[तृतीय सर्ग]
भागसूचना
मुनिवर अगस्त्यजीसे भेंट
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ रामः सुतीक्ष्णेन जानक्या लक्ष्मणेन च।
अगस्त्यस्यानुजस्थानं मध्याह्ने समपद्यत॥ १॥
मूलम्
अथ रामः सुतीक्ष्णेन जानक्या लक्ष्मणेन च।
अगस्त्यस्यानुजस्थानं मध्याह्ने समपद्यत॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—(हे पार्वति!) (उस दिन) मध्याह्नके समय श्रीरामचन्द्रजी सुतीक्ष्ण, सीता और लक्ष्मणके साथ अगस्त्य मुनिके छोटे भाई (अग्निजिह्व मुनि)-के आश्रममें पहुँचे॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन सम्पूजितः सम्यग्भुक्त्वा मूलफलादिकम्।
परेद्युः प्रातरुत्थाय जग्मुस्तेऽगस्त्यमण्डलम्॥ २॥
मूलम्
तेन सम्पूजितः सम्यग्भुक्त्वा मूलफलादिकम्।
परेद्युः प्रातरुत्थाय जग्मुस्तेऽगस्त्यमण्डलम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने उनकी भली प्रकार पूजा की (फिर उनके दिये हुए) कन्द-मूल-फल आदि खाकर, दूसरे दिन प्रातःकाल उठते ही अगस्त्य मुनिके आश्रमको चले॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं नानामृगगणैर्युतम्।
पक्षिसङ्घैश्च विविधैर्नादितं नन्दनोपमम्॥ ३॥
मूलम्
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं नानामृगगणैर्युतम्।
पक्षिसङ्घैश्च विविधैर्नादितं नन्दनोपमम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह आश्रम समस्त ऋतुओंके फल और पुष्पोंसे परिपूर्ण, विविध वन्य पशुओंसे सेवित तथा नाना प्रकारके पक्षियोंसे गुंजायमान नन्दन वनके समान (सुशोभित) था॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मर्षिभिर्देवर्षिभिः सेवितं मुनिमन्दिरैः।
सर्वतोऽलङ्कृतं साक्षाद् ब्रह्मलोकमिवापरम्॥ ४॥
मूलम्
ब्रह्मर्षिभिर्देवर्षिभिः सेवितं मुनिमन्दिरैः।
सर्वतोऽलङ्कृतं साक्षाद् ब्रह्मलोकमिवापरम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ब्रह्मर्षियों और देवर्षियोंसे सेवित था तथा उसके चारों ओर उन ऋषियोंके आश्रम सुशोभित थे। इस प्रकार वह साक्षात् दूसरे ब्रह्मलोकके समान जान पड़ता था॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहिरेवाश्रमस्याथ स्थित्वा रामोऽब्रवीन्मुनिम्।
सुतीक्ष्ण गच्छ त्वं शीघ्रमागतं मां निवेदय॥ ५॥
अगस्त्यमुनिवर्याय सीतया लक्ष्मणेन च।
महाप्रसाद इत्युक्त्वा सुतीक्ष्णः प्रययौ गुरोः॥ ६॥
आश्रमं त्वरया तत्र ऋषिसङ्घसमावृतम्।
उपविष्टं रामभक्तैर्विशेषेण समायुतम्॥ ७॥
व्याख्यातराममन्त्रार्थं शिष्येभ्यश्चातिभक्तितः।
दृष्ट्वागस्त्यं मुनिश्रेष्ठं सुतीक्ष्णः प्रययौ मुनेः॥ ८॥
मूलम्
बहिरेवाश्रमस्याथ स्थित्वा रामोऽब्रवीन्मुनिम्।
सुतीक्ष्ण गच्छ त्वं शीघ्रमागतं मां निवेदय॥ ५॥
अगस्त्यमुनिवर्याय सीतया लक्ष्मणेन च।
महाप्रसाद इत्युक्त्वा सुतीक्ष्णः प्रययौ गुरोः॥ ६॥
आश्रमं त्वरया तत्र ऋषिसङ्घसमावृतम्।
उपविष्टं रामभक्तैर्विशेषेण समायुतम्॥ ७॥
व्याख्यातराममन्त्रार्थं शिष्येभ्यश्चातिभक्तितः।
