[चतुर्थ सर्ग]
भागसूचना
पंचवटीमें निवास और लक्ष्मणजीको उपदेश
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गे व्रजन्ददर्शाथ शैलशृङ्गमिव स्थितम्।
वृद्धं जटायुषं रामः किमेतदिति विस्मितः॥ १॥
मूलम्
मार्गे व्रजन्ददर्शाथ शैलशृङ्गमिव स्थितम्।
वृद्धं जटायुषं रामः किमेतदिति विस्मितः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) मार्गमें जाते हुए श्रीरामचन्द्रजीने पर्वत-शिखरके समान बैठे हुए वृद्ध जटायुको देखा। उसे देखकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ कि ‘यह क्या है?’॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुरानय सौमित्रे राक्षसोऽयं पुरः स्थितः।
इत्याह लक्ष्मणं रामो हनिष्याम्यृषिभक्षकम्॥ २॥
मूलम्
धनुरानय सौमित्रे राक्षसोऽयं पुरः स्थितः।
इत्याह लक्ष्मणं रामो हनिष्याम्यृषिभक्षकम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे लक्ष्मणजीसे बोले—‘‘सौमित्रे! मेरा धनुष लाओ। देखो, सामने यह राक्षस बैठा है; मैं ऋषियोंको भक्षण करनेवाले इस दुष्टको अभी मार डालता हूँ’’॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा रामवचनं गृध्रराड् भयपीडितः।
वधार्होऽहं न ते राम पितुस्तेऽहं प्रियः सखा॥ ३॥
जटायुर्नाम भद्रं ते गृध्रोऽहं प्रियकृत्तव॥ ४॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा रामवचनं गृध्रराड् भयपीडितः।
वधार्होऽहं न ते राम पितुस्तेऽहं प्रियः सखा॥ ३॥
जटायुर्नाम भद्रं ते गृध्रोऽहं प्रियकृत्तव॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामका यह वचन सुन गृध्रराजने भयसे व्यथित होकर कहा—‘‘राम! मैं तुम्हारे द्वारा मारे जाने योग्य नहीं हूँ। मैं तुम्हारे पिताका प्रिय सखा जटायु नामक गृध्र हूँ। तुम्हारा कल्याण हो, मैं तो तुम्हारा हितकारी हूँ॥ ३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चवट्यामहं वत्स्ये तवैव प्रियकाम्यया।
मृगयायां कदाचित्तु प्रयाते लक्ष्मणेऽपि च॥ ५॥
सीता जनककन्या मे रक्षितव्या प्रयत्नतः।
श्रुत्वा तद्गृध्रवचनं रामः सस्नेहमब्रवीत्॥ ६॥
मूलम्
पञ्चवट्यामहं वत्स्ये तवैव प्रियकाम्यया।
मृगयायां कदाचित्तु प्रयाते लक्ष्मणेऽपि च॥ ५॥
सीता जनककन्या मे रक्षितव्या प्रयत्नतः।
श्रुत्वा तद्गृध्रवचनं रामः सस्नेहमब्रवीत्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी ही हित-कामनासे मैं पंचवटीमें रहूँगा। किसी समय जब लक्ष्मणजी भी मृगयाके लिये वनमें चले जायँगे तो मैं जनकनन्दिनी सीताजीकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करूँगा।’’ गृध्रराजके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने स्नेहपूर्वक कहा—॥ ५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु गृध्र महाराज तथैव कुरु मे प्रियम्।
अत्रैव मे समीपस्थो नातिदूरे वने वसन्॥ ७॥
मूलम्
साधु गृध्र महाराज तथैव कुरु मे प्रियम्।
