[षष्ठ सर्ग]
भागसूचना
रावणका मारीचके पास जाना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचिन्त्यैवं निशायां स प्रभाते रथमास्थितः।
रावणो मनसा कार्यमेकं निश्चित्य बुद्धिमान्॥ १॥
ययौ मारीचसदनं परं पारमुदन्वतः।
मारीचस्तत्र मुनिवज्जटावल्कलधारकः॥ २॥
ध्यायन् हृदि परात्मानं निर्गुणं गुणभासकम्।
समाधिविरमेऽपश्यद्रावणं गृहमागतम्॥ ३॥
मूलम्
विचिन्त्यैवं निशायां स प्रभाते रथमास्थितः।
रावणो मनसा कार्यमेकं निश्चित्य बुद्धिमान्॥ १॥
ययौ मारीचसदनं परं पारमुदन्वतः।
मारीचस्तत्र मुनिवज्जटावल्कलधारकः॥ २॥
ध्यायन् हृदि परात्मानं निर्गुणं गुणभासकम्।
समाधिविरमेऽपश्यद्रावणं गृहमागतम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! रात्रिके समय इस प्रकार विचारकर प्रातःकाल होनेपर बुद्धिमान् रावण रथमें सवार हुआ और अपने मन-ही-मन एक कार्य निश्चय कर वह समुद्रके दूसरे तटपर मारीचके घर गया। वहाँ मारीच मुनियोंके समान जटा-वल्कलादि धारणकर प्राकृत गुणोंके प्रकाशक निर्गुण भगवान् का ध्यान कर रहा था। समाधि भंग होनेपर उसने रावणको अपने घर आया देखा॥ १—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुतमुत्थाय चालिङ्ग्य पूजयित्वा यथाविधि।
कृतातिथ्यं सुखासीनं मारीचो वाक्यमब्रवीत्॥ ४॥
मूलम्
द्रुतमुत्थाय चालिङ्ग्य पूजयित्वा यथाविधि।
कृतातिथ्यं सुखासीनं मारीचो वाक्यमब्रवीत्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणको देखते ही वह शीघ्रतासे उठ खड़ा हुआ और उससे गले मिलकर उसकी विधिपूर्वक पूजा की तथा आतिथ्य-सत्कारके अनन्तर जब रावण स्वस्थ होकर बैठा तो मारीच उससे बोला—॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समागमनमेतत्ते रथेनैकेन रावण।
चिन्तापर इवाभासि हृदि कार्यं विचिन्तयन्॥ ५॥
मूलम्
समागमनमेतत्ते रथेनैकेन रावण।
चिन्तापर इवाभासि हृदि कार्यं विचिन्तयन्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे रावण! इस समय तुम एक ही रथके साथ आये हो और तुम्हारा चित्त किसी कार्यके विचारमें चिन्ताग्रस्त-सा प्रतीत होता है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूहि मे न हि गोप्यं चेत्करवाणि तव प्रियम्।
न्याय्यं चेद् ब्रूहि राजेन्द्र वृजिनं मां स्पृशेन्न हि॥ ६॥
मूलम्
ब्रूहि मे न हि गोप्यं चेत्करवाणि तव प्रियम्।
न्याय्यं चेद् ब्रूहि राजेन्द्र वृजिनं मां स्पृशेन्न हि॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि गोपनीय न हो तो मुझे वह कार्य बताओ। हे राजेन्द्र! यदि उसके करनेमें मुझे पाप न लगे और वह न्यायानुकूल हो तो कहो, मैं तुम्हारा वह प्रिय कार्य अवश्य करूँगा’’॥ ६॥
मूलम् (वचनम्)
रावण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति राजा दशरथः साकेताधिपतिः किल।
रामनामा सुतस्तस्य ज्येष्ठः सत्यपराक्रमः॥ ७॥
मूलम्
अस्ति राजा दशरथः साकेताधिपतिः किल।
रामनामा सुतस्तस्य ज्येष्ठः सत्यपराक्रमः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण बोला—(कहते हैं—)राजा दशरथ अयोध्यापुरीका अधिपति है, उसका ज्येष्ठ पुत्र सत्यपराक्रमी राम है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवासयामास सुतं वनं वनजनप्रियम्।