दृष्ट्वागस्त्यं मुनिश्रेष्ठं सुतीक्ष्णः प्रययौ मुनेः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आश्रमके बाहर रहकर श्रीरामचन्द्रजीने सुतीक्ष्ण मुनिसे कहा—‘‘हे सुतीक्ष्ण! तुम शीघ्र ही मुनिवर अगस्त्यजीके पास जाकर उन्हें सीता और लक्ष्मणके सहित मेरे आनेकी सूचना दो।’’ तब सुतीक्ष्ण ‘बड़ी प्रसन्नताकी बात है’ ऐसा कह शीघ्रतासे गुरुजीके आश्रममें गये। वहाँ जाकर सुतीक्ष्णने देखा कि मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य मुनिमण्डलीसे—विशेषतया रामभक्तोंसे घिरे हुए बैठे हैं और अत्यन्त भक्तिपूर्वक अपने शिष्योंको राममन्त्रकी व्याख्या सुना रहे हैं। यह देखकर सुतीक्ष्ण उनके पास गये॥ ५—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डवत्प्रणिपत्याह विनयावनतः सुधीः।
रामो दाशरथिर्ब्रह्मन् सीतया लक्ष्मणेन च।
आगतो दर्शनार्थं ते बहिस्तिष्ठति साञ्जलिः॥ ९॥
मूलम्
दण्डवत्प्रणिपत्याह विनयावनतः सुधीः।
रामो दाशरथिर्ब्रह्मन् सीतया लक्ष्मणेन च।
आगतो दर्शनार्थं ते बहिस्तिष्ठति साञ्जलिः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें विनयपूर्वक दण्डवत् प्रणामकर सुबुद्धि सुतीक्ष्णने कहा—‘‘ब्रह्मन्! दशरथकुमार श्रीराम सीता और लक्ष्मणके साथ आपके दर्शनोंके लिये आये हैं और अंजलि बाँधे आश्रमके बाहर खड़े हैं’’॥ ९॥
मूलम् (वचनम्)
अगस्त्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रमानय भद्रं ते रामं मम हृदि स्थितम्।
तमेव ध्यायमानोऽहं काङ्क्षमाणोऽत्र संस्थितः॥ १०॥
मूलम्
शीघ्रमानय भद्रं ते रामं मम हृदि स्थितम्।
तमेव ध्यायमानोऽहं काङ्क्षमाणोऽत्र संस्थितः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अगस्त्यजी बोले—वत्स! तुम्हारा कल्याण हो। तुम शीघ्र ही मेरे हृदयस्थित (भगवान्) रामको ले आओ। मैं उनके दर्शनोंकी इच्छासे उन्हींका ध्यान करता हुआ यहाँ रहता हूँ॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स्वयमुत्थाय मुनिभिः सहितो द्रुतम्।
अभ्यगात्परया भक्त्या गत्वा राममथाब्रवीत्॥ ११॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स्वयमुत्थाय मुनिभिः सहितो द्रुतम्।
अभ्यगात्परया भक्त्या गत्वा राममथाब्रवीत्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह वे शीघ्र ही मुनियोंके साथ उठकर स्वयं श्रीरामचन्द्रजीके पास आये और उनसे अत्यन्त भक्तिपूर्वक बोले—॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगच्छ राम भद्रं ते दिष्ट्या तेऽद्य समागमः।
प्रियातिथिर्मम प्राप्तोऽस्यद्य मे सफलं दिनम्॥ १२॥
मूलम्
आगच्छ राम भद्रं ते दिष्ट्या तेऽद्य समागमः।
प्रियातिथिर्मम प्राप्तोऽस्यद्य मे सफलं दिनम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! आइये, आपका कल्याण हो। आज बड़े भाग्यसे आपका समागम हुआ है। आजका दिन सफल है, आज मुझे मेरे प्रिय अतिथि प्राप्त हुए हैं’’॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोऽपि मुनिमायान्तं दृष्ट्वा हर्षसमाकुलः।
