[अष्टम सर्ग]
भागसूचना
सीताजीके वियोगमें भगवान् रामका विलाप और जटायुसे भेंट
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो मायाविनं हत्वा राक्षसं कामरूपिणम्।
प्रतस्थे स्वाश्रमं गन्तुं ततो दूराद्ददर्श तम्॥ १॥
आयान्तं लक्ष्मणं दीनं मुखेन परिशुष्यता।
राघवश्चिन्तयामास स्वात्मन्येव महामतिः॥ २॥
मूलम्
रामो मायाविनं हत्वा राक्षसं कामरूपिणम्।
प्रतस्थे स्वाश्रमं गन्तुं ततो दूराद्ददर्श तम्॥ १॥
आयान्तं लक्ष्मणं दीनं मुखेन परिशुष्यता।
राघवश्चिन्तयामास स्वात्मन्येव महामतिः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) इधर रामचन्द्रजी जब कामरूपधारी मायावी राक्षसको मारकर अपने आश्रमपर चलनेके लिये प्रस्थान किये तो उन्होंने दूरसे ही दीन और उदास मुखसे लक्ष्मणको आते देखा। तब महामति रघुनाथजी मन-ही-मन सोचने लगे॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणस्तन्न जानाति मायासीतां मया कृताम्।
ज्ञात्वाप्येनं वञ्चयित्वा शोचामि प्राकृतो यथा॥ ३॥
मूलम्
लक्ष्मणस्तन्न जानाति मायासीतां मया कृताम्।
ज्ञात्वाप्येनं वञ्चयित्वा शोचामि प्राकृतो यथा॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मणको यह पता नहीं है कि मैंने मायामयी सीता बना दी है। मैं यह जानता हूँ तथापि लक्ष्मणसे यह बात छिपाकर मैं साधारण मनुष्यके समान शोक करूँगा॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यहं विरतो भूत्वा तूष्णीं स्थास्यामि मन्दिरे।
तदा राक्षसकोटीनां वधोपायः कथं भवेत्॥ ४॥
मूलम्
यद्यहं विरतो भूत्वा तूष्णीं स्थास्यामि मन्दिरे।
तदा राक्षसकोटीनां वधोपायः कथं भवेत्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैं उपराम होकर चुपचाप अपनी कुटीमें बैठ गया तो इन करोड़ों राक्षसोंके नाशका उपाय कैसे होगा?॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि शोचामि तां दुःखसन्तप्तः कामुको यथा।
तदा क्रमेणानुचिन्वन्सीतां यास्येऽसुरालयम्।
रावणं सकुलं हत्वा सीतामग्नौ स्थितां पुनः॥ ५॥
मयैव स्थापितां नीत्वा यातायोध्यामतन्द्रितः।
अहं मनुष्यभावेन जातोऽस्मि ब्रह्मणार्थितः॥ ६॥
मनुष्यभावमापन्नः किञ्चित्कालं वसामि कौ।
ततो मायामनुष्यस्य चरितं मेऽनुशृण्वताम्॥ ७॥
मुक्तिः स्यादप्रयासेन भक्तिमार्गानुवर्तिनाम्।
निश्चित्यैवं तदा दृष्ट्वा लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत्॥ ८॥
मूलम्
यदि शोचामि तां दुःखसन्तप्तः कामुको यथा।
तदा क्रमेणानुचिन्वन्सीतां यास्येऽसुरालयम्।
रावणं सकुलं हत्वा सीतामग्नौ स्थितां पुनः॥ ५॥
मयैव स्थापितां नीत्वा यातायोध्यामतन्द्रितः।
अहं मनुष्यभावेन जातोऽस्मि ब्रह्मणार्थितः॥ ६॥
मनुष्यभावमापन्नः किञ्चित्कालं वसामि कौ।
ततो मायामनुष्यस्य चरितं मेऽनुशृण्वताम्॥ ७॥
मुक्तिः स्यादप्रयासेन भक्तिमार्गानुवर्तिनाम्।
निश्चित्यैवं तदा दृष्ट्वा लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैं उसके लिये दुःखातुर होकर कामी पुरुषके समान शोक करूँगा तो क्रमशः सीताकी खोज करता हुआ राक्षसराज रावणके यहाँ पहुँच जाऊँगा और उसे कुलसहित मारकर अपने-आप ही अग्निमें स्थापित की हुई सीताको उसमेंसे निकालकर फिर तुरंत अयोध्या चला जाऊँगा। ब्रह्माकी प्रार्थनासे मैंने मनुष्यावतार लिया है, अतः मैं कुछ समय पृथ्वीपर मनुष्यभावसे ही रहूँगा। इससे मुझ माया-मानवके चरित्रोंको सुननेवाले भक्ति-परायण पुरुषोंकी अनायास ही मुक्ति हो जायगी’। श्रीरामचन्द्रजीने इस प्रकार निश्चयकर लक्ष्मणजीकी ओर देखकर कहा—॥ ५—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थमागतोऽसि त्वं सीतां त्यक्त्वा मम प्रियाम्।
