[सप्तम सर्ग]
भागसूचना
मारीचवध और सीताहरण
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ रामोऽपि तत्सर्वं ज्ञात्वा रावणचेष्टितम्।
उवाच सीतामेकान्ते शृणु जानकि मे वचः॥ १॥
मूलम्
अथ रामोऽपि तत्सर्वं ज्ञात्वा रावणचेष्टितम्।
उवाच सीतामेकान्ते शृणु जानकि मे वचः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) इधर श्रीरामचन्द्रजीने भी रावणका सारा षडयन्त्र जानकर एकान्तमें श्रीजानकीजीसे कहा—‘‘हे सीते! मैं जो कुछ कहता हूँ वह सुनो॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणो भिक्षुरूपेण आगमिष्यति तेऽन्तिकम्।
त्वं तु छायां त्वदाकारां स्थापयित्वोटजे विश॥ २॥
अग्नावदृश्यरूपेण वर्षं तिष्ठ ममाज्ञया।
रावणस्य वधान्ते मां पूर्ववत्प्राप्स्यसे शुभे॥ ३॥
मूलम्
रावणो भिक्षुरूपेण आगमिष्यति तेऽन्तिकम्।
त्वं तु छायां त्वदाकारां स्थापयित्वोटजे विश॥ २॥
अग्नावदृश्यरूपेण वर्षं तिष्ठ ममाज्ञया।
रावणस्य वधान्ते मां पूर्ववत्प्राप्स्यसे शुभे॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शुभे! रावण तुम्हारे पास भिक्षुका रूप धारण कर आयेगा, अतः तुम अपने ही समान आकृतिवाली अपनी छायाको कुटीमें छोड़कर अग्निमें प्रवेश कर जाओ और मेरी आज्ञासे वहाँ अदृश्यरूपसे एक वर्ष रहो। तदनन्तर रावणके मारे जानेपर तुम मुझे पूर्ववत् पा लोगी’’॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा रामोदितं वाक्यं सापि तत्र तथाकरोत्।
मायासीतां बहिः स्थाप्य स्वयमन्तर्दधेऽनले॥ ४॥
मूलम्
श्रुत्वा रामोदितं वाक्यं सापि तत्र तथाकरोत्।
मायासीतां बहिः स्थाप्य स्वयमन्तर्दधेऽनले॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीके वचन सुनकर सीताजीने भी वैसा ही किया। वे मायामयी सीताको बाहर कुटीमें छोड़कर स्वयं अग्निमें अन्तर्धान हो गयीं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायासीता तदापश्यन्मृगं मायाविनिर्मितम्।
हसन्ती राममभ्येत्य प्रोवाच विनयान्विता॥ ५॥
मूलम्
मायासीता तदापश्यन्मृगं मायाविनिर्मितम्।
हसन्ती राममभ्येत्य प्रोवाच विनयान्विता॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस मायासीताने मायामय मृगको देखकर श्रीरामचन्द्रजीके पास आकर हँसते हुए बड़ी नम्रतासे कहा—॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य राम मृगं चित्रं कानकं रत्नभूषितम्।
विचित्रबिन्दुभिर्युक्तं चरन्तमकुतोभयम्।
बद्ध्वा देहि मम क्रीडामृगो भवतु सुन्दरः॥ ६॥
मूलम्
पश्य राम मृगं चित्रं कानकं रत्नभूषितम्।
विचित्रबिन्दुभिर्युक्तं चरन्तमकुतोभयम्।
बद्ध्वा देहि मम क्रीडामृगो भवतु सुन्दरः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! यह रत्न-विभूषित विचित्र सुवर्ण-मृग देखिये। (अहो!) इसके शरीरमें कैसे अद्भुत बिन्दु हैं और यह कैसी निर्भयतासे विचर रहा है? हे प्रभो! आप इसे बाँधकर मुझे ला दीजिये; यह सुन्दर हरिण मेरा क्रीड़ामृग हो’’॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति धनुरादाय गच्छन् लक्ष्मणमब्रवीत्।
रक्ष त्वमतियत्नेन सीतां मत्प्राणवल्लभाम्॥ ७॥
मूलम्
तथेति धनुरादाय गच्छन् लक्ष्मणमब्रवीत्।
रक्ष त्वमतियत्नेन सीतां मत्प्राणवल्लभाम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने ‘बहुत अच्छा’ कह अपना धनुष उठा लिया और जाते समय लक्ष्मणजीसे कहा— ‘‘लक्ष्मण! तुम प्राण-प्रिया सीताकी यत्नपूर्वक रक्षा करना॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायिनः सन्ति विपिने राक्षसा घोरदर्शनाः।
अतोऽत्रावहितः साध्वीं रक्ष सीतामनिन्दिताम्॥ ८॥
मूलम्
मायिनः सन्ति विपिने राक्षसा घोरदर्शनाः।
अतोऽत्रावहितः साध्वीं रक्ष सीतामनिन्दिताम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें बड़े मायावी भयंकर राक्षस विचर रहे हैं। अतः तुम अनिन्दिता साध्वी सीताकी बहुत सावधान रहकर रक्षा करना’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणो राममाहेदं देवायं मृगरूपधृक्।