भार्यया सहितं भ्रात्रा लक्ष्मणेन समन्वितम्॥ ८॥
मूलम्
विवासयामास सुतं वनं वनजनप्रियम्।
भार्यया सहितं भ्रात्रा लक्ष्मणेन समन्वितम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अपने मुनिजनप्रिय पुत्रको दथरथने स्त्री और छोटे भाई लक्ष्मणके सहित वनमें भेज दिया है॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स आस्ते विपिने घोरे पञ्चवट्याश्रमे शुभे।
तस्य भार्या विशालाक्षी सीता लोकविमोहिनी॥ ९॥
मूलम्
स आस्ते विपिने घोरे पञ्चवट्याश्रमे शुभे।
तस्य भार्या विशालाक्षी सीता लोकविमोहिनी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय वह घोर दण्डकारण्यके पंचवटी नामक शुभ आश्रममें रहता है। (सुना है,) उसकी भार्या विशालनयना सीता त्रिलोकीको मोहित करनेवाली है॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो निरपराधान्मे राक्षसान् भीमविक्रमान्।
खरं च हत्वा विपिने सुखमास्तेऽतिनिर्भयः॥ १०॥
मूलम्
रामो निरपराधान्मे राक्षसान् भीमविक्रमान्।
खरं च हत्वा विपिने सुखमास्तेऽतिनिर्भयः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह राम मेरे बड़े पराक्रमी निरपराध राक्षसोंको भाई खरके सहित मारकर उस तपोवनमें निर्भयतापूर्वक बड़े आनन्दसे रहता है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगिन्याः शूर्पणखाया निर्दोषायाश्च नासिकाम्।
कर्णौ चिच्छेद दुष्टात्मा वने तिष्ठति निर्भयः॥ ११॥
मूलम्
भगिन्याः शूर्पणखाया निर्दोषायाश्च नासिकाम्।
कर्णौ चिच्छेद दुष्टात्मा वने तिष्ठति निर्भयः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी बहिन शूर्पणखाने उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था; किन्तु उस दुष्टने उसके नाक-कान काट डाले और अब निर्भयतापूर्वक उस वनमें रहता है॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वया सहायेन गत्वा तत्प्राणवल्लभाम्।
आनयिष्यामि विपिने रहिते राघवेण ताम्॥ १२॥
मूलम्
अतस्त्वया सहायेन गत्वा तत्प्राणवल्लभाम्।
आनयिष्यामि विपिने रहिते राघवेण ताम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अब तुम्हारी सहायतासे मैं रामके तपोवनमें न रहनेपर उसकी प्राणप्रिया सीताको ले आना चाहता हूँ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु मायामृगो भूत्वा ह्याश्रमादपनेष्यसि।
रामं च लक्ष्मणं चैव तदा सीतां हराम्यहम्॥ १३॥
त्वं तु तावत्सहायं मे कृत्वा स्थास्यसि पूर्ववत्।
इत्येवं भाषमाणं तं रावणं वीक्ष्य विस्मितः॥ १४॥
मूलम्
त्वं तु मायामृगो भूत्वा ह्याश्रमादपनेष्यसि।
रामं च लक्ष्मणं चैव तदा सीतां हराम्यहम्॥ १३॥
त्वं तु तावत्सहायं मे कृत्वा स्थास्यसि पूर्ववत्।
इत्येवं भाषमाणं तं रावणं वीक्ष्य विस्मितः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मायासे मृगरूप होकर राम और लक्ष्मणको आश्रमसे दूर ले जाना। उसी समय मैं सीताको हर लाऊँगा। इस प्रकार मेरी सहायता करके तुम फिर पूर्ववत् अपने आश्रममें आ रहना। रावणको इस प्रकार कहते देख मारीचने विस्मित होकर कहा—॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केनेदमुपदिष्टं ते मूलघातकरं वचः।
