०९

[नवम सर्ग]

भागसूचना

कबन्धोद्धार

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामो लक्ष्मणेन जगाम विपिनान्तरम्।
पुनर्दुःखं समाश्रित्य सीतान्वेषणतत्परः॥ १॥

मूलम्

ततो रामो लक्ष्मणेन जगाम विपिनान्तरम्।
पुनर्दुःखं समाश्रित्य सीतान्वेषणतत्परः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी दुःखी होकर फिर सीताजीको खोजते हुए लक्ष्मणजीके साथ दूसरे वनको गये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतसमाकारो राक्षसः प्रत्यदृश्यत।
वक्षस्येव महावक्त्रश्चक्षुरादिविवर्जितः॥ २॥

मूलम्

तत्राद्भुतसमाकारो राक्षसः प्रत्यदृश्यत।
वक्षस्येव महावक्त्रश्चक्षुरादिविवर्जितः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने एक बड़े ही विचित्र आकारका राक्षस देखा, जिसके वक्षःस्थलमें ही एक बड़ा भारी मुख था, जो नेत्र तथा कर्ण आदिसे रहित था॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहू योजनमात्रेण व्यापृतौ तस्य रक्षसः।
कबन्धो नाम दैत्येन्द्रः सर्वसत्त्वविहिंसकः॥ ३॥

मूलम्

बाहू योजनमात्रेण व्यापृतौ तस्य रक्षसः।
कबन्धो नाम दैत्येन्द्रः सर्वसत्त्वविहिंसकः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस राक्षसकी भुजाएँ एक-एक योजनतक फैली हुई थीं। यह सम्पूर्ण प्राणियोंकी हिंसा करनेवाला ‘कबन्ध’ नामक दैत्यराज था॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्बाह्वोर्मध्यदेशे तौ चरन्तौ रामलक्ष्मणौ।
ददर्शतुर्महासत्त्वं तद्बाहुपरिवेष्टितौ॥ ४॥

मूलम्

तद्बाह्वोर्मध्यदेशे तौ चरन्तौ रामलक्ष्मणौ।
ददर्शतुर्महासत्त्वं तद्बाहुपरिवेष्टितौ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी भुजाओंके बीचमें चलते हुए उनसे घिरे हुए राम और लक्ष्मणने उस महाबलवान् राक्षसको देखा॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः प्रोवाच विहसन् पश्य लक्ष्मण राक्षसम्।
शिरः पादविहीनोऽयं यस्य वक्षसि चाननम्॥ ५॥

मूलम्

रामः प्रोवाच विहसन् पश्य लक्ष्मण राक्षसम्।
शिरः पादविहीनोऽयं यस्य वक्षसि चाननम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रामचन्द्रजीने हँसते हुए कहा—‘‘लक्ष्मण! इस राक्षसको देखो; यह सिर-पैरसे रहित है और इसकी छातीमें ही मुँह है॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभ्यां लभ्यते यद्यत्तत्तद्भक्षन् स्थितो ध्रुवम्।
आवामप्येतयोर्बाह्वोर्मध्ये सङ्कलितौ ध्रुवम्॥ ६॥

मूलम्

बाहुभ्यां लभ्यते यद्यत्तत्तद्भक्षन् स्थितो ध्रुवम्।
आवामप्येतयोर्बाह्वोर्मध्ये सङ्कलितौ ध्रुवम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी भुजाओंसे ही इसे जो कुछ मिल जाता है उसीको खाकर यह जीवित रहता है। हम भी निश्चय ही इसकी भुजाओंके बीचमें फँस गये हैं॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्तुमन्यत्र मार्गो न दृश्यते रघुनन्दन।
किं कर्तव्यमितोऽस्माभिरिदानीं भक्षयेत्स नौ॥ ७॥

मूलम्

गन्तुमन्यत्र मार्गो न दृश्यते रघुनन्दन।
किं कर्तव्यमितोऽस्माभिरिदानीं भक्षयेत्स नौ॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनन्दन! इसके चंगुलमेंसे निकलनेका हमें कोई मार्ग दिखायी नहीं देता; अब हमें क्या करना चाहिये? (जल्दी विचार करो नहीं तो) यह हमें अभी खा जायगा’’॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणस्तमुवाचेदं किं विचारेण राघव।
आवामेकैकमव्यग्रौ छिन्द्यावास्य भुजौ ध्रुवम्॥ ८॥

