[प्रथम सर्ग]
भागसूचना
विराध-वध
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तत्र दिनं स्थित्वा प्रभाते रघुनन्दनः।
स्नात्वा मुनिं समामन्त्र्य प्रयाणायोपचक्रमे॥ १॥
मूलम्
अथ तत्र दिनं स्थित्वा प्रभाते रघुनन्दनः।
स्नात्वा मुनिं समामन्त्र्य प्रयाणायोपचक्रमे॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! उस दिन अत्रि मुनिके आश्रममें ही रहकर दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान करनेके अनन्तर श्रीरघुनाथजीने मुनिवरकी सम्मतिसे चलनेकी तैयारी की॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुने गच्छामहे सर्वे मुनिमण्डलमण्डितम्।
विपिनं दण्डकं यत्र त्वमाज्ञातुमिहार्हसि॥ २॥
मूलम्
मुने गच्छामहे सर्वे मुनिमण्डलमण्डितम्।
विपिनं दण्डकं यत्र त्वमाज्ञातुमिहार्हसि॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बोले—‘‘हे मुने! हम सब मुनिमण्डलीसे सुशोभित दण्डकारण्यको जाना चाहते हैं, अतः आप हमें आज्ञा प्रदान कीजिये॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गप्रदर्शनार्थाय शिष्यानाज्ञप्तुमर्हसि।
श्रुत्वा रामस्य वचनं प्रहस्यात्रिर्महायशाः।
प्राह तत्र रघुश्रेष्ठं राम राम सुराश्रय॥ ३॥
सर्वस्य मार्गद्रष्टा त्वं तव को मार्गदर्शकः।
तथापि दर्शयिष्यन्ति तव लोकानुसारिणः॥ ४॥
मूलम्
मार्गप्रदर्शनार्थाय शिष्यानाज्ञप्तुमर्हसि।
श्रुत्वा रामस्य वचनं प्रहस्यात्रिर्महायशाः।
प्राह तत्र रघुश्रेष्ठं राम राम सुराश्रय॥ ३॥
सर्वस्य मार्गद्रष्टा त्वं तव को मार्गदर्शकः।
तथापि दर्शयिष्यन्ति तव लोकानुसारिणः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हमें मार्ग दिखानेके लिये कुछ शिष्योंको आज्ञा दीजिये।’’ रामजीका यह कथन सुनकर महायशस्वी अत्रि मुनि श्रीरघुनाथजीसे हँसकर बोले—‘‘हे राम! हे देवताओंके आश्रयस्वरूप! सबके मार्गदर्शक तो आप हैं, फिर आपका मार्गदर्शक कौन बनेगा? तथापि इस समय आप लोक-व्यवहारका अनुसरण कर रहे हैं। अतः मेरे शिष्यगण आपको मार्ग दिखानेके लिये जायँगे’’॥ ३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति शिष्यान्समादिश्य स्वयं कञ्चित्तमन्वगात्।
रामेण वारितः प्रीत्या अत्रिः स्वभवनं ययौ॥ ५॥
मूलम्
इति शिष्यान्समादिश्य स्वयं कञ्चित्तमन्वगात्।
रामेण वारितः प्रीत्या अत्रिः स्वभवनं ययौ॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शिष्योंको आज्ञा दे मुनिवर अत्रि स्वयं भी कुछ दूर रामचन्द्रजीके साथ गये और फिर उनके प्रीतिपूर्वक मना करनेपर अपने आश्रमको लौट आये॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशमात्रं ततो गत्वा ददर्श महतीं नदीम्।
अत्रेः शिष्यानुवाचेदं रामो राजीवलोचनः॥ ६॥
मूलम्
क्रोशमात्रं ततो गत्वा ददर्श महतीं नदीम्।
अत्रेः शिष्यानुवाचेदं रामो राजीवलोचनः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक कोश जानेपर श्रीरामचन्द्रजीने एक बहुत बड़ी नदी देखी। तब कमलनयन रघुनाथजीने अत्रिके शिष्योंसे इस प्रकार पूछा—॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नद्याः सन्तरणे कश्चिदुपायो विद्यते न वा।
ऊचुस्ते विद्यते नौका सुदृढा रघुनन्दन॥ ७॥
मूलम्
नद्याः सन्तरणे कश्चिदुपायो विद्यते न वा।
