[प्रथम सर्ग]
भागसूचना
सुग्रीवसे भेंट
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सलक्ष्मणो रामः शनैः पम्पासरस्तटम्।
आगत्य सरसां श्रेष्ठं दृष्ट्वा विस्मयमाययौ॥ १॥
मूलम्
ततः सलक्ष्मणो रामः शनैः पम्पासरस्तटम्।
आगत्य सरसां श्रेष्ठं दृष्ट्वा विस्मयमाययौ॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणके सहित धीरे-धीरे पम्पासरके तटपर आये। उस सुन्दर सरोवरको देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशमात्रं सुविस्तीर्णमगाधामलशम्बरम्।
उत्फुल्लाम्बुजकह्लारकुमुदोत्पलमण्डितम्॥ २॥
मूलम्
क्रोशमात्रं सुविस्तीर्णमगाधामलशम्बरम्।
उत्फुल्लाम्बुजकह्लारकुमुदोत्पलमण्डितम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका विस्तार एक कोसका था और उसमें अति निर्मल अगाध जल भरा हुआ था तथा सब ओर खिले हुए कमल, कह्लार, कुमुद और उत्पल आदि सुशोभित हो रहे थे॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंसकारण्डवाकीर्णं चक्रवाकादिशोभितम्।
जलकुक्कुटकोयष्टिक्रौञ्चनादोपनादितम्॥ ३॥
मूलम्
हंसकारण्डवाकीर्णं चक्रवाकादिशोभितम्।
जलकुक्कुटकोयष्टिक्रौञ्चनादोपनादितम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सरोवरमें जहाँ-तहाँ हंस और कारण्डव आदि पक्षी विहार कर रहे थे, चक्रवाकादि उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और जलकुक्कुट, कोयष्टि तथा क्रौंच आदि पक्षियोंके कलरवसे वह शब्दायमान हो रहा था॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानापुष्पलताकीर्णं नानाफलसमावृतम्।
सतां मनःस्वच्छजलं पद्मकिञ्जल्कवासितम्॥ ४॥
मूलम्
नानापुष्पलताकीर्णं नानाफलसमावृतम्।
सतां मनःस्वच्छजलं पद्मकिञ्जल्कवासितम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह चित्र-विचित्र पुष्प-लताओंसे परिपूर्ण और नाना प्रकारके फलवाले वृक्षोंसे घिरा हुआ था तथा उसका कमलकेशरसे सुवासित जल सज्जनोंके चित्तके समान स्वच्छ था॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपस्पृश्य सलिलं पीत्वा श्रमहरं विभुः।
सानुजः सरसस्तीरे शीतलेन पथा ययौ॥ ५॥
मूलम्
तत्रोपस्पृश्य सलिलं पीत्वा श्रमहरं विभुः।
सानुजः सरसस्तीरे शीतलेन पथा ययौ॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचनेपर छोटे भाई लक्ष्मणके सहित प्रभु रामने आचमनकर उस सरोवरका श्रमहारी शीतल जल पीया और फिर उसके किनारे-किनारे शीतल छायायुक्त मार्गसे चलने लगे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋष्यमूकगिरेः पार्श्वे गच्छन्तौ रामलक्ष्मणौ।
धनुर्बाणकरौ दान्तौ जटावल्कलमण्डितौ।
पश्यन्तौ विविधान् वृक्षान् गिरेः शोभां सुविक्रमौ॥ ६॥
मूलम्
ऋष्यमूकगिरेः पार्श्वे गच्छन्तौ रामलक्ष्मणौ।
धनुर्बाणकरौ दान्तौ जटावल्कलमण्डितौ।
पश्यन्तौ विविधान् वृक्षान् गिरेः शोभां सुविक्रमौ॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जटावल्कलविभूषित जितेन्द्रिय परम पराक्रमी राम और लक्ष्मण, जब हाथमें धनुष-बाण लिये विविध वृक्षों और पर्वतकी शोभाको निहारते हुए ऋष्यमूक पर्वतकी बगलमें चल रहे थे॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवस्तु गिरेर्मूर्ध्नि चतुर्भिः सह वानरैः।
स्थित्वा ददर्श तौ यान्तावारुरोह गिरेः शिरः॥ ७॥
मूलम्
सुग्रीवस्तु गिरेर्मूर्ध्नि चतुर्भिः सह वानरैः।
स्थित्वा ददर्श तौ यान्तावारुरोह गिरेः शिरः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अपने चार मन्त्रियोंके सहित गिरि-शिखरपर बैठे हुए सुग्रीवने उन्हें उधर जाते देखा और वह सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़ गया॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयादाह हनूमन्तं कौ तौ वीरवरौ सखे।
गच्छ जानीहि भद्रं ते वटुर्भूत्वा द्विजाकृतिः॥ ८॥
मूलम्
भयादाह हनूमन्तं कौ तौ वीरवरौ सखे।
गच्छ जानीहि भद्रं ते वटुर्भूत्वा द्विजाकृतिः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भयभीत होकर हनुमान् जी से बोला—‘‘मित्र! देखो, ये दो वीरवर कौन हैं। तुम्हारा कल्याण हो, तुम ब्राह्मण ब्रह्मचारीके वेषमें उनके पास जाकर यह मालूम तो करो॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वालिना प्रेषितौ किंवा मां हन्तुं समुपागतौ।
ताभ्यां सम्भाषणं कृत्वा जानीहि हृदयं तयोः॥ ९॥
मूलम्
वालिना प्रेषितौ किंवा मां हन्तुं समुपागतौ।
ताभ्यां सम्भाषणं कृत्वा जानीहि हृदयं तयोः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम उनसे बातचीत करके उनके यहाँ आनेका अभिप्राय मालूम करना। ऐसा न हो, वे वालीके भेजनेसे मुझे मारनेके लिये आ रहे हों॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि तौ दुष्टहृदयौ संज्ञां कुरु कराग्रतः।
विनयावनतो भूत्वा एवं जानीहि निश्चयम्॥ १०॥
मूलम्
यदि तौ दुष्टहृदयौ संज्ञां कुरु कराग्रतः।
विनयावनतो भूत्वा एवं जानीहि निश्चयम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम्हें उनका हृदय दूषित मालूम हो तो अपनी अँगुलीसे मुझे संकेत कर देना। देखो, बड़े विनीत होकर यह सब भेद मालूम कर लेना’’॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति वटुरूपेण हनुमान् समुपागतः।
विनयावनतो भूत्वा रामं नत्वेदमब्रवीत्॥ ११॥
मूलम्
तथेति वटुरूपेण हनुमान् समुपागतः।
विनयावनतो भूत्वा रामं नत्वेदमब्रवीत्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब हनुमान् जी सुग्रीवसे ‘जो आज्ञा’ कह ब्रह्मचारीका वेष बनाकर रघुनाथजीके पास आये और बड़ी नम्रतासे उन्हें नमस्कार कर बोले—॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौ युवां पुरुषव्याघ्रौ युवानौ वीरसम्मतौ।
