[पञ्चम सर्ग]
भागसूचना
शूर्पणखाको दण्ड, खर आदि राक्षसोंका वध और शूर्पणखाका रावणके पास जाना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् काले महारण्ये राक्षसी कामरूपिणी।
विचचार महासत्त्वा जनस्थाननिवासिनी॥ १॥
मूलम्
तस्मिन् काले महारण्ये राक्षसी कामरूपिणी।
विचचार महासत्त्वा जनस्थाननिवासिनी॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) उस समय उस घोर वनमें जनस्थानकी रहनेवाली एक महाबलवती इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली राक्षसी घूमा करती थी॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा गौतमीतीरे पञ्चवट्याः समीपतः।
पद्मवज्राङ्कुशाङ्कानि पदानि जगतीपतेः॥ २॥
दृष्ट्वा कामपरीतात्मा पादसौन्दर्यमोहिता।
पश्यन्ती सा शनैरायाद्राघवस्य निवेशनम्॥ ३॥
मूलम्
एकदा गौतमीतीरे पञ्चवट्याः समीपतः।
पद्मवज्राङ्कुशाङ्कानि पदानि जगतीपतेः॥ २॥
दृष्ट्वा कामपरीतात्मा पादसौन्दर्यमोहिता।
पश्यन्ती सा शनैरायाद्राघवस्य निवेशनम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन पंचवटीके पास गौतमी नदीके तीरपर जगत्पति श्रीरामचन्द्रजीके पद्म, वज्र और अंकुशकी रेखाओंसे युक्त चरण-चिह्नोंको देखकर वह उनके सौन्दर्यसे मोहित होकर कामासक्त हुई उन्हें देखती-देखती धीरे-धीरे रघुनाथजीके आश्रममें चली आयी॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र सा तं रमानाथं सीतया सह संस्थितम्।
कन्दर्पसदृशं रामं दृष्ट्वा कामविमोहिता॥ ४॥
राक्षसी राघवं प्राह कस्य त्वं कः किमाश्रमे।
युक्तो जटावल्कलाद्यैः साध्यं किं तेऽत्र मे वद॥ ५॥
मूलम्
तत्र सा तं रमानाथं सीतया सह संस्थितम्।
कन्दर्पसदृशं रामं दृष्ट्वा कामविमोहिता॥ ४॥
राक्षसी राघवं प्राह कस्य त्वं कः किमाश्रमे।
युक्तो जटावल्कलाद्यैः साध्यं किं तेऽत्र मे वद॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर कामदेवके समान अति सुन्दर लक्ष्मीपति श्रीरामचन्द्रजीको सीताजीके साथ बैठे देखकर वह कामातुरा राक्षसी रघुनाथजीसे बोली—‘‘तुम किसके (पुत्र) हो? तुम्हारा क्या नाम है? इस आश्रममें जटा-वल्कलादि धारण कर क्यों रहते हो? यहाँ रहकर तुम क्या प्राप्त करना चाहते हो? सो मुझे बताओ॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी।
भगिनी राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य महात्मनः॥ ६॥
मूलम्
अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी।
भगिनी राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य महात्मनः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं राक्षसराज महात्मा रावणकी बहिन कामरूपिणी राक्षसी शूर्पणखा हूँ॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरेण सहिता भ्रात्रा वसाम्यत्रैव कानने।
राज्ञा दत्तं च मे सर्वं मुनिभक्षा वसाम्यहम्॥ ७॥
मूलम्
खरेण सहिता भ्रात्रा वसाम्यत्रैव कानने।
राज्ञा दत्तं च मे सर्वं मुनिभक्षा वसाम्यहम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अपने भाई खरके साथ इसी वनमें रहती हूँ। राजाने मुझे इस सम्पूर्ण वनका अधिकार सौंप दिया है, (अतः) मैं मुनियोंको खाती हुई यहाँ रहती हूँ॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां तु वेदितुमिच्छामि वद मे वदतां वर।
तामाह रामनामाहमयोध्याधिपतेः सुतः॥ ८॥
मूलम्
त्वां तु वेदितुमिच्छामि वद मे वदतां वर।
तामाह रामनामाहमयोध्याधिपतेः सुतः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! मैं तुम्हारे विषयमें जानना चाहती हूँ अतः तुम मुझे (अपना नाम-धाम आदि) बताओ। तब भगवान् ने उससे कहा—‘‘मैं अयोध्याधिपति राजा दशरथका राम नामक पुत्र हूँ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा मे सुन्दरी भार्या सीता जनकनन्दिनी।
