०९

[नवम सर्ग]

भागसूचना

भगवान् राम और भरतका मिलन, भरतजीका अयोध्यापुरीको लौटना
और
श्रीरामचन्द्रजीका अत्रिमुनिके आश्रमपर जाना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ गत्वाश्रमपदसमीपं भरतो मुदा।
सीतारामपदैर्युक्तं पवित्रमतिशोभनम्॥ १॥

मूलम्

अथ गत्वाश्रमपदसमीपं भरतो मुदा।
सीतारामपदैर्युक्तं पवित्रमतिशोभनम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! तदनन्तर श्रीभरतजी अति मग्न मनसे सीता और रामके चरणचिह्नोंसे सुशोभित आश्रमके समीप अति सुन्दर और पवित्र स्थलमें पहुँचे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र वज्राङ्कुशवारिजाञ्चित-
ध्वजादिचिह्नानि पदानि सर्वतः।
ददर्श रामस्य भुवोऽतिमङ्गला-
न्यचेष्टयत्पादरजःसु सानुजः॥ २॥

मूलम्

स तत्र वज्राङ्कुशवारिजाञ्चित-
ध्वजादिचिह्नानि पदानि सर्वतः।
ददर्श रामस्य भुवोऽतिमङ्गला-
न्यचेष्टयत्पादरजःसु सानुजः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने सब ओर भगवान् रामचन्द्रके वज्र, अंकुश, कमल और ध्वजा आदिके चिह्नोंसे सुशोभित तथा पृथिवीके लिये अति मंगलमय चरण-चिह्न देखे। उन्हें देखकर भाई शत्रुघ्नके सहित वे उस चरणरजमें लोटने लगे॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो सुधन्योऽहममूनि राम-
पादारविन्दाङ्कितभूतलानि।
पश्यामि यत्पादरजो विमृग्यं
ब्रह्मादिदेवैः श्रुतिभिश्च नित्यम्॥ ३॥

मूलम्

अहो सुधन्योऽहममूनि राम-
पादारविन्दाङ्कितभूतलानि।
पश्यामि यत्पादरजो विमृग्यं
ब्रह्मादिदेवैः श्रुतिभिश्च नित्यम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

और मन-ही-मन कहने लगे—‘‘अहो! मैं परम धन्य हूँ, जो आज श्रीरामचन्द्रजीके उन चरणारविन्दोंके चिह्नोंसे सुशोभित भूमिको देख रहा हूँ जिनकी चरणरजको ब्रह्मा आदि देवगण और सम्पूर्ण श्रुतियाँ भी सदा खोजती रहती हैं’’॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यद्भुतप्रेमरसाप्लुताशयो
विगाढचेता रघुनाथभावने।
आनन्दजाश्रुस्नपितस्तनान्तरः
शनैरवापाश्रमसन्निधिं हरेः॥ ४॥

मूलम्

इत्यद्भुतप्रेमरसाप्लुताशयो
विगाढचेता रघुनाथभावने।
आनन्दजाश्रुस्नपितस्तनान्तरः
शनैरवापाश्रमसन्निधिं हरेः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जिनका हृदय अद्भुत प्रेमरससे भरा हुआ है, मन रघुनाथजीकी भावनामें डूबा हुआ है तथा वक्षःस्थल आनन्दाश्रुओंसे भीगा हुआ है, वे भरतजी धीरे-धीरे श्रीहरिके आश्रमके निकट पहुँचे॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र दृष्ट्वा रघुनाथमास्थितं
दूर्वादलश्यामलमायतेक्षणम्।
जटाकिरीटं नववल्कलाम्बरं
प्रसन्नवक्त्रं तरुणारुणद्युतिम्॥ ५॥

मूलम्

स तत्र दृष्ट्वा रघुनाथमास्थितं
दूर्वादलश्यामलमायतेक्षणम्।
जटाकिरीटं नववल्कलाम्बरं
प्रसन्नवक्त्रं तरुणारुणद्युतिम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने दूर्वादलके समान श्याम शरीर और विशाल नयन श्रीरघुनाथजीको बैठे हुए देखा, जो जटाओंका मुकुट और नवीन वल्कल-वस्त्र धारण किये थे तथा प्रसन्नवदन और मध्याह्न सूर्यके समान प्रभायुक्त थे॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोकयन्तं जनकात्मजां शुभां
सौमित्रिणा सेवितपादपङ्कजम्।
तदाभिदुद्राव रघूत्तमं शुचा
हर्षाच्च तत्पादयुगं त्वराग्रहीत्॥ ६॥

मूलम्

विलोकयन्तं जनकात्मजां शुभां
सौमित्रिणा सेवितपादपङ्कजम्।
तदाभिदुद्राव रघूत्तमं शुचा
हर्षाच्च तत्पादयुगं त्वराग्रहीत्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

एवं जो शुभलक्षणा श्रीजनकनन्दिनीकी ओर निहार रहे थे तथा श्रीलक्ष्मणजी जिनके चरणकमलोंकी सेवा कर रहे थे। उन्हें देखते ही भरतजीने दौड़कर हर्ष और शोकयुक्त होकर तुरंत उनके चरण-युगल पकड़ लिये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तमाकृष्य सुदीर्घबाहु-
र्दोर्भ्यां परिष्वज्य सिषिञ्च नेत्रजैः।
जलैरथाङ्कोपरि संन्यवेशयत्
पुनः पुनः संपरिषस्वजे विभुः॥ ७॥

मूलम्

रामस्तमाकृष्य सुदीर्घबाहु-
र्दोर्भ्यां परिष्वज्य सिषिञ्च नेत्रजैः।
जलैरथाङ्कोपरि संन्यवेशयत्
पुनः पुनः संपरिषस्वजे विभुः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़ी भुजाओंवाले श्रीरामचन्द्रजीने अपनी दोनों बाहुओंसे उन्हें उठाकर आलिंगन किया और उन्हें गोदमें बैठाकर अपने आँसुओंसे सींचते हुए बारम्बार हृदयसे लगाया॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ता मातरः सर्वाः समाजग्मुस्त्वरान्विताः।
राघवं द्रष्टुकामास्तास्तृषार्ता गौर्यथा जलम्॥ ८॥

मूलम्

अथ ता मातरः सर्वाः समाजग्मुस्त्वरान्विताः।
राघवं द्रष्टुकामास्तास्तृषार्ता गौर्यथा जलम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्यासी गौएँ जिस प्रकार जलकी ओर दौड़ती हैं, उसी प्रकार कौसल्या आदि समस्त माताएँ रघुनाथजीको देखनेके लिये बड़ी शीघ्रतासे चलीं॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः स्वमातरं वीक्ष्य द्रुतमुत्थाय पादयोः।
ववन्दे साश्रु सा पुत्रमालिङ्‍ग्यातीव दुःखिता॥ ९॥