द्योतयन्तौ दिशः सर्वाः प्रभया भास्कराविव॥ १२॥
मूलम्
कौ युवां पुरुषव्याघ्रौ युवानौ वीरसम्मतौ।
द्योतयन्तौ दिशः सर्वाः प्रभया भास्कराविव॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे पुरुषव्याघ्र! आप दोनों कौन हैं? आपकी युवावस्था है और आप बड़े वीर मालूम होते हैं। अहो! अपने शरीरकी कान्तिसे आपने समस्त दिशाओंको सूर्यके समान प्रकाशमान कर रखा है॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युवां त्रैलोक्यकर्ताराविति भाति मनो मम।
युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ॥ १३॥
मूलम्
युवां त्रैलोक्यकर्ताराविति भाति मनो मम।
युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा मन तो यह कहता है कि आप दोनों त्रिलोकीके रचनेवाले संसारके कारणभूत जगन्मय प्रधान और पुरुष ही हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायया मानुषाकारौ चरन्ताविव लीलया।
भूभारहरणार्थाय भक्तानां पालनाय च॥ १४॥
मूलम्
मायया मानुषाकारौ चरन्ताविव लीलया।
भूभारहरणार्थाय भक्तानां पालनाय च॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप मानो पृथिवीका भार उतारने और भक्तजनोंकी रक्षा करनेके लिये ही लीलावश अपनी मायासे मनुष्यरूप धारण कर विचर रहे हैं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवतीर्णाविह परौ चरन्तौ क्षत्रियाकृती।
जगत्स्थितिलयौ सर्गं लीलया कर्तुमुद्यतौ॥ १५॥
मूलम्
अवतीर्णाविह परौ चरन्तौ क्षत्रियाकृती।
जगत्स्थितिलयौ सर्गं लीलया कर्तुमुद्यतौ॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप साक्षात् परमात्मा ही क्षत्रियकुमारके रूपमें अवतीर्ण होकर पृथिवीपर घूम रहे हैं। आप लीलाहीसे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और (दुष्टोंका) नाश करनेमें तत्पर हैं॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वतन्त्रौ प्रेरकौ सर्वहृदयस्थाविहेश्वरौ।
नरनारायणौ लोके चरन्ताविति मे मतिः॥ १६॥
मूलम्
स्वतन्त्रौ प्रेरकौ सर्वहृदयस्थाविहेश्वरौ।
नरनारायणौ लोके चरन्ताविति मे मतिः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी बुद्धिमें तो यही आता है कि आप सबके हृदयमें विराजमान, सबके प्रेरक, परम स्वतन्त्र भगवान् नर-नारायण ही इस लोकमें विचर रहे हैं’’॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं वटुरूपिणम्।
शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥ १७॥
मूलम्
श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं वटुरूपिणम्।
शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीसे कहा— ‘‘लक्ष्मण! इस ब्रह्मचारीको देखो। अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्दशास्त्र (व्याकरण) कई बार भली प्रकार पढ़ा है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन भाषितं कृत्स्नं न किञ्चिदपशब्दितम्।
ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञानविग्रहः॥ १८॥
मूलम्
अनेन भाषितं कृत्स्नं न किञ्चिदपशब्दितम्।
ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञानविग्रहः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, इसने इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलनेमें कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई।’’ तदनन्तर विज्ञानघन श्रीरघुनाथजीने हनूमान् जी से कहा—॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं दाशरथी रामस्त्वयं मे लक्ष्मणोऽनुजः।
सीतया भार्यया सार्धं पितुर्वचनगौरवात्॥ १९॥
आगतस्तत्र विपिने स्थितोऽहं दण्डके द्विज।
तत्र भार्या हृता सीता रक्षसा केनचिन्मम।
तामन्वेष्टुमिहायातौ त्वं को वा कस्य वा वद॥ २०॥
मूलम्
अहं दाशरथी रामस्त्वयं मे लक्ष्मणोऽनुजः।
सीतया भार्यया सार्धं पितुर्वचनगौरवात्॥ १९॥
आगतस्तत्र विपिने स्थितोऽहं दण्डके द्विज।
तत्र भार्या हृता सीता रक्षसा केनचिन्मम।
तामन्वेष्टुमिहायातौ त्वं को वा कस्य वा वद॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे द्विज! मैं दशरथका पुत्र राम हूँ और यह मेरा छोटा भाई लक्ष्मण है। मैं पिताकी आज्ञा मानकर अपनी स्त्री सीताके सहित वनमें आया था और यहाँ दण्डकारण्यमें रहता था। वहाँ किसी राक्षसने मेरी भार्या सीताको हर लिया। उसे ढूँढ़नेके लिये हम यहाँ आये हैं। कहिये, आप कौन हैं और किसके पुत्र हैं!’’॥ १९-२०॥
मूलम् (वचनम्)
वटुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवो नाम राजा यो वानराणां महामतिः।
चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं गिरिमूर्धनि तिष्ठति॥ २१॥
मूलम्
सुग्रीवो नाम राजा यो वानराणां महामतिः।
चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं गिरिमूर्धनि तिष्ठति॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी बोले—महामति सुग्रीव वानरोंके राजा हैं। वे अपने चार मन्त्रियोंके साथ इस पर्वतके शिखरपर रहते हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्राता कनीयान् सुग्रीवो वालिनः पापचेतसः।
तेन निष्कासितो भार्या हृता तस्येह वालिना॥ २२॥
मूलम्
भ्राता कनीयान् सुग्रीवो वालिनः पापचेतसः।
तेन निष्कासितो भार्या हृता तस्येह वालिना॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दुष्टचित्त वालीके छोटे भाई हैं। उस वालीने उनकी स्त्री छीनकर उन्हें घरसे निकाल दिया है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्भयादृष्यमूकाख्यं गिरिमाश्रित्य संस्थितः।
अहं सुग्रीवसचिवो वायुपुत्रो महामते॥ २३॥
मूलम्
तद्भयादृष्यमूकाख्यं गिरिमाश्रित्य संस्थितः।