मारीचोऽत्र न सन्देह एवंभूतो मृगः कुतः॥ ९॥
मूलम्
लक्ष्मणो राममाहेदं देवायं मृगरूपधृक्।
मारीचोऽत्र न सन्देह एवंभूतो मृगः कुतः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लक्ष्मणजीने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—‘‘देव! यह मृगरूपधारी मारीच है, इसमें सन्देह नहीं; क्योंकि भला मृग ऐसा कहाँ हो सकता है?’’॥ ९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मारीच एवायं तदा हन्मि न संशयः।
मृगश्चेदानयिष्यामि सीताविश्रमहेतवे॥ १०॥
मूलम्
यदि मारीच एवायं तदा हन्मि न संशयः।
मृगश्चेदानयिष्यामि सीताविश्रमहेतवे॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—यदि यह मारीच है तो इसमें सन्देह नहीं, मैं इसे अवश्य मार डालूँगा और यदि मृग ही है तो सीताका मन रखनेके लिये ले आऊँगा॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गमिष्यामि मृगं बद्ध्वा ह्यानयिष्यामि सत्वरः।
त्वं प्रयत्नेन सन्तिष्ठ सीतासंरक्षणोद्यतः॥ ११॥
मूलम्
गमिष्यामि मृगं बद्ध्वा ह्यानयिष्यामि सत्वरः।
त्वं प्रयत्नेन सन्तिष्ठ सीतासंरक्षणोद्यतः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अभी जाकर बहुत शीघ्र ही इस मृगको बाँधकर लिये आता हूँ, तबतक तुम सीताकी रखवाली करते हुए बहुत सावधान रहना॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्रययौ रामो मायामृगमनुद्रुतः।
माया यदाश्रया लोकमोहिनी जगदाकृतिः॥ १२॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्रययौ रामो मायामृगमनुद्रुतः।
माया यदाश्रया लोकमोहिनी जगदाकृतिः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह विश्वप्रपंचरूपिणी जगन्मोहिनी माया जिनके आश्रित है वे रामचन्द्रजी ऐसा कह उस मायामृगके पीछे दौड़ते चले गये॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्विकारश्चिदात्मापि पूर्णोऽपि मृगमन्वगात्।
भक्तानुकम्पी भगवानिति सत्यं वचो हरिः॥ १३॥
मूलम्
निर्विकारश्चिदात्मापि पूर्णोऽपि मृगमन्वगात्।
भक्तानुकम्पी भगवानिति सत्यं वचो हरिः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे निर्विकार चिदात्मा और सर्वव्यापक होकर भी उस मृगके पीछे दौड़े, इससे यह वाक्य सर्वथा सत्य ही है कि ‘भगवान् हरि बड़े भक्तवत्सल हैं’॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तुं सीताप्रियार्थाय जानन्नपि मृगं ययौ।
अन्यथा पूर्णकामस्य रामस्य विदितात्मनः॥ १४॥
मृगेण वा स्त्रिया वापि किं कार्यं परमात्मनः।
कदाचिद्दृश्यतेऽभ्याशे क्षणं धावति लीयते॥ १५॥
मूलम्
कर्तुं सीताप्रियार्थाय जानन्नपि मृगं ययौ।
अन्यथा पूर्णकामस्य रामस्य विदितात्मनः॥ १४॥
मृगेण वा स्त्रिया वापि किं कार्यं परमात्मनः।
कदाचिद्दृश्यतेऽभ्याशे क्षणं धावति लीयते॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् सब कुछ जानते थे, तथापि सीताजीको प्रसन्न करनेके लिये वे मृगके पीछे गये। नहीं तो पूर्णकाम आत्मज्ञ भगवान् रामको मृग अथवा स्त्रीसे क्या काम था; वह मृग कभी तो पास ही दिखलायी देने लगता, कभी एक क्षणमें ही दूर भागकर छिप जाता और फिर बहुत दूरीपर दिखलायी देता। इस प्रकार वह रामचन्द्रजीको बहुत दूर ले गया॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यते च ततो दूरादेवं राममपाहरत्।
ततो रामोऽपि विज्ञाय राक्षसोऽयमिति स्फुटम्॥ १६॥
विव्याध शरमादाय राक्षसं मृगरूपिणम्।
पपात रुधिराक्तास्यो मारीचः पूर्वरूपधृक्॥ १७॥
मूलम्
दृश्यते च ततो दूरादेवं राममपाहरत्।
ततो रामोऽपि विज्ञाय राक्षसोऽयमिति स्फुटम्॥ १६॥
विव्याध शरमादाय राक्षसं मृगरूपिणम्।
