[द्वितीय सर्ग]
भागसूचना
शरभंग तथा सुतीक्ष्ण आदि मुनीश्वरोंसे भेंट
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराधे स्वर्गते रामो लक्ष्मणेन च सीतया।
जगाम शरभङ्गस्य वनं सर्वसुखावहम्॥ १॥
मूलम्
विराधे स्वर्गते रामो लक्ष्मणेन च सीतया।
जगाम शरभङ्गस्य वनं सर्वसुखावहम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! विराधके स्वर्ग सिधारनेपर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण और सीताजीके साथ शरभंग मुनिके सर्वसुखदायक तपोवनको गये॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरभङ्गस्ततो दृष्ट्वा रामं सौमित्रिणा सह।
आयान्तं सीतया सार्धं सम्भ्रमादुत्थितः सुधीः॥ २॥
मूलम्
शरभङ्गस्ततो दृष्ट्वा रामं सौमित्रिणा सह।
आयान्तं सीतया सार्धं सम्भ्रमादुत्थितः सुधीः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतिमान् शरभंग श्रीरामचन्द्रजीको सीता और लक्ष्मणके सहित आते देख सहसा उठ खड़े हुए॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिगम्य सुसम्पूज्य विष्टरेषूपवेशयत्।
आतिथ्यमकरोत्तेषां कन्दमूलफलादिभिः॥ ३॥
मूलम्
अभिगम्य सुसम्पूज्य विष्टरेषूपवेशयत्।
आतिथ्यमकरोत्तेषां कन्दमूलफलादिभिः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और आगे बढ़कर उनकी भली प्रकार पूजा कर उनको आसनपर बैठाया तथा कन्द-मूल-फलादिसे उनका आतिथ्य-सत्कार किया॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीत्याह शरभङ्गोऽपि रामं भक्तपरायणम्।
बहुकालमिहैवासं तपसे कृतनिश्चयः॥ ४॥
तव सन्दर्शनाकाङ्क्षी राम त्वं परमेश्वरः।
अद्य मत्तपसा सिद्धं यत्पुण्यं बहु विद्यते।
तत्सर्वं तव दास्यामि ततो मुक्तिं व्रजाम्यहम्॥ ५॥
मूलम्
प्रीत्याह शरभङ्गोऽपि रामं भक्तपरायणम्।
बहुकालमिहैवासं तपसे कृतनिश्चयः॥ ४॥
तव सन्दर्शनाकाङ्क्षी राम त्वं परमेश्वरः।
अद्य मत्तपसा सिद्धं यत्पुण्यं बहु विद्यते।
तत्सर्वं तव दास्यामि ततो मुक्तिं व्रजाम्यहम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मुनिवर शरभंगने भक्तवत्सल भगवान् रामसे प्रीतिपूर्वक कहा—‘‘मैं बहुत कालसे आपके दर्शनोंकी आकांक्षासे तपस्याका निश्चय कर यहीं रहता हूँ। हे राम! आप साक्षात् परमेश्वर हैं। मुझे तपस्याके द्वारा जो बहुत-सा पुण्य प्राप्त हुआ है वह सब आज आपको समर्पितकर मैं मोक्षपद प्राप्त करूँगा’’॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्प्य रामस्य महत्सुपुण्य-
फलं विरक्तः शरभङ्गयोगी।
चितिं समारोहयदप्रमेयं
रामं ससीतं सहसा प्रणम्य॥ ६॥
मूलम्
समर्प्य रामस्य महत्सुपुण्य-
फलं विरक्तः शरभङ्गयोगी।
चितिं समारोहयदप्रमेयं
रामं ससीतं सहसा प्रणम्य॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह महाविरक्त योगिवर शरभंग अपना महान् पुण्य-फल श्रीरामचन्द्रजीको समर्पणकर सीताके सहित अप्रमेय (भगवान्) रामको प्रणामकर सहसा चितापर चढ़ गये॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यायंश्चिरं राममशेषहृत्स्थं
दूर्वादलश्यामलमम्बुजाक्षम्।
चीराम्बरं स्निग्धजटाकलापं
सीतासहायं सहलक्ष्मणं तम्॥ ७॥
मूलम्
ध्यायंश्चिरं राममशेषहृत्स्थं
दूर्वादलश्यामलमम्बुजाक्षम्।
चीराम्बरं स्निग्धजटाकलापं