मूलम्

रामः स्वमातरं वीक्ष्य द्रुतमुत्थाय पादयोः।
ववन्दे साश्रु सा पुत्रमालिङ्‍ग्यातीव दुःखिता॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामजीने अपनी माताको देखते ही शीघ्रतासे उठकर उनका चरण-वन्दन किया और उन्होंने अत्यन्त दुःखसे नेत्रोंमें जल भरकर पुत्रको हृदयसे लगाया॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतराश्च तथा नत्वा जननी रघुनन्दनः।
ततः समागतं दृष्ट्वा वसिष्ठं मुनिपुङ्गवम्॥ १०॥
साष्टाङ्गं प्रणिपत्याह धन्योऽस्मीति पुनः पुनः।
यथार्हमुपवेश्याह सर्वानेव रघूद्वहः॥ ११॥

मूलम्

इतराश्च तथा नत्वा जननी रघुनन्दनः।
ततः समागतं दृष्ट्वा वसिष्ठं मुनिपुङ्गवम्॥ १०॥
साष्टाङ्गं प्रणिपत्याह धन्योऽस्मीति पुनः पुनः।
यथार्हमुपवेश्याह सर्वानेव रघूद्वहः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरघुनाथजीने उसी प्रकार अन्य माताओंको भी प्रणाम किया। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीको आते देख, उन्हें साष्टांग प्रणामकर बारम्बार कहने लगे— ‘मैं धन्य हूँ, मैं धन्य हूँ’! फिर श्रीरघुनाथजीने सबको यथायोग्य बैठाकर पूछा—॥ १०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता मे कुशली किं वा मां किमाहातिदुःखितः।
वसिष्ठस्तमुवाचेदं पिता ते रघुनन्दन॥ १२॥
त्वद्वियोगाभितप्तात्मा त्वामेव परिचिन्तयन्।
राम रामेति सीतेति लक्ष्मणेति ममार ह॥ १३॥

मूलम्

पिता मे कुशली किं वा मां किमाहातिदुःखितः।
वसिष्ठस्तमुवाचेदं पिता ते रघुनन्दन॥ १२॥
त्वद्वियोगाभितप्तात्मा त्वामेव परिचिन्तयन्।
राम रामेति सीतेति लक्ष्मणेति ममार ह॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘कहिये, हमारे पिताजी कुशलसे हैं? उन्होंने मेरे वियोगसे अत्यन्त दुःखातुर होकर मेरे लिये क्या आज्ञा दी है?’’ तब वसिष्ठजीने कहा—‘‘हे रघुनन्दन! तुम्हारे पिताने तुम्हारे वियोगसे अति सन्तप्त होकर ‘हे राम! हे राम! हे सीते! हे लक्ष्मण!’ इस प्रकार तुम्हारा ही चिन्तन करते हुए अपने प्राण छोड़ दिये’’॥ १२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तत्कर्णशूलाभं गुरोर्वचनमञ्जसा।
हा हतोऽस्मीति पतितो रुदन् रामः सलक्ष्मणः॥ १४॥

मूलम्

श्रुत्वा तत्कर्णशूलाभं गुरोर्वचनमञ्जसा।
हा हतोऽस्मीति पतितो रुदन् रामः सलक्ष्मणः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

कानोंमें शूलके समान लगनेवाले गुरुके इन वचनोंको सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण ‘हाय! हम मारे गये’ इस प्रकार रोते हुए सहसा गिर पड़े॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽनुरुरुदुः सर्वा मातरश्च तथापरे।
हा तात मां परित्यज्य क्व गतोऽसि घृणाकर॥ १५॥

मूलम्

ततोऽनुरुरुदुः सर्वा मातरश्च तथापरे।
हा तात मां परित्यज्य क्व गतोऽसि घृणाकर॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब समस्त माताएँ और अन्यान्य सभी उपस्थित लोग रोने लगे। श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार कहने लगे—‘‘हा तात! हे दयामय! आप मुझे छोड़कर कहाँ चले गये?॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाथोऽस्मि महाबाहो मां को वा लालयेदितः।
सीता च लक्ष्मणश्चैव विलेपतुरतो भृशम्॥ १६॥

मूलम्

अनाथोऽस्मि महाबाहो मां को वा लालयेदितः।
सीता च लक्ष्मणश्चैव विलेपतुरतो भृशम्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाबाहो! मैं अनाथ हो गया; अब मुझे कौन लाड़ लड़ावेगा।’’ फिर इसी प्रकार सीता और लक्ष्मण भी बहुत विलाप करने लगे॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठः शान्तवचनैः शमयामास तां शुचम्।
ततो मन्दाकिनीं गत्वा स्नात्वा ते वीतकल्मषाः॥ १७॥

मूलम्

वसिष्ठः शान्तवचनैः शमयामास तां शुचम्।
ततो मन्दाकिनीं गत्वा स्नात्वा ते वीतकल्मषाः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वसिष्ठजीने शान्तिमय वाक्योंसे वह शोक शान्त किया और फिर सब लोग मन्दाकिनीपर जाकर स्नान करके पवित्र हुए॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञे ददुर्जलं तत्र सर्वे ते जलकाङ्क्षिणे।
पिण्डान्निर्वापयामास रामो लक्ष्मणसंयुतः॥ १८॥

मूलम्

राज्ञे ददुर्जलं तत्र सर्वे ते जलकाङ्क्षिणे।
पिण्डान्निर्वापयामास रामो लक्ष्मणसंयुतः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सबने जलकांक्षी महाराज दशरथको जलांजलि दी तथा लक्ष्मणजीके सहित श्रीरामचन्द्रजीने पिण्डदान किया॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इङ्गुदीफलपिण्याकरचितान्मधुसम्प्लुतान्।
वयं यदन्नाः पितरस्तदन्नाः स्मृतिनोदिताः॥ १९॥

मूलम्

इङ्गुदीफलपिण्याकरचितान्मधुसम्प्लुतान्।
वयं यदन्नाः पितरस्तदन्नाः स्मृतिनोदिताः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो हमारा अन्न है वही अन्न हमारे पितरोंको प्रिय होगा, यही स्मृतिकी आज्ञा है’ ऐसा कह उन्होंने इंगुदीफलके पिण्ड बना उनपर मधु डालकर उन्हें दान किया॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति दुःखाश्रुपूर्णाक्षः पुनः स्नात्वा गृहं ययौ।
सर्वे रुदित्वा सुचिरं स्नात्वा जग्मुस्तदाश्रमम्॥ २०॥

मूलम्

इति दुःखाश्रुपूर्णाक्षः पुनः स्नात्वा गृहं ययौ।
सर्वे रुदित्वा सुचिरं स्नात्वा जग्मुस्तदाश्रमम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर नेत्रोंमें शोकाश्रु भरे हुए वे पुनः स्नानकर आश्रममें आये। इसी प्रकार और सब भी बहुत देरतक रोकर अन्तमें स्नान करके आश्रमको लौटे॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तु दिवसे सर्वे उपवासं प्रचक्रिरे।
ततः परेद्युर्विमले स्नात्वा मन्दाकिनीजले॥ २१॥
उपविष्टं समागम्य भरतो राममब्रवीत्।
राम राम महाभाग स्वात्मानमभिषेचय॥२२॥

