[अष्टम सर्ग]
भागसूचना
भरतजीका वनको प्रस्थान, मार्गमें गुह और भरद्वाजजीसे भेंट तथा चित्रकूटदर्शन
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठो मुनिभिः सार्धं मन्त्रिभिः परिवारितः।
राज्ञः सभां देवसभासन्निभामविशद्विभुः॥ १॥
मूलम्
वसिष्ठो मुनिभिः सार्धं मन्त्रिभिः परिवारितः।
राज्ञः सभां देवसभासन्निभामविशद्विभुः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! एक दिन मुनीश्वरोंके सहित मन्त्रियोंसे घिरे हुए भगवान् वसिष्ठजी देवसभाके सदृश राजसभामें आये॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रासने समासीनश्चतुर्मुख इवापरः।
आनीय भरतं तत्र उपवेश्य सहानुजम्॥ २॥
मूलम्
तत्रासने समासीनश्चतुर्मुख इवापरः।
आनीय भरतं तत्र उपवेश्य सहानुजम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ दूसरे ब्रह्माजीके समान आसनपर विराजमान श्रीवसिष्ठजीने भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजीको बुलाकर आसनपर बैठाया॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीद्वचनं देशकालोचितमरिन्दमम्।
वत्स राज्येऽभिषेक्ष्यामस्त्वामद्य पितृशासनात्॥ ३॥
मूलम्
अब्रवीद्वचनं देशकालोचितमरिन्दमम्।
वत्स राज्येऽभिषेक्ष्यामस्त्वामद्य पितृशासनात्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन शत्रुदमन भरतजीसे इस प्रकार देशकालोचित वाक्योंमें कहा—‘‘वत्स! तुम्हारे पिताके कथनानुसार आज हम तुम्हें राजपदपर अभिषिक्त करेंगे॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेय्या याचितं राज्यं त्वदर्थे पुरुषर्षभ।
सत्यसन्धो दशरथः प्रतिज्ञाय ददौ किल॥ ४॥
अभिषेको भवत्वद्य मुनिभिर्मन्त्रपूर्वकम्।
तच्छ्रुत्वा भरतोऽप्याह मम राज्येन किं मुने॥ ५॥
मूलम्
कैकेय्या याचितं राज्यं त्वदर्थे पुरुषर्षभ।
सत्यसन्धो दशरथः प्रतिज्ञाय ददौ किल॥ ४॥
अभिषेको भवत्वद्य मुनिभिर्मन्त्रपूर्वकम्।
तच्छ्रुत्वा भरतोऽप्याह मम राज्येन किं मुने॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पुरुषश्रेष्ठ! कैकेयीने तुम्हारे लिये राजा दशरथसे राज्य माँगा था। राजा सत्यपरायण थे, इसलिये प्रतिज्ञा करनेके कारण उन्होंने उसे दे दिया। अतः मुनिजनों द्वारा मन्त्रोच्चारपूर्वक आज तुम्हारा अभिषेक होना चाहिये’’ यह सुनकर भरतजी बोले—‘‘हे मुनिनाथ! राज्यसे मेरा क्या प्रयोजन है?॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो राजाधिराजश्च वयं तस्यैव किङ्कराः।
श्वःप्रभाते गमिष्यामो राममानेतुमञ्जसा॥ ६॥
मूलम्
रामो राजाधिराजश्च वयं तस्यैव किङ्कराः।
श्वःप्रभाते गमिष्यामो राममानेतुमञ्जसा॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज राम ही राजाधिराज हैं, हम तो उन्हींके दास हैं। कल प्रातःकाल रामजीको लानेके लिये हम शीघ्र ही वनको जायँगे॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं यूयं मातरश्च कैकेयीं राक्षसीं विना।
हनिष्याम्यधुनैवाहं कैकेयीं मातृगन्धिनीम्॥ ७॥
किन्तु मां नो रघुश्रेष्ठः स्त्रीहन्तारं सहिष्यते।
तच्छ्वोभूते गमिष्यामि पादचारेण दण्डकान्॥ ८॥
शत्रुघ्नसहितस्तूर्णं यूयमायात वा न वा।
रामो यथा वने यातस्तथाहं वल्कलाम्बरः॥ ९॥
फलमूलकृताहारः शत्रुघ्नसहितो मुने।
भूमिशायी जटाधारी यावद्रामो निवर्तते॥ १०॥
मूलम्
अहं यूयं मातरश्च कैकेयीं राक्षसीं विना।
हनिष्याम्यधुनैवाहं कैकेयीं मातृगन्धिनीम्॥ ७॥
किन्तु मां नो रघुश्रेष्ठः स्त्रीहन्तारं सहिष्यते।
तच्छ्वोभूते गमिष्यामि पादचारेण दण्डकान्॥ ८॥
शत्रुघ्नसहितस्तूर्णं यूयमायात वा न वा।
रामो यथा वने यातस्तथाहं वल्कलाम्बरः॥ ९॥
फलमूलकृताहारः शत्रुघ्नसहितो मुने।