सीतासहायं सहलक्ष्मणं तम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वे (मन-ही-मन) सर्वान्तर्यामी दूर्वादलके समान श्यामवर्ण, कमलनयन, चीराम्बरधारी, स्निग्धजटाजूटधारी श्रीरामचन्द्रजीका सीता और लक्ष्मणके सहित बहुत देरतक ध्यान करते रहे॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को वा दयालुः स्मृतकामधेनु-
रन्यो जगत्यां रघुनायकादहो।
स्मृतो मया नित्यमनन्यभाजा
ज्ञात्वा स्मृतिं मे स्वयमेव यातः॥ ८॥
मूलम्
को वा दयालुः स्मृतकामधेनु-
रन्यो जगत्यां रघुनायकादहो।
स्मृतो मया नित्यमनन्यभाजा
ज्ञात्वा स्मृतिं मे स्वयमेव यातः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
(फिर मन-ही-मन कहने लगे—)‘‘अहो! इस संसारमें श्रीरघुनाथजीको छोड़कर स्मरण करनेपर कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और कौन दयालु है? मैं अनन्य भावसे उनका नित्य स्मरण करता था, अतः मेरे स्मरणको जानकर वे स्वयं ही चले आये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यत्विदानीं देवेशो रामो दाशरथिः प्रभुः।
दग्ध्वा स्वदेहं गच्छामि ब्रह्मलोकमकल्मषः॥ ९॥
मूलम्
पश्यत्विदानीं देवेशो रामो दाशरथिः प्रभुः।
दग्ध्वा स्वदेहं गच्छामि ब्रह्मलोकमकल्मषः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवेश दशरथनन्दन भगवान् राम मेरी ओर देखते रहें, मैं अपना शरीर जलाकर अब निष्पाप होकर ब्रह्मलोकको जा रहा हूँ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोध्याधिपतिर्मेऽस्तु हृदये राघवः सदा।
यद्वामाङ्के स्थिता सीता मेघस्येव तडिल्लता॥ १०॥
मूलम्
अयोध्याधिपतिर्मेऽस्तु हृदये राघवः सदा।
यद्वामाङ्के स्थिता सीता मेघस्येव तडिल्लता॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे हृदयमें सर्वदा अयोध्याधिपति श्रीरामचन्द्रजी विराजमान रहें, जिनके वामांकमें मेघमें बिजलीके समान श्रीसीताजी विराजमान हैं’’॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति रामं चिरं ध्यात्वा दृष्ट्वा च पुरतः स्थितम्।
प्रज्वाल्य सहसा वह्निं दग्ध्वा पञ्चात्मकं वपुः॥ ११॥
मूलम्
इति रामं चिरं ध्यात्वा दृष्ट्वा च पुरतः स्थितम्।
प्रज्वाल्य सहसा वह्निं दग्ध्वा पञ्चात्मकं वपुः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रामचन्द्रजीका बहुत देरतक ध्यान करते हुए तथा अपने सम्मुख विराजमान उनके स्वरूपको देखते हुए मुनिवर शरभंगने अग्नि प्रज्वलितकर अपना पांचभौतिक शरीर जला डाला तथा दिव्य देह धारणकर साक्षात् ब्रह्मलोकको चले गये॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यदेहधरः साक्षाद्ययौ लोकपतेः पदम्।
ततो मुनिगणाः सर्वे दण्डकारण्यवासिनः।
आजग्मू राघवं द्रष्टुं शरभङ्गनिवेशनम्॥ १२॥
मूलम्
दिव्यदेहधरः साक्षाद्ययौ लोकपतेः पदम्।
ततो मुनिगणाः सर्वे दण्डकारण्यवासिनः।
आजग्मू राघवं द्रष्टुं शरभङ्गनिवेशनम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दण्डकारण्यवासी समस्त मुनिगण श्रीरघुनाथजीका दर्शन करनेके लिये शरभंग मुनिके आश्रमपर आये॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा मुनिसमूहं तं जानकीरामलक्ष्मणाः।
प्रणेमुः सहसा भूमौ मायामानुषरूपिणः॥ १३॥
मूलम्
दृष्ट्वा मुनिसमूहं तं जानकीरामलक्ष्मणाः।
