[षष्ठ सर्ग]
भागसूचना
गंगोत्तरण तथा भरद्वाज और वाल्मीकिजीसे भेंट
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्तं रामं समालोक्य गुहः सोऽश्रुपरिप्लुतः।
लक्ष्मणं प्राह विनयाद् भ्रातः पश्यसि राघवम्॥ १॥
शयानं कुशपत्रौघसंस्तरे सीतया सह।
यः शेते स्वर्णपर्यङ्के स्वास्तीर्णे भवनोत्तमे॥ २॥
मूलम्
सुप्तं रामं समालोक्य गुहः सोऽश्रुपरिप्लुतः।
लक्ष्मणं प्राह विनयाद् भ्रातः पश्यसि राघवम्॥ १॥
शयानं कुशपत्रौघसंस्तरे सीतया सह।
यः शेते स्वर्णपर्यङ्के स्वास्तीर्णे भवनोत्तमे॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! उस समय रामजीको सोते देख गुहने आँखोंमें आँसू भरकर नम्रतापूर्वक लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘भाई! देखते हो, जो रघुनाथजी अपने भव्य-भवनमें सुन्दर बिछौनेसे युक्त सुवर्णनिर्मित पलंगपर पौढ़ते थे वे ही आज सीताजीके सहित कुश और पत्तोंकी साथरीपर पड़े हुए हैं॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेयी रामदुःखस्य कारणं विधिना कृता।
मन्थराबुद्धिमास्थाय कैकेयी पापमाचरत्॥ ३॥
मूलम्
कैकेयी रामदुःखस्य कारणं विधिना कृता।
मन्थराबुद्धिमास्थाय कैकेयी पापमाचरत्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताने रामजीके इस दुःखका कारण कैकेयीको बना दिया। मन्थराकी बुद्धिपर विश्वास करके कैकेयीने यह बड़ा पापका काम किया!’’॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणः प्राह सखे शृणु वचो मम।
कः कस्य हेतुर्दुःखस्य कश्च हेतुः सुखस्य वा॥ ४॥
स्वपूर्वार्जितकर्मैव कारणं सुखदुःखयोः॥ ५॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणः प्राह सखे शृणु वचो मम।
कः कस्य हेतुर्दुःखस्य कश्च हेतुः सुखस्य वा॥ ४॥
स्वपूर्वार्जितकर्मैव कारणं सुखदुःखयोः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर लक्ष्मणजीने कहा—‘‘भाई! मेरी बात सुनो? किसीके दुःख अथवा सुखका कारण दूसरा कौन है? अर्थात् कोई भी नहीं है। मनुष्यका पूर्वकृत कर्म ही उसके सुख अथवा दुःखका कारण होता है॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः॥ ६॥
मूलम्
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुख और दुःखका देनेवाला कोई और नहीं है; ‘कोई अन्य सुख-दुःख देता है’ यह समझना कुबुद्धि है। ‘मैं करता हूँ’ यह वृथा अभिमान है; क्योंकि लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीमें बँधे हुए हैं॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृन्मित्रार्युदासीनद्वेष्यमध्यस्थबान्धवाः।
स्वयमेवाचरन्कर्म तथा तत्र विभाव्यते॥ ७॥
मूलम्
सुहृन्मित्रार्युदासीनद्वेष्यमध्यस्थबान्धवाः।
स्वयमेवाचरन्कर्म तथा तत्र विभाव्यते॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मनुष्य स्वयं ही पृथक्-पृथक् आचरण करके उसके अनुसार सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, द्वेष्य, मध्यस्थ और बन्धु आदिकी कल्पना कर लेता है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं वा यदि वा दुःखं स्वकर्मवशगो नरः।
यद्यद्यथागतं तत्तद् भुक्त्वा स्वस्थमना भवेत्॥ ८॥
मूलम्
सुखं वा यदि वा दुःखं स्वकर्मवशगो नरः।
यद्यद्यथागतं तत्तद् भुक्त्वा स्वस्थमना भवेत्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मनुष्यको चाहिये कि प्रारब्धानुसार सुख या दुःख जो कुछ भी जैसे-जैसे प्राप्त हो उसे वैसे ही भोगते हुए सदा प्रसन्नचित्त रहे॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे भोगागमे वाञ्छा न मे भोगविवर्जने।
आगच्छत्वथ मागच्छत्वभोगवशगो भवेत्॥ ९॥
मूलम्
न मे भोगागमे वाञ्छा न मे भोगविवर्जने।
आगच्छत्वथ मागच्छत्वभोगवशगो भवेत्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमें न तो भोगोंकी प्राप्तिकी इच्छा है और न उन्हें त्यागनेकी। भोग आयें या न आयें हम भोगोंके अधीन नहीं हैं॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् देशे च काले च यस्माद्वा येन केन वा।
कृतं शुभाशुभं कर्म भोज्यं तत्तत्र नान्यथा॥ १०॥
मूलम्
यस्मिन् देशे च काले च यस्माद्वा येन केन वा।
कृतं शुभाशुभं कर्म भोज्यं तत्तत्र नान्यथा॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस देश अथवा जिस कालमें जिस किसीके द्वारा शुभ अथवा अशुभ कर्म किया जाता है, उसे निस्सन्देह उसी प्रकार भोगना पड़ता है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं हर्षविषादाभ्यां शुभाशुभफलोदये।
विधात्रा विहितं यद्यत्तदलङ्घ्यं सुरासुरैः॥ ११॥
मूलम्
अलं हर्षविषादाभ्यां शुभाशुभफलोदये।
विधात्रा विहितं यद्यत्तदलङ्घ्यं सुरासुरैः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः शुभ अथवा अशुभ कर्मफलके उदय होनेपर हर्ष अथवा दुःख मानना व्यर्थ है; क्योंकि विधाताकी गतिका देवता अथवा दैत्य कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता है॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वदा सुखदुःखाभ्यां नरः प्रत्यवरुध्यते।
शरीरं पुण्यपापाभ्यामुत्पन्नं सुखदुःखवत्॥ १२॥
मूलम्
सर्वदा सुखदुःखाभ्यां नरः प्रत्यवरुध्यते।
