१०

[दशम सर्ग]

भागसूचना

शबरीसे भेंट

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वा वरं स गन्धर्वः प्रयास्यन् राममब्रवीत्।
शबर्यास्ते पुरोभागे आश्रमे रघुनन्दन॥ १॥
भक्त्या त्वत्पादकमले भक्तिमार्गविशारदा।
तां प्रयाहि महाभाग सर्वं ते कथयिष्यति॥ २॥

मूलम्

लब्ध्वा वरं स गन्धर्वः प्रयास्यन् राममब्रवीत्।
शबर्यास्ते पुरोभागे आश्रमे रघुनन्दन॥ १॥
भक्त्या त्वत्पादकमले भक्तिमार्गविशारदा।
तां प्रयाहि महाभाग सर्वं ते कथयिष्यति॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) (भगवान् रामसे) वर पाकर (उनके परमधामको) जाते हुए उस गन्धर्वने कहा—‘‘हे रघुनन्दन! सामनेवाले आश्रममें शबरी रहती है। वह आपके चरण-कमलोंमें अति अनुराग रखनेके कारण भक्ति-मार्गमें कुशल है। हे महाभाग! आप वहाँ पधारिये। वह आपको (सीताजीके सम्बन्धमें) सब बातें बता देगी’’॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा प्रययौ सोऽपि विमानेनार्कवर्चसा।
विष्णोः पदं रामनामस्मरणे फलमीदृशम्॥ ३॥

मूलम्

इत्युक्त्वा प्रययौ सोऽपि विमानेनार्कवर्चसा।
विष्णोः पदं रामनामस्मरणे फलमीदृशम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर वह एक सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर विष्णुलोकको चला गया। (सच है) रामनाम-स्मरणका फल ऐसा ही है॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा तद्विपिनं घोरं सिंहव्याघ्रादिदूषितम्।
शनैरथाश्रमपदं शबर्या रघुनन्दनः॥ ४॥

मूलम्

त्यक्त्वा तद्विपिनं घोरं सिंहव्याघ्रादिदूषितम्।
शनैरथाश्रमपदं शबर्या रघुनन्दनः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सिंह, व्याघ्रादिसे दूषित उस घोर वनको छोड़कर श्रीरघुनाथजी धीरे-धीरे शबरीके आश्रमपर पहुँचे॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शबरी राममालोक्य लक्ष्मणेन समन्वितम्।
आयान्तमाराद्धर्षेण प्रत्युत्थायाचिरेण सा॥ ५॥

मूलम्

शबरी राममालोक्य लक्ष्मणेन समन्वितम्।
आयान्तमाराद्धर्षेण प्रत्युत्थायाचिरेण सा॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजीको समीप ही आते देख शबरी अत्यन्त हर्षसे तुरंत उठ खड़ी हुई॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित्वा पादयोरग्रे हर्षपूर्णाश्रुलोचना।
स्वागतेनाभिनन्द्याथ स्वासने संन्यवेशयत्॥ ६॥

मूलम्

पतित्वा पादयोरग्रे हर्षपूर्णाश्रुलोचना।
स्वागतेनाभिनन्द्याथ स्वासने संन्यवेशयत्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भर आये और वह भगवान् रामके चरणोंमें गिर पड़ी तथा उनका स्वागत कर कुशल-प्रश्नादिके अनन्तर उन्हें सुन्दर आसनपर बैठाया॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामलक्ष्मणयोः सम्यक्पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः।
तज्जलेनाभिषिच्याङ्गमथार्घ्यादिभिरादृता॥ ७॥
सम्पूज्य विधिवद्‍रामं ससौमित्रिं सपर्यया।
सङ्‍गृहीतानि दिव्यानि रामार्थं शबरी मुदा॥ ८॥
फलान्यमृतकल्पानि ददौ रामाय भक्तितः।
पादौ सम्पूज्य कुसुमैः सुगन्धैः सानुलेपनैः॥ ९॥