मूलम्

तस्मिंस्तु दिवसे सर्वे उपवासं प्रचक्रिरे।
ततः परेद्युर्विमले स्नात्वा मन्दाकिनीजले॥ २१॥
उपविष्टं समागम्य भरतो राममब्रवीत्।
राम राम महाभाग स्वात्मानमभिषेचय॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दिन सबने उपवास किया। दूसरे दिन मन्दाकिनीके निर्मल जलमें स्नान कर भरतजीने आश्रममें बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजीके पास आकर कहा—‘‘हे राम! हे राम! हे महाभाग! आप अपना अभिषेक करवाइये॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं पालय पित्र्यं ते ज्येष्ठस्त्वं मे पिता यथा।
क्षत्रियाणामयं धर्मो यत्प्रजापरिपालनम्॥ २३॥

मूलम्

राज्यं पालय पित्र्यं ते ज्येष्ठस्त्वं मे पिता यथा।
क्षत्रियाणामयं धर्मो यत्प्रजापरिपालनम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह पैतृक राज्य आपहीका है, आप इसका पालन करें। आप हमारे बड़े भाई हैं, अतः पितृतुल्य हैं। महाराज! प्रजाका पालन करना यही क्षत्रियोंका मुख्य धर्म है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्ट्वा यज्ञैर्बहुविधैः पुत्रानुत्पाद्य तन्तवे।
राज्ये पुत्रं समारोप्य गमिष्यसि ततो वनम्॥ २४॥

मूलम्

इष्ट्वा यज्ञैर्बहुविधैः पुत्रानुत्पाद्य तन्तवे।
राज्ये पुत्रं समारोप्य गमिष्यसि ततो वनम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप नाना प्रकारके यज्ञोंसे यजन करके फिर वंशवृद्धिके लिये पुत्र उत्पन्न कर उसे (बड़े होनेपर) राजसिंहासनपर बैठाकर तब वनको जायें॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदानीं वनवासस्य कालो नैव प्रसीद मे।
मातुर्मे दुष्कृतं किञ्चित्स्मर्तुं नार्हसि पाहि नः॥ २५॥

मूलम्

इदानीं वनवासस्य कालो नैव प्रसीद मे।
मातुर्मे दुष्कृतं किञ्चित्स्मर्तुं नार्हसि पाहि नः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! अभी वनवासका समय नहीं है, आप मुझपर प्रसन्न होइये। मेरी माताका जो कुछ अपराध है उसे भूल जाइये और हमारी रक्षा कीजिये’’॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा चरणौ भ्रातुः शिरस्याधाय भक्तितः।
रामस्य पुरतः साक्षाद्दण्डवत्पतितो भुवि॥ २६॥

मूलम्

इत्युक्त्वा चरणौ भ्रातुः शिरस्याधाय भक्तितः।
रामस्य पुरतः साक्षाद्दण्डवत्पतितो भुवि॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर उन्होंने भाईके चरणोंको भक्तिपूर्वक अपने मस्तकपर रख लिया और श्रीरामचन्द्रजीके सम्मुख दण्डके समान पृथ्वीपर गिर पड़े॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थाप्य राघवः शीघ्रमारोप्याङ्केऽतिभक्तितः।
उवाच भरतं रामः स्नेहार्द्रनयनः शनैः॥ २७॥

मूलम्

उत्थाप्य राघवः शीघ्रमारोप्याङ्केऽतिभक्तितः।
उवाच भरतं रामः स्नेहार्द्रनयनः शनैः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामजीने भरतको शीघ्रतासे उठाकर अति प्रेमपूर्वक गोदमें बैठा लिया और नेत्रोंमें प्रेमाश्रु भरकर धीरे-धीरे उनसे कहने लगे—॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि त्वयोक्तं यत्तथैव तत्।
किन्तु मामब्रवीत्तातो नव वर्षाणि पञ्च च॥ २८॥
उषित्वा दण्डकारण्ये पुरं पश्चात्समाविश।
इदानीं भरतायेदं राज्यं दत्तं मयाखिलम्॥ २९॥

मूलम्

शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि त्वयोक्तं यत्तथैव तत्।
किन्तु मामब्रवीत्तातो नव वर्षाणि पञ्च च॥ २८॥
उषित्वा दण्डकारण्ये पुरं पश्चात्समाविश।
इदानीं भरतायेदं राज्यं दत्तं मयाखिलम्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘भाई! मैं जो कहता हूँ वह सुनो। तुम जो कुछ कहते हो सो बिलकुल ठीक है। किन्तु पिताजीने मुझे आज्ञा दी थी कि चौदह वर्ष दण्डकारण्यमें रहकर फिर अयोध्यामें आना; इस समय यह सम्पूर्ण राज्य मैं भरतको देता हूँ॥ २८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पित्रैव सुव्यक्तं राज्यं दत्तं तवैव हि।
दण्डकारण्यराज्यं मे दत्तं पित्रा तथैव च॥ ३०॥

मूलम्

ततः पित्रैव सुव्यक्तं राज्यं दत्तं तवैव हि।
दण्डकारण्यराज्यं मे दत्तं पित्रा तथैव च॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः स्पष्ट ही पिताजीने यह राज्य तो तुम्हींको दिया है और वैसे ही मुझे उन्होंने दण्डकारण्यका राज्य दिया है॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः पितुर्वचः कार्यमावाभ्यामतियत्नतः।
पितुर्वचनमुल्लङ्‍घ्य स्वतन्त्रो यस्तु वर्तते॥ ३१॥
स जीवन्नेव मृतको देहान्ते निरयं व्रजेत्।
तस्माद्राज्यं प्रशाधि त्वं वयं दण्डकपालकाः॥ ३२॥

मूलम्

अतः पितुर्वचः कार्यमावाभ्यामतियत्नतः।
पितुर्वचनमुल्लङ्‍घ्य स्वतन्त्रो यस्तु वर्तते॥ ३१॥
स जीवन्नेव मृतको देहान्ते निरयं व्रजेत्।
तस्माद्राज्यं प्रशाधि त्वं वयं दण्डकपालकाः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये हम दोनोंको ही प्रयत्नपूर्वक पिताजीके वचनोंको सफल करना चाहिये। जो मनुष्य अपने पिताके वचनोंका उल्लंघन कर स्वेच्छापूर्वक बर्तता है वह जीता हुआ भी मृतकके समान है और शरीर छोड़नेपर नरकको जाता है। अतः तुम राज्य-शासन करो, हम दण्डकवनकी रक्षा करेंगे’’॥ ३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतस्त्वब्रवीद्रामं कामुको मूढधीः पिता।
स्त्रीजितो भ्रान्तहृदय उन्मत्तो यदि वक्ष्यति।
तत्सत्यमिति न ग्राह्यं भ्रान्तवाक्यं यथा सुधीः॥ ३३॥

