[चतुर्थ सर्ग]
भागसूचना
भगवान् रामका मातासे विदा होना तथा सीता और लक्ष्मणके सहित वनगमनकी तैयारी करना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुमित्रा दृष्ट्वैनं रामं राज्ञीं ससम्भ्रमा।
कौसल्यां बोधयामास रामोऽयं समुपस्थितः॥ १॥
मूलम्
ततः सुमित्रा दृष्ट्वैनं रामं राज्ञीं ससम्भ्रमा।
कौसल्यां बोधयामास रामोऽयं समुपस्थितः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वती! तब महारानी सुमित्राने रामको देखकर सम्भ्रमपूर्वक महारानी कौसल्याको चेत कराकर बताया कि राम खड़े हुए हैं॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैव रामनामैषा बहिर्दृष्टिप्रवाहिता।
रामं दृष्ट्वा विशालाक्षमालिङ्ग्याङ्के न्यवेशयत्॥ २॥
मूलम्
श्रुत्वैव रामनामैषा बहिर्दृष्टिप्रवाहिता।
रामं दृष्ट्वा विशालाक्षमालिङ्ग्याङ्के न्यवेशयत्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामका नाम सुनते ही उनकी बहिर्दृष्टि हुई और उन्होंने विशालनयन रामको देख गले लगाकर गोदमें बैठा लिया॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्ध्न्यवघ्राय पस्पर्श गात्रं नीलोत्पलच्छवि।
भुङ्क्ष्व पुत्रेति च प्राह मिष्टमन्नं क्षुधार्दितः॥ ३॥
मूलम्
मूर्ध्न्यवघ्राय पस्पर्श गात्रं नीलोत्पलच्छवि।
भुङ्क्ष्व पुत्रेति च प्राह मिष्टमन्नं क्षुधार्दितः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा उनका सिर सूँघकर उनके नील कमल-सदृश श्याम शरीरपर हाथ फेरा और कहा—‘‘बेटा! भूख लगी होगी कुछ मिष्टान्न खा लो’’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः प्राह न मे मातर्भोजनावसरः कृतः।
दण्डकागमने शीघ्रं मम कालोऽद्य निश्चितः॥ ४॥
मूलम्
रामः प्राह न मे मातर्भोजनावसरः कृतः।
दण्डकागमने शीघ्रं मम कालोऽद्य निश्चितः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामजी बोले—‘‘माता! मुझे भोजन करनेका समय नहीं है; क्योंकि आज मेरे लिये यह समय शीघ्र ही दण्डकारण्य जानेके लिये निश्चित किया गया है॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेयीवरदानेन सत्यसन्धः पिता मम।
भरताय ददौ राज्यं ममाप्यारण्यमुत्तमम्॥ ५॥
मूलम्
कैकेयीवरदानेन सत्यसन्धः पिता मम।
भरताय ददौ राज्यं ममाप्यारण्यमुत्तमम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिताजीने माता कैकेयीको वर देकर भरतको राज्य और मुझे अति उत्तम वनवास दिया है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्दश समास्तत्र ह्युषित्वा मुनिवेषधृक्।
आगमिष्ये पुनः शीघ्रं न चिन्तां कर्तुमर्हसि॥ ६॥
मूलम्
चतुर्दश समास्तत्र ह्युषित्वा मुनिवेषधृक्।
आगमिष्ये पुनः शीघ्रं न चिन्तां कर्तुमर्हसि॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मुनिवेषसे चौदह वर्ष रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा, आप किसी प्रकारकी चिन्ता न करें’’॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा सहसोद्विग्ना मूर्च्छिता पुनरुत्थिता।
आह रामं सुदुःखार्ता दुःखसागरसम्प्लुता॥ ७॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा सहसोद्विग्ना मूर्च्छिता पुनरुत्थिता।
आह रामं सुदुःखार्ता दुःखसागरसम्प्लुता॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अचानक ऐसी बात सुनकर माता कौसल्या दुःखसे अचेत हो गयीं और फिर चेत होनेपर दुःख-सागरमें उछलती-डूबती दुःखातुर होकर रामसे कहने लगीं—॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि राम वनं सत्यं यासि चेन्नय मामपि।
त्वद्विहीना क्षणार्द्धं वा जीवितं धारये कथम्॥ ८॥
मूलम्
यदि राम वनं सत्यं यासि चेन्नय मामपि।
त्वद्विहीना क्षणार्द्धं वा जीवितं धारये कथम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राम! यदि सचमुच ही तुम वनको जाते हो तो मुझे भी साथ ले चलो; तुम्हारे बिना मैं आधे क्षण भी कैसे जीवित रह सकती हूँ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा गौर्बालकं वत्सं त्यक्त्वा तिष्ठेन्न कुत्रचित्।
तथैव त्वां न शक्नोमि त्यक्तुं प्राणात्प्रियं सुतम्॥ ९॥
मूलम्
यथा गौर्बालकं वत्सं त्यक्त्वा तिष्ठेन्न कुत्रचित्।
तथैव त्वां न शक्नोमि त्यक्तुं प्राणात्प्रियं सुतम्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार गौ अपने अल्पवयस्क बछड़ेको छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकती, उसी प्रकार मैं भी तुझ अपने प्राणप्रिय पुत्रको नहीं छोड़ सकती॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरताय प्रसन्नश्चेद्राज्यं राजा प्रयच्छतु।
किमर्थं वनवासाय त्वामाज्ञापयति प्रियम्॥ १०॥
मूलम्
भरताय प्रसन्नश्चेद्राज्यं राजा प्रयच्छतु।
किमर्थं वनवासाय त्वामाज्ञापयति प्रियम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा भरतसे प्रसन्न हैं तो उन्हें राज्य भले ही दें, परन्तु तुझ प्रिय पुत्रको वनवासकी आज्ञा क्यों देते हैं॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेय्या वरदो राजा सर्वस्वं वा प्रयच्छतु।
त्वया किमपराद्धं हि कैकेय्या वा नृपस्य वा॥ ११॥
मूलम्
कैकेय्या वरदो राजा सर्वस्वं वा प्रयच्छतु।
