०७

[सप्तम सर्ग]

भागसूचना

सुमन्त्रका प्रत्यागमन, राजा दशरथका स्वर्गवास तथा भरतजीका ननिहालसे आना और वसिष्ठजीके आदेशसे पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन्त्रोऽपि तदायोध्यां दिनान्ते प्रविवेश ह।
वस्त्रेण मुखमाच्छाद्य वाष्पाकुलितलोचनः॥ १॥

मूलम्

सुमन्त्रोऽपि तदायोध्यां दिनान्ते प्रविवेश ह।
वस्त्रेण मुखमाच्छाद्य वाष्पाकुलितलोचनः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—इधर सायंकालके समय सुमन्त्रने भी वस्त्रसे मुख ढाँपकर नेत्रोंमें जल भरे हुए अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहिरेव रथं स्थाप्य राजानं द्रष्टुमाययौ।
जयशब्देन राजानं स्तुत्वा तं प्रणनाम ह॥ २॥

मूलम्

बहिरेव रथं स्थाप्य राजानं द्रष्टुमाययौ।
जयशब्देन राजानं स्तुत्वा तं प्रणनाम ह॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथको बाहर ही खड़ाकर वे राजाको देखनेके लिये अन्तःपुरमें गये और जय-शब्दसे उनकी स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजा नमन्तं तं सुमन्त्रं विह्वलोऽब्रवीत्।
सुमन्त्र रामः कुत्रास्ते सीतया लक्ष्मणेन च॥ ३॥

मूलम्

ततो राजा नमन्तं तं सुमन्त्रं विह्वलोऽब्रवीत्।
सुमन्त्र रामः कुत्रास्ते सीतया लक्ष्मणेन च॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने सुमन्त्रको नमस्कार करते देख दुःखसे व्याकुल होकर कहा—‘‘सुमन्त्र! सीता और लक्ष्मणके सहित राम कहाँ हैं?॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुत्र त्यक्तस्त्वया रामः किं मां पापिनमब्रवीत्।
सीता वा लक्ष्मणो वापि निर्दयं मां किमब्रवीत्॥ ४॥

मूलम्

कुत्र त्यक्तस्त्वया रामः किं मां पापिनमब्रवीत्।
सीता वा लक्ष्मणो वापि निर्दयं मां किमब्रवीत्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने रामको कहाँ छोड़ा है? उन्होंने मुझ पापीके लिये क्या कहा? तथा सीता और लक्ष्मणने भी मुझ निर्दयीके लिये क्या कहा है?॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा राम हा गुणनिधे हा सीते प्रियवादिनि।
दुःखार्णवे निमग्नं मां म्रियमाणं न पश्यसि॥ ५॥

मूलम्

हा राम हा गुणनिधे हा सीते प्रियवादिनि।
दुःखार्णवे निमग्नं मां म्रियमाणं न पश्यसि॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हा राम! हा गुणनिधे! हा प्रियवादिनि सीते! क्या तुम मुझको दुःख-समुद्रमें डूबकर मरते हुए नहीं देखते हो?’’॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलप्यैवं चिरं राजा निमग्नो दुःखसागरे।
एवं मन्त्री रुदन्तं तं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥ ६॥

मूलम्

विलप्यैवं चिरं राजा निमग्नो दुःखसागरे।
एवं मन्त्री रुदन्तं तं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बहुत देरतक विलाप करके राजा दुःख-समुद्रमें डूब गये। महाराजको इस प्रकार रोते देख मन्त्रीने हाथ जोड़कर कहा—॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः सीता च सौमित्रिर्मया नीता रथेन ते।
शृङ्गवेरपुराभ्याशे गङ्गाकूले व्यवस्थिताः॥ ७॥

मूलम्

रामः सीता च सौमित्रिर्मया नीता रथेन ते।
शृङ्गवेरपुराभ्याशे गङ्गाकूले व्यवस्थिताः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘महाराज! मैं राम, सीता और लक्ष्मणको आपके रथमें बैठाकर ले गया था। वे शृंगवेरपुरके पास गंगाजीके किनारे जाकर टिके॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुहेन किञ्चिदानीतं फलमूलादिकं च यत्।
स्पृष्ट्वा हस्तेन सम्प्रीत्या नाग्रहीद्विससर्ज तत्॥ ८॥

मूलम्

गुहेन किञ्चिदानीतं फलमूलादिकं च यत्।
स्पृष्ट्वा हस्तेन सम्प्रीत्या नाग्रहीद्विससर्ज तत्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ निषादराज गुह कुछ फल-मूलादि ले आया, किन्तु रामजीने उन्हें ग्रहण नहीं किया, केवल प्रीतिपूर्वक हाथसे छूकर ही छोड़ दिया॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वटक्षीरं समानाय्य गुहेन रघुनन्दनः।
जटामुकुटमाबद्‍ध्य मामाह नृपते स्वयम्॥ ९॥

मूलम्

वटक्षीरं समानाय्य गुहेन रघुनन्दनः।
जटामुकुटमाबद्‍ध्य मामाह नृपते स्वयम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्रीरघुनाथजीने गुहसे वटका दूध मँगवाकर अपनी जटाओंका मुकुट बनाया और फिर वे स्वयं मुझसे बोले—॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन्त्र ब्रूहि राजानं शोकस्तेऽस्तु न मत्कृते।
साकेतादधिकं सौख्यं विपिने नो भविष्यति॥ १०॥

मूलम्

सुमन्त्र ब्रूहि राजानं शोकस्तेऽस्तु न मत्कृते।
साकेतादधिकं सौख्यं विपिने नो भविष्यति॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमन्त्र! महाराजसे कहना वे हमारे लिये शोक न करें; हमें वनमें अयोध्यासे भी अधिक सुख प्राप्त होगा॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातुर्मे वन्दनं ब्रूहि शोकं त्यजतु मत्कृते।
आश्वासयतु राजानं वृद्धं शोकपरिप्लुतम्॥ ११॥

मूलम्

मातुर्मे वन्दनं ब्रूहि शोकं त्यजतु मत्कृते।
आश्वासयतु राजानं वृद्धं शोकपरिप्लुतम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातासे भी मेरा प्रणाम कहकर कहना कि मेरे लिये शोक करना छोड़ दें। महाराज वृद्ध और शोकाकुल हैं, उन्हें भली प्रकार ढाढ़स बँधाना’॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता चाश्रुपरीताक्षी मामाह नृपसत्तम।
दुःखगद्‍गदया वाचा रामं किञ्चिदवेक्षती॥ १२॥

मूलम्

सीता चाश्रुपरीताक्षी मामाह नृपसत्तम।
दुःखगद्‍गदया वाचा रामं किञ्चिदवेक्षती॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर नेत्रोंमें जल भरकर कुछ-कुछ रामकी ओर देखते हुए सीताने दुःखसे गद्‍गद कण्ठ हो मुझसे कहा—॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साष्टाङ्गं प्रणिपातं मे ब्रूहि श्वश्र्वोः पदाम्बुजे।
इति प्ररुदती सीता गता किञ्चिदवाङ्मुखी॥ १३॥

मूलम्

साष्टाङ्गं प्रणिपातं मे ब्रूहि श्वश्र्वोः पदाम्बुजे।
इति प्ररुदती सीता गता किञ्चिदवाङ्मुखी॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दोनों सासुओंके चरण-कमलोंमें मेरा साष्टांग प्रणाम कहना। ऐसा कह कुछ सिर झुकाकर रोती हुई वे वहाँसे चली गयीं॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तेऽश्रुपरीताक्षा नावमारुरुहुस्तदा।
यावद्‍गङ्गां समुत्तीर्य गतास्तावदहं स्थितः॥ १४॥
ततो दुःखेन महता पुनरेवाहमागतः।
ततो रुदन्ती कौसल्या राजानमिदमब्रवीत्॥ १५॥

मूलम्

ततस्तेऽश्रुपरीताक्षा नावमारुरुहुस्तदा।
यावद्‍गङ्गां समुत्तीर्य गतास्तावदहं स्थितः॥ १४॥
ततो दुःखेन महता पुनरेवाहमागतः।
ततो रुदन्ती कौसल्या राजानमिदमब्रवीत्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पीछे वे सब नेत्रोंमें जल भरे हुए नावपर चढ़े। जबतक वे गंगाजीको पार कर उस पार पहुँचे तबतक मैं वहीं खड़ा रहा फिर वहाँसे चलकर बड़े दुःखसे मैं यहाँ पहुँचा हूँ’’ तब कौसल्याने रोती हुई राजासे इस प्रकार कहा—॥ १४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैकेय्यै प्रियभार्यायै प्रसन्नो दत्तवान‍्‍वरम्।
त्वं राज्यं देहि तस्यैव मत्पुत्रः किं विवासितः॥
१६॥