शरीरं पुण्यपापाभ्यामुत्पन्नं सुखदुःखवत्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य सदा ही दुःख और सुखसे घिरा रहता है; क्योंकि मनुष्य-शरीर पाप और पुण्यके मेलसे उत्पन्न होनेके कारण सुख-दुःखमय ही है॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
द्वयमेतद्धि जन्तूनामलङ्घ्यं दिनरात्रिवत्॥ १३॥
मूलम्
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
द्वयमेतद्धि जन्तूनामलङ्घ्यं दिनरात्रिवत्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुखके पीछे दुःख और दुःखके पीछे सुख आता है। ये दोनों ही दिन और रात्रिके समान जीवोंसे अलंघनीय हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमध्ये स्थितं दुःखं दुःखमध्ये स्थितं सुखम्।
द्वयमन्योन्यसंयुक्तं प्रोच्यते जलपङ्कवत्॥ १४॥
मूलम्
सुखमध्ये स्थितं दुःखं दुःखमध्ये स्थितं सुखम्।
द्वयमन्योन्यसंयुक्तं प्रोच्यते जलपङ्कवत्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुखके भीतर दुःख और दुःखके भीतर सुख सर्वदा वर्तमान रहता है। ये दोनों ही जल और कीचड़के समान आपसमें मिले हुए रहते हैं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्धैर्येण विद्वांस इष्टानिष्टोपपत्तिषु।
न हृष्यन्ति न मुह्यन्ति सर्वं मायेति भावनात्॥ १५॥
मूलम्
तस्माद्धैर्येण विद्वांस इष्टानिष्टोपपत्तिषु।
न हृष्यन्ति न मुह्यन्ति सर्वं मायेति भावनात्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये विद्वान् लोग ‘सब कुछ माया ही है’ इस भावनाके कारण इष्ट या अनिष्टकी प्राप्तिमें धैर्य रखकर हर्ष या शोक नहीं मानते’’॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहलक्ष्मणयोरेवं भाषतोर्विमलं नभः।
बभूव रामः सलिलं स्पृष्ट्वा प्रातः समाहितः॥ १६॥
मूलम्
गुहलक्ष्मणयोरेवं भाषतोर्विमलं नभः।
बभूव रामः सलिलं स्पृष्ट्वा प्रातः समाहितः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुह और लक्ष्मणके इस प्रकार बातचीत करते-करते आकाशमें उजाला हो गया। तब रामचन्द्रजीने सावधानतापूर्वक आचमन कर प्रातः क्रिया की॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच शीघ्रं सुदृढां नावमानय मे सखे।
श्रुत्वा रामस्य वचनं निषादाधिपतिर्गुहः॥ १७॥
स्वयमेव दृढां नावमानिनाय सुलक्षणाम्।
स्वामिन्नारुह्यतां नौका सीतया लक्ष्मणेन च॥ १८॥
मूलम्
उवाच शीघ्रं सुदृढां नावमानय मे सखे।
श्रुत्वा रामस्य वचनं निषादाधिपतिर्गुहः॥ १७॥
स्वयमेव दृढां नावमानिनाय सुलक्षणाम्।
स्वामिन्नारुह्यतां नौका सीतया लक्ष्मणेन च॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोले—‘‘मित्र! शीघ्र ही मेरे लिये एक सुदृढ़ नौका लाओ।’’ रामके ये वचन सुनकर निषादराज गुह स्वयं ही एक सुलक्षण-सम्पन्न सुदृढ़ नौका ले आये और बोले— ‘‘स्वामिन्! सीता और लक्ष्मणके सहित नावपर चढ़िये॥ १७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहये ज्ञातिभिः सार्धमहमेव समाहितः।
तथेति राघवः सीतामारोप्य शुभलक्षणाम्॥ १९॥
मूलम्
वाहये ज्ञातिभिः सार्धमहमेव समाहितः।
तथेति राघवः सीतामारोप्य शुभलक्षणाम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने जाति-भाइयोंके साथ मैं स्वयं इसे सावधानतापूर्वक चलाऊँगा।’’ तब रघुनाथजीने ‘बहुत अच्छा’ कह प्रथम शुभलक्षणा सीताजीको उसपर चढ़ाया॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहस्य हस्तावालम्ब्य स्वयं चारोहदच्युतः।
आयुधादीन् समारोप्य लक्ष्मणोऽप्यारुरोह च॥ २०॥
मूलम्
गुहस्य हस्तावालम्ब्य स्वयं चारोहदच्युतः।
आयुधादीन् समारोप्य लक्ष्मणोऽप्यारुरोह च॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर गुहका हाथ पकड़कर श्रीअच्युत भगवान् रघुनाथजी स्वयं चढ़े। तदनन्तर अपने आयुधादिको रख श्रीलक्ष्मणजी नौकारूढ़ हुए॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहस्तान्वाहयामास ज्ञातिभिः सहितः स्वयम्।
गङ्गामध्ये गता गङ्गां प्रार्थयामास जानकी॥ २१॥
मूलम्
गुहस्तान्वाहयामास ज्ञातिभिः सहितः स्वयम्।
गङ्गामध्ये गता गङ्गां प्रार्थयामास जानकी॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गुहने अपने जाति-भाइयोंके सहित स्वयं नौका चलायी। जिस समय नाव गंगाजीके बीचमें पहुँची तब जानकीजीने गंगाजीसे प्रार्थना की—॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवि गङ्गे नमस्तुभ्यं निवृत्ता वनवासतः।
रामेण सहिताहं त्वां लक्ष्मणेन च पूजये॥ २२॥
इत्युक्त्वा परकूलं तौ शनैरुत्तीर्य जग्मतुः॥ २३॥
मूलम्
देवि गङ्गे नमस्तुभ्यं निवृत्ता वनवासतः।
रामेण सहिताहं त्वां लक्ष्मणेन च पूजये॥ २२॥
इत्युक्त्वा परकूलं तौ शनैरुत्तीर्य जग्मतुः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘देवि गंगे! मैं तुम्हें प्रणाम करती हूँ। वनवाससे लौटनेपर मैं राम और लक्ष्मणके सहित तुम्हारी पूजा करूँगी।’’ इस प्रकार प्रार्थना करनेके पश्चात् वे शनैः-शनैः पार उतरकर आगे चलने लगे॥ २२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहोऽपि राघवं प्राह गमिष्यामि त्वया सह।
अनुज्ञां देहि राजेन्द्र नोचेत्प्राणांस्त्यजाम्यहम्॥ २४॥
मूलम्
गुहोऽपि राघवं प्राह गमिष्यामि त्वया सह।