पपात रुधिराक्तास्यो मारीचः पूर्वरूपधृक्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने यह निश्चयपूर्वक जानकर कि यह राक्षस ही है, उस मृगरूप राक्षसको एक बाण छोड़कर बींध डाला। बाणके लगते ही मारीच अपना पूर्वरूप धारणकर लोहूभरे मुखसे पृथिवीपर गिर पड़ा॥ १६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा हतोऽस्मि महाबाहो त्राहि लक्ष्मण मां द्रुतम्।
इत्युक्त्वा रामवद्वाचा पपात रुधिराशनः॥ १८॥
मूलम्
हा हतोऽस्मि महाबाहो त्राहि लक्ष्मण मां द्रुतम्।
इत्युक्त्वा रामवद्वाचा पपात रुधिराशनः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह रक्तपायी (राक्षस) रामकी-सी बोलीमें यह कहता हुआ कि ‘हे महाबाहो लक्ष्मण! मैं मारा गया; मेरी शीघ्र ही रक्षा करो’—पृथिवीपर गिरा॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नामाज्ञोऽपि मरणे स्मृत्वा तत्साम्यमाप्नुयात्।
किमुताग्रे हरिं पश्यंस्तेनैव निहतोऽसुरः॥ १९॥
मूलम्
यन्नामाज्ञोऽपि मरणे स्मृत्वा तत्साम्यमाप्नुयात्।
किमुताग्रे हरिं पश्यंस्तेनैव निहतोऽसुरः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मरण-समयमें जिनके नामका स्मरण करनेसे अज्ञजन भी जिनमें लीन हो जाते हैं उन्हीं हरिको देखते-देखते उन्हींके हाथसे मरे हुए उस राक्षसके विषयमें तो कहना ही क्या है?॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्देहादुत्थितं तेजः सर्वलोकस्य पश्यतः।
राममेवाविशद्देवा विस्मयं परमं ययुः॥ २०॥
मूलम्
तद्देहादुत्थितं तेजः सर्वलोकस्य पश्यतः।
राममेवाविशद्देवा विस्मयं परमं ययुः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके शरीरसे निकला हुआ तेज सबके देखते-देखते श्रीराममें ही समा गया। यह देखकर देवताओंको बड़ा आश्चर्य हुआ॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कर्म कृत्वा किं प्राप्तः पातकी मुनिहिंसकः।
अथवा राघवस्यायं महिमा नात्र संशयः॥ २१॥
मूलम्
किं कर्म कृत्वा किं प्राप्तः पातकी मुनिहिंसकः।
अथवा राघवस्यायं महिमा नात्र संशयः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कहने लगे—(‘‘अहो!) इस मुनिजनहिंसक पापी निशाचरने कैसे-कैसे कुकर्म किये और फिर कैसी शुभ गति प्राप्त की। निस्सन्देह यह श्रीरघुनाथजीकी ही महिमा है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामबाणेन संविद्धः पूर्वं राममनुस्मरन्।
भयात्सर्वं परित्यज्य गृहवित्तादिकं च यत्॥ २२॥
मूलम्
रामबाणेन संविद्धः पूर्वं राममनुस्मरन्।
भयात्सर्वं परित्यज्य गृहवित्तादिकं च यत्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामके बाणसे बींधे जानेपर यह पहलेसे ही भयसे अपना सब गृह और धन आदि छोड़ रामचन्द्रजीके स्मरणमें लगा हुआ था॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृदि रामं सदा ध्यात्वा निर्धूताशेषकल्मषः।
अन्ते रामेण निहतः पश्यन् राममवाप सः॥ २३॥
मूलम्
हृदि रामं सदा ध्यात्वा निर्धूताशेषकल्मषः।
अन्ते रामेण निहतः पश्यन् राममवाप सः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरन्तर रामका ध्यान करनेसे इसके सारे पाप नष्ट हो गये थे तथा अन्तमें यह रामको देखते-देखते उन्हींके हाथसे मारा भी गया; इसलिये इसने रामहीको प्राप्त कर लिया॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजो वा राक्षसो वापि पापी वा धार्मिकोऽपि वा।
त्यजन्कलेवरं रामं स्मृत्वा याति परं पदम्॥ २४॥
मूलम्
द्विजो वा राक्षसो वापि पापी वा धार्मिकोऽपि वा।
त्यजन्कलेवरं रामं स्मृत्वा याति परं पदम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो श्रीरामका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ते हैं, वे ब्राह्मण हों या राक्षस, पापी हों या धार्मिक—परम पदको ही प्राप्त होते हैं’’॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तेऽन्योन्यमाभाष्य ततो देवा दिवं ययुः।
रामस्तच्चिन्तयामास म्रियमाणोऽसुराधमः॥ २५॥
हा लक्ष्मणेति मद्वाक्यमनुकुर्वन्ममार किम्।
श्रुत्वा मद्वाक्यसदृशं वाक्यं सीतापि किं भवेत्॥ २६॥