मूलम्

कैकेय्यै प्रियभार्यायै प्रसन्नो दत्तवान‍्‍वरम्।
त्वं राज्यं देहि तस्यैव मत्पुत्रः किं विवासितः॥
१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘राजन्! आपने यदि प्रसन्न होकर अपनी प्रिया कैकेयीको वर दिया तो भले ही आपने उसीके पुत्रको राज्य दिया होता, किन्तु मेरे पुत्रको देशनिकाला क्यों दिया?॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा त्वमेव तत्सर्वमिदानीं किं नु रोदिषि।
कौसल्यावचनं श्रुत्वा क्षते स्पृष्ट इवाग्निना॥ १७॥

मूलम्

कृत्वा त्वमेव तत्सर्वमिदानीं किं नु रोदिषि।
कौसल्यावचनं श्रुत्वा क्षते स्पृष्ट इवाग्निना॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

और अपने-आप ही यह सारी करतूत करके अब आप रोते क्यों हैं?’’ कौसल्याके ये वचन सुनकर महाराजको ऐसी वेदना हुई मानो घावमें अग्निका स्पर्श हो गया हो॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनः शोकाश्रुपूर्णाक्षः कौसल्यामिदमब्रवीत्।
दुःखेन म्रियमाणं मां किं पुनर्दुःखयस्यलम्॥ १८॥

मूलम्

पुनः शोकाश्रुपूर्णाक्षः कौसल्यामिदमब्रवीत्।
दुःखेन म्रियमाणं मां किं पुनर्दुःखयस्यलम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाराजने नेत्रोंमें शोकाश्रु भरकर कौसल्यासे कहा—‘‘मैं तो आप ही दुःखसे मर रहा हूँ, फिर इस प्रकार मुझे और दुःख क्यों देती हो? इससे क्या लाभ है?॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदानीमेव मे प्राणा उत्क्रमिष्यन्ति निश्चयः।
शप्तोऽहं बाल्यभावेन केनचिन्मुनिना पुरा॥ १९॥

मूलम्

इदानीमेव मे प्राणा उत्क्रमिष्यन्ति निश्चयः।
शप्तोऽहं बाल्यभावेन केनचिन्मुनिना पुरा॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि मेरे प्राण अभी निकलनेवाले हैं। पूर्वकालमें मेरी मूर्खताके कारण मुझे एक मुनीश्वरने शाप दिया था॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराहं यौवने दृप्तश्चापबाणधरो निशि।
अचरं मृगयासक्तो नद्यास्तीरे महावने॥ २०॥

मूलम्

पुराहं यौवने दृप्तश्चापबाणधरो निशि।
अचरं मृगयासक्तो नद्यास्तीरे महावने॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वह कथा इस प्रकार है—) पहले एक बार मैं युवावस्थाके मदसे उन्मत्त हुआ मृगयामें आसक्त होकर रात्रिके समय धनुष और बाण लिये एक घोर वनमें नदीके किनारे घूम रहा था॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रार्धरात्रसमये मुनिः कश्चित्तृषार्दितः।
पिपासार्दितयोः पित्रोर्जलमानेतुमुद्यतः।
अपूरयज्जले कुम्भं तदा शब्दोऽभवन्महान्॥ २१॥

मूलम्

तत्रार्धरात्रसमये मुनिः कश्चित्तृषार्दितः।
पिपासार्दितयोः पित्रोर्जलमानेतुमुद्यतः।
अपूरयज्जले कुम्भं तदा शब्दोऽभवन्महान्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस आधी रातके समय किन्हीं प्यासे मुनीश्वरने अपने तृषित माता-पिताके निमित्त जल ले जानेके लिये जलमें घड़ा डुबोया; उस समय उसका महान् शब्द हुआ॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजः पिबति पानीयमिति मत्वा महानिशि।
बाणं धनुषि सन्धाय शब्दवेधिनमक्षिपम्॥ २२॥

मूलम्

गजः पिबति पानीयमिति मत्वा महानिशि।
बाणं धनुषि सन्धाय शब्दवेधिनमक्षिपम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब यह सोचकर कि इस घोर रात्रिमें कोई हाथी जल पी रहा है, मैंने अपने धनुषपर शब्दवेधी बाण चढ़ाकर छोड़ा॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा हतोऽस्मीति तत्राभूच्छब्दो मानुषसूचकः।
कस्यापि न कृतो दोषो मया केन हतो विधे॥ २३॥

मूलम्

हा हतोऽस्मीति तत्राभूच्छब्दो मानुषसूचकः।
कस्यापि न कृतो दोषो मया केन हतो विधे॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँपर मनुष्यकी सूचना देनेवाला यह शब्द हुआ—‘हाय! मैं मारा गया! हे विधे! मैंने तो किसीका भी कोई अपराध नहीं किया था, फिर किसने मुझे मारा?॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतीक्षते मां माता च पिता च जलकाङ्क्षया।
तच्छ्रुत्वा भयसन्त्रस्तस्ततोऽहं पौरुषं वचः॥ २४॥
शनैर्गत्वाथ तत्पार्श्वं स्वामिन् दशरथोऽस्म्यहम्।
अजानता मया विद्धस्त्रातुमर्हसि मां मुने॥२५॥

मूलम्

प्रतीक्षते मां माता च पिता च जलकाङ्क्षया।
तच्छ्रुत्वा भयसन्त्रस्तस्ततोऽहं पौरुषं वचः॥ २४॥
शनैर्गत्वाथ तत्पार्श्वं स्वामिन् दशरथोऽस्म्यहम्।
अजानता मया विद्धस्त्रातुमर्हसि मां मुने॥२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाय! मेरे माता-पिता भी जलकी आकांक्षासे मेरी बाट देख रहे होंगे।’ यह मानुष-वचन सुनकर मैं अत्यन्त भयभीत हुआ और धीरेसे उनके पास जाकर बोला—‘प्रभो! मैं दशरथ हूँ, मैंने ही अनजानमें यह बाण छोड़ा है; हे मुने! आप मेरी रक्षा कीजिये’॥ २४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पादयोस्तस्य पतितो गद्‍गदाक्षरः।
तदा मामाह स मुनिर्मा भैषीर्नृपसत्तम॥ २६॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पादयोस्तस्य पतितो गद्‍गदाक्षरः।
तदा मामाह स मुनिर्मा भैषीर्नृपसत्तम॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘ऐसा कहकर मैं गद्‍गद-कण्ठ हो उनके चरणोंमें गिर पड़ा। तब उन मुनीश्वरने मुझसे कहा—‘हे नृपश्रेष्ठ! डरो मत॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्महत्या स्पृशेन्न त्वां वैश्योऽहं तपसि स्थितः।
पितरौ मां प्रतीक्षेते क्षुत्तृड्भ्यां परिपीडितौ॥ २७॥

मूलम्

ब्रह्महत्या स्पृशेन्न त्वां वैश्योऽहं तपसि स्थितः।
पितरौ मां प्रतीक्षेते क्षुत्तृड्भ्यां परिपीडितौ॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें ब्रह्महत्या नहीं लगेगी, क्योंकि मैं तपस्यामें लगा हुआ वैश्य हूँ। मेरे माता-पिता भूख और प्याससे व्याकुल हुए मेरी बाट देखते होंगे॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोस्त्वमुदकं देहि शीघ्रमेवाविचारयन्।
न चेत्त्वां भस्मसात्कुर्यात्पिता मे यदि कुप्यति॥ २८॥

मूलम्

तयोस्त्वमुदकं देहि शीघ्रमेवाविचारयन्।
न चेत्त्वां भस्मसात्कुर्यात्पिता मे यदि कुप्यति॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये अब बिना कुछ सोच-विचार किये शीघ्र ही तुम उन्हें जल दे आओ, नहीं तो यदि मेरे पिता कुपित हो गये तो तुम्हें भस्म कर डालेंगे॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलं दत्त्वा तु तौ नत्वा कृतं सर्वं निवेदय।
शल्यमुद्धर मे देहात्प्राणांस्त्यक्ष्यामि पीडितः॥ २९॥

मूलम्

जलं दत्त्वा तु तौ नत्वा कृतं सर्वं निवेदय।
शल्यमुद्धर मे देहात्प्राणांस्त्यक्ष्यामि पीडितः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें जल देकर और नमस्कार कर अपना सारा कृत्य सुना देना। मुझे अत्यन्त पीड़ा हो रही है, तुम मेरे शरीरमेंसे बाण निकाल दो, अब मैं प्राण छोड़ूँगा॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो मुनिना शीघ्रं बाणमुत्पाट्य देहतः।
सजलं कलशं धृत्वा गतोऽहं यत्र दम्पती॥ ३०॥

