्ष्मणस्तु तदा बद्ध्वा गच्छ गच्छेति सादरम्॥ १७॥
प्रेषयामास सुग्रीवं सोऽपि गत्वा तथाकरोत्।
पुनरप्यद्भुतं शब्दं कृत्वा वालिनमाह्वयत्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे महाभाग! इसे वालीसे लड़नेके लिये भेज दो।’’ तब लक्ष्मणजीने सुग्रीवके गलेमें पुष्पमाला बाँधकर उससे आदरपूर्वक ‘भाई! जाओ, जाओ’ ऐसा कहकर भेज दिया। सुग्रीवने भी वहाँ पहुँचकर पहलेकी भाँति ही फिर बड़ा विचित्र शब्द करते हुए वालीको पुकारा॥ १७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा विस्मितो वाली क्रोधेन महतावृतः।
बद्ध्वा परिकरं सम्यग्गमनायोपचक्रमे॥ १९॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा विस्मितो वाली क्रोधेन महतावृतः।
बद्ध्वा परिकरं सम्यग्गमनायोपचक्रमे॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवका शब्द सुनकर वालीको बड़ा विस्मय और साथ ही अत्यन्त क्रोध हुआ और वह अपनी कमर कसकर चलनेके लिये तैयार हो गया॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छन्तं वालिनं तारा गृहीत्वा निषिषेध तम्।
न गन्तव्यं त्वयेदानीं शङ्का मेऽतीव जायते॥ २०॥
मूलम्
गच्छन्तं वालिनं तारा गृहीत्वा निषिषेध तम्।
न गन्तव्यं त्वयेदानीं शङ्का मेऽतीव जायते॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाते समय उसकी स्त्री ताराने उसका हाथ पकड़कर रोका और कहा—‘‘देव! इस समय आप न जाइये, मेरे हृदयमें बड़ी शंका हो रही है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीमेव ते भग्नः पुनरायाति सत्वरः।
सहायो बलवांस्तस्य कश्चिन्नूनं समागतः॥ २१॥
मूलम्
इदानीमेव ते भग्नः पुनरायाति सत्वरः।
सहायो बलवांस्तस्य कश्चिन्नूनं समागतः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अभी-अभी आपसे मार खाकर भागा था, तो भी तुरंत ही लौट आया। इससे मालूम होता है कि अवश्य ही इसे कोई बलवान् सहायक मिल गया है’’॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाली तामाह हे सुभ्रु शङ्का ते व्येतु तद्गता।
प्रिये करं परित्यज्य गच्छ गच्छामि तं रिपुम्॥ २२॥
हत्वा शीघ्रं समायास्ये सहायस्तस्य को भवेत्।
सहायो यदि सुग्रीवस्ततो हत्वोभयं क्षणात्॥ २३॥
आयास्ये मा शुचः शूरः कथं तिष्ठेद् गृहे रिपुम्।
ज्ञात्वाप्याह्वयमानं हि हत्वायास्यामि सुन्दरि॥ २४॥
मूलम्
वाली तामाह हे सुभ्रु शङ्का ते व्येतु तद्गता।
प्रिये करं परित्यज्य गच्छ गच्छामि तं रिपुम्॥ २२॥
हत्वा शीघ्रं समायास्ये सहायस्तस्य को भवेत्।
सहायो यदि सुग्रीवस्ततो हत्वोभयं क्षणात्॥ २३॥
आयास्ये मा शुचः शूरः कथं तिष्ठेद् गृहे रिपुम्।
ज्ञात्वाप्याह्वयमानं हि हत्वायास्यामि सुन्दरि॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालीने कहा—‘‘हे सुन्दर भृकुटिवाली! तुम इस विषयमें कोई शंका न करो। हे प्रिये! मेरा हाथ छोड़कर तुम घर लौट जाओ, मैं भी अभी जाकर उस शत्रुको मारकर लौट आता हूँ। उस (अभागे)-को भला कौन सहायक मिलेगा? और यदि कोई होगा भी, तो मैं एक क्षणमें ही दोनोंको मारकर आ जाऊँगा। हे सुन्दरि! तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो। (मैं इस समय रुक नहीं सकता) शत्रुको बाहरसे युद्धके लिये ललकारता हुआ जानकर कोई शूरवीर अपने घरमें कैसे ठहर सकता है? अतः अब मैं उसे मारकर ही लौटूँगा’’॥ २२—२४॥
