[पञ्चम सर्ग]
भागसूचना
भगवान् का वनगमन
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयान्तं नागरा दृष्ट्वा मार्गे रामं सजानकिम्।
लक्ष्मणेन समं वीक्ष्य ऊचुः सर्वे परस्परम्॥१॥
कैकेय्या वरदानादि श्रुत्वा दुःखसमावृताः।
बत राजा दशरथः सत्यसन्धं प्रियं सुतम्॥ २॥
स्त्रीहेतोरत्यजत्कामी तस्य सत्यात्मता कुतः।
कैकेयी वा कथं दुष्टा रामं सत्यं प्रियङ्करम्॥ ३॥
विवासयामास कथं क्रूरकर्मातिमूढधीः।
हे जना नात्र वस्तव्यं गच्छामोऽद्यैव काननम्॥ ४॥
यत्र रामः सभार्यश्च सानुजो गन्तुमिच्छति।
पश्यन्तु जानकीं सर्वे पादचारेण गच्छतीम्॥ ५॥
मूलम्
आयान्तं नागरा दृष्ट्वा मार्गे रामं सजानकिम्।
लक्ष्मणेन समं वीक्ष्य ऊचुः सर्वे परस्परम्॥१॥
कैकेय्या वरदानादि श्रुत्वा दुःखसमावृताः।
बत राजा दशरथः सत्यसन्धं प्रियं सुतम्॥ २॥
स्त्रीहेतोरत्यजत्कामी तस्य सत्यात्मता कुतः।
कैकेयी वा कथं दुष्टा रामं सत्यं प्रियङ्करम्॥ ३॥
विवासयामास कथं क्रूरकर्मातिमूढधीः।
हे जना नात्र वस्तव्यं गच्छामोऽद्यैव काननम्॥ ४॥
यत्र रामः सभार्यश्च सानुजो गन्तुमिच्छति।
पश्यन्तु जानकीं सर्वे पादचारेण गच्छतीम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—जानकी और लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजीको मार्गमें आते देख और कैकेयीके वरदानादिका समाचार सुन समस्त नगरवासी दुःखातुर होकर आपसमें कहने लगे—‘‘हाय! कामवश राजा दशरथने अपने सत्यपरायण प्रिय पुत्रको स्त्रीके कारण छोड़ दिया? उसकी सत्यपरायणता कैसे रही? और दुष्टा कैकेयीने भी सत्यवादी और प्रियकारी रामको क्यों वनवास दिया? वह ऐसी क्रूरकर्मा और हतबुद्धि क्यों हो गयी? भाइयो! अब हमें यहाँ न रहना चाहिये; हम भी आज ही वनको चलेंगे, जहाँ स्त्री और छोटे भाईके सहित श्रीराम जाना चाहते हैं। देखो तो, आज जानकीजी पैदल चल रही हैं॥ १—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंभिः कदाचिद्दृष्ट्वा वा जानकी लोकसुन्दरी।
सापि पादेन गच्छन्ती जनसङ्घेष्वनावृता॥ ६॥
मूलम्
पुंभिः कदाचिद्दृष्ट्वा वा जानकी लोकसुन्दरी।
सापि पादेन गच्छन्ती जनसङ्घेष्वनावृता॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाय! जिस त्रिलोकसुन्दरी जानकीको पहले कभी किसी पुरुषने शायद ही देखा हो, वही आज बिना किसी परदेके जनसमूहमें पैदल चल रही हैं॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोऽपि पादचारेण गजाश्वादिविवर्जितः।
गच्छति द्रक्ष्यथ विभुं सर्वलोकैकसुन्दरम्॥ ७॥
मूलम्
रामोऽपि पादचारेण गजाश्वादिविवर्जितः।
गच्छति द्रक्ष्यथ विभुं सर्वलोकैकसुन्दरम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाइयो! इन सर्वलोकैक सुन्दर भगवान् रामकी ओर भी देखो, ये भी आज बिना हाथी-घोड़ेके पैदल ही जा रहे हैं॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसी कैकेयीनाम्नी जाता सर्वविनाशिनी।
रामस्यापि भवेद्दुःखं सीतायाः पादयानतः॥ ८॥
मूलम्
राक्षसी कैकेयीनाम्नी जाता सर्वविनाशिनी।
रामस्यापि भवेद्दुःखं सीतायाः पादयानतः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कैकेयी नामकी राक्षसी सबका नाश करनेके लिये उत्पन्न हुई है। भाई! इन सीताजीके पैदल चलनेसे रामजीको भी तो बड़ा दुःख होता होगा किन्तु किया क्या जाय? इसमें दैव ही प्रबल है, पुरुषका प्रयत्न सर्वथा असमर्थ है’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवान् विधिरेवात्र पुंप्रयत्नो हि दुर्बलः।
इति दुःखाकुले वृन्दे साधूनां मुनिपुङ्गवः॥ ९॥
अब्रवीद्वामदेवोऽथ साधूनां सङ्घमध्यगः।
मानुशोचथ रामं वा सीतां वा वच्मि तत्त्वतः॥ १०॥
मूलम्
बलवान् विधिरेवात्र पुंप्रयत्नो हि दुर्बलः।
इति दुःखाकुले वृन्दे साधूनां मुनिपुङ्गवः॥ ९॥
अब्रवीद्वामदेवोऽथ साधूनां सङ्घमध्यगः।
मानुशोचथ रामं वा सीतां वा वच्मि तत्त्वतः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार साधु-समाजको दुःखातुर देख मुनिवर वामदेव उनके बीचमें आकर कहने लगे—‘‘मैं आपलोगोंको वास्तविक बात बताता हूँ, आप इन राम और सीताके लिये किसी प्रकारकी चिन्ता न करें॥ ९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष रामः परो विष्णुरादिनारायणः स्मृतः।