अत्रैव मे समीपस्थो नातिदूरे वने वसन्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे गृध्रमहाराज! ठीक है, इस पासके वनमें ही रहते हुए आप समीपवर्ती होकर अवश्य हमारा प्रियसाधन करें’’॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यामन्त्रितमालिङ्ग्य ययौ पञ्चवटीं प्रभुः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया रघुनन्दनः॥ ८॥
मूलम्
इत्यामन्त्रितमालिङ्ग्य ययौ पञ्चवटीं प्रभुः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया रघुनन्दनः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी सम्मति दे भगवान् राम जटायुको आलिंगन कर भाई लक्ष्मण और सीताजीके सहित पंचवटीको गये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा ते गौतमीतीरं पञ्चवट्यां सुविस्तरम्।
मन्दिरं कारयामास लक्ष्मणेन सुबुद्धिना॥ ९॥
मूलम्
गत्वा ते गौतमीतीरं पञ्चवट्यां सुविस्तरम्।
मन्दिरं कारयामास लक्ष्मणेन सुबुद्धिना॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमीके तटपर पहुँचकर उन्होंने बुद्धिमान् लक्ष्मणजीसे पंचवटीमें एक विशाल कुटी बनवायी॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र ते न्यवसन्सर्वे गङ्गाया उत्तरे तटे।
कदम्बपनसाम्रादिफलवृक्षसमाकुले॥ १०॥
विविक्ते जनसम्बाधवर्जिते नीरुजस्थले।
विनोदयन् जनकजां लक्ष्मणेन विपश्चिता॥ ११॥
अध्युवास सुखं रामो देवलोक इवापरः।
कन्दमूलफलादीनि लक्ष्मणोऽनुदिनं तयोः॥ १२॥
आनीय प्रददौ रामसेवातत्परमानसः।
धनुर्बाणधरो नित्यं रात्रौ जागर्ति सर्वतः॥ १३॥
मूलम्
तत्र ते न्यवसन्सर्वे गङ्गाया उत्तरे तटे।
कदम्बपनसाम्रादिफलवृक्षसमाकुले॥ १०॥
विविक्ते जनसम्बाधवर्जिते नीरुजस्थले।
विनोदयन् जनकजां लक्ष्मणेन विपश्चिता॥ ११॥
अध्युवास सुखं रामो देवलोक इवापरः।
कन्दमूलफलादीनि लक्ष्मणोऽनुदिनं तयोः॥ १२॥
आनीय प्रददौ रामसेवातत्परमानसः।
धनुर्बाणधरो नित्यं रात्रौ जागर्ति सर्वतः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वे सब गौतमी गंगाके उत्तर तटपर कदम्ब, पनस और आम्र आदि फलवाले वृक्षोंसे युक्त एक रोग-रहित जन-शून्य एकान्त स्थानमें बस गये। श्रीरामचन्द्रजी बुद्धिमान् लक्ष्मणके सहित जनकात्मजा सीताका मनोरंजन करते हुए उस देवलोकके समान सुरम्य स्थानमें दूसरे इन्द्रके समान सुखपूर्वक रहने लगे। राम-सेवामें जिनका चित्त लगा हुआ है वे लक्ष्मणजी नित्यप्रति उन्हें कन्द-मूल-फल लाकर देते और रात्रिके समय धनुष-बाण लेकर चारों ओर (घूमकर रक्षा करते हुए) जागा करते॥ १०—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नानं कुर्वन्त्यनुदिनं त्रयस्ते गौतमीजले।
उभयोर्मध्यगा सीता कुरुते च गमागमौ॥ १४॥
मूलम्
स्नानं कुर्वन्त्यनुदिनं त्रयस्ते गौतमीजले।
उभयोर्मध्यगा सीता कुरुते च गमागमौ॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे तीनों ही नित्यप्रति गौतमीमें स्नान किया करते थे। उस समय सीताजी उन दोनोंके बीचमें रहकर आया-जाया करती थीं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनीय सलिलं नित्यं लक्ष्मणः प्रीतमानसः।
सेवतेऽहरहः प्रीत्या एवमासन् सुखं त्रयः॥ १५॥
मूलम्
आनीय सलिलं नित्यं लक्ष्मणः प्रीतमानसः।