भूमिशायी जटाधारी यावद्रामो निवर्तते॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं, आप सब लोग और राक्षसी कैकेयीके सिवा अन्य सब माताएँ—ये सभी वनको चलेंगे। मैं क्या करूँ? मैं तो इस नाममात्रकी माता कैकेयीको अभी मार डालता, किंतु श्रीरघुनाथजी मुझ स्त्रीहत्यारेको क्षमा न करेंगे। अतः कुछ भी हो, कल प्रातःकाल होते ही, आपलोग चलें या न चलें मैं तो शत्रुघ्नके सहित पैदल ही दण्डकारण्यको जाऊँगा। हे मुने! जिस प्रकार रामजी गये हैं उसी प्रकार जबतक रामचन्द्रजी न लौटेंगे तबतक मैं भी शत्रुघ्नके सहित वल्कल-वस्त्र और जटाजूट धारणकर कन्द-मूल-फलादिका भोजन करूँगा और पृथिवीपर शयन करूँगा’’॥ ७—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चित्य भरतस्तूष्णीमेवावतस्थिवान्।
साधुसाध्विति तं सर्वे प्रशशंसुर्मुदान्विताः॥ ११॥
मूलम्
इति निश्चित्य भरतस्तूष्णीमेवावतस्थिवान्।
साधुसाध्विति तं सर्वे प्रशशंसुर्मुदान्विताः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय कर भरतजी मौन हो गये। तब सब लोग प्रसन्न होकर ‘साधु-साधु’ कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रभाते भरतं गच्छन्तं सर्वसैनिकाः।
अनुजग्मुः सुमन्त्रेण नोदिताः साश्वकुञ्जराः॥ १२॥
मूलम्
ततः प्रभाते भरतं गच्छन्तं सर्वसैनिकाः।
अनुजग्मुः सुमन्त्रेण नोदिताः साश्वकुञ्जराः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर प्रातःकाल होनेपर भरतजीके कूच करते समय हाथी और घोड़ोंके सहित समस्त सैनिक सुमन्त्रकी प्रेरणासे उनके साथ चले॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसल्याद्या राजदारा वसिष्ठप्रमुखा द्विजाः।
छादयन्तो भुवं सर्वे पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः॥ १३॥
मूलम्
कौसल्याद्या राजदारा वसिष्ठप्रमुखा द्विजाः।
छादयन्तो भुवं सर्वे पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौसल्या आदि महारानियाँ तथा वसिष्ठ आदि द्विजगण पृथिवीको आच्छादन कर उनके आगे-पीछे और इधर-उधर यथायोग्य रीतिसे चलने लगे॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृङ्गवेरपुरं गत्वा गङ्गाकूले समन्ततः।
उवास महती सेना शत्रुघ्नपरिचोदिता॥ १४॥
मूलम्
शृङ्गवेरपुरं गत्वा गङ्गाकूले समन्ततः।
उवास महती सेना शत्रुघ्नपरिचोदिता॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शृंगवेरपुर पहुँचनेपर वह महान् सेना शत्रुघ्नकी प्रेरणासे गंगातटपर जहाँ-तहाँ ठहर गयी॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतं भरतं श्रुत्वा गुहः शङ्कितमानसः।
महत्या सेनया सार्धमागतो भरतः किल॥ १५॥
पापं कर्तुं न वा याति रामस्याविदितात्मनः।
गत्वा तद्धदयं ज्ञेयं यदि शुद्धस्तरिष्यति॥ १६॥
मूलम्
आगतं भरतं श्रुत्वा गुहः शङ्कितमानसः।
महत्या सेनया सार्धमागतो भरतः किल॥ १५॥
पापं कर्तुं न वा याति रामस्याविदितात्मनः।
गत्वा तद्धदयं ज्ञेयं यदि शुद्धस्तरिष्यति॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतका आगमन सुन गुहको यह शंका हुई कि भरत बड़ी सेना लेकर आये हैं, अतः ये रामके अनजानमें उनका कोई अनिष्ट करनेके लिये न जाते हों? मुझे उनके पास जाकर उनका मर्म जानना चाहिये। यदि उनका भाव ठीक हो तब तो वे भले ही पार चले जायँ॥ १५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गङ्गां नोचेत्समाकृष्य नावस्तिष्ठन्तु सायुधाः।
ज्ञातयो मे समायत्ताः पश्यन्तः सर्वतो दिशम्॥ १७॥
मूलम्
गङ्गां नोचेत्समाकृष्य नावस्तिष्ठन्तु सायुधाः।
ज्ञातयो मे समायत्ताः पश्यन्तः सर्वतो दिशम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहीं तो (इसके विपरीत उपाय करना पड़ेगा अतः) मेरे जातिवाले अस्त्र-शस्त्र लेकर सावधानीसे सब ओर देखते हुए चौकस रहें और सब नावोंको खींचकर गंगाके बीचमें खड़ी कर दें॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सर्वान् समादिश्य गुहो भरतमागतः।