एषा सा जानकी लक्ष्मीर्योगमायेति विश्रुता॥ ११॥
मूलम्
एष रामः परो विष्णुरादिनारायणः स्मृतः।
एषा सा जानकी लक्ष्मीर्योगमायेति विश्रुता॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये राम आदिनारायण भगवान् विष्णु हैं और ये जानकीजी योगमाया नामसे विख्यात श्रीलक्ष्मीजी हैं॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ शेषस्तमन्वेति लक्ष्मणाख्यश्च साम्प्रतम्।
एष मायागुणैर्युक्तस्तत्तदाकारवानिव॥ १२॥
मूलम्
असौ शेषस्तमन्वेति लक्ष्मणाख्यश्च साम्प्रतम्।
एष मायागुणैर्युक्तस्तत्तदाकारवानिव॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय जो लक्ष्मण नाम धारण कर इनका अनुगमन कर रहे हैं, ये शेषजी हैं। ये पुरुषोत्तम भगवान् ही मायाके गुणोंसे युक्त होकर विभिन्न आकारवाले-से प्रतीत हुआ करते हैं॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष एव रजोयुक्तो ब्रह्माभूद्विश्वभावनः।
सत्त्वाविष्टस्तथा विष्णुस्त्रिजगत्प्रतिपालकः॥ १३॥
मूलम्
एष एव रजोयुक्तो ब्रह्माभूद्विश्वभावनः।
सत्त्वाविष्टस्तथा विष्णुस्त्रिजगत्प्रतिपालकः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुणसे युक्त होकर ये ही विश्वरचयिता ब्रह्माजी हुए हैं और सत्त्वगुणविशिष्ट होनेपर ये ही त्रिलोकरक्षक भगवान् विष्णु होते हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष रुद्रस्तामसोऽन्ते जगत्प्रलयकारणम्।
एष मत्स्यः पुरा भूत्वा भक्तं वैवस्वतं मनुम्॥ १४॥
नाव्यारोप्य लयस्यान्ते पालयामास राघवः।
समुद्रमथने पूर्वं मन्दरे सुतलं गते॥ १५॥
मूलम्
एष रुद्रस्तामसोऽन्ते जगत्प्रलयकारणम्।
एष मत्स्यः पुरा भूत्वा भक्तं वैवस्वतं मनुम्॥ १४॥
नाव्यारोप्य लयस्यान्ते पालयामास राघवः।
समुद्रमथने पूर्वं मन्दरे सुतलं गते॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा कल्पान्तमें तमोगुणका आश्रय कर ये ही जगत् का प्रलय करनेवाले रुद्र होते हैं। पूर्वकालमें इन्हीं रघुनाथजीने मत्स्यरूप होकर अपने भक्त वैवस्वत मनुको नावमें बैठाकर प्रलयकालके समय उनकी रक्षा की थी। समुद्रमन्थनके समय, जब मन्दराचल पाताललोकको जाने लगा॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधारयत्स्वपृष्ठेऽद्रिं कूर्मरूपी रघूत्तमः।
मही रसातलं याता प्रलये सूकरोऽभवत्॥ १६॥
मूलम्
अधारयत्स्वपृष्ठेऽद्रिं कूर्मरूपी रघूत्तमः।
मही रसातलं याता प्रलये सूकरोऽभवत्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब इन्हीं रघुनाथजीने कूर्मरूप होकर उसे अपनी पीठपर धारण किया था। प्रलयकालमें जब पृथिवी रसातलको चली गयी तो ये शूकररूप हुए॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोलयामास दंष्ट्राग्रे तां क्षोणीं रघुनन्दनः।
नारसिंहं वपुः कृत्वा प्रह्लादवरदः पुरा॥ १७॥
मूलम्
तोलयामास दंष्ट्राग्रे तां क्षोणीं रघुनन्दनः।
नारसिंहं वपुः कृत्वा प्रह्लादवरदः पुरा॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उस पृथिवीको अपनी दाढ़ोंपर उठा लिया। इसी प्रकार एक बार प्रह्लादको वर देनेके लिये इन्होंने नृसिंहरूप धारण किया॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यकण्टकं रक्षः पाटयामास तन्नखैः।
पुत्रराज्यं हृतं दृष्ट्वा ह्यदित्या याचितः पुरा॥ १८॥
मूलम्
त्रैलोक्यकण्टकं रक्षः पाटयामास तन्नखैः।
पुत्रराज्यं हृतं दृष्ट्वा ह्यदित्या याचितः पुरा॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तीनों लोकोंके कण्टकरूप दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अपने नखोंसे फाड़ डाला। एक बार अपने पुत्र इन्द्रका राज्य गया हुआ देख जब अदितिने इनसे प्रार्थना की॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वामनत्वमुपागम्य याञ्चया चाहरत्पुनः।
दुष्टक्षत्रियभूभारनिवृत्त्यै भार्गवोऽभवत्॥ १९॥
मूलम्
वामनत्वमुपागम्य याञ्चया चाहरत्पुनः।