अनुज्ञां देहि राजेन्द्र नोचेत्प्राणांस्त्यजाम्यहम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गुहने श्रीरघुनाथजीसे कहा—‘‘हे राजेन्द्र! मैं भी आपके साथ ही चलूँगा; आप मुझे आज्ञा दीजिये, नहीं तो मैं प्राण छोड़ दूँगा॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा नैषादिवचनं श्रीरामस्तमथाब्रवीत्।
चतुर्दश समाः स्थित्वा दण्डके पुनरप्यहम्॥ २५॥
आयास्याम्युदितं सत्यं नासत्यं रामभाषितम्।
इत्युक्त्वालिङ्ग्य तं भक्तं समाश्वास्य पुनः पुनः॥ २६॥
निवर्तयामास गुहं सोऽपि कृच्छ्राद्ययौ गृहम्॥ २७॥
मूलम्
श्रुत्वा नैषादिवचनं श्रीरामस्तमथाब्रवीत्।
चतुर्दश समाः स्थित्वा दण्डके पुनरप्यहम्॥ २५॥
आयास्याम्युदितं सत्यं नासत्यं रामभाषितम्।
इत्युक्त्वालिङ्ग्य तं भक्तं समाश्वास्य पुनः पुनः॥ २६॥
निवर्तयामास गुहं सोऽपि कृच्छ्राद्ययौ गृहम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
निषादपुत्रके वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने उनसे कहा—‘‘मैं चौदह वर्ष दण्डकारण्यमें रहकर यहाँ फिर आऊँगा। मैं जो कुछ कहता हूँ सत्य ही कहता हूँ, रामकी बात कभी मिथ्या नहीं हो सकती।’’ ऐसा कह रामजीने भक्त गुहको ढाढ़स बँधा उसे बारम्बार गले लगाकर विदा किया। तब निषादराज गुह बड़ी कठिनतासे घर लौटे॥ २५—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामस्तु वैदेह्या लक्ष्मणेन समन्वितः॥ २८॥
भरद्वाजाश्रमपदं गत्वा बहिरुपस्थितः।
तत्रैकं बटुकं दृष्ट्वा रामः प्राह च हे बटो॥ २९॥
रामो दाशरथिः सीतालक्ष्मणाभ्यां समन्वितः।
आस्ते बहिर्वनस्येति ह्युच्यतां मुनिसन्निधौ॥ ३०॥
मूलम्
ततो रामस्तु वैदेह्या लक्ष्मणेन समन्वितः॥ २८॥
भरद्वाजाश्रमपदं गत्वा बहिरुपस्थितः।
तत्रैकं बटुकं दृष्ट्वा रामः प्राह च हे बटो॥ २९॥
रामो दाशरथिः सीतालक्ष्मणाभ्यां समन्वितः।
आस्ते बहिर्वनस्येति ह्युच्यतां मुनिसन्निधौ॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जानकीजी और लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजी भरद्वाज मुनिके आश्रमके पास पहुँचकर बाहर खड़े हो गये। वहाँ एक ब्रह्मचारीको देखकर श्रीरामचन्द्रजीने कहा—‘‘हे बटो! मुनिवरसे जाकर कहो कि दशरथका पुत्र राम सीता और लक्ष्मणके सहित आश्रमके बाहर खड़ा है’’॥ २८—३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा सहसा गत्वा पादयोः पतितो मुनेः।
स्वामिन् रामः समागत्य वनाद्बहिरवस्थितः॥ ३१॥
सभार्यः सानुजः श्रीमानाह मां देवसन्निभः।
भरद्वाजाय मुनये ज्ञापयस्व यथोचितम्॥ ३२॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा सहसा गत्वा पादयोः पतितो मुनेः।
स्वामिन् रामः समागत्य वनाद्बहिरवस्थितः॥ ३१॥
सभार्यः सानुजः श्रीमानाह मां देवसन्निभः।
भरद्वाजाय मुनये ज्ञापयस्व यथोचितम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
रघुनाथजीका यह कथन सुनकर ब्रह्मचारीने तुरंत ही मुनिवरके पास जाकर उनके चरणोंमें सिर रखकर कहा—‘‘भगवन्! पत्नी और छोटे भाईके सहित श्रीमान् रामचन्द्र आये हैं और आश्रमके बाहर खड़े हैं। उन देवतुल्य श्रीरामजीने मुझसे कहा है कि मुनिवर भरद्वाजको इसकी यथायोग्य सूचना दो’’॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा सहसोत्थाय भरद्वाजो मुनीश्वरः।
गृहीत्वार्घ्यं च पाद्यं च रामसामीप्यमाययौ॥ ३३॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा सहसोत्थाय भरद्वाजो मुनीश्वरः।
गृहीत्वार्घ्यं च पाद्यं च रामसामीप्यमाययौ॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर मुनिनाथ भरद्वाज सहसा उठ खड़े हुए और अर्घ्य-पाद्यादि लेकर रामके पास आये॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा रामं यथान्यायं पूजयित्वा सलक्ष्मणम्।
आह मे पर्णशालां भो राम राजीवलोचन॥ ३४॥
आगच्छ पादरजसा पुनीहि रघुनन्दन।
इत्युक्त्वोटजमानीय सीतया सह राघवौ॥ ३५॥
मूलम्
दृष्ट्वा रामं यथान्यायं पूजयित्वा सलक्ष्मणम्।
आह मे पर्णशालां भो राम राजीवलोचन॥ ३४॥
आगच्छ पादरजसा पुनीहि रघुनन्दन।
इत्युक्त्वोटजमानीय सीतया सह राघवौ॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामको देखकर उन्होंने लक्ष्मणजीसहित उनकी नियमानुसार पूजा की और कहा—‘‘हे राम! हे कमलनयन रघुनन्दन! आइये, अपनी चरण-रजसे मेरी पर्णशालाको पवित्र कीजिये।’’ ऐसा कह वे सीताजीके सहित दोनों रघुकुमारोंको अपनी कुटियामें ले आये॥ ३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्त्या पुनः पूजयित्वा चकारातिथ्यमुत्तमम्।
अद्याहं तपसः पारं गतोऽस्मि तव सङ्गमात्॥ ३६॥
मूलम्
भक्त्या पुनः पूजयित्वा चकारातिथ्यमुत्तमम्।
अद्याहं तपसः पारं गतोऽस्मि तव सङ्गमात्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और फिर उनका भक्तिपूर्वक पूजन कर भली प्रकार आतिथ्य-सत्कार किया। तदनन्तर मुनिवर बोले—‘‘राम! आज आपके समागमसे मेरी तपस्या पूर्ण हो गयी॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातं राम तवोदन्तं भूतं चागामिकं च यत्।
जानामि त्वां परात्मानं मायया कार्यमानुषम्॥ ३७॥
मूलम्
ज्ञातं राम तवोदन्तं भूतं चागामिकं च यत्।