स तु भ्राता कनीयान्मे लक्ष्मणोऽतीव सुन्दरः॥ ९॥
मूलम्
एषा मे सुन्दरी भार्या सीता जनकनन्दिनी।
स तु भ्राता कनीयान्मे लक्ष्मणोऽतीव सुन्दरः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुन्दरी मेरी भार्या जनकनन्दिनी सीता है तथा वह अति सुन्दर कुमार मेरा छोटा भाई लक्ष्मण है॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कृत्यं ते मया ब्रूहि कार्यं भुवनसुन्दरि।
इति रामवचः श्रुत्वा कामार्ता साब्रवीदिदम्॥ १०॥
मूलम्
किं कृत्यं ते मया ब्रूहि कार्यं भुवनसुन्दरि।
इति रामवचः श्रुत्वा कामार्ता साब्रवीदिदम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे त्रिभुवनसुन्दरि! बताओ मैं तुम्हारा क्या कार्य करूँ?’’ रामचन्द्रजीका यह वचन सुनकर कामातुरा शूर्पणखा बोली—॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि राम मया सार्धं रमस्व गिरिकानने।
कामार्ताहं न शक्नोमि त्यक्तुं त्वां कमलेक्षणम्॥ ११॥
मूलम्
एहि राम मया सार्धं रमस्व गिरिकानने।
कामार्ताहं न शक्नोमि त्यक्तुं त्वां कमलेक्षणम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राम! चलो (किसी) गिरि-गुहामें चलकर मेरे साथ आनन्द करो। इस समय मैं कामातुरा हूँ, अतः आप कमलनयनको छोड़ नहीं सकती’’॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः सीतां कटाक्षेण पश्यन् सस्मितमब्रवीत्।
भार्या ममैषा कल्याणी विद्यते ह्यनपायिनी॥ १२॥
मूलम्
रामः सीतां कटाक्षेण पश्यन् सस्मितमब्रवीत्।
भार्या ममैषा कल्याणी विद्यते ह्यनपायिनी॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने नेत्रोंसे सीताजीकी ओर संकेत करके मुसकराकर कहा—‘‘हे सुन्दरि! मेरी तो यह भार्या मौजूद है, जिसको त्यागना असम्भव है॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु सापत्न्यदुःखेन कथं स्थास्यसि सुन्दरि।
बहिरास्ते मम भ्राता लक्ष्मणोऽतीव सुन्दरः॥ १३॥
मूलम्
त्वं तु सापत्न्यदुःखेन कथं स्थास्यसि सुन्दरि।
बहिरास्ते मम भ्राता लक्ष्मणोऽतीव सुन्दरः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इसके रहते हुए) तुम जन्मभर सौतकी डाहसे जलती हुई किस प्रकार रह सकोगी? बाहर मेरा अत्यन्त सुन्दर छोटा भाई लक्ष्मण विराजमान है॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवानुरूपो भविता पतिस्तेनैव सञ्चर।
इत्युक्ता लक्ष्मणं प्राह पतिर्मे भव सुन्दर॥ १४॥
भ्रातुराज्ञां पुरस्कृत्य सङ्गच्छावोऽद्य माचिरम्।
इत्याह राक्षसी घोरा लक्ष्मणं काममोहिता॥ १५॥
मूलम्
तवानुरूपो भविता पतिस्तेनैव सञ्चर।
इत्युक्ता लक्ष्मणं प्राह पतिर्मे भव सुन्दर॥ १४॥
भ्रातुराज्ञां पुरस्कृत्य सङ्गच्छावोऽद्य माचिरम्।
इत्याह राक्षसी घोरा लक्ष्मणं काममोहिता॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तुम्हारा योग्य पति होगा, तुम उसीके साथ (वन-पर्वतादिमें) विहार करो।’’ रामचन्द्रजीके इस प्रकार कहनेपर कामसे मोहिता भयंकरी शूर्पणखाने लक्ष्मणजीसे (जाकर) कहा—‘‘हे सुन्दर! अपने भाईकी आज्ञा मानकर तुम मेरे पति हो जाओ। आज हम और तुम परस्पर संगमन करें, देरी न करो’’॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामाह लक्ष्मणः साध्वि दासोऽहं तस्य धीमतः।
दासी भविष्यसि त्वं तु ततो दुःखतरं नु किम्॥ १६॥
मूलम्
तामाह लक्ष्मणः साध्वि दासोऽहं तस्य धीमतः।