प्रणेमुः सहसा भूमौ मायामानुषरूपिणः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मुनि-समाजको देखकर माया-मानव-रूप श्रीराम, सीता और लक्ष्मणने सहसा पृथिवीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीर्भिरभिनन्द्याथ रामं सर्वहृदि स्थितम्।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे धनुर्बाणधरं हरिम्॥ १४॥
मूलम्
आशीर्भिरभिनन्द्याथ रामं सर्वहृदि स्थितम्।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे धनुर्बाणधरं हरिम्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन मुनीश्वरोंने सर्वान्तर्यामी भगवान् रामका आशीर्वादद्वारा अभिनन्दन किया और फिर वे धनुर्बाणधारी श्रीहरिसे हाथ जोड़कर बोले—॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमेर्भारावताराय जातोऽसि ब्रह्मणार्थितः।
जानीमस्त्वां हरिं लक्ष्मीं जानकीं लक्ष्मणं तथा॥ १५॥
शेषांशं शङ्खचक्रे द्वे भरतं सानुजं तथा।
अतश्चादौ ऋषीणां त्वं दुःखं मोक्तुमिहार्हसि॥ १६॥
मूलम्
भूमेर्भारावताराय जातोऽसि ब्रह्मणार्थितः।
जानीमस्त्वां हरिं लक्ष्मीं जानकीं लक्ष्मणं तथा॥ १५॥
शेषांशं शङ्खचक्रे द्वे भरतं सानुजं तथा।
अतश्चादौ ऋषीणां त्वं दुःखं मोक्तुमिहार्हसि॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘आपने ब्रह्माकी प्रार्थनासे पृथिवीका भार उतारनेके लिये अवतार लिया है। हम यह जानते हैं कि आप साक्षात् श्रीहरि, जानकीजी लक्ष्मी, लक्ष्मणजी शेषजीका अंश और भरत-शत्रुघ्न भगवान् के शंख और चक्र हैं। इसलिये आप यहाँ सबसे पहले ऋषियोंका दुःख दूर करें॥ १५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगच्छ यामो मुनिसेवितानि
वनानि सर्वाणि रघूत्तम क्रमात्।
द्रष्टुं सुमित्रासुतजानकीभ्यां
तदा दयाऽस्मासु दृढा भविष्यति॥ १७॥
मूलम्
आगच्छ यामो मुनिसेवितानि
वनानि सर्वाणि रघूत्तम क्रमात्।
द्रष्टुं सुमित्रासुतजानकीभ्यां
तदा दयाऽस्मासु दृढा भविष्यति॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! आइये, सीता और लक्ष्मणसहित आप हमारे साथ क्रमशः मुनीश्वरोंके समस्त आश्रमोंको देखनेके लिये चलिये। ऐसा करनेसे आपको हमपर बड़ी दया आयेगी’’॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति विज्ञापितो रामः कृताञ्जलिपुटैर्विभुः।
जगाम मुनिभिः सार्धं द्रष्टुं मुनिवनानि सः॥ १८॥
मूलम्
इति विज्ञापितो रामः कृताञ्जलिपुटैर्विभुः।
जगाम मुनिभिः सार्धं द्रष्टुं मुनिवनानि सः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार हाथ जोड़कर निवेदन किये जानेपर भगवान् राम मुनियोंके साथ उनके तपोवनोंको देखनेके लिये चले॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श तत्र पतितान्यनेकानि शिरांसि सः।
अस्थिभूतानि सर्वत्र रामो वचनमब्रवीत्॥ १९॥
मूलम्
ददर्श तत्र पतितान्यनेकानि शिरांसि सः।
अस्थिभूतानि सर्वत्र रामो वचनमब्रवीत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन्होंने सब ओर बहुत-सी खोपड़ियाँ पड़ी देखीं। उन्हें देखकर श्रीरामचन्द्रजीने मुनियोंसे पूछा—॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्थीनि केषामेतानि किमर्थं पतितानि वै।
तमूचुर्मुनयो राम ऋषीणां मस्तकानि हि॥ २०॥
मूलम्
अस्थीनि केषामेतानि किमर्थं पतितानि वै।
