[तृतीय सर्ग]
भागसूचना
राजा दशरथका कैकेयीको वर देना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दशरथो राजा रामाभ्युदयकारणात्।
आदिश्य मन्त्रिप्रकृतीः सानन्दो गृहमाविशत्॥ १॥
मूलम्
ततो दशरथो राजा रामाभ्युदयकारणात्।
आदिश्य मन्त्रिप्रकृतीः सानन्दो गृहमाविशत्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—तदनन्तर महाराज दशरथने रामचन्द्रजीके अभ्युदयके लिये प्रजावर्ग और मन्त्रियोंको (मांगलिक कार्योंके लिये) आज्ञा देकर आनन्दपूर्वक अपने रनिवासमें प्रवेश किया॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रादृष्ट्वा प्रियां राजा किमेतदिति विह्वलः।
या पुरा मन्दिरं तस्याः प्रविष्टे मयि शोभना॥ २॥
हसन्ती मामुपायाति सा किं नैवाद्य दृश्यते।
इत्यात्मन्येव संचिन्त्य मनसातिविदूयता॥ ३॥
पप्रच्छ दासीनिकरं कुतो वः स्वामिनी शुभा।
नायाति मां यथापूर्वं मत्प्रिया प्रियदर्शना॥ ४॥
मूलम्
तत्रादृष्ट्वा प्रियां राजा किमेतदिति विह्वलः।
या पुरा मन्दिरं तस्याः प्रविष्टे मयि शोभना॥ २॥
हसन्ती मामुपायाति सा किं नैवाद्य दृश्यते।
इत्यात्मन्येव संचिन्त्य मनसातिविदूयता॥ ३॥
पप्रच्छ दासीनिकरं कुतो वः स्वामिनी शुभा।
नायाति मां यथापूर्वं मत्प्रिया प्रियदर्शना॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अपनी प्रिया कैकेयीको न देखकर वे अत्यन्त विह्वल होकर मन-ही-मन कहने लगे—‘क्या कारण है, जो पहले अपने महलमें घुसते ही सदा हँसती हुई मेरे सामने आती थी वह सुमुखी आज दिखायी ही नहीं दे रही है?’ अपने चित्तमें अत्यन्त दुःख मानकर इसी प्रकार सोचते-सोचते उन्होंने दासियोंसे पूछा—‘आज तुम्हारी शुभलक्षणा स्वामिनी कहाँ है? वह प्रियदर्शना प्रिया आज पूर्ववत् मेरे सामने क्यों नहीं आती?’॥ २—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता ऊचुः क्रोधभवनं प्रविष्टा नैव विद्महे।
कारणं तत्र देव त्वं गत्वा निश्चेतुमर्हसि॥ ५॥
मूलम्
ता ऊचुः क्रोधभवनं प्रविष्टा नैव विद्महे।
कारणं तत्र देव त्वं गत्वा निश्चेतुमर्हसि॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
दासियोंने कहा—‘‘देव! कारण तो मालूम नहीं, किन्तु आज वे कोप-भवनमें गयी हुई हैं; आप स्वयं ही वहाँ जाकर सब हाल जान लीजिये’’॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो भयसन्त्रस्तो राजा तस्याः समीपगः।
उपविश्य शनैर्देहं स्पृशन्वै पाणिनाब्रवीत्॥ ६॥
मूलम्
इत्युक्तो भयसन्त्रस्तो राजा तस्याः समीपगः।
उपविश्य शनैर्देहं स्पृशन्वै पाणिनाब्रवीत्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
दासियोंके इस प्रकार कहनेपर राजा भयभीत होकर उसके पास गये और वहाँ बैठकर उसके शरीरपर धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए बोले—॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं शेषे वसुधापृष्ठे पर्यङ्कादीन् विहाय च।
मां त्वं खेदयसे भीरु यतो मां नावभाषसे॥ ७॥
मूलम्
किं शेषे वसुधापृष्ठे पर्यङ्कादीन् विहाय च।
मां त्वं खेदयसे भीरु यतो मां नावभाषसे॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अयि भीरु! आज पलंग आदिको छोड़कर इस प्रकार पृथिवीपर क्यों पड़ी हो? तुम हमसे कुछ बोलती नहीं हो, इससे हमें बड़ा खेद हो रहा है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलङ्कारं परित्यज्य भूमौ मलिनवाससा।
किमर्थं ब्रूहि सकलं विधास्ये तव वाञ्छितम्॥ ८॥
मूलम्
अलङ्कारं परित्यज्य भूमौ मलिनवाससा।
किमर्थं ब्रूहि सकलं विधास्ये तव वाञ्छितम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त आभूषण छोड़कर तुम मलिन वस्त्र पहने हुए पृथिवीपर क्यों पड़ी हो? तुम्हारी जो इच्छा हो सो कहो, मैं सब पूर्ण करूँगा॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को वा तवाहितं कर्ता नारी वा पुरुषोऽपि वा।