मूलम्

लक्ष्मणस्तमुवाचेदं किं विचारेण राघव।
आवामेकैकमव्यग्रौ छिन्द्यावास्य भुजौ ध्रुवम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीने कहा—‘‘हे राघव! इसमें अधिक विचारनेकी क्या बात है? हम दोनों सावधान होकर अभी इसकी एक-एक भुजा काट डालें’’॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति रामः खड्गेन भुजं दक्षिणमच्छिनत्।
तथैव लक्ष्मणो वामं चिच्छेद भुजमञ्जसा॥ ९॥

मूलम्

तथेति रामः खड्गेन भुजं दक्षिणमच्छिनत्।
तथैव लक्ष्मणो वामं चिच्छेद भुजमञ्जसा॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामचन्द्रजीने कहा—‘बहुत ठीक’ और खड्गसे उसकी दायीं भुजा काट डाली। वैसे ही लक्ष्मणजीने भी तुरंत ही उसकी बायीं भुजा उड़ा दी॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिविस्मितो दैत्यः कौ युवां सुरपुङ्गवौ।
मद्बाहुच्छेदकौ लोके दिवि देवेषु वा कुतः॥ १०॥

मूलम्

ततोऽतिविस्मितो दैत्यः कौ युवां सुरपुङ्गवौ।
मद्बाहुच्छेदकौ लोके दिवि देवेषु वा कुतः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उस दैत्यने अति विस्मयपूर्वक (कहा—) ‘‘मेरी भुजाओंको काटनेवाले तुम कौन देवश्रेष्ठ हो? इस लोकमें अथवा स्वर्गवासी देवताओंमें भी कोई ऐसा (समर्थ) होना सम्भव नहीं’’॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद्धसन्नेव रामो राजीवलोचनः।
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् राजा दशरथो महान्॥ ११॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद्धसन्नेव रामो राजीवलोचनः।
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् राजा दशरथो महान्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसपर कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीने हँसते हुए कहा—‘‘श्रीमान् महाराज दशरथ अयोध्याके स्वामी थे॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामोऽहं तस्य पुत्रोऽसौ भ्राता मे लक्ष्मणः सुधीः।
मम भार्या जनकजा सीता त्रैलोक्यसुन्दरी॥ १२॥

मूलम्

रामोऽहं तस्य पुत्रोऽसौ भ्राता मे लक्ष्मणः सुधीः।
मम भार्या जनकजा सीता त्रैलोक्यसुन्दरी॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उन्हींका पुत्र ‘राम’ हूँ और यह बुद्धिमान् मेरा छोटा भाई ‘लक्ष्मण’ है तथा त्रैलोक्यसुन्दरी जनकनन्दिनी सीता मेरी भार्या है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवां मृगयया यातौ तदा केनापि रक्षसा।
नीतां सीतां विचिन्वन्तौ चागतौ घोरकानने॥ १३॥
बाहुभ्यां वेष्टितावत्र तव प्राणरिरक्षया।
छिन्नौ तव भुजौ त्वं च को वा विकटरूपधृक्॥ १४॥

मूलम्

आवां मृगयया यातौ तदा केनापि रक्षसा।
नीतां सीतां विचिन्वन्तौ चागतौ घोरकानने॥ १३॥
बाहुभ्यां वेष्टितावत्र तव प्राणरिरक्षया।
छिन्नौ तव भुजौ त्वं च को वा विकटरूपधृक्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम मृगया (शिकार)-के लिये बाहर गये हुए थे कि किसी राक्षसने सीताको चुरा लिया, उसीको ढूँढ़ते हुए हम यहाँ इस घोर वनमें आ गये। इतनेहीमें तुमने हमें अपनी भुजाओंसे घेर लिया। तब हमने अपने प्राण बचानेके लिये तुम्हारी भुजाएँ काट डालीं। अब यह बताओ—ऐसे विकट रूपवाले तुम कौन हो?’’॥ १३-१४॥

मूलम् (वचनम्)

कबन्ध उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्योऽहं यदि रामस्त्वमागतोऽसि ममान्तिकम्।
पुरा गन्धर्वराजोऽहं रूपयौवनदर्पितः॥ १५॥

मूलम्

धन्योऽहं यदि रामस्त्वमागतोऽसि ममान्तिकम्।
पुरा गन्धर्वराजोऽहं रूपयौवनदर्पितः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कबन्धने कहा—‘‘यदि आप राम हैं और स्वयं मेरे पास आये हैं तो मैं धन्य हूँ। पूर्वकालमें मैं रूप और यौवनके मदसे उन्मत्त एक गन्धर्वराज था॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचरल्ँलोकमखिलं वरनारीमनोहरः।
तपसा ब्रह्मणो लब्धमवध्यत्वं रघूत्तम॥ १६॥