अहं सुग्रीवसचिवो वायुपुत्रो महामते॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उसके भयसे वे इस ऋष्यमूक पर्वतपर ही रहते हैं। हे महामते! मैं उन्हीं सुग्रीवका मन्त्री और वायुका पुत्र हूँ॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमान्नाम विख्यातो ह्यञ्जनीगर्भसम्भवः।
तेन सख्यं त्वया युक्तं सुग्रीवेण रघूत्तम॥ २४॥
मूलम्
हनूमान्नाम विख्यातो ह्यञ्जनीगर्भसम्भवः।
तेन सख्यं त्वया युक्तं सुग्रीवेण रघूत्तम॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा जन्म माता अंजनीके गर्भसे हुआ है और मैं ‘हनूमान्’ नामसे विख्यात हूँ। हे रघुश्रेष्ठ! आपको महाराज सुग्रीवसे मित्रता करनी चाहिये॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्यापहारिणं हन्तुं सहायस्ते भविष्यति।
इदानीमेव गच्छाम आगच्छ यदि रोचते॥ २५॥
मूलम्
भार्यापहारिणं हन्तुं सहायस्ते भविष्यति।
इदानीमेव गच्छाम आगच्छ यदि रोचते॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे आपकी भार्याको चुरानेवालेका वध करनेमें आपके सहायक होंगे। आइये, यदि आपकी इच्छा हो तो अभी उनके पास चलें॥ २५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमप्यागतस्तेन सख्यं कर्तुं कपीश्वर।
सख्युस्तस्यापि यत्कार्यं तत्करिष्याम्यसंशयम्॥ २६॥
मूलम्
अहमप्यागतस्तेन सख्यं कर्तुं कपीश्वर।
सख्युस्तस्यापि यत्कार्यं तत्करिष्याम्यसंशयम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—हे कपीश्वर! मैं भी उनसे मित्रता करनेके लिये आया हूँ। उन मित्रवरका भी जो कुछ कार्य होगा, वह मैं निस्सन्देह पूर्ण कर दूँगा॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमान् स्वस्वरूपेण स्थितो राममथाब्रवीत्।
आरोहतां मम स्कन्धौ गच्छामः पर्वतोपरि॥ २७॥
यत्र तिष्ठति सुग्रीवो मन्त्रिभिर्वालिनो भयात्।
तथेति तस्यारुरोह स्कन्धं रामोऽथ लक्ष्मणः॥ २८॥
मूलम्
हनूमान् स्वस्वरूपेण स्थितो राममथाब्रवीत्।
आरोहतां मम स्कन्धौ गच्छामः पर्वतोपरि॥ २७॥
यत्र तिष्ठति सुग्रीवो मन्त्रिभिर्वालिनो भयात्।
तथेति तस्यारुरोह स्कन्धं रामोऽथ लक्ष्मणः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर हनूमान् जी ने अपना रूप धारण कर रामसे कहा—‘‘आइये, आप दोनों मेरे कंधोंपर चढ़ जाइये। अब हम पर्वतके ऊपर चलते हैं, जहाँ अपने मन्त्रियोंके सहित सुग्रीव वालीके भयसे (छिपकर) रहते हैं।’’ तब राम और लक्ष्मण ‘बहुत अच्छा’ कह उनके कंधोंपर चढ़ गये॥ २७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पपात गिरेर्मूर्ध्नि क्षणादेव महाकपिः।
वृक्षच्छायां समाश्रित्य स्थितौ तौ रामलक्ष्मणौ॥ २९॥
मूलम्
उत्पपात गिरेर्मूर्ध्नि क्षणादेव महाकपिः।
वृक्षच्छायां समाश्रित्य स्थितौ तौ रामलक्ष्मणौ॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरराज हनूमान् एक क्षणमें ही पर्वतके शिखरपर कूदकर पहुँच गये। वहाँ राम और लक्ष्मण एक वृक्षकी छायामें खड़े हो गये॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमानपि सुग्रीवमुपगम्य कृताञ्जलिः।
व्येतु ते भयमायातौ राजन् श्रीरामलक्ष्मणौ॥ ३०॥
मूलम्
हनूमानपि सुग्रीवमुपगम्य कृताञ्जलिः।
व्येतु ते भयमायातौ राजन् श्रीरामलक्ष्मणौ॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर हनूमान् जी ने सुग्रीवके पास जा उनसे हाथ जोड़कर कहा—‘‘राजन्! अब अपनी शंका दूर कीजिये, क्योंकि आपके यहाँ श्रीराम और लक्ष्मण पधारे हैं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रमुत्तिष्ठ रामेण सख्यं ते योजितं मया।
अग्निं साक्षिणमारोप्य तेन सख्यं द्रुतं कुरु॥ ३१॥
मूलम्
शीघ्रमुत्तिष्ठ रामेण सख्यं ते योजितं मया।
अग्निं साक्षिणमारोप्य तेन सख्यं द्रुतं कुरु॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
शीघ्र उठिये, मैंने रामके साथ आपकी मित्रता होनेका योग लगा दिया है। शीघ्र ही अग्निको साक्षी करके उनसे मित्रता कीजिये’’॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽतिहर्षात्सुग्रीवः समागम्य रघूत्तमम्।
वृक्षशाखां स्वयं छित्त्वा विष्टराय ददौ मुदा॥ ३२॥
मूलम्
ततोऽतिहर्षात्सुग्रीवः समागम्य रघूत्तमम्।
वृक्षशाखां स्वयं छित्त्वा विष्टराय ददौ मुदा॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सुग्रीव अति प्रसन्न होकर रघुनाथजीके पास आये और प्रसन्नमनसे अपने हाथसे एक वृक्षकी शाखा तोड़कर उन्हें बैठनेके लिये आसन दिया॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमाल्ँलक्ष्मणायादात्सुग्रीवाय च लक्ष्मणः।
हर्षेण महताविष्टाः सर्व एवावतस्थिरे॥ ३३॥
मूलम्
हनूमाल्ँलक्ष्मणायादात्सुग्रीवाय च लक्ष्मणः।
हर्षेण महताविष्टाः सर्व एवावतस्थिरे॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार हनूमान् जी ने लक्ष्मणजीको तथा लक्ष्मणजीने सुग्रीवको आसन दिया और सब लोग अति आनन्दपूर्वक अपने-अपने आसनोंपर बैठ गये॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणस्त्वब्रवीत्सर्वं रामवृत्तान्तमादितः।
वनवासाभिगमनं सीताहरणमेव च॥ ३४॥
मूलम्
लक्ष्मणस्त्वब्रवीत्सर्वं रामवृत्तान्तमादितः।
वनवासाभिगमनं सीताहरणमेव च॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर लक्ष्मणजीने आरम्भसे लेकर वनमें आने और सीताजीके हरे जानेतकका रामचन्द्रजीका सारा वृत्तान्त सुनाया॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणोक्तं वचः श्रुत्वा सुग्रीवो राममब्रवीत्।
अहं करिष्ये राजेन्द्र सीतायाः परिमार्गणम्॥ ३५॥
मूलम्
लक्ष्मणोक्तं वचः श्रुत्वा सुग्रीवो राममब्रवीत्।