स मे दण्ड्यश्च वध्यश्च भविष्यति न संशयः॥ ९॥
मूलम्
को वा तवाहितं कर्ता नारी वा पुरुषोऽपि वा।
स मे दण्ड्यश्च वध्यश्च भविष्यति न संशयः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा अनिष्ट करनेवाला कौन है? वह स्त्री हो अथवा पुरुष अवश्य मेरे दण्डका पात्र होगा। यही नहीं, उसका वध भी किया जा सकता है॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूहि देवि यथा प्रीतिस्तदवश्यं ममाग्रतः।
तदिदानीं साधयिष्ये सुदुर्लभमपि क्षणात्॥ १०॥
मूलम्
ब्रूहि देवि यथा प्रीतिस्तदवश्यं ममाग्रतः।
तदिदानीं साधयिष्ये सुदुर्लभमपि क्षणात्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! जिस प्रकार तुम्हारी प्रसन्नता हो वह मुझसे अवश्य कहो। वह कार्य अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी मैं इसी समय एक क्षणमें ही पूरा कर दूँगा॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानासि त्वं मम स्वान्तं प्रियं मां स्ववशे स्थितम्।
तथापि मां खेदयसे वृथा तव परिश्रमः॥ ११॥
मूलम्
जानासि त्वं मम स्वान्तं प्रियं मां स्ववशे स्थितम्।
तथापि मां खेदयसे वृथा तव परिश्रमः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मेरे हृदयको जानती ही हो, मैं तुम्हारा अत्यन्त प्रिय और तुम्हारे वशीभूत हूँ। फिर भी तुम मुझे खिन्न करती हो? तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ है॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूहि कं धनिनं कुर्यां दरिद्रं ते प्रियङ्करम्।
धनिनं क्षणमात्रेण निर्धनं च तवाहितम्॥ १२॥
मूलम्
ब्रूहि कं धनिनं कुर्यां दरिद्रं ते प्रियङ्करम्।
धनिनं क्षणमात्रेण निर्धनं च तवाहितम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
बताओ, तुम्हारा प्रिय करनेवाले किस कंगालको मैं धनी कर दूँ अथवा तुम्हारे अप्रियकारी किस धनपतिको एक क्षणमें ही कंगाल बना दूँ?॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूहि कं वा वधिष्यामि वधार्हो वा विमोक्ष्यते।
किमत्र बहुनोक्तेन प्राणान्दास्यामि ते प्रिये॥ १३॥
मूलम्
ब्रूहि कं वा वधिष्यामि वधार्हो वा विमोक्ष्यते।
किमत्र बहुनोक्तेन प्राणान्दास्यामि ते प्रिये॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
बताओ, किस अवध्यको मार डालूँ और किस वध्यको छोड़ दूँ। हे प्रिये ! इस विषयमें और अधिक क्या कहूँ, मैं तुम्हें अपने प्राण भी दे सकता हूँ॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम प्राणात्प्रियतरो रामो राजीवलोचनः।
तस्योपरि शपे ब्रूहि त्वद्धितं तत्करोम्यहम्॥ १४॥
मूलम्
मम प्राणात्प्रियतरो रामो राजीवलोचनः।
तस्योपरि शपे ब्रूहि त्वद्धितं तत्करोम्यहम्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन राम मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। मैं उन्हींकी शपथ करके कहता हूँ कि तुम्हें जो कुछ प्रिय हो मैं वही करूँगा’’॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवाणं राजानं शपन्तं राघवोपरि।
शनैर्विमृज्य नेत्रे सा राजानं प्रत्यभाषत॥ १५॥
मूलम्
इति ब्रुवाणं राजानं शपन्तं राघवोपरि।
शनैर्विमृज्य नेत्रे सा राजानं प्रत्यभाषत॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज दशरथके रामकी सौगन्ध खाकर इस प्रकार कहनेपर कैकेयीने धीरे-धीरे अपने आँसू पोंछकर राजासे कहा—॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि सत्यप्रतिज्ञोऽसि शपथं कुरुषे यदि।
याच्ञां मे सफलां कर्तुं शीघ्रमेव त्वमर्हसि॥ १६॥
मूलम्
यदि सत्यप्रतिज्ञोऽसि शपथं कुरुषे यदि।