ऊचुस्ते विद्यते नौका सुदृढा रघुनन्दन॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे ब्रह्मचारियो! नदीको पार करनेका कोई उपाय है या नहीं?’’ तब शिष्योंने कहा—‘‘हे रघुनन्दन! यहाँ एक सुदृढ़ नौका है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारयिष्यामहे युष्मान्वयमेव क्षणादिह।
ततो नावि समारोप्य सीतां राघवलक्ष्मणौ॥ ८॥
क्षणात्सन्तारयामासुर्नदीं मुनिकुमारकाः।
रामाभिनन्दिताः सर्वे जग्मुरत्रेरथाश्रमम्॥ ९॥
मूलम्
तारयिष्यामहे युष्मान्वयमेव क्षणादिह।
ततो नावि समारोप्य सीतां राघवलक्ष्मणौ॥ ८॥
क्षणात्सन्तारयामासुर्नदीं मुनिकुमारकाः।
रामाभिनन्दिताः सर्वे जग्मुरत्रेरथाश्रमम्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम उसमें चढ़ाकर आपको एक क्षणमें ही नदीके उस पार पहुँचा देंगे।’’ तब मुनिकुमारोंने सीताके सहित राम और लक्ष्मणको नौकामें चढ़ाकर एक क्षणमात्रमें नदीके उस पार पहुँचा दिया। और फिर रामचन्द्रजीद्वारा प्रशंसित हो अत्रि मुनिके आश्रमको लौट आये॥ ८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावेत्य विपिनं घोरं झिल्लीझङ्कारनादितम्।
नानामृगगणाकीर्णं सिंहव्याघ्रादिभीषणम्॥ १०॥
मूलम्
तावेत्य विपिनं घोरं झिल्लीझङ्कारनादितम्।
नानामृगगणाकीर्णं सिंहव्याघ्रादिभीषणम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे झिल्लियोंकी झनकारसे गुंजायमान, विविध वन्य पशुओंसे पूर्ण और सिंह-व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओंसे भयानक एक घोर वनमें पहुँचे॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसैर्घोररूपैश्च सेवितं रोमहर्षणम्।
प्रविश्य विपिनं घोरं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ ११॥
मूलम्
राक्षसैर्घोररूपैश्च सेवितं रोमहर्षणम्।
प्रविश्य विपिनं घोरं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
भयंकर रूपधारी राक्षसोंसे सेवित उस रोमांचकारी घोर वनमें घुसकर श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीसे कहा—॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतः परं प्रयत्नेन गन्तव्यं सहितेन मे।
धनुर्गुणेन संयोज्य शरानपि करे दधत्॥ १२॥
अग्रे यास्याम्यहं पश्चात्त्वमन्वेहि धनुर्धरः।
आवयोर्मध्यगा सीता मायेवात्मपरात्मनोः॥ १३॥
मूलम्
इतः परं प्रयत्नेन गन्तव्यं सहितेन मे।
धनुर्गुणेन संयोज्य शरानपि करे दधत्॥ १२॥
अग्रे यास्याम्यहं पश्चात्त्वमन्वेहि धनुर्धरः।
आवयोर्मध्यगा सीता मायेवात्मपरात्मनोः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘यहाँसे हम दोनोंको बहुत सावधान होकर चलना चाहिये। मैं धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर और हाथमें बाण लेकर आगे-आगे चलता हूँ और तुम धनुष धारणकर पीछे चलो; तथा जीव और परमात्माके बीचमें रहनेवाली मायाके समान सीता हमारे बीचमें चलें॥ १२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुश्चारय सर्वत्र दृष्टं रक्षोभयं महत्।
विद्यते दण्डकारण्ये श्रुतपूर्वमरिन्दम॥ १४॥
मूलम्
चक्षुश्चारय सर्वत्र दृष्टं रक्षोभयं महत्।