मूलम्

रामलक्ष्मणयोः सम्यक्पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः।
तज्जलेनाभिषिच्याङ्गमथार्घ्यादिभिरादृता॥ ७॥
सम्पूज्य विधिवद्‍रामं ससौमित्रिं सपर्यया।
सङ्‍गृहीतानि दिव्यानि रामार्थं शबरी मुदा॥ ८॥
फलान्यमृतकल्पानि ददौ रामाय भक्तितः।
पादौ सम्पूज्य कुसुमैः सुगन्धैः सानुलेपनैः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भक्तिसे श्रीराम और लक्ष्मणके चरण अच्छी प्रकार धोये और उस चरणोदकको अपने अंगोंपर छिड़ककर श्रद्धायुक्त होकर अर्घ्यादि विविध सामग्रियोंसे राम और लक्ष्मणका विधिवत् पूजन कर जो अमृतके समान दिव्य फल उसने श्रीरामचन्द्रजीके लिये इकट्ठे कर रखे थे, वे हर्षसे लाकर भक्तिपूर्वक उन्हें दिये और उनके चरण-कमलोंका चन्दनयुक्त सुगन्धित पुष्पोंसे पूजन किया॥ ७—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतातिथ्यं रघुश्रेष्ठमुपविष्टं सहानुजम्।
शबरी भक्तिसम्पन्ना प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥ १०॥

मूलम्

कृतातिथ्यं रघुश्रेष्ठमुपविष्टं सहानुजम्।
शबरी भक्तिसम्पन्ना प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस प्रकार) आतिथ्य-सत्कार हो चुकनेपर जब श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणजीके सहित आसनपर विराजमान थे, शबरीने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर कहा—॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राश्रमे रघुश्रेष्ठ गुरवो मे महर्षयः।
स्थिताः शुश्रूषणं तेषां कुर्वती समुपस्थिता॥ ११॥
बहुवर्षसहस्राणि गतास्ते ब्रह्मणः पदम्।
गमिष्यन्तोऽब्रुवन्मां त्वं वसात्रैव समाहिता॥ १२॥

मूलम्

अत्राश्रमे रघुश्रेष्ठ गुरवो मे महर्षयः।
स्थिताः शुश्रूषणं तेषां कुर्वती समुपस्थिता॥ ११॥
बहुवर्षसहस्राणि गतास्ते ब्रह्मणः पदम्।
गमिष्यन्तोऽब्रुवन्मां त्वं वसात्रैव समाहिता॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे रघुश्रेष्ठ! इस आश्रममें पहले मेरे गुरु महर्षि (मतंग) रहा करते थे; मैं उनकी सेवा-शुश्रूषा करती हुई यहाँ हजारों वर्षोंसे रहती हूँ। अब वे महर्षिश्रेष्ठ ब्रह्मलोकको चले गये हैं। जाते समय उन्होंने मुझसे कहा था कि तू एकाग्रचित्त होकर यहीं रह॥ ११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो दाशरथिर्जातः परमात्मा सनातनः।
राक्षसानां वधार्थाय ऋषीणां रक्षणाय च॥ १३॥

मूलम्

रामो दाशरथिर्जातः परमात्मा सनातनः।
राक्षसानां वधार्थाय ऋषीणां रक्षणाय च॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनातन परमात्माने राक्षसोंको मारने और ऋषियोंकी रक्षा करनेके लिये राजा दशरथके पुत्र रामरूपसे अवतार लिया है॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमिष्यति सैकाग्रध्याननिष्ठा स्थिरा भव।
इदानीं चित्रकूटाद्रावाश्रमे वसति प्रभुः॥ १४॥

मूलम्

आगमिष्यति सैकाग्रध्याननिष्ठा स्थिरा भव।
इदानीं चित्रकूटाद्रावाश्रमे वसति प्रभुः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे (शीघ्र ही) यहाँ आयेंगे। तू एकाग्रचित्तसे उनका ध्यान करती हुई यहाँ रह। आजकल भगवान् रामजी चित्रकूट पर्वतके आश्रममें विराजमान हैं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदागमनं तस्य तावद्‍रक्ष कलेवरम्।
दृष्ट्वैव राघवं दग्ध्वा देहं यास्यसि तत्पदम्॥ १५॥

मूलम्

यावदागमनं तस्य तावद्‍रक्ष कलेवरम्।
दृष्ट्वैव राघवं दग्ध्वा देहं यास्यसि तत्पदम्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक वे आवें तबतक तू अपने शरीरका पालन कर। रघुनाथजीके आनेपर उनका दर्शन करते हुए इस शरीरको जलाकर तू उनके परमधामको चली जायगी॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवाकरवं राम त्वद्‍ध्यानैकपरायणा।
प्रतीक्ष्यागमनं तेऽद्य सफलं गुरुभाषितम्॥ १६॥