सीतया लक्ष्मणेनापि दण्डवत्पतितो भुवि॥ १३॥
मूलम्
रामोऽपि मुनिमायान्तं दृष्ट्वा हर्षसमाकुलः।
सीतया लक्ष्मणेनापि दण्डवत्पतितो भुवि॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनीश्वरको आते देख श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त आनन्दित होकर लक्ष्मण और सीताके सहित पृथिवीपर दण्डके समान लेट गये॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुतमुत्थाप्य मुनिराड्राममालिङ्ग्य भक्तितः।
तद्गात्रस्पर्शजाह्लादस्रवन्नेत्रजलाकुलः॥ १४॥
मूलम्
द्रुतमुत्थाप्य मुनिराड्राममालिङ्ग्य भक्तितः।
तद्गात्रस्पर्शजाह्लादस्रवन्नेत्रजलाकुलः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनिराजने तुरंत ही रामको उठाकर भक्तिपूर्वक हृदयसे लगा लिया और उनके शरीर-स्पर्शसे प्राप्त हुए आनन्दसे उनके नेत्रोंमें जल भर आया॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वा करमेकेन करेण रघुनन्दनम्।
जगाम स्वाश्रमं हृष्टो मनसा मुनिपुङ्गवः॥ १५॥
मूलम्
गृहीत्वा करमेकेन करेण रघुनन्दनम्।
जगाम स्वाश्रमं हृष्टो मनसा मुनिपुङ्गवः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी एक हाथसे श्रीरघुनाथजीका हाथ पकड़कर उन्हें प्रसन्न मनसे अपने आश्रममें ले आये॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखोपविष्टं सम्पूज्य पूजया बहुविस्तरम्।
भोजयित्वा यथान्यायं भोज्यैर्वन्यैरनेकधा॥ १६॥
मूलम्
सुखोपविष्टं सम्पूज्य पूजया बहुविस्तरम्।
भोजयित्वा यथान्यायं भोज्यैर्वन्यैरनेकधा॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन्हें सुखपूर्वक आसनपर बैठाकर उनकी विधि-विधानसे बड़ी पूजा की तथा समयानुकूल नाना प्रकारके वन्य फल भोजन कराये॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखोपविष्टमेकान्ते रामं शशिनिभाननम्।
कृताञ्जलिरुवाचेदमगस्त्यो भगवानृषिः॥ १७॥
मूलम्
सुखोपविष्टमेकान्ते रामं शशिनिभाननम्।
कृताञ्जलिरुवाचेदमगस्त्यो भगवानृषिः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार एकान्तमें सुखपूर्वक बैठे हुए चन्द्रवदन श्रीरामचन्द्रजीसे भगवान् अगस्त्य मुनिने हाथ जोड़कर कहा—॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदागमनमेवाहं प्रतीक्षन्समवस्थितः।
यदा क्षीरसमुद्रान्ते ब्रह्मणा प्रार्थितः पुरा॥ १८॥
भूमेर्भारापनुत्त्यर्थं रावणस्य वधाय च।
तदादि दर्शनाकाङ्क्षी तव राम तपश्चरन्।
वसामि मुनिभिः सार्धं त्वामेव परिचिन्तयन्॥ १९॥
मूलम्
त्वदागमनमेवाहं प्रतीक्षन्समवस्थितः।
यदा क्षीरसमुद्रान्ते ब्रह्मणा प्रार्थितः पुरा॥ १८॥
भूमेर्भारापनुत्त्यर्थं रावणस्य वधाय च।
तदादि दर्शनाकाङ्क्षी तव राम तपश्चरन्।
वसामि मुनिभिः सार्धं त्वामेव परिचिन्तयन्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! पूर्वकालमें जिस समय क्षीरसमुद्रके समीप ब्रह्माजीने आपसे भूमिका भार उतारनेके लिये रावणका वध करनेकी प्रार्थना की थी, तभीसे आपके दर्शनोंकी इच्छासे मैं तपस्या करता हुआ और आपहीका चिन्तन करता हुआ आपके आनेकी प्रतीक्षामें यहाँ मुनियोंके साथ रहता हूँ॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृष्टेः प्रागेक एवासीर्निर्विकल्पोऽनुपाधिकः।