मूलम्

विचरल्ँलोकमखिलं वरनारीमनोहरः।
तपसा ब्रह्मणो लब्धमवध्यत्वं रघूत्तम॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! मैंने तपस्याद्वारा ब्रह्माजीसे अवध्यता (किसीसे भी न मारे जा सकनेकी योग्यता) प्राप्त कर ली थी और मैं अपनी रूपकान्तिसे सुन्दर स्त्रियोंके चित्तोंको चुराता हुआ सम्पूर्ण लोकोंमें घूमा करता था॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टावक्रं मुनिं दृष्ट्वा कदाचिदहसं पुरा।
क्रुद्धोऽसावाह दुष्ट त्वं राक्षसो भव दुर्मते॥ १७॥

मूलम्

अष्टावक्रं मुनिं दृष्ट्वा कदाचिदहसं पुरा।
क्रुद्धोऽसावाह दुष्ट त्वं राक्षसो भव दुर्मते॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार अष्टावक्र मुनिको देखकर मैं हँस पड़ा; अतः उन्होंने क्रोधित होकर कहा—‘‘अरे दुष्ट दुर्बुद्धे! तू राक्षस हो जा’’॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टावक्रः पुनः प्राह वन्दितो मे दयापरः।
शापस्यान्तं च मे प्राह तपसा द्योतितप्रभः॥ १८॥

मूलम्

अष्टावक्रः पुनः प्राह वन्दितो मे दयापरः।
शापस्यान्तं च मे प्राह तपसा द्योतितप्रभः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उनके शापसे भयभीत होकर जब) मैंने उनकी स्तुति की तो तपके कारण परम तेजस्वी उन दयालु मुनीश्वरने मेरे शापका अन्त इस प्रकार बताया॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणः स्वयम्।
आगमिष्यति ते बाहू छिद्येते योजनायतौ॥ १९॥

मूलम्

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणः स्वयम्।
आगमिष्यति ते बाहू छिद्येते योजनायतौ॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे बोले—) ‘‘त्रेतायुगमें स्वयं नारायण दशरथके यहाँ अवतार लेकर तेरे पास आयेंगे और वे तेरी एक-एक योजन लंबी भुजाओंको काट डालेंगे॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन शापाद्विनिर्मुक्तो भविष्यसि यथा पुरा।
इति शप्तोऽहमद्राक्षं राक्षसीं तनुमात्मनः॥ २०॥

मूलम्

तेन शापाद्विनिर्मुक्तो भविष्यसि यथा पुरा।
इति शप्तोऽहमद्राक्षं राक्षसीं तनुमात्मनः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब तू शापसे छूटकर अपना पूर्वरूप धारण करेगा।’’ उनके इस प्रकार शाप देनेसे मैंने अपनेको राक्षसरूपमें देखा॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचिद्देवराजानमभ्याद्रवमहं रुषा।
सोऽपि वज्रेण मां राम शिरोदेशेऽभ्यताडयत्॥ २१॥

मूलम्

कदाचिद्देवराजानमभ्याद्रवमहं रुषा।
सोऽपि वज्रेण मां राम शिरोदेशेऽभ्यताडयत्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! एक बार मैं रोषपूर्वक देवराज इन्द्रके पीछे दौड़ा। तब उसने क्रोधित होकर मेरे सिरपर अपना वज्र मारा॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा शिरो गतं कुक्षिं पादौ च रघुनन्दन।
ब्रह्मदत्तवरान्मृत्युर्नाभून्मे वज्रताडनात्॥ २२॥

मूलम्

तदा शिरो गतं कुक्षिं पादौ च रघुनन्दन।
ब्रह्मदत्तवरान्मृत्युर्नाभून्मे वज्रताडनात्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनन्दन! उस वज्रके आघातसे मेरे सिर और पैर पेटमें घुस गये। किन्तु ब्रह्माजीके वरके प्रभावसे मैं मरा नहीं॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखाभावे कथं जीवेदयमित्यमराधिपम्।
ऊचुः सर्वे दयाविष्टा मां विलोक्यास्यवर्जितम्॥ २३॥