उपायनानि संगृह्य विविधानि बहून्यपि॥ १८॥
प्रययौ ज्ञातिभिः सार्धं बहुभिर्विविधायुधैः।
निवेद्योपायनान्यग्रे भरतस्य समन्ततः॥ १९॥
दृष्ट्वा भरतमासीनं सानुजं सह मन्त्रिभिः।
चीराम्बरं घनश्यामं जटामुकुटधारिणम्॥ २०॥
मूलम्
इति सर्वान् समादिश्य गुहो भरतमागतः।
उपायनानि संगृह्य विविधानि बहून्यपि॥ १८॥
प्रययौ ज्ञातिभिः सार्धं बहुभिर्विविधायुधैः।
निवेद्योपायनान्यग्रे भरतस्य समन्ततः॥ १९॥
दृष्ट्वा भरतमासीनं सानुजं सह मन्त्रिभिः।
चीराम्बरं घनश्यामं जटामुकुटधारिणम्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सबको आज्ञा दे गुह नाना प्रकारकी बहुत-सी भेंटें लेकर अपने बहुत-से हथियारबंद जाति-भाइयोंके साथ भरतजीके पास आया। वहाँ उनके सामने सब सामग्री रखकर इधर-उधर देखते हुए उसने देखा कि मेघश्याम भरत चीर-वस्त्र और जटाजूट धारण किये छोटे भाई तथा मन्त्रियोंके साथ बैठे हैं॥ १८—२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राममेवानुशोचन्तं रामरामेति वादिनम्।
ननाम शिरसा भूमौ गुहोऽहमिति चाब्रवीत्॥ २१॥
मूलम्
राममेवानुशोचन्तं रामरामेति वादिनम्।
ननाम शिरसा भूमौ गुहोऽहमिति चाब्रवीत्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे रामहीका स्मरण कर रहे हैं और ‘राम-नाम’ का ही जप कर रहे हैं। यह देखकर उसने पृथिवीपर सिर रखकर भरतजीको प्रणाम किया और बोला—‘मैं गुह हूँ’॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रमुत्थाप्य भरतो गाढमालिङ्ग्य सादरम्।
पृष्ट्वानामयमव्यग्रः सखायमिदमब्रवीत्॥ २२॥
मूलम्
शीघ्रमुत्थाप्य भरतो गाढमालिङ्ग्य सादरम्।
पृष्ट्वानामयमव्यग्रः सखायमिदमब्रवीत्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतजीने उसे शीघ्र ही उठाकर आदरपूर्वक गाढ़ आलिंगन किया और प्रसन्नमुखसे उसकी कुशल पूछकर उससे सखाभावसे इस प्रकार बोले—॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातस्त्वं राघवेणात्र समेतः समवस्थितः।
रामेणालिङ्गितः सार्द्रनयनेनामलात्मना॥ २३॥
मूलम्
भ्रातस्त्वं राघवेणात्र समेतः समवस्थितः।
रामेणालिङ्गितः सार्द्रनयनेनामलात्मना॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भैया! तुम यहाँ श्रीरामचन्द्रके साथ रहे थे और निर्मलहृदय श्रीरामने नेत्रोंमें जल भरकर तुम्हारा आलिंगन किया था॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि यत्त्वया परिभाषितः।
रामो राजीवपत्राक्षो लक्ष्मणेन च सीतया॥ २४॥
मूलम्
धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि यत्त्वया परिभाषितः।
रामो राजीवपत्राक्षो लक्ष्मणेन च सीतया॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमसे सीता और लक्ष्मणके सहित कमलनयन रामने वार्तालाप किया। अतः तुम धन्य हो, तुम्हारा जीवन सफल है॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र रामस्त्वया दृष्टस्तत्र मां नय सुव्रत।
सीतया सहितो यत्र सुप्तस्तद्दर्शयस्व मे॥ २५॥
मूलम्
यत्र रामस्त्वया दृष्टस्तत्र मां नय सुव्रत।
सीतया सहितो यत्र सुप्तस्तद्दर्शयस्व मे॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सुव्रत! तुमने श्रीरामचन्द्रजीको जहाँ देखा था मुझे वहीं ले चलो, जहाँ वे सीताके सहित सोये थे वह स्थान मुझे दिखाओ॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं रामस्य प्रियतमो भक्तिमानसि भाग्यवान्।
इति संस्मृत्य संस्मृत्य रामं साश्रुविलोचनः॥ २६॥
मूलम्
त्वं रामस्य प्रियतमो भक्तिमानसि भाग्यवान्।
इति संस्मृत्य संस्मृत्य रामं साश्रुविलोचनः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम रामके प्रियतम सखा और भाग्यवान् भक्त हो।’’ इस प्रकार पुनः-पुनः रामका स्मरण करनेसे भरतजीके नेत्रोंमें जल भर आया॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहेन सहितस्तत्र यत्र रामः स्थितो निशि।