तमूचुर्मुनयो राम ऋषीणां मस्तकानि हि॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘ये हड्डियाँ किनकी हैं और (इस तपोभूमिमें) कैसे पड़ी हैं?’’ तब मुनीश्वरोंने कहा—‘‘हे राम! ये ऋषियोंके मस्तक हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसैर्भक्षितानीश प्रमत्तानां समाधितः।
अन्तरायं मुनीनां ते पश्यन्तोऽनुचरन्ति हि॥ २१॥
मूलम्
राक्षसैर्भक्षितानीश प्रमत्तानां समाधितः।
अन्तरायं मुनीनां ते पश्यन्तोऽनुचरन्ति हि॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे समर्थ! इन्हें राक्षसोंने खा लिया है, वे राक्षस समाधिमें मग्न रहनेके कारण भागनेमें असमर्थ मुनीश्वरोंको भक्षण करनेके लिये मौका देखते हुए जहाँ-तहाँ घूमते रहते हैं’’॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा वाक्यं मुनीनां स भयदैन्यसमन्वितम्।
प्रतिज्ञामकरोद्रामो वधायाशेषरक्षसाम्॥ २२॥
मूलम्
श्रुत्वा वाक्यं मुनीनां स भयदैन्यसमन्वितम्।
प्रतिज्ञामकरोद्रामो वधायाशेषरक्षसाम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनियोंके ये भय और दीनतापूर्ण वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने समस्त राक्षसोंका वध करनेके लिये प्रतिज्ञा की॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूज्यमानः सदा तत्र मुनिभिर्वनवासिभिः।
जानक्या सहितो रामो लक्ष्मणेन समन्वितः॥ २३॥
उवास कतिचित्तत्र वर्षाणि रघुनन्दनः।
एवं क्रमेण सम्पश्यन्नृषीणामाश्रमान् विभुः॥ २४॥
मूलम्
पूज्यमानः सदा तत्र मुनिभिर्वनवासिभिः।
जानक्या सहितो रामो लक्ष्मणेन समन्वितः॥ २३॥
उवास कतिचित्तत्र वर्षाणि रघुनन्दनः।
एवं क्रमेण सम्पश्यन्नृषीणामाश्रमान् विभुः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार क्रमशः मुनीश्वरोंके आश्रम देखते हुए प्रभु श्रीरघुनाथजी वनवासी मुनियोंद्वारा नित्य पूजित होते हुए सीता और लक्ष्मणके साथ वहाँ कुछ वर्ष रहे॥ २३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुतीक्ष्णस्याश्रमं प्रागात्प्रख्यातमृषिसङ्कुलम्।
सर्वर्तुगुणसम्पन्नं सर्वकालसुखावहम्॥ २५॥
मूलम्
सुतीक्ष्णस्याश्रमं प्रागात्प्रख्यातमृषिसङ्कुलम्।
सर्वर्तुगुणसम्पन्नं सर्वकालसुखावहम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे सुविख्यात सुतीक्ष्ण मुनिके आश्रममें गये जो ऋषियोंसे भरा हुआ, समस्त ऋतुओंके गुणोंसे युक्त और सब समय सुखदायक था॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राममागतमाकर्ण्य सुतीक्ष्णः स्वयमागतः।
अगस्त्यशिष्यो रामस्य मन्त्रोपासनतत्परः।
विधिवत्पूजयामास भक्त्युत्कण्ठितलोचनः॥ २६॥
मूलम्
राममागतमाकर्ण्य सुतीक्ष्णः स्वयमागतः।
अगस्त्यशिष्यो रामस्य मन्त्रोपासनतत्परः।
विधिवत्पूजयामास भक्त्युत्कण्ठितलोचनः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामका आगमन सुन राम-मन्त्रके उपासक और अगस्त्यके शिष्य सुतीक्ष्ण (उन्हें लेनेके लिये) स्वयं आगे आये और उनकी विधिवत् पूजा की। उस समय सुतीक्ष्णके नेत्र भक्तिवश भगवद्दर्शनके लिये अति उतावले हो रहे थे॥ २६॥
मूलम् (वचनम्)
सुतीक्ष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मन्त्रजाप्यहमनन्तगुणाप्रमेय
सीतापते शिवविरिञ्चिसमाश्रिताङ्घ्रे।
संसारसिन्धुतरणामलपोतपाद
रामाभिराम सततं तव दासदासः॥ २७॥
मूलम्
त्वन्मन्त्रजाप्यहमनन्तगुणाप्रमेय