मूलम्

मुखाभावे कथं जीवेदयमित्यमराधिपम्।
ऊचुः सर्वे दयाविष्टा मां विलोक्यास्यवर्जितम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे मुखहीन देखकर समस्त देवताओंने दयावश हो देवराजसे कहा—‘‘यह बिना मुखके कैसे जीवित रह सकेगा?’’॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मां प्राह मघवा जठरे ते मुखं भवेत्।
बाहू ते योजनायामौ भविष्यत इतो व्रज॥ २४॥

मूलम्

ततो मां प्राह मघवा जठरे ते मुखं भवेत्।
बाहू ते योजनायामौ भविष्यत इतो व्रज॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रने मुझसे कहा—‘‘तेरे पेटमें ही मुख होगा और तेरी भुजाएँ एक-एक योजन लंबी हो जायँगी, अब तू यहाँसे चला जा’’॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तोऽत्र वसन्नित्यं बाहुभ्यां वनगोचरान्।
भक्षयाम्यधुना बाहू खण्डितौ मे त्वयानघ॥ २५॥

मूलम्

इत्युक्तोऽत्र वसन्नित्यं बाहुभ्यां वनगोचरान्।
भक्षयाम्यधुना बाहू खण्डितौ मे त्वयानघ॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके ऐसा कहनेपर मैं यहीं रहकर नित्यप्रति अपनी भुजाओंसे वनके जीवोंको खींचकर खाता रहा हूँ। हे अनघ! अब उन भुजाओंको आपने काट डाला॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतः परं मां श्वभ्रास्ये निक्षिपाग्नीन्धनावृते।
अग्निना दह्यमानोऽहं त्वया रघुकुलोत्तम॥ २६॥

मूलम्

इतः परं मां श्वभ्रास्ये निक्षिपाग्नीन्धनावृते।
अग्निना दह्यमानोऽहं त्वया रघुकुलोत्तम॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुकुलश्रेष्ठ! अब आप मुझे एक अग्नि और ईंधनसे युक्त गड्ढेमें डाल दीजिये। आपके द्वारा अग्निसे दग्ध होनेपर अपना पूर्वरूप धारण कर मैं आपकी भार्याका पता बताऊँगा’’॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वरूपमनुप्राप्य भार्यामार्गं वदामि ते।
इत्युक्ते लक्ष्मणेनाशु श्वभ्रं निर्माय तत्र तम्॥ २७॥
निक्षिप्य प्रादहत्काष्ठैस्ततो देहात्समुत्थितः।
कन्दर्पसदृशाकारः सर्वाभरणभूषितः॥ २८॥

मूलम्

पूर्वरूपमनुप्राप्य भार्यामार्गं वदामि ते।
इत्युक्ते लक्ष्मणेनाशु श्वभ्रं निर्माय तत्र तम्॥ २७॥
निक्षिप्य प्रादहत्काष्ठैस्ततो देहात्समुत्थितः।
कन्दर्पसदृशाकारः सर्वाभरणभूषितः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके इस प्रकार कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीसे तुरंत ही एक बड़ा गड्ढा तैयार कराया और उसे उसमें डालकर लकड़ियोंसे जला दिया। तब उसके शरीरसे एक सर्वालंकारविभूषित कामदेवके समान अति सुन्दर पुरुष प्रकट हुआ॥ २७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं प्रदक्षिणं कृत्वा साष्टाङ्गं प्रणिपत्य च।
कृताञ्जलिरुवाचेदं भक्तिगद्‍गदया गिरा॥ २९॥

मूलम्

रामं प्रदक्षिणं कृत्वा साष्टाङ्गं प्रणिपत्य च।
कृताञ्जलिरुवाचेदं भक्तिगद्‍गदया गिरा॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने रामचन्द्रजीकी परिक्रमा कर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और भक्तिसे गद्‍गद-कण्ठ हो हाथ जोड़कर कहने लगा॥ २९॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तोतुमुत्सहते मेऽद्य मनो रामातिसम्भ्रमात्।
त्वामनन्तमनाद्यन्तं मनोवाचामगोचरम्॥ ३०॥