विद्यते दण्डकारण्ये श्रुतपूर्वमरिन्दम॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अरिन्दम! सब ओर सावधानीसे निगाह रखो। हमने पहले जैसा सुना था उसीके अनुसार इस दण्डकारण्यमें राक्षसोंका अत्यन्त भय दिखायी देता है’’॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं भाषमाणौ तौ जग्मतुः सार्धयोजनम्।
तत्रैका पुष्करिण्यास्ते कह्लारकुमुदोत्पलैः॥ १५॥
मूलम्
इत्येवं भाषमाणौ तौ जग्मतुः सार्धयोजनम्।
तत्रैका पुष्करिण्यास्ते कह्लारकुमुदोत्पलैः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आपसमें बातचीत करते वे डेढ़ योजन (छः कोस) निकल गये। वहाँ कुमुद, कह्लार और कमलादिसे सुशोभित एक पुष्करिणी (तलाई) थी॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बुजैः शीतलोदेन शोभमाना व्यदृश्यत।
तत्समीपमथो गत्वा पीत्वा तत्सलिलं शुभम्॥ १६॥
मूलम्
अम्बुजैः शीतलोदेन शोभमाना व्यदृश्यत।
तत्समीपमथो गत्वा पीत्वा तत्सलिलं शुभम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह कमलवन और शीतल जलसे अति सुन्दर दीख पड़ती थी। उन्होंने उसके निकट जाकर उसका शीतल जल पान किया॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊषुस्ते सलिलाभ्याशे क्षणं छायामुपाश्रिताः।
ततो ददृशुरायान्तं महासत्त्वं भयानकम्॥ १७॥
मूलम्
ऊषुस्ते सलिलाभ्याशे क्षणं छायामुपाश्रिताः।
ततो ददृशुरायान्तं महासत्त्वं भयानकम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कुछ देरके लिये जलके किनारे वृक्षकी छायामें बैठ गये। उसी समय उन्होंने एक महाबलवान् और भयानक राक्षस आता देखा॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करालदंष्ट्रवदनं भीषयन्तं स्वगर्जितैः।
वामांसे न्यस्तशूलाग्रग्रथितानेकमानुषम्॥ १८॥
मूलम्
करालदंष्ट्रवदनं भीषयन्तं स्वगर्जितैः।
वामांसे न्यस्तशूलाग्रग्रथितानेकमानुषम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका मुख तीक्ष्ण दाढ़ोंसे पूर्ण था, वह अपनी गर्जनासे अत्यन्त भय उत्पन्न करता था और उसके बायें कंधेपर एक त्रिशूल रखा था जिसमें बहुत-से मनुष्य बिंधे हुए थे॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्षयन्तं गजव्याघ्रमहिषं वनगोचरम्।
ज्यारोपितं धनुर्धृत्वा रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ १९॥
मूलम्
भक्षयन्तं गजव्याघ्रमहिषं वनगोचरम्।
ज्यारोपितं धनुर्धृत्वा रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बहुत-से जंगली हाथी, सिंह और भैंसोंको खाता हुआ आ रहा था। उसे देखकर श्रीरामचन्द्रजीने प्रत्यंचा चढ़ाये हुए अपने धनुषको उठाकर लक्ष्मणजीसे कहा—॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य भ्रातर्महाकायो राक्षसोऽयमुपागतः।
आयात्यभिमुखं नोऽग्रे भीरूणां भयमावहन्॥ २०॥
मूलम्
पश्य भ्रातर्महाकायो राक्षसोऽयमुपागतः।
आयात्यभिमुखं नोऽग्रे भीरूणां भयमावहन्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भाई! देखो, हमारे सामने यह भीरु पुरुषोंको डरानेवाला उग्ररूप महाकाय राक्षस आ रहा है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सज्जीकृतधनुस्तिष्ठ मा भैर्जनकनन्दिनि।
इत्युक्त्वा बाणमादाय स्थितो राम इवाचलः॥ २१॥
मूलम्
सज्जीकृतधनुस्तिष्ठ मा भैर्जनकनन्दिनि।