जानामि त्वां परात्मानं मायया कार्यमानुषम्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनन्दन! मैं आपका भूत और भविष्यत् सम्पूर्ण वृत्तान्त जानता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आप साक्षात् परमात्मा हैं और कार्यकी सिद्धिके लिये ही मायासे मनुष्यरूप हुए हैं॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थमवतीर्णोऽसि प्रार्थितो ब्रह्मणा पुरा।
यदर्थं वनवासस्ते यत्करिष्यसि वै पुरः॥ ३८॥
जानामि ज्ञानदृष्ट्याहं जातया त्वदुपासनात्।
इतः परं त्वां किं वक्ष्ये कृतार्थोऽहं रघूत्तम॥ ३९॥
यस्त्वां पश्यामि काकुत्स्थं पुरुषं प्रकृतेः परम्।
रामस्तमभिवाद्याह सीतालक्ष्मणसंयुतः॥ ४०॥
मूलम्
यदर्थमवतीर्णोऽसि प्रार्थितो ब्रह्मणा पुरा।
यदर्थं वनवासस्ते यत्करिष्यसि वै पुरः॥ ३८॥
जानामि ज्ञानदृष्ट्याहं जातया त्वदुपासनात्।
इतः परं त्वां किं वक्ष्ये कृतार्थोऽहं रघूत्तम॥ ३९॥
यस्त्वां पश्यामि काकुत्स्थं पुरुषं प्रकृतेः परम्।
रामस्तमभिवाद्याह सीतालक्ष्मणसंयुतः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें ब्रह्माके प्रार्थना करनेसे जिसलिये आपने अवतार लिया है, जिस लिये आपको वनवास हुआ है और जो कुछ आप आगे करेंगे, वह सब आपकी उपासनाद्वारा प्राप्त हुई ज्ञान-दृष्टिसे मैं जानता हूँ। हे रघुश्रेष्ठ! आपसे मैं अधिक क्या कहूँ? मैं तो कृतार्थ हो गया, जो आज प्रकृतिसे परे साक्षात् पुरुषोत्तम आप ककुत्स्थनन्दनको देख रहा हूँ’’ तब सीता और लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रणाम करके कहा—॥ ३८—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्राह्यास्त्वया ब्रह्मन् वयं क्षत्रियबान्धवाः।
इति सम्भाष्य तेऽन्योन्यमुषित्वा मुनिसन्निधौ॥ ४१॥
मूलम्
अनुग्राह्यास्त्वया ब्रह्मन् वयं क्षत्रियबान्धवाः।
इति सम्भाष्य तेऽन्योन्यमुषित्वा मुनिसन्निधौ॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘ब्रह्मन्! हम क्षत्रिय-कुलोत्पन्न हैं; अतः आपकी कृपाके पात्र हैं।’’ इस प्रकार परस्पर एक-दूसरेसे कहनेके उपरान्त वे मुनिके यहाँ ठहर गये॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातरुत्थाय यमुनामुत्तीर्य मुनिदारकैः।
कृताप्लवेन मुनिना दृष्टमार्गेण राघवः॥ ४२॥
प्रययौ चित्रकूटाद्रिं वाल्मीकेर्यत्र चाश्रमः।
गत्वा रामोऽथ वाल्मीकेराश्रमं ऋषिसङ्कुलम्॥ ४३॥
नानामृगद्विजाकीर्णं नित्यपुष्पफलाकुलम्।
तत्र दृष्ट्वा समासीनं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम्॥ ४४॥
मूलम्
प्रातरुत्थाय यमुनामुत्तीर्य मुनिदारकैः।
कृताप्लवेन मुनिना दृष्टमार्गेण राघवः॥ ४२॥
प्रययौ चित्रकूटाद्रिं वाल्मीकेर्यत्र चाश्रमः।
गत्वा रामोऽथ वाल्मीकेराश्रमं ऋषिसङ्कुलम्॥ ४३॥
नानामृगद्विजाकीर्णं नित्यपुष्पफलाकुलम्।
तत्र दृष्ट्वा समासीनं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रातःकाल जागनेपर श्रीरघुनाथजी मुनिकुमारोंकी बनायी हुई डोंगीपर चढ़कर यमुनाके पार हुए और मुनिवरके बताये हुए मार्गसे चित्रकूट-पर्वतकी ओर चले जहाँ वाल्मीकिजीका आश्रम था। उस ऋषिगणोंसे भरे हुए, नाना मृग और पक्षियोंसे समाकुल तथा सर्वदा फल-पुष्पादिसे परिपूर्ण वाल्मीकिजीके आश्रममें जाकर श्रीरामचन्द्रजीने देखा कि मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी बैठे हुए हैं॥४२—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननाम शिरसा रामो लक्ष्मणेन च सीतया।
दृष्ट्वा रामं रमानाथं वाल्मीकिर्लोकसुन्दरम्॥ ४५॥
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्।
कन्दर्पसदृशाकारं कमनीयाम्बुजेक्षणम्॥ ४६॥
मूलम्
ननाम शिरसा रामो लक्ष्मणेन च सीतया।
दृष्ट्वा रामं रमानाथं वाल्मीकिर्लोकसुन्दरम्॥ ४५॥
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्।
कन्दर्पसदृशाकारं कमनीयाम्बुजेक्षणम्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मण और सीताके सहित उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। तब श्रीवाल्मीकिजीने सुन्दर कमलके समान नेत्रवाले, कामदेवकी-सी आकृतिवाले, जटा-मुकुटधारी, त्रिलोक-मोहन लक्ष्मीपति श्रीरामचन्द्रजीको सीता और लक्ष्मणके सहित देखा॥ ४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव सहसोत्तस्थौ विस्मयानिमिषेक्षणः।
आलिङ्ग्य परमानन्दं रामं हर्षाश्रुलोचनः॥ ४७॥
मूलम्
दृष्ट्वैव सहसोत्तस्थौ विस्मयानिमिषेक्षणः।
आलिङ्ग्य परमानन्दं रामं हर्षाश्रुलोचनः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखते ही श्रीवाल्मीकिजी सहसा उठ खड़े हुए, उनके नेत्र आश्चर्यसे निमेषशून्य हो गये और उन्होंने नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भर परमानन्दस्वरूप श्रीरामचन्द्रजीका आलिंगन किया॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजयित्वा जगत्पूज्यं भक्त्यार्घ्यादिभिरादृतः।
फलमूलैः स मधुरैर्भोजयित्वा च लालितः॥ ४८॥
मूलम्
पूजयित्वा जगत्पूज्यं भक्त्यार्घ्यादिभिरादृतः।
फलमूलैः स मधुरैर्भोजयित्वा च लालितः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अति भक्तिभावसे जगत्पूज्य भगवान् रामकी अर्घ्यादिसे सादर पूजा कर उन्हें मीठे-मीठे फल-मूलादि खिलाकर उनका लालन किया॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवः प्राञ्जलिः प्राह वाल्मीकिं विनयान्वितः।
पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दण्डकानागता वयम्॥ ४९॥
मूलम्
राघवः प्राञ्जलिः प्राह वाल्मीकिं विनयान्वितः।
पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दण्डकानागता वयम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरघुनाथजीने अति नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर श्रीवाल्मीकिजीसे कहा—‘‘हम पिताजीकी आज्ञा मानकर दण्डकवनमें आये हैं॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तो यदि जानन्ति किं वक्ष्यामोऽत्र कारणम्।
यत्र मे सुखवासाय भवेत्स्थानं वदस्व तत्॥ ५०॥
सीतया सहितः कालं किञ्चित्तत्र नयाम्यहम्।
इत्युक्तो राघवेणासौ मुनिः सस्मितमब्रवीत्॥ ५१॥
मूलम्
भवन्तो यदि जानन्ति किं वक्ष्यामोऽत्र कारणम्।
यत्र मे सुखवासाय भवेत्स्थानं वदस्व तत्॥ ५०॥
सीतया सहितः कालं किञ्चित्तत्र नयाम्यहम्।
इत्युक्तो राघवेणासौ मुनिः सस्मितमब्रवीत्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर हम आपको इसका कारण क्या बतायें? अब आप मुझे कोई ऐसा स्थान बताइये जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ। आपके बताये हुए उस स्थानमें मैं सीताके साथ रहकर कुछ समय बिताऊँगा’’ रघुनाथजीके इस प्रकार कहनेपर मुनिवरने मुसकराकर कहा—॥ ५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव सर्वलोकानां निवासस्थानमुत्तमम्।
तवापि सर्वभूतानि निवाससदनानि हि॥ ५२॥
मूलम्
त्वमेव सर्वलोकानां निवासस्थानमुत्तमम्।
तवापि सर्वभूतानि निवाससदनानि हि॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! सम्पूर्ण प्राणियोंके आप ही एकमात्र उत्तम निवास-स्थान हैं और सब जीव भी आपके निवास-गृह हैं॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं साधारणं स्थानमुक्तं ते रघुनन्दन।
सीतया सहितस्येति विशेषं पृच्छतस्तव॥ ५३॥
तद्वक्ष्यामि रघुश्रेष्ठ यत्ते नियतमन्दिरम्।
शान्तानां समदृष्टीनामद्वेष्टॄणां च जन्तुषु।
त्वामेव भजतां नित्यं हृदयं तेऽधिमन्दिरम्॥ ५४॥
मूलम्
एवं साधारणं स्थानमुक्तं ते रघुनन्दन।
सीतया सहितस्येति विशेषं पृच्छतस्तव॥ ५३॥
तद्वक्ष्यामि रघुश्रेष्ठ यत्ते नियतमन्दिरम्।
शान्तानां समदृष्टीनामद्वेष्टॄणां च जन्तुषु।
त्वामेव भजतां नित्यं हृदयं तेऽधिमन्दिरम्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनन्दन! इस प्रकार यह मैंने आपका साधारण निवास-स्थान बताया, परन्तु आपने विशेषरूपसे सीताके सहित अपने रहनेका स्थान पूछा है। इसलिये हे रघुश्रेष्ठ! अब मैं आपका जो निश्चित गृह है वह बताता हूँ। जो शान्त, समदर्शी और सम्पूर्ण जीवोंके प्रति द्वेषहीन हैं तथा अहर्निश आपका ही भजन करते हैं उनका हृदय आपका प्रधान निवास-स्थान है॥ ५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माधर्मान्परित्यज्य त्वामेव भजतोऽनिशम्।
सीतया सह ते राम तस्य हृत्सुखमन्दिरम्॥ ५५॥
मूलम्
धर्माधर्मान्परित्यज्य त्वामेव भजतोऽनिशम्।
सीतया सह ते राम तस्य हृत्सुखमन्दिरम्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धर्म और अधर्म दोनोंको छोड़कर निरन्तर आपका ही भजन करता है, हे राम! उसके हृदय-मन्दिरमें सीताके सहित आप सुखपूर्वक रहते हैं॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मन्त्रजापको यस्तु त्वामेव शरणं गतः।
निर्द्वन्द्वो निःस्पृहस्तस्य हृदयं ते सुमन्दिरम्॥ ५६॥
मूलम्
त्वन्मन्त्रजापको यस्तु त्वामेव शरणं गतः।
निर्द्वन्द्वो निःस्पृहस्तस्य हृदयं ते सुमन्दिरम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आपहीके मन्त्रका जाप करता है, आपहीकी शरणमें रहता है तथा द्वन्द्वहीन और निःस्पृह है उसका हृदय आपका सुन्दर मन्दिर है॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरहङ्कारिणः शान्ता ये रागद्वेषवर्जिताः।
समलोष्टाश्मकनकास्तेषां ते हृदयं गृहम्॥ ५७॥
मूलम्
निरहङ्कारिणः शान्ता ये रागद्वेषवर्जिताः।
समलोष्टाश्मकनकास्तेषां ते हृदयं गृहम्॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अहंकारशून्य, शान्तस्वभाव, राग-द्वेषरहित और मृत-पिण्ड, पत्थर तथा सुवर्णमें समान दृष्टि रखनेवाले हैं, उनका हृदय आपका घर है॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि दत्तमनोबुद्धिर्यः सन्तुष्टः सदा भवेत्।
त्वयि सन्त्यक्तकर्मा यस्तन्मनस्ते शुभं गृहम्॥ ५८॥
मूलम्
त्वयि दत्तमनोबुद्धिर्यः सन्तुष्टः सदा भवेत्।
त्वयि सन्त्यक्तकर्मा यस्तन्मनस्ते शुभं गृहम्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आपहीमें मन और बुद्धिको लगाकर सदा सन्तुष्ट रहता है और अपने समस्त कर्म आपहीको अर्पण कर देता है उसका मन ही आपका शुभ गृह है॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो न द्वेष्ट्यप्रियं प्राप्य प्रियं प्राप्य न हृष्यति।
सर्वं मायेति निश्चित्य त्वां भजेत्तन्मनो गृहम्॥ ५९॥
मूलम्
यो न द्वेष्ट्यप्रियं प्राप्य प्रियं प्राप्य न हृष्यति।
सर्वं मायेति निश्चित्य त्वां भजेत्तन्मनो गृहम्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अप्रियको पाकर द्वेष नहीं करता और प्रियको पाकर हर्षित नहीं होता तथा ‘यह सम्पूर्ण प्रपंच मायामात्र है’ ऐसा निश्चय कर सदा आपका भजन करता है उसका मन ही आपका घर है॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षड्भावादिविकारान्यो देहे पश्यति नात्मनि।