दासी भविष्यसि त्वं तु ततो दुःखतरं नु किम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उस राक्षसीने जब लक्ष्मणजीसे इस प्रकार कहा तो) वे उससे बोले—‘‘साध्वि! मैं तो उन बुद्धिमान् (भगवान्) रामका दास हूँ। मुझे अपना पति बनानेसे तुम्हें भी उनकी दासी बनना पड़ेगा। तुम्हारे लिये इससे अधिक दुःखकी और क्या बात होगी?॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव गच्छ भद्रं ते स तु राजाखिलेश्वरः।
तच्छ्रुत्वा पुनरप्यागाद्राघवं दुष्टमानसा॥ १७॥
मूलम्
तमेव गच्छ भद्रं ते स तु राजाखिलेश्वरः।
तच्छ्रुत्वा पुनरप्यागाद्राघवं दुष्टमानसा॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा कल्याण हो, तुम उन्हींके पास जाओ, वे महाराज सबके स्वामी हैं।’’ यह सुनकर वह दुष्टचित्ता राक्षसी फिर रघुनाथजीके पास आयी॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधाद्राम किमर्थं मां भ्रामयस्यनवस्थितः।
इदानीमेव तां सीतां भक्षयामि तवाग्रतः॥ १८॥
मूलम्
क्रोधाद्राम किमर्थं मां भ्रामयस्यनवस्थितः।
इदानीमेव तां सीतां भक्षयामि तवाग्रतः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और क्रोधपूर्वक बोली—‘‘हे राम! तुम बड़े चंचलचित्त हो, मुझे क्यों इधर-उधर घुमा रहे हो? मैं अभी तुम्हारे सामने ही इस सीताको खाये जाती हूँ’’॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा विकटाकारा जानकीमनुधावति।
ततो रामाज्ञया खड्गमादाय परिगृह्य ताम्॥ १९॥
चिच्छेद नासां कर्णौ च लक्ष्मणो लघुविक्रमः।
ततो घोरध्वनिं कृत्वा रुधिराक्तवपुर्द्रुतम्॥ २०॥
क्रन्दमाना पपाताग्रे खरस्य परुषाक्षरा।
किमेतदिति तामाह खरः खरतराक्षरः॥ २१॥
मूलम्
इत्युक्त्वा विकटाकारा जानकीमनुधावति।
ततो रामाज्ञया खड्गमादाय परिगृह्य ताम्॥ १९॥
चिच्छेद नासां कर्णौ च लक्ष्मणो लघुविक्रमः।
ततो घोरध्वनिं कृत्वा रुधिराक्तवपुर्द्रुतम्॥ २०॥
क्रन्दमाना पपाताग्रे खरस्य परुषाक्षरा।
किमेतदिति तामाह खरः खरतराक्षरः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह वह विकट रूप धारण कर जानकीजीकी ओर दौड़ी। तब लक्ष्मणजीने रामचन्द्रजीकी आज्ञासे उसे पकड़कर बड़ी फुर्तीसे खड्ग लेकर उसके नाक-कान काट डाले। तदनन्तर वह घोर शब्द करती हुई रुधिरमें लथपथ हो बड़ी शीघ्रतासे जाकर रोती और कठोर शब्द करती खरके सामने गिर पड़ी। उसे देखकर तीक्ष्ण ध्वनिवाले खरने कहा—‘‘यह क्या बात है॥ १९—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केनैवं कारितासि त्वं मृत्योर्वक्त्रानुवर्तिना।
वद मे तं वधिष्यामि कालकल्पमपि क्षणात्॥ २२॥
मूलम्
केनैवं कारितासि त्वं मृत्योर्वक्त्रानुवर्तिना।
वद मे तं वधिष्यामि कालकल्पमपि क्षणात्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरी! मृत्युके मुखमें जानेवाले किस दुष्टने तेरी यह दशा की है? तू बतला तो सही, वह कालके समान भी बली क्यों न हो, मैं उसे क्षणभरमें ही मार डालूँगा’’॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह राक्षसी रामः सीतालक्ष्मणसंयुतः।
दण्डकं निर्भयं कुर्वन्नास्ते गोदावरीतटे॥ २३॥
मूलम्
तमाह राक्षसी रामः सीतालक्ष्मणसंयुतः।
दण्डकं निर्भयं कुर्वन्नास्ते गोदावरीतटे॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राक्षसी शूर्पणखाने उससे कहा—‘‘यहाँ सीता और लक्ष्मणके सहित राम दण्डकारण्यको निर्भय करता हुआ गोदावरीके तटपर रहता है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामेवं कृतवांस्तस्य भ्राता तेनैव चोदितः।
यदि त्वं कुलजातोऽसि वीरोऽसि जहि तौ रिपू॥ २४॥
मूलम्
मामेवं कृतवांस्तस्य भ्राता तेनैव चोदितः।