सीतापते शिवविरिञ्चिसमाश्रिताङ्घ्रे।
संसारसिन्धुतरणामलपोतपाद
रामाभिराम सततं तव दासदासः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुतीक्ष्ण बोले—हे अनन्त-गुण अप्रमेय सीतापते! मैं आपका ही मन्त्र जपता हूँ। हे अभिराम राम! शिव और ब्रह्मा आपके चरणोंके आश्रित हैं, आपके चरण संसार-सागरसे पार करनेके लिये सुदृढ़ पोत (जहाज) हैं। हे नाथ! मैं सर्वदा आपके दासोंका दास हूँ॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामद्य सर्वजगतामविगोचरस्त्वं
त्वन्मायया सुतकलत्रगृहान्धकूपे।
मग्नं निरीक्ष्य मलपुद्गलपिण्डमोह-
पाशानुबद्धहृदयं स्वयमागतोऽसि॥ २८॥
मूलम्
मामद्य सर्वजगतामविगोचरस्त्वं
त्वन्मायया सुतकलत्रगृहान्धकूपे।
मग्नं निरीक्ष्य मलपुद्गलपिण्डमोह-
पाशानुबद्धहृदयं स्वयमागतोऽसि॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप समस्त संसारकी इन्द्रियोंके अविषय हैं, तथापि इस मल-मूत्रके पुतले शरीरके मोहपाशमें जिनका हृदय बँधा हुआ है ऐसे मुझ दीनको अपनी ही मायासे मोहित होकर पुत्र-कलत्र और गृह आदिके अन्धकूपमें पड़ा देखकर आप स्वयं ही (मुझे अपना पुण्य-दर्शन देनेके लिये) पधारे हैं!॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं सर्वभूतहृदयेषु कृतालयोऽपि
त्वन्मन्त्रजाप्यविमुखेषु तनोषि मायाम्।
त्वन्मन्त्रसाधनपरेष्वपयाति माया
सेवानुरूपफलदोऽसि यथा महीपः॥ २९॥
मूलम्
त्वं सर्वभूतहृदयेषु कृतालयोऽपि
त्वन्मन्त्रजाप्यविमुखेषु तनोषि मायाम्।
त्वन्मन्त्रसाधनपरेष्वपयाति माया
सेवानुरूपफलदोऽसि यथा महीपः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान हैं, तथापि जो लोग आपके मन्त्रजापसे विमुख हैं उन्हें आप अपनी मायासे मोहित करते हैं और जो उस मन्त्रके जापमें तत्पर हैं उनकी माया दूर हो जाती है। इस प्रकार राजाके समान आप सबको उनकी सेवाके अनुसार फल देनेवाले हैं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वस्य सृष्टिलयसंस्थितिहेतुरेक-
स्त्वं मायया त्रिगुणया विधिरीशविष्णू।
भासीश मोहितधियां विविधाकृतिस्त्वं
यद्वद्रविः सलिलपात्रगतो ह्यनेकः॥ ३०॥
मूलम्
विश्वस्य सृष्टिलयसंस्थितिहेतुरेक-
स्त्वं मायया त्रिगुणया विधिरीशविष्णू।
भासीश मोहितधियां विविधाकृतिस्त्वं
यद्वद्रविः सलिलपात्रगतो ह्यनेकः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे ईश! वास्तवमें एकमात्र आप ही इस विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण होते हुए त्रिगुणमयी मायाके कारण ब्रह्मा, विष्णु और महादेवके रूपोंमें भासते हैं; आप ही मुग्धचित्त पुरुषोंकी (दृष्टिमें) (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) नाना प्रकारकी आकृतियोंसे प्रतीत हो रहे हैं, जिस प्रकार जलके पात्रोंमें प्रतिबिम्बित होनेसे सूर्य अनेक होकर भासता है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षतोऽद्य भवतश्चरणारविन्दं
पश्यामि राम तमसः परतः स्थितस्य।
दृग्रूपतस्त्वमसतामविगोचरोऽपि
त्वन्मन्त्रपूतहृदयेषु सदा प्रसन्नः॥ ३१॥
मूलम्
प्रत्यक्षतोऽद्य भवतश्चरणारविन्दं
पश्यामि राम तमसः परतः स्थितस्य।
दृग्रूपतस्त्वमसतामविगोचरोऽपि