मूलम्

इत्युक्तो मुनिना शीघ्रं बाणमुत्पाट्य देहतः।
सजलं कलशं धृत्वा गतोऽहं यत्र दम्पती॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘मुनिके ऐसा कहनेपर मैंने तुरंत ही उनके शरीरसे बाण निकाल दिया और जलका घड़ा लेकर जहाँ उनके माता-पिता थे, वहाँ गया॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिवृद्धावन्धदृशौ क्षुत्पिपासार्दितौ निशि।
नायाति सलिलं गृह्य पुत्रः किं वात्र कारणम्॥ ३१॥
अनन्यगतिकौ वृद्धौ शोच्यौ तृट्परिपीडितौ।
आवामुपेक्षते किं वा भक्तिमानावयोः सुतः॥ ३२॥
इति चिन्ताव्याकुलौ तौ मत्पादन्यासजं ध्वनिम्।
श्रुत्वा प्राह पिता पुत्र किं विलम्बः कृतस्त्वया॥ ३३॥

मूलम्

अतिवृद्धावन्धदृशौ क्षुत्पिपासार्दितौ निशि।
नायाति सलिलं गृह्य पुत्रः किं वात्र कारणम्॥ ३१॥
अनन्यगतिकौ वृद्धौ शोच्यौ तृट्परिपीडितौ।
आवामुपेक्षते किं वा भक्तिमानावयोः सुतः॥ ३२॥
इति चिन्ताव्याकुलौ तौ मत्पादन्यासजं ध्वनिम्।
श्रुत्वा प्राह पिता पुत्र किं विलम्बः कृतस्त्वया॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वे इस प्रकार चिन्तामें व्याकुल हो रहे थे—‘हम अत्यन्त वृद्ध और आँखोंसे लाचार हैं तथा भूख-प्याससे पीड़ित हो रहे हैं; क्या कारण है कि इस रात्रिके समयमें हमारा पुत्र अभीतक जल लेकर नहीं लौटा, हमारा और कोई सहारा नहीं है, हम वृद्ध, शोचनीय और प्याससे अत्यन्त व्याकुल हैं। क्या कारण है कि ऐसी अवस्थामें हमारा पितृभक्त पुत्र हमारी उपेक्षा कर रहा है?’ इसी समय मेरे पैरोंकी आहट सुनकर पिताने पूछा—‘बेटा! आज तुमने इतनी देरी कैसे की?॥ ३१—३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देह्यावयोः सुपानीयं पिब त्वमपि पुत्रक।
इत्येवं लपतोर्भीत्या सकाशमगमं शनैः॥ ३४॥

मूलम्

देह्यावयोः सुपानीयं पिब त्वमपि पुत्रक।
इत्येवं लपतोर्भीत्या सकाशमगमं शनैः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

लाओ शीघ्र ही हमें पवित्र जल पिलाओ और तुम भी पिओ।’ उनके इस प्रकार कहनेपर मैं डरते-डरते धीरेसे उनके पास गया॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादयोः प्रणिपत्याहमब्रवं विनयान्वितः।
नाहं पुत्रस्त्वयोध्याया राजा दशरथोऽस्म्यहम्॥ ३५॥

मूलम्

पादयोः प्रणिपत्याहमब्रवं विनयान्वितः।
नाहं पुत्रस्त्वयोध्याया राजा दशरथोऽस्म्यहम्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उनके चरणोंमें प्रणाम करके अति नम्रतापूर्वक कहा—मैं आपका पुत्र नहीं हूँ बल्कि अयोध्याका राजा दशरथ हूँ॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापोऽहं मृगयासक्तो रात्रौ मृगविहिंसकः।
जलावताराद्दूरेऽहं स्थित्वा जलगतं ध्वनिम्॥ ३६॥
श्रुत्वाहं शब्दवेधित्वादेकं बाणमथात्यजम्।
हतोऽस्मीति ध्वनिं श्रुत्वा भयात्तत्राहमागतः॥ ३७॥

मूलम्

पापोऽहं मृगयासक्तो रात्रौ मृगविहिंसकः।
जलावताराद्दूरेऽहं स्थित्वा जलगतं ध्वनिम्॥ ३६॥
श्रुत्वाहं शब्दवेधित्वादेकं बाणमथात्यजम्।
हतोऽस्मीति ध्वनिं श्रुत्वा भयात्तत्राहमागतः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पापात्मा मृगयाकी आसक्तिके कारण रात्रिके समय पशुओंका वध करता फिरता था। यद्यपि मैं उस समय जलके तीरसे दूर था किन्तु शब्दवेधी होनेके कारण जलमें हुए शब्दको सुनकर वहाँ मृग समझकर उसे मारनेके लिये मैंने एक बाण छोड़ दिया। पर जब मैंने यह शब्द सुना कि ‘मैं मारा गया’ तो डरता हुआ वहाँ आया॥ ३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जटा विकीर्य पतितं दृष्ट्वाहं मुनिदारकम्।
भीतो गृहीत्वा तत्पादौ रक्ष रक्षेति चाब्रवम्॥ ३८॥

मूलम्

जटा विकीर्य पतितं दृष्ट्वाहं मुनिदारकम्।
भीतो गृहीत्वा तत्पादौ रक्ष रक्षेति चाब्रवम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ आनेपर जब मैंने एक मुनिकुमारको जटा फैलाये पड़े देखा तो भयसे उसके चरण पकड़ लिये और ‘रक्षा करो, रक्षा करो’, ऐसा कहने लगा॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा भैषीरिति मां प्राह ब्रह्महत्याभयं न ते।
मत्पित्रोः सलिलं दत्त्वा नत्वा प्रार्थय जीवितम्॥ ३९॥

मूलम्

मा भैषीरिति मां प्राह ब्रह्महत्याभयं न ते।
मत्पित्रोः सलिलं दत्त्वा नत्वा प्रार्थय जीवितम्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने मुझसे कहा—‘डरो मत, तुम्हें ब्रह्महत्याका भय नहीं है। मेरे माता-पिताको जल देकर उन्हें प्रणाम कर जीवनदान माँगो’॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो मुनिना तेन ह्यागतो मुनिहिंसकः।
रक्षेतां मां दयायुक्तौ युवां हि शरणागतम्॥ ४०॥

मूलम्

इत्युक्तो मुनिना तेन ह्यागतो मुनिहिंसकः।
रक्षेतां मां दयायुक्तौ युवां हि शरणागतम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिकुमारके ऐसा कहनेपर यह मुनिहिंसक आपके पास आया है। आप दोनों बड़े दयाशील हैं, मैं आपकी शरण आया हूँ, आप मेरी रक्षा करें’॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा तु दुःखार्तौ विलप्य बहु शोच्य तम्।
पतितौ नौ सुतो यत्र नय तत्राविलम्बयन्॥ ४१॥

मूलम्

इति श्रुत्वा तु दुःखार्तौ विलप्य बहु शोच्य तम्।
पतितौ नौ सुतो यत्र नय तत्राविलम्बयन्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘यह सुनकर वे दुःखार्त होकर उसके लिये अत्यन्त शोक करते और रोते हुए पृथिवीपर गिर पड़े और बोले—‘जहाँ हमारा बेटा है, हमें तुरंत ही वहाँ ले चलो’॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नीतौ सुतो यत्र मया तौ वृद्धदम्पती।
स्पृष्ट्वा सुतं तौ हस्ताभ्यां बहुशोऽथ विलेपतुः॥ ४२॥

मूलम्

ततो नीतौ सुतो यत्र मया तौ वृद्धदम्पती।
स्पृष्ट्वा सुतं तौ हस्ताभ्यां बहुशोऽथ विलेपतुः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जहाँ वह लड़का पड़ा था वहीं उन वृद्ध-दम्पतिको मैं ले गया और वे उसे हाथोंसे स्पर्श कर अत्यन्त विलाप करने लगे॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहेति क्रन्दमानौ तौ पुत्रपुत्रेत्यवोचताम्।
जलं देहीति पुत्रेति किमर्थं न ददास्यलम्॥ ४३॥

मूलम्

हाहेति क्रन्दमानौ तौ पुत्रपुत्रेत्यवोचताम्।
जलं देहीति पुत्रेति किमर्थं न ददास्यलम्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ‘हा पुत्र! हा पुत्र!’ कहकर रोते हुए बोले—‘बेटा! हमें जल दो, हमें जल दो! आज जल क्यों नहीं देते हो?’॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मामूचतुः शीघ्रं चितिं रचय भूपते।
मया तदैव रचिता चितिस्तत्र निवेशिताः।
त्रयस्तत्राग्निरुत्सृष्टो दग्धास्ते त्रिदिवं ययुः॥ ४४॥