मूलम्
इति तेऽन्योन्यमाभाष्य ततो देवा दिवं ययुः।
रामस्तच्चिन्तयामास म्रियमाणोऽसुराधमः॥ २५॥
हा लक्ष्मणेति मद्वाक्यमनुकुर्वन्ममार किम्।
श्रुत्वा मद्वाक्यसदृशं वाक्यं सीतापि किं भवेत्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
परस्पर इस प्रकार कहते हुए फिर देवगण स्वर्गको चले गये तब रामचन्द्रजी सोचने लगे कि ‘इस अधम राक्षसने मरते समय मेरी-सी बोलीमें ‘हा लक्ष्मण!’ कहकर प्राण क्यों छोड़े? इन मेरे-से वाक्योंको सुनकर सीताकी क्या दशा होगी?॥ २५-२६॥
इति चिन्तापरीतात्मा रामो दूरान्न्यवर्तत।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता तद्भाषितं श्रुत्वा मारीचस्य दुरात्मनः॥ २७॥
भीतातिदुःखसंविग्ना लक्ष्मणं त्विदमब्रवीत्।
गच्छ लक्ष्मण वेगेन भ्राता तेऽसुरपीडितः॥ २८॥
हा लक्ष्मणेति वचनं भ्रातुस्ते न शृणोषि किम्।
तामाह लक्ष्मणो देवि रामवाक्यं न तद्भवेत्॥ २९॥
मूलम्
सीता तद्भाषितं श्रुत्वा मारीचस्य दुरात्मनः॥ २७॥
भीतातिदुःखसंविग्ना लक्ष्मणं त्विदमब्रवीत्।
गच्छ लक्ष्मण वेगेन भ्राता तेऽसुरपीडितः॥ २८॥
हा लक्ष्मणेति वचनं भ्रातुस्ते न शृणोषि किम्।
तामाह लक्ष्मणो देवि रामवाक्यं न तद्भवेत्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार चिन्ता करते हुए राम बड़ी दूरसे लौटे इधर सीताने दुरात्मा मारीचका वह शब्द सुनकर अत्यन्त भय और दुःखसे व्याकुल हो लक्ष्मणसे यों कहा—‘‘लक्ष्मण! तुम बहुत शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई राक्षसोंसे कष्ट पा रहे हैं। क्या तुम अपने भाईका ‘हा लक्ष्मण’ यह वाक्य नहीं सुनते?’’ लक्ष्मणजीने कहा—‘‘देवि! यह वाक्य श्रीरामचन्द्रजीका नहीं है॥ २७—२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कश्चिद्राक्षसो देवि म्रियमाणोऽब्रवीद्वचः।
रामस्त्रैलोक्यमपि यः क्रुद्धो नाशयति क्षणात्॥ ३०॥
स कथं दीनवचनं भाषतेऽमरपूजितः।
मूलम्
यः कश्चिद्राक्षसो देवि म्रियमाणोऽब्रवीद्वचः।
रामस्त्रैलोक्यमपि यः क्रुद्धो नाशयति क्षणात्॥ ३०॥
स कथं दीनवचनं भाषतेऽमरपूजितः।
अनुवाद (हिन्दी)
किसी राक्षसने मरते-मरते ये वचन कहे हैं। जो रामजी क्रोधित होनेपर एक क्षणमें सम्पूर्ण त्रिलोकीको भी नष्ट कर सकते हैं। वे देववन्दित प्रभु भला ऐसा दीन वचन कैसे बोल सकते हैं?’’॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धा लक्ष्मणमालोक्य सीता वाष्पविलोचना॥ ३१॥
प्राह लक्ष्मण दुर्बुद्धे भ्रातुर्व्यसनमिच्छसि।
प्रेषितो भरतेनैव रामनाशाभिकाङ्क्षिणा॥ ३२॥
मूलम्
क्रुद्धा लक्ष्मणमालोक्य सीता वाष्पविलोचना॥ ३१॥
प्राह लक्ष्मण दुर्बुद्धे भ्रातुर्व्यसनमिच्छसि।
प्रेषितो भरतेनैव रामनाशाभिकाङ्क्षिणा॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सीताजीने नेत्रोंमें जल भरकर क्रोधपूर्वक लक्ष्मणजीकी ओर देखते हुए कहा—‘‘रे लक्ष्मण! क्या तू अपने भाईको विपत्तिमें पड़े देखना चाहता है? अरे दुर्बुद्धे! मालूम होता है, तुझे रामका नाश चाहनेवाले भरतने ही भेजा है॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां नेतुमागतोऽसि त्वं रामनाश उपस्थिते।
न प्राप्स्यसे त्वं मामद्य पश्य प्राणांस्त्यजाम्यहम्॥ ३३॥
मूलम्
मां नेतुमागतोऽसि त्वं रामनाश उपस्थिते।
न प्राप्स्यसे त्वं मामद्य पश्य प्राणांस्त्यजाम्यहम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या तू रामके नष्ट हो जानेपर मुझे ले जानेके लिये ही आया है, किन्तु तू मुझे नहीं पावेगा। देख मैं अभी प्राण त्याग किये देती हूँ॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानातीदृशं रामस्त्वां भार्याहरणोद्यतम्।
रामादन्यं न स्पृशामि त्वां वा भरतमेव वा॥ ३४॥
मूलम्
न जानातीदृशं रामस्त्वां भार्याहरणोद्यतम्।
रामादन्यं न स्पृशामि त्वां वा भरतमेव वा॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