मूलम्

भरतस्त्वब्रवीद्रामं कामुको मूढधीः पिता।
स्त्रीजितो भ्रान्तहृदय उन्मत्तो यदि वक्ष्यति।
तत्सत्यमिति न ग्राह्यं भ्रान्तवाक्यं यथा सुधीः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भरतजीने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—‘‘यदि पिताजीने कामी, मूढ़बुद्धि, स्त्रीके वशीभूत, भ्रान्तचित्त और उन्मत्त होनेके कारण ऐसा कह भी दिया है तो भी उसे सत्य न मानना चाहिये; जिस प्रकार बुद्धिमान् लोग भ्रान्त पुरुषोंके वाक्यका आदर नहीं करते’’॥ ३३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीराम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्त्रीजितः पिता ब्रूयान्न कामी नैव मूढधीः।
पूर्वं प्रतिश्रुतं तस्य सत्यवादी ददौ भयात्॥ ३४॥

मूलम्

न स्त्रीजितः पिता ब्रूयान्न कामी नैव मूढधीः।
पूर्वं प्रतिश्रुतं तस्य सत्यवादी ददौ भयात्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी बोले—पिताजीने स्त्रीवश, कामवश अथवा मूढ़बुद्धि होकर ऐसा नहीं कहा। उन सत्यवादीने अपने पूर्व-प्रतिज्ञानुसार ही प्रतिज्ञा-भंगके भयसे ये वर दिये थे॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असत्याद्भीतिरधिका महतां नरकादपि।
करोमीत्यहमप्येतत्सत्यं तस्यै प्रतिश्रुतम्॥ ३५॥
कथं वाक्यमहं कुर्यामसत्यं राघवो हि सन्।
इत्युदीरितमाकर्ण्य रामस्य भरतोऽब्रवीत्॥ ३६॥

मूलम्

असत्याद्भीतिरधिका महतां नरकादपि।
करोमीत्यहमप्येतत्सत्यं तस्यै प्रतिश्रुतम्॥ ३५॥
कथं वाक्यमहं कुर्यामसत्यं राघवो हि सन्।
इत्युदीरितमाकर्ण्य रामस्य भरतोऽब्रवीत्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

महान् पुरुषोंको असत्यसे नरककी अपेक्षा भी अधिक भय हुआ करता है। मैं भी ‘ऐसा ही करूँगा’ यह कहकर उनसे सत्य-प्रतिज्ञा कर चुका हूँ फिर मैं रघुवंशमें जन्म लेकर अपना वचन कैसे उलट सकता हूँ? रामजीका यह कथन सुनकर भरतजी बोले—॥ ३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव चीरवसनो वने वत्स्यामि सुव्रत।
चतुर्दश समास्त्वं तु राज्यं कुरु यथासुखम्॥ ३७॥

मूलम्

तथैव चीरवसनो वने वत्स्यामि सुव्रत।
चतुर्दश समास्त्वं तु राज्यं कुरु यथासुखम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे सुव्रत! पिताजीके कथनानुसार मैं तो आपके समान चौदह वर्षतक वल्कल-वस्त्र धारणकर वनमें रहूँगा और आप सुखपूर्वक राज्य भोगिये’’॥ ३७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीराम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रा दत्तं तवैवैतद्राज्यं मह्यं वनं ददौ।
व्यत्ययं यद्यहं कुर्यामसत्यं पूर्ववत् स्थितम्॥ ३८॥

मूलम्

पित्रा दत्तं तवैवैतद्राज्यं मह्यं वनं ददौ।
व्यत्ययं यद्यहं कुर्यामसत्यं पूर्ववत् स्थितम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी बोले—पिताजीने तुमको यह राज्य और मुझे वनवास दिया है। अब यदि मैं इसका उलटा करूँ तो असत्य ज्यों-का-त्यों ही रहता है॥ ३८॥

मूलम् (वचनम्)

भरत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्यागमिष्यामि सेवे त्वां लक्ष्मणो यथा।
नोचेत्प्रायोपवेशेन त्यजाम्येतत्कलेवरम्॥ ३९॥

मूलम्

अहमप्यागमिष्यामि सेवे त्वां लक्ष्मणो यथा।
नोचेत्प्रायोपवेशेन त्यजाम्येतत्कलेवरम्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी बोले—(अच्छा, यदि आप वनसे नहीं लौटना चाहते तो मुझे आज्ञा दीजिये जिससे) मैं भी वनमें आकर लक्ष्मणके समान ही आपकी सेवा करूँ, नहीं तो मैं अन्न-जल छोड़कर इस शरीरको त्याग दूँगा॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं निश्चयं कृत्वा दर्भानास्तीर्य चातपे।
मनसापि विनिश्चित्य प्राङ्मुखोपविवेश सः॥ ४०॥

मूलम्

इत्येवं निश्चयं कृत्वा दर्भानास्तीर्य चातपे।
मनसापि विनिश्चित्य प्राङ्मुखोपविवेश सः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना ऐसा निश्चय प्रकट कर और मनमें भी यही ठानकर वे धूपमें कुशा बिछाकर पूर्वकी ओर मुख करके बैठ गये॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतस्यापि निर्बन्धं दृष्ट्वा रामोऽतिविस्मितः।
नेत्रान्तसंज्ञां गुरवे चकार रघुनन्दनः॥ ४१॥

मूलम्

भरतस्यापि निर्बन्धं दृष्ट्वा रामोऽतिविस्मितः।
नेत्रान्तसंज्ञां गुरवे चकार रघुनन्दनः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका ऐसा हठ देखकर श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त विस्मित हो गुरु वसिष्ठजीको नेत्रोंसे संकेत किया॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकान्ते भरतं प्राह वसिष्ठो ज्ञानिनां वरः।
वत्स गुह्यं शृणुष्वेदं मम वाक्यात्सुनिश्चितम्॥ ४२॥

मूलम्

एकान्ते भरतं प्राह वसिष्ठो ज्ञानिनां वरः।
वत्स गुह्यं शृणुष्वेदं मम वाक्यात्सुनिश्चितम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीने भरतको एकान्तमें ले जाकर कहा—‘‘वत्स! मैं जो कहता हूँ यह सुनिश्चित गुह्य रहस्यकी बात सुनो॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो नारायणः साक्षाद्‍ब्रह्मणा याचितः पुरा।
रावणस्य वधार्थाय जातो दशरथात्मजः॥ ४३॥

मूलम्

रामो नारायणः साक्षाद्‍ब्रह्मणा याचितः पुरा।
रावणस्य वधार्थाय जातो दशरथात्मजः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम साक्षात् नारायण हैं। पूर्वकालमें ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर उन्होंने रावणको मारनेके लिये दशरथके यहाँ पुत्ररूपसे जन्म लिया है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगमायापि सीतेति जाता जनकनन्दिनी।
शेषोऽपि लक्ष्मणो जातो राममन्वेति सर्वदा॥ ४४॥

मूलम्

योगमायापि सीतेति जाता जनकनन्दिनी।
शेषोऽपि लक्ष्मणो जातो राममन्वेति सर्वदा॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार योगमायाने जनकनन्दिनी सीताके रूपसे अवतार लिया है और शेषजी लक्ष्मणके रूपसे उत्पन्न होकर उनका अनुगमन कर रहे हैं॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणं हन्तुकामास्ते गमिष्यन्ति न संशयः।
कैकेय्या वरदानादि यद्यन्निष्ठुरभाषणम्॥ ४५॥
सर्वं देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्।
तस्मात्त्यजाग्रहं तात रामस्य विनिवर्तने॥ ४६॥