मूलम्

ततो मामूचतुः शीघ्रं चितिं रचय भूपते।
मया तदैव रचिता चितिस्तत्र निवेशिताः।
त्रयस्तत्राग्निरुत्सृष्टो दग्धास्ते त्रिदिवं ययुः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने मुझसे कहा—‘राजन्! शीघ्र ही चिता बनाओ!’ मैंने तुरंत ही वहाँ चिता बना दी। तब वे तीनों उसपर चढ़ गये और अग्नि लगानेपर उसमें भस्म होकर स्वर्गलोकको चले गये॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वृद्धः पिता प्राह त्वमप्येवं भविष्यसि।
पुत्रशोकेन मरणं प्राप्स्यसे वचनान्मम॥ ४५॥

मूलम्

तत्र वृद्धः पिता प्राह त्वमप्येवं भविष्यसि।
पुत्रशोकेन मरणं प्राप्स्यसे वचनान्मम॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वृद्ध पिताने मुझसे कहा—‘तुम्हारे लिये भी ऐसा ही होगा, तुम भी मेरे वचनसे पुत्र-शोकसे ही मरोगे’॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स इदानीं मम प्राप्तः शापकालोऽनिवारितः।
इत्युक्त्वा विललापाथ राजा शोकसमाकुलः॥ ४६॥

मूलम्

स इदानीं मम प्राप्तः शापकालोऽनिवारितः।
इत्युक्त्वा विललापाथ राजा शोकसमाकुलः॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘वही अनिवार्य शापकाल इस समय मेरे लिये उपस्थित हुआ है।’’ ऐसा कहकर राजा दशरथ अत्यन्त शोकाकुल होकर विलाप करने लगे—॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा राम पुत्र हा सीते हा लक्ष्मण गुणाकर।
त्वद्वियोगादहं प्राप्तो मृत्युं कैकेयिसम्भवम्॥ ४७॥

मूलम्

हा राम पुत्र हा सीते हा लक्ष्मण गुणाकर।
त्वद्वियोगादहं प्राप्तो मृत्युं कैकेयिसम्भवम्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हा पुत्र राम! हा सीते! हा गुणाकर लक्ष्मण! तुम्हारे वियोगसे मैं कैकेयीसे उपस्थित की हुई मृत्युको प्राप्त हो रहा हूँ’’॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वदन्नेवं दशरथः प्राणांस्त्यक्त्वा दिवं गतः।
कौसल्या च सुमित्रा च तथान्या राजयोषितः॥ ४८॥
चुक्रुशुश्च विलेपुश्च उरस्ताडनपूर्वकम्।
वसिष्ठः प्रययौ तत्र प्रातर्मन्त्रिभिरावृतः॥ ४९॥

मूलम्

वदन्नेवं दशरथः प्राणांस्त्यक्त्वा दिवं गतः।
कौसल्या च सुमित्रा च तथान्या राजयोषितः॥ ४८॥
चुक्रुशुश्च विलेपुश्च उरस्ताडनपूर्वकम्।
वसिष्ठः प्रययौ तत्र प्रातर्मन्त्रिभिरावृतः॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कहते हुए महाराज दशरथ प्राण त्यागकर स्वर्गलोकको चले गये। उस समय कौसल्या, सुमित्रा और अन्यान्य रानियाँ छाती पीट-पीटकर रोने और विलाप करने लगीं। प्रातःकाल होनेपर वहाँ मन्त्रियोंके सहित मुनिवर वसिष्ठजी आये॥ ४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैलद्रोण्यां दशरथं क्षिप्त्वा दूतानथाब्रवीत्।
गच्छत त्वरितं साश्वा युधाजिन्नगरं प्रति॥ ५०॥

मूलम्

तैलद्रोण्यां दशरथं क्षिप्त्वा दूतानथाब्रवीत्।
गच्छत त्वरितं साश्वा युधाजिन्नगरं प्रति॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और राजा दशरथके शवको एक तैलपूर्ण नौकामें रखवाकर दूतोंसे बोले—‘‘तुमलोग शीघ्र ही घोड़ोंपर चढ़कर युधाजित् की राजधानीको जाओ॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रास्ते भरतः श्रीमाञ्छत्रुघ्नसहितः प्रभुः।
उच्यतां भरतः शीघ्रमागच्छेति ममाज्ञया॥ ५१॥
अयोध्यां प्रति राजानं कैकेयीं चापि पश्यतु।
इत्युक्तास्त्वरितं दूता गत्वा भरतमातुलम्॥ ५२॥
युधाजितं प्रणम्योचुर्भरतं सानुजं प्रति।
वसिष्ठस्त्वाब्रवीद्राजन् भरतः सानुजः प्रभुः॥ ५३॥
शीघ्रमागच्छतु पुरीमयोध्यामविचारयन्।
इत्याज्ञप्तोऽथ भरतस्त्वरितं भयविह्वलः॥ ५४॥
आययौ गुरुणादिष्टः सह दूतैस्तु सानुजः।
राज्ञो वा राघवस्यापि दुःखं किञ्चिदुपस्थितम्॥ ५५॥

मूलम्

तत्रास्ते भरतः श्रीमाञ्छत्रुघ्नसहितः प्रभुः।
उच्यतां भरतः शीघ्रमागच्छेति ममाज्ञया॥ ५१॥
अयोध्यां प्रति राजानं कैकेयीं चापि पश्यतु।
इत्युक्तास्त्वरितं दूता गत्वा भरतमातुलम्॥ ५२॥
युधाजितं प्रणम्योचुर्भरतं सानुजं प्रति।
वसिष्ठस्त्वाब्रवीद्राजन् भरतः सानुजः प्रभुः॥ ५३॥
शीघ्रमागच्छतु पुरीमयोध्यामविचारयन्।
इत्याज्ञप्तोऽथ भरतस्त्वरितं भयविह्वलः॥ ५४॥
आययौ गुरुणादिष्टः सह दूतैस्तु सानुजः।
राज्ञो वा राघवस्यापि दुःखं किञ्चिदुपस्थितम्॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ शत्रुघ्नके सहित श्रीमान् महाराज भरत विराजमान हैं। उनसे मेरी आज्ञासे जाकर इस प्रकार कहना कि भरत शीघ्र ही अयोध्यापुरीमें आकर महाराज दशरथ और कैकेयीका दर्शन करें’’ वसिष्ठजीके इस प्रकार कहनेपर दूतोंने तुरंत ही जाकर भरतके मामा युधाजित् और छोटे भाई शत्रुघ्नके सहित भरतको प्रणाम करके कहा—‘‘राजन्! वसिष्ठजीने आपके लिये यह कहा है कि छोटे भाई शत्रुघ्नके सहित महाराज भरत तुरंत ही बिना कुछ आगा-पीछा सोचे अयोध्यापुरीमें चले आवें।’’ ऐसी आज्ञा सुनकर श्रीभरतजी भयसे व्याकुल हो तुरंत ही गुरुजीके आदेशसे छोटे भाईके सहित दूतोंके साथ चले और यह सोचकर कि ‘अवश्य ही महाराज या श्रीरघुनाथजीपर कोई घोर संकट उपस्थित हुआ है’॥ ५१—५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति चिन्तापरो मार्गे चिन्तयन्नगरं ययौ।
नगरं भ्रष्टलक्ष्मीकं जनसम्बाधवर्जितम्॥ ५६॥
उत्सवैश्च परित्यक्तं दृष्ट्वा चिन्तापरोऽभवत्।
प्रविश्य राजभवनं राजलक्ष्मीविवर्जितम्॥ ५७॥
अपश्यत्कैकेयीं तत्र एकामेवासने स्थिताम्।
ननाम शिरसा पादौ मातुर्भक्तिसमन्वितः॥ ५८॥

मूलम्

इति चिन्तापरो मार्गे चिन्तयन्नगरं ययौ।
नगरं भ्रष्टलक्ष्मीकं जनसम्बाधवर्जितम्॥ ५६॥
उत्सवैश्च परित्यक्तं दृष्ट्वा चिन्तापरोऽभवत्।
प्रविश्य राजभवनं राजलक्ष्मीविवर्जितम्॥ ५७॥
अपश्यत्कैकेयीं तत्र एकामेवासने स्थिताम्।
ननाम शिरसा पादौ मातुर्भक्तिसमन्वितः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें मन-ही-मन चिन्ता करते नगरमें पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि नगर शोभाहीन, जनसमूहसे रहित तथा उत्सवहीन हो रहा है। यह देखकर वे अत्यन्त चिन्तित हुए। राजभवनमें जाकर देखा तो वह राजलक्ष्मीसे शून्य हो रहा है और वहाँ अकेली कैकेयी एक आसनपर बैठी हुई है। माताको देखकर उन्होंने भक्तिपूर्वक उसके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया॥ ५६—५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगतं भरतं दृष्ट्वा कैकेयी प्रेमसम्भ्रमात्।
उत्थायालिङ्‍ग्य रभसा स्वाङ्कमारोप्य संस्थिता॥ ५९॥