क्षुत्तृट् सुखं भयं दुःखं प्राणबुद्ध्योर्निरीक्षते॥ ६०॥
संसारधर्मैर्निर्मुक्तस्तस्य ते मानसं गृहम्॥ ६१॥
मूलम्
षड्भावादिविकारान्यो देहे पश्यति नात्मनि।
क्षुत्तृट् सुखं भयं दुःखं प्राणबुद्ध्योर्निरीक्षते॥ ६०॥
संसारधर्मैर्निर्मुक्तस्तस्य ते मानसं गृहम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो (सत्ता, जन्म लेना, बढ़ना, बदलना, क्षीण होना और नष्ट होना—इन) छः विकारोंको ही शरीरमें देखता है, आत्मामें नहीं तथा क्षुधा, तृषा, सुख, दुःख और भय आदिको प्राण और बुद्धिके ही विकार मानता है और स्वयं सांसारिक धर्मोंसे मुक्त रहता है उसका चित्त आपका निज गृह है॥ ६०-६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यन्ति ये सर्वगुहाशयस्थं
त्वां चिद्घनं सत्यमनन्तमेकम्।
अलेपकं सर्वगतं वरेण्यं
तेषां हृदब्जे सह सीतया वस॥ ६२॥
मूलम्
पश्यन्ति ये सर्वगुहाशयस्थं
त्वां चिद्घनं सत्यमनन्तमेकम्।
अलेपकं सर्वगतं वरेण्यं
तेषां हृदब्जे सह सीतया वस॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग चिद्घन, सत्यस्वरूप, अनन्त, एक, निर्लेप, सर्वगत और स्तुत्य आप परमेश्वरको समस्त अन्तःकरणोंमें विराजमान देखते हैं, हे राम! उनके हृदय-कमलमें आप सीताजीके सहित निवास कीजिये॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरन्तराभ्यासदृढीकृतात्मनां
त्वत्पादसेवापरिनिष्ठितानाम्।
त्वन्नामकीर्त्या हतकल्मषाणां
सीतासमेतस्य गृहं हृदब्जे॥ ६३॥
मूलम्
निरन्तराभ्यासदृढीकृतात्मनां
त्वत्पादसेवापरिनिष्ठितानाम्।
त्वन्नामकीर्त्या हतकल्मषाणां
सीतासमेतस्य गृहं हृदब्जे॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरन्तर अभ्यास करनेसे जिनका चित्त स्थिर हो गया है, जो सर्वदा आपकी चरण-सेवामें लगे रहते हैं तथा आपके नाम-संकीर्तनसे जिनके पाप नष्ट हो गये हैं उनके हृदय-कमलमें सीताके सहित आपका निवास-गृह है॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम त्वन्नाममहिमा वर्ण्यते केन वा कथम्।
यत्प्रभावादहं राम ब्रह्मर्षित्वमवाप्तवान्॥ ६४॥
मूलम्
राम त्वन्नाममहिमा वर्ण्यते केन वा कथम्।
यत्प्रभावादहं राम ब्रह्मर्षित्वमवाप्तवान्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! जिसके प्रभावसे मैंने ब्रह्मर्षि-पद प्राप्त किया है, आपके उस नामकी महिमा कोई किस प्रकार वर्णन कर सकता है?॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पुरा किरातेषु किरातैः सह वर्धितः।
जन्ममात्रद्विजत्वं मे शूद्राचाररतः सदा॥ ६५॥
मूलम्
अहं पुरा किरातेषु किरातैः सह वर्धितः।
जन्ममात्रद्विजत्वं मे शूद्राचाररतः सदा॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें मैं किरातोंके साथ रहता था और उन्हींके साथ रहकर बड़ा हुआ। मैं निरन्तर शूद्रोंके आचरणोंमें रत रहता था, मेरी द्विजातीयता केवल जन्ममात्रकी थी॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रायां बहवः पुत्रा उत्पन्ना मेऽजितात्मनः।
ततश्चौरैश्च सङ्गम्य चौरोऽहमभवं पुरा॥ ६६॥
मूलम्
शूद्रायां बहवः पुत्रा उत्पन्ना मेऽजितात्मनः।
ततश्चौरैश्च सङ्गम्य चौरोऽहमभवं पुरा॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझ अजितेन्द्रियके शूद्राके गर्भसे बहुत-से पुत्र उत्पन्न हुए। उस समय चोरोंके समागमसे मैं भी पक्का चोर हो गया था॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्बाणधरो नित्यं जीवानामन्तकोपमः।
एकदा मुनयः सप्त दृष्टा महति कानने॥ ६७॥
साक्षान्मया प्रकाशन्तो ज्वलनार्कसमप्रभाः।
तानन्वधावं लोभेन तेषां सर्वपरिच्छदान्॥ ६८॥
ग्रहीतुकामस्तत्राहं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवम्।
दृष्ट्वा मां मुनयोऽपृच्छन्किमायासि द्विजाधम॥ ६९॥
मूलम्
धनुर्बाणधरो नित्यं जीवानामन्तकोपमः।
एकदा मुनयः सप्त दृष्टा महति कानने॥ ६७॥
साक्षान्मया प्रकाशन्तो ज्वलनार्कसमप्रभाः।
तानन्वधावं लोभेन तेषां सर्वपरिच्छदान्॥ ६८॥
ग्रहीतुकामस्तत्राहं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवम्।
दृष्ट्वा मां मुनयोऽपृच्छन्किमायासि द्विजाधम॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवोंके अन्तकर्ता कालके समान मैं सदा धनुष-बाण धारण किये रहता था। एक दिन एक घोर वनमें मैंने साक्षात् सप्तर्षियोंको जाते देखा। वे अपनी प्रभासे अग्नि और सूर्यके समान प्रकाशमान थे। उनके सम्पूर्ण वस्त्रादि छीननेकी इच्छासे मैं लोभके वश होकर उनके पीछे दौड़ा और बोला—‘ठहरो, ठहरो। तब मुनीश्वरोंने मेरी ओर देखकर पूछा—‘हे द्विजाधम ! क्यों आ रहा है’॥ ६७—६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तानब्रवं किञ्चिदादातुं मुनिसत्तमाः।
पुत्रदारादयः सन्ति बहवो मे बुभुक्षिताः॥ ७०॥
मूलम्
अहं तानब्रवं किञ्चिदादातुं मुनिसत्तमाः।
पुत्रदारादयः सन्ति बहवो मे बुभुक्षिताः॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने कहा—‘हे मुनिश्रेष्ठगण! मेरे बहुत-से भूखे पुत्र-कलत्रादि हैं। अतः उनके पोषणार्थ कुछ लेनेके लिये आ रहा हूँ॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां संरक्षणार्थाय चरामि गिरिकानने।