मूलम्

रावणं हन्तुकामास्ते गमिष्यन्ति न संशयः।
कैकेय्या वरदानादि यद्यन्निष्ठुरभाषणम्॥ ४५॥
सर्वं देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्।
तस्मात्त्यजाग्रहं तात रामस्य विनिवर्तने॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे रावणको मारना चाहते हैं इसलिये निस्सन्देह वनको ही जायँगे। कैकेयीके जो कुछ भी वरदान आदि और निष्ठुर भाषण आदि कार्य हैं वे सब देवताओंकी प्रेरणासे ही हुए हैं, नहीं तो वह ऐसे वचन कैसे बोल सकती थी? इसलिये हे तात! तुम रामको लौटानेका आग्रह छोड़ दो॥ ४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्तस्व महासैन्यैर्मातृभिः सहितः पुरम्।
रावणं सकुलं हत्वा शीघ्रमेवागमिष्यति॥ ४७॥

मूलम्

निवर्तस्व महासैन्यैर्मातृभिः सहितः पुरम्।
रावणं सकुलं हत्वा शीघ्रमेवागमिष्यति॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

और माताओं तथा महती सेनाके सहित अयोध्याको लौट चलो; राम भी कुलसहित रावणका संहार करके वहाँ शीघ्र ही आ जायँगे’’॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं भरतो विस्मयान्वितः।
गत्वा समीपं रामस्य विस्मयोत्फुल्ललोचनः॥ ४८॥

मूलम्

इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं भरतो विस्मयान्वितः।
गत्वा समीपं रामस्य विस्मयोत्फुल्ललोचनः॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीके ये वचन सुनकर भरतको अति विस्मय हुआ और उन्होंने आश्चर्यचकित होकर श्रीरामचन्द्रजीके पास जाकर कहा—॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते।
तयोः सेवां करोम्येव यावदागमनं तव॥ ४९॥

मूलम्

पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते।
तयोः सेवां करोम्येव यावदागमनं तव॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे राजेन्द्र! आप मुझे राज्य-शासनके लिये अपनी जगत्पूज्य चरण-पादुकाएँ दीजिये। जबतक आप लौटेंगे तबतक मैं उन्हींकी सेवा करता रहूँगा’’॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पादुके दिव्ये योजयामास पादयोः।
रामस्य ते ददौ रामो भरतायातिभक्तितः॥ ५०॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पादुके दिव्ये योजयामास पादयोः।
रामस्य ते ददौ रामो भरतायातिभक्तितः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर भरतजीने उनके चरणोंमें दो दिव्य पादुकाएँ (खड़ाऊँ) पहना दीं। श्रीरामचन्द्रजीने भरतका भक्ति-भाव देखकर वे खड़ाऊँ उन्हें दे दीं॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत्वा पादुके दिव्ये भरतो रत्नभूषिते।
रामं पुनः परिक्रम्य प्रणनाम पुनः पुनः॥ ५१॥

मूलम्

गृहीत्वा पादुके दिव्ये भरतो रत्नभूषिते।
रामं पुनः परिक्रम्य प्रणनाम पुनः पुनः॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने वे रत्नजटित दिव्य पादुकाएँ लेकर श्रीरामचन्द्रजीकी परिक्रमा की और उन्हें बारम्बार प्रणाम किया॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतः पुनराहेदं भक्त्या गद्‍गदया गिरा।
नवपञ्चसमान्ते तु प्रथमे दिवसे यदि॥ ५२॥
नागमिष्यसि चेद्राम प्रविशामि महानलम्।
बाढमित्येव तं रामो भरतं संन्यवर्तयत्॥ ५३॥

मूलम्

भरतः पुनराहेदं भक्त्या गद्‍गदया गिरा।
नवपञ्चसमान्ते तु प्रथमे दिवसे यदि॥ ५२॥
नागमिष्यसि चेद्राम प्रविशामि महानलम्।
बाढमित्येव तं रामो भरतं संन्यवर्तयत्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनुसार वे भक्तिवश गद्‍गद-वाणीसे बोले— ‘‘हे राम! यदि चौदह वर्षके व्यतीत होनेपर आप पहले दिन ही अयोध्या न पहुँचे तो मैं महान् अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा।’’ तब रामचन्द्रजीने ‘बहुत अच्छा’ कह भरतजीको विदा किया॥ ५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससैन्यः सवसिष्ठश्च शत्रुघ्नसहितः सुधीः।
मातृभिर्मन्त्रिभिः सार्धं गमनायोपचक्रमे॥ ५४॥

मूलम्

ससैन्यः सवसिष्ठश्च शत्रुघ्नसहितः सुधीः।
मातृभिर्मन्त्रिभिः सार्धं गमनायोपचक्रमे॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदुपरान्त बुद्धिमान् भरतजीने सम्पूर्ण सेना, वसिष्ठ, शत्रुघ्न, समस्त माताओं तथा मन्त्रियोंके साथ चलनेकी तैयारी की॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैकेयी राममेकान्ते स्रवन्नेत्रजलाकुला।
प्राञ्जलिः प्राह हे राम तव राज्यविघातनम्॥ ५५॥
कृतं मया दुष्टधिया मायामोहितचेतसा।
क्षमस्व मम दौरात्म्यं क्षमासारा हि साधवः॥ ५६॥

मूलम्

कैकेयी राममेकान्ते स्रवन्नेत्रजलाकुला।
प्राञ्जलिः प्राह हे राम तव राज्यविघातनम्॥ ५५॥
कृतं मया दुष्टधिया मायामोहितचेतसा।
क्षमस्व मम दौरात्म्यं क्षमासारा हि साधवः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय कैकेयीने एकान्त स्थानमें नेत्रोंमें जल भरकर हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—‘‘हे राम! मायासे मुग्धचित्त हो जानेके कारण मुझ कुबुद्धिने तुम्हारे राज्याभिषेकमें विघ्न डाल दिया सो तुम मेरी इस कुटिलताको क्षमा करना; क्योंकि साधुजन सर्वदा क्षमाशील ही होते हैं॥ ५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं साक्षाद्विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः।
मायामानुषरूपेण मोहयस्यखिलं जगत्।
त्वयैव प्रेरितो लोकः कुरुते साध्वसाधु वा॥ ५७॥

मूलम्

त्वं साक्षाद्विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः।
मायामानुषरूपेण मोहयस्यखिलं जगत्।
त्वयैव प्रेरितो लोकः कुरुते साध्वसाधु वा॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप साक्षात् विष्णुभगवान्, अव्यक्त परमात्मा और सनातन पुरुष हैं। अपने मायामय मनुष्यरूपसे आप समस्त संसारको मोहित कर रहे हैं। आपकी ही प्रेरणासे लोग शुभ अथवा अशुभ कर्म करते हैं॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वदधीनमिदं विश्वमस्वतन्त्रं करोति किम्।
यथा कृत्रिमनर्तक्यो नृत्यन्ति कुहकेच्छया॥ ५८॥