दुष्टक्षत्रियभूभारनिवृत्त्यै भार्गवोऽभवत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब इन्होंने वामनरूप धारणकर याचना करके उसे फिर लौटा लिया। इन्होंने पृथिवीके भाररूप दुष्ट क्षत्रियगणोंको नष्ट करनेके लिये भृगुपुत्र परशुरामका रूप धारण किया था॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव जगतां नाथ इदानीं रामतां गतः।
रावणादीनि रक्षांसि कोटिशो निहनिष्यति॥ २०॥
मूलम्
स एव जगतां नाथ इदानीं रामतां गतः।
रावणादीनि रक्षांसि कोटिशो निहनिष्यति॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही जगत्प्रभु इस समय रामरूपसे प्रकट हुए हैं; अब ये रावण आदि करोड़ों राक्षसोंका वध करेंगे॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषेणैव मरणं तस्य दृष्टं दुरात्मनः।
राज्ञा दशरथेनापि तपसाराधितो हरिः॥ २१॥
पुत्रत्वाकाङ्क्षया विष्णोस्तदा पुत्रोऽभवद्धरिः।
स एव विष्णुः श्रीरामो रावणादिवधाय हि॥ २२॥
गन्ताद्यैव वनं रामो लक्ष्मणेन सहायवान्।
एषा सीता हरेर्माया सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी॥ २३॥
मूलम्
मानुषेणैव मरणं तस्य दृष्टं दुरात्मनः।
राज्ञा दशरथेनापि तपसाराधितो हरिः॥ २१॥
पुत्रत्वाकाङ्क्षया विष्णोस्तदा पुत्रोऽभवद्धरिः।
स एव विष्णुः श्रीरामो रावणादिवधाय हि॥ २२॥
गन्ताद्यैव वनं रामो लक्ष्मणेन सहायवान्।
एषा सीता हरेर्माया सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस दुरात्माकी मृत्यु मनुष्यके हाथ ही बदी है। महाराज दशरथने (अपने पूर्वजन्ममें) तपस्याद्वारा भगवान् विष्णुकी इसलिये आराधना की थी कि वे उनके यहाँ पुत्ररूपसे अवतार लें; इसीलिये भगवान् इनके पुत्र हुए हैं। वे विष्णुभगवान् ही श्रीरामचन्द्रजी हैं। अब ये रावणके वधके लिये आज ही लक्ष्मणसहित वनको जायँगे। ये सीताजी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाली साक्षात् भगवान् की माया हैं॥ २१—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा वा कैकेयी वापि नात्र कारणमण्वपि।
पूर्वेद्युर्नारदः प्राह भूभारहरणाय च॥ २४॥
मूलम्
राजा वा कैकेयी वापि नात्र कारणमण्वपि।
पूर्वेद्युर्नारदः प्राह भूभारहरणाय च॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके वन-गमनमें राजा या कैकेयी अणुमात्र भी कारण नहीं हैं। कल ही इनसे नारदजीने पृथिवीका भार उतारनेके लिये प्रार्थना की थी॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोऽप्याह स्वयं साक्षाच्छ्वो गमिष्याम्यहं वनम्।
अतो रामं समुद्दिश्य चिन्तां त्यजत बालिशाः॥ २५॥
मूलम्
रामोऽप्याह स्वयं साक्षाच्छ्वो गमिष्याम्यहं वनम्।
अतो रामं समुद्दिश्य चिन्तां त्यजत बालिशाः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय स्वयं रामने भी उनसे यही कहा था कि कल मैं वनको जाऊँगा। अतः भोले भाइयो! आपलोग रामके लिये कोई चिन्ता न करें॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामरामेति ये नित्यं जपन्ति मनुजा भुवि।
तेषां मृत्युभयादीनि न भवन्ति कदाचन॥ २६॥
मूलम्
रामरामेति ये नित्यं जपन्ति मनुजा भुवि।
तेषां मृत्युभयादीनि न भवन्ति कदाचन॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो लोग नित्यप्रति ‘राम-राम’ जपा करते हैं उनको भी किसी समय मृत्युके भय आदि नहीं होते॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का पुनस्तस्य रामस्य दुःखशङ्का महात्मनः।
रामनाम्नैव मुक्तिः स्यात्कलौ नान्येन केनचित्॥ २७॥
मूलम्
का पुनस्तस्य रामस्य दुःखशङ्का महात्मनः।
रामनाम्नैव मुक्तिः स्यात्कलौ नान्येन केनचित्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन महात्मा रामके लिये तो दुःखकी शंका ही कैसे हो सकती है? कलियुगमें तो एकमात्र राम-नामसे ही मुक्ति हो सकती है और किसी उपायसे नहीं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायामानुषरूपेण विडम्बयति लोककृत्।
भक्तानां भजनार्थाय रावणस्य वधाय च॥ २८॥
मूलम्
मायामानुषरूपेण विडम्बयति लोककृत्।