स एव शत्रुर्वध्यश्च यस्त्वन्नाशं प्रतीक्षते॥ १५॥
मूलम्
केनेदमुपदिष्टं ते मूलघातकरं वचः।
स एव शत्रुर्वध्यश्च यस्त्वन्नाशं प्रतीक्षते॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘रावण! ये सर्वनाश करनेवाली बातें तुम्हें किसने बतायी हैं? इस प्रकार जो कोई तुम्हारा नाश करना चाहता है, निश्चय ही वह तुम्हारा शत्रु है और वध करने योग्य है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्य पौरुषं स्मृत्वा चित्तमद्यापि रावण।
बालोऽपि मां कौशिकस्य यज्ञसंरक्षणाय सः॥ १६॥
आगतस्त्विषुणैकेन पातयामास सागरे।
योजनानां शतं रामस्तदादि भयविह्वलः॥ १७॥
स्मृत्वा स्मृत्वा तदेवाहं रामं पश्यामि सर्वतः॥ १८॥
मूलम्
रामस्य पौरुषं स्मृत्वा चित्तमद्यापि रावण।
बालोऽपि मां कौशिकस्य यज्ञसंरक्षणाय सः॥ १६॥
आगतस्त्विषुणैकेन पातयामास सागरे।
योजनानां शतं रामस्तदादि भयविह्वलः॥ १७॥
स्मृत्वा स्मृत्वा तदेवाहं रामं पश्यामि सर्वतः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रावण! उनके बाल्यकालके पौरुषको याद करके, जब वे विश्वामित्रजीकी यज्ञ-रक्षाके लिये आये थे और उन्होंने एक बाणसे ही मुझे सौ योजन दूर समुद्रके तटपर फेंक दिया था, तबसे मैं भयसे व्याकुल हो जाता हूँ। बारम्बार उसी बातका स्मरण हो आनेसे मुझे सब ओर राम-ही-राम दिखलायी देने लगते हैं॥ १६—१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डकेऽपि पुनरप्यहं वने
पूर्ववैरमनुचिन्तयन् हृदि।
तीक्ष्णशृङ्गमृगरूपमेकदा
मादृशैर्बहुभिरावृतोऽभ्ययाम्॥ १९॥
मूलम्
दण्डकेऽपि पुनरप्यहं वने
पूर्ववैरमनुचिन्तयन् हृदि।
तीक्ष्णशृङ्गमृगरूपमेकदा
मादृशैर्बहुभिरावृतोऽभ्ययाम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन अपने पूर्व-वैरका स्मरण कर मैं दण्डकारण्यमें भी अपने-जैसे बहुत-से मृगोंके साथ मिलकर एक तीखे सींगोंवाले मृगका रूप बनाकर गया था॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवं जनकजासमन्वितं
लक्ष्मणेन सहितं त्वरान्वितः।
आगतोऽहमथ हन्तुमुद्यतो
मां विलोक्य शरमेकमक्षिपत्॥ २०॥
मूलम्
राघवं जनकजासमन्वितं
लक्ष्मणेन सहितं त्वरान्वितः।
आगतोऽहमथ हन्तुमुद्यतो
मां विलोक्य शरमेकमक्षिपत्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मैं बड़ी फुर्तीसे सीता और लक्ष्मणके सहित श्रीरघुनाथजीको मारनेकी इच्छासे आगे बढ़ा तो मुझे देखकर उन्होंने केवल एक बाण छोड़ दिया॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन विद्धहृदयोऽहमुद्भ्रमन्
राक्षसेन्द्र पतितोऽस्मि सागरे।
तत्प्रभृत्यहमिदं समाश्रितः
स्थानमूर्जितमिदं भयार्दितः॥ २१॥
मूलम्
तेन विद्धहृदयोऽहमुद्भ्रमन्
राक्षसेन्द्र पतितोऽस्मि सागरे।
तत्प्रभृत्यहमिदं समाश्रितः
स्थानमूर्जितमिदं भयार्दितः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राक्षसेन्द्र! उसीसे हृदय बिंध जानेके कारण मैं आकाशमें चक्कर काटता हुआ समुद्रमें आकर गिरा। तबसे मैं भयभीत होकर इस निर्भय स्थानमें रहता हूँ॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राममेव सततं विभावये