मूलम् (वचनम्)
तारोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तोऽन्यच्छृणु राजेन्द्र श्रुत्वा कुरु यथोचितम्।
आह मामङ्गदः पुत्रो मृगयायां श्रुतं वचः॥ २५॥
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् रामो दाशरथिः किल।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया भार्यया सह॥ २६॥
आगतो दण्डकारण्यं तत्र सीता हृता किल।
रावणेन सह भ्रात्रा मार्गमाणोऽथ जानकीम्॥ २७॥
आगतो ऋष्यमूकाद्रिं सुग्रीवेण समागतः।
चकार तेन सुग्रीवः सख्यं चानलसाक्षिकम्॥ २८॥
मूलम्
मत्तोऽन्यच्छृणु राजेन्द्र श्रुत्वा कुरु यथोचितम्।
आह मामङ्गदः पुत्रो मृगयायां श्रुतं वचः॥ २५॥
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् रामो दाशरथिः किल।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया भार्यया सह॥ २६॥
आगतो दण्डकारण्यं तत्र सीता हृता किल।
रावणेन सह भ्रात्रा मार्गमाणोऽथ जानकीम्॥ २७॥
आगतो ऋष्यमूकाद्रिं सुग्रीवेण समागतः।
चकार तेन सुग्रीवः सख्यं चानलसाक्षिकम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तारा बोली—हे राजेन्द्र! आप मुझसे कुछ और भी वृत्तान्त सुन लीजिये। उसे सुनकर जो उचित समझें, करें। मुझसे आपके पुत्र अंगदने मृगयाके समय (वनमें) सुनी हुई यह बात कही थी कि अयोध्याधिपति दशरथनन्दन भगवान् रामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण और भार्या सीताके सहित दण्डकारण्यमें आये थे। वहाँ उनकी प्रिया सीताको रावण हर ले गया। अब वे अपने भाईके सहित जानकीजीको ढूँढ़ते हुए ऋष्यमूक-पर्वतपर आकर सुग्रीवसे मिले हैं। वहाँ सुग्रीवने उनसे अग्निको साक्षी कर मित्रता जोड़ी है॥ २५—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञां कृतवान् रामः सुग्रीवाय सलक्ष्मणः।
वालिनं समरे हत्वा राजानं त्वां करोम्यहम्॥ २९॥
मूलम्
प्रतिज्ञां कृतवान् रामः सुग्रीवाय सलक्ष्मणः।
वालिनं समरे हत्वा राजानं त्वां करोम्यहम्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीके सहित सुग्रीवसे यह प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्धमें वालीको मारकर तुम्हें राजा बना दूँगा॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चित्य तौ यातौ निश्चितं शृणु मद्वचः।
इदानीमेव ते भग्नः कथं पुनरुपागतः॥ ३०॥
मूलम्
इति निश्चित्य तौ यातौ निश्चितं शृणु मद्वचः।
इदानीमेव ते भग्नः कथं पुनरुपागतः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी निश्चयको लेकर वे दोनों भी (उसके साथ) आये हैं; मेरी यह बात सच मानिये, नहीं तो अभी-अभी आपसे मार खाकर भागा हुआ वह कैसे लौट आता?॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वं सर्वथा वैरं त्यक्त्वा सुग्रीवमानय।
यौवराज्येऽभिषिञ्चाशु रामं त्वं शरणं व्रज॥ ३१॥
पाहि मामङ्गदं राज्यं कुलं च हरिपुङ्गव।
इत्युक्त्वाश्रुमुखी तारा पादयोः प्रणिपत्य तम्॥ ३२॥