मूलम्

तथैवाकरवं राम त्वद्‍ध्यानैकपरायणा।
प्रतीक्ष्यागमनं तेऽद्य सफलं गुरुभाषितम्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! गुरुजीके कथनानुसार मैं तभीसे केवल आपका ध्यान करती हुई आपके आनेकी बाट देख रही थी। आज गुरुजीका वह वाक्य सफल हो गया॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव सन्दर्शनं राम गुरूणामपि मे न हि।
योषिन्मूढाप्रमेयात्मन् हीनजातिसमुद्भवा॥ १७॥

मूलम्

तव सन्दर्शनं राम गुरूणामपि मे न हि।
योषिन्मूढाप्रमेयात्मन् हीनजातिसमुद्भवा॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपका दर्शन तो मेरे गुरुदेवको भी नहीं हुआ। फिर हे अप्रमेयात्मन्! मैं तो नीच-जातिमें उत्पन्न हुई एक गँवारी नारी ही हूँ! (मेरी तो बात ही क्या है?)॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव दासस्य दासानां शतसङ्ख्योत्तरस्य वा।
दासीत्वे नाधिकारोऽस्ति कुतः साक्षात्तवैव हि॥ १८॥

मूलम्

तव दासस्य दासानां शतसङ्ख्योत्तरस्य वा।
दासीत्वे नाधिकारोऽस्ति कुतः साक्षात्तवैव हि॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आपके दासोंके दास हैं उनके भी जो उत्तरोत्तर सैकड़ों दासानुदास हैं मैं तो उनकी दासी होनेकी भी अधिकारिणी नहीं हूँ; फिर साक्षात् आपकी दासी कहलानेका तो मेरा मुँह ही कहाँ है॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं रामाद्य मे दृष्टस्त्वं मनोवागगोचरः।
स्तोतुं न जाने देवेश किं करोमि प्रसीद मे॥ १९॥

मूलम्

कथं रामाद्य मे दृष्टस्त्वं मनोवागगोचरः।
स्तोतुं न जाने देवेश किं करोमि प्रसीद मे॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप तो मन या वाणीके विषय नहीं हैं (फिर न जाने) आज मुझे आपका दर्शन कैसे हो गया। हे देवेश्वर! मैं आपकी स्तुति करना नहीं जानती। अब मैं क्या करूँ? प्रभो! आप स्वयं ही (अपनी दयालुतासे) मुझपर प्रसन्न होइये’’॥ १९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीराम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्॥ २०॥

मूलम्

पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी बोले—पुरुषत्व-स्त्रीत्वका भेद अथवा जाति, नाम और आश्रम—ये कोई भी मेरे भजनके कारण नहीं हैं। उसका कारण तो एकमात्र मेरी भक्ति ही है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः।
नैव द्रष्टुमहं शक्यो मद्भक्तिविमुखैः सदा॥ २१॥

मूलम्

यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः।
नैव द्रष्टुमहं शक्यो मद्भक्तिविमुखैः सदा॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मेरी भक्तिसे विमुख हैं, वे यज्ञ, दान, तप अथवा वेदाध्ययन आदि किसी भी कर्मसे मुझे कभी नहीं देख सकते॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद्भामिनि सङ्क्षेपाद्वक्ष्येऽहं भक्तिसाधनम्।
सतां सङ्गतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम्॥ २२॥

मूलम्

तस्माद्भामिनि सङ्क्षेपाद्वक्ष्येऽहं भक्तिसाधनम्।
सतां सङ्गतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे भामिनि! मैं संक्षेपसे अपनी भक्तिके साधनोंका वर्णन करता हूँ। उनमें पहला साधन तो सत्संग ही है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वितीयं मत्कथालापस्तृतीयं मद्‍गुणेरणम्।
व्याख्यातृत्वं मद्वचसां चतुर्थं साधनं भवेत्॥ २३॥

मूलम्

द्वितीयं मत्कथालापस्तृतीयं मद्‍गुणेरणम्।
व्याख्यातृत्वं मद्वचसां चतुर्थं साधनं भवेत्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे जन्म-कर्मोंकी कथाका कीर्तन करना दूसरा साधन है, मेरे गुणोंकी चर्चा करना—यह तीसरा उपाय है और (गीता-उपनिषदादि) मेरे वाक्योंकी व्याख्या करना उसका चौथा साधन है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्योपासनं भद्रे मद्‍बुद्‍ध्यामायया सदा।
पञ्चमं पुण्यशीलत्वं यमादि नियमादि च॥ २४॥
निष्ठा मत्पूजने नित्यं षष्ठं साधनमीरितम्।
मम मन्त्रोपासकत्वं साङ्गं सप्तममुच्यते॥ २५॥