इत्युक्त्वा बाणमादाय स्थितो राम इवाचलः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम धनुषपर बाण चढ़ाकर सावधान हो जाओ; जानकि! तुम डरना मत।’’ ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी धनुषपर बाण चढ़ा पर्वतके समान निश्चल होकर खड़े हो गये॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु दृष्ट्वा रमानाथं लक्ष्मणं जानकीं तदा।
अट्टहासं ततः कृत्वा भीषयन्निदमब्रवीत्॥ २२॥
मूलम्
स तु दृष्ट्वा रमानाथं लक्ष्मणं जानकीं तदा।
अट्टहासं ततः कृत्वा भीषयन्निदमब्रवीत्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस राक्षसने राम, लक्ष्मण और जानकीजी को देखकर (बड़ा) अट्टहास किया और सबको भयभीत करते हुए इस प्रकार कहा—॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौ युवां बाणतूणीरजटावल्कलधारिणौ।
मुनिवेषधरौ बालौ स्त्रीसहायौ सुदुर्मदौ॥ २३॥
मूलम्
कौ युवां बाणतूणीरजटावल्कलधारिणौ।
मुनिवेषधरौ बालौ स्त्रीसहायौ सुदुर्मदौ॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अरे बालको! बाण, तूणीर और जटा-वल्कल आदि मुनिवेष धारण किये तुम कौन हो? तुम्हारे साथमें एक स्त्री है और तुम बड़े मदोन्मत्त दिखायी देते हो॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुन्दरौ बत मे वक्त्रप्रविष्टकवलोपमौ।
किमर्थमागतौ घोरं वनं व्यालनिषेवितम्॥ २४॥
मूलम्
सुन्दरौ बत मे वक्त्रप्रविष्टकवलोपमौ।
किमर्थमागतौ घोरं वनं व्यालनिषेवितम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम बड़े सुन्दर हो और मेरे मुखमें जानेवाले ग्रासके समान हो। हाय! हिंस्र जीवोंसे पूर्ण इस घोर वनमें तुम किसलिये आये हो?’’॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा रक्षोवचो रामः स्मयमान उवाच तम्।
अहं रामस्त्वयं भ्राता लक्ष्मणो मम सम्मतः॥ २५॥
मूलम्
श्रुत्वा रक्षोवचो रामः स्मयमान उवाच तम्।
अहं रामस्त्वयं भ्राता लक्ष्मणो मम सम्मतः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने उससे मुसकराकर कहा—‘‘मेरा नाम राम है और यह मेरा प्यारा छोटा भाई लक्ष्मण है॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा सीता मम प्राणवल्लभा वयमागताः।
पितृवाक्यं पुरस्कृत्य शिक्षणार्थं भवादृशाम्॥ २६॥
मूलम्
एषा सीता मम प्राणवल्लभा वयमागताः।
पितृवाक्यं पुरस्कृत्य शिक्षणार्थं भवादृशाम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा यह रमणी मेरी प्राणप्रिया सीता है। हम पिताकी आज्ञासे तुम-जैसोंको शिक्षा देनेके लिये इस वनमें आये हैं’’॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तद्रामवचनमट्टहासमथाकरोत्।
व्यादाय वक्त्रं बाहुभ्यां शूलमादाय सत्वरः॥ २७॥
मूलम्
श्रुत्वा तद्रामवचनमट्टहासमथाकरोत्।
व्यादाय वक्त्रं बाहुभ्यां शूलमादाय सत्वरः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर वह ठट्ठा मारकर हँसने लगा और उसने मुँह फैलाकर तुरंत ही अपने हाथोंमें शूल उठा लिया॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां न जानासि राम त्वं विराधं लोकविश्रुतम्।
मद्भयान्मुनयः सर्वे त्यक्त्वा वनमितो गताः॥ २८॥
मूलम्
मां न जानासि राम त्वं विराधं लोकविश्रुतम्।