भक्तानां भजनार्थाय रावणस्य वधाय च॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये जगत्कर्ता प्रभु भक्तोंको गुण-कीर्तनका सुयोग देनेके लिये और रावणको मारनेके लिये ही मायामानुषरूपसे संसारमें लीला कर रहे हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञश्चाभीष्टसिद्ध्यर्थं मानुषं वपुराश्रितः।
इत्युक्त्वा विररामाथ वामदेवो महामुनिः॥ २९॥
मूलम्
राज्ञश्चाभीष्टसिद्ध्यर्थं मानुषं वपुराश्रितः।
इत्युक्त्वा विररामाथ वामदेवो महामुनिः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सिवा राजा दशरथकी मनोरथ-सिद्धिके लिये भी इन्होंने यह मनुष्य-शरीर धारण किया है।’’ ऐसा कहकर महामुनि वामदेवजी मौन हो गये॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तेऽपि द्विजाः सर्वे रामं ज्ञात्वा हरिं विभुम्।
जहुर्हृत्संशयग्रन्थिं राममेवान्वचिन्तयन्॥ ३०॥
मूलम्
श्रुत्वा तेऽपि द्विजाः सर्वे रामं ज्ञात्वा हरिं विभुम्।
जहुर्हृत्संशयग्रन्थिं राममेवान्वचिन्तयन्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुन वहाँ एकत्रित हुए सब द्विजगणोंने भी भगवान् रामको सर्वव्यापक श्रीविष्णुभगवान् जाना और वे अपने हृदयका संशय छोड़कर श्रीरामचन्द्रजीका ही स्मरण करने लगे॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं चिन्तयेन्नित्यं रहस्यं रामसीतयोः।
तस्य रामे दृढा भक्तिर्भवेद्विज्ञानपूर्विका॥ ३१॥
मूलम्
य इदं चिन्तयेन्नित्यं रहस्यं रामसीतयोः।
तस्य रामे दृढा भक्तिर्भवेद्विज्ञानपूर्विका॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुष नित्यप्रति राम और सीताके इस रहस्यका मनन करेगा, उसकी भगवान् राममें विज्ञानके सहित दृढ़ भक्ति हो जायगी॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहस्यं गोपनीयं वो यूयं वै राघवप्रियाः।
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रस्तेऽपि रामं परं विदुः॥ ३२॥
मूलम्
रहस्यं गोपनीयं वो यूयं वै राघवप्रियाः।
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रस्तेऽपि रामं परं विदुः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सब लोग रामके परम प्रिय हैं अतः इस रहस्यको सदा गुप्त रखें, ऐसा कह विप्रवर वामदेवजी वहाँसे चले गये और पुरजनोंने भी जाना कि राम परमात्मा हैं॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामः समाविश्य पितृगेहमवारितः।
सानुजः सीतया गत्वा कैकेयीमिदमब्रवीत्॥ ३३॥
मूलम्
ततो रामः समाविश्य पितृगेहमवारितः।
सानुजः सीतया गत्वा कैकेयीमिदमब्रवीत्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रामजीने बिना किसी रोक-टोकके पिताके महलमें प्रवेश किया और लक्ष्मण तथा सीताके सहित वहाँ पहुँचकर कैकेयीसे कहा—॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगताः स्मो वयं मातस्त्रयस्ते सम्मतं वनम्।
गन्तुं कृतधियः शीघ्रमाज्ञापयतु नः पिता॥ ३४॥
मूलम्
आगताः स्मो वयं मातस्त्रयस्ते सम्मतं वनम्।
गन्तुं कृतधियः शीघ्रमाज्ञापयतु नः पिता॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘माताजी! आपके कथनानुसार हम तीनों वनको जानेके लिये तैयार होकर आ गये हैं; अब शीघ्र ही पिताजी हमें आज्ञा दें’’॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता सहसोत्थाय चीराणि प्रददौ स्वयम्।
रामाय लक्ष्मणायाथ सीतायै च पृथक् पृथक्॥ ३५॥
मूलम्
इत्युक्ता सहसोत्थाय चीराणि प्रददौ स्वयम्।
रामाय लक्ष्मणायाथ सीतायै च पृथक् पृथक्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामके ऐसा कहनेपर कैकेयीने सहसा उठकर स्वयं ही राम, लक्ष्मण और सीताको अलग-अलग वल्कल-वस्त्र दिये॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तु वस्त्राण्युत्सृज्य वन्यचीराणि पर्यधात्।
लक्ष्मणोऽपि तथा चक्रे सीता तन्न विजानती॥ ३६॥
मूलम्
रामस्तु वस्त्राण्युत्सृज्य वन्यचीराणि पर्यधात्।
लक्ष्मणोऽपि तथा चक्रे सीता तन्न विजानती॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने अपने राजोचित वस्त्रोंको उतारकर वनवासियोंके-से वस्त्र धारण किये; लक्ष्मणजीने भी ऐसा ही किया किन्तु सीताजी उन्हें पहनना नहीं जानती थीं॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्ते गृहीत्वा रामस्य लज्जया मुखमैक्षत।