ययौ ददर्श शयनस्थलं कुशसमास्तृतम्॥ २७॥
मूलम्
गुहेन सहितस्तत्र यत्र रामः स्थितो निशि।
ययौ ददर्श शयनस्थलं कुशसमास्तृतम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विरहव्याकुल हुए वे गुहके साथ उस स्थानपर पहुँचे जहाँ रात्रिके समय श्रीरामने निवास किया था। वहाँ जाकर उन्होंने उस कुशा बिछे हुए शयन-स्थानको देखा॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीताभरणसंलग्नस्वर्णबिन्दुभिरर्चितम्।
दुःखसन्तप्तहृदयो भरतः पर्यदेवयत्॥ २८॥
मूलम्
सीताभरणसंलग्नस्वर्णबिन्दुभिरर्चितम्।
दुःखसन्तप्तहृदयो भरतः पर्यदेवयत्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सीताजीके आभूषणोंसे झड़े हुए सुवर्णकणोंसे सुशोभित था। उसे देखकर भरतजीका हृदय दुःखसे भर आया और वे इस प्रकार विलाप करने लगे—॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहोऽतिसुकुमारी या सीता जनकनन्दिनी।
प्रासादे रत्नपर्यङ्के कोमलास्तरणे शुभे॥ २९॥
रामेण सहिता शेते सा कथं कुशविष्टरे।
सीता रामेण सहिता दुःखेन मम दोषतः॥ ३०॥
मूलम्
अहोऽतिसुकुमारी या सीता जनकनन्दिनी।
प्रासादे रत्नपर्यङ्के कोमलास्तरणे शुभे॥ २९॥
रामेण सहिता शेते सा कथं कुशविष्टरे।
सीता रामेण सहिता दुःखेन मम दोषतः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अहो! जो अति सुकुमारी जनकदुलारी सीता राजमहलमें कोमल बिछौनेसे युक्त अति सुन्दर रत्नपर्यंकपर श्रीरघुनाथजीके साथ शयन किया करती थीं, वे ही मेरे दोषसे श्रीरामचन्द्रजीके साथ इस कुशाओंकी साथरीपर किस प्रकार क्लेशपूर्वक सोती होंगी?॥ २९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिङ् मां जातोऽस्मि कैकेय्यां पापराशिसमानतः।
मन्निमित्तमिदं क्लेशं रामस्य परमात्मनः॥ ३१॥
मूलम्
धिङ् मां जातोऽस्मि कैकेय्यां पापराशिसमानतः।
मन्निमित्तमिदं क्लेशं रामस्य परमात्मनः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे धिक्कार है! जो मैं मूर्तिमान् पापपुंजके समान कैकेयीके गर्भसे उत्पन्न हुआ हूँ। हाय! मेरे लिये ही परमात्मा रामको यह क्लेश उठाना पड़ा॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहोऽतिसफलं जन्म लक्ष्मणस्य महात्मनः।
राममेव सदान्वेति वनस्थमपि हृष्टधीः॥ ३२॥
मूलम्
अहोऽतिसफलं जन्म लक्ष्मणस्य महात्मनः।
राममेव सदान्वेति वनस्थमपि हृष्टधीः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहा! महात्मा लक्ष्मणका जन्म अत्यन्त सफल है, जो भगवान् रामके वनमें रहते समय भी सदा प्रसन्न मनसे उन्हींका अनुसरण करते हैं॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं रामस्य दासा ये तेषां दासस्य किङ्करः।
यदि स्यां सफलं जन्म मम भूयान्न संशयः॥ ३३॥
मूलम्
अहं रामस्य दासा ये तेषां दासस्य किङ्करः।
यदि स्यां सफलं जन्म मम भूयान्न संशयः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग रामके दास हैं उनके दासोंका दास भी यदि मैं हो जाऊँ तो मेरा जन्म सफल हो जाय—इसमें संदेह नहीं॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातर्जानासि यदि तत्कथयस्व ममाखिलम्।
यत्र तिष्ठति तत्राहं गच्छाम्यानेतुमञ्जसा॥ ३४॥
मूलम्
भ्रातर्जानासि यदि तत्कथयस्व ममाखिलम्।
यत्र तिष्ठति तत्राहं गच्छाम्यानेतुमञ्जसा॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाई! यदि तुम्हें मालूम हो तो मुझे यह सब बताओ कि राम कहाँ हैं? वे जहाँ कहीं भी होंगे, मैं उन्हें तुरंत लानेके लिये वहीं जाऊँगा’’॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहस्तं शुद्धहृदयं ज्ञात्वा सस्नेहमब्रवीत्।