राम तुझे इस प्रकार पत्नीहरणके लिये उद्यत नहीं जानते हैं। रामके अतिरिक्त मैं भरत या तुझे किसीको भी नहीं छू सकती’’॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा वध्यमाना सा स्वबाहुभ्यां रुरोद ह।
तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणः कर्णौ पिधायातीव दुःखितः॥ ३५॥
मामेवं भाषसे चण्डि धिक् त्वां नाशमुपैष्यसि।
इत्युक्त्वा वनदेवीभ्यः समर्प्य जनकात्मजाम्॥ ३६॥
ययौ दुःखातिसंविग्नो राममेव शनैः शनैः।
मूलम्
इत्युक्त्वा वध्यमाना सा स्वबाहुभ्यां रुरोद ह।
तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणः कर्णौ पिधायातीव दुःखितः॥ ३५॥
मामेवं भाषसे चण्डि धिक् त्वां नाशमुपैष्यसि।
इत्युक्त्वा वनदेवीभ्यः समर्प्य जनकात्मजाम्॥ ३६॥
ययौ दुःखातिसंविग्नो राममेव शनैः शनैः।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वे अपनी भुजाओंसे छाती पीटती हुई रोने लगीं। उनके ऐसे कठोर शब्द सुन लक्ष्मणजीने अति दुःखित हो अपने दोनों कान मूँद लिये और कहा—‘‘हे चण्डि! तुम्हें धिक्कार है, तुम मुझे ऐसी बातें कह रही हो! इससे तुम नष्ट हो जाओगी।’’ ऐसा कह लक्ष्मणजी सीताको वनदेवियोंको सौंपकर दुःखसे अत्यन्त खिन्न हो धीरे-धीरे रामके पास चले॥ ३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्तरं समालोक्य रावणो भिक्षुवेषधृक्॥ ३७॥
सीतासमीपमगमत्स्फुरद्दण्डकमण्डलुः।
सीता तमवलोक्याशु नत्वा सम्पूज्य भक्तितः॥३८॥
कन्दमूलफलादीनि दत्त्वा स्वागतमब्रवीत्।
मुने भुङ्क्ष्व फलादीनि विश्रमस्व यथासुखम्॥ ३९॥
इदानीमेव भर्ता मे ह्यागमिष्यति ते प्रियम्।
करिष्यति विशेषेण तिष्ठ त्वं यदि रोचते॥ ४०॥
मूलम्
ततोऽन्तरं समालोक्य रावणो भिक्षुवेषधृक्॥ ३७॥
सीतासमीपमगमत्स्फुरद्दण्डकमण्डलुः।
सीता तमवलोक्याशु नत्वा सम्पूज्य भक्तितः॥३८॥
कन्दमूलफलादीनि दत्त्वा स्वागतमब्रवीत्।
मुने भुङ्क्ष्व फलादीनि विश्रमस्व यथासुखम्॥ ३९॥
इदानीमेव भर्ता मे ह्यागमिष्यति ते प्रियम्।
करिष्यति विशेषेण तिष्ठ त्वं यदि रोचते॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय मौका समझकर रावण भिक्षुका वेष बना दण्ड-कमण्डलुके सहित सीताके पास आया। सीताने उसे देखकर तुरंत ही प्रणाम किया और भक्तिपूर्वक उसका पूजन कर कन्द-मूल-फल आदि देकर स्वागत करते हुए कहा—‘‘हे मुने! ये फल आदि खाकर सुखपूर्वक विश्राम कीजिये। अभी थोड़ी देरमें ही मेरे पतिदेव आते होंगे। यदि आपकी इच्छा हो तो कुछ देर ठहरिये। वे आपका कुछ विशेष सत्कार कर सकेंगे’’॥ ३७—४०॥
मूलम् (वचनम्)
भिक्षुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
का त्वं कमलपत्राक्षि को वा भर्ता तवानघे।
किमर्थमत्र ते वासो वने राक्षससेविते।
ब्रूहि भद्रे ततः सर्वं स्ववृत्तान्तं निवेदये॥ ४१॥
मूलम्
का त्वं कमलपत्राक्षि को वा भर्ता तवानघे।
किमर्थमत्र ते वासो वने राक्षससेविते।
ब्रूहि भद्रे ततः सर्वं स्ववृत्तान्तं निवेदये॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षु बोला—हे कमललोचने! तुम कौन हो? तुम्हारे पति कौन हैं; हे अनघे! इस राक्षससेवित वनमें तुम क्यों रहती हो; हे कल्याणि! ये सब बातें बताओ, तब मैं भी तुम्हें अपना सारा वृत्तान्त सुनाऊँगा॥ ४१॥
मूलम् (वचनम्)
सीतोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् राजा दशरथो महान्।
तस्य ज्येष्ठः सुतो रामः सर्वलक्षणलक्षितः॥ ४२॥
मूलम्
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् राजा दशरथो महान्।
तस्य ज्येष्ठः सुतो रामः सर्वलक्षणलक्षितः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजी बोलीं—(हे भिक्षो!) श्रीमान् महाराज दशरथ अयोध्याके राजा थे, उनके ज्येष्ठ पुत्र सर्वसुलक्षणसम्पन्न राम हैं॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याहं धर्मतः पत्नी सीता जनकनन्दिनी।
तस्य भ्राता कनीयांश्च लक्ष्मणो भ्रातृवत्सलः॥ ४३॥
मूलम्