मूलम्

आगतं भरतं दृष्ट्वा कैकेयी प्रेमसम्भ्रमात्।
उत्थायालिङ्‍ग्य रभसा स्वाङ्कमारोप्य संस्थिता॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीको आये देख माता कैकेयीने उन्हें प्रेमवश शीघ्रतासे उठाकर हृदय लगाया और अपनी गोदमें बैठा लिया॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्ध्न्यवघ्राय पप्रच्छ कुशलं स्वकुलस्य सा।
पिता मे कुशली भ्राता माता च शुभलक्षणा॥ ६०॥
दिष्ट्या त्वमद्य कुशली मया दृष्टोऽसि पुत्रक।
इति पृष्टः स भरतो मात्रा चिन्ताकुलेन्द्रियः॥ ६१॥
दूयमानेन मनसा मातरं समपृच्छत।
मातः पिता मे कुत्रास्ते एका त्वमिह संस्थिता॥ ६२॥

मूलम्

मूर्ध्न्यवघ्राय पप्रच्छ कुशलं स्वकुलस्य सा।
पिता मे कुशली भ्राता माता च शुभलक्षणा॥ ६०॥
दिष्ट्या त्वमद्य कुशली मया दृष्टोऽसि पुत्रक।
इति पृष्टः स भरतो मात्रा चिन्ताकुलेन्द्रियः॥ ६१॥
दूयमानेन मनसा मातरं समपृच्छत।
मातः पिता मे कुत्रास्ते एका त्वमिह संस्थिता॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उनका सिर सूँघकर अपने कुलकी कुशल पूछी। वह बोली—‘‘मेरे पिता, भाई और शुभलक्षणा माता कुशलपूर्वक हैं न? बेटा! आज बड़े भाग्यसे मैंने तुम्हें सकुशल देखा है’’ माताके इस प्रकार पूछनेपर भरतजीने चिन्ताकुल होकर दुःखी चित्तसे मातासे पूछा—‘‘माँ! मेरे पिताजी कहाँ हैं जो तुम यहाँ अकेली बैठी हो?॥ ६०—६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया विना न मे तातः कदाचिद्रहसि स्थितः।
इदानीं दृश्यते नैव कुत्र तिष्ठति मे वद॥ ६३॥

मूलम्

त्वया विना न मे तातः कदाचिद्रहसि स्थितः।
इदानीं दृश्यते नैव कुत्र तिष्ठति मे वद॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

माँ! तुम्हारे बिना तो पिताजी एकान्तमें कभी नहीं रहते थे; किन्तु इस समय वे दिखायी नहीं देते, सो बताओ वे कहाँ हैं?॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्ट्वा पितरं मेऽद्य भयं दुःखं च जायते।
अथाह कैकेयी पुत्रं किं दुःखेन तवानघ॥ ६४॥

मूलम्

अदृष्ट्वा पितरं मेऽद्य भयं दुःखं च जायते।
अथाह कैकेयी पुत्रं किं दुःखेन तवानघ॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजीको न देखनेसे आज मुझे अत्यन्त भय और दुःख हो रहा है’’ तब कैकेयीने कहा—‘‘हे अनघ! तुम्हारे लिये दुःखकी क्या बात है?॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या गतिर्धर्मशीलानामश्वमेधादियाजिनाम्।
तां गतिं गतवानद्य पिता ते पितृवत्सल॥ ६५॥

मूलम्

या गतिर्धर्मशीलानामश्वमेधादियाजिनाम्।
तां गतिं गतवानद्य पिता ते पितृवत्सल॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पितृवत्सल! अश्वमेधादि यज्ञ करनेवाले धर्मपरायण पुरुषोंकी जो गति होती है, उसीको आज तुम्हारे पिता भी प्राप्त हुए हैं’’॥ ६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा निपपातोर्व्यां भरतः शोकविह्वलः।
हा तात क्वगतोऽसि त्वं त्यक्त्वा मां वृजिनार्णवे॥ ६६॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा निपपातोर्व्यां भरतः शोकविह्वलः।
हा तात क्वगतोऽसि त्वं त्यक्त्वा मां वृजिनार्णवे॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनते ही भरत शोकाकुल होकर पृथिवीपर गिर पड़े और बोले—‘‘हा तात! मुझे दुःख-समुद्रमें छोड़कर आप कहाँ चले गये?॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असमर्प्यैव रामाय राज्ञे मां क्व गतोऽसि भोः।
इति विलपितं पुत्रं पतितं मुक्तमूर्धजम्॥ ६७॥
उत्थाप्यामृज्य नयने कैकेयी पुत्रमब्रवीत्।
समाश्वसिहि भद्रं ते सर्वं सम्पादितं मया॥ ६८॥

मूलम्

असमर्प्यैव रामाय राज्ञे मां क्व गतोऽसि भोः।
इति विलपितं पुत्रं पतितं मुक्तमूर्धजम्॥ ६७॥
उत्थाप्यामृज्य नयने कैकेयी पुत्रमब्रवीत्।
समाश्वसिहि भद्रं ते सर्वं सम्पादितं मया॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाय! महाराज रामको मुझे सौंपे बिना ही आप कहाँ चले गये?’’ इस प्रकार विलाप करते और बिथुरे हुए केशोंसे पृथिवीपर पड़े अपने पुत्रको उठाकर कैकेयीने उसके आँसू पोंछकर कहा—‘‘बेटा! धीरज रखो; तुम्हारा कल्याण हो। मैंने तुम्हारे लिये सब कुछ ठीक कर लिया है’’॥ ६७-६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाह भरतस्तातो म्रियमाणः किमब्रवीत्।
तमाह कैकेयी देवी भरतं भयवर्जिता॥ ६९॥

मूलम्

तामाह भरतस्तातो म्रियमाणः किमब्रवीत्।
तमाह कैकेयी देवी भरतं भयवर्जिता॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भरतजीने पूछा—‘‘मरते समय महाराजने क्या कहा था?’’ इसपर कैकेयीदेवीने निर्भय होकर भरतजीसे कहा—॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा राम राम सीतेति लक्ष्मणेति पुनः पुनः।
विलपन्नेव सुचिरं देहं त्यक्त्वा दिवं ययौ॥ ७०॥

मूलम्

हा राम राम सीतेति लक्ष्मणेति पुनः पुनः।
विलपन्नेव सुचिरं देहं त्यक्त्वा दिवं ययौ॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘वे ‘हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ इस प्रकार बहुत समयतक बारम्बार विलाप करते हुए अपना शरीर त्यागकर स्वर्गको गये हैं’’॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाह भरतो हेऽम्ब रामः सन्निहितो न किम्।
तदानीं लक्ष्मणो वापि सीता वा कुत्र ते गताः॥ ७१॥

मूलम्

तामाह भरतो हेऽम्ब रामः सन्निहितो न किम्।
तदानीं लक्ष्मणो वापि सीता वा कुत्र ते गताः॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भरतजीने पूछा—‘‘माता! तो क्या उस समय राम, सीता और लक्ष्मण भी उनके पास नहीं थे? वे तीनों उस समय कहाँ गये थे?’’॥ ७१॥

मूलम् (वचनम्)

कैकेय्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्य यौवराज्यार्थं पित्रा ते सम्भ्रमः कृतः।
तव राज्यप्रदानाय तदाहं विघ्नमाचरम्॥ ७२॥

मूलम्

रामस्य यौवराज्यार्थं पित्रा ते सम्भ्रमः कृतः।
तव राज्यप्रदानाय तदाहं विघ्नमाचरम्॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकेयी बोली—‘‘तुम्हारे पिताने रामको युवराज बनानेकी तैयारी की थी। उस समय तुम्हें राज्य दिलानेके लिये मैंने उसमें विघ्न खड़ा कर दिया॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञा दत्तं हि मे पूर्वं वरदेन वरद्वयम्।
याचितं तदिदानीं मे तयोरेकेन तेऽखिलम्॥ ७३॥
राज्यं रामस्य चैकेन वनवासो मुनिव्रतम्।
ततः सत्यपरो राजा राज्यं दत्त्वा तवैव हि॥ ७४॥
रामं सम्प्रेषयामास वनमेव पिता तव।
सीताप्यनुगता रामं पातिव्रत्यमुपाश्रिता॥ ७५॥