रामो गृहीत्वा तच्चीरमंशुके पर्यवेष्टयत्॥ ३७॥
मूलम्
हस्ते गृहीत्वा रामस्य लज्जया मुखमैक्षत।
रामो गृहीत्वा तच्चीरमंशुके पर्यवेष्टयत्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उन वस्त्रोंको हाथमें लेकर वे लज्जापूर्वक रामजीकी ओर देखने लगीं। तब रामचन्द्रजीने उस चीरको लेकर सीताजीके वस्त्रोंपर ही लपेट दिया॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्दृष्ट्वा रुरुदुः सर्वे राजदाराः समन्ततः।
वसिष्ठस्तु तदाकर्ण्य रुदितं भर्त्सयन् रुषा॥ ३८॥
कैकेयीं प्राह दुर्वृत्ते राम एव त्वया वृतः।
वनवासाय दुष्टे त्वं सीतायै किं प्रयच्छसि॥ ३९॥
मूलम्
तद्दृष्ट्वा रुरुदुः सर्वे राजदाराः समन्ततः।
वसिष्ठस्तु तदाकर्ण्य रुदितं भर्त्सयन् रुषा॥ ३८॥
कैकेयीं प्राह दुर्वृत्ते राम एव त्वया वृतः।
वनवासाय दुष्टे त्वं सीतायै किं प्रयच्छसि॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देखकर रनिवासकी सभी स्त्रियाँ रोने लगीं। तब वसिष्ठजीने उनके रोनेका शब्द सुनकर क्रोधित हो कैकेयीको डाँटते हुए कहा—‘‘अयि दुःशीले! तूने तो केवल रामके वन जानेका ही वर माँगा है न? फिर तू सीताको भी वनके वस्त्र कैसे देती है?॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि रामं समन्वेति सीता भक्त्या पतिव्रता।
दिव्याम्बरधरा नित्यं सर्वाभरणभूषिता॥ ४०॥
रमयत्वनिशं रामं वनदुःखनिवारिणी।
राजा दशरथोऽप्याह सुमन्त्रं रथमानय॥ ४१॥
मूलम्
यदि रामं समन्वेति सीता भक्त्या पतिव्रता।
दिव्याम्बरधरा नित्यं सर्वाभरणभूषिता॥ ४०॥
रमयत्वनिशं रामं वनदुःखनिवारिणी।
राजा दशरथोऽप्याह सुमन्त्रं रथमानय॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पतिव्रता सीता भक्तिवश रामके साथ जाना चाहती है तो वह समस्त आभूषणोंसे विभूषित और दिव्य वस्त्र धारण किये हुए ही जाय तथा नित्यप्रति रामके वनवास-दुःखको दूर करती हुई उनको आनन्दित करे’’ तब महाराज दशरथने सुमन्त्रसे कहा—‘‘सुमन्त्र! तुम रथ ले आओ॥ ४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथमारुह्य गच्छन्तु वनं वनचरप्रियाः।
इत्युक्त्वा राममालोक्य सीतां चैव सलक्ष्मणम्॥ ४२॥
दुःखान्निपतितो भूमौ रुरोदाश्रुपरिप्लुतः।
आरुरोह रथं सीता शीघ्रं रामस्य पश्यतः॥ ४३॥
मूलम्
रथमारुह्य गच्छन्तु वनं वनचरप्रियाः।
इत्युक्त्वा राममालोक्य सीतां चैव सलक्ष्मणम्॥ ४२॥
दुःखान्निपतितो भूमौ रुरोदाश्रुपरिप्लुतः।
आरुरोह रथं सीता शीघ्रं रामस्य पश्यतः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनवासियोंके प्रिय ये राम आदि रथपर चढ़कर ही वनको जायँगे।’’ ऐसा कह वे सीता और लक्ष्मणके सहित रामको देखकर दुःखसे पृथिवीपर गिर पड़े और आँखोंमें आँसू भरकर रोने लगे। तब रामजीके देखते-देखते शीघ्र ही सीताजी रथपर चढ़ीं॥ ४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः प्रदक्षिणं कृत्वा पितरं रथमारुहत्।
लक्ष्मणः खड्गयुगलं धनुस्तूणीयुगं तथा॥ ४४॥
गृहीत्वा रथमारुह्य नोदयामास सारथिम्।
तिष्ठ तिष्ठ सुमन्त्रेति राजा दशरथोऽब्रवीत्॥ ४५॥
मूलम्
रामः प्रदक्षिणं कृत्वा पितरं रथमारुहत्।
लक्ष्मणः खड्गयुगलं धनुस्तूणीयुगं तथा॥ ४४॥
गृहीत्वा रथमारुह्य नोदयामास सारथिम्।
तिष्ठ तिष्ठ सुमन्त्रेति राजा दशरथोऽब्रवीत्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर रामचन्द्रजी पिताकी परिक्रमा कर रथारूढ़ हुए और उनके पीछे दो खड्ग तथा दो धनुष और तरकश लेकर लक्ष्मणजी सवार हुए और सारथिसे रथ हाँकनेको कहा। तब राजा दशरथ कहने लगे—‘सुमन्त्र! ठहरो, ठहरो॥ ४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ गच्छेति रामेण नोदितोऽचोदयद्रथम्।
रामे दूरं गते राजा मूर्च्छितः प्रापतद्भुवि॥ ४६॥
मूलम्
गच्छ गच्छेति रामेण नोदितोऽचोदयद्रथम्।
रामे दूरं गते राजा मूर्च्छितः प्रापतद्भुवि॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु रामचन्द्रजीने ‘चलो, चलो’ कहकर शीघ्रता करनेको कहा। इसलिये सुमन्त्रने रथ हाँक दिया। रामके दूर निकल जानेपर महाराज मूर्च्छित होकर पृथिवीपर गिर पड़े॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरास्तु बालवृद्धाश्च वृद्धा ब्राह्मणसत्तमाः।