त्वन्मन्त्रपूतहृदयेषु सदा प्रसन्नः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप अज्ञानसे सर्वथा परे हैं तथापि आपके चरण-कमलोंको आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। (इससे विदित होता है कि) सबके साक्षी होनेसे आप असत्पुरुषोंको अगोचर होकर भी जिनका चित्त आपके मन्त्रजापसे शुद्ध हो गया है उनपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यामि राम तव रूपमरूपिणोऽपि
मायाविडम्बनकृतं सुमनुष्यवेषम्।
कन्दर्पकोटिसुभगं कमनीयचाप-
बाणं दयार्द्रहृदयं स्मितचारुवक्त्रम्॥ ३२॥
मूलम्
पश्यामि राम तव रूपमरूपिणोऽपि
मायाविडम्बनकृतं सुमनुष्यवेषम्।
कन्दर्पकोटिसुभगं कमनीयचाप-
बाणं दयार्द्रहृदयं स्मितचारुवक्त्रम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप रूपरहित हैं, तथापि अपने ही माया-विलाससे धारण किये आपके मनोहर मनुष्यवेषधारी स्वरूपको मैं देख रहा हूँ। आपका यह रूप करोड़ों कामदेवोंके समान कान्तिमान् है और कमनीय धनुर्बाण धारण किये हैं। आपका हृदय दयार्द्र तथा मुख मुसकानसे मनोहर है॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतासमेतमजिनाम्बरमप्रधृष्यं
सौमित्रिणा नियतसेवितपादपद्मम्।
नीलोत्पलद्युतिमनन्तगुणं प्रशान्तं
मद्भागधेयमनिशं प्रणमामि रामम्॥ ३३॥
मूलम्
सीतासमेतमजिनाम्बरमप्रधृष्यं
सौमित्रिणा नियतसेवितपादपद्मम्।
नीलोत्पलद्युतिमनन्तगुणं प्रशान्तं
मद्भागधेयमनिशं प्रणमामि रामम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सीताजीसे युक्त हैं, मृगचर्म धारण किये हैं, सर्वथा अजेय हैं, जिनके चरण-कमल नित्य श्रीसुमित्रानन्दनसे सेवित हैं और जिनकी नीलकमलके समान आभा है उन अनन्तगुणसम्पन्न अत्यन्त शान्त मेरा सौभाग्यस्वरूप श्रीराममूर्तिको मैं अहर्निश प्रणाम करता हूँ॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानन्तु राम तव रूपमशेषदेश-
कालाद्युपाधिरहितं घनचित्प्रकाशम्।
प्रत्यक्षतोऽद्य मम गोचरमेतदेव
रूपं विभातु हृदये न परं विकाङ्क्षे॥ ३४॥
मूलम्
जानन्तु राम तव रूपमशेषदेश-
कालाद्युपाधिरहितं घनचित्प्रकाशम्।
प्रत्यक्षतोऽद्य मम गोचरमेतदेव
रूपं विभातु हृदये न परं विकाङ्क्षे॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! जो लोग आपके स्वरूपको देश-काल आदि समस्त उपाधियोंसे रहित और चिद्घन प्रकाशस्वरूप जानते हैं, वे भले ही वैसा ही जानें; किन्तु मेरे हृदयमें तो, आज जो प्रत्यक्षरूपसे मुझे दिखायी दे रहा है, यही रूप भासमान होता रहे। इसके अतिरिक्त मुझे और किसी रूपकी इच्छा नहीं है॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं स्तुवतस्तस्य रामः सस्मितमब्रवीत्।
मुने जानामि ते चित्तं निर्मलं मदुपासनात्॥ ३५॥
मूलम्
इत्येवं स्तुवतस्तस्य रामः सस्मितमब्रवीत्।
मुने जानामि ते चित्तं निर्मलं मदुपासनात्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुतीक्ष्णके इस प्रकार स्तुति करनेपर श्रीरामचन्द्रजीने उनसे मुसकराकर कहा—‘‘हे मुने! मैं यह जानता हूँ कि तुम्हारा चित्त मेरी उपासनासे निर्मल हो गया है॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोऽहमागतो द्रष्टुं मदृते नान्यसाधनम्।
मन्मन्त्रोपासका लोके मामेव शरणं गताः॥ ३६॥
मूलम्
अतोऽहमागतो द्रष्टुं मदृते नान्यसाधनम्।