मूलम्

स्तोतुमुत्सहते मेऽद्य मनो रामातिसम्भ्रमात्।
त्वामनन्तमनाद्यन्तं मनोवाचामगोचरम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व बोला—हे राम! आप अनन्त, आदि-अन्तसे रहित और मन-वाणीके अविषय हैं; (तथापि) आज मेरा मन आपकी स्तुति करनेको बड़े वेगसे उत्सुक हो रहा है॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूक्ष्मं ते रूपमव्यक्तं देहद्वयविलक्षणम्।
दृग‍्‍रूपमितरत्सर्वं दृश्यं जडमनात्मकम्।
तत्कथं त्वां विजानीयाद्‍व्यतिरिक्तं मनः प्रभो॥ ३१॥
बुद्‍ध्यात्माभासयोरैक्यं जीव इत्यभिधीयते।
बुद्‍ध्यादिसाक्षी ब्रह्मैव तस्मिन्निर्विषयेऽखिलम्॥ ३२॥
आरोप्यतेऽज्ञानवशान्निर्विकारेऽखिलात्मनि।
हिरण्यगर्भस्ते सूक्ष्मं देहं स्थूलं विराट् स्मृतम्॥ ३३॥
भावनाविषयो राम सूक्ष्मं ते ध्यातृमङ्गलम्।
भूतं भव्यं भविष्यच्च यत्रेदं दृश्यते जगत् ॥ ३४॥

मूलम्

सूक्ष्मं ते रूपमव्यक्तं देहद्वयविलक्षणम्।
दृग‍्‍रूपमितरत्सर्वं दृश्यं जडमनात्मकम्।
तत्कथं त्वां विजानीयाद्‍व्यतिरिक्तं मनः प्रभो॥ ३१॥
बुद्‍ध्यात्माभासयोरैक्यं जीव इत्यभिधीयते।
बुद्‍ध्यादिसाक्षी ब्रह्मैव तस्मिन्निर्विषयेऽखिलम्॥ ३२॥
आरोप्यतेऽज्ञानवशान्निर्विकारेऽखिलात्मनि।
हिरण्यगर्भस्ते सूक्ष्मं देहं स्थूलं विराट् स्मृतम्॥ ३३॥
भावनाविषयो राम सूक्ष्मं ते ध्यातृमङ्गलम्।
भूतं भव्यं भविष्यच्च यत्रेदं दृश्यते जगत् ॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपके स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर (विराट् और हिरण्यगर्भ)-से आपका वास्तविक ज्ञानमय स्वरूप सूक्ष्म अर्थात् योगियोंसे भी सर्वथा दुर्ज्ञेय है। उससे अतिरिक्त जो कुछ है वह जड दृश्य और अनात्मा है। अतः आपसे भिन्न यह जड मन आपको कैसे जान सकता है? बुद्धि और चिदाभासका अन्योन्याध्यासरूप ऐक्य ही जीव कहलाता है। इन बुद्धि आदि सबका साक्षी ब्रह्म ही है; वह मन-वाणी आदि किसीका भी विषय नहीं है, उसी निर्विकार सर्वात्मामें अज्ञानवश इस सम्पूर्ण चराचर जगत् को आरोपित किया जाता है। हे राम! आपका सूक्ष्म देह हिरण्यगर्भ और स्थूल देह विराट् कहलाता है। आपका भावनामय (हृदयकमलमें ध्यान करने योग्य) सूक्ष्म रूप जिसमें भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह सम्पूर्ण जगत् दीख पड़ता है, अपने ध्यान करनेवालोंका मंगल करनेवाला है॥ ३१—३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थूलेऽण्डकोशे देहे ते महदादिभिरावृते।
सप्तभिरुत्तरगुणैर्वैराजो धारणाश्रयः॥ ३५॥

मूलम्

स्थूलेऽण्डकोशे देहे ते महदादिभिरावृते।
सप्तभिरुत्तरगुणैर्वैराजो धारणाश्रयः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-अपने उत्तरवर्ती तत्त्वोंसे प्रत्येक दसगुना अधिक महत्तत्त्वादि सात आवरणोंसे* घिरे हुए आपके स्थूल ब्रह्माण्डशरीरमें ही धारणाका आश्रयरूप विराट् शरीर स्थित है॥ ३५॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ सांख्य तथा पुराणसम्मत इस प्रकारकी प्रक्रिया टीकामें लिखी है—स्वयम्भू (ब्रह्मा)-के संकल्पसे उत्पन्न चतुर्दश भुवन (भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्) है, जो स्वयम्भूका स्थूल शरीर है। उसके बाहर चारों ओर पृथिवी तेजसे उत्पन्न अण्ड है जो चतुर्दश भुवनसे दसगुना है। उस अण्डका आवरण पृथिवी है जो अण्डसे दसगुना है। इस पृथिवीका आवरण जल है—यह पृथिवीसे दसगुना अधिक है, जलका आवरण तेज, तेजका आवरण वायु, वायुका आवरण आकाश, आकाशका आवरण अहंकार, अहंकारका आवरण महत्तत्त्व है; इनमें प्रत्येक आवरण अपने आवरणीय पृथिवी आदिसे दसगुना बड़ा है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये सब आवरण यहाँ सूक्ष्म पृथिवी आदि हैं, स्थूल नहीं हैं।
    यहाँ विराट्‍रूपको धारणाका आश्रय (विषय) कहा है। योगदर्शनमें धारणा इस प्रकार कही है—‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’ (३। १)।
    विषयान्तरको त्यागकर किसी वस्तुमें वृत्तिद्वारा चित्तके स्थिरीकरणका नाम धारणा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव सर्वकैवल्यं लोकास्तेऽवयवाः स्मृताः।
पातालं ते पादमूलं पार्ष्णिस्तव महातलम्॥ ३६॥