अहं करिष्ये राजेन्द्र सीतायाः परिमार्गणम्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीके वचन सुनकर सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—‘‘हे राजराजेश्वर! मैं सीताजीकी खोज करूँगा॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहाय्यमपि ते राम करिष्ये शत्रुघातिनः।
शृणु राम मया दृष्टं किञ्चित्ते कथयाम्यहम्॥ ३६॥
मूलम्
साहाय्यमपि ते राम करिष्ये शत्रुघातिनः।
शृणु राम मया दृष्टं किञ्चित्ते कथयाम्यहम्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और शत्रुका वध करते समय भी मैं आपकी सहायता करूँगा। हे राम! इस सम्बन्धमें मैंने जो कुछ देखा है वह आपको सुनाता हूँ, सुनिये॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा मन्त्रिभिः सार्धं स्थितोऽहं गिरिमूर्धनि।
विहायसा नीयमानां केनचित्प्रमदोत्तमाम्॥ ३७॥
मूलम्
एकदा मन्त्रिभिः सार्धं स्थितोऽहं गिरिमूर्धनि।
विहायसा नीयमानां केनचित्प्रमदोत्तमाम्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘एक दिन अपने मन्त्रियोंके साथ मैं पर्वतके शिखरपर बैठा था। उस समय हमने देखा कि कोई राक्षस किसी उत्तम कामिनीको आकाशमार्गसे लिये जाता है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशन्तीं रामरामेति दृष्ट्वास्मान्पर्वतोपरि।
आमुच्याभरणान्याशु स्वोत्तरीयेण भामिनी॥ ३८॥
निरीक्ष्याधः परित्यज्य क्रोशन्ती तेन रक्षसा।
नीताहं भूषणान्याशु गुहायामक्षिपं प्रभो॥ ३९॥
मूलम्
क्रोशन्तीं रामरामेति दृष्ट्वास्मान्पर्वतोपरि।
आमुच्याभरणान्याशु स्वोत्तरीयेण भामिनी॥ ३८॥
निरीक्ष्याधः परित्यज्य क्रोशन्ती तेन रक्षसा।
नीताहं भूषणान्याशु गुहायामक्षिपं प्रभो॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ‘राम! राम!’ कहकर विलाप कर रही थी। हमें पर्वतपर बैठे देखकर उसने तुरंत ही अपने आभूषण उतारकर एक वस्त्रमें बाँधे और हमारी ओर देखते हुए नीचे गिरा दिये। हे प्रभो! इसी प्रकार निरन्तर विलाप करती हुई उस अबलाको वह राक्षस ले गया। प्रभो! मैंने तुरंत ही उन आभूषणोंको उठाकर गुफामें रख दिया॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीमपि पश्य त्वं जानीहि तव वा न वा।
इत्युक्त्वानीय रामाय दर्शयामास वानरः॥ ४०॥
मूलम्
इदानीमपि पश्य त्वं जानीहि तव वा न वा।
इत्युक्त्वानीय रामाय दर्शयामास वानरः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप उन्हें अभी देखिये और पहचानिये कि वे आपहीके हैं या नहीं।’’ ऐसा कह कपिराज सुग्रीवने वे आभूषण लाकर रामको दिखाये॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुच्य रामस्तद्दृष्ट्वा हा सीतेति मुहुर्मुहुः।
हृदि निक्षिप्य तत्सर्वं रुरोद प्राकृतो यथा॥ ४१॥
मूलम्
विमुच्य रामस्तद्दृष्ट्वा हा सीतेति मुहुर्मुहुः।
हृदि निक्षिप्य तत्सर्वं रुरोद प्राकृतो यथा॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीने उन्हें खोलकर देखा तो (उन्हें पहचानकर) छातीसे लगा लिया और साधारण पुरुषोंके समान बारम्बार ‘हा सीते! हा सीते!’ कहकर रोने लगे॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्वास्य राघवं भ्राता लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
अचिरेणैव ते राम प्राप्यते जानकी शुभा।
वानरेन्द्रसहायेन हत्वा रावणमाहवे॥ ४२॥
मूलम्
आश्वास्य राघवं भ्राता लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
अचिरेणैव ते राम प्राप्यते जानकी शुभा।
वानरेन्द्रसहायेन हत्वा रावणमाहवे॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भाई लक्ष्मणने उन्हें ढांढ़स बंधाकर कहा—‘‘हे राम! वानरराज सुग्रीवकी सहायतासे युद्धमें रावणको मारकर आप शीघ्र ही शुभलक्षणा जनकनन्दिनीको प्राप्त करेंगे’’॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवोऽप्याह हे राम प्रतिज्ञां करवाणि ते।
समरे रावणं हत्वा तव दास्यामि जानकीम्॥ ४३॥
मूलम्
सुग्रीवोऽप्याह हे राम प्रतिज्ञां करवाणि ते।
समरे रावणं हत्वा तव दास्यामि जानकीम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवने भी कहा—‘‘हे राम! मैं आपसे प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रावणको युद्धमें मारकर आपको सीता दिला दूँगा’’॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हनूमान् प्रज्वाल्य तयोरग्निं समीपतः।
तावुभौ रामसुग्रीवावग्नौ साक्षिणि तिष्ठति॥ ४४॥
बाहू प्रसार्य चालिङ्ग्य परस्परमकल्मषौ।
समीपे रघुनाथस्य सुग्रीवः समुपाविशत्॥ ४५॥
मूलम्
ततो हनूमान् प्रज्वाल्य तयोरग्निं समीपतः।
तावुभौ रामसुग्रीवावग्नौ साक्षिणि तिष्ठति॥ ४४॥
बाहू प्रसार्य चालिङ्ग्य परस्परमकल्मषौ।
समीपे रघुनाथस्य सुग्रीवः समुपाविशत्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर हनुमान् जी ने उन दोनोंके पास अग्नि प्रज्वलित की। तब निष्पाप राम और सुग्रीव दोनों ही अग्निको साक्षी कर परस्पर एक-दूसरेसे भुजा फैलाकर मिले। तत्पश्चात् सुग्रीव रामचन्द्रजीके पास बैठ गये॥ ४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वोदन्तं कथयामास प्रणयाद्रघुनायके।
सखे शृणु ममोदन्तं वालिना यत्कृतं पुरा॥ ४६॥
मूलम्
स्वोदन्तं कथयामास प्रणयाद्रघुनायके।
सखे शृणु ममोदन्तं वालिना यत्कृतं पुरा॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अति प्रेमपूर्वक उन्हें अपना वृत्तान्त सुनाने लगे। वे बोले—‘‘मित्र! अब हमारी कहानी सुनो; वालीने पूर्वकालमें मेरे साथ जो कुछ किया है वह सुनाता हूँ॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयपुत्रोऽथ मायावी नाम्ना परमदुर्मदः।
किष्किन्धां समुपागत्य वालिनं समुपाह्वयत्॥ ४७॥