यदि त्वं कुलजातोऽसि वीरोऽसि जहि तौ रिपू॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीकी प्रेरणासे उसके भाई लक्ष्मणने मेरी यह गति की है। यदि तुम बड़े कुलीन और वीर हो तो उन दोनों शत्रुओंको मार डालो॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोस्तु रुधिरं पास्ये भक्षयैतौ सुदुर्मदौ।
नो चेत्प्राणान्परित्यज्य यास्यामि यमसादनम्॥ २५॥
मूलम्
तयोस्तु रुधिरं पास्ये भक्षयैतौ सुदुर्मदौ।
नो चेत्प्राणान्परित्यज्य यास्यामि यमसादनम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम उन दोनों मदोन्मत्तोंको खा जाओ और मैं उन दोनोंका रुधिर पीऊँगी। नहीं तो अपने प्राणोंको छोड़कर यमलोकको चली जाऊँगी’’॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा त्वरितं प्रागात्खरः क्रोधेन मूर्च्छितः।
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्॥२६॥
चोदयामास रामस्य समीपं वधकाङ्क्षया।
खरश्च त्रिशिराश्चैव दूषणश्चैव राक्षसः॥ २७॥
सर्वे रामं ययुः शीघ्रं नानाप्रहरणोद्यताः।
श्रुत्वा कोलाहलं तेषां रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥ २८॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा त्वरितं प्रागात्खरः क्रोधेन मूर्च्छितः।
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्॥२६॥
चोदयामास रामस्य समीपं वधकाङ्क्षया।
खरश्च त्रिशिराश्चैव दूषणश्चैव राक्षसः॥ २७॥
सर्वे रामं ययुः शीघ्रं नानाप्रहरणोद्यताः।
श्रुत्वा कोलाहलं तेषां रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूर्पणखाका यह कथन सुनकर खर क्रोधसे परिपूर्ण हो तुरंत (युद्धके लिये) चला और रामको मारनेके लिये उसने बड़े पराक्रमी चौदह सहस्र राक्षस उनके पास भेजे। खर, दूषण और त्रिशिरा—ये सभी नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर रामके पास आये। उनका कोलाहल सुन श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीसे कहा—॥ २६—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते विपुलः शब्दो नूनमायान्ति राक्षसाः।
भविष्यति महद्युद्धं नूनमद्य मया सह॥ २९॥
मूलम्
श्रूयते विपुलः शब्दो नूनमायान्ति राक्षसाः।
भविष्यति महद्युद्धं नूनमद्य मया सह॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
(‘‘लक्ष्मण! देखो) बड़ा कोलाहल सुनायी पड़ रहा है, मालूम होता है निश्चय ही राक्षसगण आ रहे हैं; अवश्य ही आज मेरे साथ उनका घोर युद्ध होगा॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतां नीत्वा गुहां गत्वा तत्र तिष्ठ महाबल।
हन्तुमिच्छाम्यहं सर्वान् राक्षसान् घोररूपिणः॥ ३०॥
मूलम्
सीतां नीत्वा गुहां गत्वा तत्र तिष्ठ महाबल।
हन्तुमिच्छाम्यहं सर्वान् राक्षसान् घोररूपिणः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे महाबल! तुम सीताको लेकर किसी पर्वतकी कन्दरामें चले जाओ। आज मैं इन समस्त घोररूप राक्षसोंका वध करना चाहता हूँ॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र किञ्चिन्न वक्तव्यं शापितोऽसि ममोपरि।
तथेति सीतामादाय लक्ष्मणो गह्वरं ययौ॥ ३१॥
मूलम्
अत्र किञ्चिन्न वक्तव्यं शापितोऽसि ममोपरि।
तथेति सीतामादाय लक्ष्मणो गह्वरं ययौ॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हें मेरी सौगन्ध है, इस विषयमें तुम और कुछ न कहना।’’ तब लक्ष्मणजी ‘जो आज्ञा’ कह सीताजीको लेकर एक गिरिगुहामें चले गये॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः परिकरं बद्ध्वा धनुरादाय निष्ठुरम्।
तूणीरावक्षयशरौ बद्ध्वायत्तोऽभवत्प्रभुः॥ ३२॥
मूलम्
रामः परिकरं बद्ध्वा धनुरादाय निष्ठुरम्।