मूलम्

आचार्योपासनं भद्रे मद्‍बुद्‍ध्यामायया सदा।
पञ्चमं पुण्यशीलत्वं यमादि नियमादि च॥ २४॥
निष्ठा मत्पूजने नित्यं षष्ठं साधनमीरितम्।
मम मन्त्रोपासकत्वं साङ्गं सप्तममुच्यते॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भद्रे! अपने गुरुदेवकी निष्कपट होकर भगवद्‍बुद्धिसे सेवा करना पाँचवाँ, पवित्र स्वभाव, यम-नियमादिका पालन और मेरी पूजामें सदा प्रेम होना छठा तथा मेरे मन्त्रकी सांगोपांग उपासना करना सातवाँ साधन कहा जाता है॥ २४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्भक्तेष्वधिका पूजा सर्वभूतेषु मन्मतिः।
बाह्यार्थेषु विरागित्वं शमादिसहितं तथा॥ २६॥
अष्टमं नवमं तत्त्वविचारो मम भामिनि।
एवं नवविधा भक्तिः साधनं यस्य कस्य वा॥ २७॥
स्त्रियो वा पुरुषस्यापि तिर्यग्योनिगतस्य वा।
भक्तिः सञ्जायते प्रेमलक्षणा शुभलक्षणे॥ २८॥

मूलम्

मद्भक्तेष्वधिका पूजा सर्वभूतेषु मन्मतिः।
बाह्यार्थेषु विरागित्वं शमादिसहितं तथा॥ २६॥
अष्टमं नवमं तत्त्वविचारो मम भामिनि।
एवं नवविधा भक्तिः साधनं यस्य कस्य वा॥ २७॥
स्त्रियो वा पुरुषस्यापि तिर्यग्योनिगतस्य वा।
भक्तिः सञ्जायते प्रेमलक्षणा शुभलक्षणे॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे भक्तोंकी मुझसे भी अधिक पूजा करना, समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करना, बाह्य पदार्थोंमें वैराग्य करना और शम-दमादि-सम्पन्न होना—यह मेरी भक्तिका आठवाँ साधन है तथा तत्त्वविचार करना नवाँ है। हे भामिनि! इस प्रकार यह नौ प्रकारकी भक्ति है। हे शुभलक्षणे! जिस किसीमें ये साधन होते हैं वह स्त्री, पुरुष अथवा पशु-पक्षी आदि कोई भी क्यों न हो उसमें प्रेम-लक्षणा-भक्तिका आविर्भाव हो ही जाता है॥ २६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्तौ सञ्जातमात्रायां मत्तत्त्वानुभवस्तदा।
ममानुभवसिद्धस्य मुक्तिस्तत्रैव जन्मनि॥ २९॥
स्यात्तस्मात्कारणं भक्तिर्मोक्षस्येति सुनिश्चितम्।
प्रथमं साधनं यस्य भवेत्तस्य क्रमेण तु॥ ३०॥
भवेत्सर्वं ततो भक्तिर्मुक्तिरेव सुनिश्चितम्।
यस्मान्मद्भक्तियुक्ता त्वं ततोऽहं त्वामुपस्थितः॥ ३१॥

मूलम्

भक्तौ सञ्जातमात्रायां मत्तत्त्वानुभवस्तदा।
ममानुभवसिद्धस्य मुक्तिस्तत्रैव जन्मनि॥ २९॥
स्यात्तस्मात्कारणं भक्तिर्मोक्षस्येति सुनिश्चितम्।
प्रथमं साधनं यस्य भवेत्तस्य क्रमेण तु॥ ३०॥
भवेत्सर्वं ततो भक्तिर्मुक्तिरेव सुनिश्चितम्।
यस्मान्मद्भक्तियुक्ता त्वं ततोऽहं त्वामुपस्थितः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तिके उत्पन्न होनेमात्रसे ही मेरे स्वरूपका अनुभव हो जाता है और जिसे मेरा अनुभव हो जाता है उसकी उसी जन्ममें निस्सन्देह मुक्ति हो जाती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि मोक्षका कारण भक्ति ही है। (भक्तिके उपर्युक्त नौ साधनोंमेंसे) जिसमें पहला साधन होता है उसमें क्रमशः ये सभी आ जाते हैं। तब फिर उसे भक्ति तथा मुक्तिका प्राप्त होना निश्चित ही है। तू मेरी भक्तिसे युक्त है इसीलिये मैं तेरे पास आया हूँ॥ २९—३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतो मद्दर्शनान्मुक्तिस्तव नास्त्यत्र संशयः।
यदि जानासि मे ब्रूहि सीता कमललोचना॥ ३२॥
कुत्रास्ते केन वा नीता प्रिया मे प्रियदर्शना॥ ३३॥