मूलम्

त्वमेव सर्वकैवल्यं लोकास्तेऽवयवाः स्मृताः।
पातालं ते पादमूलं पार्ष्णिस्तव महातलम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही एकमात्र सर्व मोक्षस्वरूप हैं। सम्पूर्ण लोक आपहीके अवयव हैं। पाताल आपका चरणतल (तलुआ) है, महातल एड़ी है॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसातलं ते गुल्फौ तु तलातलमितीर्यते।
जानुनी सुतलं राम ऊरू ते वितलं तथा॥ ३७॥

मूलम्

रसातलं ते गुल्फौ तु तलातलमितीर्यते।
जानुनी सुतलं राम ऊरू ते वितलं तथा॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! रसातल गुल्फ (टखने) हैं, तलातल जानु हैं तथा सुतल आपकी जंघाएँ और वितल आपके दो ऊरु हैं॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतलं च मही राम जघनं नाभिगं नभः।
उरःस्थलं ते ज्योतींषि ग्रीवा ते मह उच्यते॥ ३८॥

मूलम्

अतलं च मही राम जघनं नाभिगं नभः।
उरःस्थलं ते ज्योतींषि ग्रीवा ते मह उच्यते॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतल और पृथिवी आपकी जघन भाग (कटिदेश) हैं, भूर्लोक नाभि है, स्वर्लोक वक्षःस्थल है तथा महर्लोक आपकी ग्रीवा है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वदनं जनलोकस्ते तपस्ते शङ्खदेशगम्।
सत्यलोको रघुश्रेष्ठ शीर्षण्यास्ते सदा प्रभो॥ ३९॥

मूलम्

वदनं जनलोकस्ते तपस्ते शङ्खदेशगम्।
सत्यलोको रघुश्रेष्ठ शीर्षण्यास्ते सदा प्रभो॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! जनलोक आपका मुख है, तपःलोक ललाट है तथा हे प्रभो! सत्यलोक आपका मस्तक है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रादयो लोकपाला बाहवस्ते दिशः श्रुती।
अश्विनौ नासिके राम वक्त्रं तेऽग्निरुदाहृतः॥ ४०॥

मूलम्

इन्द्रादयो लोकपाला बाहवस्ते दिशः श्रुती।
अश्विनौ नासिके राम वक्त्रं तेऽग्निरुदाहृतः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! इन्द्रादि लोकपालगण आपकी भुजाएँ हैं, दिशाएँ कर्ण हैं, अश्विनीकुमार नासिका हैं और अग्नि आपका मुख बताया गया है॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुस्ते सविता राम मनश्चन्द्र उदाहृतः।
भ्रूभ्रङ्ग एव कालस्ते बुद्धिस्ते वाक्पतिर्भवेत्॥ ४१॥

मूलम्

चक्षुस्ते सविता राम मनश्चन्द्र उदाहृतः।
भ्रूभ्रङ्ग एव कालस्ते बुद्धिस्ते वाक्पतिर्भवेत्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! सूर्य आपके नेत्र हैं, चन्द्रमा मन है, काल भ्रूभंगी है और बृहस्पतिजी आपकी बुद्धि हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुद्रोऽहङ्काररूपस्ते वाचश्छन्दांसि तेऽव्यय।
यमस्ते दंष्ट्रदेशस्थो नक्षत्राणि द्विजालयः॥ ४२॥