तूणीरावक्षयशरौ बद्ध्वायत्तोऽभवत्प्रभुः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामचन्द्रजीने अपनी कमर कसी और कठोर धनुष तथा दो अक्षयबाणवाले तरकश बाँधकर युद्धके लिये तैयार हो गये॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आगत्य रक्षांसि रामस्योपरि चिक्षिपुः।
आयुधानि विचित्राणि पाषाणान्पादपानपि॥ ३३॥
मूलम्
तत आगत्य रक्षांसि रामस्योपरि चिक्षिपुः।
आयुधानि विचित्राणि पाषाणान्पादपानपि॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राक्षसगण वहाँ आकर रामके ऊपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र, पत्थर और वृक्षादिकी वर्षा करने लगे॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानि चिच्छेद रामोऽपि लीलया तिलशः क्षणात्।
ततो बाणसहस्रेण हत्वा तान् सर्वराक्षसान्॥ ३४॥
खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम्।
जघान प्रहरार्धेन सर्वानेव रघूत्तमः॥ ३५॥
मूलम्
तानि चिच्छेद रामोऽपि लीलया तिलशः क्षणात्।
ततो बाणसहस्रेण हत्वा तान् सर्वराक्षसान्॥ ३४॥
खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम्।
जघान प्रहरार्धेन सर्वानेव रघूत्तमः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने एक क्षणमात्रमें लीलासे ही उन अस्त्र-शस्त्रादिको तिल-तिल करके काट डाला। फिर सहस्रों बाणोंसे उन सम्पूर्ण राक्षसोंको मारकर खर, दूषण और त्रिशिराको भी मार डाला। इस प्रकार रघुवंशियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने आधे पहरमें ही उन समस्त राक्षसोंका संहार कर दिया॥ ३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणोऽपि गुहामध्यात्सीतामादाय राघवे।
समर्प्य राक्षसान्दृष्ट्वा हतान्विस्मयमाययौ॥ ३६॥
मूलम्
लक्ष्मणोऽपि गुहामध्यात्सीतामादाय राघवे।
समर्प्य राक्षसान्दृष्ट्वा हतान्विस्मयमाययौ॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लक्ष्मणजीने गुहामेंसे सीताजीको लाकर श्रीरघुनाथजीको सौंप दिया। उस समय सम्पूर्ण राक्षसोंको मरे हुए देख वे बड़े विस्मित हुए॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता रामं समालिङ्ग्य प्रसन्नमुखपङ्कजा।
शस्त्रव्रणानि चाङ्गेषु ममार्ज जनकात्मजा॥ ३७॥
मूलम्
सीता रामं समालिङ्ग्य प्रसन्नमुखपङ्कजा।
शस्त्रव्रणानि चाङ्गेषु ममार्ज जनकात्मजा॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकनन्दिनी श्रीसीताजीने प्रसन्नमुखसे श्रीरामचन्द्रजीका आलिंगन किया और उनके शरीरमें हुए शस्त्रके घावोंपर हाथ फेरने लगीं॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापि दुद्राव दृष्ट्वा तान् हतान् राक्षसपुङ्गवान्।
लङ्कां गत्वा सभामध्ये क्रोशन्ती पादसन्निधौ॥ ३८॥
रावणस्य पपातोर्व्यां भगिनी तस्य रक्षसः।
दृष्ट्वा तां रावणः प्राह भगिनीं भयविह्वलाम्॥ ३९॥
मूलम्
सापि दुद्राव दृष्ट्वा तान् हतान् राक्षसपुङ्गवान्।
लङ्कां गत्वा सभामध्ये क्रोशन्ती पादसन्निधौ॥ ३८॥
रावणस्य पपातोर्व्यां भगिनी तस्य रक्षसः।
दृष्ट्वा तां रावणः प्राह भगिनीं भयविह्वलाम्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सम्पूर्ण श्रेष्ठ राक्षसोंको मरे देख राक्षसराज रावणकी बहिन शूर्पणखा दौड़ती हुई लंकामें पहुँची और राजसभामें पहुँचकर रोती हुई रावणके पैरोंके समीप पृथ्वीपर गिर पड़ी। अपनी बहिनको इस प्रकार भयभीत देखकर रावण बोला—॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वत्से त्वं विरूपकरणं तव।
कृतं शक्रेण वा भद्रे यमेन वरुणेन वा॥ ४०॥
कुबेरेणाथवा ब्रूहि भस्मीकुर्यां क्षणेन तम्।
राक्षसी तमुवाचेदं त्वं प्रमत्तो विमूढधीः॥ ४१॥
मूलम्
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वत्से त्वं विरूपकरणं तव।