त्वया किमपराद्धं हि कैकेय्या वा नृपस्य वा॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
कैकेयीको वर देकर चाहे महाराज अपना सर्वस्व दे डालें (इसमें कोई आपत्ति नहीं), किन्तु तुमने राजा अथवा कैकेयीका क्या बिगाड़ा है?॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता गुरुर्यथा राम तवाहमधिका ततः।
पित्राऽऽज्ञप्तो वनं गन्तुं वारयेयमहं सुतम्॥ १२॥
मूलम्
पिता गुरुर्यथा राम तवाहमधिका ततः।
पित्राऽऽज्ञप्तो वनं गन्तुं वारयेयमहं सुतम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! जिस प्रकार पिता तुम्हारे गुरु हैं उसी प्रकार मैं भी तो उनसे अधिक तुम्हारी गुरु हूँ! यदि पिताने तुमसे वन जानेको कहा है तो मैं तुम्हें रोकती हूँ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि गच्छसि मद्वाक्यमुल्लङ्घ्य नृपवाक्यतः।
तदा प्राणान्परित्यज्य गच्छामि यमसादनम्॥ १३॥
मूलम्
यदि गच्छसि मद्वाक्यमुल्लङ्घ्य नृपवाक्यतः।
तदा प्राणान्परित्यज्य गच्छामि यमसादनम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मेरे वाक्यका उल्लंघन कर तुम राजाकी आज्ञासे वनको चले जाओगे तो मैं अपना प्राण छोड़कर यमपुरको चली जाऊँगी॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणोऽपि ततः श्रुत्वा कौसल्यावचनं रुषा।
उवाच राघवं वीक्ष्य दहन्निव जगत्त्रयम्॥ १४॥
मूलम्
लक्ष्मणोऽपि ततः श्रुत्वा कौसल्यावचनं रुषा।
उवाच राघवं वीक्ष्य दहन्निव जगत्त्रयम्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लक्ष्मणने भी कौसल्याके वचन सुनकर रामजीकी ओर देखकर रोषसे त्रिलोकीको दग्ध करते हुए-से कहा—॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मत्तं भ्रान्तमनसं कैकेयीवशवर्तिनम्।
बद्ध्वा निहन्मि भरतं तद्बन्धून्मातुलानपि॥ १५॥
मूलम्
उन्मत्तं भ्रान्तमनसं कैकेयीवशवर्तिनम्।
बद्ध्वा निहन्मि भरतं तद्बन्धून्मातुलानपि॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मैं उन्मत्त, भ्रान्तचित्त और कैकेयीके वशवर्ती राजा दशरथको बाँधकर भरतको उनके सहायक मामा आदिके सहित मार डालूँगा॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य पश्यन्तु मे शौर्यं लोकान् प्रदहतः पुरा।
राम त्वमभिषेकाय कुरु यत्नमरिन्दम॥ १६॥
धनुष्पाणिरहं तत्र निहन्यां विघ्नकारिणः।
इति ब्रुवन्तं सौमित्रिमालिङ्ग्य रघुनन्दनः॥ १७॥
मूलम्
अद्य पश्यन्तु मे शौर्यं लोकान् प्रदहतः पुरा।
राम त्वमभिषेकाय कुरु यत्नमरिन्दम॥ १६॥
धनुष्पाणिरहं तत्र निहन्यां विघ्नकारिणः।
इति ब्रुवन्तं सौमित्रिमालिङ्ग्य रघुनन्दनः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध करनेवाले कालानलके समान मेरे पौरुषको पहले वे सब लोग देख लें। हे शत्रुदमन राम! आप अभिषेककी तैयारी कीजिये उसमें विघ्न उपस्थित करनेवालोंको मैं हाथमें धनुष-बाण लेकर मार डालूँगा’’ लक्ष्मणजीके इस प्रकार कहनेपर रघुनाथजीने उन्हें गले लगाकर कहा—॥ १६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूरोऽसि रघुशार्दूल ममात्यन्तहिते रतः।
जानामि सर्वं ते सत्यं किन्तु तत्समयो न हि॥ १८॥
मूलम्
शूरोऽसि रघुशार्दूल ममात्यन्तहिते रतः।
जानामि सर्वं ते सत्यं किन्तु तत्समयो न हि॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘रघुश्रेष्ठ! तुम बड़े शूरवीर और मेरे परम हितकारी हो। तुम जो कुछ कहते हो वह मैं सब सत्य मानता हूँ, किन्तु यह उसका समय नहीं है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं दृश्यते सर्वं राज्यं देहादिकं च यत्।
यदि सत्यं भवेत्तत्र आयासः सफलश्च ते॥ १९॥
मूलम्
यदिदं दृश्यते सर्वं राज्यं देहादिकं च यत्।
यदि सत्यं भवेत्तत्र आयासः सफलश्च ते॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जो कुछ राज्य और देह आदि दिखायी देता है वह सब यदि सत्य होता तो अवश्य तुम्हारा परिश्रम सफल होता॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोगा मेघवितानस्थविद्युल्लेखेव चञ्चलाः।
आयुरप्यग्निसन्तप्तलोहस्थजलबिन्दुवत्॥ २०॥
मूलम्
भोगा मेघवितानस्थविद्युल्लेखेव चञ्चलाः।
आयुरप्यग्निसन्तप्तलोहस्थजलबिन्दुवत्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु ये भोग तो मेघरूपी वितानमें चमकती हुई बिजलीके समान चंचल हैं और आयु अग्निमें तपाये हुए लोहेपर पड़ी हुई जलकी बूँदके समान क्षणिक है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा व्यालगलस्थोऽपि भेको दंशानपेक्षते।
तथा कालाहिना ग्रस्तो लोको भोगानशाश्वतान्॥ २१॥
मूलम्
यथा व्यालगलस्थोऽपि भेको दंशानपेक्षते।
तथा कालाहिना ग्रस्तो लोको भोगानशाश्वतान्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार सर्पके मुँहमें पड़ा हुआ भी मेंढ़क मच्छरोंको ताकता रहता है, उसी प्रकार लोग कालरूप सर्पसे ग्रस्त हुए भी अनित्य भोगोंको चाहते रहते हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोति दुःखेन हि कर्मतन्त्रं
शरीरभोगार्थमहर्निशं नरः।
देहस्तु भिन्नः पुरुषात्समीक्ष्यते
को वात्र भोगः पुरुषेण भुज्यते॥२२॥
मूलम्
करोति दुःखेन हि कर्मतन्त्रं
शरीरभोगार्थमहर्निशं नरः।