मूलम्

रुद्रोऽहङ्काररूपस्ते वाचश्छन्दांसि तेऽव्यय।
यमस्ते दंष्ट्रदेशस्थो नक्षत्राणि द्विजालयः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे निर्विकार! रुद्र आपका अहंकार है, वेद आपकी वाणी है, यम आपकी दाढ़ें हैं और नक्षत्रगण आपकी दन्तावलि है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हासो मोहकरी माया सृष्टिस्तेऽपाङ्गमोक्षणम्।
धर्मः पुरस्तेऽधर्मश्च पृष्ठभाग उदीरितः॥ ४३॥

मूलम्

हासो मोहकरी माया सृष्टिस्तेऽपाङ्गमोक्षणम्।
धर्मः पुरस्तेऽधर्मश्च पृष्ठभाग उदीरितः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबको मोहित करनेवाली माया आपका हास्य है, सृष्टि आपका कटाक्ष है, धर्म आपका आगेका भाग है और अधर्म पीछेका भाग है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमिषोन्मेषणे रात्रिर्दिवा चैव रघूत्तम।
समुद्राः सप्त ते कुक्षिर्नाड्यो नद्यस्तव प्रभो॥ ४४॥

मूलम्

निमिषोन्मेषणे रात्रिर्दिवा चैव रघूत्तम।
समुद्राः सप्त ते कुक्षिर्नाड्यो नद्यस्तव प्रभो॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघूत्तम! रात और दिन आपके निमेषोन्मेष हैं। हे प्रभो! सातों समुद्र आपकी कुक्षि और नदियाँ नाड़ियाँ हैं॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोमाणि वृक्षौषधयो रेतो वृष्टिस्तव प्रभो।
महिमा ज्ञानशक्तिस्ते एवं स्थूलं वपुस्तव॥ ४५॥

मूलम्

रोमाणि वृक्षौषधयो रेतो वृष्टिस्तव प्रभो।
महिमा ज्ञानशक्तिस्ते एवं स्थूलं वपुस्तव॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! वृक्ष और ओषधियाँ आपके रोम, वृष्टि आपका वीर्य और ज्ञानशक्ति आपकी महिमा है। यही आपका स्थूल शरीर है॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदस्मिन् स्थूलरूपे ते मनः सन्धार्यते नरैः।
अनायासेन मुक्तिः स्यादतोऽन्यन्नहि किञ्चन॥ ४६॥

मूलम्

यदस्मिन् स्थूलरूपे ते मनः सन्धार्यते नरैः।
अनायासेन मुक्तिः स्यादतोऽन्यन्नहि किञ्चन॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि पुरुष आपके इस स्थूल शरीरमें मन स्थिर करे (धारणा करे) तो वह अनायास ही मुक्त हो जाता है। हे राम! आपके इस स्थूल रूपसे पृथक् और कोई पदार्थ नहीं है॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽहं राम रूपं ते स्थूलमेवानुभावये।
यस्मिन्ध्याते प्रेमरसः सरोमपुलको भवेत्॥ ४७॥

मूलम्

अतोऽहं राम रूपं ते स्थूलमेवानुभावये।
यस्मिन्ध्याते प्रेमरसः सरोमपुलको भवेत्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे राम! मैं आपके उस स्थूल रूपका ही सदा चिन्तन करता हूँ, जिसके ध्यानमात्रसे ही शरीरमें रोमांचके सहित (हृदयमें) प्रेम-रसका संचार हो जाता है॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैव मुक्तिः स्याद्‍राम यदा ते स्थूलभावकः।
तदप्यास्तां तवैवाहमेतद्‍रूपं विचिन्तये॥ ४८॥

मूलम्

तदैव मुक्तिः स्याद्‍राम यदा ते स्थूलभावकः।
तदप्यास्तां तवैवाहमेतद्‍रूपं विचिन्तये॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! जब यह जीव आपके विराट् रूपका चिन्तन करता है तो तत्काल ही उसकी मुक्ति हो जाती है तो भी मुझे उसकी आवश्यकता नहीं। मैं तो आपके इस (रामरूप)-का ही चिन्तन करूँगा॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्बाणधरं श्यामं जटावल्कलभूषितम्।
अपीच्यवयसं सीतां विचिन्वन्तं सलक्ष्मणम्॥ ४९॥
इदमेव सदा मे स्यान्मानसे रघुनन्दन।
सर्वज्ञः शङ्करः साक्षात्पार्वत्या सहितः सदा॥ ५०॥
त्वद्रूपमेवं सततं ध्यायन्नास्ते रघूत्तम।
मुमूर्षूणां तदा काश्यां तारकं ब्रह्मवाचकम्॥ ५१॥
रामरामेत्युपदिशन्सदा सन्तुष्टमानसः।
अतस्त्वं जानकीनाथ परमात्मा सुनिश्चितः॥ ५२॥