कृतं शक्रेण वा भद्रे यमेन वरुणेन वा॥ ४०॥
कुबेरेणाथवा ब्रूहि भस्मीकुर्यां क्षणेन तम्।
राक्षसी तमुवाचेदं त्वं प्रमत्तो विमूढधीः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अरी वत्से! उठ, खड़ी हो। बता तो सही तुझे किसने विरूपा किया है? हे भद्रे! यह इन्द्रका काम है अथवा यम, वरुण और कुबेरमेंसे किसीने किया है? बता, एक क्षणमें ही मैं उसे भस्म कर डालूँगा’’ तब राक्षसी शूर्पणखाने उससे कहा—‘‘तुम बड़े ही प्रमादी और मूढ़बुद्धि हो॥ ४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानासक्तः स्त्रीविजितः षण्ढः सर्वत्र लक्ष्यसे।
चारचक्षुर्विहीनस्त्वं कथं राजा भविष्यसि॥ ४२॥
मूलम्
पानासक्तः स्त्रीविजितः षण्ढः सर्वत्र लक्ष्यसे।
चारचक्षुर्विहीनस्त्वं कथं राजा भविष्यसि॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मद्यपानमें आसक्त, स्त्रीके वशीभूत और सब विषयोंमें नपुंसक-जैसे दिखायी पड़ते हो। तुम्हारे चार (खुफिया पुलिस) रूप नेत्र नहीं है; फिर तुम राजा कैसे रह सकोगे?॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरश्च निहतः सङ्ख्ये दूषणस्त्रिशिरास्तथा।
चतुर्दश सहस्राणि राक्षसानां महात्मनाम्॥ ४३॥
निहतानि क्षणेनैव रामेणासुरशत्रुणा।
जनस्थानमशेषेण मुनीनां निर्भयं कृतम्।
न जानासि विमूढस्त्वमत एव मयोच्यते॥ ४४॥
मूलम्
खरश्च निहतः सङ्ख्ये दूषणस्त्रिशिरास्तथा।
चतुर्दश सहस्राणि राक्षसानां महात्मनाम्॥ ४३॥
निहतानि क्षणेनैव रामेणासुरशत्रुणा।
जनस्थानमशेषेण मुनीनां निर्भयं कृतम्।
न जानासि विमूढस्त्वमत एव मयोच्यते॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें खर मारा गया तथा दूषण और त्रिशिरा आदि चौदह सहस्र मुख्य-मुख्य राक्षसोंको राक्षसशत्रु रामने एक क्षणमें ही मार डाला और सारे जनस्थानको मुनीश्वरोंके लिये सर्वथा निर्भय कर दिया। इतना उत्पात हो जानेपर भी तुम्हें अभीतक कुछ पता ही नहीं है इसीलिये मैं कहती हूँ कि तुम मूढ़ हो’’॥ ४३-४४॥
मूलम् (वचनम्)
रावण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
को वा रामः किमर्थं वा कथं तेनासुरा हताः।
सम्यक्कथय मे तेषां मूलघातं करोम्यहम्॥ ४५॥
मूलम्
को वा रामः किमर्थं वा कथं तेनासुरा हताः।
सम्यक्कथय मे तेषां मूलघातं करोम्यहम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण बोला—अरी! तू बता तो, वह राम कौन है? उसने किसलिये और किस प्रकार इन राक्षसोंको मारा? तू सब बात विस्तारपूर्वक कह, मैं उसका मूलोच्छेद कर डालूँगा॥ ४५॥
मूलम् (वचनम्)
शूर्पणखोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनस्थानादहं याता कदाचिद्गौतमीतटे।
तत्र पञ्चवटी नाम पुरा मुनिजनाश्रया॥ ४६॥
मूलम्
जनस्थानादहं याता कदाचिद्गौतमीतटे।
तत्र पञ्चवटी नाम पुरा मुनिजनाश्रया॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूर्पणखा बोली—एक दिन जनस्थानसे मैं गौतमीके किनारे जा रही थी, वहाँ पूर्वकालमें मुनिजनोंसे सेवित एक पंचवटी नामक आश्रम है॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राश्रमे मया दृष्टो रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः श्रीमान् जटावल्कलमण्डितः॥ ४७॥
मूलम्
तत्राश्रमे मया दृष्टो रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः श्रीमान् जटावल्कलमण्डितः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आश्रममें मैंने जटा-वल्कलादिसे सुशोभित धनुर्बाणधारी कमलनयन शोभाधाम रामको देखा॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनीयाननुजस्तस्य लक्ष्मणोऽपि तथाविधः।