मूलम्

त्वदधीनमिदं विश्वमस्वतन्त्रं करोति किम्।
यथा कृत्रिमनर्तक्यो नृत्यन्ति कुहकेच्छया॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सम्पूर्ण विश्व आपहीके अधीन है, अस्वतन्त्र होनेके कारण यह स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता; जिस प्रकार कृत्रिम नर्तकियाँ (कठपुतलियाँ) सूत्रधार (बाजीगर)-के इच्छानुसार ही नाचती हैं॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वदधीना तथा माया नर्तकी बहुरूपिणी।
त्वयैव प्रेरिताहं च देवकार्यं करिष्यता॥ ५९॥
पापिष्ठं पापमनसा कर्माचरमरिन्दम।
अद्य प्रतीतोऽसि मम देवानामप्यगोचरः॥ ६०॥

मूलम्

त्वदधीना तथा माया नर्तकी बहुरूपिणी।
त्वयैव प्रेरिताहं च देवकार्यं करिष्यता॥ ५९॥
पापिष्ठं पापमनसा कर्माचरमरिन्दम।
अद्य प्रतीतोऽसि मम देवानामप्यगोचरः॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी प्रकार नाना आकार धारण करनेवाली यह मायारूपिणी नटी आपहीके अधीन है और हे शत्रुदमन! देवताओंका कार्य सिद्ध करनेकी इच्छावाले आपहीके द्वारा प्रेरित होकर मुझ पापिनीने अपनी दुष्टबुद्धिसे यह पापकर्म किया था। आज मैंने आपको जान लिया, आप देवताओंके भी मन और वाणी आदिसे परे हैं॥ ५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाहि विश्वेश्वरानन्त जगन्नाथ नमोऽस्तु ते।
छिन्धि स्नेहमयं पाशं पुत्रवित्तादिगोचरम्॥ ६१॥
त्वज्ज्ञानानलखड्गेन त्वामहं शरणं गता।
कैकेय्या वचनं श्रुत्वा रामः सस्मितमब्रवीत्॥ ६२॥

मूलम्

पाहि विश्वेश्वरानन्त जगन्नाथ नमोऽस्तु ते।
छिन्धि स्नेहमयं पाशं पुत्रवित्तादिगोचरम्॥ ६१॥
त्वज्ज्ञानानलखड्गेन त्वामहं शरणं गता।
कैकेय्या वचनं श्रुत्वा रामः सस्मितमब्रवीत्॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विश्वेश्वर! हे अनन्त! आप मेरी रक्षा कीजिये। हे जगन्नाथ! आपको नमस्कार है। हे प्रभो! मैं आपकी शरण हूँ। आप अपने ज्ञानाग्निरूप खड्गसे मेरे पुत्र और धन आदिके स्नेह-बन्धनको काट डालिये’’! कैकेयीके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने मुसकराकर कहा—॥ ६१-६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाह मां महाभागे नानृतं सत्यमेव तत्।
मयैव प्रेरिता वाणी तव वक्त्राद्विनिर्गता॥ ६३॥
देवकार्यार्थसिद्‍ध्यर्थमत्र दोषः कुतस्तव।
गच्छ त्वं हृदि मां नित्यं भावयन्ती दिवानिशम्॥ ६४॥
सर्वत्र विगतस्नेहा मद्भक्त्या मोक्ष्यसेऽचिरात्।
अहं सर्वत्र समदृग् द्वेष्यो वा प्रिय एव वा॥ ६५॥

मूलम्

यदाह मां महाभागे नानृतं सत्यमेव तत्।
मयैव प्रेरिता वाणी तव वक्त्राद्विनिर्गता॥ ६३॥
देवकार्यार्थसिद्‍ध्यर्थमत्र दोषः कुतस्तव।
गच्छ त्वं हृदि मां नित्यं भावयन्ती दिवानिशम्॥ ६४॥
सर्वत्र विगतस्नेहा मद्भक्त्या मोक्ष्यसेऽचिरात्।
अहं सर्वत्र समदृग् द्वेष्यो वा प्रिय एव वा॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे महाभागे! तुमने जो कुछ कहा है वह ठीक ही है, मिथ्या नहीं। मेरी प्रेरणासे ही देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये तुम्हारे मुखसे वे शब्द निकले थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। अब तुम जाओ; अहर्निश निरन्तर हृदयमें मेरी ही भावना करनेसे तुम सर्वत्र स्नेहरहित होकर मेरी भक्तिद्वारा शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी। मैं सर्वत्र समदर्शी हूँ, मेरा कोई भी प्रिय या अप्रिय नहीं है॥ ६३—६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति मे कल्पकस्येव भजतोऽनुभजाम्यहम्।
मन्मायामोहितधियो मामम्ब मनुजाकृतिम्॥ ६६॥
सुखदुःखाद्यनुगतं जानन्ति न तु तत्त्वतः।
दिष्ट्या मद्‍गोचरं ज्ञानमुत्पन्नं ते भवापहम्॥ ६७॥
स्मरन्ती तिष्ठ भवने लिप्यसे न च कर्मभिः।
इत्युक्ता सा परिक्रम्य रामं सानन्दविस्मया॥ ६८॥
प्रणम्य शतशो भूमौ ययौ गेहं मुदान्विता।
भरतस्तु सहामात्यैर्मातृभिर्गुरुणा सह॥ ६९॥

मूलम्

नास्ति मे कल्पकस्येव भजतोऽनुभजाम्यहम्।
मन्मायामोहितधियो मामम्ब मनुजाकृतिम्॥ ६६॥
सुखदुःखाद्यनुगतं जानन्ति न तु तत्त्वतः।
दिष्ट्या मद्‍गोचरं ज्ञानमुत्पन्नं ते भवापहम्॥ ६७॥
स्मरन्ती तिष्ठ भवने लिप्यसे न च कर्मभिः।
इत्युक्ता सा परिक्रम्य रामं सानन्दविस्मया॥ ६८॥
प्रणम्य शतशो भूमौ ययौ गेहं मुदान्विता।
भरतस्तु सहामात्यैर्मातृभिर्गुरुणा सह॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायावी पुरुष जिस प्रकार अपनी ही मायासे रचे पदार्थोंमें राग-द्वेष नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भी किसीमें राग-द्वेष नहीं है। जो पुरुष जिस प्रकार मेरा भजन करता है मैं भी वैसे ही उसका ध्यान रखता हूँ। हे मातः! मेरी मायासे मोहित होकर लोग मुझे सुख-दुःखके वशीभूत साधारण मनुष्य जानते हैं। वे मेरे वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। तुम्हारा बड़ा भाग्य है जो तुम्हें संसार-भयको दूर करनेवाला मेरा तत्त्वज्ञान उत्पन्न हुआ है तुम मेरा स्मरण करती हुई घरहीमें रहो, इससे तुम कर्म-बन्धनमें नहीं बँधोगी’’ रामचन्द्रजीके इस प्रकार कहनेपर कैकेयीने आनन्द और विस्मयपूर्वक रामकी परिक्रमा की और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें सैकड़ों बार प्रणामकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घरको चली तथा भरतजी मन्त्रिगण, माताओं और वसिष्ठजीके साथ श्रीरामचन्द्रजीका ही स्मरण करते हुए शीघ्रतासे अयोध्याको चले॥ ६६—६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोध्यामगमच्छीघ्रं राममेवानुचिन्तयन्।
पौरजानपदान् सर्वानयोध्यायामुदारधीः॥ ७०॥
स्थापयित्वा यथान्यायं नन्दिग्रामं ययौ स्वयम्।
तत्र सिंहासने नित्यं पादुके स्थाप्य भक्तितः॥ ७१॥
पूजयित्वा यथा रामं गन्धपुष्पाक्षतादिभिः।
राजोपचारैरखिलैः प्रत्यहं नियतव्रतः॥ ७२॥
फलमूलाशनो दान्तो जटावल्कलधारकः।
अधःशायी ब्रह्मचारी शत्रुघ्नसहितस्तदा॥ ७३॥