त्वदाश्रया त्वद्विषया माया ते शक्तिरुच्यते॥ २०॥
मूलम्
सृष्टेः प्रागेक एवासीर्निर्विकल्पोऽनुपाधिकः।
त्वदाश्रया त्वद्विषया माया ते शक्तिरुच्यते॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टिके आरम्भमें विकल्प और उपाधिसे रहित आप अकेले ही थे (उस समय और कुछ भी नहीं था)। आपहीमें आश्रित तथा आपहीको विषय करनेवाली माया आपकी ही शक्ति कही जाती है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामेव निर्गुणं शक्तिरावृणोति यदा तदा।
अव्याकृतमिति प्राहुर्वेदान्तपरिनिष्ठिताः॥ २१॥
मूलम्
त्वामेव निर्गुणं शक्तिरावृणोति यदा तदा।
अव्याकृतमिति प्राहुर्वेदान्तपरिनिष्ठिताः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय यह माया-शक्ति आप निर्गुणको ढँक लेती है उस समय वेदान्तनिष्ठ पुरुष इसे ‘अव्याकृत’ कहते हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलप्रकृतिरित्येके प्राहुर्मायेति केचन।
अविद्या संसृतिर्बन्ध इत्यादि बहुधोच्यते॥ २२॥
मूलम्
मूलप्रकृतिरित्येके प्राहुर्मायेति केचन।
अविद्या संसृतिर्बन्ध इत्यादि बहुधोच्यते॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई इसे ‘मूलप्रकृति’ कहते हैं और कोई माया; तथा यही अविद्या, संसृति और बन्धन आदि अनेक नामोंसे पुकारी जाती है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया संक्षोभ्यमाणा सा महत्तत्त्वं प्रसूयते।
महत्तत्त्वादहङ्कारस्त्वया सञ्चोदितादभूत्॥ २३॥
मूलम्
त्वया संक्षोभ्यमाणा सा महत्तत्त्वं प्रसूयते।
महत्तत्त्वादहङ्कारस्त्वया सञ्चोदितादभूत्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके द्वारा क्षुभित होनेपर इस शक्तिसे महत्तत्त्व उत्पन्न होता है और महत्तत्त्वसे आपहीकी प्रेरणासे अहंकार प्रकट हुआ है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहङ्कारो महत्तत्त्वसंवृतस्त्रिविधोऽभवत्।
सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्चेति भण्यते॥ २४॥
मूलम्
अहङ्कारो महत्तत्त्वसंवृतस्त्रिविधोऽभवत्।
सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्चेति भण्यते॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
महत्तत्त्वसे ओत-प्रोत वह अहंकार तीन प्रकारका हुआ; जो सात्त्विक, राजस और तामस कहलाता है॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामसात्सूक्ष्मतन्मात्राण्यासन् भूतान्यतः परम्।
स्थूलानि क्रमशो राम क्रमोत्तरगुणानि ह॥ २५॥
मूलम्
तामसात्सूक्ष्मतन्मात्राण्यासन् भूतान्यतः परम्।