देहस्तु भिन्नः पुरुषात्समीक्ष्यते
को वात्र भोगः पुरुषेण भुज्यते॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कैसा आश्चर्य है कि शरीरके भोगोंके लिये ही मनुष्य रात-दिन अति कष्ट सहकर नाना प्रकारकी क्रियाएँ करता रहता है। यदि यह समझ ले कि शरीर आत्मासे भिन्न है तो फिर भला पुरुष कैसे किसी भोगको भोग सकता है!॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृमातृसुतभ्रातृदारबन्ध्वादिसंगमः।
प्रपायामिव जन्तूनां नद्यां काष्ठौघवच्चलः॥ २३॥
मूलम्
पितृमातृसुतभ्रातृदारबन्ध्वादिसंगमः।
प्रपायामिव जन्तूनां नद्यां काष्ठौघवच्चलः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री और बन्धु-बान्धवोंका संयोग प्याऊपर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी-प्रवाहसे इकट्ठी हुई लकड़ियोंके समान चंचल है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छायेव लक्ष्मीश्चपला प्रतीता
तारुण्यमम्बूर्मिवदध्रुवं च।
स्वप्नोपमं स्त्रीसुखमायुरल्पं
तथापि जन्तोरभिमान एषः॥ २४॥
मूलम्
छायेव लक्ष्मीश्चपला प्रतीता
तारुण्यमम्बूर्मिवदध्रुवं च।
स्वप्नोपमं स्त्रीसुखमायुरल्पं
तथापि जन्तोरभिमान एषः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निस्सन्देह दिखायी पड़ता है कि लक्ष्मी छायाके समान चंचल, यौवन जल-तरंगके समान अनित्य है, स्त्री-सुख स्वप्नके समान मिथ्या और आयु अत्यन्त अल्प है तथापि प्राणियोंका इनमें कितना अभिमान है॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसृतिः स्वप्नसदृशी सदा रोगादिसङ्कुला।
गन्धर्वनगरप्रख्या मूढस्तामनुवर्तते॥ २५॥
मूलम्
संसृतिः स्वप्नसदृशी सदा रोगादिसङ्कुला।
गन्धर्वनगरप्रख्या मूढस्तामनुवर्तते॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह संसार सदा रोगादि-संकुल तथा स्वप्न और गन्धर्वनगरके समान मिथ्या है, मूढ़जन ही इसको सत्य मानकर इसका अनुकरण करते हैं॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुष्यं क्षीयते यस्मादादित्यस्य गतागतैः।
दृष्ट्वान्येषां जरामृत्यू कथञ्चिन्नैव बुध्यते॥ २६॥
मूलम्
आयुष्यं क्षीयते यस्मादादित्यस्य गतागतैः।
दृष्ट्वान्येषां जरामृत्यू कथञ्चिन्नैव बुध्यते॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्य सूर्यके उदय और अस्त होनेसे आयु क्षीण हो रही है तथा नित्य ही दूसरोंकी वृद्धावस्था और मृत्यु होती देखी जाती है तो भी मूढ़ पुरुषको किसी प्रकार चेत नहीं होता॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव दिवसः सैव रात्रिरित्येव मूढधीः।
भोगाननुपतत्येव कालवेगं न पश्यति॥ २७॥
मूलम्
स एव दिवसः सैव रात्रिरित्येव मूढधीः।
भोगाननुपतत्येव कालवेगं न पश्यति॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्यप्रति उसी प्रकार दिन और रात होते हैं किन्तु मूढ़मति पुरुष भोगोंके पीछे ही दौड़ता है, कालकी गतिको नहीं देखता॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिक्षणं क्षरत्येतदायुरामघटाम्बुवत्।
सपत्ना इव रोगौघाः शरीरं प्रहरन्त्यहो॥ २८॥
मूलम्
प्रतिक्षणं क्षरत्येतदायुरामघटाम्बुवत्।
सपत्ना इव रोगौघाः शरीरं प्रहरन्त्यहो॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
कच्चे घड़ेमें भरे हुए जलके समान आयु प्रतिक्षण क्षीण हो रही है और रोग-समूह शत्रुओंके समान शरीरको नष्ट करते हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरा व्याघ्रीव पुरतस्तर्जयन्त्यवतिष्ठते।
मृत्युः सहैव यात्येष समयं सम्प्रतीक्षते॥ २९॥
मूलम्
जरा व्याघ्रीव पुरतस्तर्जयन्त्यवतिष्ठते।
मृत्युः सहैव यात्येष समयं सम्प्रतीक्षते॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृद्धावस्था सिंहिनीके समान डराती हुई सामने खड़ी है और यह मृत्यु भी उसके साथ ही चलती हुई (अन्त) समयकी प्रतीक्षा कर रही है॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहेऽहंभावमापन्नो राजाहं लोकविश्रुतः।
इत्यस्मिन्मनुते जन्तुः कृमिविड्भस्मसंज्ञिते॥ ३०॥
मूलम्
देहेऽहंभावमापन्नो राजाहं लोकविश्रुतः।
इत्यस्मिन्मनुते जन्तुः कृमिविड्भस्मसंज्ञिते॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु देहमें अहं-भावना करनेवाला जीव इस कृमि, विष्ठा और भस्मरूप शरीरको ही ‘मैं लोक-प्रसिद्ध राजा हूँ’, ऐसा मानता है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वगस्थिमांसविण्मूत्ररेतोरक्तादिसंयुतः।
विकारी परिणामी च देह आत्मा कथं वद॥ ३१॥
यमास्थाय भवाल्ँलोकं दग्धुमिच्छति लक्ष्मण।
देहाभिमानिनः सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति हि॥ ३२॥
मूलम्
त्वगस्थिमांसविण्मूत्ररेतोरक्तादिसंयुतः।
विकारी परिणामी च देह आत्मा कथं वद॥ ३१॥
यमास्थाय भवाल्ँलोकं दग्धुमिच्छति लक्ष्मण।
देहाभिमानिनः सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति हि॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे लक्ष्मण! तुम कुछ सोचकर बताओ कि जिसके आश्रयसे तुम संसारको दग्ध करना चाहते हो वह त्वचा, अस्थि, मांस, विष्ठा, मूत्र, शुक्र और रुधिर आदिसे बना हुआ विकारी और परिणामी देह आत्मा किस प्रकार हो सकता है? हे भाई! इस देहाभिमानसे युक्त पुरुषमें ही सम्पूर्ण दोष प्रकट हुआ करते हैं॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता।
नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते॥ ३३॥
मूलम्
देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता।
नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं देह हूँ’ इस बुद्धिका नाम ही अविद्या है और ‘मैं देह नहीं, चेतन आत्मा हूँ’ इसीको विद्या कहते हैं॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्या संसृतेर्हेतुर्विद्या तस्या निवर्तिका।
तस्माद्यत्नः सदा कार्यो विद्याभ्यासे मुमुक्षुभिः।
कामक्रोधादयस्तत्र शत्रवः शत्रुसूदन॥ ३४॥
मूलम्
अविद्या संसृतेर्हेतुर्विद्या तस्या निवर्तिका।
तस्माद्यत्नः सदा कार्यो विद्याभ्यासे मुमुक्षुभिः।
कामक्रोधादयस्तत्र शत्रवः शत्रुसूदन॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अविद्या जन्म-मरणरूप संसारकी कारण है और विद्या उसको निवृत्त करनेवाली है, अतः मोक्षकामियोंको सदा विद्योपार्जनका प्रयत्न करना चाहिये। हे शत्रुदमन! काम-क्रोध आदि इस साधनमें विघ्न करनेवाले शत्रु हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापि क्रोध एवालं मोक्षविघ्नाय सर्वदा।
येनाविष्टः पुमान् हन्ति पितृभ्रातृसुहृत्सखीन्॥ ३५॥
मूलम्
तत्रापि क्रोध एवालं मोक्षविघ्नाय सर्वदा।
येनाविष्टः पुमान् हन्ति पितृभ्रातृसुहृत्सखीन्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें भी मोक्षमें विघ्न उपस्थित करनेके लिये तो एकमात्र क्रोध ही पर्याप्त है, जिसका आवेश होनेसे पुरुष पिता, माता, सुहृद् और बन्धुओंका भी वध कर डालता है॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधमूलो मनस्तापः क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं परित्यज॥ ३६॥
मूलम्
क्रोधमूलो मनस्तापः क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं परित्यज॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनके सन्तापका मूल क्रोध ही है और क्रोध ही संसारका बन्धन तथा धर्मका क्षय करनेवाला है। इसलिये तुम क्रोधको छोड़ दो॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोध एष महान् शत्रुस्तृष्णा वैतरणी नदी।
सन्तोषो नन्दनवनं शान्तिरेव हि कामधुक्॥ ३७॥
मूलम्
क्रोध एष महान् शत्रुस्तृष्णा वैतरणी नदी।
सन्तोषो नन्दनवनं शान्तिरेव हि कामधुक्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह क्रोध महान् शत्रु है, तृष्णा वैतरणी नदी है, सन्तोष नन्दनवन है और शान्ति ही कामधेनु है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्छान्तिं भजस्वाद्य शत्रुरेवं भवेन्न ते।
देहेन्द्रियमनःप्राणबुद्ध्यादिभ्यो विलक्षणः॥ ३८॥
आत्मा शुद्धः स्वयंज्योतिरविकारी निराकृतिः।
यावद्देहेन्द्रियप्राणैर्भिन्नत्वं नात्मनो विदुः॥ ३९॥
तावत्संसारदुःखौघैः पीड्यन्ते मृत्युसंयुताः।
तस्मात्त्वं सर्वदा भिन्नमात्मानं हृदि भावय॥ ४०॥
बुद्ध्यादिभ्यो बहिः सर्वमनुवर्तस्व मा खिदः।
भुञ्जन्प्रारब्धमखिलं सुखं वा दुःखमेव वा॥ ४१॥
मूलम्
तस्माच्छान्तिं भजस्वाद्य शत्रुरेवं भवेन्न ते।
देहेन्द्रियमनःप्राणबुद्ध्यादिभ्यो विलक्षणः॥ ३८॥
आत्मा शुद्धः स्वयंज्योतिरविकारी निराकृतिः।
यावद्देहेन्द्रियप्राणैर्भिन्नत्वं नात्मनो विदुः॥ ३९॥
तावत्संसारदुःखौघैः पीड्यन्ते मृत्युसंयुताः।
तस्मात्त्वं सर्वदा भिन्नमात्मानं हृदि भावय॥ ४०॥
बुद्ध्यादिभ्यो बहिः सर्वमनुवर्तस्व मा खिदः।
भुञ्जन्प्रारब्धमखिलं सुखं वा दुःखमेव वा॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तुम शान्ति धारण करो, इससे (क्रोधरूपी) शत्रुका तुमपर प्रभाव न होगा। आत्मा देह, इन्द्रिय, मन, प्राण और बुद्धि आदिसे पृथक् तथा शुद्ध, स्वयंप्रकाश, अविकारी और निराकार है। जबतक मनुष्य देह, इन्द्रिय और प्राण आदिसे आत्माकी भिन्नता नहीं जानते तबतक वे मृत्युपाशमें बँधकर सांसारिक दुःखसमूहसे पीड़ित होते रहते हैं। इसलिये तुम सर्वदा अपने हृदयमें बुद्धि आदिसे आत्माको भिन्न अनुभव करो, इस सम्पूर्ण बाह्य व्यवहारका अनुवर्तन करो और सुख अथवा दुःखरूप जैसा प्रारब्ध हो उसीको भोगते हुए चित्तमें खेद न मानो॥ ३८—४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवाहपतितं कार्यं कुर्वन्नपि न लिप्यसे।
बाह्ये सर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नपि राघव॥ ४२॥
मूलम्
प्रवाहपतितं कार्यं कुर्वन्नपि न लिप्यसे।
बाह्ये सर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नपि राघव॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुपुत्र! बाहरसे (इन्द्रिय आदि द्वारा) कर्तृत्व प्रकट करते हुए जो कार्य प्रारब्धवश उपस्थित हो उसे करते रहनेसे भी तुम बन्धनमें नहीं पड़ोगे॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःशुद्धस्वभावस्त्वं लिप्यसे न च कर्मभिः।
एतन्मयोदितं कृत्स्नं हृदि भावय सर्वदा॥ ४३॥
मूलम्
अन्तःशुद्धस्वभावस्त्वं लिप्यसे न च कर्मभिः।