मूलम्

अयोध्यामगमच्छीघ्रं राममेवानुचिन्तयन्।
पौरजानपदान् सर्वानयोध्यायामुदारधीः॥ ७०॥
स्थापयित्वा यथान्यायं नन्दिग्रामं ययौ स्वयम्।
तत्र सिंहासने नित्यं पादुके स्थाप्य भक्तितः॥ ७१॥
पूजयित्वा यथा रामं गन्धपुष्पाक्षतादिभिः।
राजोपचारैरखिलैः प्रत्यहं नियतव्रतः॥ ७२॥
फलमूलाशनो दान्तो जटावल्कलधारकः।
अधःशायी ब्रह्मचारी शत्रुघ्नसहितस्तदा॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदार-बुद्धि भरतजी समस्त पुरवासी और देशवासियोंको यथायोग्य अयोध्यापुरीमें बसाकर स्वयं नन्दिग्रामको चले गये। वहाँ एक सिंहासनपर उन दोनों पादुकाओंको रखकर वे श्रीरामचन्द्रजीके समान ही उनकी नित्यप्रति भक्तिपूर्वक गन्ध, पुष्प और अक्षतादि सम्पूर्ण राजोचित सामग्रीसे पूजा करने लगे। इस प्रकार भरतजी फल-मूल खाते, इन्द्रिय-दमन करते, जटा और वल्कल धारण किये, पृथिवीपर शयन करते और ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए शत्रुघ्नके साथ रहने लगे॥ ७०—७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजकार्याणि सर्वाणि यावन्ति पृथिवीतले।
तानि पादुकयोः सम्यङ् ‍निवेदयति राघवः॥ ७४॥

मूलम्

राजकार्याणि सर्वाणि यावन्ति पृथिवीतले।
तानि पादुकयोः सम्यङ् ‍निवेदयति राघवः॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथिवीके जितने राजकार्य होते उन सबको वे रघुश्रेष्ठ (भरतजी) पादुकाओंके सामने निवेदन कर दिया करते थे॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गणयन् दिवसानेव रामागमनकाङ्क्षया।
स्थितो रामार्पितमनाः साक्षाद्‍ब्रह्ममुनिर्यथा॥ ७५॥

मूलम्

गणयन् दिवसानेव रामागमनकाङ्क्षया।
स्थितो रामार्पितमनाः साक्षाद्‍ब्रह्ममुनिर्यथा॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार रामचन्द्रजीके आगमनकी प्रतीक्षासे अवधिके दिन गिनते हुए वे राममें ही मन लगाकर साक्षात् ब्रह्मर्षिके समान रहने लगे॥ ७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तु चित्रकूटाद्रौ वसन्मुनिभिरावृतः।
सीतया लक्ष्मणेनापि किञ्चित्कालमुपावसत्॥ ७६॥

मूलम्

रामस्तु चित्रकूटाद्रौ वसन्मुनिभिरावृतः।
सीतया लक्ष्मणेनापि किञ्चित्कालमुपावसत्॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर रामचन्द्रजीने भी मुनियोंसे घिरे रहकर सीता और लक्ष्मणके साथ चित्रकूट-पर्वतपर कुछ दिन बिताये॥ ७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागराश्च सदा यान्ति रामदर्शनलालसाः।
चित्रकूटस्थितं ज्ञात्वा सीतया लक्ष्मणेन च॥ ७७॥

मूलम्

नागराश्च सदा यान्ति रामदर्शनलालसाः।
चित्रकूटस्थितं ज्ञात्वा सीतया लक्ष्मणेन च॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामचन्द्रजीको सीता और लक्ष्मणके साथ चित्रकूटपर विराजमान सुनकर आस-पासके नगरनिवासी उनके दर्शनोंकी इच्छासे सदैव आया करते थे॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा तज्जनसम्बाधं रामस्तत्याज तं गिरिम्।
दण्डकारण्यगमने कार्यमप्यनुचिन्तयन्॥ ७८॥

मूलम्

दृष्ट्वा तज्जनसम्बाधं रामस्तत्याज तं गिरिम्।
दण्डकारण्यगमने कार्यमप्यनुचिन्तयन्॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामचन्द्रजीने उस भीड़-भाड़को देखकर और अपने दण्डकारण्यमें जानेके कार्यको भी विचारकर उस पर्वतको छोड़ दिया॥ ७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्वगात्सीतया भ्रात्रा ह्यत्रेराश्रममुत्तमम्।
सर्वत्र सुखसंवासं जनसम्बाधवर्जितम्॥ ७९॥

मूलम्

अन्वगात्सीतया भ्रात्रा ह्यत्रेराश्रममुत्तमम्।
सर्वत्र सुखसंवासं जनसम्बाधवर्जितम्॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे चलकर वे सीता तथा लक्ष्मणके सहित अत्रि मुनिके अति उत्तम और जन-समूह-शून्य आश्रममें आये जो सब प्रकार सुखपूर्वक रहनेयोग्य था॥ ७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा मुनिमुपासीनं भासयन्तं तपोवनम्।
दण्डवत्प्रणिपत्याह रामोऽहमभिवादये॥ ८०॥

मूलम्

गत्वा मुनिमुपासीनं भासयन्तं तपोवनम्।
दण्डवत्प्रणिपत्याह रामोऽहमभिवादये॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने अपने आश्रममें विराजमान और सम्पूर्ण तपोवनको प्रकाशित करते हुए मुनीश्वरके पास जा उन्हें दण्डवत्-प्रणाम करके कहा—‘‘मैं राम आपका अभिवादन करता हूँ॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दण्डकाननमागतः।
वनवासमिषेणापि धन्योऽहं दर्शनात्तव॥ ८१॥