ततो मामूचुरव्यग्राः पृच्छ गत्वा कुटुम्बकम्॥ ७१॥
यो यो मया प्रतिदिनं क्रियते पापसञ्चयः।
यूयं तद्भागिनः किं वा नेति वेति पृथक्पृथक्॥ ७२॥
मूलम्
तेषां संरक्षणार्थाय चरामि गिरिकानने।
ततो मामूचुरव्यग्राः पृच्छ गत्वा कुटुम्बकम्॥ ७१॥
यो यो मया प्रतिदिनं क्रियते पापसञ्चयः।
यूयं तद्भागिनः किं वा नेति वेति पृथक्पृथक्॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींका पालन-पोषण करनेके लिये मैं वन-पर्वतादिमें घूमता फिरता हूँ।’ तब उन मुनीश्वरोंने मुझसे निर्भयतापूर्वक कहा—‘अच्छा, एक बार अपने कुटुम्बियोंके पास जाकर प्रत्येकसे अलग-अलग पूछ कि मैं प्रतिदिन जो पाप संचय करता हूँ उसके आपलोग भी भागी हैं या नहीं?॥ ७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं स्थास्यामहे तावदागमिष्यसि निश्चयः।
तथेत्युक्त्वा गृहं गत्वा मुनिभिर्यदुदीरितम्॥ ७३॥
अपृच्छं पुत्रदारादींस्तैरुक्तोऽहं रघूत्तम।
पापं तवैव तत्सर्वं वयं तु फलभागिनः॥ ७४॥
मूलम्
वयं स्थास्यामहे तावदागमिष्यसि निश्चयः।
तथेत्युक्त्वा गृहं गत्वा मुनिभिर्यदुदीरितम्॥ ७३॥
अपृच्छं पुत्रदारादींस्तैरुक्तोऽहं रघूत्तम।
पापं तवैव तत्सर्वं वयं तु फलभागिनः॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बातका निश्चय रख कि जबतक तू लौटकर आवेगा हम यहीं रहेंगे।’ मैं ‘बहुत अच्छा’ कह अपने घर आया और जिस प्रकार मुनीश्वरोंने मुझसे कहा था मैंने अपने पुत्र-स्त्री आदिसे पूछा। हे रघुश्रेष्ठ! तब वे बोले—‘वह पाप तो सब तुझीको लगेगा, हम तो उससे प्राप्त हुए फल (धन आदि)-को ही भोगनेवाले हैं॥ ७३-७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा जातनिर्वेदो विचार्य पुनरागमम्।
मुनयो यत्र तिष्ठन्ति करुणापूर्णमानसाः॥ ७५॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा जातनिर्वेदो विचार्य पुनरागमम्।
मुनयो यत्र तिष्ठन्ति करुणापूर्णमानसाः॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर मुझे अति वैराग्य हुआ और मैं विचार करता हुआ, जहाँ करुणासे परिपूर्ण हृदयवाले मुनीश्वर थे, वहाँ आया॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनीनां दर्शनादेव शुद्धान्तःकरणोऽभवम्।
धनुरादीन्परित्यज्य दण्डवत्पतितोऽस्म्यहम्॥ ७६॥
मूलम्
मुनीनां दर्शनादेव शुद्धान्तःकरणोऽभवम्।
धनुरादीन्परित्यज्य दण्डवत्पतितोऽस्म्यहम्॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन मुनीश्वरोंके दर्शनमात्रसे ही मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया और मैं धनुष आदिको फेंककर दण्डके समान पृथिवीपर गिर पड़ा॥ ७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षध्वं मां मुनिश्रेष्ठा गच्छन्तं निरयार्णवम्।
इत्यग्रे पतितं दृष्ट्वा मामूचुर्मुनिसत्तमाः॥ ७७॥
मूलम्
रक्षध्वं मां मुनिश्रेष्ठा गच्छन्तं निरयार्णवम्।
इत्यग्रे पतितं दृष्ट्वा मामूचुर्मुनिसत्तमाः॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे मुनिश्रेष्ठगण! इस पाप-समुद्रमें पड़ते हुए मेरी आप रक्षा कीजिये’—इस प्रकार चिल्लाते हुए मुझे अपने सामने पड़ा देख वे मुनिश्रेष्ठ मुझसे बोले—॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते सफलः सत्समागमः।
उपदेक्ष्यामहे तुभ्यं किञ्चित्तेनैव मोक्ष्यसे।
परस्परं समालोच्य दुर्वृत्तोऽयं द्विजाधमः॥ ७८॥
उपेक्ष्य एव सद्वृत्तैस्तथापि शरणं गतः।
रक्षणीयः प्रयत्नेन मोक्षमार्गोपदेशतः॥ ७९॥
मूलम्
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते सफलः सत्समागमः।
उपदेक्ष्यामहे तुभ्यं किञ्चित्तेनैव मोक्ष्यसे।
परस्परं समालोच्य दुर्वृत्तोऽयं द्विजाधमः॥ ७८॥
उपेक्ष्य एव सद्वृत्तैस्तथापि शरणं गतः।
रक्षणीयः प्रयत्नेन मोक्षमार्गोपदेशतः॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘खड़ा हो, खड़ा हो, तेरा सत्संग सफल हो गया है; तेरा अवश्य कल्याण होगा। हम तुझे थोड़ा-सा उपदेश करते हैं उसीसे तू मुक्त हो जायगा।’ तब उन्होंने आपसमें मिलकर यह विचार किया कि यद्यपि यह ब्राह्मणाधम अत्यन्त दुराचारी होनेसे श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये उपेक्षाका ही पात्र है तथापि अब यह शरणमें आ गया है, इसलिये मोक्ष मार्गके उपदेशद्वारा इसकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी ही चाहिये॥ ७८-७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा राम ते नाम व्यत्यस्ताक्षरपूर्वकम्।
एकाग्रमनसात्रैव मरेति जप सर्वदा॥ ८०॥
मूलम्
इत्युक्त्वा राम ते नाम व्यत्यस्ताक्षरपूर्वकम्।
एकाग्रमनसात्रैव मरेति जप सर्वदा॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! ऐसा विचारकर उन्होंने आपके नामाक्षरोंको उलटा करके मुझसे कहा—‘तू इसी स्थानपर रहकर एकाग्रचित्तसे सदा ‘मरा-मरा’ जपा कर॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगच्छामः पुनर्यावत्तावदुक्तं सदा जप।
इत्युक्त्वा प्रययुः सर्वे मुनयो दिव्यदर्शनाः॥ ८१॥
मूलम्
आगच्छामः पुनर्यावत्तावदुक्तं सदा जप।