नीता वा भक्षिता वापि राक्षसैर्जनकात्मजा॥ ९॥
मूलम्
किमर्थमागतोऽसि त्वं सीतां त्यक्त्वा मम प्रियाम्।
नीता वा भक्षिता वापि राक्षसैर्जनकात्मजा॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘लक्ष्मण! तुम मेरी प्रिया सीताको छोड़कर कैसे चले आये? अब राक्षसगण जनकनन्दिनी सीताको हर ले गये होंगे अथवा उन्हें खा गये होंगे’’॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणः प्राञ्जलिः प्राह सीताया दुर्वचो रुदन्।
हा लक्ष्मणेति वचनं राक्षसोक्तं श्रुतं तया॥ १०॥
त्वद्वाक्यसदृशं श्रुत्वा मां गच्छेति त्वराब्रवीत्।
रुदन्ती सा मया प्रोक्ता देवि राक्षसभाषितम्।
नेदं रामस्य वचनं स्वस्था भव शुचिस्मिते॥ ११॥
मूलम्
लक्ष्मणः प्राञ्जलिः प्राह सीताया दुर्वचो रुदन्।
हा लक्ष्मणेति वचनं राक्षसोक्तं श्रुतं तया॥ १०॥
त्वद्वाक्यसदृशं श्रुत्वा मां गच्छेति त्वराब्रवीत्।
रुदन्ती सा मया प्रोक्ता देवि राक्षसभाषितम्।
नेदं रामस्य वचनं स्वस्था भव शुचिस्मिते॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लक्ष्मणजीने हाथ जोड़कर रोते हुए सीताजीके दुर्वाक्य कह सुनाये। (वे बोले—)‘‘आपके वाक्यके समान राक्षसके कहे हुए ‘हा लक्ष्मण!’ इस शब्दको सुनकर सीताजीने शीघ्रतासे मुझसे कहा—‘फौरन जाओ’। तब मैंने रोती हुई उन्हें समझाया कि देवि! यह रघुनाथजीका वाक्य नहीं है, राक्षसका शब्द है, हे शुचिस्मिते! तुम निश्चिन्त रहो॥ १०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं सान्त्विता साध्वी मया प्रोवाच मां पुनः।
यदुक्तं दुर्वचो राम न वाच्यं पुरतस्तव॥ १२॥
कर्णौ पिधाय निर्गत्य यातोऽहं त्वां समीक्षितुम्।
रामस्तु लक्ष्मणं प्राह तथाप्यनुचितं कृतम्॥ १३॥
मूलम्
इत्येवं सान्त्विता साध्वी मया प्रोवाच मां पुनः।
यदुक्तं दुर्वचो राम न वाच्यं पुरतस्तव॥ १२॥
कर्णौ पिधाय निर्गत्य यातोऽहं त्वां समीक्षितुम्।
रामस्तु लक्ष्मणं प्राह तथाप्यनुचितं कृतम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे इस प्रकार ढाढ़स बँधानेपर भी साध्वी सीताजीने मुझसे जैसे दुर्वचन कहे हैं, हे रघुनाथजी! वे आपके सामने कहने योग्य नहीं हैं। अतः मैं कान मूँदकर वहाँसे आपको देखनेके लिये चला आया’’। इसपर श्रीरामचन्द्रजीने कहा—‘‘लक्ष्मण! ठीक है, तथापि तुमने उचित नहीं किया॥ १२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया स्त्रीभाषितं सत्यं कृत्वा त्यक्ता शुभानना।
नीता वा भक्षिता वापि राक्षसैर्नात्र संशयः॥ १४॥
मूलम्
त्वया स्त्रीभाषितं सत्यं कृत्वा त्यक्ता शुभानना।
नीता वा भक्षिता वापि राक्षसैर्नात्र संशयः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्त्रीकी बातको सत्य मानकर शुभानना सीताको छोड़ दिया। इसमें सन्देह नहीं अब राक्षसलोग या तो उन्हें हर ले गये होंगे या खा गये होंगे’’॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति चिन्तापरो रामः स्वाश्रमं त्वरितो ययौ।
तत्रादृष्ट्वा जनकजां विललापातिदुःखितः॥ १५॥
मूलम्
इति चिन्तापरो रामः स्वाश्रमं त्वरितो ययौ।
तत्रादृष्ट्वा जनकजां विललापातिदुःखितः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार चिन्ता करते हुए श्रीरामचन्द्रजी बड़ी शीघ्रतासे अपने आश्रममें आये और वहाँ जानकीजीको न देखकर अति दुःखित होकर विलाप करने लगे—॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा प्रिये क्व गतासि त्वं नासि पूर्ववदाश्रमे।