तिष्ठ तिष्ठेति रामेति क्रोशन्तो रथमन्वयुः॥ ४७॥
मूलम्
पौरास्तु बालवृद्धाश्च वृद्धा ब्राह्मणसत्तमाः।
तिष्ठ तिष्ठेति रामेति क्रोशन्तो रथमन्वयुः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर समस्त पुरवासी, बालक-वृद्ध और वयोवृद्ध मुनिगण ‘हे राम! ठहरो, मत जाओ’ इस प्रकार चिल्लाते हुए रथके पीछे-पीछे चले॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा रुदित्वा सुचिरं मां नयन्तु गृहं प्रति।
कौसल्याया राममातुरित्याह परिचारकान्॥ ४८॥
मूलम्
राजा रुदित्वा सुचिरं मां नयन्तु गृहं प्रति।
कौसल्याया राममातुरित्याह परिचारकान्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दशरथ बहुत देरतक रोते रहे, फिर उन्होंने अपने सेवकोंसे कहा—‘‘मुझे रामकी माता कौसल्याके घर ले चलो॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किञ्चित्कालं भवेत्तत्र जीवनं दुःखितस्य मे।
अत ऊर्ध्वं न जीवामि चिरं रामं विना कृतः॥ ४९॥
मूलम्
किञ्चित्कालं भवेत्तत्र जीवनं दुःखितस्य मे।
अत ऊर्ध्वं न जीवामि चिरं रामं विना कृतः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझ दुखियाका वहाँ रहकर कुछ काल जीना हो सकता है; किन्तु रामसे रहित होकर अब मैं अधिक काल जीवित नहीं रह सकूँगा’’॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गृहं प्रविश्यैव कौसल्यायाः पपात ह।
मूर्च्छितश्च चिराद्बुद्ध्वातूष्णीमेवावतस्थिवान्॥ ५०॥
मूलम्
ततो गृहं प्रविश्यैव कौसल्यायाः पपात ह।
मूर्च्छितश्च चिराद्बुद्ध्वातूष्णीमेवावतस्थिवान्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कौसल्याके घर पहुँचते ही राजा अचेत होकर पृथिवीपर गिर पड़े; फिर बहुत देर पीछे चेत होनेपर वे चुपचाप बैठे रहे॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तु तमसातीरं गत्वा तत्रावसत्सुखी।
जलं प्राश्य निराहारो वृक्षमूलेऽस्वपद्विभुः॥ ५१॥
सीतया सह धर्मात्मा धनुष्पाणिस्तु लक्ष्मणः।
पालयामास धर्मज्ञः सुमन्त्रेण समन्वितः॥ ५२॥
मूलम्
रामस्तु तमसातीरं गत्वा तत्रावसत्सुखी।
जलं प्राश्य निराहारो वृक्षमूलेऽस्वपद्विभुः॥ ५१॥
सीतया सह धर्मात्मा धनुष्पाणिस्तु लक्ष्मणः।
पालयामास धर्मज्ञः सुमन्त्रेण समन्वितः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर श्रीरामचन्द्रजी तमसा नदीके तटपर पहुँचकर वहाँ सुखपूर्वक रहे और रात्रिके समय बिना कुछ आहार किये केवल जल पीकर सीताजीके सहित वृक्षके नीचे सो गये। तथा सुमन्त्रके सहित धर्मात्मा लक्ष्मणजी धनुष लेकर उनकी रक्षा करते रहे॥ ५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौराः सर्वे समागत्य स्थितास्तस्याविदूरतः।
शक्ता रामं पुरं नेतुं नोचेद्गच्छामहे वनम्॥ ५३॥
मूलम्
पौराः सर्वे समागत्य स्थितास्तस्याविदूरतः।
शक्ता रामं पुरं नेतुं नोचेद्गच्छामहे वनम्॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पास ही समस्त पुरवासी आकर ठहर गये। उन्होंने निश्चय किया कि हम या तो रामको अयोध्या लौटा ले चलेंगे, नहीं तो हम भी इनके साथ वनको ही चले जायँगे॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चयमाज्ञाय तेषां रामोऽतिविस्मितः।
नाहं गच्छामि नगरमेते वै क्लेशभागिनः॥ ५४॥
भविष्यन्तीति निश्चित्य सुमन्त्रमिदमब्रवीत्।
इदानीमेव गच्छामः सुमन्त्र रथमानय॥ ५५॥
मूलम्
इति निश्चयमाज्ञाय तेषां रामोऽतिविस्मितः।
नाहं गच्छामि नगरमेते वै क्लेशभागिनः॥ ५४॥
भविष्यन्तीति निश्चित्य सुमन्त्रमिदमब्रवीत्।
इदानीमेव गच्छामः सुमन्त्र रथमानय॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीको उनके इस निश्चयका पता चलनेपर अति विस्मय हुआ और उन्होंने यह सोचकर कि मैं तो अयोध्याको लौटूँगा नहीं, ये व्यर्थ वनमें क्लेश भोगेंगे, सुमन्त्रको बुलाकर कहा—‘‘सुमन्त्र! तुम रथ ले आओ, हम अभी चलेंगे’’॥ ५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याज्ञप्तः सुमन्त्रोऽपि रथं वाहैरयोजयत्।