तस्याहं धर्मतः पत्नी सीता जनकनन्दिनी।
तस्य भ्राता कनीयांश्च लक्ष्मणो भ्रातृवत्सलः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं जनकनन्दिनी सीता उन्हींकी धर्मपत्नी हूँ। उनका छोटा भाई लक्ष्मण है। वह अपने भाईका अत्यन्त स्नेही है॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दण्डके वस्तुमागतः।
चतुर्दश समास्त्वां तु ज्ञातुमिच्छामि मे वद॥ ४४॥
मूलम्
पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दण्डके वस्तुमागतः।
चतुर्दश समास्त्वां तु ज्ञातुमिच्छामि मे वद॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
(हम दोनोंके साथ) श्रीरामचन्द्रजी पिताकी आज्ञासे चौदह वर्ष दण्डकारण्यमें रहनेके लिये आये हैं। अब मैं आपके विषयमें जानना चाहती हूँ, आप भी मुझे अपना परिचय दें॥ ४४॥
मूलम् (वचनम्)
भिक्षुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौलस्त्यतनयोऽहं तु रावणो राक्षसाधिपः।
त्वत्कामपरितप्तोऽहं त्वां नेतुं पुरमागतः॥ ४५॥
मूलम्
पौलस्त्यतनयोऽहं तु रावणो राक्षसाधिपः।
त्वत्कामपरितप्तोऽहं त्वां नेतुं पुरमागतः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षु बोला—मैं पुलस्त्यनन्दन विश्रवाका पुत्र राक्षसराज रावण हूँ। मैं तुम्हें पानेकी इच्छासे सन्तप्त हूँ; अतः इस समय तुम्हें अपनी राजधानीमें ले जानेके लिये यहाँ आया हूँ॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिवेषेण रामेण किं करिष्यसि मां भज।
भुङ्क्ष्व भोगान्मया सार्धं त्यज दुःखं वनोद्भवम्॥ ४६॥
मूलम्
मुनिवेषेण रामेण किं करिष्यसि मां भज।
भुङ्क्ष्व भोगान्मया सार्धं त्यज दुःखं वनोद्भवम्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मुनिवेषधारी रामसे तुम्हें क्या मिलेगा। तुम मुझसे प्रेम करो और इन वनवासके दुःखोंसे छूटकर मेरे साथ नाना प्रकारके भोग भोगो॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तद्वचनं सीता भीता किञ्चिदुवाच तम्।
यद्येवं भाषसे मां त्वं नाशमेष्यसि राघवात्॥ ४७॥
मूलम्
श्रुत्वा तद्वचनं सीता भीता किञ्चिदुवाच तम्।
यद्येवं भाषसे मां त्वं नाशमेष्यसि राघवात्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके ये वचन सुनकर सीताजीने कुछ डरते हुए उससे कहा—‘‘यदि तू मुझसे ऐसी बात कहेगा तो रामचन्द्रजी तुझे नष्ट कर देंगे॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगमिष्यति रामोऽपि क्षणं तिष्ठ सहानुजः।
मां को धर्षयितुं शक्तो हरेर्भार्यां शशो यथा॥ ४८॥
मूलम्
आगमिष्यति रामोऽपि क्षणं तिष्ठ सहानुजः।
मां को धर्षयितुं शक्तो हरेर्भार्यां शशो यथा॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरा ठहर तो, भाईके सहित श्रीरामचन्द्रजी अभी आते होंगे! मेरे साथ कौन बलका प्रयोग कर सकता है; क्या सिंह-पत्नीके साथ खरहा भी बलप्रयोग कर सकता है॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामबाणैर्विभिन्नस्त्वं पतिष्यसि महीतले।
इति सीतावचः श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः॥ ४९॥
स्वरूपं दर्शयामास महापर्वतसन्निभम्।
दशास्यं विंशतिभुजं कालमेघसमद्युतिम्॥ ५०॥
मूलम्
रामबाणैर्विभिन्नस्त्वं पतिष्यसि महीतले।
इति सीतावचः श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः॥ ४९॥
स्वरूपं दर्शयामास महापर्वतसन्निभम्।
दशास्यं विंशतिभुजं कालमेघसमद्युतिम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामजीके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर तू अभी पृथिवीतलपर सोवेगा।’ सीताजीके ऐसे वचन सुनकर रावणने क्रोधाकुल हो अपना महापर्वताकार रूप दिखलाया, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं तथा जिसकी काले मेघके समान आभा थी॥ ४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्दृष्ट्वा वनदेव्यश्च भूतानि च वितत्रसुः।
ततो विदार्य धरणीं नखैरुद्धृत्य बाहुभिः॥ ५१॥