अथवा मद्विमोहार्थं लीलया क्व विलीयसे॥ १६॥
मूलम्
हा प्रिये क्व गतासि त्वं नासि पूर्ववदाश्रमे।
अथवा मद्विमोहार्थं लीलया क्व विलीयसे॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हा प्रिये! आज तुम पूर्ववत् आश्रममें दिखायी नहीं देती हो, सो कहाँ चली गयी हो? अथवा मुझे मोहित करनेके लिये विनोदसे ही कहीं छिप रही हो?॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याचिन्वन्वनं सर्वं नापश्यज्जानकीं तदा।
वनदेव्यः कुतः सीतां ब्रुवन्तु मम वल्लभाम्॥ १७॥
मृगाश्च पक्षिणो वृक्षा दर्शयन्तु मम प्रियाम्।
इत्येवं विलपन्नेव रामः सीतां न कुत्रचित्॥ १८॥
सर्वज्ञः सर्वथा क्वापि नापश्यद्राघुनन्दनः।
मूलम्
इत्याचिन्वन्वनं सर्वं नापश्यज्जानकीं तदा।
वनदेव्यः कुतः सीतां ब्रुवन्तु मम वल्लभाम्॥ १७॥
मृगाश्च पक्षिणो वृक्षा दर्शयन्तु मम प्रियाम्।
इत्येवं विलपन्नेव रामः सीतां न कुत्रचित्॥ १८॥
सर्वज्ञः सर्वथा क्वापि नापश्यद्राघुनन्दनः।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विलाप करते हुए उन्होंने सारा वन छान डाला, किन्तु कहीं भी जानकीजीको नहीं देखा। तब (वे कहने लगे—) ‘‘अयि वनदेवियो! बताओ, मेरी वल्लभा सीता कहाँ है? अरे मृग, पक्षी और वृक्षो! तुम्हीं मेरी प्रियाको दिखाओ’’ इस प्रकार विलाप करते हुए सर्वज्ञ श्रीरघुनाथजीने सीताजीको कहीं भी नहीं देखा॥ १७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनन्दोऽप्यन्वशोचत्तामचलोऽप्यनुधावति॥ १९॥
निर्ममो निरहङ्कारोऽप्यखण्डानन्दरूपवान्।
मम जायेति सीतेति विललापातिदुःखितः॥ २०॥
मूलम्
आनन्दोऽप्यन्वशोचत्तामचलोऽप्यनुधावति॥ १९॥
निर्ममो निरहङ्कारोऽप्यखण्डानन्दरूपवान्।
मम जायेति सीतेति विललापातिदुःखितः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अहो!) भगवान् रामने आनन्दस्वरूप होकर भी सीताजीके लिये शोक किया, निश्चल होनेपर भी उनकी खोजमें इधर-उधर दौड़ते फिरे तथा ममता और अहंकारसे शून्य अखण्डानन्दस्वरूप होकर भी अत्यन्त दुःखित हो मेरी ‘जाया’ तथा ‘सीता!’ ऐसा कहकर विलाप किया॥ १९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मायामनुचरन्नसक्तोऽपि रघूत्तमः।
आसक्त इव मूढानां भाति तत्त्वविदां न हि॥ २१॥
मूलम्
एवं मायामनुचरन्नसक्तोऽपि रघूत्तमः।
आसक्त इव मूढानां भाति तत्त्वविदां न हि॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मायाका अनुसरण करते हुए श्रीरघुनाथजी अनासक्त होते हुए भी मूढ़ पुरुषोंको आसक्त-से प्रतीत होते हैं, किन्तु तत्त्वज्ञानियोंको ऐसा भ्रम नहीं होता॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विचिन्वन्सकलं वनं रामः सलक्ष्मणः।
भग्नं रथं छत्रचापं कूबरं पतितं भुवि॥ २२॥
दृष्ट्वा लक्ष्मणमाहेदं पश्य लक्ष्मण केनचित्।
नीयमानां जनकजां तं जित्वान्यो जहार ताम्॥ २३॥
मूलम्
एवं विचिन्वन्सकलं वनं रामः सलक्ष्मणः।
भग्नं रथं छत्रचापं कूबरं पतितं भुवि॥ २२॥
दृष्ट्वा लक्ष्मणमाहेदं पश्य लक्ष्मण केनचित्।
नीयमानां जनकजां तं जित्वान्यो जहार ताम्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजीने सम्पूर्ण वनमें सीताजीको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पृथिवीपर टूटे रथ-छत्र, धनुष और कूबर (रथकी एक लकड़ी) पड़े देखे। उन्हें देखकर भगवान् रामने लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘लक्ष्मण! देखो यहाँ सीताजीको ले जाते हुए किसी पुरुषको कोई अन्य व्यक्ति (युद्धमें) जीतकर उन्हें हर ले गया है’’॥ २२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कञ्चिद्भुवो भागं गत्वा पर्वतसन्निभम्।