स्थूलानि क्रमशो राम क्रमोत्तरगुणानि ह॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! तामस अहंकारसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—ये पाँच सूक्ष्म तन्मात्राएँ हुईं और इन सूक्ष्म तन्मात्राओंसे इनके गुणानुसार क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी—ये पाँच स्थूल भूत हुए॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसानीन्द्रियाण्येव सात्त्विका देवता मनः।
तेभ्योऽभवत्सूत्ररूपं लिङ्गं सर्वगतं महत्॥ २६॥
मूलम्
राजसानीन्द्रियाण्येव सात्त्विका देवता मनः।
तेभ्योऽभवत्सूत्ररूपं लिङ्गं सर्वगतं महत्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजस अहंकारसे दस इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहंकारसे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता तथा मन उत्पन्न हुए और इन सबसे मिलकर समष्टि-सूक्ष्म-शरीररूप हिरण्यगर्भ हुआ, जिसका दूसरा नाम सूत्रात्मा भी है॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विराट् समुत्पन्नः स्थूलाद् भूतकदम्बकात्।
विराजः पुरुषात्सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥ २७॥
मूलम्
ततो विराट् समुत्पन्नः स्थूलाद् भूतकदम्बकात्।
विराजः पुरुषात्सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर स्थूल भूतसमूहसे विराट् उत्पन्न हुआ तथा विराट् पुरुषसे यह सम्पूर्ण स्थावर-जंगम संसार प्रकट हुआ॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतिर्यङ्मनुष्याश्च कालकर्मक्रमेण तु।
त्वं रजोगुणतो ब्रह्मा जगतः सर्वकारणम्॥ २८॥
सत्त्वाद्विष्णुस्त्वमेवास्य पालकः सद्भिरुच्यते।
लये रुद्रस्त्वमेवास्य त्वन्मायागुणभेदतः॥ २९॥
मूलम्
देवतिर्यङ्मनुष्याश्च कालकर्मक्रमेण तु।
त्वं रजोगुणतो ब्रह्मा जगतः सर्वकारणम्॥ २८॥
सत्त्वाद्विष्णुस्त्वमेवास्य पालकः सद्भिरुच्यते।
लये रुद्रस्त्वमेवास्य त्वन्मायागुणभेदतः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
(हे जगदीश्वर!) काल और कर्मके क्रमसे आप ही देव, तिर्यक् और मनुष्य आदि योनियोंमें प्रकट हुए हैं। अपने मायिक गुणोंके भेदसे आप ही रजोगुणद्वारा जगत्कर्ता ब्रह्माजी, सत्त्वगुणद्वारा जगत् की रक्षा करनेवाले विष्णु और तमोगुणसे उसका लय करनेवाले भगवान् रुद्र हुए हैं; ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं॥ २८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या वृत्तयो बुद्धिजैर्गुणैः।
तासां विलक्षणो राम त्वं साक्षी चिन्मयोऽव्ययः॥ ३०॥
मूलम्
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या वृत्तयो बुद्धिजैर्गुणैः।
तासां विलक्षणो राम त्वं साक्षी चिन्मयोऽव्ययः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! बुद्धिके सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणोंसे ही प्राणीकी क्रमशः जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, पर आप इन तीनोंसे सर्वथा पृथक्, इनके साक्षी, चित्स्वरूप और अविकारी हैं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृष्टिलीलां यदा कर्तुमीहसे रघुनन्दन।
अङ्गीकरोषि मायां त्वं तदा वै गुणवानिव॥ ३१॥