याच्ञां मे सफलां कर्तुं शीघ्रमेव त्वमर्हसि॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राजन्! यदि आप सत्यप्रतिज्ञ हैं और शपथ भी करते हैं तो शीघ्र ही मैं जो कुछ माँगूँ उसे सफल कर देना चाहिये॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं देवासुरे युद्धे मया त्वं परिरक्षितः।
तदा वरद्वयं दत्तं त्वया मे तुष्टचेतसा॥ १७॥
मूलम्
पूर्वं देवासुरे युद्धे मया त्वं परिरक्षितः।
तदा वरद्वयं दत्तं त्वया मे तुष्टचेतसा॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें मैंने आपकी रक्षा की थी। उस समय प्रसन्नचित्त होकर आपने मुझे दो वर देनेको कहा था॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्द्वयं न्यासभूतं मे स्थापितं त्वयि सुव्रत।
तत्रैकेन वरेणाशु भरतं मे प्रियं सुतम्॥ १८॥
एभिः संभृतसंभारैर्यौवराज्येऽभिषेचय।
अपरेण वरेणाशु रामो गच्छतु दण्डकान्॥ १९॥
मूलम्
तद्द्वयं न्यासभूतं मे स्थापितं त्वयि सुव्रत।
तत्रैकेन वरेणाशु भरतं मे प्रियं सुतम्॥ १८॥
एभिः संभृतसंभारैर्यौवराज्येऽभिषेचय।
अपरेण वरेणाशु रामो गच्छतु दण्डकान्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सुव्रत! मैंने वे दोनों वर आपके पास धरोहरके रूपमें रख दिये थे। अब उनमेंसे एक वरसे तो तुरंत ही मेरे प्रिय पुत्र भरतको इस एकत्रित की हुई सामग्रीसे युवराज-पदपर अभिषिक्त कीजिये और दूसरेसे तुरंत ही राम दण्डक-वनको चले जायँ॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिवेषधरः श्रीमान् जटावल्कलभूषणः।
चतुर्दश समास्तत्र कन्दमूलफलाशनः॥ २०॥
मूलम्
मुनिवेषधरः श्रीमान् जटावल्कलभूषणः।
चतुर्दश समास्तत्र कन्दमूलफलाशनः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ श्रीमान् रामको जटा-वल्कलादि धारणकर कंद-मूल-फल खाते हुए मुनिवेषसे चौदह वर्षतक रहना चाहिये॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरायातु तस्यान्ते वने वा तिष्ठतु स्वयम्।
प्रभाते गच्छतु वनं रामो राजीवलोचनः॥ २१॥
मूलम्
पुनरायातु तस्यान्ते वने वा तिष्ठतु स्वयम्।
प्रभाते गच्छतु वनं रामो राजीवलोचनः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पश्चात् अपनी इच्छासे चाहे वे अयोध्यामें लौट आवें अथवा वनहीमें रहें, किन्तु कमलनयन राम कल सबेरे ही अवश्य वनको चले जायँ॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि किञ्चिद्विलम्बेत प्राणांस्त्यक्ष्ये तवाग्रतः।
भव सत्यप्रतिज्ञस्त्वमेतदेव मम प्रियम्॥ २२॥
मूलम्
यदि किञ्चिद्विलम्बेत प्राणांस्त्यक्ष्ये तवाग्रतः।
भव सत्यप्रतिज्ञस्त्वमेतदेव मम प्रियम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि इसमें कुछ देरी होगी तो आपके सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी। आप अपनी प्रतिज्ञा सत्य कीजिये, मेरा प्रिय कार्य बस यही है’’॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतद्दारुणं वाक्यं कैकेय्या रोमहर्षणम्।
निपपात महीपालो वज्राहत इवाचलः॥ २३॥
मूलम्
श्रुत्वैतद्दारुणं वाक्यं कैकेय्या रोमहर्षणम्।
निपपात महीपालो वज्राहत इवाचलः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
कैकेयीके ऐसे रोमांचकारी कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथ वज्राहत पर्वतके समान गिर पड़े॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शनैरुन्मील्य नयने विमृज्य परया भिया।
दुःस्वप्नो वा मया दृष्टो ह्यथवा चित्तविभ्रमः॥ २४॥
मूलम्
शनैरुन्मील्य नयने विमृज्य परया भिया।
दुःस्वप्नो वा मया दृष्टो ह्यथवा चित्तविभ्रमः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् धीरे-धीरे नेत्र खोलकर अति भयपूर्वक आँसू पोंछे और मन-ही-मन कहने लगे—‘मैंने यह कोई दुःस्वप्न देखा है या मेरे चित्तको भ्रम हो गया है?’’॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यालोक्य पुरः पत्नीं व्याघ्रीमिव पुरः स्थिताम्।