मद्भयान्मुनयः सर्वे त्यक्त्वा वनमितो गताः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोला—‘‘राम! क्या तुम मुझे नहीं जानते? मैं जगत्प्रसिद्ध विराध नामक (राक्षस) हूँ। मेरे ही भयसे समस्त मुनिजन इस वनको छोड़कर चले गये हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि जीवितुमिच्छास्ति त्यक्त्वा सीतां निरायुधौ।
पलायतं न चेच्छीघ्रं भक्षयामि युवामहम्॥ २९॥
मूलम्
यदि जीवितुमिच्छास्ति त्यक्त्वा सीतां निरायुधौ।
पलायतं न चेच्छीघ्रं भक्षयामि युवामहम्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम्हें जीनेकी इच्छा है तो सीताको छोड़कर बिना अस्त्र-शस्त्रोंके भाग जाओ, नहीं तो मैं अभी तुम दोनोंको खा जाऊँगा’’॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा राक्षसः सीतामादातुमभिदुद्रुवे।
रामश्चिच्छेद तद्बाहू शरेण प्रहसन्निव॥ ३०॥
मूलम्
इत्युक्त्वा राक्षसः सीतामादातुमभिदुद्रुवे।
रामश्चिच्छेद तद्बाहू शरेण प्रहसन्निव॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह वह राक्षस सीताजीको पकड़नेके लिये उनकी ओर दौड़ा। तब रामचन्द्रजीने हँसते हुए अपने बाणसे उसकी भुजाएँ काट डालीं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रोधपरीतात्मा व्यादाय विकटं मुखम्।
राममभ्यद्रवद्रामश्चिच्छेद परिधावतः॥ ३१॥
पदद्वयं विराधस्य तदद्भुतमिवाभवत्॥ ३२॥
मूलम्
ततः क्रोधपरीतात्मा व्यादाय विकटं मुखम्।
राममभ्यद्रवद्रामश्चिच्छेद परिधावतः॥ ३१॥
पदद्वयं विराधस्य तदद्भुतमिवाभवत्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर वह अत्यन्त क्रोधसे सन्तप्त हो अपना विकराल मुख फाड़कर रामचन्द्रजीकी ओर दौड़ा। तब श्रीरघुनाथजीने अपनी ओर आते हुए विराधके दोनों पैर काट डाले। यह बड़ा ही आश्चर्य-सा हो गया॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्प इवास्येन ग्रसितुं राममापतत्।
ततोऽर्धचन्द्राकारेण बाणेनास्य महच्छिरः॥ ३३॥
चिच्छेद रुधिरौघेण पपात धरणीतले।
ततः सीता समालिङ्ग्य प्रशशंस रघूत्तमम्॥ ३४॥
मूलम्
ततः सर्प इवास्येन ग्रसितुं राममापतत्।
ततोऽर्धचन्द्राकारेण बाणेनास्य महच्छिरः॥ ३३॥
चिच्छेद रुधिरौघेण पपात धरणीतले।
ततः सीता समालिङ्ग्य प्रशशंस रघूत्तमम्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सर्पके समान अपने मुखसे ही रामजीको निगल जानेके लिये वह उनकी ओर बढ़ा। तब भगवान् रामने एक अर्द्धचन्द्राकार बाणसे उसका महान् सिर काट डाला। तब वह रुधिरसे लथपथ होकर तत्काल पृथिवीपर गिर पड़ा। इस प्रकार उसे मरा देख श्रीसीताजीने रघुश्रेष्ठ भगवान् रामका आलिंगन कर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥ ३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवगणेरिताः।
ननृतुश्चाप्सरा हृष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नराः॥ ३५॥
मूलम्
ततो दुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवगणेरिताः।
ननृतुश्चाप्सरा हृष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नराः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशमें देवगण दुन्दुभी बजाने लगे, अप्सराएँ प्रसन्नतापूर्वक नाचने लगीं और गन्धर्व तथा किन्नरगण गाने लगे॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराधकायादतिसुन्दराकृति-