मूलम्

धनुर्बाणधरं श्यामं जटावल्कलभूषितम्।
अपीच्यवयसं सीतां विचिन्वन्तं सलक्ष्मणम्॥ ४९॥
इदमेव सदा मे स्यान्मानसे रघुनन्दन।
सर्वज्ञः शङ्करः साक्षात्पार्वत्या सहितः सदा॥ ५०॥
त्वद्रूपमेवं सततं ध्यायन्नास्ते रघूत्तम।
मुमूर्षूणां तदा काश्यां तारकं ब्रह्मवाचकम्॥ ५१॥
रामरामेत्युपदिशन्सदा सन्तुष्टमानसः।
अतस्त्वं जानकीनाथ परमात्मा सुनिश्चितः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनन्दन! (मेरी यही प्रार्थना है कि) लक्ष्मणजीके सहित सीताको खोजता हुआ आपका यह जटा-वल्कल-विभूषित धनुष-बाणधारी तरुणवयस्क श्यामरूप सदा मेरे मनमें विराजमान रहे। हे रघुश्रेष्ठ! आपके इस दिव्य रूपका पार्वतीजीके सहित सर्वज्ञ श्रीशंकरभगवान् सर्वदा चिन्तन किया करते हैं और काशीमें मरनेवालोंको ब्रह्मवाचक ‘राम-राम’ इस तारक-मन्त्रका उपदेश करते हुए सदा अति आनन्दमें मग्नचित्त रहते हैं। अतः हे जानकीनाथ! आप निश्चय ही परमात्मा हैं॥ ४९—५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे ते मायया मूढास्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः।
नमस्ते रामभद्राय वेधसे परमात्मने॥ ५३॥

मूलम्

सर्वे ते मायया मूढास्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः।
नमस्ते रामभद्राय वेधसे परमात्मने॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सब लोग आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। हे संसारकी रचना करनेवाले परमात्मा राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोध्याधिपते तुभ्यं नमः सौमित्रिसेवित।
त्राहि त्राहि जगन्नाथ मां माया नावृणोतु ते॥ ५४॥

मूलम्

अयोध्याधिपते तुभ्यं नमः सौमित्रिसेवित।
त्राहि त्राहि जगन्नाथ मां माया नावृणोतु ते॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सौमित्रिसेवित अयोध्यानाथ! आपको नमस्कार है। हे जगन्नाथ! आप मेरी रक्षा कीजिये, आपकी माया मुझे मोहित न करे॥ ५४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीराम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टोऽहं देवगन्धर्व भक्त्या स्तुत्या च तेऽनघ।
याहि मे परमं स्थानं योगिगम्यं सनातनम्॥ ५५॥

मूलम्

तुष्टोऽहं देवगन्धर्व भक्त्या स्तुत्या च तेऽनघ।
याहि मे परमं स्थानं योगिगम्यं सनातनम्॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी बोले—हे देवगन्धर्व! मैं तुम्हारी भक्ति और स्तुतिसे अति सन्तुष्ट हूँ। हे अनघ! तुम योगियोंके प्राप्त करनेयोग्य मेरे सनातन परमधामको जाओ॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपन्ति ये नित्यमनन्यबुद्‍ध्या
भक्त्या त्वदुक्तं स्तवमागमोक्तम्।
तेऽज्ञानसम्भूतभवं विहाय
मां यान्ति नित्यानुभवानुमेयम्॥ ५६॥

मूलम्

जपन्ति ये नित्यमनन्यबुद्‍ध्या
भक्त्या त्वदुक्तं स्तवमागमोक्तम्।
तेऽज्ञानसम्भूतभवं विहाय
मां यान्ति नित्यानुभवानुमेयम्॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग तुम्हारे इस आगमोक्त स्तोत्रका अनन्य बुद्धिसे नित्य भक्तिपूर्वक जप करेंगे, वे अन्तमें अज्ञानजन्य संसारसे मुक्त होकर जगद्‍रूप कार्यके द्वारा अनुमान करनेयोग्य ज्ञानस्वरूप नित्य मुझ परमात्माको प्राप्त करेंगे॥ ५६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे नवमः सर्गः॥ ९॥