मूलम्

राज्ञा दत्तं हि मे पूर्वं वरदेन वरद्वयम्।
याचितं तदिदानीं मे तयोरेकेन तेऽखिलम्॥ ७३॥
राज्यं रामस्य चैकेन वनवासो मुनिव्रतम्।
ततः सत्यपरो राजा राज्यं दत्त्वा तवैव हि॥ ७४॥
रामं सम्प्रेषयामास वनमेव पिता तव।
सीताप्यनुगता रामं पातिव्रत्यमुपाश्रिता॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें एक बार प्रसन्न होकर वरदाता राजाने मुझे दो वर देनेको कहा था। इस समय उनमेंसे एक के द्वारा मैंने तुम्हारे लिये सम्पूर्ण राज्य और दूसरेसे रामके लिये मुनिव्रतपूर्वक वनवास माँग लिया। इसलिये तुम्हारे पिता सत्यसन्ध महाराज दशरथने तुम्हें ही राज्य देकर रामको वनमें भेज दिया। पातिव्रत्यका पालन करनेवाली सीता भी रामके साथ ही वनमें चली गयीं॥ ७३—७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौभ्रात्रं दर्शयन् राममनुयातोऽपि लक्ष्मणः।
वनं गतेषु सर्वेषु राजा तानेव चिन्तयन्॥ ७६॥
प्रलपन् राम रामेति ममार नृपसत्तमः।
इति मातुर्वचः श्रुत्वा वज्राहत इव द्रुमः॥ ७७॥
पपात भूमौ निःसंज्ञस्तं दृष्ट्वा दुःखिता तदा।
कैकेयी पुनरप्याह वत्स शोकेन किं तव॥ ७८॥

मूलम्

सौभ्रात्रं दर्शयन् राममनुयातोऽपि लक्ष्मणः।
वनं गतेषु सर्वेषु राजा तानेव चिन्तयन्॥ ७६॥
प्रलपन् राम रामेति ममार नृपसत्तमः।
इति मातुर्वचः श्रुत्वा वज्राहत इव द्रुमः॥ ७७॥
पपात भूमौ निःसंज्ञस्तं दृष्ट्वा दुःखिता तदा।
कैकेयी पुनरप्याह वत्स शोकेन किं तव॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा लक्ष्मण भी भ्रातृस्नेह प्रकट करते हुए रामके अनुगामी हुए। इस प्रकार इन सबके वनको चले जानेपर उन्हींका स्मरण करते हुए और ‘राम! राम!’ करके विलाप करते हुए नृपश्रेष्ठ महाराजने शरीर छोड़ दिया।’’ माताके ये वचन सुनकर भरतजी वज्राहत वृक्षके समान अचेत होकर पृथिवीपर गिर पड़े। उन्हें ऐसी दशामें देख कैकेयीने दुःखित होकर फिर कहा—‘‘बेटा! तुम शोक क्यों करते हो?॥ ७६—७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ये महति सम्प्राप्ते दुःखस्यावसरः कुतः।
इति ब्रुवन्तीमालोक्य मातरं प्रदहन्निव॥ ७९॥

मूलम्

राज्ये महति सम्प्राप्ते दुःखस्यावसरः कुतः।
इति ब्रुवन्तीमालोक्य मातरं प्रदहन्निव॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे महान् राज्यको पानेपर दुःखका कारण ही कहाँ रह जाता है?’’ माताको इस प्रकार कहती देख भरतजीने क्रोधसे जलते हुए-से कहा—॥ ७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भाष्यासि पापे मे घोरे त्वं भर्तृघातिनी।
पापे त्वद्‍गर्भजातोऽहं पापवानस्मि साम्प्रतम्।
अहमग्निं प्रवेक्ष्यामि विषं वा भक्षयाम्यहम्॥ ८०॥

मूलम्

असम्भाष्यासि पापे मे घोरे त्वं भर्तृघातिनी।
पापे त्वद्‍गर्भजातोऽहं पापवानस्मि साम्प्रतम्।
अहमग्निं प्रवेक्ष्यामि विषं वा भक्षयाम्यहम्॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरी पापिनी! तू बात करनेयोग्य नहीं है! अरी घोरे! तू अपने पतिकी हत्या करनेवाली है! अरी पापे! तेरे गर्भसे उत्पन्न होनेके कारण अब तो मैं भी प्रत्यक्ष ही महापापी हूँ। मैं या तो अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा या विष खा लूँगा॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खड्गेन वाथ चात्मानं हत्वा यामि यमक्षयम्।
भर्तृघातिनि दुष्टे त्वं कुम्भीपाकं गमिष्यसि॥ ८१॥

मूलम्

खड्गेन वाथ चात्मानं हत्वा यामि यमक्षयम्।
भर्तृघातिनि दुष्टे त्वं कुम्भीपाकं गमिष्यसि॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा खड्गसे आत्मघात करके यमलोकको चला जाऊँगा। हे भर्तृघातिनि! हे दुष्टे! तू भी कुम्भीपाक नरकमें पड़ेगी’’॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति निर्भर्त्स्य कैकेयीं कौसल्याभवनं ययौ।
सापि तं भरतं दृष्ट्वा मुक्तकण्ठा रुरोद ह॥ ८२॥

मूलम्

इति निर्भर्त्स्य कैकेयीं कौसल्याभवनं ययौ।
सापि तं भरतं दृष्ट्वा मुक्तकण्ठा रुरोद ह॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकेयीको इस प्रकार डाँटकर वे कौसल्याके घर गये। भरतको देखते ही माता कौसल्या मुक्तकण्ठसे रोने लगीं॥ ८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादयोः पतितस्तस्या भरतोऽपि तदारुदत्।
आलिङ्‍ग्य भरतं साध्वी राममाता यशस्विनी।
कृशातिदीनवदना साश्रुनेत्रेदमब्रवीत्॥ ८३॥

मूलम्

पादयोः पतितस्तस्या भरतोऽपि तदारुदत्।
आलिङ्‍ग्य भरतं साध्वी राममाता यशस्विनी।
कृशातिदीनवदना साश्रुनेत्रेदमब्रवीत्॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भरतजी भी उनके चरणोंमें पड़कर रोने लगे। उन्हें गले लगाकर, (चिन्तासे) महादुर्बल और अति दीनवदना यशस्विनी राममाता कौसल्याने नेत्रोंमें जल भरकर कहा—॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र त्वयि गते दूरमेवं सर्वमभूदिदम्।
उक्तं मात्रा श्रुतं सर्वं त्वया ते मातृचेष्टितम्॥ ८४॥

मूलम्

पुत्र त्वयि गते दूरमेवं सर्वमभूदिदम्।
उक्तं मात्रा श्रुतं सर्वं त्वया ते मातृचेष्टितम्॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘बेटा! तुम्हारे बाहर चले जानेसे जो-जो अनर्थ हुए हैं, अपनी माताकी वे सब करतूतें तुमने उसके मुखसे सुन ही ली होंगी॥ ८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रः सभार्यो वनमेव यातः
सलक्ष्मणो मे रघुरामचन्द्रः।
चीराम्बरो बद्धजटाकलापः
सन्त्यज्य मां दुःखसमुद्रमग्नाम्॥ ८५॥

मूलम्

पुत्रः सभार्यो वनमेव यातः
सलक्ष्मणो मे रघुरामचन्द्रः।
चीराम्बरो बद्धजटाकलापः
सन्त्यज्य मां दुःखसमुद्रमग्नाम्॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा पुत्र रघुश्रेष्ठ रामचन्द्र अपनी पत्नी सीता और लक्ष्मणके सहित चीर-वस्त्र धारण कर और जटाजूट बाँधकर मुझे दुःख-समुद्रमें डुबोकर वनको चला गया॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा राम हा मे रघुवंशनाथ
जातोऽसि मे त्वं परतः परात्मा।
तथापि दुःखं न जहाति मां वै
विधिर्बलीयानिति मे मनीषा॥ ८६॥

मूलम्

हा राम हा मे रघुवंशनाथ
जातोऽसि मे त्वं परतः परात्मा।
तथापि दुःखं न जहाति मां वै
विधिर्बलीयानिति मे मनीषा॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हा राम! हा मेरे रघुवंशशिरोमणि! आप साक्षात् परम पुरुष परमात्माने मेरे गर्भसे जन्म लिया, तथापि दुःखने मेरा पल्ला नहीं छोड़ा। इससे मेरा विचार है कि विधाता ही बलवान् है’’॥ ८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवं भरतो वीक्ष्य विलपन्तीं भृशं शुचा।
पादौ गृहीत्वा प्राहेदं शृणु मातर्वचो मम॥ ८७॥