भीतभीत इव भोगराशितः।
राजरत्नरमणीरथादिकं
श्रोत्रयोर्यदि गतं भयं भवेत्॥ २२॥
मूलम्
राममेव सततं विभावये
भीतभीत इव भोगराशितः।
राजरत्नरमणीरथादिकं
श्रोत्रयोर्यदि गतं भयं भवेत्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज, रत्न, रमणी और रथ आदि (भोग-सामग्रियोंके प्रथम अक्षर ‘र’)-के कानोंमें पड़ते ही मुझे (रामकी याद आ जानेसे) भय उत्पन्न हो जाता है, इसलिये मैं भोग-समुदायसे भयभीत होकर निरन्तर ‘राम’ का ही ध्यान करता रहता हूँ॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम आगत इहेति शङ्कया
बाह्यकार्यमपि सर्वमत्यजम्।
निद्रया परिवृतो यदा स्वपे
राममेव मनसानुचिन्तयन्॥ २३॥
मूलम्
राम आगत इहेति शङ्कया
बाह्यकार्यमपि सर्वमत्यजम्।
निद्रया परिवृतो यदा स्वपे
राममेव मनसानुचिन्तयन्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यहाँ राम न आ गये हों’ इस आशंकासे मैंने समस्त बाह्य कार्य छोड़ दिये हैं। जिस समय मैं निद्राके वशीभूत होकर सोता हूँ उस समय मन-ही-मन रामका ही स्मरण करता रहता हूँ॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नदृष्टिगतराघवं तदा
बोधितो विगतनिद्र आस्थितः।
तद्भवानपि विमुच्य चाग्रहं
राघवं प्रति गृहं प्रयाहि भोः॥ २४॥
मूलम्
स्वप्नदृष्टिगतराघवं तदा
बोधितो विगतनिद्र आस्थितः।
तद्भवानपि विमुच्य चाग्रहं
राघवं प्रति गृहं प्रयाहि भोः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार स्वप्नमें देखे हुए श्रीरघुनाथजीको जब निद्रा टूटनेपर जागता हूँ तब भी नहीं भूलता। अतः हे रावण! तुम भी श्रीराघवसे हठ छोड़कर अपने घर चले जाओ॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्ष राक्षसकुलं चिरागतं
तत्स्मृतौ सकलमेव नश्यति।
तव हितं वदतो मम भाषितं
परिगृहाण परात्मनि राघवे॥ २५॥
त्यज विरोधमतिं भज भक्तितः
परमकारुणिको रघुनन्दनः।
अहमशेषमिदं मुनिवाक्यतो-
ऽशृणवमादियुगे परमेश्वरः॥ २६॥
ब्रह्मणार्थित उवाच तं हरिः
किं तवेप्सितमहं करवाणि तत्।
ब्रह्मणोक्तमरविन्दलोचन
त्वं प्रयाहि भुवि मानुषं वपुः।
दशरथात्मजभावमञ्जसा
जहि रिपुं दशकन्धरं हरे॥ २७॥
मूलम्
रक्ष राक्षसकुलं चिरागतं
तत्स्मृतौ सकलमेव नश्यति।
तव हितं वदतो मम भाषितं
परिगृहाण परात्मनि राघवे॥ २५॥
त्यज विरोधमतिं भज भक्तितः
परमकारुणिको रघुनन्दनः।
अहमशेषमिदं मुनिवाक्यतो-
ऽशृणवमादियुगे परमेश्वरः॥ २६॥
ब्रह्मणार्थित उवाच तं हरिः
किं तवेप्सितमहं करवाणि तत्।
ब्रह्मणोक्तमरविन्दलोचन
त्वं प्रयाहि भुवि मानुषं वपुः।
दशरथात्मजभावमञ्जसा
जहि रिपुं दशकन्धरं हरे॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और चिरकालसे चले हुए अपने राक्षस-वंशकी रक्षा करो। (श्रीरामचन्द्रजीसे वैर न करो,) उनका तो (वैरभावसे) स्मरण करनेसे भी सर्वस्व नष्ट हो जाता है। मैं तुम्हारे हितके लिये जो कुछ कहता हूँ वह मानो। तुम परमात्मा श्रीरघुनाथजीसे विरोध-बुद्धि छोड़ दो और भक्तिभावसे उनका भजन करो; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजी बड़े दयालु हैं। मैंने मुनीश्वरोंके मुखसे ये सभी बातें सुनी हैं कि सत्ययुगमें ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर परमात्मा श्रीहरिने कहा था कि तुम अपना मनोरथ बताओ, मैं उसे पूर्ण करूँगा। तब ब्रह्माजीने भगवान् से कहा—‘हे कमललोचन हरे! आप मनुष्यरूपसे पृथिवीमें अवतार लीजिये और शीघ्र ही दशरथनन्दन श्रीराम होकर देवद्रोही दशाननका वध कीजिये’॥ २५—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो न मानुषो रामः साक्षान्नारायणोऽव्ययः।