हस्ताभ्यां चरणौ धृत्वा रुरोद भयविह्वला।
तामालिङ्ग्यां तदा वाली सस्नेहमिदमब्रवीत्॥ ३३॥
मूलम्
अतस्त्वं सर्वथा वैरं त्यक्त्वा सुग्रीवमानय।
यौवराज्येऽभिषिञ्चाशु रामं त्वं शरणं व्रज॥ ३१॥
पाहि मामङ्गदं राज्यं कुलं च हरिपुङ्गव।
इत्युक्त्वाश्रुमुखी तारा पादयोः प्रणिपत्य तम्॥ ३२॥
हस्ताभ्यां चरणौ धृत्वा रुरोद भयविह्वला।
तामालिङ्ग्यां तदा वाली सस्नेहमिदमब्रवीत्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अब आप सर्वथा सुग्रीवसे वैरभाव छोड़कर उसे ले आइये और उसे तुरंत युवराजपदपर अभिषिक्त कर श्रीरामकी शरणमें जाइये और हे कपिश्रेष्ठ! मेरी, अंगदकी तथा इस राज्य और कुलकी रक्षा कीजिये। ऐसा कहकर तारा वालीके चरणोंमें गिर पड़ी। उस समय उसके मुखपर आँसुओंकी धाराएँ बह रही थीं। वह भयसे अधीर होकर अपने हाथोंसे उसके दोनों चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगी। तब वालीने उसका प्रेमपूर्वक आलिंगन कर इस प्रकार कहा—॥ ३१—३३॥
स्त्रीस्वभावाद्बिभेषि त्वं प्रिये नास्ति भयं मम।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो यदि समायातो लक्ष्मणेन समं प्रभुः॥ ३४॥
तदा रामेण मे स्नेहो भविष्यति न संशयः।
रामो नारायणः साक्षादवतीर्णोऽखिलप्रभुः॥ ३५॥
भूभारहरणार्थाय श्रुतं पूर्वं मयानघे।
स्वपक्षः परपक्षो वा नास्ति तस्य परात्मनः॥ ३६॥
मूलम्
रामो यदि समायातो लक्ष्मणेन समं प्रभुः॥ ३४॥
तदा रामेण मे स्नेहो भविष्यति न संशयः।
रामो नारायणः साक्षादवतीर्णोऽखिलप्रभुः॥ ३५॥
भूभारहरणार्थाय श्रुतं पूर्वं मयानघे।
स्वपक्षः परपक्षो वा नास्ति तस्य परात्मनः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘प्रिये! तुम अपने स्त्री-स्वभावसे व्यर्थ डरती हो, मुझे तो भयका कोई भी कारण दिखलायी नहीं देता। यदि लक्ष्मणके सहित प्रभु राम यहाँ आये हैं तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनसे मेरा प्रेम हो जायगा। हे अनघे! राम तो साक्षात् सर्वेश्वर श्रीनारायण हैं, उन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही अवतार लिया है—यह बात मैंने पहलेसे ही सुन रखी है। वे तो प्रकृति आदिसे परे सबके आत्मारूप हैं, उनका कोई अपना या पराया पक्ष नहीं है॥ ३४—३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनेष्यामि गृहं साध्वि नत्वा तच्चरणाम्बुजम्।
भजतोऽनुभजत्येष भक्तिगम्यः सुरेश्वरः॥ ३७॥
मूलम्
आनेष्यामि गृहं साध्वि नत्वा तच्चरणाम्बुजम्।
भजतोऽनुभजत्येष भक्तिगम्यः सुरेश्वरः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे साध्वी! मैं उनके चरणकमलोंमें प्रणाम कर उन्हें घर ले आऊँगा। वे देवदेवेश्वर भक्तिसे प्राप्त होते हैं और जो कोई उनका भजन करता है उसीके अनुकूल हो जाते हैं॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि स्वयं समायाति सुग्रीवो हन्मि तं क्षणात्।
यदुक्तं यौवराज्याय सुग्रीवस्याभिषेचनम्॥ ३८॥
कथमाहूयमानोऽहं युद्धाय रिपुणा प्रिये।
शूरोऽहं सर्वलोकानां सम्मतः शुभलक्षणे॥ ३९॥
भीतभीतमिदं वाक्यं कथं वाली वदेत्प्रिये।
तस्माच्छोकं परित्यज्य तिष्ठ सुन्दरि वेश्मनि॥ ४०॥