देव त्वमेव धन्योऽसि यस्य ते भक्तिरीदृशी॥ ३५॥
रामे राजीवपत्राक्षे सीतायां लक्ष्मणे तथा।
चित्रकूटाद्रिनिकटे मन्दाकिन्यविदूरतः॥ ३६॥
मुनीनामाश्रमपदे रामस्तिष्ठति सानुजः।
जानक्या सहितो नन्दात्सुखमास्ते किल प्रभुः॥ ३७॥
मूलम्
गुहस्तं शुद्धहृदयं ज्ञात्वा सस्नेहमब्रवीत्।
देव त्वमेव धन्योऽसि यस्य ते भक्तिरीदृशी॥ ३५॥
रामे राजीवपत्राक्षे सीतायां लक्ष्मणे तथा।
चित्रकूटाद्रिनिकटे मन्दाकिन्यविदूरतः॥ ३६॥
मुनीनामाश्रमपदे रामस्तिष्ठति सानुजः।
जानक्या सहितो नन्दात्सुखमास्ते किल प्रभुः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुहने उनका चित्त शुद्ध देखकर स्नेहपूर्वक कहा—‘‘स्वामिन्! आपकी कमलनयन राम, सीता और लक्ष्मणमें ऐसी विशुद्ध भक्ति है, अतः आप ही धन्य हैं। छोटे भाई लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्र चित्रकूट-पर्वतके पास मन्दाकिनी नदीके समीप मुनियोंके आश्रममें रहते हैं। वहाँ जानकीके सहित भगवान् राम आनन्द और सुखपूर्वक विराजमान हैं॥ ३५—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गच्छामहे शीघ्रं गङ्गां तर्तुमिहार्हसि।
इत्युक्त्वा त्वरितं गत्वा नावः पञ्चशतानि ह॥ ३८॥
समानयत्ससैन्यस्य तर्तुं गङ्गां महानदीम्।
स्वयमेवानिनायैकां राजनावं गुहस्तदा॥ ३९॥
मूलम्
तत्र गच्छामहे शीघ्रं गङ्गां तर्तुमिहार्हसि।
इत्युक्त्वा त्वरितं गत्वा नावः पञ्चशतानि ह॥ ३८॥
समानयत्ससैन्यस्य तर्तुं गङ्गां महानदीम्।
स्वयमेवानिनायैकां राजनावं गुहस्तदा॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
चलिये, शीघ्र ही हमलोग वहाँ चलें। पहले आपलोग यहाँ गंगाजी पार कर लें।’’ ऐसा कहकर उसने तुरंत ही सेनाके सहित भरतजीको महानदी गंगाजीसे पार करनेके लिये पाँच सौ नावें मँगवायीं और स्वयं एक राजनौका ले आया॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरोप्य भरतं तत्र शत्रुघ्नं राममातरम्।
वसिष्ठं च तथान्यत्र कैकेयीं चान्ययोषितः॥ ४०॥
मूलम्
आरोप्य भरतं तत्र शत्रुघ्नं राममातरम्।
वसिष्ठं च तथान्यत्र कैकेयीं चान्ययोषितः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें भरत, शत्रुघ्न, रामकी माता कौसल्या और वसिष्ठजीको चढ़ाया तथा एक दूसरी नावमें कैकेयी आदि अन्य राजमहिलाओंको सवार किया॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्त्वा गङ्गां ययौ शीघ्रं भरद्वाजाश्रमं प्रति।
दूरे स्थाप्य महासैन्यं भरतः सानुजो ययौ॥ ४१॥
मूलम्
तीर्त्वा गङ्गां ययौ शीघ्रं भरद्वाजाश्रमं प्रति।
दूरे स्थाप्य महासैन्यं भरतः सानुजो ययौ॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शीघ्र ही गंगाजीको पार कर वे भरद्वाज मुनिके आश्रमकी ओर चले। वहाँ अपनी महान् सेनाको आश्रमसे दूर छोड़कर भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजी आश्रमपर गये॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमे मुनिमासीनं ज्वलन्तमिव पावकम्।
दृष्ट्वा ननाम भरतः साष्टाङ्गमतिभक्तितः॥ ४२॥
मूलम्
आश्रमे मुनिमासीनं ज्वलन्तमिव पावकम्।
दृष्ट्वा ननाम भरतः साष्टाङ्गमतिभक्तितः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी मुनिवर भरद्वाजको आश्रममें बैठे देख उन्हें अति भक्तिपूर्वक साष्टांग प्रणाम किया॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा दाशरथिं प्रीत्या पूजयामास मौनिराट्।
पप्रच्छ कुशलं दृष्ट्वा जटावल्कलधारिणम्॥ ४३॥
मूलम्
ज्ञात्वा दाशरथिं प्रीत्या पूजयामास मौनिराट्।
पप्रच्छ कुशलं दृष्ट्वा जटावल्कलधारिणम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनीश्वरको जब मालूम हुआ कि वे दशरथनन्दन भरत हैं, तब उन्होंने प्रीतिपूर्वक उनकी पूजा की और उन्हें जटा-वल्कलादि धारण किये देख कुशल-प्रश्नके अनन्तर पूछा—॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यं प्रशासतस्तेऽद्य किमेतद्वल्कलादिकम्।