र्विभ्राजमानो विमलाम्बरावृतः।
प्रतप्तचामीकरचारुभूषणो
व्यदृश्यताग्रे गगने रविर्यथा॥ ३६॥
मूलम्
विराधकायादतिसुन्दराकृति-
र्विभ्राजमानो विमलाम्बरावृतः।
प्रतप्तचामीकरचारुभूषणो
व्यदृश्यताग्रे गगने रविर्यथा॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय विराधके मृत शरीरसे आकाशस्थित सूर्यदेवके समान, सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित और तपाये हुए सुवर्णालंकारोंसे सुसज्जित अति सुन्दर एक पुरुष प्रकट हुआ॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणम्य रामं प्रणतार्तिहारिणं
भवप्रवाहोपरमं घृणाकरम्।
प्रणम्य भूयः प्रणनाम दण्डवत्
प्रपन्नसर्वार्तिहरं प्रसन्नधीः॥ ३७॥
मूलम्
प्रणम्य रामं प्रणतार्तिहारिणं
भवप्रवाहोपरमं घृणाकरम्।
प्रणम्य भूयः प्रणनाम दण्डवत्
प्रपन्नसर्वार्तिहरं प्रसन्नधीः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पुरुषने शरणागत जनोंका दुःख दूर करनेवाले, संसार-सागरसे पार करनेवाले, दयामय श्रीरामचन्द्रजीको प्रसन्नचित्तसे प्रणाम कर उन प्रसन्नचित्त और शरणागतोंके सकल दुःख दूर करनेवाले प्रभुको फिर भी दण्डके समान पृथिवीपर लोटकर बारम्बार प्रणाम किया॥ ३७॥
मूलम् (वचनम्)
विराध उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीराम राजीवदलायताक्ष
विद्याधरोऽहं विमलप्रकाशः।
दुर्वाससाकारणकोपमूर्तिना
शप्तः पुरा सोऽद्य विमोचितस्त्वया॥ ३८॥
मूलम्
श्रीराम राजीवदलायताक्ष
विद्याधरोऽहं विमलप्रकाशः।
दुर्वाससाकारणकोपमूर्तिना
शप्तः पुरा सोऽद्य विमोचितस्त्वया॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराध बोला—हे कमलदललोचन श्रीराम! मैं विमलतेजोमय विद्याधर हूँ। मुझे पूर्वकालमें बिना कारण ही क्रोध करनेवाले श्रीदुर्वासाजीने शाप दिया था सो आज आपने मुझे शापमुक्त कर दिया॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतः परं त्वच्चरणारविन्दयोः
स्मृतिः सदा मेऽस्तु भवोपशान्तये।
त्वन्नामसङ्कीर्तनमेव वाणी
करोतु मे कर्णपुटं त्वदीयम्॥ ३९॥
कथामृतं पातु करद्वयं ते
पादारविन्दार्चनमेव कुर्यात्।
शिरश्च ते पादयुगप्रणामं
करोतु नित्यं भवदीयमेवम्॥ ४०॥
मूलम्
इतः परं त्वच्चरणारविन्दयोः
स्मृतिः सदा मेऽस्तु भवोपशान्तये।
त्वन्नामसङ्कीर्तनमेव वाणी
करोतु मे कर्णपुटं त्वदीयम्॥ ३९॥
कथामृतं पातु करद्वयं ते
पादारविन्दार्चनमेव कुर्यात्।
शिरश्च ते पादयुगप्रणामं
करोतु नित्यं भवदीयमेवम्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब आप ऐसी कृपा करें जिससे भविष्यमें मुझे संसार-बन्धनको दूर करनेवाली आपके चरणारविन्दोंकी स्मृति सर्वदा बनी रहे, मेरी वाणी सर्वदा आपका नामसंकीर्तन करती रहे, कान आपका कथामृत पान करते रहें, हाथ आपके चरण-कमलोंका पूजन करते रहें और इसी प्रकार सिर आपके चरणयुगलोंमें प्रणाम करता रहे॥ ३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तुभ्यं भगवते विशुद्धज्ञानमूर्तये।
आत्मारामाय रामाय सीतारामाय वेधसे॥ ४१॥
मूलम्
नमस्तुभ्यं भगवते विशुद्धज्ञानमूर्तये।