मूलम्
सृष्टिलीलां यदा कर्तुमीहसे रघुनन्दन।
अङ्गीकरोषि मायां त्वं तदा वै गुणवानिव॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनन्दन! जिस समय आप सृष्टिरूपी लीलाका विस्तार करना चाहते हैं उस समय मायाको अंगीकार कर गुणवान्-से हो जाते हैं॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम माया द्विधा भाति विद्याविद्येति ते सदा।
प्रवृत्तिमार्गनिरता अविद्यावशवर्तिनः।
निवृत्तिमार्गनिरता वेदान्तार्थविचारकाः॥ ३२॥
त्वद्भक्तिनिरता ये च ते वै विद्यामयाः स्मृताः।
अविद्यावशगा ये तु नित्यं संसारिणश्च ते।
विद्याभ्यासरता ये तु नित्यमुक्तास्त एव हि॥ ३३॥
मूलम्
राम माया द्विधा भाति विद्याविद्येति ते सदा।
प्रवृत्तिमार्गनिरता अविद्यावशवर्तिनः।
निवृत्तिमार्गनिरता वेदान्तार्थविचारकाः॥ ३२॥
त्वद्भक्तिनिरता ये च ते वै विद्यामयाः स्मृताः।
अविद्यावशगा ये तु नित्यं संसारिणश्च ते।
विद्याभ्यासरता ये तु नित्यमुक्तास्त एव हि॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आपकी यह माया सदा विद्या और अविद्या दो रूपसे भासती है। जो लोग प्रवृत्ति-मार्गमें लगे रहते हैं वे अविद्याके वशीभूत हैं और जो वेदान्तार्थका विचार करनेवाले, निवृत्ति-परायण और आपकी भक्तिमें निरत हैं वे विद्यामय समझे जाते हैं। इनमेंसे जो अविद्याके वशीभूत हैं वे सदा जन्म-मरणरूप संसारमें फँसे रहते हैं और जो विद्याभ्यासी हैं वे ही नित्यमुक्त हैं॥ ३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोके त्वद्भक्तिनिरतास्त्वन्मन्त्रोपासकाश्च ये।
विद्या प्रादुर्भवेत्तेषां नेतरेषां कदाचन॥ ३४॥
मूलम्
लोके त्वद्भक्तिनिरतास्त्वन्मन्त्रोपासकाश्च ये।
विद्या प्रादुर्भवेत्तेषां नेतरेषां कदाचन॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो लोग आपकी भक्तिमें तत्पर और आपहीके मन्त्रकी उपासना करनेवाले होते हैं उन्हींके (अन्तःकरणमें) विद्याका प्रादुर्भाव होता है और किसीको नहीं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वद्भक्तिसम्पन्ना मुक्ता एव न संशयः।
त्वद्भक्त्यमृतहीनानां मोक्षः स्वप्नेऽपि नो भवेत्॥ ३५॥
मूलम्
अतस्त्वद्भक्तिसम्पन्ना मुक्ता एव न संशयः।
त्वद्भक्त्यमृतहीनानां मोक्षः स्वप्नेऽपि नो भवेत्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो पुरुष आपकी भक्तिसे सम्पन्न हैं वे निस्सन्देह मुक्त ही हैं, आपकी भक्तिरूप अमृतके बिना स्वप्नमें भी मोक्ष नहीं हो सकता॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं राम बहुनोक्तेन सारं किञ्चिद्ब्रवीमि ते।
साधुसङ्गतिरेवात्र मोक्षहेतुरुदाहृता॥ ३६॥
मूलम्
किं राम बहुनोक्तेन सारं किञ्चिद्ब्रवीमि ते।
साधुसङ्गतिरेवात्र मोक्षहेतुरुदाहृता॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! और अधिक क्या कहूँ? इस विषयमें जो सार बात है वह तुम्हें बताये देता हूँ—संसारमें साधुसंग ही मोक्षका मुख्य कारण कहा गया है॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधवः समचित्ता ये निःस्पृहा विगतैषणाः।