मूलम्

स एवं भरतो वीक्ष्य विलपन्तीं भृशं शुचा।
पादौ गृहीत्वा प्राहेदं शृणु मातर्वचो मम॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने उन्हें इस प्रकार शोकसे अत्यन्त विलाप करती देख उनके चरण पकड़कर कहा—‘‘माता! मेरी बात सुनो—॥ ८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैकेय्या यत्कृतं कर्म रामराज्याभिषेचने।
अन्यद्वा यदि जानामि सा मया नोदिता यदि॥ ८८॥

मूलम्

कैकेय्या यत्कृतं कर्म रामराज्याभिषेचने।
अन्यद्वा यदि जानामि सा मया नोदिता यदि॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकेयीने श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकके समय जो कुछ करतूत की है अथवा उसने और भी जो कोई कार्य किया है उसे यदि मैं जानता होऊँ अथवा उसमें मेरी सम्मति हो॥ ८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापं मेऽस्तु तदा मातर्ब्रह्महत्याशतोद्भवम्।
हत्वा वसिष्ठं खड्गेन अरुन्धत्या समन्वितम्॥ ८९॥
भूयात्तत्पापमखिलं मम जानामि यद्यहम्।
इत्येवं शपथं कृत्वा रुरोद भरतस्तदा॥ ९०॥

मूलम्

पापं मेऽस्तु तदा मातर्ब्रह्महत्याशतोद्भवम्।
हत्वा वसिष्ठं खड्गेन अरुन्धत्या समन्वितम्॥ ८९॥
भूयात्तत्पापमखिलं मम जानामि यद्यहम्।
इत्येवं शपथं कृत्वा रुरोद भरतस्तदा॥ ९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो हे मातः! मुझे सौ ब्रह्महत्याओंका पाप लगे! अथवा अरुन्धतीके सहित श्रीवसिष्ठजीको खड्गसे मारनेसे जो पाप होता है वही सारा पाप मुझे भी लगे।’’ इस प्रकार शपथ करके भरतजी रो उठे॥ ८९-९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौसल्या तमथालिङ्‍ग्य पुत्र जानामि मा शुचः।
एतस्मिन्नन्तरे श्रुत्वा भरतस्य समागमम्॥ ९१॥
वसिष्ठो मन्त्रिभिः सार्धं प्रययौ राजमन्दिरम्।
रुदन्तं भरतं दृष्ट्वा वसिष्ठः प्राह सादरम्॥ ९२॥

मूलम्

कौसल्या तमथालिङ्‍ग्य पुत्र जानामि मा शुचः।
एतस्मिन्नन्तरे श्रुत्वा भरतस्य समागमम्॥ ९१॥
वसिष्ठो मन्त्रिभिः सार्धं प्रययौ राजमन्दिरम्।
रुदन्तं भरतं दृष्ट्वा वसिष्ठः प्राह सादरम्॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कौसल्याने उन्हें हृदयसे लगाकर कहा—‘‘बेटा! मैं यह सब जानती हूँ, तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो।’’ इसी समय भरतजीका आना सुनकर मन्त्रियोंके सहित वसिष्ठजी राजभवनमें आये और भरतको रोते देखकर आदरपूर्वक बोले—॥ ९१-९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धो राजा दशरथो ज्ञानी सत्यपराक्रमः।
भुक्त्वा मर्त्यसुखं सर्वमिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः॥ ९३॥
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैर्लब्ध्वा रामं सुतं हरिम्।
अन्ते जगाम त्रिदिवं देवेन्द्रार्द्धासनं प्रभुः॥ ९४॥

मूलम्

वृद्धो राजा दशरथो ज्ञानी सत्यपराक्रमः।
भुक्त्वा मर्त्यसुखं सर्वमिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः॥ ९३॥
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैर्लब्ध्वा रामं सुतं हरिम्।
अन्ते जगाम त्रिदिवं देवेन्द्रार्द्धासनं प्रभुः॥ ९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘महाराज दशरथ वृद्ध, ज्ञानी और सत्य-पराक्रमी थे। वे मनुष्यजन्मके समस्त सुख भोगकर, बहुत-सी दक्षिणाके सहित अश्वमेधादि यज्ञोंद्वारा भगवान् का यजन कर और रामचन्द्रके रूपमें साक्षात् विष्णुभगवान् को पुत्ररूपसे पाकर अन्तमें स्वर्गलोकमें जाकर देवराज इन्द्रके आधे आसनके अधिकारी हुए हैं॥ ९३-९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शोचसि वृथैव त्वमशोच्यं मोक्षभाजनम्।
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्धो जन्मनाशादिवर्जितः॥ ९५॥

मूलम्

तं शोचसि वृथैव त्वमशोच्यं मोक्षभाजनम्।
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्धो जन्मनाशादिवर्जितः॥ ९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सर्वथा अशोचनीय और मोक्षके पात्र हैं, उनके लिये तुम वृथा ही शोक करते हो; देखो, आत्मा तो नित्य-अविनाशी, शुद्ध और जन्म-नाशादिसे रहित है॥ ९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरं जडमत्यर्थमपवित्रं विनश्वरम्।
विचार्यमाणे शोकस्य नावकाशः कथञ्चन॥ ९६॥

मूलम्

शरीरं जडमत्यर्थमपवित्रं विनश्वरम्।
विचार्यमाणे शोकस्य नावकाशः कथञ्चन॥ ९६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और शरीर जड, अत्यन्त अपवित्र और नाशवान् है। इस प्रकार विचार करनेपर शोकके लिये कोई स्थान नहीं रह जाता॥ ९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता वा तनयो वापि यदि मृत्युवशं गतः।
मूढास्तमनुशोचन्ति स्वात्मताडनपूर्वकम्॥ ९७॥

मूलम्

पिता वा तनयो वापि यदि मृत्युवशं गतः।
मूढास्तमनुशोचन्ति स्वात्मताडनपूर्वकम्॥ ९७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई पिता या पुत्र मर जाता है तो मूढ़जन ही उसके लिये छाती पीटकर रोते हैं॥ ९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःसारे खलु संसारे वियोगो ज्ञानिनां यदा।
भवेद्वैराग्यहेतुः स शान्तिसौख्यं तनोति च॥ ९८॥

मूलम्

निःसारे खलु संसारे वियोगो ज्ञानिनां यदा।
भवेद्वैराग्यहेतुः स शान्तिसौख्यं तनोति च॥ ९८॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु इस असार संसारमें यदि ज्ञानियोंको किसीसे वियोग होता है तो वह उनके लिये वैराग्यका कारण होता है और सुख तथा शान्तिका विस्तार करता है॥ ९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मवान्यदि लोकेऽस्मिंस्तर्हि तं मृत्युरन्वगात्।
तस्मादपरिहार्योऽयं मृत्युर्जन्मवतां सदा॥ ९९॥

मूलम्

जन्मवान्यदि लोकेऽस्मिंस्तर्हि तं मृत्युरन्वगात्।
तस्मादपरिहार्योऽयं मृत्युर्जन्मवतां सदा॥ ९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि किसीने इस लोकमें जन्म लिया है तो मृत्यु भी अवश्य ही उसके साथ लगी हुई है। अतः जन्म लेनेवालोंके लिये मृत्यु सर्वदा अनिवार्य है॥ ९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वकर्मवशतः सर्वजन्तूनां प्रभवाप्ययौ।
विजानन्नप्यविद्वान्यः कथं शोचति बान्धवान्॥ १००॥

मूलम्

स्वकर्मवशतः सर्वजन्तूनां प्रभवाप्ययौ।
विजानन्नप्यविद्वान्यः कथं शोचति बान्धवान्॥ १००॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने कर्मानुसार ही सब प्राणियोंके जन्म-मरण होते हैं’ यह जानकर भी देखो मूढ़लोग अपने बन्धु-बान्धवोंके लिये कैसे शोक करते हैं॥ १००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्माण्डकोटयो नष्टाः सृष्टयो बहुशो गताः।
शुष्यन्ति सागराः सर्वे कैवास्था क्षणजीविते॥ १०१॥

मूलम्

ब्रह्माण्डकोटयो नष्टाः सृष्टयो बहुशो गताः।
शुष्यन्ति सागराः सर्वे कैवास्था क्षणजीविते॥ १०१॥

अनुवाद (हिन्दी)

करोड़ों ब्रह्माण्ड नष्ट हो गये, अनेकों सृष्टियाँ बीत गयीं, ये सम्पूर्ण समुद्र एक दिन सूख जायँगे, फिर इस क्षणिक जीवनमें भला क्या आस्था की जाय?॥ १०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलपत्रान्तलग्नाम्बुबिन्दुवत्क्षणभङ्गुरम्।
आयुस्त्यजत्यवेलायां कस्तत्र प्रत्ययस्तव॥ १०२॥