किमिदं भाषसे भद्रे मम प्राणहरं वचः॥ २५॥
मूलम्
इत्यालोक्य पुरः पत्नीं व्याघ्रीमिव पुरः स्थिताम्।
किमिदं भाषसे भद्रे मम प्राणहरं वचः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय अपने सामने सिंहिनीके समान बैठी हुई रानी कैकेयीको देखकर कहने लगे—‘‘हे भद्रे! मेरे प्राणोंको हरनेवाले तुम ये क्या वचन बोल रही हो॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः कमपराधं ते कृतवान्कमलेक्षणः।
ममाग्रे राघवगुणान्वर्णयस्यनिशं शुभान्॥ २६॥
मूलम्
रामः कमपराधं ते कृतवान्कमलेक्षणः।
ममाग्रे राघवगुणान्वर्णयस्यनिशं शुभान्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन रामने तुम्हारा क्या अपराध किया है? तुम तो अहर्निश मेरे सामने रामके शुभ गुण गाया करती थी॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसल्यां मां समं पश्यन् शुश्रूषां कुरुते सदा।
इति ब्रुवन्ती त्वं पूर्वमिदानीं भाषसेऽन्यथा॥ २७॥
मूलम्
कौसल्यां मां समं पश्यन् शुश्रूषां कुरुते सदा।
इति ब्रुवन्ती त्वं पूर्वमिदानीं भाषसेऽन्यथा॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम तो पहले कहा करती थी कि ‘राम मुझे और कौसल्याको समान जानकर सदा ही मेरी सेवा किया करते हैं।’ फिर इस समय तुम यह उलटी बात कैसे कह रही हो?॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यं गृहाण पुत्राय रामस्तिष्ठतु मन्दिरे।
अनुगृह्णीष्व मां वामे रामान्नास्ति भयं तव॥ २८॥
मूलम्
राज्यं गृहाण पुत्राय रामस्तिष्ठतु मन्दिरे।
अनुगृह्णीष्व मां वामे रामान्नास्ति भयं तव॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम अपने पुत्रके लिये राज्य ले लो, किन्तु रामको घर ही रहने दो। हे वामे! तुम मुझपर कृपा करो, रामसे तुम्हें कोई भय नहीं है’’॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वाश्रुपरीताक्षः पादयोर्निपपात ह।
कैकेयी प्रत्युवाचेदं सापि रक्तान्तलोचना॥ २९॥
मूलम्
इत्युक्त्वाश्रुपरीताक्षः पादयोर्निपपात ह।
कैकेयी प्रत्युवाचेदं सापि रक्तान्तलोचना॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर महाराज दशरथ नेत्रोंमें जल भरकर कैकेयीके चरणोंमें गिर पड़े। तब उस कैकेयीने आँखें लाल करके यों कहा—॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजेन्द्र कं त्वं भ्रान्तोऽसि उक्तं तद्भाषसेऽन्यथा।
मिथ्या करोषि चेत्स्वीयं भाषितं नरको भवेत्॥ ३०॥
मूलम्
राजेन्द्र कं त्वं भ्रान्तोऽसि उक्तं तद्भाषसेऽन्यथा।
मिथ्या करोषि चेत्स्वीयं भाषितं नरको भवेत्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राजेन्द्र! क्या तुम्हारी बुद्धिमें भ्रम हो गया है जो अपने कथनके विपरीत बोल रहे हो; याद रखो यदि तुमने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी तो तुम्हें नरक भोगना पड़ेगा॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनं न गच्छेद्यदि रामचन्द्रः
प्रभातकालेऽजिनचीरयुक्तः।
उद्बन्धनं वा विषभक्षणं वा
कृत्वा मरिष्ये पुरतस्तवाहम्॥ ३१॥
मूलम्
वनं न गच्छेद्यदि रामचन्द्रः
प्रभातकालेऽजिनचीरयुक्तः।
उद्बन्धनं वा विषभक्षणं वा
कृत्वा मरिष्ये पुरतस्तवाहम्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनो, यदि कल प्रातःकाल ही मृगचर्म और वल्कल-वस्त्र धारणकर राम वनको न गये तो मैं तुम्हारे सामने ही फाँसी लगाकर या विष खाकर मर जाऊँगी॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यप्रतिज्ञोऽहमितीह लोके
विडम्बसे सर्वसभान्तरेषु।
रामोपरि त्वं शपथं च कृत्वा
मिथ्याप्रतिज्ञो नरकं प्रयाहि॥ ३२॥
मूलम्
सत्यप्रतिज्ञोऽहमितीह लोके
विडम्बसे सर्वसभान्तरेषु।
रामोपरि त्वं शपथं च कृत्वा