आत्मारामाय रामाय सीतारामाय वेधसे॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप भगवन्! आपको नमस्कार है। आप अपने स्वरूपमें रमण करनेवाले होनेसे राम हैं, (अपनी मायाके सहित विराजमान होनेसे युगलमूर्ति) श्रीसीता-राम हैं और संसारके रचनेवाले हैं, आपको नमस्कार है॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रपन्नं पाहि मां राम यास्यामि त्वदनुज्ञया।
देवलोकं रघुश्रेष्ठ माया मां मावृणोतु ते॥ ४२॥
मूलम्
प्रपन्नं पाहि मां राम यास्यामि त्वदनुज्ञया।
देवलोकं रघुश्रेष्ठ माया मां मावृणोतु ते॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये। हे रघुश्रेष्ठ! आपकी आज्ञासे मैं देवलोकको जा रहा हूँ; आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आपकी माया मुझे आच्छादित न करे॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति विज्ञापितस्तेन प्रसन्नो रघुनन्दनः।
ददौ वरं तदा प्रीतो विराधाय महामतिः॥ ४३॥
मूलम्
इति विज्ञापितस्तेन प्रसन्नो रघुनन्दनः।
ददौ वरं तदा प्रीतो विराधाय महामतिः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराधके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर महामति श्रीरघुनाथजीने उसे प्रसन्न होकर यह वर दिया—॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ विद्याधराशेषमायादोषगुणा जिताः।
त्वया मद्दर्शनात्सद्यो मुक्तो ज्ञानवतां वरः॥ ४४॥
मूलम्
गच्छ विद्याधराशेषमायादोषगुणा जिताः।
त्वया मद्दर्शनात्सद्यो मुक्तो ज्ञानवतां वरः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे विद्याधर! अब तू जा। तूने मायाके सम्पूर्ण गुण-दोषोंको जीत लिया है। तू ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ है और मेरे दर्शनके प्रभावसे तुरंत मुक्त हो गया है॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्तिर्दुर्लभा लोके जाता चेन्मुक्तिदा यतः।
अतस्त्वं भक्तिसम्पन्नः परं याहि ममाज्ञया॥ ४५॥
मूलम्
मद्भक्तिर्दुर्लभा लोके जाता चेन्मुक्तिदा यतः।
अतस्त्वं भक्तिसम्पन्नः परं याहि ममाज्ञया॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें मेरी भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि वह उत्पन्न होती है तो अवश्य मुक्ति देनेवाली होती है। तू मेरी भक्तिसे सम्पन्न है, इसलिये मेरी आज्ञासे तू परमधामको जा’’॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामेण रक्षोनिधनं सुघोरं
शापाद्विमुक्तिर्वरदानमेवम्।
विद्याधरत्वं पुनरेव लब्धं
रामं गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान्॥४६॥
मूलम्
रामेण रक्षोनिधनं सुघोरं
शापाद्विमुक्तिर्वरदानमेवम्।
विद्याधरत्वं पुनरेव लब्धं
रामं गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान्॥४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इस प्रकार) श्रीरामचन्द्रजीने भयंकर राक्षसका वध किया, उसको शापसे मुक्त किया, उसको वरदान दिया और पुनः विद्याधरत्व प्राप्त कराया। जो पुरुष इन लीलाओंके कीर्तनद्वारा श्रीरामचन्द्रजीकी स्तुति करता है वह अवश्य सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थोंको पाता है॥ ४६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अरण्यकाण्डे प्रथमः सर्गः॥ १॥