दान्ताःप्रशान्तास्त्वद्भक्ता निवृत्ताखिलकामनाः॥ ३७॥
इष्टप्राप्तिविपत्त्योश्च समाः सङ्गविवर्जिताः।
संन्यस्ताखिलकर्माणः सर्वदा ब्रह्मतत्पराः॥ ३८॥
यमादिगुणसम्पन्नाः सन्तुष्टा येन केनचित्।
सत्सङ्गमो भवेद्यर्हि त्वत्कथाश्रवणे रतिः॥ ३९॥
मूलम्
साधवः समचित्ता ये निःस्पृहा विगतैषणाः।
दान्ताःप्रशान्तास्त्वद्भक्ता निवृत्ताखिलकामनाः॥ ३७॥
इष्टप्राप्तिविपत्त्योश्च समाः सङ्गविवर्जिताः।
संन्यस्ताखिलकर्माणः सर्वदा ब्रह्मतत्पराः॥ ३८॥
यमादिगुणसम्पन्नाः सन्तुष्टा येन केनचित्।
सत्सङ्गमो भवेद्यर्हि त्वत्कथाश्रवणे रतिः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो लोग सम्पद्-विपद्में समानचित्त, स्पृहारहित, पुत्र-वित्तादिकी इच्छाओंसे रहित, इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, शान्तचित्त, आपके भक्त, सम्पूर्ण कामनाओंसे शून्य, इष्ट तथा अनिष्टकी प्राप्तिमें समान रहनेवाले, संगहीन, समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाले, सर्वदा ब्रह्मपरायण रहनेवाले, यम आदि गुणोंसे सम्पन्न तथा जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहनेवाले होते हैं वे ही साधु हैं। जिस समय ऐसे साधु पुरुषका संग होता है तो आपके कथा-श्रवणमें प्रेम हो जाता है॥ ३७—३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुदेति ततो भक्तिस्त्वयि राम सनातने।
त्वद्भक्तावुपपन्नायां विज्ञानं विपुलं स्फुटम्॥ ४०॥
उदेति मुक्तिमार्गोऽयमाद्यश्चतुरसेवितः।
तस्माद्राघव सद्भक्तिस्त्वयि मे प्रेमलक्षणा॥ ४१॥
सदा भूयाद्धरे सङ्गस्त्वद्भक्तेषु विशेषतः।
अद्य मे सफलं जन्म भवत्सन्दर्शनादभूत्॥ ४२॥
मूलम्
समुदेति ततो भक्तिस्त्वयि राम सनातने।
त्वद्भक्तावुपपन्नायां विज्ञानं विपुलं स्फुटम्॥ ४०॥
उदेति मुक्तिमार्गोऽयमाद्यश्चतुरसेवितः।
तस्माद्राघव सद्भक्तिस्त्वयि मे प्रेमलक्षणा॥ ४१॥
सदा भूयाद्धरे सङ्गस्त्वद्भक्तेषु विशेषतः।
अद्य मे सफलं जन्म भवत्सन्दर्शनादभूत्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! तदनन्तर आप सनातन पुरुषमें भक्ति हो जाती है तथा आपकी भक्ति हो जानेपर आपका स्फुट तथा प्रचुर ज्ञान प्राप्त होता है। यही चतुरजनसेवित मुक्तिका आद्य मार्ग है। अतः हे राघव! आपमें मेरी सर्वदा प्रेमलक्षणा उत्तम भक्ति बनी रहे और हे हरे! मुझे अधिकतर आपके भक्तोंका संग प्राप्त हो। हे नाथ! आज आपके दर्शनोंसे मेरा जन्म सफल हो गया॥ ४०—४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य मे क्रतवः सर्वे बभूवुः सफलाः प्रभो।
दीर्घकालं मया तप्तमनन्यमतिना तपः।
तस्येह तपसो राम फलं तव यदर्चनम्॥ ४३॥
मूलम्
अद्य मे क्रतवः सर्वे बभूवुः सफलाः प्रभो।
दीर्घकालं मया तप्तमनन्यमतिना तपः।
तस्येह तपसो राम फलं तव यदर्चनम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आज मेरे सम्पूर्ण यज्ञ सफल हो गये। मैंने बहुत समयसे अनन्यभावसे तपस्या की है। हे राम! आज जो मैंने आपकी प्रत्यक्ष पूजा की यह उस तपस्याका ही फल है॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा मे सीतया सार्धं हृदये वस राघव।