तस्य भार्या विशालाक्षी रूपिणी श्रीरिवापरा॥ ४८॥
मूलम्
कनीयाननुजस्तस्य लक्ष्मणोऽपि तथाविधः।
तस्य भार्या विशालाक्षी रूपिणी श्रीरिवापरा॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका छोटा भाई लक्ष्मण भी उसीके समान रूपवान् है तथा उसकी विशाललोचना भार्या भी रूपमें साक्षात् दूसरी लक्ष्मी-जैसी ही है॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगन्धर्वनागानां मनुष्याणां तथाविधा।
न दृष्टा न श्रुता राजन् द्योतयन्ती वनं शुभा॥ ४९॥
मूलम्
देवगन्धर्वनागानां मनुष्याणां तथाविधा।
न दृष्टा न श्रुता राजन् द्योतयन्ती वनं शुभा॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! देव, गन्धर्व, नाग और मनुष्य आदिमेंसे किसीकी भी स्त्री ऐसी रूपवती न देखी है और न सुनी है। वह शुभलक्षणा अपनी कान्तिसे सम्पूर्ण वनको प्रकाशित कर रही थी॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनेतुमहमुद्युक्ता तां भार्यार्थं तवानघ।
लक्ष्मणो नाम तद्भ्राता चिच्छेद मम नासिकाम्॥ ५०॥
मूलम्
आनेतुमहमुद्युक्ता तां भार्यार्थं तवानघ।
लक्ष्मणो नाम तद्भ्राता चिच्छेद मम नासिकाम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अनघ! उसे तुम्हारी पत्नी बनानेके लिये मैंने लानेका प्रयत्न किया था, इसीसे रामके भाई लक्ष्मणने मेरी नाक काट डाली॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णौ च नोदितस्तेन रामेण स महाबलः।
ततोऽहमतिदुःखेन रुदती खरमन्वगाम्॥ ५१॥
मूलम्
कर्णौ च नोदितस्तेन रामेण स महाबलः।
ततोऽहमतिदुःखेन रुदती खरमन्वगाम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर रामकी प्रेरणासे महाबली लक्ष्मणने मेरे कान भी काट लिये। तब मैं अत्यन्त दुःखसे रोती हुई खरके पास गयी॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपि रामं समासाद्य युद्धं राक्षसयूथपैः।
ततः क्षणेन रामेण तेनैव बलशालिना॥ ५२॥
सर्वे तेन विनष्टा वै राक्षसा भीमविक्रमाः।
यदि रामो मनः कुर्यात्त्रैलोक्यं निमिषार्धतः॥ ५३॥
भस्मीकुर्यान्न सन्देह इति भाति मम प्रभो।
यदि सा तव भार्या स्यात्सफलं तव जीवितम्॥ ५४॥
मूलम्
सोऽपि रामं समासाद्य युद्धं राक्षसयूथपैः।
ततः क्षणेन रामेण तेनैव बलशालिना॥ ५२॥
सर्वे तेन विनष्टा वै राक्षसा भीमविक्रमाः।
यदि रामो मनः कुर्यात्त्रैलोक्यं निमिषार्धतः॥ ५३॥
भस्मीकुर्यान्न सन्देह इति भाति मम प्रभो।
यदि सा तव भार्या स्यात्सफलं तव जीवितम्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने भी अपने राक्षस-सेनापतियोंके साथ तुरंत जाकर रामसे युद्ध ठाना; किन्तु उस बलशाली रामने एक क्षणमें ही वे समस्त भीमविक्रम राक्षस नष्ट कर दिये। हे प्रभो! मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि यदि रामके मनमें आ जाय तो वह निस्सन्देह आधे निमेषमें ही सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म कर सकता है। किन्तु यदि उसकी स्त्री सीता तुम्हारी भार्या हो जाय तो तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा॥ ५२—५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो यतस्व राजेन्द्र यथा ते वल्लभा भवेत्।
सीता राजीवपत्राक्षी सर्वलोकैकसुन्दरी॥ ५५॥
मूलम्
अतो यतस्व राजेन्द्र यथा ते वल्लभा भवेत्।
सीता राजीवपत्राक्षी सर्वलोकैकसुन्दरी॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे राजेन्द्र! तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे सम्पूर्ण लोकोंमें एकमात्र सुन्दरी कमलनयनी सीता तुम्हारी प्राणप्रिया हो जाय॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साक्षाद्रामस्य पुरतः स्थातुं त्वं न क्षमः प्रभो।