तोलयित्वा रथे क्षिप्त्वा ययौ क्षिप्रं विहायसा।
मूलम्
तद्दृष्ट्वा वनदेव्यश्च भूतानि च वितत्रसुः।
ततो विदार्य धरणीं नखैरुद्धृत्य बाहुभिः॥ ५१॥
तोलयित्वा रथे क्षिप्त्वा ययौ क्षिप्रं विहायसा।
अनुवाद (हिन्दी)
उस भयंकर रूपको देखकर वनदेवियाँ और वन्य जीव भयभीत हो गये। तब रावणने (सीताजीके पैरोंके नीचेकी) पृथिवीको नखोंसे खोदकर* उन्हें अपने हाथोंसे उठा लिया और रथमें डालकर तुरंत आकाशमार्गसे चल दिया॥ ५१॥
पादटिप्पनी
- वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १३ में रावण कहता है कि एक बार मैंने पुंजिकस्थला नामकी अप्सराको आकाशमार्गसे ब्रह्माजीके पास जाते देखा। तब मैंने उसे बलात् वस्त्रहीन कर उसके साथ सम्भोग किया। यह बात ब्रह्माजीको ज्ञात होनेसे उन्होंने मुझे शाप दिया कि ‘यदि तू आजसे किसी स्त्रीसे बलात्कार करेगा तो तेरे मस्तकके सौ टुकड़े हो जायँगे।’ उस शापके भयसे ही रावणने सीताजीको स्पर्श नहीं किया। रावणको इस प्रकारका शाप रम्भाको बलात्कार करनेके कारण कुबेरपुत्र नलकूबरने भी दिया था [वा० रा० उ० का० २६ सर्ग]। परन्तु वह शाप पहला था और अपने तपोबलके कारण रावण उससे डरता नहीं था। इसलिये पीछे वह पुंजिकस्थलापर बलात्कार करनेका साहस किया (रामाभिरामी वा० रा० यु० का० १३। १४)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा राम हा लक्ष्मणेति रुदती जनकात्मजा॥ ५२॥
भयोद्विग्नमना दीना पश्यन्ती भुवमेव सा।
श्रुत्वा तत्क्रन्दितं दीनं सीतायाः पक्षिसत्तमः॥ ५३॥
जटायुरुत्थितः शीघ्रं नगाग्रात्तीक्ष्णतुण्डकः।
तिष्ठ तिष्ठेति तं प्राह को गच्छति ममाग्रतः॥ ५४॥
मुषित्वा लोकनाथस्य भार्यां शून्याद्वनालयात्।
शुनको मन्त्रपूतं त्वं पुरोडाशमिवाध्वरे॥ ५५॥
मूलम्
हा राम हा लक्ष्मणेति रुदती जनकात्मजा॥ ५२॥
भयोद्विग्नमना दीना पश्यन्ती भुवमेव सा।
श्रुत्वा तत्क्रन्दितं दीनं सीतायाः पक्षिसत्तमः॥ ५३॥
जटायुरुत्थितः शीघ्रं नगाग्रात्तीक्ष्णतुण्डकः।
तिष्ठ तिष्ठेति तं प्राह को गच्छति ममाग्रतः॥ ५४॥
मुषित्वा लोकनाथस्य भार्यां शून्याद्वनालयात्।
शुनको मन्त्रपूतं त्वं पुरोडाशमिवाध्वरे॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सीताजी अति भयभीतचित्त होकर दीन दृष्टिसे पृथिवीकी ओर देखती हुई ‘हा राम! हा लक्ष्मण!’ ऐसा कहकर रोने लगीं। सीताजीका वह आर्तक्रन्दन सुनकर तुरंत ही तीखी चोंचवाला पक्षिश्रेष्ठ जटायु पहाड़की चोटीपरसे उठा और बोला—‘‘अरे! ठहर, ठहर, यज्ञके मन्त्रपूत पुरोडाशको ले जानेवाले कुत्तेके समान मेरे सामने ही जगन्नाथ श्रीरघुनाथजीकी भार्याको सूने तपोवनसे तू कौन लिये जाता है?’’॥ ५२—५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तीक्ष्णतुण्डेन चूर्णयामास तद्रथम्।
वाहान्बिभेद पादाभ्यां चूर्णयामास तद्धनुः॥ ५६॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तीक्ष्णतुण्डेन चूर्णयामास तद्रथम्।
वाहान्बिभेद पादाभ्यां चूर्णयामास तद्धनुः॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जटायुने ऐसा कहकर अपनी तीक्ष्ण चोंचसे रावणके रथको चूर-चूर कर डाला और अपने पंजोंसे घोड़ोंको मारकर उसके धनुषके टुकड़े-टुकड़े कर दिये॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सीतां परित्यज्य रावणः खड्गमाददे।
चिच्छेद पक्षौ सामर्षः पक्षिराजस्य धीमतः॥ ५७॥
मूलम्
ततः सीतां परित्यज्य रावणः खड्गमाददे।
चिच्छेद पक्षौ सामर्षः पक्षिराजस्य धीमतः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रावणने सीताजीको छोड़कर अपना खड्ग निकाला और झुँझलाकर मतिमान् जटायुके पंख काट डाले॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पपात किञ्चिच्छेषेण प्राणेन भुवि पक्षिराट्।
पुनरन्यरथेनाशु सीतामादाय रावणः॥ ५८॥
मूलम्
पपात किञ्चिच्छेषेण प्राणेन भुवि पक्षिराट्।