मूलम्
मयपुत्रोऽथ मायावी नाम्ना परमदुर्मदः।
किष्किन्धां समुपागत्य वालिनं समुपाह्वयत्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार अति मदोन्मत्त मय दानवके पुत्र मायावीने किष्किन्धापुरीमें आकर वालीको युद्धके लिये ललकारा॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहनादेन महता वाली तु तदमर्षणः।
निर्ययौ क्रोधताम्राक्षो जघान दृढमुष्टिना॥ ४८॥
मूलम्
सिंहनादेन महता वाली तु तदमर्षणः।
निर्ययौ क्रोधताम्राक्षो जघान दृढमुष्टिना॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दैत्य बड़ा भारी सिंहनाद करने लगा। वाली उसका यह दर्प न देख सका, उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और उसने बाहर आ उसे बड़े जोरसे एक घूँसा मारा॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुद्राव तेन संविग्नो जगाम स्वगुहां प्रति।
अनुदुद्राव तं वाली मायाविनमहं तथा॥ ४९॥
मूलम्
दुद्राव तेन संविग्नो जगाम स्वगुहां प्रति।
अनुदुद्राव तं वाली मायाविनमहं तथा॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके आघातसे व्याकुल होकर मायावी अपनी गुफाकी ओर दौड़ा। तब वाली और मैं दोनोंहीने उसका पीछा किया॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रविष्टमालोक्य गुहां मायाविनं रुषा।
वाली मामाह तिष्ठ त्वं बहिर्गच्छाम्यहं गुहाम्।
इत्युक्त्वाविश्य स गुहां मासमेकं न निर्ययौ॥ ५०॥
मूलम्
ततः प्रविष्टमालोक्य गुहां मायाविनं रुषा।
वाली मामाह तिष्ठ त्वं बहिर्गच्छाम्यहं गुहाम्।
इत्युक्त्वाविश्य स गुहां मासमेकं न निर्ययौ॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायावीको गुफामें गया देखकर वालीको बड़ा रोष हुआ। उसने मुझसे कहा—‘तुम यहीं रहो, मैं गुफामें जाता हूँ।’ ऐसा कहकर वह गुफामें घुस गया और एक मासतक उससे न निकला॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मासादूर्ध्वं गुहाद्वारान्निर्गतं रुधिरं बहु।
तद्दृष्ट्वा परितप्ताङ्गो मृतो वालीति दुःखितः॥ ५१॥
मूलम्
मासादूर्ध्वं गुहाद्वारान्निर्गतं रुधिरं बहु।
तद्दृष्ट्वा परितप्ताङ्गो मृतो वालीति दुःखितः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक महीना बीत जानेपर उस गुफाके द्वारसे बहुत-सा रक्त निकला। उसे देखकर यह समझकर कि वाली मारा गया, मुझे बड़ा दुःख और सन्ताप हुआ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहाद्वारि शिलामेकां निधाय गृहमागतः।
ततोऽब्रवं मृतो वाली गुहायां रक्षसा हतः॥ ५२॥
मूलम्
गुहाद्वारि शिलामेकां निधाय गृहमागतः।
ततोऽब्रवं मृतो वाली गुहायां रक्षसा हतः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब (इस भयसे कि कहीं वालीको मारनेवाला दैत्य बाहर आकर मुझे भी न मार डाले) उस गुफाके द्वारपर एक शिला रखकर मैं घर लौट आया और सबसे यह कह दिया कि वाली गुफामें राक्षसके हाथसे मारा गया॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा दुःखिताः सर्वे मामनिच्छन्तमप्युत।
राज्येऽभिषेचनं चक्रुः सर्वे वानरमन्त्रिणाः॥ ५३॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा दुःखिताः सर्वे मामनिच्छन्तमप्युत।
राज्येऽभिषेचनं चक्रुः सर्वे वानरमन्त्रिणाः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर सबको बड़ा दुःख हुआ और मेरी इच्छा न होनेपर भी समस्त वानर-मन्त्रिमण्डलने मुझे राजपदपर अभिषिक्त कर दिया॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्टं तदा मया राज्यं किञ्चित्कालमरिन्दम।
ततः समागतो वाली मामाह परुषं रुषा॥ ५४॥
मूलम्
शिष्टं तदा मया राज्यं किञ्चित्कालमरिन्दम।
ततः समागतो वाली मामाह परुषं रुषा॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शत्रुदमन! मैंने कुछ ही दिन राज्यशासन किया होगा कि वाली आ गया और क्रोधपूर्वक मुझसे बड़ी कड़वी-कड़वी बातें कहने लगा॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुधा भर्त्सयित्वा मां निजघान च मुष्टिभिः।
ततो निर्गत्य नगरादधावं परया भिया॥ ५५॥
मूलम्
बहुधा भर्त्सयित्वा मां निजघान च मुष्टिभिः।
ततो निर्गत्य नगरादधावं परया भिया॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मुझे बहुत कुछ भला-बुरा कहकर वह मुझे घूँसोंसे मारने लगा। तब मैं अत्यन्त भयभीत होकर नगर छोड़कर भाग गया॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकान् सर्वान्परिक्रम्य ऋष्यमूकं समाश्रितः।
ऋषेः शापभयात्सोऽपि नायातीमं गिरिं प्रभो॥ ५६॥
मूलम्
लोकान् सर्वान्परिक्रम्य ऋष्यमूकं समाश्रितः।
ऋषेः शापभयात्सोऽपि नायातीमं गिरिं प्रभो॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! मैंने सम्पूर्ण लोकोंमें घूमकर अन्तमें इस ऋष्यमूक-पर्वतकी शरण ली है; क्योंकि ऋषिशापके भयसे वह इस पर्वतपर नहीं आता॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदादि मम भार्यां स स्वयं भुङ्क्ते विमूढधीः।
अतो दुःखेन सन्तप्तो हृतदारो हृताश्रयः॥ ५७॥
वसाम्यद्य भवत्पादसंस्पर्शात्सुखितोऽस्म्यहम्।
मित्रदुःखेन सन्तप्तो रामो राजीवलोचनः॥ ५८॥
हनिष्यामि तव द्वेष्यं शीघ्रं भार्यापहारिणम्।
इति प्रतिज्ञामकरोत्सुग्रीवस्य पुरस्तदा॥ ५९॥
मूलम्
तदादि मम भार्यां स स्वयं भुङ्क्ते विमूढधीः।
अतो दुःखेन सन्तप्तो हृतदारो हृताश्रयः॥ ५७॥
वसाम्यद्य भवत्पादसंस्पर्शात्सुखितोऽस्म्यहम्।
मित्रदुःखेन सन्तप्तो रामो राजीवलोचनः॥ ५८॥
हनिष्यामि तव द्वेष्यं शीघ्रं भार्यापहारिणम्।