मूलम्

इतो मद्दर्शनान्मुक्तिस्तव नास्त्यत्र संशयः।
यदि जानासि मे ब्रूहि सीता कमललोचना॥ ३२॥
कुत्रास्ते केन वा नीता प्रिया मे प्रियदर्शना॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अब) मेरा यह दर्शन होनेसे तेरी मुक्ति हो ही जायगी—इसमें सन्देह नहीं। यदि तुझे पता हो तो बता इस समय कमललोचना सीता कहाँ है। मेरी प्रियदर्शना प्रियाको कौन ले गया है?॥ ३२-३३॥

मूलम् (वचनम्)

शबर्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव जानासि सर्वज्ञ सर्वं त्वं विश्वभावन।
तथापि पृच्छसे यन्मां लोकाननुसृतः प्रभो॥ ३४॥
ततोऽहमभिधास्यामि सीता यत्राधुना स्थिता।
रावणेन हृता सीता लङ्कायां वर्ततेऽधुना॥ ३५॥

मूलम्

देव जानासि सर्वज्ञ सर्वं त्वं विश्वभावन।
तथापि पृच्छसे यन्मां लोकाननुसृतः प्रभो॥ ३४॥
ततोऽहमभिधास्यामि सीता यत्राधुना स्थिता।
रावणेन हृता सीता लङ्कायां वर्ततेऽधुना॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

शबरी बोली—हे देव! हे सर्वज्ञ! हे विश्वभावन! आप सभी कुछ जानते हैं। तथापि हे प्रभो! लोकाचारका अनुसरण करते हुए यदि आप मुझसे पूछते हैं तो इस समय सीताजी जहाँ हैं वह मैं आपको बतलाती हूँ। सीताजीको रावण हर ले गया है और इस समय वे लंकामें हैं॥ ३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतः समीपे रामास्ते पम्पानाम सरोवरम्।
ऋष्यमूकगिरिर्नाम तत्समीपे महानगः॥ ३६॥

मूलम्

इतः समीपे रामास्ते पम्पानाम सरोवरम्।
ऋष्यमूकगिरिर्नाम तत्समीपे महानगः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! यहाँसे पास ही पम्पा नामका एक सरोवर है। उसके समीप ऋष्यमूक नामका एक बहुत बड़ा पर्वत है॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं सुग्रीवो वानराधिपः।
भीतभीतः सदा यत्र तिष्ठत्यतुलविक्रमः॥ ३७॥
वालिनश्च भयाद् भ्रातुस्तदगम्यमृषेर्भयात्।
वालिनस्तत्र गच्छ त्वं तेन सख्यं कुरु प्रभो॥ ३८॥
सुग्रीवेण स सर्वं ते कार्यं सम्पादयिष्यति।
अहमग्निं प्रवेक्ष्यामि तवाग्रे रघुनन्दन॥ ३९॥

मूलम्

चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं सुग्रीवो वानराधिपः।
भीतभीतः सदा यत्र तिष्ठत्यतुलविक्रमः॥ ३७॥
वालिनश्च भयाद् भ्रातुस्तदगम्यमृषेर्भयात्।
वालिनस्तत्र गच्छ त्वं तेन सख्यं कुरु प्रभो॥ ३८॥
सुग्रीवेण स सर्वं ते कार्यं सम्पादयिष्यति।
अहमग्निं प्रवेक्ष्यामि तवाग्रे रघुनन्दन॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अतुलित पराक्रमी वानरराज सुग्रीव अपने भाई वालीके भयसे सदा अत्यन्त डरता हुआ अपने चार मन्त्रियोंके साथ रहता है। ऋषि-शापके भयसे वह स्थान वालीके लिये सर्वथा अगम्य है। हे प्रभो! आप वहाँ जाइये और उस सुग्रीवसे मित्रता कीजिये। वह आपका सब कार्य सिद्ध करेगा। हे रघुनन्दन! अब मैं आपके सामने ही अग्निमें प्रवेश करूँगी॥ ३७—३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तं तिष्ठ राजेन्द्र यावद्दग्ध्वा कलेवरम्।
यास्यामि भगवन् राम तव विष्णोः परं पदम्॥ ४०॥