सेवतेऽहरहः प्रीत्या एवमासन् सुखं त्रयः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजी प्रसन्नचित्तसे नित्यप्रति जल लाकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा किया करते थे। इस प्रकार वे तीनों वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा लक्ष्मणो राममेकान्ते समुपस्थितम्।
विनयावनतो भूत्वा पप्रच्छ परमेश्वरम्॥ १६॥
मूलम्
एकदा लक्ष्मणो राममेकान्ते समुपस्थितम्।
विनयावनतो भूत्वा पप्रच्छ परमेश्वरम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन लक्ष्मणजीने एकान्तमें बैठे हुए परमात्मा श्रीरामके पास जाकर नम्रतापूर्वक पूछा—॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् श्रोतुमिच्छामि मोक्षस्यैकान्तिकीं गतिम्।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष सङ्क्षेपाद्वक्तुमर्हसि॥ १७॥
मूलम्
भगवन् श्रोतुमिच्छामि मोक्षस्यैकान्तिकीं गतिम्।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष सङ्क्षेपाद्वक्तुमर्हसि॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भगवन्! मैं आपके मुखारविन्दसे मोक्षका अव्यभिचारी निश्चित साधन सुनना चाहता हूँ; अतः हे कमलनयन! आप उसका संक्षेपसे वर्णन कीजिये॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं विज्ञानसहितं भक्तिवैराग्यबृंहितम्।
आचक्ष्व मे रघुश्रेष्ठ वक्ता नान्योऽस्ति भूतले॥ १८॥
मूलम्
ज्ञानं विज्ञानसहितं भक्तिवैराग्यबृंहितम्।
आचक्ष्व मे रघुश्रेष्ठ वक्ता नान्योऽस्ति भूतले॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! आप मुझे भक्ति और वैराग्यसे सना हुआ विज्ञानयुक्त ज्ञान सुनाइये; संसारमें आपके अतिरिक्त इस विषयका उपदेश करनेवाला और कोई नहीं है’’॥ १८॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु वक्ष्यामि ते वत्स गुह्याद्गुह्यतरं परम्।
यद्विज्ञाय नरो जह्यात्सद्यो वैकल्पिकं भ्रमम्॥ १९॥
मूलम्
शृणु वक्ष्यामि ते वत्स गुह्याद्गुह्यतरं परम्।
यद्विज्ञाय नरो जह्यात्सद्यो वैकल्पिकं भ्रमम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामजी बोले—वत्स! सुन, मैं तुझे गुह्यसे भी गुह्य परम रहस्य सुनाता हूँ जिसके जान लेनेपर मनुष्य तुरंत ही विकल्पजनित (संसाररूप) भ्रमसे मुक्त हो जाता है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदौ मायास्वरूपं ते वक्ष्यामि तदनन्तरम्।
ज्ञानस्य साधनं पश्चाज्ज्ञानं विज्ञानसंयुतम्॥ २०॥
मूलम्
आदौ मायास्वरूपं ते वक्ष्यामि तदनन्तरम्।
ज्ञानस्य साधनं पश्चाज्ज्ञानं विज्ञानसंयुतम्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रथम मैं तुमसे मायाका स्वरूप कहूँगा, तत्पश्चात् ज्ञानका साधन बताऊँगा और फिर विज्ञानके सहित ज्ञानका वर्णन करूँगा॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञेयं च परमात्मानं यज्ज्ञात्वा मुच्यते भयात्।
अनात्मनि शरीरादावात्मबुद्धिस्तु या भवेत्॥ २१॥
सैव माया तयैवासौ संसारः परिकल्प्यते।
रूपे द्वे निश्चिते पूर्वं मायायाः कुलनन्दन॥ २२॥
मूलम्
ज्ञेयं च परमात्मानं यज्ज्ञात्वा मुच्यते भयात्।
अनात्मनि शरीरादावात्मबुद्धिस्तु या भवेत्॥ २१॥