पुनरन्यरथेनाशु सीतामादाय रावणः॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पंख कट जानेसे पक्षिराज जटायु अधमरे होकर पृथिवीपर गिर पड़े। फिर तुरंत ही रावण सीताजीको दूसरे रथपर चढ़ाकर चलता बना॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशन्ती राम रामेति त्रातारं नाधिगच्छति।
हा राम हा जगन्नाथ मां न पश्यसि दुःखिताम्॥ ५९॥
मूलम्
क्रोशन्ती राम रामेति त्रातारं नाधिगच्छति।
हा राम हा जगन्नाथ मां न पश्यसि दुःखिताम्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वह सीता किसी रक्षकको न देखकर बारम्बार रामको पुकारती हुई रो-रोकर कह रही थी—‘‘हा राम! हा जगन्नाथ! क्या आप मुझ दुःखिनीको नहीं देखते॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षसा नीयमानां स्वां भार्यां मोचय राघव।
हा लक्ष्मण महाभाग त्राहि मामपराधिनीम्॥ ६०॥
मूलम्
रक्षसा नीयमानां स्वां भार्यां मोचय राघव।
हा लक्ष्मण महाभाग त्राहि मामपराधिनीम्॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राघव! आपकी भार्याको राक्षस लिये जाता है, आप छुड़ाइये। हा महाभाग लक्ष्मण! मुझ अपराधिनीकी रक्षा करो॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्शरेण हतस्त्वं मे क्षन्तुमर्हसि देवर।
इत्येवं क्रोशमानां तां रामागमनशङ्कया॥ ६१॥
मूलम्
वाक्शरेण हतस्त्वं मे क्षन्तुमर्हसि देवर।
इत्येवं क्रोशमानां तां रामागमनशङ्कया॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवर! मैंने तुम्हें वाग्बाण मारे थे, तुम मुझे क्षमा करना।’’ सीताजीके इस प्रकार रुदन करनेसे रामके आनेकी आशंका करता हुआ रावण उन्हें लेकर वायुके समान अति तीव्र वेगसे चलने लगा॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगाम वायुवेगेन सीतामादाय सत्वरः।
विहायसा नीयमाना सीतापश्यदधोमुखी॥ ६२॥
पर्वताग्रे स्थितान् पञ्च वानरान् वारिजानना।
उत्तरीयार्धखण्डेन विमुच्याभरणादिकम्॥ ६३॥
बद्ध्वा चिक्षेप रामाय कथयन्त्विति पर्वते।
मूलम्
जगाम वायुवेगेन सीतामादाय सत्वरः।
विहायसा नीयमाना सीतापश्यदधोमुखी॥ ६२॥
पर्वताग्रे स्थितान् पञ्च वानरान् वारिजानना।
उत्तरीयार्धखण्डेन विमुच्याभरणादिकम्॥ ६३॥
बद्ध्वा चिक्षेप रामाय कथयन्त्विति पर्वते।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आकाशमार्गसे जाते हुए नीचेकी ओर देखती हुई कमलानना सीताजीने एक पर्वत-शिखरपर पाँच वानरोंको बैठे देखा। यह देखकर उन्होंने अपने आभूषणादि उतारकर अपने दुपट्टेके टुकड़ेमें बाँधे और ‘ये रामको मेरा समाचार सुनावें’ इस अभिप्रायसे पर्वतपर फेंक दिये॥ ६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समुद्रमुल्लङ्घ्य लङ्कां गत्वा स रावणः॥ ६४॥
स्वान्तःपुरे रहस्येतामशोकविपिनेऽक्षिपत्।
राक्षसीभिः परिवृतां मातृबुद्ध्यान्वपालयत्॥ ६५॥
मूलम्
ततः समुद्रमुल्लङ्घ्य लङ्कां गत्वा स रावणः॥ ६४॥
स्वान्तःपुरे रहस्येतामशोकविपिनेऽक्षिपत्।
राक्षसीभिः परिवृतां मातृबुद्ध्यान्वपालयत्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रावणने समुद्र पारकर लंकामें पहुँचकर उन्हें अपने अन्तःपुरके एकान्त देश अशोकवनमें रखा और राक्षसियोंसे घेरे रखकर मातृबुद्धिसे उनकी रक्षा करने लगा॥ ६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृशातिदीना परिकर्मवर्जिता
दुःखेन शुष्यद्वदनातिविह्वला।
हा राम रामेति विलप्यमाना
सीता स्थिता राक्षसवृन्दमध्ये॥ ६६॥
मूलम्
कृशातिदीना परिकर्मवर्जिता
दुःखेन शुष्यद्वदनातिविह्वला।
हा राम रामेति विलप्यमाना
सीता स्थिता राक्षसवृन्दमध्ये॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस स्थानमें अति कृश और दीनवदना सीताजी सब प्रकारका शृंगार छोड़कर दुःखके कारण शुष्कवदन और अत्यन्त विह्वल होकर ‘हा राम! हा राम!’ ऐसे विलाप करती हुई राक्षसोंके बीचमें रहने लगीं॥ ६६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे सप्तमः सर्गः॥ ७॥