आगतोऽसि किमर्थं त्वं विपिनं मुनिसेवितम्॥ ४४॥
मूलम्
राज्यं प्रशासतस्तेऽद्य किमेतद्वल्कलादिकम्।
आगतोऽसि किमर्थं त्वं विपिनं मुनिसेवितम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भाई भरत! राज्य-शासन करते हुए तुमने आज यह वल्कलादि कैसे धारण कर लिये और इस मुनिजनसेवित तपोवनमें तुम किसलिये आये हो?’’॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरद्वाजवचः श्रुत्वा भरतः साश्रुलोचनः।
सर्वं जानासि भगवन् सर्वभूताशयस्थितः॥ ४५॥
मूलम्
भरद्वाजवचः श्रुत्वा भरतः साश्रुलोचनः।
सर्वं जानासि भगवन् सर्वभूताशयस्थितः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरद्वाजके ये वचन सुनकर भरतने नेत्रोंमें जल भरकर कहा—‘‘भगवन्! आप सब जानते हैं, क्योंकि आप सर्वान्तर्यामी हैं॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि पृच्छसे किञ्चित्तदनुग्रह एव मे।
कैकेय्या यत्कृतं कर्म रामराज्यविघातनम्॥ ४६॥
वनवासादिकं वापि न हि जानामि किञ्चन।
भवत्पादयुगं मेऽद्य प्रमाणं मुनिसत्तम॥ ४७॥
मूलम्
तथापि पृच्छसे किञ्चित्तदनुग्रह एव मे।
कैकेय्या यत्कृतं कर्म रामराज्यविघातनम्॥ ४६॥
वनवासादिकं वापि न हि जानामि किञ्चन।
भवत्पादयुगं मेऽद्य प्रमाणं मुनिसत्तम॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी आप जो कुछ पूछ रहे हैं, वह मेरे ऊपर आपकी कृपा ही है। कैकेयीने श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकमें विघ्न उपस्थित करनेवाला और वनवासादिविषयक जो कुछ कार्य किया है, हे मुनिश्रेष्ठ! आपके चरणोंका साक्षी करके कहता हूँ, मुझे उसके विषयमें कुछ भी पता नहीं था’’॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा पादयुगलं मुनेः स्पृष्ट्वार्त्तमानसः।
ज्ञातुमर्हसि मां देव शुद्धो वाशुद्ध एव वा॥ ४८॥
मूलम्
इत्युक्त्वा पादयुगलं मुनेः स्पृष्ट्वार्त्तमानसः।
ज्ञातुमर्हसि मां देव शुद्धो वाशुद्ध एव वा॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह उन्होंने अति आर्तचित्त हो मुनिके चरणयुगल पकड़कर कहा—‘‘भगवन्! आप स्वयं जान सकते हैं कि मैं दोषी हूँ या निर्दोष॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम राज्येन किं स्वामिन् रामे तिष्ठति राजनि।
किङ्करोऽहं मुनिश्रेष्ठ रामचन्द्रस्य शाश्वतः॥ ४९॥
मूलम्
मम राज्येन किं स्वामिन् रामे तिष्ठति राजनि।
किङ्करोऽहं मुनिश्रेष्ठ रामचन्द्रस्य शाश्वतः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे स्वामिन्! महाराज रामके रहते हुए मुझे राज्यसे क्या प्रयोजन है? हे मुनिश्रेष्ठ! मैं तो सदासे ही श्रीरामचन्द्रका दास हूँ॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो गत्वा मुनिश्रेष्ठ रामस्य चरणान्तिके।
पतित्वा राज्यसम्भारान् समर्प्यात्रैव राघवम्॥ ५०॥
मूलम्
अतो गत्वा मुनिश्रेष्ठ रामस्य चरणान्तिके।
पतित्वा राज्यसम्भारान् समर्प्यात्रैव राघवम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे मुनिनाथ! मैं श्रीरामचन्द्रजीके पास जाकर उनके चरण-कमलोंमें पड़कर यह सारी राजपाटकी सामग्री उन्हें यहीं सौंप दूँगा॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषेक्ष्ये वसिष्ठाद्यैः पौरजानपदैः सह।
नेष्येऽयोध्यां रमानाथं दासः सेवेऽतिनीचवत्॥ ५१॥
मूलम्
अभिषेक्ष्ये वसिष्ठाद्यैः पौरजानपदैः सह।
नेष्येऽयोध्यां रमानाथं दासः सेवेऽतिनीचवत्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा वसिष्ठ आदि पुरजन और जनपदवासियोंके साथ मिलकर उनका राज्याभिषेक कर अयोध्या ले जाऊँगा और अति तुच्छ दासके समान उन लक्ष्मीपतिकी सेवा करूँगा’’॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युदीरितमाकर्ण्य भरतस्य वचो मुनिः।