मिथ्याप्रतिज्ञो नरकं प्रयाहि॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम संसारमें सभी सभाओंमें ‘मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ’ ऐसा कहकर लोगोंको धोखेमें डाला करते हो, अब तुम रामकी शपथ करके की हुई प्रतिज्ञाको भी तोड़ रहे हो, अतः तुम्हें नरकमें जाना पड़ेगा’’॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्रियया दीनो मग्नो दुःखार्णवे नृपः।
मूर्च्छितः पतितो भूमौ विसंज्ञो मृतको यथा॥ ३३॥
मूलम्
इत्युक्तः प्रियया दीनो मग्नो दुःखार्णवे नृपः।
मूर्च्छितः पतितो भूमौ विसंज्ञो मृतको यथा॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी प्रियाके ऐसे कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथ दुःख-समुद्रमें डूबकर बड़े व्याकुल हो गये और मृतकके समान मूर्च्छित तथा संज्ञाशून्य होकर पृथिवीपर गिर पड़े॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं रात्रिर्गता तस्य दुःखात्संवत्सरोपमा।
अरुणोदयकाले तु बन्दिनो गायका जगुः॥ ३४॥
मूलम्
एवं रात्रिर्गता तस्य दुःखात्संवत्सरोपमा।
अरुणोदयकाले तु बन्दिनो गायका जगुः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अत्यन्त दुःखके कारण उनकी वह रात्रि एक वर्षके समान बीती। इधर अरुणोदय होते ही गायक और बन्दीजन स्तुतिगान करने लगे॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवारयित्वा तान् सर्वान्कैकेयी रोषमास्थिता।
ततः प्रभातसमये मध्यकक्षमुपस्थिताः॥ ३५॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या ऋषयः कन्यकास्तथा।
छत्रं च चामरं दिव्यं गजो वाजी तथैव च॥ ३६॥
मूलम्
निवारयित्वा तान् सर्वान्कैकेयी रोषमास्थिता।
ततः प्रभातसमये मध्यकक्षमुपस्थिताः॥ ३५॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या ऋषयः कन्यकास्तथा।
छत्रं च चामरं दिव्यं गजो वाजी तथैव च॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु कैकेयी उन सबको रोककर क्रोधसे बैठी हुई थी। तदनन्तर प्रातःकाल होनेपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ऋषिगण, कन्याएँ, दिव्य छत्र और चँवर तथा हाथी और घोड़े आदि सभी अभिषेकोपयोगी वस्तुएँ मध्यद्वारपर उपस्थित की गयीं॥ ३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्याश्च वारमुख्या याः पौरजानपदास्तथा।
वसिष्ठेन यथाज्ञप्तं तत्सर्वं तत्र संस्थितम्॥ ३७॥
मूलम्
अन्याश्च वारमुख्या याः पौरजानपदास्तथा।
वसिष्ठेन यथाज्ञप्तं तत्सर्वं तत्र संस्थितम्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त वसिष्ठजीके आज्ञानुसार मुख्य-मुख्य वारांगनाएँ तथा पुरवासी और जनपदवासी भी वहाँ उपस्थित हो गये॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च रात्रौ निद्रां न लेभिरे।
कदा द्रक्ष्यामहे रामं पीतकौशेयवाससम्॥३८॥
मूलम्
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च रात्रौ निद्रां न लेभिरे।
कदा द्रक्ष्यामहे रामं पीतकौशेयवाससम्॥३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रात स्त्री, बालक और वृद्ध किसीको भी नींद नहीं आयी। सभीको यह चटपटी लगी रही कि हम रेशमी पीताम्बर पहने भगवान् रामको कब देखेंगे?॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाभरणसम्पन्नं किरीटकटकोज्ज्वलम्।
कौस्तुभाभरणं श्यामं कन्दर्पशतसुन्दरम्॥ ३९॥
अभिषिक्तं समायातं गजारूढं स्मिताननम्।
श्वेतच्छत्रधरं तत्र लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्॥ ४०॥
रामं कदा वा द्रक्ष्यामः प्रभातं वा कदा भवेत्।
इत्युत्सुकधियः सर्वे बभूवुः पुरवासिनः॥ ४१॥
मूलम्
सर्वाभरणसम्पन्नं किरीटकटकोज्ज्वलम्।
कौस्तुभाभरणं श्यामं कन्दर्पशतसुन्दरम्॥ ३९॥
अभिषिक्तं समायातं गजारूढं स्मिताननम्।
श्वेतच्छत्रधरं तत्र लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्॥ ४०॥