सैव माया तयैवासौ संसारः परिकल्प्यते।
रूपे द्वे निश्चिते पूर्वं मायायाः कुलनन्दन॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त ज्ञेय परमात्माका भी स्वरूप बतलाऊँगा जिसके जान लेनेपर मनुष्य संसार-भयसे मुक्त हो जाता है। शरीरादि अनात्मपदार्थोंमें जो आत्मबुद्धि होती है उसीको माया कहते हैं। उसीके द्वारा इस संसारकी कल्पना हुई है। हे कुलनन्दन! मायाके पहले-पहल दो रूप माने गये हैं॥ २१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षेपावरणे तत्र प्रथमं कल्पयेज्जगत्।
लिङ्गाद्याब्रह्मपर्यन्तं स्थूलसूक्ष्मविभेदतः॥ २३॥
मूलम्
विक्षेपावरणे तत्र प्रथमं कल्पयेज्जगत्।
लिङ्गाद्याब्रह्मपर्यन्तं स्थूलसूक्ष्मविभेदतः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक विक्षेप, दूसरा आवरण। इनमेंसे पहली विक्षेप-शक्ति ही महत्तत्त्वसे लेकर ब्रह्मातक समस्त संसारकी स्थूल और सूक्ष्म भेदसे कल्पना करती है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरं त्वखिलं ज्ञानरूपमावृत्य तिष्ठति।
मायया कल्पितं विश्वं परमात्मनि केवले॥ २४॥
रज्जौ भुजङ्गवद् भ्रान्त्या विचारे नास्ति किञ्चन।
श्रूयते दृश्यते यद्यत्स्मर्यते वा नरैः सदा॥ २५॥
असदेव हि तत्सर्वं यथा स्वप्नमनोरथौ।
देह एव हि संसारवृक्षमूलं दृढं स्मृतम्॥ २६॥
मूलम्
अपरं त्वखिलं ज्ञानरूपमावृत्य तिष्ठति।
मायया कल्पितं विश्वं परमात्मनि केवले॥ २४॥
रज्जौ भुजङ्गवद् भ्रान्त्या विचारे नास्ति किञ्चन।
श्रूयते दृश्यते यद्यत्स्मर्यते वा नरैः सदा॥ २५॥
असदेव हि तत्सर्वं यथा स्वप्नमनोरथौ।
देह एव हि संसारवृक्षमूलं दृढं स्मृतम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और दूसरी आवरण-शक्ति सम्पूर्ण ज्ञानको आवरण करके स्थित रहती है। यह सम्पूर्ण विश्व रज्जुमें सर्प-भ्रमके समान शुद्ध परमात्मामें मायासे कल्पित है; विचार करनेपर यह कुछ भी नहीं ठहरता। मनुष्य जो कुछ सर्वदा सुनते, देखते और स्मरण करते हैं; वह सब स्वप्न और मनोरथोंके समान असत्य हैं। शरीर ही इस संसाररूप वृक्षकी दृढ़ मूल है॥ २४—२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्मूलः पुत्रदारादिबन्धः किं तेऽन्यथात्मनः॥ २७॥
मूलम्
तन्मूलः पुत्रदारादिबन्धः किं तेऽन्यथात्मनः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीके कारण पुत्र-कलत्रादिका बन्धन है, नहीं तो आत्माका इनसे क्या सम्बन्ध है?॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहस्तु स्थूलभूतानां पञ्च तन्मात्रपञ्चकम्।
अहंकारश्च बुद्धिश्च इन्द्रियाणि तथा दश॥ २८॥
चिदाभासो मनश्चैव मूलप्रकृतिरेव च।
एतत्क्षेत्रमिति ज्ञेयं देह इत्यभिधीयते॥ २९॥
मूलम्
देहस्तु स्थूलभूतानां पञ्च तन्मात्रपञ्चकम्।
अहंकारश्च बुद्धिश्च इन्द्रियाणि तथा दश॥ २८॥
चिदाभासो मनश्चैव मूलप्रकृतिरेव च।
एतत्क्षेत्रमिति ज्ञेयं देह इत्यभिधीयते॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच स्थूल भूत, पंच तन्मात्राएँ, अहंकार, बुद्धि, दस इन्द्रियाँ, चिदाभास, मन और मूलप्रकृति इन सबके समूहको क्षेत्र समझना चाहिये; इसीको शरीर भी कहते हैं॥ २८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैर्विलक्षणो जीवः परमात्मा निरामयः।