रुधिराक्तवपुर्दृष्ट्वा रामो वाक्यमथाब्रवीत्॥ २४॥
मूलम्
ततः कञ्चिद्भुवो भागं गत्वा पर्वतसन्निभम्।
रुधिराक्तवपुर्दृष्ट्वा रामो वाक्यमथाब्रवीत्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर कुछ दूर जानेपर एक पर्वत-सदृश शरीरको रुधिरसे लथपथ देखकर रामने कहा—॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वै भक्षयित्वा तां जानकीं शुभदर्शनाम्।
शेते विविक्तेऽतितृप्तः पश्य हन्मि निशाचरम्॥ २५॥
चापमानय शीघ्रं मे बाणं च रघुनन्दन।
तच्छ्रुत्वा रामवचनं जटायुः प्राह भीतवत्॥ २६॥
मूलम्
एष वै भक्षयित्वा तां जानकीं शुभदर्शनाम्।
शेते विविक्तेऽतितृप्तः पश्य हन्मि निशाचरम्॥ २५॥
चापमानय शीघ्रं मे बाणं च रघुनन्दन।
तच्छ्रुत्वा रामवचनं जटायुः प्राह भीतवत्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘देखो, निस्सन्देह यही उस शुभदर्शना सीताको खाकर अत्यन्त तृप्त हो यहाँ एकान्तमें सो रहा है। मैं इस निशाचरको अभी मार डालता हूँ। हे रघुनन्दन लक्ष्मण! शीघ्र ही मेरा धनुष-बाण लाओ’’। रामका यह कथन सुन जटायुने भयभीत होकर कहा—॥ २५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां न मारय भद्रं ते म्रियमाणं स्वकर्मणा।
अहं जटायुस्ते भार्याहारिणं समनुद्रुतः॥ २७॥
रावणं तत्र युद्धं मे बभूवारिविमर्दन।
तस्य वाहान् रथं चापं छित्त्वाहं तेन घातितः॥ २८॥
पतितोऽस्मि जगन्नाथ प्राणांस्त्यक्ष्यामि पश्य माम्॥ २९॥
मूलम्
मां न मारय भद्रं ते म्रियमाणं स्वकर्मणा।
अहं जटायुस्ते भार्याहारिणं समनुद्रुतः॥ २७॥
रावणं तत्र युद्धं मे बभूवारिविमर्दन।
तस्य वाहान् रथं चापं छित्त्वाहं तेन घातितः॥ २८॥
पतितोऽस्मि जगन्नाथ प्राणांस्त्यक्ष्यामि पश्य माम्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मैं अपने ही कर्मसे मर रहा हूँ; आपका कल्याण हो, आप मुझे न मारें। मैं जटायु हूँ, मैंने आपकी भार्याको ले जानेवाले रावणका पीछा किया था। हे शत्रुदमन! मेरा उससे युद्ध हुआ और मैंने उसके रथ, घोड़े और धनुष भी काट डाले, किन्तु अब मैं उसका घायल किया हुआ पड़ा हूँ। हे जगन्नाथ! आप मेरी ओर देखिये, मैं अब प्राण छोड़ना ही चाहता हूँ’’॥ २७—२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा राघवो दीनं कण्ठप्राणं ददर्श ह।
हस्ताभ्यां संस्पृशन् रामो दुःखाश्रुवृतलोचनः॥ ३०॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा राघवो दीनं कण्ठप्राणं ददर्श ह।
हस्ताभ्यां संस्पृशन् रामो दुःखाश्रुवृतलोचनः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर श्रीरघुनाथजीने (जटायुके पास जाकर) उसे कण्ठगतप्राण और अति दीन अवस्थामें देखा। तब वे आँखोंमें आँसू भरकर उसपर हाथ फेरते हुए (बोले—)॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटायो ब्रूहि मे भार्या केन नीता शुभानना।
मत्कार्यार्थं हतोऽसि त्वमतो मे प्रियबान्धवः॥ ३१॥
मूलम्
जटायो ब्रूहि मे भार्या केन नीता शुभानना।
मत्कार्यार्थं हतोऽसि त्वमतो मे प्रियबान्धवः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे जटायो! कहो। मेरी सुमुखी भार्या सीताजीको कौन ले गया है? (अहो!) तुम मेरे कार्यके लिये मारे गये। अतः अवश्य ही तुम मेरे प्रिय बन्धु हो’’॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटायुः सन्नया वाचा वक्त्राद्रक्तं समुद्वमन्।
उवाच रावणो राम राक्षसो भीमविक्रमः॥ ३२॥
आदाय मैथिलीं सीतां दक्षिणाभिमुखो ययौ।