रामं कदा वा द्रक्ष्यामः प्रभातं वा कदा भवेत्।
इत्युत्सुकधियः सर्वे बभूवुः पुरवासिनः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो समस्त आभूषणोंसे सुसज्जित, उज्ज्वल किरीट और कटक पहने हुए हैं तथा कौस्तुभमणिसे विभूषित और सैकड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर श्यामवर्ण हैं एवं सर्व-सुलक्षण-सम्पन्न श्रीलक्ष्मणजीने जिनके ऊपर श्वेत छत्र लगा रखा है ऐसे श्रीरामको राज्याभिषेकके अनन्तर मन्द मुसकानके सहित हाथीपर चढ़कर आते हुए हम कब देखेंगे? वह मंगलप्रभात कब होगा? इस प्रकार सभी पुरवासियोंका चित्त अति उत्कण्ठित हो रहा था॥ ३९—४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदानीमुत्थितो राजा किमर्थं चेति चिन्तयन्।
सुमन्त्रः शनकैः प्रायाद्यत्र राजावतिष्ठते॥ ४२॥
मूलम्
नेदानीमुत्थितो राजा किमर्थं चेति चिन्तयन्।
सुमन्त्रः शनकैः प्रायाद्यत्र राजावतिष्ठते॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय मन्त्रिवर सुमन्त्र यह सोचकर कि ‘महाराज अभीतक कैसे नहीं उठे’ धीरेसे जहाँ राजा दशरथ थे वहाँ गये॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्धयन् जयशब्देन प्रणमञ्शिरसा नृपम्।
अतिखिन्नं नृपं दृष्ट्वा कैकेयीं समपृच्छत॥ ४३॥
मूलम्
वर्धयन् जयशब्देन प्रणमञ्शिरसा नृपम्।
अतिखिन्नं नृपं दृष्ट्वा कैकेयीं समपृच्छत॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर उन्होंने जय-जयकार कर राजाको सिर झुकाकर प्रणाम किया और उन्हें अत्यन्त खिन्न देखकर कैकेयीसे पूछा—॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवि कैकेयि वर्धस्व किं राजा दृश्यतेऽन्यथा।
तमाह कैकेयी राजा रात्रौ निद्रां न लब्धवान्॥ ४४॥
मूलम्
देवि कैकेयि वर्धस्व किं राजा दृश्यतेऽन्यथा।
तमाह कैकेयी राजा रात्रौ निद्रां न लब्धवान्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘देवि कैकेयि! आपका अभ्युदय हो, कहिये आज महाराज अनमने कैसे दिखायी देते हैं?’’ इसपर कैकेयीने कहा—‘‘आज महाराजको रात्रिमें बिलकुल नींद नहीं आयी॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रामेति रामेति राममेवानुचिन्तयन्।
प्रजागरेण वै राजा ह्यस्वस्थ इव लक्ष्यते।
राममानय शीघ्रं त्वं राजा द्रष्टुमिहेच्छति॥ ४५॥
मूलम्
राम रामेति रामेति राममेवानुचिन्तयन्।
प्रजागरेण वै राजा ह्यस्वस्थ इव लक्ष्यते।
राममानय शीघ्रं त्वं राजा द्रष्टुमिहेच्छति॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिभर रामका चिन्तन करते हुए ‘राम, राम, राम’ ही रटते रहे हैं। इस प्रकार जागते रहनेके कारण ही राजा कुछ अस्वस्थ-से दिखायी देते हैं। महाराज रामको यहाँ देखना चाहते हैं, इसलिये तुम शीघ्र ही उन्हें लिवा लाओ’’॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रुत्वा राजवचनं कथं गच्छामि भामिनि।
तच्छ्रुत्वा मन्त्रिणो वाक्यं राजा मन्त्रिणमब्रवीत्॥ ४६॥
मूलम्
अश्रुत्वा राजवचनं कथं गच्छामि भामिनि।
तच्छ्रुत्वा मन्त्रिणो वाक्यं राजा मन्त्रिणमब्रवीत्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भामिनि! महाराजकी आज्ञा पाये बिना मैं कैसे जा सकता हूँ? मन्त्रीका यह वचन सुनकर महाराज बोले—॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमन्त्रं रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रमानय सुन्दरम्।
इत्युक्तस्त्वरितं गत्वा सुमन्त्रो राममन्दिरम्॥ ४७॥
मूलम्
सुमन्त्रं रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रमानय सुन्दरम्।
इत्युक्तस्त्वरितं गत्वा सुमन्त्रो राममन्दिरम्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘सुमन्त्र! मैं मनोहरमूर्ति रामको देखूँगा। तुम उन्हें शीघ्र ही ले आओ।’’ राजाके ऐसा कहते ही सुमन्त्र तुरंत रामके महलको गये॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवारितः प्रविष्टोऽयं त्वरितं राममब्रवीत्।