आरुह्य रामः सीता च लक्ष्मणोऽपि ययुर्द्रुतम्॥ ५६॥
मूलम्
इत्याज्ञप्तः सुमन्त्रोऽपि रथं वाहैरयोजयत्।
आरुह्य रामः सीता च लक्ष्मणोऽपि ययुर्द्रुतम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामकी ऐसी आज्ञा होनेपर सुमन्त्रने रथमें घोड़े जोत दिये। तब राम, लक्ष्मण और सीता उसपर चढ़कर शीघ्रतासे चले॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोध्याभिमुखं गत्वा किञ्चिद्दूरं ततो ययुः।
तेऽपि राममदृष्ट्वैव प्रातरुत्थाय दुःखिताः॥ ५७॥
मूलम्
अयोध्याभिमुखं गत्वा किञ्चिद्दूरं ततो ययुः।
तेऽपि राममदृष्ट्वैव प्रातरुत्थाय दुःखिताः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपना रथ कुछ दूर अयोध्याकी ओर ले जाकर फिर वनकी ओर बढ़ाया। प्रातःकाल होनेपर पुरवासियोंने उठकर जब रामको न देखा तो वे अत्यन्त दुःखी हुए॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथनेमिगतं मार्गं पश्यन्तस्ते पुरं ययुः।
हृदि रामं ससीतं ते ध्यायन्तस्तस्थुरन्वहम्॥ ५८॥
मूलम्
रथनेमिगतं मार्गं पश्यन्तस्ते पुरं ययुः।
हृदि रामं ससीतं ते ध्यायन्तस्तस्थुरन्वहम्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और रथके पहियोंकी लीकके मार्गको देखते हुए वे अयोध्यापुरीमें लौट आये तथा प्रतिदिन हृदयमें राम और सीताका ध्यान करते हुए वहाँ रहने लगे॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमन्त्रोऽपि रथं शीघ्रं नोदयामास सादरम्।
स्फीताञ्जनपदान्पश्यन् रामः सीतासमन्वितः॥ ५९॥
गङ्गातीरं समागच्छच्छृङ्गवेराविदूरतः।
गङ्गां दृष्ट्वा नमस्कृत्य स्नात्वा सानन्दमानसः॥ ६०॥
मूलम्
सुमन्त्रोऽपि रथं शीघ्रं नोदयामास सादरम्।
स्फीताञ्जनपदान्पश्यन् रामः सीतासमन्वितः॥ ५९॥
गङ्गातीरं समागच्छच्छृङ्गवेराविदूरतः।
गङ्गां दृष्ट्वा नमस्कृत्य स्नात्वा सानन्दमानसः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर सुमन्त्रने भी शीघ्र ही आदरपूर्वक अपना रथ बढ़ाया। तब सीताके सहित श्रीरामचन्द्रजी विस्तृत देशोंको देखते हुए शृंगवेरपुरके पास गंगाजीके तटपर पहुँचे। गंगाजीको देखकर उन्होंने प्रसन्नचित्तसे नमस्कार करके स्नान किया॥ ५९-६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिंशपावृक्षमूले स निषसाद रघूत्तमः।
ततो गुहो जनैः श्रुत्वा रामागममहोत्सवम्॥ ६१॥
मूलम्
शिंशपावृक्षमूले स निषसाद रघूत्तमः।
ततो गुहो जनैः श्रुत्वा रामागममहोत्सवम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
और फिर रघुश्रेष्ठ रामजी शिंशपा (सीसम)-के वृक्षकी छायामें बैठे। इसी समय निषादराज गुहने लोगोंके मुखसे रामजीके आनेका मंगल समाचार सुना॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखायं स्वामिनं द्रष्टुं हर्षात्तूर्णं समापतत्।
फलानि मधुपुष्पादि गृहीत्वा भक्तिसंयुतः॥ ६२॥
मूलम्
सखायं स्वामिनं द्रष्टुं हर्षात्तूर्णं समापतत्।
फलानि मधुपुष्पादि गृहीत्वा भक्तिसंयुतः॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनते ही वह तुरंत अपने एकमात्र सखा और स्वामी श्रीरघुनाथजीको देखनेके लिये प्रसन्न चित्तसे भक्तिपूर्वक फल, शहद और पुष्पादि लेकर वहाँ आया॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्याग्रे विनिक्षिप्य दण्डवत्प्रापतद्भुवि।
गुहमुत्थाप्य तं तूर्णं राघवः परिषस्वजे॥ ६३॥
मूलम्
रामस्याग्रे विनिक्षिप्य दण्डवत्प्रापतद्भुवि।
गुहमुत्थाप्य तं तूर्णं राघवः परिषस्वजे॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और वह भेंटकी सामग्री रामके आगे डालकर दण्डके समान पृथिवीपर गिर पड़ा। तब श्रीरघुनाथजीने उसे तुरंत ही उठाकर गले लगा लिया॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संपृष्टकुशलो रामं गुहः प्राञ्जलिरब्रवीत्।
धन्योऽहमद्य मे जन्म नैषादं लोकपावन॥ ६४॥
मूलम्
संपृष्टकुशलो रामं गुहः प्राञ्जलिरब्रवीत्।