इति प्रतिज्ञामकरोत्सुग्रीवस्य पुरस्तदा॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तबसे मेरी भार्याको वह दुर्मति स्वयं भोगता है और मैं स्त्री तथा घरके छिन जानेसे मन-ही-मन कुढ़ता हुआ यहाँ रहता हूँ। आज आपके चरणकमलोंका स्पर्श करनेसे मुझे कुछ चैन मिला है।’’ तब कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीने सखा सुग्रीवके दुःखसे आतुर होकर उसके सामने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं बहुत ही शीघ्र तुम्हारी पत्नीको छीननेवाले तुम्हारे शत्रुका नाश कर डालूँगा’’॥ ५७-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुग्रीवोऽप्याह राजेन्द्र वाली बलवतां बली।
कथं हनिष्यति भवान् देवैरपि दुरासदम्॥ ६०॥
मूलम्
सुग्रीवोऽप्याह राजेन्द्र वाली बलवतां बली।
कथं हनिष्यति भवान् देवैरपि दुरासदम्॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवने कहा—‘‘हे राजेन्द्र! वाली सम्पूर्ण योद्धाओंमें अग्रणी है (वह कोई साधारण बलवाला नहीं है)। उसको पराजित करना देवताओंके लिये भी अति कठिन है। फिर आप उसे कैसे मार सकेंगे?॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु ते कथयिष्यामि तद्बलं बलिनां वर।
कदाचिद्दुन्दुभिर्नाम महाकायो महाबलः॥ ६१॥
किष्किन्धामगमद्राम महामहिषरूपधृक्।
युद्धाय वालिनं रात्रौ समाह्वयत भीषणः॥ ६२॥
मूलम्
शृणु ते कथयिष्यामि तद्बलं बलिनां वर।
कदाचिद्दुन्दुभिर्नाम महाकायो महाबलः॥ ६१॥
किष्किन्धामगमद्राम महामहिषरूपधृक्।
युद्धाय वालिनं रात्रौ समाह्वयत भीषणः॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे वीरश्रेष्ठ! सुनिये, मैं आपको उसके बलका वृत्तान्त सुनाता हूँ। एक बार दुन्दुभि नामका एक बड़ा बलवान् और स्थूलकाय दैत्य किष्किन्धापुरीमें भैंसेका रूप बनाकर आया और उस महाभयानक असुरने रात्रिके समय वालीको युद्धके लिये ललकारा॥ ६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वासहमानोऽसौ वाली परमकोपनः।
महिषं शृङ्गयोर्धृत्वा पातयामास भूतले॥ ६३॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वासहमानोऽसौ वाली परमकोपनः।
महिषं शृङ्गयोर्धृत्वा पातयामास भूतले॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी गर्जना वालीको सहन न हुई और उसने अति क्रोधपूर्वक उस भैंसेके सींग पकड़कर उसे पृथिवीपर पटक दिया॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादेनैकेन तत्कायमाक्रम्यास्य शिरो महत्।
हस्ताभ्यां भ्रामयंश्छित्त्वा तोलयित्वाक्षिपद्भुवि॥ ६४॥
मूलम्
पादेनैकेन तत्कायमाक्रम्यास्य शिरो महत्।
हस्ताभ्यां भ्रामयंश्छित्त्वा तोलयित्वाक्षिपद्भुवि॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अपने एक पैरसे उसके शरीरको दबाकर उसके महान् मस्तकको अपने हाथोंसे मरोड़कर तोड़ डाला और उसे उछालकर पृथिवीपर दूर फेंक दिया॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पपात तच्छिरो राम मातङ्गाश्रमसन्निधौ।
योजनात्पतितं तस्मान्मुनेराश्रममण्डले॥ ६५॥
मूलम्
पपात तच्छिरो राम मातङ्गाश्रमसन्निधौ।
योजनात्पतितं तस्मान्मुनेराश्रममण्डले॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! वह फिर वहाँसे एक योजन दूर मुनियोंके आश्रममण्डलमें महर्षि मतंगके आश्रमके पास जाकर गिरा॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्तवृष्टिः पपातोच्चैर्दृष्ट्वा तां क्रोधमूर्च्छितः।
मातङ्गो वालिनं प्राह यद्यागन्तासि मे गिरिम्॥ ६६॥
इतः परं भग्नशिरा मरिष्यसि न संशयः।
एवं शप्तस्तदारभ्य ऋष्यमूकं न यात्यसौ॥ ६७॥
मूलम्
रक्तवृष्टिः पपातोच्चैर्दृष्ट्वा तां क्रोधमूर्च्छितः।
मातङ्गो वालिनं प्राह यद्यागन्तासि मे गिरिम्॥ ६६॥
इतः परं भग्नशिरा मरिष्यसि न संशयः।
एवं शप्तस्तदारभ्य ऋष्यमूकं न यात्यसौ॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे जहाँ-तहाँ बहुत-सा रक्त बरसा। उसे देखकर मुनिवर मतंगको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने क्रोधमें भरकर वालीसे कहा—‘यदि आजसे तुम कभी मेरे इस पर्वतपर आओगे तो निस्सन्देह तुम्हारा सिर फट जायगा और तुम मर जाओगे।’ हे रामजी! मुनिके इस प्रकार शाप देनेसे ही वह तबसे ऋष्यमूक-पर्वतपर नहीं आता॥ ६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतज्ज्ञात्वाहमप्यत्र वसामि भयवर्जितः।
राम पश्य शिरस्तस्य दुन्दुभेः पर्वतोपमम्॥ ६८॥
तत्क्षेपणे यदा शक्तः शक्तस्त्वं वालिनो वधे।
इत्युक्त्वा दर्शयामास शिरस्तद् गिरिसन्निभम्॥ ६९॥
मूलम्
एतज्ज्ञात्वाहमप्यत्र वसामि भयवर्जितः।
राम पश्य शिरस्तस्य दुन्दुभेः पर्वतोपमम्॥ ६८॥
तत्क्षेपणे यदा शक्तः शक्तस्त्वं वालिनो वधे।
इत्युक्त्वा दर्शयामास शिरस्तद् गिरिसन्निभम्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा जानकर ही मैं यहाँ निर्भय होकर रहता हूँ। हे राम! (जिसे वालीने मारा था) आप जरा उस दुन्दुभि दैत्यके पर्वताकार सिरको तो देखिये (इसीसे आपको उसके बलका कुछ अनुमान हो जायगा)। यदि आप उस मस्तकको फेंक सकेंगे तो अवश्य वालीका वध भी कर सकेंगे’’। ऐसा कहकर सुग्रीवने वह पर्वत-सदृश सिर दिखलाया॥ ६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा रामः स्मितं कृत्वा पादाङ्गुष्ठेन चाक्षिपत्।
दशयोजनपर्यन्तं तदद्भुतमिवाभवत्॥ ७०॥
मूलम्
दृष्ट्वा रामः स्मितं कृत्वा पादाङ्गुष्ठेन चाक्षिपत्।
दशयोजनपर्यन्तं तदद्भुतमिवाभवत्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर श्रीरामचन्द्रजीने मुसकराते हुए अपने पैरके अँगूठेसे उसे दस योजन दूर फेंक दिया। यह बड़े आश्चर्यकी बात हुई॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु साध्विति सम्प्राह सुग्रीवो मन्त्रिभिः सह।
पुनरप्याह सुग्रीवो रामं भक्तपरायणम्॥ ७१॥
मूलम्