इत्युक्त्वा प्रययुः सर्वे मुनयो दिव्यदर्शनाः॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक हम फिर लौटकर आयें तबतक तू सर्वदा हमारे कथनानुसार इसका जाप कर।’ ऐसा कहकर वे सब दिव्य-दर्शन मुनीश्वर चले गये॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं यथोपदिष्टं तैस्तथाकरवमञ्जसा।
जपन्नेकाग्रमनसा बाह्यं विस्मृतवानहम्॥ ८२॥
मूलम्
अहं यथोपदिष्टं तैस्तथाकरवमञ्जसा।
जपन्नेकाग्रमनसा बाह्यं विस्मृतवानहम्॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने मुझे जैसा उपदेश किया था मैंने ठीक वैसा ही किया। इस प्रकार निरन्तर एकाग्रचित्तसे जप करते-करते मुझे बाह्य ज्ञान नहीं रहा॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुतिथे काले गते निश्चलरूपिणः।
सर्वसङ्गविहीनस्य वल्मीकोऽभून्ममोपरि॥ ८३॥
मूलम्
एवं बहुतिथे काले गते निश्चलरूपिणः।
सर्वसङ्गविहीनस्य वल्मीकोऽभून्ममोपरि॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह बहुत समयतक निश्चलतापूर्वक रहनेसे मुझ सर्वसंगविहीनके ऊपर वल्मीक (मिट्टीका ढेर) बन गया॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युगसहस्रान्ते ऋषयः पुनरागमन्।
मामूचुर्निष्क्रमस्वेति तच्छ्रुत्वा तूर्णमुत्थितः॥ ८४॥
मूलम्
ततो युगसहस्रान्ते ऋषयः पुनरागमन्।
मामूचुर्निष्क्रमस्वेति तच्छ्रुत्वा तूर्णमुत्थितः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक हजार युग बीतनेपर वे ऋषिगण फिर लौटे और मुझसे कहा—‘निकल आओ’ यह सुनकर मैं तुरंत खड़ा हो गया॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वल्मीकान्निर्गतश्चाहं नीहारादिव भास्करः।
मामप्याहुर्मुनिगणा वाल्मीकिस्त्वं मुनीश्वर॥ ८५॥
मूलम्
वल्मीकान्निर्गतश्चाहं नीहारादिव भास्करः।
मामप्याहुर्मुनिगणा वाल्मीकिस्त्वं मुनीश्वर॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और जिस प्रकार कुहरेको पार करके सूर्य निकल आता है उसी प्रकार मैं वल्मीकसे निकल आया। तब मुनिगणने मुझसे कहा—‘हे मुनिवर! तुम वाल्मीकि हो॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वल्मीकात्सम्भवो यस्माद् द्वितीयं जन्म तेऽभवत्।
इत्युक्त्वा ते ययुर्दिव्यगतिं रघुकुलोत्तम॥ ८६॥
मूलम्
वल्मीकात्सम्भवो यस्माद् द्वितीयं जन्म तेऽभवत्।
इत्युक्त्वा ते ययुर्दिव्यगतिं रघुकुलोत्तम॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय तुम वल्मीकसे निकले हो इसलिये तुम्हारा यह दूसरा जन्म हुआ है।’ हे रघुश्रेष्ठ! ऐसा कहकर वे दिव्यलोकको चले गये॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ते राम नाम्नश्च प्रभावादीदृशोऽभवम्।
अद्य साक्षात्प्रपश्यामि ससीतं लक्ष्मणेन च॥ ८७॥
रामं राजीवपत्राक्षं त्वां मुक्तो नात्र संशयः।
आगच्छ राम भद्रं ते स्थलं वै दर्शयाम्यहम्॥ ८८॥
मूलम्
अहं ते राम नाम्नश्च प्रभावादीदृशोऽभवम्।
अद्य साक्षात्प्रपश्यामि ससीतं लक्ष्मणेन च॥ ८७॥
रामं राजीवपत्राक्षं त्वां मुक्तो नात्र संशयः।
आगच्छ राम भद्रं ते स्थलं वै दर्शयाम्यहम्॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आपके नामके प्रभावसे मैं ऐसा हो गया जो आज सीता और लक्ष्मणके सहित साक्षात् आप कमलनयनको देख रहा हूँ। अहा! मैं निस्सन्देह मुक्त हो गया—हे राम! आपका मंगल हो, आइये, मैं आपको रहनेके लिये स्थान दिखलाता हूँ॥ ८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा मुनिः श्रीमाल्ँलक्ष्मणेन समन्वितः।
शिष्यैः परिवृतो गत्वा मध्ये पर्वतगङ्गयोः॥ ८९॥
तत्र शालां सुविस्तीर्णां कारयामास वासभूः।
प्राक्पश्चिमं दक्षिणोदक् शोभनं मन्दिरद्वयम्॥ ९०॥
मूलम्
एवमुक्त्वा मुनिः श्रीमाल्ँलक्ष्मणेन समन्वितः।
शिष्यैः परिवृतो गत्वा मध्ये पर्वतगङ्गयोः॥ ८९॥
तत्र शालां सुविस्तीर्णां कारयामास वासभूः।
प्राक्पश्चिमं दक्षिणोदक् शोभनं मन्दिरद्वयम्॥ ९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह शिष्योंसे घिरे हुए श्रीमान् मुनिवर वाल्मीकिजीने लक्ष्मणके सहित गंगा और पर्वतके बीचके स्थलमें जाकर वहाँ भगवान् रामके रहनेके लिये एक सुविशाल शाला बनवायी, उसमें एक पूर्व-पश्चिम और दूसरा उत्तर-दक्षिण ऐसे दो सुन्दर घर बनाये गये॥ ८९-९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानक्या सहितो रामो लक्ष्मणेन समन्वितः।
तत्र ते देवसदृशा ह्यवसन् भवनोत्तमे॥ ९१॥
मूलम्
जानक्या सहितो रामो लक्ष्मणेन समन्वितः।
तत्र ते देवसदृशा ह्यवसन् भवनोत्तमे॥ ९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस भव्य भवनमें जानकीके सहित श्रीराम और लक्ष्मण देवताओंके समान रहने लगे॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाल्मीकिना तत्र सुपूजितोऽयं
रामः ससीतः सह लक्ष्मणेन।
देवैर्मुनीन्द्रैः सहितो मुदास्ते
स्वर्गे यथा देवपतिः सशच्या॥ ९२॥
मूलम्
वाल्मीकिना तत्र सुपूजितोऽयं
रामः ससीतः सह लक्ष्मणेन।
देवैर्मुनीन्द्रैः सहितो मुदास्ते
स्वर्गे यथा देवपतिः सशच्या॥ ९२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीवाल्मीकिजीसे भली प्रकार सम्मान पाकर देवता और मुनिजनोंके सहित श्रीरामचन्द्रजी वहाँ सीता और लक्ष्मणके साथ इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे जैसे स्वर्गलोकमें शचीके साथ देवराज इन्द्र रहते हैं॥ ९२॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे षष्ठः सर्गः॥ ६॥