एतन्मयोदितं कृत्स्नं हृदि भावय सर्वदा॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीतरसे राग-द्वेषरहित और शुद्धस्वभाव रहनेके कारण तुम कर्मोंसे लिप्त न होगे। मेरे इस सम्पूर्ण कथनपर तुम सर्वदा अपने हृदयमें विचार करो॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसारदुःखैरखिलैर्बाध्यसे न कदाचन।
त्वमप्यम्ब मयाऽऽदिष्टं हृदि भावय नित्यदा॥ ४४॥
मूलम्
संसारदुःखैरखिलैर्बाध्यसे न कदाचन।
त्वमप्यम्ब मयाऽऽदिष्टं हृदि भावय नित्यदा॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा करनेसे तुम सम्पूर्ण सांसारिक दुःखोंसे कभी बाधित न होगे। हे मातः! तुम भी मेरे इस कथनपर नित्य विचार करना॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समागमं प्रतीक्षस्व न दुःखैः पीड्यसे चिरम्।
न सदैकत्र संवासः कर्ममार्गानुवर्तिनाम्॥ ४५॥
मूलम्
समागमं प्रतीक्षस्व न दुःखैः पीड्यसे चिरम्।
न सदैकत्र संवासः कर्ममार्गानुवर्तिनाम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मेरे फिर मिलनेकी प्रतीक्षा करती रहना। तुम्हें अधिक काल दुःख न होगा। कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवोंका सदा एक ही साथ रहना-सहना नहीं हुआ करता॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा प्रवाहपतितप्लवानां सरितां तथा।
चतुर्दशसमासङ्ख्या क्षणार्द्धमिव जायते॥ ४६॥
अनुमन्यस्व मामम्ब दुःखं सन्त्यज्य दूरतः।
एवं चेत्सुखसंवासो भविष्यति वने मम॥ ४७॥
मूलम्
यथा प्रवाहपतितप्लवानां सरितां तथा।
चतुर्दशसमासङ्ख्या क्षणार्द्धमिव जायते॥ ४६॥
अनुमन्यस्व मामम्ब दुःखं सन्त्यज्य दूरतः।
एवं चेत्सुखसंवासो भविष्यति वने मम॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे नदीके प्रवाहमें पड़कर बहती हुई डोंगियाँ सदा साथ-साथ ही नहीं चलतीं। माता! यह चौदह वर्षकी अवधि आधे क्षणके समान बीत जायगी। आप अब दुःखको दूर करके हमें वन जानेकी अनुमति दीजिये। आपके ऐसा करनेसे मैं वनमें सुखपूर्वक रह सकूँगा’’॥ ४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा दण्डवन्मातुः पादयोरपतच्चिरम्।
उत्थाप्याङ्के समावेश्य आशीर्भिरभ्यनन्दयत्॥ ४८॥
मूलम्
इत्युक्त्वा दण्डवन्मातुः पादयोरपतच्चिरम्।
उत्थाप्याङ्के समावेश्य आशीर्भिरभ्यनन्दयत्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह श्रीरामचन्द्रजी बहुत देरतक दण्डके समान माताके चरणोंमें पड़े रहे। तदनन्तर माताने उन्हें उठाकर गोदमें बैठा लिया और आशीर्वाद देकर उनकी प्रशंसा की॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे देवाः सगन्धर्वा ब्रह्मविष्णुशिवादयः।
रक्षन्तु त्वां सदा यान्तं तिष्ठन्तं निद्रया युतम्॥ ४९॥
मूलम्
सर्वे देवाः सगन्धर्वा ब्रह्मविष्णुशिवादयः।
रक्षन्तु त्वां सदा यान्तं तिष्ठन्तं निद्रया युतम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बोलीं—‘‘तुम्हारे चलते, बैठते अथवा सोते समय गन्धर्वोंसहित ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिक सम्पूर्ण देवगण तुम्हारी सर्वदा रक्षा करें’’॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति प्रस्थापयामास समालिङ्ग्य पुनः पुनः।
लक्ष्मणोऽपि तदा रामं नत्वा हर्षाश्रुगद्गदः॥ ५०॥
आह राम ममान्तःस्थः संशयोऽयं त्वया हृतः।
यास्यामि पृष्ठतो राम सेवां कर्तुं तदादिश॥ ५१॥
मूलम्
इति प्रस्थापयामास समालिङ्ग्य पुनः पुनः।
लक्ष्मणोऽपि तदा रामं नत्वा हर्षाश्रुगद्गदः॥ ५०॥
आह राम ममान्तःस्थः संशयोऽयं त्वया हृतः।
यास्यामि पृष्ठतो राम सेवां कर्तुं तदादिश॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बारम्बार हृदयसे लगाकर माताने रामको विदा किया। तब लक्ष्मणजीने भी रामजीसे आँखोंमें आनन्दाश्रु भरकर गद्गद वाणीसे कहा—‘‘हे राम! आपने मेरा आन्तरिक सन्देह दूर कर दिया, अब मैं आपकी सेवा करनेके लिये आपके पीछे-पीछे चलूँगा। आप इसके लिये आज्ञा दीजिये॥ ५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुगृह्णीष्व मां राम नोचेत्प्राणांस्त्यजाम्यहम्।
तथेति राघवोऽप्याह लक्ष्मणं याहि माचिरम्॥ ५२॥
मूलम्
अनुगृह्णीष्व मां राम नोचेत्प्राणांस्त्यजाम्यहम्।
तथेति राघवोऽप्याह लक्ष्मणं याहि माचिरम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आप मुझपर कृपा कीजिये, नहीं तो मैं प्राण छोड़ दूँगा।’’ तब रघुनाथजीने भी लक्ष्मणसे कहा—‘बहुत अच्छा, चलो देरी न करो’॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतस्थे तां समाधातुं गतः सीतापतिर्विभुः।
आगतं पतिमालोक्य सीता सुस्मितभाषिणी॥ ५३॥
स्वर्णपात्रस्थसलिलैः पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः।
पप्रच्छ पतिमालोक्य देव किं सेनया विना॥ ५४॥
आगतोऽसि गतः कुत्र श्वेतच्छत्रं च ते कुतः।
वादित्राणि न वाद्यन्ते किरीटादिविवर्जितः॥ ५५॥
सामन्तराजसहितः सम्भ्रमान्नागतोऽसि किम्।
इति स्म सीतया पृष्टो रामः सस्मितमब्रवीत्॥ ५६॥
मूलम्
प्रतस्थे तां समाधातुं गतः सीतापतिर्विभुः।
आगतं पतिमालोक्य सीता सुस्मितभाषिणी॥ ५३॥
स्वर्णपात्रस्थसलिलैः पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः।
पप्रच्छ पतिमालोक्य देव किं सेनया विना॥ ५४॥