मूलम्
यदि स्वयं समायाति सुग्रीवो हन्मि तं क्षणात्।
यदुक्तं यौवराज्याय सुग्रीवस्याभिषेचनम्॥ ३८॥
कथमाहूयमानोऽहं युद्धाय रिपुणा प्रिये।
शूरोऽहं सर्वलोकानां सम्मतः शुभलक्षणे॥ ३९॥
भीतभीतमिदं वाक्यं कथं वाली वदेत्प्रिये।
तस्माच्छोकं परित्यज्य तिष्ठ सुन्दरि वेश्मनि॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
और यदि अकेला सुग्रीव ही आया है तो उसे मैं एक क्षणमें मार डालूँगा। इसके सिवा, तुमने जो उसे युवराजपदपर अभिषिक्त करनेकी बात कही, सो हे शुभलक्षणे प्रिये! मैं सम्पूर्ण लोकोंमें माननीय शूरवीर हूँ। भला, शत्रुद्वारा युद्धके लिये पुकारे जानेपर वाली उससे ऐसा अत्यन्त भयपूर्ण वाक्य कैसे कह सकता है? अतः हे सुन्दरि! तुम निश्चिन्त होकर घर बैठो’’॥ ३८—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाश्वास्य तारां तां शोचन्तीमश्रुलोचनाम्।
गतो वाली समुद्युक्तः सुग्रीवस्य वधाय सः॥ ४१॥
मूलम्
एवमाश्वास्य तारां तां शोचन्तीमश्रुलोचनाम्।
गतो वाली समुद्युक्तः सुग्रीवस्य वधाय सः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शोकसे आँसू बहाती हुई ताराको धीरज बँधा, वाली सुग्रीवको मारनेपर उतारू होकर चला॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा वालिनमायान्तं सुग्रीवो भीमविक्रमः।
उत्पपात गले बद्धपुष्पमालो मतङ्गवत्॥ ४२॥
मूलम्
दृष्ट्वा वालिनमायान्तं सुग्रीवो भीमविक्रमः।
उत्पपात गले बद्धपुष्पमालो मतङ्गवत्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालीको आता देख प्रचण्ड पराक्रमी सुग्रीव गलेमें पुष्पमाला पहने हुए मत्त गजराजके समान उछलने लगा॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुष्टिभ्यां ताडयामास वालिनं सोऽपि तं तथा।
अहन्वाली च सुग्रीवं सुग्रीवो वालिनं तथा॥ ४३॥
मूलम्
मुष्टिभ्यां ताडयामास वालिनं सोऽपि तं तथा।
अहन्वाली च सुग्रीवं सुग्रीवो वालिनं तथा॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सुग्रीवने अपने घूँसोंसे वालीपर और वालीने सुग्रीवपर प्रहार किया। इसी प्रकार परस्पर बारम्बार वाली सुग्रीवपर और सुग्रीव वालीपर मुष्टिकाघात करने लगे॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं विलोकयन्नेव सुग्रीवो युयुधे युधि।
इत्येवं युद्ध्यमानौ तौ दृष्ट्वा रामः प्रतापवान्॥ ४४॥
बाणमादाय तूणीरादैन्द्रे धनुषि सन्दधे।
आकृष्य कर्णपर्यन्तमदृश्यो वृक्षषण्डगः॥ ४५॥
निरीक्ष्य वालिनं सम्यग्लक्ष्यं तद्धृदयं हरिः।
उत्ससर्जाशनिसमं महावेगं महाबलः॥ ४६॥
मूलम्
रामं विलोकयन्नेव सुग्रीवो युयुधे युधि।
इत्येवं युद्ध्यमानौ तौ दृष्ट्वा रामः प्रतापवान्॥ ४४॥
बाणमादाय तूणीरादैन्द्रे धनुषि सन्दधे।
आकृष्य कर्णपर्यन्तमदृश्यो वृक्षषण्डगः॥ ४५॥
निरीक्ष्य वालिनं सम्यग्लक्ष्यं तद्धृदयं हरिः।