शीघ्रमागच्छ भद्रं ते राम राजीवलोचन॥ ४८॥
पितुर्गेहं मया सार्धं राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति।
इत्युक्तो रथमारुह्य सम्भ्रमात्त्वरितो ययौ॥ ४९॥
मूलम्
अवारितः प्रविष्टोऽयं त्वरितं राममब्रवीत्।
शीघ्रमागच्छ भद्रं ते राम राजीवलोचन॥ ४८॥
पितुर्गेहं मया सार्धं राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति।
इत्युक्तो रथमारुह्य सम्भ्रमात्त्वरितो ययौ॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बिना रोक-टोकके तुरंत भीतर जाकर रामसे कहा— ‘‘कमलनयन राम! तुम्हारा कल्याण हो, तुम शीघ्र ही मेरे साथ पिताजीके घर चलो, महाराज तुम्हें देखना चाहते हैं।’’ यह सुनते ही राम चकित-से होकर तुरंत ही रथपर चढ़कर चले॥ ४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः सारथिना सार्धं लक्ष्मणेन समन्वितः।
मध्यकक्षे वसिष्ठादीन् पश्यन्नेव त्वरान्वितः॥ ५०॥
पितुः समीपं सङ्गम्य ननाम चरणौ पितुः।
राममालिङ्गितुं राजा समुत्थाय ससम्भ्रमः॥ ५१॥
बाहू प्रसार्य रामेति दुःखान्मध्ये पपात ह।
हाहेति रामस्तं शीघ्रमालिङ्ग्याङ्के न्यवेशयत्॥ ५२॥
मूलम्
रामः सारथिना सार्धं लक्ष्मणेन समन्वितः।
मध्यकक्षे वसिष्ठादीन् पश्यन्नेव त्वरान्वितः॥ ५०॥
पितुः समीपं सङ्गम्य ननाम चरणौ पितुः।
राममालिङ्गितुं राजा समुत्थाय ससम्भ्रमः॥ ५१॥
बाहू प्रसार्य रामेति दुःखान्मध्ये पपात ह।
हाहेति रामस्तं शीघ्रमालिङ्ग्याङ्के न्यवेशयत्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारथी और लक्ष्मणके सहित भगवान् रामने मध्यद्वारपर विराजमान वसिष्ठादि गुरुजनोंका केवल दर्शनमात्रसे ही सत्कार कर जल्दीसे पिताजीके पास पहुँच उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उस समय रामको गले लगानेके लिये ज्यों ही उठकर महाराज दशरथने आवेगके साथ हाथ बढ़ाये कि वे बीचहीमें दुःखपूर्वक ‘हा राम! हा राम!’ कहते हुए गिर पड़े। तब रामचन्द्रजीने हाहाकार करते हुए अति शीघ्रतासे उन्हें गले लगाकर अपनी गोदमें बैठा लिया॥ ५०—५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं मूर्च्छितं दृष्ट्वा चुक्रुशुः सर्वयोषितः।
किमर्थं रोदनमिति वसिष्ठोऽपि समाविशत्॥ ५३॥
मूलम्
राजानं मूर्च्छितं दृष्ट्वा चुक्रुशुः सर्वयोषितः।
किमर्थं रोदनमिति वसिष्ठोऽपि समाविशत्॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराजको मूर्च्छित देखकर रनिवासकी समस्त महिलाएँ रोने लगीं। तब यह सोचकर कि ‘यह रुदन क्यों हो रहा है?’ वहाँ वसिष्ठजी भी चले आये॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः पप्रच्छ किमिदं राज्ञो दुःखस्य कारणम्।
एवं पृच्छति रामे सा कैकेयी राममब्रवीत्॥ ५४॥
मूलम्
रामः पप्रच्छ किमिदं राज्ञो दुःखस्य कारणम्।
एवं पृच्छति रामे सा कैकेयी राममब्रवीत्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् रामने कैकेयीसे पूछा—‘‘महाराजके इस दुःखका क्या कारण है?’’ उनके इस प्रकार पूछनेपर कैकेयी बोली—॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव कारणं ह्यत्र राज्ञो दुःखोपशान्तये।
किञ्चित्कार्यं त्वया राम कर्तव्यं नृपतेर्हितम्॥ ५५॥
मूलम्
त्वमेव कारणं ह्यत्र राज्ञो दुःखोपशान्तये।
किञ्चित्कार्यं त्वया राम कर्तव्यं नृपतेर्हितम्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! महाराजके इस दुःखके कारण तुम्हीं हो, तुम्हें उनके दुःखको शान्त करनेके लिये उनका कुछ प्रिय कार्य करना होगा॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरु सत्यप्रतिज्ञस्त्वं राजानं सत्यवादिनम्।