मूलम्

चलपत्रान्तलग्नाम्बुबिन्दुवत्क्षणभङ्गुरम्।
आयुस्त्यजत्यवेलायां कस्तत्र प्रत्ययस्तव॥ १०२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह आयु हिलते हुए पत्तेकी नोकपर लटकती हुई जलकी बूँदके समान क्षणभंगुर है, असमय ही छोड़कर चली जाती है; उसका तुम क्या विश्वास करते हो?॥ १०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देही प्राक्तनदेहोत्थकर्मणा देहवान् पुनः।
तद्देहोत्थेन च पुनरेवं देहः सदात्मनः॥ १०३॥

मूलम्

देही प्राक्तनदेहोत्थकर्मणा देहवान् पुनः।
तद्देहोत्थेन च पुनरेवं देहः सदात्मनः॥ १०३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जीवात्माने अपने पूर्व-देह-कृत कर्मोंसे यह शरीर धारण किया है और फिर इस देहके कर्मोंसे यह और शरीर धारण करेगा। इसी प्रकार आत्माको सदा पुनः-पुनः देहकी प्राप्ति होती रहती है॥ १०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा त्यजति वै जीर्णं वासो गृह्णाति नूतनम्।
तथा जीर्णं परित्यज्य देही देहं पुनर्नवम्॥ १०४॥
भजत्येव सदा तत्र शोकस्यावसरः कुतः।
आत्मा न म्रियते जातु जायते न च वर्धते॥ १०५॥

मूलम्

यथा त्यजति वै जीर्णं वासो गृह्णाति नूतनम्।
तथा जीर्णं परित्यज्य देही देहं पुनर्नवम्॥ १०४॥
भजत्येव सदा तत्र शोकस्यावसरः कुतः।
आत्मा न म्रियते जातु जायते न च वर्धते॥ १०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जिस प्रकार पुराने वस्त्रोंको उतारकर फिर नये वस्त्र पहन लेता है, उसी प्रकार देहधारी जीव पुराने शरीरको छोड़कर नवीन शरीर धारण कर लेता है। अतः इसमें शोकका क्या कारण है? क्योंकि आत्मा तो न कभी मरता है, न जन्मता है और न बढ़ता ही है॥ १०४-१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षड्भावरहितोऽनन्तः सत्यप्रज्ञानविग्रहः।
आनन्दरूपो बुद्‍ध्यादिसाक्षी लयविवर्जितः॥ १०६॥

मूलम्

षड्भावरहितोऽनन्तः सत्यप्रज्ञानविग्रहः।
आनन्दरूपो बुद्‍ध्यादिसाक्षी लयविवर्जितः॥ १०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह षड्-भाव-विकारोंसे रहित, अनन्त, सच्चित्स्वरूप, आनन्दरूप, बुद्धि आदिका साक्षी और अविनाशी है॥ १०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक एव परो ह्यात्मा ह्यद्वितीयः समः स्थितः।
इत्यात्मानं दृढं ज्ञात्वा त्यक्त्वा शोकं कुरु क्रियाम्॥ १०७॥

मूलम्

एक एव परो ह्यात्मा ह्यद्वितीयः समः स्थितः।
इत्यात्मानं दृढं ज्ञात्वा त्यक्त्वा शोकं कुरु क्रियाम्॥ १०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह परमात्मा एक, अद्वितीय और समभावसे स्थित है। इस प्रकार तुम आत्माका दृढ़ ज्ञान प्राप्त कर शोकरहित हो समस्त कार्य करो॥ १०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैलद्रोण्याः पितुर्देहमुद्‍धृत्य सचिवैः सह।
कृत्यं कुरु यथान्यायमस्माभिः कुलनन्दन॥ १०८॥

मूलम्

तैलद्रोण्याः पितुर्देहमुद्‍धृत्य सचिवैः सह।
कृत्यं कुरु यथान्यायमस्माभिः कुलनन्दन॥ १०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कुलनन्दन भरत! अपने पिताका शरीर तैलकी नावमेंसे निकालकर मन्त्रियों और हम सब ऋषियोंके साथ उसका विधिपूर्वक अन्त्येष्टि-संस्कार करो’’॥ १०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सम्बोधितः साक्षाद्‍गुरुणा भरतस्तदा।
विसृज्याज्ञानजं शोकं चक्रे सविधिवत्क्रियाम्॥ १०९॥

मूलम्

इति सम्बोधितः साक्षाद्‍गुरुणा भरतस्तदा।
विसृज्याज्ञानजं शोकं चक्रे सविधिवत्क्रियाम्॥ १०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब गुरुजीके इस प्रकार समझानेपर भरतजीने अज्ञानजन्य शोकको छोड़कर राजाका विधिवत् अन्त्य कृत्य किया॥ १०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुणोक्तप्रकारेण आहिताग्नेर्यथाविधि।
संस्कृत्य स पितुर्देहं विधिदृष्टेन कर्मणा॥ ११०॥
एकादशेऽहनि प्राप्ते ब्राह्मणान् वेदपारगान्।
भोजयामास विधिवच्छतशोऽथ सहस्रशः॥ १११॥

मूलम्

गुरुणोक्तप्रकारेण आहिताग्नेर्यथाविधि।
संस्कृत्य स पितुर्देहं विधिदृष्टेन कर्मणा॥ ११०॥
एकादशेऽहनि प्राप्ते ब्राह्मणान् वेदपारगान्।
भोजयामास विधिवच्छतशोऽथ सहस्रशः॥ १११॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीके कथनानुसार जैसे अग्निहोत्रीका अन्तिम संस्कार करना चाहिये, उसी प्रकार विधिपूर्वक पिताके देहका शास्त्रानुकूल संस्कार कराकर, फिर एकादशाह आनेपर सैकड़ों-हजारों वेदज्ञ ब्राह्मणोंको विधिवत् भोजन कराया॥ ११०-१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्दिश्य पितरं तत्र ब्राह्मणेभ्यो धनं बहु।
ददौ गवां सहस्राणि ग्रामान् रत्नाम्बराणि च॥ ११२॥

मूलम्

उद्दिश्य पितरं तत्र ब्राह्मणेभ्यो धनं बहु।
ददौ गवां सहस्राणि ग्रामान् रत्नाम्बराणि च॥ ११२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा पिताके उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको बहुत-सा धन, हजारों गौएँ, अनेकों गाँव और रत्न तथा वस्त्रादि दिये॥ ११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवसत्स्वगृहे तत्र राममेवानुचिन्तयन्।
वसिष्ठेन सह भ्रात्रा मन्त्रिभिः परिवारितः॥ ११३॥

मूलम्

अवसत्स्वगृहे तत्र राममेवानुचिन्तयन्।
वसिष्ठेन सह भ्रात्रा मन्त्रिभिः परिवारितः॥ ११३॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामचन्द्रजीका ही स्मरण करते हुए वे गुरु वसिष्ठजी, भाई शत्रुघ्न और मन्त्रियोंके साथ अपने घरमें रहने लगे॥ ११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेऽरण्यं प्रयाते सह जनकसुता-
लक्ष्मणाभ्यां सुघोरं
माता मे राक्षसीव प्रदहति हृदयं
दर्शनादेव सद्यः।
गच्छाम्यारण्यमद्य स्थिरमतिरखिलं
दूरतोऽपास्य राज्यं
रामं सीतासमेतं स्मितरुचिरमुखं
नित्यमेवानुसेवे॥ ११४॥

मूलम्

रामेऽरण्यं प्रयाते सह जनकसुता-
लक्ष्मणाभ्यां सुघोरं
माता मे राक्षसीव प्रदहति हृदयं
दर्शनादेव सद्यः।
गच्छाम्यारण्यमद्य स्थिरमतिरखिलं
दूरतोऽपास्य राज्यं
रामं सीतासमेतं स्मितरुचिरमुखं
नित्यमेवानुसेवे॥ ११४॥

अनुवाद (हिन्दी)

घरमें रहते हुए वे मन-ही-मन सोचा करते थे कि ‘जनकनन्दिनी महारानी सीता और लक्ष्मणके सहित श्रीरघुनाथजीके भयंकर वनमें चले जानेसे माता कैकेयी अपने दर्शनमात्रसे ही राक्षसीके समान मेरे हृदयमें दाह उत्पन्न करती है। अतः अब मैं निस्सन्देह शीघ्र ही सब राज-पाट छोड़कर वनको जाऊँगा और मधुर मुसकानसे जिनका मुखारविन्द अति शोभित हो रहा है उन राम और सीताकी नित्यप्रति सेवा करूँगा’॥ ११४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे सप्तमः सर्गः॥ ७॥