तस्य जीवस्य विज्ञाने साधनान्यपि मे शृणु॥ ३०॥
मूलम्
एतैर्विलक्षणो जीवः परमात्मा निरामयः।
तस्य जीवस्य विज्ञाने साधनान्यपि मे शृणु॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्दोष परमात्मरूप जीव इन सबसे पृथक् है। अब मैं उस जीवको जाननेके कुछ साधन भी बताता हूँ (सावधान होकर) सुनो॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवश्च परमात्मा च पर्यायो नात्र भेदधीः।
मानाभावस्तथा दम्भहिंसादिपरिवर्जनम्॥ ३१॥
मूलम्
जीवश्च परमात्मा च पर्यायो नात्र भेदधीः।
मानाभावस्तथा दम्भहिंसादिपरिवर्जनम्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव और परमात्मा यह पर्याय शब्द हैं—दोनोंका अभिप्राय एक ही है; अतः इसमें भेद-बुद्धि नहीं (करनी चाहिये)। अभिमानसे दूर रहना, दम्भ और हिंसा आदिका त्याग करना॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पराक्षेपादिसहनं सर्वत्रावक्रता तथा।
मनोवाक्कायसद्भक्त्या सद्गुरोः परिसेवनम्॥ ३२॥
मूलम्
पराक्षेपादिसहनं सर्वत्रावक्रता तथा।
मनोवाक्कायसद्भक्त्या सद्गुरोः परिसेवनम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके किये हुए आक्षेपादिको सहन करना, सर्वत्र सरल भाव रखना, मन, वचन और शरीरके द्वारा सच्ची भक्तिसे सद्गुरुकी सेवा करना॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्याभ्यन्तरसंशुद्धिः स्थिरता सत्क्रियादिषु।
मनोवाक्कायदण्डश्च विषयेषु निरीहता॥ ३३॥
मूलम्
बाह्याभ्यन्तरसंशुद्धिः स्थिरता सत्क्रियादिषु।
मनोवाक्कायदण्डश्च विषयेषु निरीहता॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाह्य और आन्तरिक शुद्धि रखना, सत्कर्मोंमें तत्पर रहना, मन, वाणी और शरीरका संयम करना, विषयोंमें प्रवृत्त न होना॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरहङ्कारता जन्मजराद्यालोचनं तथा।
असक्तिः स्नेहशून्यत्वं पुत्रदारधनादिषु॥ ३४॥
मूलम्
निरहङ्कारता जन्मजराद्यालोचनं तथा।
असक्तिः स्नेहशून्यत्वं पुत्रदारधनादिषु॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहंकारशून्य रहना, जन्म, मृत्यु, रोग और बुढ़ापे आदिके कष्टोंका विचार करना, पुत्र, स्त्री और धन आदिमें आसक्ति तथा स्नेह न करना॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टानिष्टागमे नित्यं चित्तस्य समता तथा।
मयि सर्वात्मके रामे ह्यनन्यविषया मतिः॥ ३५॥
मूलम्
इष्टानिष्टागमे नित्यं चित्तस्य समता तथा।
मयि सर्वात्मके रामे ह्यनन्यविषया मतिः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें चित्तको सदा समान रखना, मुझ सर्वात्मा राममें अनन्य बुद्धि रखना॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनसम्बाधरहितशुद्धदेशनिषेवणम्।
प्राकृतैर्जनसङ्घैश्च ह्यरतिः सर्वदा भवेत्॥ ३६॥
मूलम्
जनसम्बाधरहितशुद्धदेशनिषेवणम्।