धन्योऽहमद्य मे जन्म नैषादं लोकपावन॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदुपरान्त रामजीके कुशल पूछनेपर गुहने हाथ जोड़कर कहा—‘‘हे लोकपावन! मैं धन्य हूँ, आज मेरा निषाद-जातिमें जन्म लेना सफल हो गया॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभूव परमानन्दः स्पृष्ट्वा तेऽङ्गं रघूत्तम।
नैषादराज्यमेतत्ते किङ्करस्य रघूत्तम॥ ६५॥
त्वदधीनं वसन्नत्र पालयास्मान् रघूद्वह।
आगच्छ यामो नगरं पावनं कुरु मे गृहम्॥ ६६॥
मूलम्
बभूव परमानन्दः स्पृष्ट्वा तेऽङ्गं रघूत्तम।
नैषादराज्यमेतत्ते किङ्करस्य रघूत्तम॥ ६५॥
त्वदधीनं वसन्नत्र पालयास्मान् रघूद्वह।
आगच्छ यामो नगरं पावनं कुरु मे गृहम्॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! आपके अंग-संगसे मुझे परम आनन्द प्राप्त हुआ है। हे रघुवर! आपके दासका यह नैषादराज्य आपहीका है, इसलिये हे रघुनाथजी! आप यहाँ रहकर हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। चलिये नगरमें पधारकर मेरा घर पवित्र कीजिये॥ ६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाण फलमूलानि त्वदर्थं सञ्चितानि मे।
अनुगृह्णीष्व भगवन् दासस्तेऽहं सुरोत्तम॥ ६७॥
मूलम्
गृहाण फलमूलानि त्वदर्थं सञ्चितानि मे।
अनुगृह्णीष्व भगवन् दासस्तेऽहं सुरोत्तम॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भगवन्! आपके लिये मैंने जो कुछ फल-मूलादि एकत्रित किये हैं उन्हें स्वीकार कीजिये। हे सुरश्रेष्ठ! मैं आपका दास हूँ, आप मुझपर कृपा कीजिये’’॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तमाह सुप्रीतो वचनं शृणु मे सखे।
न वेक्ष्यामि गृहं ग्रामं नव वर्षाणि पञ्च च॥ ६८॥
मूलम्
रामस्तमाह सुप्रीतो वचनं शृणु मे सखे।
न वेक्ष्यामि गृहं ग्रामं नव वर्षाणि पञ्च च॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने अति प्रसन्न होकर उससे कहा—‘‘मित्र! सुनो, मैं चौदह वर्षतक किसी घर या गाँवमें नहीं जा सकता॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तमन्येन नो भुञ्जे फलमूलादि किञ्चन।
राज्यं ममैतत्ते सर्वं त्वं सखा मेऽतिवल्लभः॥ ६९॥
मूलम्
दत्तमन्येन नो भुञ्जे फलमूलादि किञ्चन।
राज्यं ममैतत्ते सर्वं त्वं सखा मेऽतिवल्लभः॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और न किसी औरके दिये हुए फल-मूलादि ही खा सकता हूँ। मित्र! तुम्हारा यह सम्पूर्ण राज्य मेरा ही है और तुम भी मेरे अत्यन्त प्रिय सखा हो’॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वटक्षीरं समानाय्य जटामुकुटमादरात्।
बबन्ध लक्ष्मणेनाथ सहितो रघुनन्दनः॥ ७०॥
मूलम्
वटक्षीरं समानाय्य जटामुकुटमादरात्।
बबन्ध लक्ष्मणेनाथ सहितो रघुनन्दनः॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रघुनाथजीने वटका दूध मँगाकर लक्ष्मणके सहित भली प्रकार सँवारकर जटाजूट बाँधे॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलमात्रं तु सम्प्राश्य सीतया सह राघवः।
आस्तृतं कुशपर्णाद्यैः शयनं लक्ष्मणेन हि॥ ७१॥
उवास तत्र नगरप्रासादाग्रे यथा पुरा।
सुष्वाप तत्र वैदेह्या पर्यङ्क इव संस्कृते॥ ७२॥
मूलम्
जलमात्रं तु सम्प्राश्य सीतया सह राघवः।
आस्तृतं कुशपर्णाद्यैः शयनं लक्ष्मणेन हि॥ ७१॥
उवास तत्र नगरप्रासादाग्रे यथा पुरा।
सुष्वाप तत्र वैदेह्या पर्यङ्क इव संस्कृते॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीने कुश और पत्तोंकी एक शय्या बना दी, उसीपर केवल जल पीकर सीताके सहित श्रीरघुनाथजी विराजमान हुए और पहले जिस प्रकार अयोध्यापुरीके महलमें जनकनन्दिनीके सहित सुसज्जित पलंगपर पौढ़ते थे उसी प्रकार सो गये॥ ७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽविदूरे परिगृह्य चापं
सबाणतूणीरधनुः स लक्ष्मणः।
ररक्ष रामं परितो विपश्यन्
गुहेन सार्धं सशरासनेन॥ ७३॥
मूलम्
ततोऽविदूरे परिगृह्य चापं
सबाणतूणीरधनुः स लक्ष्मणः।
ररक्ष रामं परितो विपश्यन्
गुहेन सार्धं सशरासनेन॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पास ही धनुष, बाण और तरकश लिये हुए श्रीलक्ष्मणजी धनुषधारी गुहके सहित धनुष चढ़ाकर इधर-उधर देखते हुए श्रीरामचन्द्रजीकी रखवाली करने लगे॥ ७३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥ ५॥