आलिङ्ग्य मूर्ध्न्यवघ्राय प्रशशंस सविस्मयः॥ ५२॥
मूलम्
इत्युदीरितमाकर्ण्य भरतस्य वचो मुनिः।
आलिङ्ग्य मूर्ध्न्यवघ्राय प्रशशंस सविस्मयः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनीश्वरने भरतके ये उद्गार सुनकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और विस्मयपूर्वक सिर सूँघकर उनकी प्रशंसा करने लगे॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्स ज्ञातं पुरैवैतद्भविष्यं ज्ञानचक्षुषा।
मा शुचस्त्वं परो भक्तः श्रीरामे लक्ष्मणादपि॥ ५३॥
मूलम्
वत्स ज्ञातं पुरैवैतद्भविष्यं ज्ञानचक्षुषा।
मा शुचस्त्वं परो भक्तः श्रीरामे लक्ष्मणादपि॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बोले—‘‘बेटा! अपने ज्ञानचक्षुओंसे मैंने पहले ही ये होनेवाली बातें जान ली थीं। तुम शोक न करो; तुम तो लक्ष्मणकी अपेक्षा भी रामके परम भक्त हो॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि ससैन्यस्य तवानघ।
अद्य भुक्त्वा ससैन्यस्त्वं श्वो गन्ता रामसन्निधिम्॥ ५४॥
मूलम्
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि ससैन्यस्य तवानघ।
अद्य भुक्त्वा ससैन्यस्त्वं श्वो गन्ता रामसन्निधिम्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अनघ! मैं सेनाके सहित तुम्हारा आतिथ्य-सत्कार करना चाहता हूँ। आज सेनासहित तुम यहीं भोजन करो, कल रामके पास जाना’’॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाज्ञापयति भवांस्तथेति भरतोऽब्रवीत्।
भरद्वाजस्त्वपः स्पृष्ट्वा मौने होमगृहे स्थितः॥ ५५॥
मूलम्
यथाज्ञापयति भवांस्तथेति भरतोऽब्रवीत्।
भरद्वाजस्त्वपः स्पृष्ट्वा मौने होमगृहे स्थितः॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतजीने कहा—‘‘आपकी जैसी आज्ञा होगी, वही होगा।’’ तब मुनिवर भरद्वाज आचमन कर मौन होकर यज्ञशालामें बैठे॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दध्यौ कामदुघां कामवर्षिणीं कामदो मुनिः।
असृजत्कामधुक् सर्वं यथाकाममलौकिकम्॥ ५६॥
मूलम्
दध्यौ कामदुघां कामवर्षिणीं कामदो मुनिः।
असृजत्कामधुक् सर्वं यथाकाममलौकिकम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ बैठकर उन कामप्रद मुनीश्वरने समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली कामधेनुका स्मरण किया। तब उस कामधेनुने इच्छानुसार सम्पूर्ण अलौकिक भोग प्रस्तुत कर दिये॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतस्य ससैन्यस्य यथेष्टं च मनोरथम्।
यथा ववर्ष सकलं तृप्तास्ते सर्वसैनिकाः॥ ५७॥
मूलम्
भरतस्य ससैन्यस्य यथेष्टं च मनोरथम्।
यथा ववर्ष सकलं तृप्तास्ते सर्वसैनिकाः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने सेनाके सहित भरतजीके सम्पूर्ण मनोरथोंको इस प्रकार पूर्ण किया, जिससे वे समस्त सैनिक सन्तुष्ट हो गये॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठं पूजयित्वाग्रे शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
पश्चात्ससैन्यं भरतं तर्पयामास योगिराट्॥ ५८॥
मूलम्
वसिष्ठं पूजयित्वाग्रे शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
पश्चात्ससैन्यं भरतं तर्पयामास योगिराट्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन योगिराजने शास्त्रानुकूल प्रथम वसिष्ठजीकी पूजा की और तदनन्तर सेनाके सहित भरतजीको तृप्त किया॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उषित्वा दिनमेकं तु आश्रमे स्वर्गसन्निभे।
अभिवाद्य पुनः प्रातर्भरद्वाजं सहानुजः।
भरतस्तु कृतानुज्ञः प्रययौ रामसन्निधिम्॥ ५९॥
मूलम्
उषित्वा दिनमेकं तु आश्रमे स्वर्गसन्निभे।