प्राकृतैर्जनसङ्घैश्च ह्यरतिः सर्वदा भवेत्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनसमूहसे शून्य पवित्र देशमें रहना, संसारी लोगोंसे सर्वदा उदासीन रहना॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मज्ञाने सदोद्योगो वेदान्तार्थावलोकनम्।
उक्तैरेतैर्भवेज्ज्ञानं विपरीतैर्विपर्ययः॥ ३७॥
मूलम्
आत्मज्ञाने सदोद्योगो वेदान्तार्थावलोकनम्।
उक्तैरेतैर्भवेज्ज्ञानं विपरीतैर्विपर्ययः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मज्ञानका सदा उद्योग करना तथा वेदान्तके अर्थका विचार करना—इन उक्त साधनोंसे तो ज्ञान प्राप्त होता है और इनके विपरीत आचरण करनेसे विपरीत फल (अज्ञान) मिलता है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिप्राणमनोदेहाहङ्कृतिभ्यो विलक्षणः।
चिदात्माहं नित्यशुद्धो बुद्ध एवेति निश्चयम्॥ ३८॥
येन ज्ञानेन संवित्ते तज्ज्ञानं निश्चितं च मे।
विज्ञानं च तदैवैतत्साक्षादनुभवेद्यदा॥ ३९॥
मूलम्
बुद्धिप्राणमनोदेहाहङ्कृतिभ्यो विलक्षणः।
चिदात्माहं नित्यशुद्धो बुद्ध एवेति निश्चयम्॥ ३८॥
येन ज्ञानेन संवित्ते तज्ज्ञानं निश्चितं च मे।
विज्ञानं च तदैवैतत्साक्षादनुभवेद्यदा॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे ऐसा बोध होता है कि मैं बुद्धि, प्राण, मन, देह और अहंकार आदिसे विलक्षण नित्य शुद्ध बुद्ध चेतन आत्मा हूँ वही ज्ञान है यह मेरा निश्चय है। जिस समय इसका साक्षात् अनुभव होता है उस समय इसीको विज्ञान कहते हैं॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा सर्वत्र पूर्णः स्याच्चिदानन्दात्मकोऽव्ययः।
बुद्ध्याद्युपाधिरहितः परिणामादिवर्जितः॥ ४०॥
मूलम्
आत्मा सर्वत्र पूर्णः स्याच्चिदानन्दात्मकोऽव्ययः।
बुद्ध्याद्युपाधिरहितः परिणामादिवर्जितः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा सर्वत्र पूर्ण, चिदानन्दस्वरूप, अविनाशी, बुद्धि आदि उपाधियोंसे शून्य तथा परिणामादिसे रहित है॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्रकाशेन देहादीन् भासयन्ननपावृतः।
एक एवाद्वितीयश्च सत्यज्ञानादिलक्षणः॥ ४१॥
असङ्गः स्वप्रभो द्रष्टा विज्ञानेनावगम्यते।
आचार्यशास्त्रोपदेशादैक्यज्ञानं यदा भवेत्॥ ४२॥
आत्मनोर्जीवपरयोर्मूलाविद्या तदैव हि।
लीयते कार्यकरणैः सहैव परमात्मनि॥ ४३॥
मूलम्
स्वप्रकाशेन देहादीन् भासयन्ननपावृतः।
एक एवाद्वितीयश्च सत्यज्ञानादिलक्षणः॥ ४१॥
असङ्गः स्वप्रभो द्रष्टा विज्ञानेनावगम्यते।
आचार्यशास्त्रोपदेशादैक्यज्ञानं यदा भवेत्॥ ४२॥
आत्मनोर्जीवपरयोर्मूलाविद्या तदैव हि।
लीयते कार्यकरणैः सहैव परमात्मनि॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अपने प्रकाशसे देह आदिको प्रकाशित करता हुआ भी स्वयं आवरणशून्य, एक अद्वितीय और सत्य ज्ञान आदि स्वरूप तथा संगरहित, स्वप्रकाश और सबका साक्षी है—ऐसा विज्ञानसे जाना जाता है। जिस समय आचार्य और शास्त्रके उपदेशसे जीवात्मा और परमात्माकी एकताका ज्ञान होता है उसी समय मूला अविद्या अपने कार्य (शरीरादि) तथा इन्द्रियोंके सहित (अर्थात् अपने स्थूल और सूक्ष्म कार्यके सहित) परमात्मामें लीन हो जाती है॥ ४१—४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावस्था मुक्तिरित्युक्ता ह्युपचारोऽयमात्मनि।