मूलम्

मुहूर्तं तिष्ठ राजेन्द्र यावद्दग्ध्वा कलेवरम्।
यास्यामि भगवन् राम तव विष्णोः परं पदम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेश्वर! हे भगवन्! हे राम! जबतक मैं अपने शरीरको जलाकर आप विष्णुभगवान् के परमधामको जाऊँ, तबतक आप एक मुहूर्त यहाँ और ठहरिये॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति रामं समामन्त्र्य प्रविवेश हुताशनम्।
क्षणान्निर्धूय सकलमविद्याकृतबन्धनम्।
रामप्रसादाच्छबरी मोक्षं प्रापातिदुर्लभम्॥ ४१॥

मूलम्

इति रामं समामन्त्र्य प्रविवेश हुताशनम्।
क्षणान्निर्धूय सकलमविद्याकृतबन्धनम्।
रामप्रसादाच्छबरी मोक्षं प्रापातिदुर्लभम्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके साथ इस प्रकार सम्भाषण करनेके अनन्तर शबरीने अग्निमें प्रवेश किया और एक क्षणमें ही समस्त अविद्याजन्य बन्धनोंको नष्टकर भगवान् रामकी कृपासे अति दुर्लभ मोक्ष-पद प्राप्त किया॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं दुर्लभं जगन्नाथे श्रीरामे भक्तवत्सले।
प्रसन्नेऽधमजन्मापि शबरी मुक्तिमाप सा॥ ४२॥

मूलम्

किं दुर्लभं जगन्नाथे श्रीरामे भक्तवत्सले।
प्रसन्नेऽधमजन्मापि शबरी मुक्तिमाप सा॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तवत्सल जगन्नाथ श्रीरामके प्रसन्न होनेपर क्या दुर्लभ है। (देखो, उनकी कृपासे) नीच जातिमें उत्पन्न हुई शबरीने भी मोक्षपद प्राप्त कर लिया॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनर्ब्राह्मणा मुख्याः पुण्याः श्रीरामचिन्तकाः।
मुक्तिं यान्तीति तद्भक्तिर्मुक्तिरेव न संशयः॥ ४३॥

मूलम्

किं पुनर्ब्राह्मणा मुख्याः पुण्याः श्रीरामचिन्तकाः।
मुक्तिं यान्तीति तद्भक्तिर्मुक्तिरेव न संशयः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामका ध्यान करनेवाले पुण्यजन्मा ब्राह्मणादि यदि मुक्त हो जायँ तो इसमें क्या आश्चर्य है? निस्सन्देह भगवान् रामकी भक्ति ही मुक्ति है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्तिर्मुक्तिविधायिनी भगवतः
श्रीरामचन्द्रस्य हे
लोकाः कामदुघाङ्घ्रिपद्मयुगलं
सेवध्वमत्युत्सुकाः।
नानाज्ञानविशेषमन्त्रविततिं
त्यक्त्वा सुदूरे भृशं
रामं श्यामतनुं स्मरारिहृदये
भान्तं भजध्वं बुधाः॥ ४४॥

मूलम्

भक्तिर्मुक्तिविधायिनी भगवतः
श्रीरामचन्द्रस्य हे
लोकाः कामदुघाङ्घ्रिपद्मयुगलं
सेवध्वमत्युत्सुकाः।
नानाज्ञानविशेषमन्त्रविततिं
त्यक्त्वा सुदूरे भृशं
रामं श्यामतनुं स्मरारिहृदये
भान्तं भजध्वं बुधाः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे लोगो! भगवान् श्रीरामचन्द्रकी भक्ति ही मोक्ष देनेवाली है। अतः कामधेनुरूप उनके चरण-युगलोंकी अति उत्सुकतासे सेवा करो। हे बुद्धिमान् लोगो! इन विविध विज्ञानवार्ताओं और मन्त्र-विस्तारको अत्यन्त दूर—अलग रखकर तुरंत ही श्रीशंकरके हृदयधाममें शोभा पानेवाले श्यामशरीर भगवान् रामका अत्यन्त भजन करो॥ ४४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे दशमः सर्गः॥ १०॥
समाप्तमिदमरण्यकाण्डम्