उत्ससर्जाशनिसमं महावेगं महाबलः॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्ध करते समय सुग्रीवकी दृष्टि रामकी ओर ही लगी हुई थी परमप्रतापी श्रीरघुनाथजीने उन दोनोंको इस प्रकार लड़ते देख अपने तरकशसे एक बाण निकालकर अपने ऐन्द्र धनुषपर चढ़ाया और एक वृक्षकी आड़में छिपे-छिपे धनुषको कर्णपर्यन्त तानकर महाबलवान् श्रीहरिने वालीको देख उसके हृदयको ठीक लक्ष्य करके वह वज्रके समान कठोर और महावेगशाली बाण छोड़ दिया॥ ४४—४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभेद स शरो वक्षो वालिनः कम्पयन्महीम्।
उत्पपात महाशब्दं मुञ्चन् स निपपात ह॥ ४७॥
मूलम्
बिभेद स शरो वक्षो वालिनः कम्पयन्महीम्।
उत्पपात महाशब्दं मुञ्चन् स निपपात ह॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणने वालीके वक्षःस्थलको बेध डाला। बाणके लगते ही वाली बड़ा घोर शब्द करता हुआ उछलकर पृथिवीपर गिर पड़ा। उसके गिरते समय पृथिवी डगमगा उठी॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा मुहूर्त्तं निःसंज्ञो भूत्वा चेतनमाप सः।
ततो वाली ददर्शाग्रे रामं राजीवलोचनम्।
धनुरालम्ब्य वामेन हस्तेनान्येन सायकम्॥ ४८॥
बिभ्राणं चीरवसनं जटामुकुटधारिणम्।
विशालवक्षसं भ्राजद्वनमालाविभूषितम्॥ ४९॥
मूलम्
तदा मुहूर्त्तं निःसंज्ञो भूत्वा चेतनमाप सः।
ततो वाली ददर्शाग्रे रामं राजीवलोचनम्।
धनुरालम्ब्य वामेन हस्तेनान्येन सायकम्॥ ४८॥
बिभ्राणं चीरवसनं जटामुकुटधारिणम्।
विशालवक्षसं भ्राजद्वनमालाविभूषितम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय एक मुहूर्तके लिये वह संज्ञाशून्य हो गया; पीछे जब उसे चेत हुआ, तब उसने अपने सामने कमलनयन श्रीरघुनाथजीको खड़े देखा। वे बायें हाथसे धनुषका सहारा लेकर दाहिनेमें बाण लिये हुए थे तथा शरीरमें चीरवस्त्र और सिरपर जटाओंका मुकुट धारण किये थे। उनका विशाल वक्षःस्थल मनोहर वनमालासे विभूषित था॥ ४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीनचार्वायतभुजं नवदूर्वादलच्छविम्।
सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां च पार्श्वयोः परिसेवितम्॥ ५०॥
मूलम्
पीनचार्वायतभुजं नवदूर्वादलच्छविम्।
सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां च पार्श्वयोः परिसेवितम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
भुजाएँ स्थूल, सुन्दर और लम्बी-लम्बी थीं, शरीरकी कान्ति नवीन दूर्वादलके समान श्यामवर्ण थी तथा उनके दोनों ओर सुग्रीव और लक्ष्मण उनकी सेवामें खड़े थे॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्य शनकैः प्राह वाली रामं विगर्हयन्।
किं मयापकृतं राम तव येन हतोऽस्म्यहम्॥ ५१॥
मूलम्
विलोक्य शनकैः प्राह वाली रामं विगर्हयन्।
किं मयापकृतं राम तव येन हतोऽस्म्यहम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीको देखकर वालीने कुछ तिरस्कार करते हुए मन्दस्वरमें कहा—‘‘हे राम! मैंने आपका क्या बिगाड़ा था जो आपने मुझे मारा॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजधर्ममविज्ञाय गर्हितं कर्म ते कृतम्।
वृक्षषण्डे तिरोभूत्वा त्यजता मयि सायकम्॥ ५२॥
यशः किं लप्स्यसे राम चोरवत्कृतसङ्गरः।
यदि क्षत्रियदायादो मनोर्वंशसमुद्भवः॥ ५३॥
युद्धं कृत्वा समक्षं मे प्राप्स्यसे तत्फलं तदा।
सुग्रीवेण कृतं किं ते मया वा न कृतं किमु॥ ५४॥
मूलम्
राजधर्ममविज्ञाय गर्हितं कर्म ते कृतम्।