आगतोऽसि गतः कुत्र श्वेतच्छत्रं च ते कुतः।
वादित्राणि न वाद्यन्ते किरीटादिविवर्जितः॥ ५५॥
सामन्तराजसहितः सम्भ्रमान्नागतोऽसि किम्।
इति स्म सीतया पृष्टो रामः सस्मितमब्रवीत्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सीतापति भगवान् राम सीताजीको समझानेके लिये चले और अपने महलमें पहुँचे। तब मन्द-मुसकानपूर्वक बोलनेवाली श्रीसीताजीने पतिदेवको आते देख एक सुवर्णपात्रमें जल लेकर भक्तिपूर्वक उनके चरण धोये और स्वामीकी ओर देखते हुए पूछा—‘‘देव! इस समय सेनाके बिना ही आप कैसे आये हैं? आप प्रातःकाल कहाँ गये थे? आपका श्वेत छत्र कहाँ है? बाजोंका बजना क्यों बंद हो गया है और आप किरीटादि राजोचित आभूषणोंसे रहित क्यों हैं? आप मन्त्री और राजाओंके सहित बड़े ठाट-बाटसे क्यों नहीं आये?’’ सीताजीके इस प्रकार पूछनेपर श्रीरामचन्द्रजीने मुसकराकर कहा॥ ५३—५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा मे दण्डकारण्ये राज्यं दत्तं शुभेऽखिलम्।
अतस्तत्पालनार्थाय शीघ्रं यास्यामि भामिनि॥ ५७॥
मूलम्
राज्ञा मे दण्डकारण्ये राज्यं दत्तं शुभेऽखिलम्।
अतस्तत्पालनार्थाय शीघ्रं यास्यामि भामिनि॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे शुभे! पिताजीने मुझे दण्डकारण्यका सम्पूर्ण राज्य दिया है, अतः हे भामिनि! मैं शीघ्र ही उसका पालन करनेके लिये वहाँ जाऊँगा॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यैव यास्यामि वनं त्वं तु श्वश्रूसमीपगा।
शुश्रूषां कुरु मे मातुर्न मिथ्यावादिनो वयम्॥ ५८॥
मूलम्
अद्यैव यास्यामि वनं त्वं तु श्वश्रूसमीपगा।
शुश्रूषां कुरु मे मातुर्न मिथ्यावादिनो वयम्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आज ही वनको जाऊँगा; तुम अपनी सासके पास जाकर उनकी सेवा-शुश्रूषामें रहो। मैं झूठ नहीं बोलता’’॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवन्तं श्रीरामं सीता भीताब्रवीद्वचः।
किमर्थं वनराज्यं ते पित्रा दत्तं महात्मना॥ ५९॥
मूलम्
इति ब्रुवन्तं श्रीरामं सीता भीताब्रवीद्वचः।
किमर्थं वनराज्यं ते पित्रा दत्तं महात्मना॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामचन्द्रजीके इस प्रकार कहनेपर सीताजीने भयभीत होकर कहा—‘‘आपके महात्मा पिताजीने आपको वनका राज्य क्यों दिया है?’’॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामाह रामः कैकेय्यै राजा प्रीतो वरं ददौ।
भरताय ददौ राज्यं वनवासं ममानघे॥ ६०॥
मूलम्
तामाह रामः कैकेय्यै राजा प्रीतो वरं ददौ।
भरताय ददौ राज्यं वनवासं ममानघे॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने उनसे कहा—‘‘हे अनघे! महाराजने प्रसन्नतापूर्वक कैकेयीको वर देकर भरतको राज्य और मुझे वनवास दिया है॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्दश समास्तत्र वासो मे किल याचितः।
तया देव्या ददौ राजा सत्यवादी दयापरः॥ ६१॥
मूलम्
चतुर्दश समास्तत्र वासो मे किल याचितः।
तया देव्या ददौ राजा सत्यवादी दयापरः॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवी कैकेयीने मेरे लिये चौदह वर्षतक वनमें रहना माँगा था, सो सत्यवादी दयालु महाराजने देना स्वीकार कर लिया है॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः शीघ्रं गमिष्यामि मा विघ्नं कुरु भामिनि।
श्रुत्वा तद्रामवचनं जानकी प्रीतिसंयुता॥ ६२॥
अहमग्रे गमिष्यामि वनं पश्चात्त्वमेष्यसि।
इत्याह मां विना गन्तुं तव राघव नोचितम्॥ ६३॥
मूलम्
अतः शीघ्रं गमिष्यामि मा विघ्नं कुरु भामिनि।
श्रुत्वा तद्रामवचनं जानकी प्रीतिसंयुता॥ ६२॥
अहमग्रे गमिष्यामि वनं पश्चात्त्वमेष्यसि।
इत्याह मां विना गन्तुं तव राघव नोचितम्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे भामिनि! मैं शीघ्र ही वहाँ जाऊँगा, तुम इसमें किसी प्रकारका विघ्न खड़ा न करना।’’ रामचन्द्रजीके ऐसे वचन सुनकर सीताजीने प्रसन्नतापूर्वक कहा—‘‘पहले मैं वनको जाऊँगी, उसके पीछे आप आना। हे राघव! मुझे छोड़कर आपको वनमें जाना उचित नहीं है’’॥ ६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामाह राघवः प्रीतः स्वप्रियां प्रियवादिनीम्।
कथं वनं त्वां नेष्येऽहं बहुव्याघ्रमृगाकुलम्॥ ६४॥
मूलम्
तामाह राघवः प्रीतः स्वप्रियां प्रियवादिनीम्।
कथं वनं त्वां नेष्येऽहं बहुव्याघ्रमृगाकुलम्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रघुनाथजीने प्रसन्न होकर अपनी प्रिया प्रियवादिनी जानकीसे कहा—‘‘मैं तुम्हें अनेकों व्याघ्रादि वन्य-पशुओंसे पूर्ण वनमें कैसे साथ ले चलूँ॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसा घोररूपाश्च सन्ति मानुषभोजिनः।
सिंहव्याघ्रवराहाश्च सञ्चरन्ति समन्ततः॥ ६५॥
मूलम्
राक्षसा घोररूपाश्च सन्ति मानुषभोजिनः।
सिंहव्याघ्रवराहाश्च सञ्चरन्ति समन्ततः॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मनुष्योंको खानेवाले भयंकर राक्षस रहते हैं और सब ओर सिंह, व्याघ्र तथा शूकर आदि हिंस्र-जीव फिरते हैं॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कट्वम्लफलमूलानि भोजनार्थं सुमध्यमे।
अपूपानि व्यञ्जनानि विद्यन्ते न कदाचन॥ ६६॥
मूलम्