इदं मोक्षस्वरूपं ते कथितं रघुनन्दन॥ ४४॥
ज्ञानविज्ञानवैराग्यसहितं मे परात्मनः।
किन्त्वेतद्दुर्लभं मन्ये मद्भक्तिविमुखात्मनाम्॥ ४५॥
मूलम्
सावस्था मुक्तिरित्युक्ता ह्युपचारोऽयमात्मनि।
इदं मोक्षस्वरूपं ते कथितं रघुनन्दन॥ ४४॥
ज्ञानविज्ञानवैराग्यसहितं मे परात्मनः।
किन्त्वेतद्दुर्लभं मन्ये मद्भक्तिविमुखात्मनाम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अविद्याकी इस लयावस्थाको ही मोक्ष कहते हैं, आत्मामें यह (मोक्ष) केवल उपचारमात्र है (वास्तवमें आत्माकी मुक्तावस्था आगन्तुक नहीं है वह तो सदा ही मुक्त है)। हे रघुनन्दन लक्ष्मण! तुम्हें मैंने यह ज्ञान, विज्ञान और वैराग्यके सहित परमात्मरूप अपना मोक्षस्वरूप सुनाया। किन्तु जो लोग मेरी भक्तिसे विमुख हैं उनके लिये मैं इसे अत्यन्त दुर्लभ मानता हूँ॥ ४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुष्मतामपि यथा रात्रौ सम्यङ् न दृश्यते।
पदं दीपसमेतानां दृश्यते सम्यगेव हि॥ ४६॥
एवं मद्भक्तियुक्तानामात्मा सम्यक् प्रकाशते।
मद्भक्तेः कारणं किञ्चिद्वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः॥ ४७॥
मूलम्
चक्षुष्मतामपि यथा रात्रौ सम्यङ् न दृश्यते।
पदं दीपसमेतानां दृश्यते सम्यगेव हि॥ ४६॥
एवं मद्भक्तियुक्तानामात्मा सम्यक् प्रकाशते।
मद्भक्तेः कारणं किञ्चिद्वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार नेत्र होते हुए भी लोग रात्रिके समय (अन्धकारमें) चौर आदिका चिह्न (निशान) भली प्रकार नहीं देखते, दीपक होनेपर ही उस समय वह दिखायी देता है, उसी प्रकार मेरी भक्तिसे युक्त पुरुषोंको ही आत्माका सम्यक् साक्षात्कार होता है। अब मैं अपनी भक्तिके कुछ वास्तविक उपाय बताता हूँ, (सावधान होकर) सुनो॥ ४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्तसङ्गो मत्सेवा मद्भक्तानां निरन्तरम्।
एकादश्युपवासादि मम पर्वानुमोदनम्॥ ४८॥
मूलम्
मद्भक्तसङ्गो मत्सेवा मद्भक्तानां निरन्तरम्।
एकादश्युपवासादि मम पर्वानुमोदनम्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मेरे भक्तका संग करना, निरन्तर मेरी और मेरे भक्तोंकी सेवा करना, एकादशी आदिका व्रत करना, मेरे पर्वदिनोंको मानना,॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्कथाश्रवणे पाठे व्याख्याने सर्वदा रतिः।
मत्पूजापरिनिष्ठा च मम नामानुकीर्तनम्॥ ४९॥
मूलम्
मत्कथाश्रवणे पाठे व्याख्याने सर्वदा रतिः।
मत्पूजापरिनिष्ठा च मम नामानुकीर्तनम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी कथाके सुनने, पढ़ने और उसकी व्याख्या करनेमें सदा प्रेम करना, मेरी पूजामें तत्पर रहना, मेरा नाम-कीर्तन करना’’॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सततयुक्तानां भक्तिरव्यभिचारिणी।
मयि सञ्जायते नित्यं ततः किमवशिष्यते॥ ५०॥
मूलम्
एवं सततयुक्तानां भक्तिरव्यभिचारिणी।
मयि सञ्जायते नित्यं ततः किमवशिष्यते॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो निरन्तर मुझमें लगे रहते हैं उनकी मुझमें अविचल भक्ति अवश्य हो जाती है। फिर बाकी ही क्या रहता है?॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो मद्भक्तियुक्तस्य ज्ञानं विज्ञानमेव च।