वृक्षषण्डे तिरोभूत्वा त्यजता मयि सायकम्॥ ५२॥
यशः किं लप्स्यसे राम चोरवत्कृतसङ्गरः।
यदि क्षत्रियदायादो मनोर्वंशसमुद्भवः॥ ५३॥
युद्धं कृत्वा समक्षं मे प्राप्स्यसे तत्फलं तदा।
सुग्रीवेण कृतं किं ते मया वा न कृतं किमु॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजनीतिको न जाननेके कारण ही आपने ऐसा निन्दनीय कार्य किया है। इस प्रकार वृक्षकी आड़में छिपकर मुझपर बाण छोड़ते हुए चोरके समान युद्ध करनेसे आपको क्या यश मिलेगा? यदि आप क्षत्रियकुमार हैं और आपका जन्म मनुजीके पवित्र वंशमें हुआ है तो मेरे सामने आकर युद्ध किया होता तब आपको उसका (यश अथवा स्वर्गरूप) कोई फल भी मिलता। हे राम! सुग्रीवने आपके साथ ऐसा कौन-सा उपकार किया था और मैंने क्या नहीं किया?॥ ५२—५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणेन हृता भार्या तव राम महावने।
सुग्रीवं शरणं यातस्तदर्थमिति शुश्रुम॥ ५५॥
मूलम्
रावणेन हृता भार्या तव राम महावने।
सुग्रीवं शरणं यातस्तदर्थमिति शुश्रुम॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने तो यही सुना है कि दण्डकारण्यमें रावण आपकी भार्याको हर ले गया था, उसे पानेके लिये ही आपने सुग्रीवकी शरण ली है॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बत राम न जानीषे मद्बलं लोकविश्रुतम्।
रावणं सकुलं बद्ध्वा ससीतं लङ्कया सह॥ ५६॥
आनयामि मुहूर्त्तार्द्धाद्यदि चेच्छामि राघव।
धर्मिष्ठ इति लोकेऽस्मिन् कथ्यसे रघुनन्दन॥ ५७॥
मूलम्
बत राम न जानीषे मद्बलं लोकविश्रुतम्।
रावणं सकुलं बद्ध्वा ससीतं लङ्कया सह॥ ५६॥
आनयामि मुहूर्त्तार्द्धाद्यदि चेच्छामि राघव।
धर्मिष्ठ इति लोकेऽस्मिन् कथ्यसे रघुनन्दन॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु खेद है कि आपने मेरा विश्व-विख्यात बल नहीं सुना। हे राघव! मैं यदि चाहूँ तो आधे मुहूर्तमें ही रावणको कुलसहित बाँधकर सीताजी और लंकाके सहित ले आऊँ। और हे रघुनन्दन! आप तो संसारमें बड़े धर्मात्मा कहे जाते हैं॥ ५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानरं व्याधवद्धत्वा धर्मं कं लप्स्यसे वद।
अभक्ष्यं वानरं मांसं हत्वा मां किं करिष्यसि॥ ५८॥
मूलम्
वानरं व्याधवद्धत्वा धर्मं कं लप्स्यसे वद।
अभक्ष्यं वानरं मांसं हत्वा मां किं करिष्यसि॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
बताइये, एक वानरको व्याधके समान मारकर आपको क्या पुण्य मिलेगा; वानरका मांस तो अभक्ष्य है, फिर मुझे मारकर आप क्या करेंगे’’॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं बहु भाषन्तं वालिनं राघवोऽब्रवीत्।
धर्मस्य गोप्ता लोकेऽस्मिंश्चरामि सशरासनः॥ ५९॥
मूलम्
इत्येवं बहु भाषन्तं वालिनं राघवोऽब्रवीत्।
धर्मस्य गोप्ता लोकेऽस्मिंश्चरामि सशरासनः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालीके इस प्रकार बहुत कुछ कहनेपर रघुनाथजीने कहा—‘‘मैं धर्मकी रक्षा करनेके लिये ही लोकमें धनुष धारण कर विचरता हूँ॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मकारिणं हत्वा सद्धर्मं पालयाम्यहम्।