कट्वम्लफलमूलानि भोजनार्थं सुमध्यमे।
अपूपानि व्यञ्जनानि विद्यन्ते न कदाचन॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सुन्दर कमरवाली! वहाँ भोजनके लिये कड़ुए और खट्टे फल-मूलादि ही मिलते हैं, किसी प्रकारके पूए आदि व्यंजन वहाँ कभी नहीं मिलते॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काले काले फलं वापि विद्यते कुत्र सुन्दरि।
मार्गो न दृश्यते क्वापि शर्कराकण्टकान्वितः॥ ६७॥
मूलम्
काले काले फलं वापि विद्यते कुत्र सुन्दरि।
मार्गो न दृश्यते क्वापि शर्कराकण्टकान्वितः॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सुन्दरि! वे फल भी सदा नहीं मिलते, किसी-किसी समय कहीं मिलते हैं। उस वनमें कहीं-कहीं तो धूलि और काँटोंसे ढके रहनेके कारण मार्ग भी दिखायी नहीं देता॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहागह्वरसम्बाधं झिल्लीदंशादिभिर्युतम्।
एवं बहुविधं दोषं वनं दण्डकसंज्ञितम्॥ ६८॥
मूलम्
गुहागह्वरसम्बाधं झिल्लीदंशादिभिर्युतम्।
एवं बहुविधं दोषं वनं दण्डकसंज्ञितम्॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दण्डकारण्य ऐसे ही अनेकों दोषोंसे भरा हुआ है। उसमें अनेकों गुफाएँ और गड्ढे हैं तथा वह झिल्ली और मच्छरों आदिसे भरा हुआ है॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादचारेण गन्तव्यं शीतवातातपादिमत्।
राक्षसादीन् वने दृष्ट्वा जीवितं हास्यसेऽचिरात्॥ ६९॥
तस्माद्भद्रे गृहे तिष्ठ शीघ्रं द्रक्ष्यसि मां पुनः।
रामस्य वचनं श्रुत्वा सीता दुःखसमन्विता॥ ७०॥
प्रत्युवाच स्फुरद्वक्त्रा किञ्चित्कोपसमन्विता।
कथं मामिच्छसे त्यक्तुं धर्मपत्नीं पतिव्रताम्॥ ७१॥
मूलम्
पादचारेण गन्तव्यं शीतवातातपादिमत्।
राक्षसादीन् वने दृष्ट्वा जीवितं हास्यसेऽचिरात्॥ ६९॥
तस्माद्भद्रे गृहे तिष्ठ शीघ्रं द्रक्ष्यसि मां पुनः।
रामस्य वचनं श्रुत्वा सीता दुःखसमन्विता॥ ७०॥
प्रत्युवाच स्फुरद्वक्त्रा किञ्चित्कोपसमन्विता।
कथं मामिच्छसे त्यक्तुं धर्मपत्नीं पतिव्रताम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे वनमें शीत, वायु और घाम आदिके समय भी पैदल ही चलना पड़ता है। मुझे सन्देह है कि तुम वनमें राक्षसादिकी भयंकर मूर्ति देखकर तुरंत ही प्राणत्याग कर बैठोगी। इसलिये हे भद्रे! तुम घर ही रहो, मुझे शीघ्र ही फिर देख पाओगी’’ रामके ये वचन सुनकर सीताने दुःखातुर होकर कुछ क्रोधसे ओंठ कँपाते हुए कहा—‘‘मुझ पतिव्रता धर्मपत्नीको आप घर क्यों छोड़ना चाहते हैं॥ ६९—७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदनन्यामदोषां मां धर्मज्ञोऽसि दयापरः।
त्वत्समीपे स्थितां राम को वा मां धर्षयेद्वने॥ ७२॥
मूलम्
त्वदनन्यामदोषां मां धर्मज्ञोऽसि दयापरः।
त्वत्समीपे स्थितां राम को वा मां धर्षयेद्वने॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप धर्मज्ञ और दयालु हैं, फिर अपनी अनन्यभक्ता और दोषहीना मुझ पत्नीको क्यों छोड़ते हैं? हे राम! वनमें भी आपके पास रहते हुए मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है?॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलमूलादिकं यद्यत्तव भुक्तावशेषितम्।
तदेवामृततुल्यं मे तेन तुष्टा रमाम्यहम्॥ ७३॥
मूलम्
फलमूलादिकं यद्यत्तव भुक्तावशेषितम्।
तदेवामृततुल्यं मे तेन तुष्टा रमाम्यहम्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भी फल-मूलादि आपके खानेसे बचेंगे वे ही मेरे लिये अमृतके समान होंगे। उनसे सन्तुष्ट होकर मैं आनन्दपूर्वक रहूँगी॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया सह चरन्त्या मे कुशाः काशाश्च कण्टकाः।
पुष्पास्तरणतुल्या मे भविष्यन्ति न संशयः॥ ७४॥
मूलम्
त्वया सह चरन्त्या मे कुशाः काशाश्च कण्टकाः।
पुष्पास्तरणतुल्या मे भविष्यन्ति न संशयः॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें कोई सन्देह नहीं कि आपके साथ विचरते हुए मेरे लिये कुश-काश और कण्टकादि भी फूलोंके बिछौनोंके समान होंगे॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं त्वा क्लेशये नैव भवेयं कार्यसाधिनी।
बाल्ये मां वीक्ष्य कश्चिद्वै ज्योतिः शास्त्रविशारदः॥ ७५॥
प्राह ते विपिने वासः पत्या सह भविष्यति।
सत्यवादी द्विजो भूयाद्गमिष्यामि त्वया सह॥ ७६॥
मूलम्
अहं त्वा क्लेशये नैव भवेयं कार्यसाधिनी।
बाल्ये मां वीक्ष्य कश्चिद्वै ज्योतिः शास्त्रविशारदः॥ ७५॥
प्राह ते विपिने वासः पत्या सह भविष्यति।
सत्यवादी द्विजो भूयाद्गमिष्यामि त्वया सह॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपको किसी प्रकारका कष्ट न दूँगी, बल्कि आपके कार्यमें सहायिका होऊँगी। बाल्यावस्थामें एक ज्योतिष-शास्त्रविशारद महात्माने मुझे देखकर कहा था कि तू अपने पतिके साथ वनमें रहेगी। उन ब्राह्मण महोदयका वाक्य सत्य हो, मैं अवश्य आपके साथ वनमें चलूँगी॥ ७५-७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत्किञ्चित्प्रवक्ष्यामि श्रुत्वा मां नय काननम्।
रामायणानि बहुशः श्रुतानि बहुभिर्द्विजैः॥ ७७॥
मूलम्
अन्यत्किञ्चित्प्रवक्ष्यामि श्रुत्वा मां नय काननम्।