गच्छतस्तिष्ठतो वापि स्मृतिः स्यान्मे सदा त्वयि॥ ४४॥
मूलम्
सदा मे सीतया सार्धं हृदये वस राघव।
गच्छतस्तिष्ठतो वापि स्मृतिः स्यान्मे सदा त्वयि॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राघव! सीताके सहित आप सर्वदा मेरे हृदयमें निवास करें; मुझे चलते-फिरते सदा आपका स्मरण बना रहे॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति स्तुत्वा रमानाथमगस्त्यो मुनिसत्तमः।
ददौ चापं महेन्द्रेण रामार्थे स्थापितं पुरा॥ ४५॥
अक्षय्यौ बाणतूणीरौ खड्गो रत्नविभूषितः।
जहि राघव भूभारभूतं राक्षसमण्डलम्॥ ४६॥
मूलम्
इति स्तुत्वा रमानाथमगस्त्यो मुनिसत्तमः।
ददौ चापं महेन्द्रेण रामार्थे स्थापितं पुरा॥ ४५॥
अक्षय्यौ बाणतूणीरौ खड्गो रत्नविभूषितः।
जहि राघव भूभारभूतं राक्षसमण्डलम्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मीपति श्रीरघुनाथजीकी इस प्रकार स्तुति कर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजीने उन्हें पूर्वकालमें रामहीके लिये इन्द्रका दिया हुआ धनुष, बाणोंसे भरे हुए कभी खाली न होनेवाले दो तरकश तथा एक रत्नजटित खड्ग दिया और कहा—‘‘हे राघव! पृथिवीके भारस्वरूप राक्षसोंका संहार करो॥ ४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थमवतीर्णोऽसि मायया मनुजाकृतिः।
इतो योजनयुग्मे तु पुण्यकाननमण्डितः॥ ४७॥
अस्ति पञ्चवटीनाम्ना आश्रमो गौतमीतटे।
नेतव्यस्तत्र ते कालः शेषो रघुकुलोद्वह॥ ४८॥
तत्रैव बहुकार्याणि देवानां कुरु सत्पते॥ ४९॥
मूलम्
यदर्थमवतीर्णोऽसि मायया मनुजाकृतिः।
इतो योजनयुग्मे तु पुण्यकाननमण्डितः॥ ४७॥
अस्ति पञ्चवटीनाम्ना आश्रमो गौतमीतटे।
नेतव्यस्तत्र ते कालः शेषो रघुकुलोद्वह॥ ४८॥
तत्रैव बहुकार्याणि देवानां कुरु सत्पते॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके लिये आपने माया-मानव-रूपसे अवतार लिया है। यहाँसे दो योजनकी दूरीपर गौतमी नदीके किनारे पवित्र वनसे सुशोभित एक पंचवटी नामक आश्रम है। हे रघुनाथजी! आप अपना शेष काल वहीं व्यतीत करें। हे सत्पते! वहीं रहकर आप देवताओंके बहुत-से कार्य सिद्ध करें’’॥ ४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तदागस्त्यसुभाषितं वचः
स्तोत्रं च तत्त्वार्थसमन्वितं विभुः।
मुनिं समाभाष्य मुदान्वितो ययौ
प्रदर्शितं मार्गमशेषविद्धरिः॥ ५०॥
मूलम्
श्रुत्वा तदागस्त्यसुभाषितं वचः
स्तोत्रं च तत्त्वार्थसमन्वितं विभुः।
मुनिं समाभाष्य मुदान्वितो ययौ
प्रदर्शितं मार्गमशेषविद्धरिः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सर्वज्ञ भगवान् राम अगस्त्यजीका यह मनोहर भाषण और तत्त्वार्थगर्भित स्तोत्र सुन उनकी अनुमति लेकर प्रसन्नतापूर्वक उनके दिखाये हुए मार्गसे चले॥ ५०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे तृतीयः सर्गः॥ ३॥