साधु साध्विति सम्प्राह सुग्रीवो मन्त्रिभिः सह।
पुनरप्याह सुग्रीवो रामं भक्तपरायणम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने मन्त्रियोंके सहित सुग्रीव भी ‘वाह! वाह!’ करने लगे और फिर वह भक्तोंके एकमात्र आश्रय भगवान् रामसे बोले—॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते ताला महासाराः सप्त पश्य रघूत्तम।
एकैकं चालयित्वासौ निष्पत्रान्कुरुतेऽञ्जसा॥ ७२॥
यदि त्वमेकबाणेन विद्ध्वा छिद्रं करोषि चेत्।
हतस्त्वया तदा वाली विश्वासो मे प्रजायते।
तथेति धनुरादाय सायकं तत्र सन्दधे॥ ७३॥
बिभेद च तदा रामः सप्त तालान्महाबलः।
तालान्सप्त विनिर्भिद्य गिरिं भूमिं च सायकः॥ ७४॥
पुनरागत्य रामस्य तूणीरे पूर्ववत्स्थितः।
ततोऽतिहर्षात्सुग्रीवो राममाहातिविस्मितः॥ ७५॥
मूलम्
एते ताला महासाराः सप्त पश्य रघूत्तम।
एकैकं चालयित्वासौ निष्पत्रान्कुरुतेऽञ्जसा॥ ७२॥
यदि त्वमेकबाणेन विद्ध्वा छिद्रं करोषि चेत्।
हतस्त्वया तदा वाली विश्वासो मे प्रजायते।
तथेति धनुरादाय सायकं तत्र सन्दधे॥ ७३॥
बिभेद च तदा रामः सप्त तालान्महाबलः।
तालान्सप्त विनिर्भिद्य गिरिं भूमिं च सायकः॥ ७४॥
पुनरागत्य रामस्य तूणीरे पूर्ववत्स्थितः।
ततोऽतिहर्षात्सुग्रीवो राममाहातिविस्मितः॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे रघुश्रेष्ठ! देखिये, तालके ये सात वृक्ष कैसे सुदृढ़ हैं, किन्तु वाली इनमेंसे प्रत्येकको हिलाकर अनायास ही पत्रहीन (बेपत्तेके) कर दिया करता है। यदि आप एक बाणसे ही इन सबको बेधकर इनमें छिद्र कर देंगे तो मुझे यह विश्वास हो जायगा कि आप अवश्य ही वालीको मार डालेंगे’’। तब महाबली रघुनाथजीने ‘बहुत अच्छा’ कह अपना धनुष लेकर उसपर बाण चढ़ाया और उन सातों ताल-वृक्षोंको बेध दिया। तत्पश्चात् वह बाण सातों ताल, पर्वत और पृथ्वीको बेधकर पहलेके समान फिर आकर रामचन्द्रजीके तरकशमें स्थित हो गया। तब सुग्रीवने आश्चर्यचकित होकर श्रीरामचन्द्रजीसे अत्यन्त हर्षके साथ कहा—॥ ७२—७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव त्वं जगतां नाथः परमात्मा न संशयः।
मत्पूर्वकृतपुण्यौघैः सङ्गतोऽद्य मया सह॥ ७६॥
मूलम्
देव त्वं जगतां नाथः परमात्मा न संशयः।
मत्पूर्वकृतपुण्यौघैः सङ्गतोऽद्य मया सह॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे देव! आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी साक्षात् परमात्मा हैं—इसमें सन्देह नहीं। मेरे पूर्वकृत पुण्य-पुंजके परिपाकसे ही आज आपसे मेरा संयोग हुआ है॥ ७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां भजन्ति महात्मानः संसारविनिवृत्तये।
त्वां प्राप्य मोक्षसचिवं प्रार्थयेऽहं कथं भवम्॥ ७७॥
मूलम्
त्वां भजन्ति महात्मानः संसारविनिवृत्तये।
त्वां प्राप्य मोक्षसचिवं प्रार्थयेऽहं कथं भवम्॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मालोग संसार-बन्धनकी निवृत्तिके लिये आपका भजन करते हैं, फिर आप मोक्षदायक प्रभुको पाकर मैं सांसारिक पदार्थोंकी कामना कैसे करूँ?॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाराः पुत्रा धनं राज्यं सर्वं त्वन्मायया कृतम्।
अतोऽहं देवदेवेश नाकाङ्क्षेऽन्यत्प्रसीद मे॥ ७८॥
मूलम्
दाराः पुत्रा धनं राज्यं सर्वं त्वन्मायया कृतम्।
अतोऽहं देवदेवेश नाकाङ्क्षेऽन्यत्प्रसीद मे॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवदेवेश्वर! ये स्त्री, पुत्र, धन, राज्य आदि सभी आपकी मायाके कार्य हैं। अतः अब आपके अतिरिक्त और किसी पदार्थकी मुझे इच्छा नहीं है, आप मुझपर कृपा कीजिये॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनन्दानुभवं त्वाद्य प्राप्तोऽहं भाग्यगौरवात्।
मृदर्थं यतमानेन निधानमिव सत्पते॥ ७९॥
मूलम्
आनन्दानुभवं त्वाद्य प्राप्तोऽहं भाग्यगौरवात्।
मृदर्थं यतमानेन निधानमिव सत्पते॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सत्पते! आप आनन्दस्वरूप हैं। मिट्टी खोदते हुए जैसे किसीको खजाना हाथ लग जाय उसी प्रकार आज बड़े भाग्यसे मुझे आपके दर्शन हुए हैं॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाद्यविद्यासंसिद्धं बन्धनं छिन्नमद्य नः।
यज्ञदानतपःकर्मपूर्तेष्टादिभिरप्यसौ॥ ८०॥
न जीर्यते पुनर्दार्ढ्यं भजते संसृतिः प्रभो।
त्वत्पाददर्शनात्सद्यो नाशमेति न संशयः॥ ८१॥
मूलम्
अनाद्यविद्यासंसिद्धं बन्धनं छिन्नमद्य नः।
यज्ञदानतपःकर्मपूर्तेष्टादिभिरप्यसौ॥ ८०॥
न जीर्यते पुनर्दार्ढ्यं भजते संसृतिः प्रभो।
त्वत्पाददर्शनात्सद्यो नाशमेति न संशयः॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज हमारा अनादि अविद्याजन्य बन्धन कट गया। हे प्रभो! यह संसार-बन्धन यज्ञ, दान, तप तथा इष्टापूर्त आदि कर्मोंसे भी नहीं टूटता बल्कि और दृढ़ हो जाता है। किन्तु आपके चरणकमलोंका दर्शन करते ही यह तुरंत नष्ट हो जाता है—इसमें सन्देह नहीं॥ ८०-८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणार्धमपि यच्चित्तं त्वयि तिष्ठत्यचञ्चलम्।
तस्याज्ञानमनर्थानां मूलं नश्यति तत्क्षणात्॥ ८२॥
तत्तिष्ठतु मनो राम त्वयि नान्यत्र मे सदा॥ ८३॥
मूलम्
क्षणार्धमपि यच्चित्तं त्वयि तिष्ठत्यचञ्चलम्।
तस्याज्ञानमनर्थानां मूलं नश्यति तत्क्षणात्॥ ८२॥
तत्तिष्ठतु मनो राम त्वयि नान्यत्र मे सदा॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका चित्त आपके स्वरूपमें आधे क्षणके लिये भी निश्चल होकर संलग्न हो जाता है, उसका सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल कारण अज्ञान तत्काल नष्ट हो जाता है। अतः हे राम! मेरा मन सदा आपहीमें लगा रहे, वह आपको छोड़कर और कहीं भी न जाय॥ ८२-८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामरामेति यद्वाणी मधुरं गायति क्षणम्।