मायामानुषवेषेण वनं यातोऽतिनिर्भयः॥ २८॥
भूभारहरणार्थाय गच्छ तात गृहं सुखम्।
श्रुत्वा मारीचवचनं रावणः प्रत्यभाषत॥ २९॥
मूलम्
अतो न मानुषो रामः साक्षान्नारायणोऽव्ययः।
मायामानुषवेषेण वनं यातोऽतिनिर्भयः॥ २८॥
भूभारहरणार्थाय गच्छ तात गृहं सुखम्।
श्रुत्वा मारीचवचनं रावणः प्रत्यभाषत॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम निश्चय मानो, राम मनुष्य नहीं हैं; वे साक्षात् अव्ययपुरुष श्रीनारायण हैं, मायासे मनुष्यरूप होकर वे निर्भयतापूर्वक पृथिवीका भार उतारनेके लिये वनमें आये हैं। अतः हे तात! तुम सुखपूर्वक घर लौट जाओ’’ मारीचके ये वचन सुनकर रावण बोला—॥ २८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमात्मा यदा रामः प्रार्थितो ब्रह्मणा किल।
मां हन्तुं मानुषो भूत्वा यत्नादिह समागतः॥ ३०॥
करिष्यत्यचिरादेव सत्यसङ्कल्प ईश्वरः।
अतोऽहं यत्नतः सीतामानेष्याम्येव राघवात्॥ ३१॥
मूलम्
परमात्मा यदा रामः प्रार्थितो ब्रह्मणा किल।
मां हन्तुं मानुषो भूत्वा यत्नादिह समागतः॥ ३०॥
करिष्यत्यचिरादेव सत्यसङ्कल्प ईश्वरः।
अतोऽहं यत्नतः सीतामानेष्याम्येव राघवात्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘यदि ब्रह्माकी प्रार्थनासे परमात्मा ही राम होकर मनुष्यरूपसे मुझे मारनेके लिये प्रयत्नपूर्वक यहाँ आये हैं, तो वे शीघ्र ही अवश्य वैसा ही करेंगे; क्योंकि ईश्वर सत्य-संकल्प हैं। इसलिये मैं अवश्य यत्नपूर्वक रघुनाथजीके पाससे सीताको ले आऊँगा॥ ३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधे प्राप्ते रणे वीर प्राप्स्यामि परमं पदम्।
यद्वा रामं रणे हत्वा सीतां प्राप्स्यामि निर्भयः॥ ३२॥
मूलम्
वधे प्राप्ते रणे वीर प्राप्स्यामि परमं पदम्।
यद्वा रामं रणे हत्वा सीतां प्राप्स्यामि निर्भयः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे वीर! यदि मैं युद्धमें उनके हाथसे मारा गया तो परमपद प्राप्त करूँगा और यदि मैंने ही रामको रणक्षेत्रमें मार डाला तो निर्भयतापूर्वक सीताको पाऊँगा॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुत्तिष्ठ महाभाग विचित्रमृगरूपधृक्।
रामं सलक्ष्मणं शीघ्रमाश्रमादतिदूरतः॥ ३३॥
आक्रम्य गच्छ त्वं शीघ्रं सुखं तिष्ठ यथा पुरा।
अतः परं चेद्यत्किञ्चिद्भाषसे मद्विभीषणम्॥ ३४॥
हनिष्याम्यसिनानेन त्वामत्रैव न संशयः।
मारीचस्तद्वचः श्रुत्वा स्वात्मन्येवान्वचिन्तयत्॥ ३५॥
मूलम्
तदुत्तिष्ठ महाभाग विचित्रमृगरूपधृक्।
रामं सलक्ष्मणं शीघ्रमाश्रमादतिदूरतः॥ ३३॥
आक्रम्य गच्छ त्वं शीघ्रं सुखं तिष्ठ यथा पुरा।
अतः परं चेद्यत्किञ्चिद्भाषसे मद्विभीषणम्॥ ३४॥
हनिष्याम्यसिनानेन त्वामत्रैव न संशयः।