इतो वक्तुं न मे शक्तिः प्राणांस्त्यक्ष्यामि तेऽग्रतः॥ ३३॥
मूलम्
जटायुः सन्नया वाचा वक्त्राद्रक्तं समुद्वमन्।
उवाच रावणो राम राक्षसो भीमविक्रमः॥ ३२॥
आदाय मैथिलीं सीतां दक्षिणाभिमुखो ययौ।
इतो वक्तुं न मे शक्तिः प्राणांस्त्यक्ष्यामि तेऽग्रतः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जटायुने रक्त वमन करते हुए लड़खड़ाती बोलीमें कहा—‘‘हे राम! महापराक्रमी राक्षसराज रावण मिथिलेशनन्दिनी सीताको दक्षिणकी ओर ले गया है और अधिक कहनेकी मुझमें शक्ति नहीं है। मैं अभी आपके सामने ही प्राण छोड़ना चाहता हूँ॥ ३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या दृष्टोऽसि राम त्वं म्रियमाणेन मेऽनघ।
परमात्मासि विष्णुस्त्वं मायामनुजरूपधृक्॥ ३४॥
मूलम्
दिष्ट्या दृष्टोऽसि राम त्वं म्रियमाणेन मेऽनघ।
परमात्मासि विष्णुस्त्वं मायामनुजरूपधृक्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आज बड़े भाग्यसे मैंने मरते समय आपको देखा है। हे अनघ! आप मायामानवरूप साक्षात् परमात्मा विष्णु ही हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तकालेऽपि दृष्ट्वा त्वां मुक्तोऽहं रघुसत्तम।
हस्ताभ्यां स्पृश मां राम पुनर्यास्यामि ते पदम्॥ ३५॥
मूलम्
अन्तकालेऽपि दृष्ट्वा त्वां मुक्तोऽहं रघुसत्तम।
हस्ताभ्यां स्पृश मां राम पुनर्यास्यामि ते पदम्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! वैसे तो अन्त समय आपका दर्शन करनेसे ही मैं मुक्त हो गया, तथापि आप मुझे अपने कर (कमलों)-से स्पर्श कीजिये। फिर मैं आपके परमपदको जाऊँगा’’॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति रामः पस्पर्श तदङ्गं पाणिना स्मयन्।
ततः प्राणान्परित्यज्य जटायुः पतितो भुवि॥ ३६॥
मूलम्
तथेति रामः पस्पर्श तदङ्गं पाणिना स्मयन्।
ततः प्राणान्परित्यज्य जटायुः पतितो भुवि॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने मुसकराते हुए ‘बहुत अच्छा’ कह उसका शरीर अपने करकमलोंसे छुआ। तदनन्तर जटायु प्राण छोड़कर पृथिवीपर गिर पड़ा॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तमनुशोचित्वा बन्धुवत्साश्रुलोचनः।
लक्ष्मणेन समानाय्य काष्ठानि प्रददाह तम्॥ ३७॥
मूलम्
रामस्तमनुशोचित्वा बन्धुवत्साश्रुलोचनः।
लक्ष्मणेन समानाय्य काष्ठानि प्रददाह तम्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीने नेत्रोंमें जल भरकर उसके लिये अपने स्वजनके समान शोक करते हुए लक्ष्मणसे लकड़ियाँ मँगवा उसका दाह-कर्म किया॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नात्वा दुःखेन रामोऽपि लक्ष्मणेन समन्वितः।
हत्वा वने मृगं तत्र मांसखण्डान्समन्ततः॥ ३८॥
शाद्वले प्राक्षिपद्रामः पृथक् पृथगनेकधा।
भक्षन्तु पक्षिणः सर्वे तृप्तो भवतु पक्षिराट्॥ ३९॥*
मूलम्
स्नात्वा दुःखेन रामोऽपि लक्ष्मणेन समन्वितः।
हत्वा वने मृगं तत्र मांसखण्डान्समन्ततः॥ ३८॥
शाद्वले प्राक्षिपद्रामः पृथक् पृथगनेकधा।
भक्षन्तु पक्षिणः सर्वे तृप्तो भवतु पक्षिराट्॥ ३९॥*
पादटिप्पनी
- ३८ और ३९—इन दो श्लोकोंके अर्थका रहस्य हमारी समझमें नहीं आया, अतः इनका अर्थ नहीं दिया गया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा राघवः प्राह जटायो गच्छ मत्पदम्।
मत्सारूप्यं भजस्वाद्य सर्वलोकस्य पश्यतः॥ ४०॥
मूलम्
इत्युक्त्वा राघवः प्राह जटायो गच्छ मत्पदम्।
मत्सारूप्यं भजस्वाद्य सर्वलोकस्य पश्यतः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजी बोले—‘‘जटायो! तुम मेरे परमपदको जाओ और आज सबके देखते-देखते मेरा सारूप्य प्राप्त करो’’॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनन्तरमेवासौ दिव्यरूपधरः शुभः।