मन्मन्त्रोपासका लोके मामेव शरणं गताः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तुम्हारा मेरे अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है, इसीलिये मैं तुम्हें देखनेके लिये आया हूँ। संसारमें जो लोग मेरे मन्त्रकी उपासना करते हैं और मेरी ही शरणमें रहते हैं॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरपेक्षा नान्यगतास्तेषां दृश्योऽहमन्वहम्।
स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु त्वत्कृतं मत्प्रियं सदा॥ ३७॥
मूलम्
निरपेक्षा नान्यगतास्तेषां दृश्योऽहमन्वहम्।
स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु त्वत्कृतं मत्प्रियं सदा॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा नित्य निरपेक्ष और अनन्यगति रहते हैं, उन्हें मैं नित्यप्रति दर्शन देता हूँ। जो व्यक्ति तुम्हारे किये हुए इस मेरे प्रिय स्तोत्रका पाठ करता है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्भक्तिर्मे भवेत्तस्य ज्ञानं च विमलं भवेत्।
त्वं ममोपासनादेव विमुक्तोऽसीह सर्वतः॥ ३८॥
मूलम्
सद्भक्तिर्मे भवेत्तस्य ज्ञानं च विमलं भवेत्।
त्वं ममोपासनादेव विमुक्तोऽसीह सर्वतः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे मेरी शुद्ध भक्ति और निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है, तुम केवल मेरी उपासनासे इस जीवितावस्थामें ही सर्वथा मुक्त हो गये हो॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहान्ते मम सायुज्यं लप्स्यसे नात्र संशयः।
गुरुं ते द्रष्टुमिच्छामि ह्यगस्त्यं मुनिनायकम्।
किञ्चित्कालं तत्र वस्तुं मनो मे त्वरयत्यलम्॥ ३९॥
मूलम्
देहान्ते मम सायुज्यं लप्स्यसे नात्र संशयः।
गुरुं ते द्रष्टुमिच्छामि ह्यगस्त्यं मुनिनायकम्।
किञ्चित्कालं तत्र वस्तुं मनो मे त्वरयत्यलम्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर छूटनेपर तुम निस्सन्देह मेरा सायुज्यपद प्राप्त करोगे। अब मैं तुम्हारे गुरुमुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजीसे मिलना चाहता हूँ; मेरा चित्त उनके पास कुछ दिन रहनेके लिये उतावला हो रहा है’’॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुतीक्ष्णोऽपि तथेत्याह श्वो गमिष्यसि राघव।
अहमप्यागमिष्यामि चिराद्दृष्टो महामुनिः॥ ४०॥
मूलम्
सुतीक्ष्णोऽपि तथेत्याह श्वो गमिष्यसि राघव।
अहमप्यागमिष्यामि चिराद्दृष्टो महामुनिः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुतीक्ष्णने कहा—‘‘हे राघव! बहुत अच्छा, वहाँ कल चलियेगा। मैंने भी मुनीश्वरको बहुत दिन हुए तब देखा था। अतः मैं भी आपके साथ ही वहाँ चलूँगा’’॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ प्रभाते मुनिना समेतो
रामः ससीतः सह लक्ष्मणेन।
अगस्त्यसम्भाषणलोलमानसः
शनैरगस्त्यानुजमन्दिरं ययौ॥ ४१॥
मूलम्
अथ प्रभाते मुनिना समेतो
रामः ससीतः सह लक्ष्मणेन।
अगस्त्यसम्भाषणलोलमानसः
शनैरगस्त्यानुजमन्दिरं ययौ॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रातःकाल होनेपर सीता और लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजी सुतीक्ष्ण मुनिको लेकर अगस्त्यजीसे वार्तालाप करनेके लिये उत्कण्ठित हो शनैः-शनैः उनके छोटे भाई (अग्निजिह्व मुनि)-के आश्रमकी ओर चले॥ ४१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