मारीचस्तद्वचः श्रुत्वा स्वात्मन्येवान्वचिन्तयत्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे महाभाग! उठो और शीघ्र ही विचित्र मृगरूप धारण कर राम और लक्ष्मणको आश्रमसे अति दूर ले जाओ, फिर पूर्ववत् अपने आश्रममें आकर सुखपूर्वक रहो। यदि मुझे भयभीत करनेके लिये अब और कुछ कहोगे तो निश्चय मानो, मैं अभी इसी खड्गसे तुम्हें यहीं मार डालूँगा’’ उसका यह कथन सुनकर मारीचने मन-ही-मन सोचा—॥ ३३—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां राघवो हन्यात्तदा मुक्तो भवार्णवात्।
मां हन्याद्यदि चेद्दुष्टस्तदा मे निरयो ध्रुवम्॥ ३६॥
मूलम्
यदि मां राघवो हन्यात्तदा मुक्तो भवार्णवात्।
मां हन्याद्यदि चेद्दुष्टस्तदा मे निरयो ध्रुवम्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि श्रीरघुनाथजीने मुझे मारा तो मैं संसार-सागरसे पार हो जाऊँगा और जो कहीं इस दुष्टने मुझे मार डाला तो निश्चय ही मुझे नरकमें पड़ना होगा’॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चित्य मरणं रामादुत्थाय वेगतः।
अब्रवीद्रावणं राजन्करोम्याज्ञां तव प्रभो॥ ३७॥
मूलम्
इति निश्चित्य मरणं रामादुत्थाय वेगतः।
अब्रवीद्रावणं राजन्करोम्याज्ञां तव प्रभो॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार श्रीरामके हाथसे ही अपना मरना निश्चय कर वह शीघ्रतासे उठा और रावणसे बोला—‘‘हे राजन्! हे प्रभो! मैं आपकी आज्ञा पालन करूँगा’’॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा रथमास्थाय गतो रामाश्रमं प्रति।
शुद्धजाम्बूनदप्रख्यो मृगोऽभूद्रौप्यबिन्दुकः॥ ३८॥
मूलम्
इत्युक्त्वा रथमास्थाय गतो रामाश्रमं प्रति।
शुद्धजाम्बूनदप्रख्यो मृगोऽभूद्रौप्यबिन्दुकः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह वह (रावणके) रथपर चढ़कर श्रीरामचन्द्रके आश्रममें आया और चाँदीकी बूँदोंके सहित शुद्धसुवर्णवर्ण विचित्र मृग-रूप धारण किया॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नशृङ्गो मणिखुरो नीलरत्नविलोचनः।
विद्युत्प्रभो विमुग्धास्यो विचचार वनान्तरे॥ ३९॥
रामाश्रमपदस्यान्ते सीतादृष्टिपथे चरन्॥ ४०॥
मूलम्
रत्नशृङ्गो मणिखुरो नीलरत्नविलोचनः।
विद्युत्प्रभो विमुग्धास्यो विचचार वनान्तरे॥ ३९॥
रामाश्रमपदस्यान्ते सीतादृष्टिपथे चरन्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके सींग रत्नमय, खुर मणिमय और नेत्र नीलरत्नमय थे। इस प्रकार बिजलीकी-सी छटा और मनोहर मुखवाला वह मृग रामचन्द्रजीके आश्रमके पास सीताजीके सामने वनमें विचरने लगा॥ ३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणं च धावत्यवतिष्ठते क्षणं
समीपमागत्य पुनर्भयावृतः।
एवं स मायामृगवेषरूपधृक्
चचार सीतां परिमोहयन्खलः॥ ४१॥
मूलम्
क्षणं च धावत्यवतिष्ठते क्षणं
समीपमागत्य पुनर्भयावृतः।
एवं स मायामृगवेषरूपधृक्
चचार सीतां परिमोहयन्खलः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी क्षण तो वह चौकड़ी मारने लगता और कभी पास आकर ठिठक जाता, फिर भयसे (भागने लगता)। इस प्रकार वह वंचक मायामृग-रूप धारणकर सीताजीको मोहित करता हुआ विचरने लगा॥ ४१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे षष्ठः सर्गः॥ ६॥