अभिवाद्य पुनः प्रातर्भरद्वाजं सहानुजः।
भरतस्तु कृतानुज्ञः प्रययौ रामसन्निधिम्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस स्वर्ग-सदृश आश्रममें एक दिन रहकर प्रातःकाल मुनिवरको प्रणामकर उनकी आज्ञा ले भाईके सहित भरतजी रामचन्द्रजीके पास चले॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रकूटमनुप्राप्य दूरे संस्थाप्य सैनिकान्।
रामसंदर्शनाकाङ्क्षी प्रययौ भरतः स्वयम्॥ ६०॥
मूलम्
चित्रकूटमनुप्राप्य दूरे संस्थाप्य सैनिकान्।
रामसंदर्शनाकाङ्क्षी प्रययौ भरतः स्वयम्॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्रकूटके निकट पहुँचनेपर उन्होंने सैनिकोंको दूर खड़ा कर दिया और स्वयं राम-दर्शनकी लालसासे आगे बढ़े॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रुघ्नेन सुमन्त्रेण गुहेन च परन्तपः।
तपस्विमण्डलं सर्वं विचिन्वानो न्यवर्तत॥ ६१॥
मूलम्
शत्रुघ्नेन सुमन्त्रेण गुहेन च परन्तपः।
तपस्विमण्डलं सर्वं विचिन्वानो न्यवर्तत॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तप भरतजी शत्रुघ्न, सुमन्त्र और गुहके साथ समस्त तपस्वियोंके आश्रमोंमें खोजते-खोजते फिर आये॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्ट्वा रामभवनमपृच्छदृषिमण्डलम्।
कुत्रास्ते सीतया सार्धं लक्ष्मणेन रघूत्तमः॥ ६२॥
मूलम्
अदृष्ट्वा रामभवनमपृच्छदृषिमण्डलम्।
कुत्रास्ते सीतया सार्धं लक्ष्मणेन रघूत्तमः॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी कुटी कहीं न मिली। तब उन्होंने ऋषि-मण्डलीसे पूछा—‘‘सीता और लक्ष्मणके सहित श्रीरघुनाथजी कहाँ रहते हैं?’’॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुरग्रे गिरेः पश्चाद्गङ्गाया उत्तरे तटे।
विविक्तं रामसदनं रम्यं काननमण्डितम्॥ ६३॥
मूलम्
ऊचुरग्रे गिरेः पश्चाद्गङ्गाया उत्तरे तटे।
विविक्तं रामसदनं रम्यं काननमण्डितम्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा—‘‘सामनेवाले पर्वतके उस ओर श्रीमन्दाकिनीके उत्तरीय तटपर वनावलीसे सुशोभित रामकी परम रमणीक एकान्त कुटी है॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफलैराम्रपनसैः कदलीखण्डसंवृतम्।
चम्पकैः कोविदारैश्च पुन्नागैर्विपुलैस्तथा॥ ६४॥
मूलम्
सफलैराम्रपनसैः कदलीखण्डसंवृतम्।
चम्पकैः कोविदारैश्च पुन्नागैर्विपुलैस्तथा॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह फलयुक्त आम्रवृक्ष, पनस और कदलीखण्ड (केलेकी क्यारियों)-से घिरी हुई है। तथा उसके चारों ओर बहुत-से चम्पक, कचनार और नागकेशरके भी वृक्ष सुशोभित हैं’’॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दर्शितमालोक्य मुनिभिर्भरतोऽग्रतः।
हर्षाद्ययौ रघुश्रेष्ठभवनं मन्त्रिणा सह॥ ६५॥
मूलम्
एवं दर्शितमालोक्य मुनिभिर्भरतोऽग्रतः।
हर्षाद्ययौ रघुश्रेष्ठभवनं मन्त्रिणा सह॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनियोंके इस प्रकार बतलानेपर भरतजी प्रसन्नतापूर्वक मन्त्रियोंको साथ ले सबसे आगे रघुनाथजीके निवास-स्थानको चले॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श दूरादतिभासुरं शुभं
रामस्य गेहं मुनिवृन्दसेवितम्।
वृक्षाग्रसंलग्नसुवल्कलाजिनं
रामाभिरामं भरतः सहानुजः॥ ६६॥
मूलम्
ददर्श दूरादतिभासुरं शुभं
रामस्य गेहं मुनिवृन्दसेवितम्।
वृक्षाग्रसंलग्नसुवल्कलाजिनं
रामाभिरामं भरतः सहानुजः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगे बढ़नेपर भाईके सहित भरतने दूरहीसे रामका मुनिजनसेवित अति सुन्दर और भासमान सुन्दर भवन देखा। जिसमें वृक्षकी शाखापर वल्कलवस्त्र और मृगचर्म टँगे हुए थे और श्रीरामचन्द्रजीके वास करनेके कारण जो परम रमणीक था॥ ६६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥ ८॥