मूलम्

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दण्डकाननमागतः।
वनवासमिषेणापि धन्योऽहं दर्शनात्तव॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पिताकी आज्ञासे दण्डकारण्यमें आया हूँ। इस समय वनवासके मिषसे भी आपका दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया’’॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा रामस्य वचनं रामं ज्ञात्वा हरिं परम्।
पूजयामास विधिवद्भक्त्या परमया मुनिः॥ ८२॥

मूलम्

श्रुत्वा रामस्य वचनं रामं ज्ञात्वा हरिं परम्।
पूजयामास विधिवद्भक्त्या परमया मुनिः॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामचन्द्रजीके ये वचन सुन मुनीश्वरने उन्हें साक्षात् परब्रह्म जान उनकी अत्यन्त भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा की॥ ८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वन्यैः फलैः कृतातिथ्यमुपविष्टं रघूत्तमम्।
सीतां च लक्ष्मणं चैव संतुष्टो वाक्यमब्रवीत्॥ ८३॥

मूलम्

वन्यैः फलैः कृतातिथ्यमुपविष्टं रघूत्तमम्।
सीतां च लक्ष्मणं चैव संतुष्टो वाक्यमब्रवीत्॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वन्य फलोंसे उनका आतिथ्य-सत्कार कर उन्होंने आसनपर विराजमान रघुनाथजी, महारानी सीता और लक्ष्मणजीसे प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार कहा—॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्या मेऽतीव संवृद्धा ह्यनसूयेति विश्रुता।
तपश्चरन्ती सुचिरं धर्मज्ञा धर्मवत्सला॥ ८४॥

मूलम्

भार्या मेऽतीव संवृद्धा ह्यनसूयेति विश्रुता।
तपश्चरन्ती सुचिरं धर्मज्ञा धर्मवत्सला॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘मेरी भार्या ‘अनसूया’ नामसे विख्यात है, वह अति वृद्धा है, बहुत दिनोंसे तपस्या करती है, धर्मको जाननेवाली है और धर्ममें प्रेम रखनेवाली है॥ ८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तस्तिष्ठति तां सीता पश्यत्वरिनिषूदन।
तथेति जानकीं प्राह रामो राजीवलोचनः॥ ८५॥

मूलम्

अन्तस्तिष्ठति तां सीता पश्यत्वरिनिषूदन।
तथेति जानकीं प्राह रामो राजीवलोचनः॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय वह कुटीके भीतर है। हे शत्रुदमन राम! सीता उससे मिल लें।’’ तब कमललोचन रामचन्द्रजीने ‘बहुत अच्छा’ कह जानकीजीसे कहा—॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ देवीं नमस्कृत्य शीघ्रमेहि पुनः शुभे।
तथेति रामवचनं सीता चापि तथाकरोत्॥ ८६॥

मूलम्

गच्छ देवीं नमस्कृत्य शीघ्रमेहि पुनः शुभे।
तथेति रामवचनं सीता चापि तथाकरोत्॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे शुभे! जाओ, तुम शीघ्र ही देवी अनसूयाजीको प्रणाम कर आओ।’’ सीताजीने ‘बहुत अच्छा’ कह रामचन्द्रजीकी आज्ञाका पालन किया॥ ८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डवत्पतितामग्रे सीतां दृष्ट्वातिहृष्टधीः।
अनसूया समालिङ्‍ग्य वत्से सीतेति सादरम्॥ ८७॥
दिव्ये ददौ कुण्डले द्वे निर्मिते विश्वकर्मणा।
दुकूले द्वे ददौ तस्यै निर्मले भक्तिसंयुता॥ ८८॥

मूलम्

दण्डवत्पतितामग्रे सीतां दृष्ट्वातिहृष्टधीः।
अनसूया समालिङ्‍ग्य वत्से सीतेति सादरम्॥ ८७॥
दिव्ये ददौ कुण्डले द्वे निर्मिते विश्वकर्मणा।
दुकूले द्वे ददौ तस्यै निर्मले भक्तिसंयुता॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनसूयाजीने अपने सम्मुख सीताजीको दण्डके समान पड़ी देख अति हर्षित हो ‘बेटी सीता!’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक आलिंगन किया और भक्तिसहित उन्हें विश्वकर्माके बनाये हुए दो दिव्य कुण्डल और दो स्वच्छ रेशमी साड़ियाँ दीं॥ ८७-८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गरागं च सीतायै ददौ दिव्यं शुभानना।
न त्यक्ष्यतेऽङ्गरागेण शोभा त्वां कमलानने॥ ८९॥

मूलम्

अङ्गरागं च सीतायै ददौ दिव्यं शुभानना।
न त्यक्ष्यतेऽङ्गरागेण शोभा त्वां कमलानने॥ ८९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मुखवाली अनसूयाजीने उन्हें दिव्य अंगराग भी दिया और कहा—‘‘हे कमलमुखि! इस अंगरागके लगानेसे तेरे शरीरकी शोभा कभी कम न होगी॥ ८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातिव्रत्यं पुरस्कृत्य राममन्वेहि जानकि।
कुशली राघवो यातु त्वया सह पुनर्गृहम्॥ ९०॥

मूलम्

पातिव्रत्यं पुरस्कृत्य राममन्वेहि जानकि।
कुशली राघवो यातु त्वया सह पुनर्गृहम्॥ ९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जानकि! तुम पातिव्रत्यका पालन करती हुई सदा रामकी ही अनुगामिनी रहना। रघुनाथजी तुम्हारे साथ कुशलपूर्वक घर लौटें’’॥ ९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजयित्वा यथान्यायं रामं सीतासमन्वितम्।
लक्ष्मणं च तदा रामं पुनः प्राह कृताञ्जलिः॥ ९१॥

मूलम्

भोजयित्वा यथान्यायं रामं सीतासमन्वितम्।
लक्ष्मणं च तदा रामं पुनः प्राह कृताञ्जलिः॥ ९१॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने विधिपूर्वक लक्ष्मण और सीताजीके सहित श्रीरामचन्द्रजीको भोजन कराया। तत्पश्चात् उन्होंने फिर श्रीरामजीसे हाथ जोड़कर कहा—॥ ९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम त्वमेव भुवनानि विधाय तेषां
संरक्षणाय सुरमानुषतिर्यगादीन्।
देहान्बिभर्षि न च देहगुणैर्विलिप्त-
स्त्वत्तो बिभेत्यखिलमोहकरी च माया॥ ९२॥

मूलम्

राम त्वमेव भुवनानि विधाय तेषां
संरक्षणाय सुरमानुषतिर्यगादीन्।
देहान्बिभर्षि न च देहगुणैर्विलिप्त-
स्त्वत्तो बिभेत्यखिलमोहकरी च माया॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे राम! इन सम्पूर्ण भुवनोंकी रचना करके आप ही इनकी रक्षाके लिये देवता, मनुष्य और तिर्यगादि योनियोंमें शरीर धारण करते हैं, तथापि देहके गुणोंसे आप लिप्त नहीं होते। सम्पूर्ण संसारको मोहित करनेवाली माया भी आपसे सदा डरती रहती है’’॥ ९२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे नवमः सर्गः॥ ९॥
समाप्तमिदमयोध्याकाण्डम्