विमानवरमारुह्य भास्वरं भानुसन्निभम्॥ ४१॥
मूलम्
ततोऽनन्तरमेवासौ दिव्यरूपधरः शुभः।
विमानवरमारुह्य भास्वरं भानुसन्निभम्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वह तुरंत ही सुन्दर दिव्य रूप धारण कर एक सूर्य-सदृश प्रकाशमान विमानपर आरूढ़ हुआ॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खचक्रगदापद्मकिरीटवरभूषणैः।
द्योतयन्स्वप्रकाशेन पीताम्बरधरोऽमलः॥ ४२॥
मूलम्
शङ्खचक्रगदापद्मकिरीटवरभूषणैः।
द्योतयन्स्वप्रकाशेन पीताम्बरधरोऽमलः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वह सुन्दर पीताम्बर धारण किये शंख, चक्र, गदा, पद्म और किरीट आदि श्रेष्ठ आभूषणोंके सहित अपने प्रकाशसे (सम्पूर्ण दिशाओंको) प्रकाशित कर रहा था॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भिः पार्षदैर्विष्णोस्तादृशैरभिपूजितः।
स्तूयमानो योगिगणै राममाभाष्य सत्वरः।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा तुष्टाव रघुनन्दनम्॥ ४३॥
मूलम्
चतुर्भिः पार्षदैर्विष्णोस्तादृशैरभिपूजितः।
स्तूयमानो योगिगणै राममाभाष्य सत्वरः।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा तुष्टाव रघुनन्दनम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैसे ही वेश-भूषावाले चार विष्णुपार्षद उसकी पूजा कर रहे थे तथा योगिगण उसकी स्तुति कर रहे थे। तदनन्तर वह त्वराके साथ हाथ जोड़कर श्रीरघुनाथजीको सम्बोधन कर उनकी स्तुति करने लगा॥ ४३॥
मूलम् (वचनम्)
जटायुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं
सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम्।
उपरमपरमं परात्मभूतं
सततमहं प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम्॥ ४४॥
मूलम्
अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं
सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम्।
उपरमपरमं परात्मभूतं
सततमहं प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जटायु बोला—‘जो अगणित गुणशाली हैं, अप्रमेय हैं, जगत् के आदिकारण हैं तथा उसकी स्थिति और लय आदिके हेतु हैं, उन परम शान्तस्वरूप परमात्मा श्रीरामचन्द्रजीको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरवधिसुखमिन्दिराकटाक्ष-
क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखादिदुःखम्।
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं
वरदमहं वरचापबाणहस्तम्॥ ४५॥
मूलम्
निरवधिसुखमिन्दिराकटाक्ष-
क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखादिदुःखम्।
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं
वरदमहं वरचापबाणहस्तम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो असीम आनन्दमय और श्रीकमलादेवीके कटाक्षके आश्रय हैं तथा जो ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणोंका दुःख दूर करनेवाले हैं, उन धनुष-बाणधारी वरदायक नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके प्रति मैं अहर्निश प्रणत हूँ॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं
रविशतभासुरमीहितप्रदानम्।
शरणदमनिशं सुरागमूले
कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये॥ ४६॥
मूलम्
त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं
रविशतभासुरमीहितप्रदानम्।
शरणदमनिशं सुरागमूले
कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो त्रिलोकीमें सबसे अधिक रूपवान् हैं, (सबके) स्तुत्य हैं, सैकड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी हैं तथा वांछित फल देनेवाले हैं उन शरणप्रद और प्रेमी हृदयमें रहनेवाले श्रीरघुनाथजीकी मैं अहर्निश शरण लेता हूँ॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवविपिनदवाग्निनामधेयं
भवमुखदैवतदैवतं दयालुम्।
दनुजपतिसहस्रकोटिनाशं
रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये॥ ४७॥
मूलम्
भवविपिनदवाग्निनामधेयं
भवमुखदैवतदैवतं दयालुम्।
दनुजपतिसहस्रकोटिनाशं
रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका नाम संसाररूप वनके लिये दावानलके समान है, जो महादेव आदि देवताओंके भी (पूज्य) देव हैं तथा जो करोड़ों दानवेन्द्रोंका दलन करनेवाले और श्रीयमुनाजीके समान श्यामवर्ण हैं, उन दयामय श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविरतभवभावनातिदूरं
भवविमुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम्।
भवजलधिसुतारणाङ्घ्रिपोतं
शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये॥ ४८॥
मूलम्
अविरतभवभावनातिदूरं
भवविमुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम्।
भवजलधिसुतारणाङ्घ्रिपोतं
शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो संसारमें निरन्तर वासना रखनेवालोंसे अत्यन्त दूर हैं और संसारसे उपराम मुनिजनोंके सदैव दृष्टिगोचर रहते हैं तथा जिनके चरणरूप पोत (जहाज) संसार-सागरसे पार करनेवाले हैं, उन रघुनाथजीकी मैं शरण लेता हूँ॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिशगिरिसुतामनोनिवासं
गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम्।
सुरवरदनुजेन्द्रसेविताङ्घ्रिं
सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये॥ ४९॥
मूलम्
गिरिशगिरिसुतामनोनिवासं
गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम्।
सुरवरदनुजेन्द्रसेविताङ्घ्रिं
सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो श्रीमहादेव और पार्वतीजीके मन (मन्दिर)-में निवास करते हैं, जिनका चरित्र अति मनोहर है तथा देव और असुरपतिगण जिनके चरण-कमलोंकी सेवा करते हैं, उन गिरिवरधारी देवताओंके वरदायक रघुनायककी मैं शरण लेता हूँ॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परधनपरदारवर्जितानां
परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम्।
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं
रघुवरमम्बुजलोचनं प्रपद्ये॥ ५०॥
मूलम्
परधनपरदारवर्जितानां
परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम्।
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं
रघुवरमम्बुजलोचनं प्रपद्ये॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो परधन और परस्त्रीसे सदा दूर रहते हैं तथा पराये गुण और परायी विभूतिको देखकर प्रसन्न होते हैं, उन निरन्तर परोपकारपरायण महात्माओंसे सुसेवित कमलनयन श्रीरघुनाथजीकी मैं शरण लेता हूँ॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मितरुचिरविकासिताननाब्ज-
मतिसुलभं सुरराजनीलनीलम्।
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं
रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये॥ ५१॥
मूलम्
स्मितरुचिरविकासिताननाब्ज-
मतिसुलभं सुरराजनीलनीलम्।
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं
रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका मुखकमल मनोहर मुसकानसे सुशोभित हो रहा है, जो (भक्तोंके लिये) अति सुलभ हैं, जिनके शरीरकी कान्ति इन्द्रनीलमणिके समान सुन्दर नीलवर्ण है तथा जिनके मनोहर नेत्र श्वेत कमलकी-सी शोभावाले हैं, उन महादेवजीके परम गुरु श्रीरघुनाथजीकी मैं शरण लेता हूँ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिकमलजशम्भुरूपभेदा-
त्त्वमिह विभासि गुणत्रयानुवृत्तः।
रविरिव जलपूरितोदपात्रे-
ष्वमरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे॥ ५२॥
मूलम्
हरिकमलजशम्भुरूपभेदा-
त्त्वमिह विभासि गुणत्रयानुवृत्तः।
रविरिव जलपूरितोदपात्रे-
ष्वमरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
(हे प्रभो!) जलसे भरे हुए पात्रोंमें जैसे एक ही सूर्य प्रतिबिम्बित होता है वैसे ही सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंके साथ सम्बन्ध-युक्त होकर आप ही विष्णु, ब्रह्मा और महादेवरूपसे भासित होते हैं। देवराज इन्द्रकी भी स्तुतिके पात्र परमेश्वरस्वरूप आपकी मैं स्तुति करता हूँ॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतिपतिशतकोटिसुन्दराङ्गं
शतपथगोचरभावनाविदूरम्*।
यतिपतिहृदये सदा विभातं
रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये॥ ५३॥
मूलम्
रतिपतिशतकोटिसुन्दराङ्गं
शतपथगोचरभावनाविदूरम्*।
यतिपतिहृदये सदा विभातं
रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका दिव्य शरीर करोड़ों कामदेवोंसे भी सुन्दर है, सैकड़ों मार्गोंमें फँसे हुए लोगोंसे आप अत्यन्त दूर हैं और यतिश्रेष्ठोंके हृदयमें आप सदा ही भासमान हैं। ऐसे आप आर्तिहर प्रभु रघुपतिकी मैं शरण लेता हूँ’’॥ ५३॥
पादटिप्पनी
- टीकाके अनुसार यहाँ अकार लुप्त है—‘‘शतपथगोचरभावनाविदूरम्’’ इस प्रकार पाठ है और उसका भावार्थ यह है— ‘शतपथब्राह्मणके अन्तर्गत ‘बृहदारण्यक’ में जिस ब्रह्म-भावनाका उपदेश किया है, उस भावनासे जो प्राप्य हैं।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं स्तुवतस्तस्य प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः।
उवाच गच्छ भद्रं ते मम विष्णोः परं पदम्॥ ५४॥
मूलम्
इत्येवं स्तुवतस्तस्य प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः।
उवाच गच्छ भद्रं ते मम विष्णोः परं पदम्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जटायुके इस प्रकार स्तुति करनेपर श्रीरघुनाथजी उसपर प्रसन्न होकर बोले,—‘‘जटायो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम मेरे परमधाम विष्णुलोकको जाओ॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणोति य इदं स्तोत्रं लिखेद्वा नियतः पठेत्।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत्॥ ५५॥
मूलम्
शृणोति य इदं स्तोत्रं लिखेद्वा नियतः पठेत्।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मेरे इस स्तोत्रको एकाग्रचित्तसे सुनता, लिखता अथवा पढ़ता है वह मेरा सारूप्यपद प्राप्त करता है और मरते समय उसे मेरा स्मरण होता है’’॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति राघवभाषितं तदा
श्रुतवान् हर्षसमाकुलो द्विजः।
रघुनन्दनसाम्यमास्थितः
प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम्॥ ५६॥
मूलम्
इति राघवभाषितं तदा
श्रुतवान् हर्षसमाकुलो द्विजः।
रघुनन्दनसाम्यमास्थितः
प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
पक्षिराज जटायुने रघुनाथजीका यह कथन बड़े हर्षसे सुना और उन्हींके समान रूप धारण कर ब्रह्मासे अत्यन्त पूजित परमधामको चला गया॥५६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥ ८॥