स ब्रह्महा सुरापो वा मुच्यते सर्वपातकैः॥ ८४॥
मूलम्
रामरामेति यद्वाणी मधुरं गायति क्षणम्।
स ब्रह्महा सुरापो वा मुच्यते सर्वपातकैः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी वाणी एक क्षण भी ‘राम-राम’ ऐसा सुमधुर गान करती है, वह ब्रह्मघाती अथवा मद्यपी भी क्यों न हो, समस्त पापोंसे छूट जाता है॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न काङ्क्षे विजयं राम न च दारसुखादिकम्।
भक्तिमेव सदाकाङ्क्षे त्वयि बन्धविमोचनीम्॥ ८५॥
मूलम्
न काङ्क्षे विजयं राम न च दारसुखादिकम्।
भक्तिमेव सदाकाङ्क्षे त्वयि बन्धविमोचनीम्॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! अब मुझे वालीको जीतने अथवा स्त्री आदिका सुख प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं है। मैं तो संसार-बन्धनको काटनेवाली आपकी भक्ति ही चाहता हूँ॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मायाकृतसंसारस्त्वदंशोऽहं रघूत्तम।
स्वपादभक्तिमादिश्य त्राहि मां भवसङ्कटात्॥ ८६॥
मूलम्
त्वन्मायाकृतसंसारस्त्वदंशोऽहं रघूत्तम।
स्वपादभक्तिमादिश्य त्राहि मां भवसङ्कटात्॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! यह संसार आपकी मायाका विलास है और मैं भी आपहीका अंश हूँ। अतः अपने चरणकमलोंकी भक्ति देकर मुझे इस संसार-संकटसे बचाइये॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं मित्रार्युदासीनास्त्वन्मायावृतचेतसः।
आसन्मेऽद्य भवत्पाददर्शनादेव राघव॥ ८७॥
सर्वं ब्रह्मैव मे भाति क्व मित्रं क्व च मे रिपुः।
यावत्त्वन्मायया बद्धस्तावद्गुणविशेषता॥ ८८॥
मूलम्
पूर्वं मित्रार्युदासीनास्त्वन्मायावृतचेतसः।
आसन्मेऽद्य भवत्पाददर्शनादेव राघव॥ ८७॥
सर्वं ब्रह्मैव मे भाति क्व मित्रं क्व च मे रिपुः।
यावत्त्वन्मायया बद्धस्तावद्गुणविशेषता॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले जब मेरा चित्त आपकी मायासे ढँका हुआ था, मुझे अपने शत्रु-मित्र और उदासीन दिखायी देते थे। किन्तु हे रघुनाथजी! अब आपके चरणकमलोंका दर्शन पाते ही मुझे सब कुछ ब्रह्मरूप ही भासता है। प्रभो! संसारमें मेरा कौन मित्र है और कौन शत्रु? जबतक जीव आपकी मायासे बँधा रहता है तभीतक उसपर सत्त्वादि गुणोंका प्रभाव पड़ता रहता है॥ ८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा यावदस्ति नानात्वं तावद्भवति नान्यथा।
यावन्नानात्वमज्ञानात्तावत्कालकृतं भयम्॥ ८९॥
मूलम्
सा यावदस्ति नानात्वं तावद्भवति नान्यथा।
यावन्नानात्वमज्ञानात्तावत्कालकृतं भयम्॥ ८९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक मायाका प्रभाव रहता है तभीतक शत्रु-मित्रादि भेदभाव रहता है। उसके दूर होते ही समस्त भेदभाव दूर हो जाता है और जबतक यह अज्ञानजन्य भेद-भाव रहता है तभीतक मृत्युका भय है॥ ८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोऽविद्यामुपास्ते यः सोऽन्धे तमसि मज्जति।
मायामूलमिदं सर्वं पुत्रदारादिबन्धनम्।
तदुत्सारय मायां त्वं दासीं तव रघूत्तम॥ ९०॥
मूलम्
अतोऽविद्यामुपास्ते यः सोऽन्धे तमसि मज्जति।
मायामूलमिदं सर्वं पुत्रदारादिबन्धनम्।
तदुत्सारय मायां त्वं दासीं तव रघूत्तम॥ ९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये जो पुरुष अविद्याकी उपासना करता है (अर्थात् अविद्याजन्य पदार्थोंकी कामना करता है) वह घोर अन्धकारमें पड़ता है। ये पुत्र-स्त्री आदि सम्पूर्ण बन्धन मायामय ही हैं। अतः हे रघुश्रेष्ठ! अपनी दासीरूप इस मायाको हमसे दूर कीजिये॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्पादपद्मार्पितचित्तवृत्ति-
स्त्वन्नामसङ्गीतकथासु वाणी।
त्वद्भक्तसेवानिरतौ करौ मे
त्वदङ्गसङ्गं लभतां मदङ्गम्॥ ९१॥
मूलम्
त्वत्पादपद्मार्पितचित्तवृत्ति-
स्त्वन्नामसङ्गीतकथासु वाणी।
त्वद्भक्तसेवानिरतौ करौ मे
त्वदङ्गसङ्गं लभतां मदङ्गम्॥ ९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मेरी चित्तवृत्ति सदा आपके चरणकमलोंमें लगी रहे, वाणी आपके नाम-संकीर्तन और कथा-वार्तामें लगी रहे, हाथ आपके भक्तोंकी सेवामें लगे रहें और मेरा शरीर (आपके पादस्पर्श आदिके मिससे) सदा आपका अंग-संग करता रहे॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मूर्तिभक्तान् स्वगुरुं च चक्षुः
पश्यत्वजस्रं स शृणोति कर्णः।
त्वज्जन्मकर्माणि च पादयुग्मं
व्रजत्वजस्रं तव मन्दिराणि॥ ९२॥
मूलम्
त्वन्मूर्तिभक्तान् स्वगुरुं च चक्षुः
पश्यत्वजस्रं स शृणोति कर्णः।
त्वज्जन्मकर्माणि च पादयुग्मं
व्रजत्वजस्रं तव मन्दिराणि॥ ९२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे नेत्र सर्वदा आपकी मूर्ति, आपके भक्त और अपने गुरुका दर्शन करते रहें, कान निरन्तर आपके अवतारोंकी लीलाओंका श्रवण करें और मेरे पैर सदा आपके मन्दिरोंकी यात्रा करते रहें॥ ९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गानि ते पादरजोविमिश्र-
तीर्थानि बिभ्रत्वहिशत्रुकेतो।
शिरस्त्वदीयं भवपद्मजाद्यै-
र्जुष्टं पदं राम नमत्वजस्रम्॥ ९३॥
मूलम्
अङ्गानि ते पादरजोविमिश्र-
तीर्थानि बिभ्रत्वहिशत्रुकेतो।
शिरस्त्वदीयं भवपद्मजाद्यै-
र्जुष्टं पदं राम नमत्वजस्रम्॥ ९३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गरुडध्वज! मेरा शरीर आपकी चरणरजसे युक्त तीर्थोदकको धारण करे और मेरा सिर निरन्तर आपके उन चरणोंमें प्रणाम किया करे जिनकी शिव और ब्रह्मा आदि देवगण भी सदैव सेवा करते हैं’’॥ ९३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे प्रथमः सर्गः॥ १॥