मायया मोहयित्वा तु प्राप्स्यसे तां रघूत्तमम्॥ ५६॥
मूलम्
साक्षाद्रामस्य पुरतः स्थातुं त्वं न क्षमः प्रभो।
मायया मोहयित्वा तु प्राप्स्यसे तां रघूत्तमम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! तुम रामके सामने साक्षात् न ठहर सकोगे, इसलिये उन रघुश्रेष्ठको किसी प्रकार मायाजालसे मोहित कर तुम उसे प्राप्त कर सकते हो॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तत्सूक्तवाक्यैश्च दानमानादिभिस्तथा।
आश्वास्य भगिनीं राजा प्रविवेश स्वकं गृहम्।
तत्र चिन्तापरो भूत्वा निद्रां रात्रौ न लब्धवान्॥ ५७॥
मूलम्
श्रुत्वा तत्सूक्तवाक्यैश्च दानमानादिभिस्तथा।
आश्वास्य भगिनीं राजा प्रविवेश स्वकं गृहम्।
तत्र चिन्तापरो भूत्वा निद्रां रात्रौ न लब्धवान्॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर राक्षसराज रावणने सुन्दर वाक्यों और दान-मानादिसे बहिन शूर्पणखाको धैर्य बँधाकर अपने अन्तःपुरमें प्रवेश किया, किन्तु वहाँ चिन्ताके कारण उसे रात्रिको नींद नहीं आयी॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेन रामेण कथं मनुष्य-
मात्रेण नष्टः सबलः खरो मे।
भ्राता कथं मे बलवीर्यदर्प-
युतो विनष्टो बत राघवेण॥ ५८॥
मूलम्
एकेन रामेण कथं मनुष्य-
मात्रेण नष्टः सबलः खरो मे।
भ्राता कथं मे बलवीर्यदर्प-
युतो विनष्टो बत राघवेण॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वह सोचने लगा—) (‘बड़े आश्चर्यकी बात है,) अकेले मनुष्यमात्र रघुवंशी रामने बल-वीर्य और साहससम्पन्न मेरे भाई खरको सेनाके सहित कैसे मार डाला?॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्वा न रामो मनुजः परेशो
मां हन्तुकामः सबलं बलौघैः।
सम्प्रार्थितोऽयं द्रुहिणेन पूर्वं
मनुष्यरूपोऽद्य रघोः कुलेऽभूत्॥ ५९॥
मूलम्
यद्वा न रामो मनुजः परेशो
मां हन्तुकामः सबलं बलौघैः।
सम्प्रार्थितोऽयं द्रुहिणेन पूर्वं
मनुष्यरूपोऽद्य रघोः कुलेऽभूत्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह राम मनुष्य नहीं है, साक्षात् परमात्माने ही पूर्वकालमें की हुई ब्रह्माकी प्रार्थनासे मेरी सेनाके सहित मुझे वानरसेनाओंसे मारनेके लिये इस समय रघुवंशमें मनुष्यरूपसे अवतार लिया है॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यो यदि स्यां परमात्मनाहं
वैकुण्ठराज्यं परिपालयेऽहम्।
नो चेदिदं राक्षसराज्यमेव
भोक्ष्ये चिरं राममतो व्रजामि॥ ६०॥
मूलम्
वध्यो यदि स्यां परमात्मनाहं
वैकुण्ठराज्यं परिपालयेऽहम्।
नो चेदिदं राक्षसराज्यमेव
भोक्ष्ये चिरं राममतो व्रजामि॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि परमात्माद्वारा मैं मारा गया तब तो मैं वैकुण्ठका राज्य भोगूँगा, नहीं तो चिरकालपर्यन्त राक्षसोंका राज्य तो भोगूँगा ही।’ इसलिये मैं (अवश्य) रामके पास चलूँगा॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं विचिन्त्याखिलराक्षसेन्द्रो
रामं विदित्वा परमेश्वरं हरिम्।
विरोधबुद्ध्यैव हरिं प्रयामि
द्रुतं न भक्त्या भगवान् प्रसीदेत्॥ ६१॥
मूलम्
इत्थं विचिन्त्याखिलराक्षसेन्द्रो
रामं विदित्वा परमेश्वरं हरिम्।
विरोधबुद्ध्यैव हरिं प्रयामि
द्रुतं न भक्त्या भगवान् प्रसीदेत्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण राक्षसोंके स्वामी रावणने इस प्रकार विचारकर भगवान् रामको साक्षात् परमात्मा हरि जानकर (यह निश्चय किया कि) मैं विरोध-बुद्धिसे ही भगवान् के पास जाऊँगा (क्योंकि) भक्तिके द्वारा भगवान् शीघ्र प्रसन्न नहीं हो सकते॥ ६१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥ ५॥