दुहिता भगिनी भ्रातुर्भार्या चैव तथा स्नुषा॥ ६०॥
समा यो रमते तासामेकामपि विमूढधीः।
पातकी स तु विज्ञेयः स वध्यो राजभिः सदा॥ ६१॥
मूलम्
अधर्मकारिणं हत्वा सद्धर्मं पालयाम्यहम्।
दुहिता भगिनी भ्रातुर्भार्या चैव तथा स्नुषा॥ ६०॥
समा यो रमते तासामेकामपि विमूढधीः।
पातकी स तु विज्ञेयः स वध्यो राजभिः सदा॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अधर्म करनेवालोंको मारकर सद्धर्मका पालन करता हूँ। पुत्री, बहिन, (छोटे) भाईकी स्त्री और पुत्रवधू—ये चारों समान हैं। जो मूढ़ इनमेंसे किसी एकके साथ भी रमण करता है उसे महापापी जानना चाहिये; राजाको उचित है कि उसे अवश्य मार डाले॥ ६०-६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु भ्रातुः कनिष्ठस्य भार्यायां रमसे बलात्।
अतो मया धर्मविदा हतोऽसि वनगोचर॥ ६२॥
मूलम्
त्वं तु भ्रातुः कनिष्ठस्य भार्यायां रमसे बलात्।
अतो मया धर्मविदा हतोऽसि वनगोचर॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे वनचर! तू बलात् अपने छोटे भाईकी स्त्रीके साथ रमण करता था इसीलिये मुझ धर्मज्ञने तुझे मारा है॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं कपित्वान्न जानीषे महान्तो विचरन्ति यत्।
लोकं पुनानाः सञ्चारैरतस्तान्नातिभाषयेत्॥ ६३॥
मूलम्
त्वं कपित्वान्न जानीषे महान्तो विचरन्ति यत्।
लोकं पुनानाः सञ्चारैरतस्तान्नातिभाषयेत्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू वानर ही तो है; तुझे इस बातका पता नहीं है कि महापुरुष सदैव अपने आचरणोंसे लोकोंको पवित्र करते हुए विचरा करते हैं इसलिये उनसे इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें न करनी चाहिये’’॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा भयसन्त्रस्तो ज्ञात्वा रामं रमापतिम्।
वाली प्रणम्य रभसाद्रामं वचनमब्रवीत्॥ ६४॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा भयसन्त्रस्तो ज्ञात्वा रामं रमापतिम्।
वाली प्रणम्य रभसाद्रामं वचनमब्रवीत्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् के ये वचन सुनकर वाली उन्हें साक्षात् लक्ष्मीपति श्रीनारायण जानकर भयभीत हो गया और उन्हें शीघ्रतासे प्रणाम करके बोला—॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम राम महाभाग जाने त्वां परमेश्वरम्।
अजानता मया किञ्चिदुक्तं तत्क्षन्तुमर्हसि॥ ६५॥
मूलम्
राम राम महाभाग जाने त्वां परमेश्वरम्।
अजानता मया किञ्चिदुक्तं तत्क्षन्तुमर्हसि॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! हे राम! हे महाभाग! मैं जान गया, आप साक्षात् परमेश्वर हैं। अज्ञानवश मैं जो कुछ कह गया हूँ उसे आप क्षमा करें॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साक्षात्त्वच्छरघातेन विशेषेण तवाग्रतः।
त्यजाम्यसून्महायोगिदुर्लभं तव दर्शनम्॥ ६६॥
मूलम्
साक्षात्त्वच्छरघातेन विशेषेण तवाग्रतः।
त्यजाम्यसून्महायोगिदुर्लभं तव दर्शनम्॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आपका दर्शन तो बड़े-बड़े योगियोंको भी अत्यन्त दुर्लभ है; बड़े भाग्यकी बात है कि मैं आपहीके बाणसे विद्ध होकर फिर आपहीके सामने प्राण छोड़ रहा हूँ॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नाम विवशो गृह्णन् म्रियमाणः परं पदम्।