रामायणानि बहुशः श्रुतानि बहुभिर्द्विजैः॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बात और कहती हूँ, उसे सुनकर आप मुझे वनको ले चलिये। आपने बहुत-से ब्राह्मणोंके मुखसे बहुत-सी रामायणें सुनी होंगी॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतां विना वनं रामो गतः किं कुत्रचिद्वद।
अतस्त्वया गमिष्यामि सर्वथा त्वत्सहायिनी॥ ७८॥
यदि गच्छसि मां त्यक्त्वा प्राणांस्त्यक्ष्यामि तेऽग्रतः।
इति तं निश्चयं ज्ञात्वा सीताया रघुनन्दनः॥ ७९॥
अब्रवीद्देवि गच्छ त्वं वनं शीघ्रं मया सह।
अरुन्धत्यै प्रयच्छाशु हारानाभरणानि च॥ ८०॥
ब्राह्मणेभ्यो धनं सर्वं दत्त्वा गच्छामहे वनम्।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणेनाशु द्विजानाहूय भक्तितः॥ ८१॥
मूलम्
सीतां विना वनं रामो गतः किं कुत्रचिद्वद।
अतस्त्वया गमिष्यामि सर्वथा त्वत्सहायिनी॥ ७८॥
यदि गच्छसि मां त्यक्त्वा प्राणांस्त्यक्ष्यामि तेऽग्रतः।
इति तं निश्चयं ज्ञात्वा सीताया रघुनन्दनः॥ ७९॥
अब्रवीद्देवि गच्छ त्वं वनं शीघ्रं मया सह।
अरुन्धत्यै प्रयच्छाशु हारानाभरणानि च॥ ८०॥
ब्राह्मणेभ्यो धनं सर्वं दत्त्वा गच्छामहे वनम्।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणेनाशु द्विजानाहूय भक्तितः॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
बताइये, इनमेंसे किसीमें भी क्या सीताके बिना रामजी वनको गये हैं? अतः मैं आपकी पूर्णतया सहायिका होकर अवश्य आपके साथ चलूँगी। यदि आप मुझे छोड़कर चले जायँगे तो मैं अभी आपके सामने ही अपने प्राण छोड़ दूँगी’’ तब रघुनाथजीने सीताका ऐसा दृढ़ निश्चय देखकर कहा—‘‘देवि! तुम शीघ्र ही मेरे साथ वनको चलो, ये हार आदि सम्पूर्ण आभूषण वसिष्ठजीकी स्त्री अरुन्धतीको दे दो। हम अपना सम्पूर्ण धन ब्राह्मणोंको देकर वनको चलेंगे’’ ऐसा कह भगवान् रामने लक्ष्मणजीद्वारा भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको बुलवाया॥ ७८—८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददौ गवां वृन्दशतं धनानि
वस्त्राणि दिव्यानि विभूषणानि।
कुटुम्बवद्भयः श्रुतशीलवद्भ्यो
मुदा द्विजेभ्यो रघुवंशकेतुः॥ ८२॥
मूलम्
ददौ गवां वृन्दशतं धनानि
वस्त्राणि दिव्यानि विभूषणानि।
कुटुम्बवद्भयः श्रुतशीलवद्भ्यो
मुदा द्विजेभ्यो रघुवंशकेतुः॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन रघुकुलकेतु भगवान् रामने प्रसन्नतापूर्वक सैकड़ों गौओंके झुंड, बहुत-सा धन, दिव्य वस्त्र और आभूषण कुटुम्बी तथा विद्वान् और शीलसम्पन्न ब्राह्मणोंको दिये॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरुन्धत्यै ददौ सीता मुख्यान्याभरणानि च।
रामो मातुः सेवकेभ्यो ददौ धनमनेकधा॥ ८३॥
मूलम्
अरुन्धत्यै ददौ सीता मुख्यान्याभरणानि च।
रामो मातुः सेवकेभ्यो ददौ धनमनेकधा॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजीने अपने मुख्य-मुख्य आभूषण अरुन्धतीजीको दे दिये तथा अपनी माताके सेवकोंको भी रामने बहुत-सा धन दिया॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकान्तःपुरवासिभ्यः सेवकेभ्यस्तथैव च।
पौरजानपदेभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः॥ ८४॥
मूलम्
स्वकान्तःपुरवासिभ्यः सेवकेभ्यस्तथैव च।
पौरजानपदेभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार अपने अन्तःपुरवासी सेवकों, पुरवासियों, देशवासियों तथा ब्राह्मणोंको भी उन्होंने बहुत-सा धन दिया॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणोऽपि सुमित्रां तु कौसल्यायै समर्पयत्।
धनुष्पाणिः समागत्य रामस्याग्रे व्यवस्थितः॥ ८५॥
रामः सीता लक्ष्मणश्च जग्मुः सर्वे नृपालयम्॥ ८६॥
मूलम्
लक्ष्मणोऽपि सुमित्रां तु कौसल्यायै समर्पयत्।
धनुष्पाणिः समागत्य रामस्याग्रे व्यवस्थितः॥ ८५॥
रामः सीता लक्ष्मणश्च जग्मुः सर्वे नृपालयम्॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर श्रीलक्ष्मणजीने भी अपनी माता सुमित्राको कौसल्याजीको सौंप दिया और आप हाथमें धनुष लेकर रामके सामने आकर खड़े हो गये। तदनन्तर राम, लक्ष्मण और सीता सब महाराज दशरथके पास चले॥ ८५-८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीरामः सह सीतया नृपपथे
गच्छन् शनैः सानुजः
पौरान् जानपदान्कुतूहलदृशः
सानन्दमुद्वीक्षयन्।
श्यामः कामसहस्रसुन्दरवपुः
कान्त्या दिशो भासयन्
पादन्यासपवित्रिताखिलजगत्
प्रापालयं तत्पितुः॥ ८७॥
मूलम्
श्रीरामः सह सीतया नृपपथे
गच्छन् शनैः सानुजः
पौरान् जानपदान्कुतूहलदृशः
सानन्दमुद्वीक्षयन्।
श्यामः कामसहस्रसुन्दरवपुः
कान्त्या दिशो भासयन्
पादन्यासपवित्रिताखिलजगत्
प्रापालयं तत्पितुः॥ ८७॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रों कामदेवोंके समान सुन्दर श्याम शरीरवाले भगवान् राम सीता और छोटे भाई लक्ष्मणके सहित अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित करते हुए धीरे-धीरे राजमार्गसे चले। उस समय जो पुरवासी और जनपदवासी लोग कुतूहलवश आनन्दमयी दृष्टिसे उनकी ओर देख रहे थे, उनके देखते हुए और अपने चरण-स्पर्शसे सम्पूर्ण संसारको पवित्र करते हुए वे अपने पिताके घर पहुँचे॥ ८७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