वैराग्यं च भवेच्छीघ्रं ततो मुक्तिमवाप्नुयात्॥ ५१॥
मूलम्
अतो मद्भक्तियुक्तस्य ज्ञानं विज्ञानमेव च।
वैराग्यं च भवेच्छीघ्रं ततो मुक्तिमवाप्नुयात्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः (यह निश्चित बात है कि) मेरी भक्तिसे युक्त पुरुषको ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य आदिकी शीघ्र प्राप्ति होती है और फिर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथितं सर्वमेतत्ते तव प्रश्नानुसारतः।
अस्मिन्मनः समाधाय यस्तिष्ठेत्स तु मुक्तिभाक्॥ ५२॥
मूलम्
कथितं सर्वमेतत्ते तव प्रश्नानुसारतः।
अस्मिन्मनः समाधाय यस्तिष्ठेत्स तु मुक्तिभाक्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने तुम्हारे प्रश्नानुसार यह सम्पूर्ण (रहस्य) तुम्हें सुना दिया। जो व्यक्ति अपने चित्तको इसमें समाहित करके रहता है वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वक्तव्यमिदं यत्नान्मद्भक्तिविमुखाय हि।
मद्भक्ताय प्रदातव्यमाहूयापि प्रयत्नतः॥ ५३॥
मूलम्
न वक्तव्यमिदं यत्नान्मद्भक्तिविमुखाय हि।
मद्भक्ताय प्रदातव्यमाहूयापि प्रयत्नतः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे लक्ष्मण! मेरी भक्तिसे विमुख पुरुषोंसे इसे सावधानतापूर्वक न कहना चाहिये और मेरे भक्तोंको प्रयत्नपूर्वक बुलाकर भी यह रहस्य सुनाना चाहिये॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं तु पठेन्नित्यं श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
अज्ञानपटलध्वान्तं विधूय परिमुच्यते॥ ५४॥
मूलम्
य इदं तु पठेन्नित्यं श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
अज्ञानपटलध्वान्तं विधूय परिमुच्यते॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष इसे श्रद्धा और भक्तिपूर्वक सदैव पढ़ेगा वह अज्ञानसमूहसे बने हुए अन्धकारको हटाकर मुक्त हो जायगा॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तानां मम योगिनां सुविमल-
स्वान्तातिशान्तात्मनां
मत्सेवाभिरतात्मनां च विमल-
ज्ञानात्मनां सर्वदा।
सङ्गं यः कुरुते सदोद्यतमति-
स्तत्सेवनानन्यधी-
र्मोक्षस्तस्य करे स्थितोऽहमनिशं
दृश्यो भवे नान्यथा॥ ५५॥
मूलम्
भक्तानां मम योगिनां सुविमल-
स्वान्तातिशान्तात्मनां
मत्सेवाभिरतात्मनां च विमल-
ज्ञानात्मनां सर्वदा।
सङ्गं यः कुरुते सदोद्यतमति-
स्तत्सेवनानन्यधी-
र्मोक्षस्तस्य करे स्थितोऽहमनिशं
दृश्यो भवे नान्यथा॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मेरी सेवामें अनुरक्त-चित्त, निर्मल-हृदय, शान्तात्मा, विमलज्ञानसम्पन्न और मेरे परम भक्त योगिजनोंका संग, अनन्य बुद्धिसे सर्वदा उनकी सेवामें तत्पर रहकर करता है; मुक्ति उसके करतलगत रहती है और मैं सर्वदा उसकी दृष्टिके सम्मुख विराजमान रहता हूँ। इसके अतिरिक्त और किसी उपायसे मेरा दर्शन नहीं हो सकता॥५५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