याति साक्षात्स एवाद्य मुमूर्षोर्मे पुरः स्थितः॥ ६७॥
मूलम्
यन्नाम विवशो गृह्णन् म्रियमाणः परं पदम्।
याति साक्षात्स एवाद्य मुमूर्षोर्मे पुरः स्थितः॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मरते समय विवश होकर भी जिनका नाम लेनेसे पुरुष परमपद प्राप्त कर लेता है, वही आप आज इस अन्तिम घड़ीपर साक्षात् मेरे सामने विराजमान हैं॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव जानामि पुरुषं त्वां श्रियं जानकीं शुभाम्।
रावणस्य वधार्थाय जातं त्वां ब्रह्मणार्थितम्॥ ६८॥
मूलम्
देव जानामि पुरुषं त्वां श्रियं जानकीं शुभाम्।
रावणस्य वधार्थाय जातं त्वां ब्रह्मणार्थितम्॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! मैं यह जानता हूँ कि आप साक्षात् परमपुरुष नारायण हैं और जानकीजी लक्ष्मी हैं। ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे रावणका वध करनेके लिये ही आपने अवतार लिया है॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुजानीहि मां राम यान्तं तत्पदमुत्तमम्।
मम तुल्यबले बाले अङ्गदे त्वं दयां कुरु॥ ६९॥
मूलम्
अनुजानीहि मां राम यान्तं तत्पदमुत्तमम्।
मम तुल्यबले बाले अङ्गदे त्वं दयां कुरु॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! अब मैं आपके सर्वश्रेष्ठ परमधामको जा रहा हूँ, आप मुझे आज्ञा दीजिये। मेरा बालक अंगद मेरे ही समान बलशाली है, उसपर आप दयादृष्टि रखें॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशल्यं कुरु मे राम हृदयं पाणिना स्पृशन्।
तथेति बाणमुद्धृत्य रामः पस्पर्श पाणिना।
त्यक्त्वा तद्वानरं देहममरेन्द्रोऽभवत्क्षणात्॥ ७०॥
मूलम्
विशल्यं कुरु मे राम हृदयं पाणिना स्पृशन्।
तथेति बाणमुद्धृत्य रामः पस्पर्श पाणिना।
त्यक्त्वा तद्वानरं देहममरेन्द्रोऽभवत्क्षणात्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! मेरे हृदयको अपने करकमलोंसे स्पर्श कर इस बाणको निकाल दीजिये।’’ तब रामचन्द्रजीने ‘अच्छा’ कह उसे स्पर्श करते हुए वह बाण निकाल दिया। उसके निकलते ही वाली वानर-शरीर छोड़कर इन्द्ररूप हो गया॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाली रघूत्तमशराभिहतो विमृष्टो
रामेण शीतलकरेण सुखाकरेण।
सद्यो विमुच्य कपिदेहमनन्यलभ्यं
प्राप्तः पदं परमहंसगणैर्दुरापम्॥ ७१॥
मूलम्
वाली रघूत्तमशराभिहतो विमृष्टो
रामेण शीतलकरेण सुखाकरेण।
सद्यो विमुच्य कपिदेहमनन्यलभ्यं
प्राप्तः पदं परमहंसगणैर्दुरापम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पार्वति! वाली रघुनाथजीके बाणसे मारा गया था और फिर उसे उनके सुखमय कर-कमलका शीतल स्पर्श भी मिला। अतः वह शीघ्र ही अपना वानर-देह छोड़कर उस परम श्रेष्ठ पदको प्राप्त हुआ जो और किसीके लिये बहुत ही दुर्लभ है और तो क्या, महान् परमहंसोंको भी उसका मिलना अत्यन्त कठिन है॥ ७१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