राज्ञा वरद्वयं दत्तं मम सन्तुष्टचेतसा॥ ५६॥
मूलम्
कुरु सत्यप्रतिज्ञस्त्वं राजानं सत्यवादिनम्।
राज्ञा वरद्वयं दत्तं मम सन्तुष्टचेतसा॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम सत्यप्रतिज्ञ हो, महाराजको भी सत्यवादी बनाओ। उन्होंने प्रसन्न होकर मुझे दो वर दिये हैं॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदधीनं तु तत्सर्वं वक्तुं त्वां लज्जते नृपः।
सत्यपाशेन सम्बद्धं पितरं त्रातुमर्हसि॥ ५७॥
पुत्रशब्देन चैतद्धि नरकात्त्रायते पिता।
रामस्तयोदितं श्रुत्वा शूलेनाभिहतो यथा॥ ५८॥
व्यथितः कैकेयीं प्राह किं मामेवं प्रभाषसे।
पित्रर्थे जीवितं दास्ये पिबेयं विषमुल्बणम्॥ ५९॥
मूलम्
त्वदधीनं तु तत्सर्वं वक्तुं त्वां लज्जते नृपः।
सत्यपाशेन सम्बद्धं पितरं त्रातुमर्हसि॥ ५७॥
पुत्रशब्देन चैतद्धि नरकात्त्रायते पिता।
रामस्तयोदितं श्रुत्वा शूलेनाभिहतो यथा॥ ५८॥
व्यथितः कैकेयीं प्राह किं मामेवं प्रभाषसे।
पित्रर्थे जीवितं दास्ये पिबेयं विषमुल्बणम्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु उनकी सफलता तुम्हारे ही अधीन है। महाराजको तो तुमसे कहनेमें संकोच मालूम होता है; किन्तु तुम्हें सत्यपाशमें बँधे हुए अपने पिताजीकी अवश्य रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि ‘पुत्र’ शब्दका अर्थ ही यह है कि जो पिताकी नरकसे रक्षा करता है’ कैकेयीकी बातें सुनकर रामने मानो शूलसे विद्ध हुएके समान व्यथित होकर कहा—‘‘मातः! आज हमसे ऐसी बातें क्यों करती हो? पिताजीके लिये मैं जीवन दे सकता हूँ, भयंकर विष पी सकता हूँ॥ ५७—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतां त्यक्ष्येऽथ कौसल्यां राज्यं चापि त्यजाम्यहम्।
अनाज्ञप्तोऽपि कुरुते पितुः कार्यं स उत्तमः॥ ६०॥
मूलम्
सीतां त्यक्ष्येऽथ कौसल्यां राज्यं चापि त्यजाम्यहम्।
अनाज्ञप्तोऽपि कुरुते पितुः कार्यं स उत्तमः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
और सीता, कौसल्या तथा राज्यको भी छोड़ सकता हूँ। जो पुत्र पिताकी आज्ञाके बिना ही उनका अभीष्ट कार्य करता है वह उत्तम है॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तः करोति यः पुत्रः स मध्यम उदाहृतः।
उक्तोऽपि कुरुते नैव स पुत्रो मल उच्यते॥ ६१॥
मूलम्
उक्तः करोति यः पुत्रः स मध्यम उदाहृतः।
उक्तोऽपि कुरुते नैव स पुत्रो मल उच्यते॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पिताके कहनेपर करता है वह मध्यम होता है और जो कहनेपर भी नहीं करता है वह पुत्र तो विष्ठाके समान है॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः करोमि तत्सर्वं यन्मामाह पिता मम।
सत्यं सत्यं करोम्येव रामो द्विर्नाभिभाषते॥ ६२॥
मूलम्
अतः करोमि तत्सर्वं यन्मामाह पिता मम।
सत्यं सत्यं करोम्येव रामो द्विर्नाभिभाषते॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः पिताजीने मेरे लिये जो कुछ आज्ञा की है उसे मैं अवश्य पूर्ण करूँगा, यह सर्वथा सत्य है; राम दो बात कभी नहीं कहता’’॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति रामप्रतिज्ञां सा श्रुत्वा वक्तुं प्रचक्रमे।
राम त्वदभिषेकार्थं संभाराः संभृताश्च ये॥ ६३॥
मूलम्
इति रामप्रतिज्ञां सा श्रुत्वा वक्तुं प्रचक्रमे।
राम त्वदभिषेकार्थं संभाराः संभृताश्च ये॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामकी ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर कैकेयीने इस प्रकार कहना आरम्भ किया—‘‘हे राम! तुम्हारे अभिषेकके लिये जो कुछ सामग्री एकत्रित की गयी है॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैरेव भरतोऽवश्यमभिषेच्यः प्रियो मम।
अपरेण वरेणाशु चीरवासा जटाधरः॥ ६४॥
वनं प्रयाहि शीघ्रं त्वमद्यैव पितुराज्ञया।
चतुर्दश समास्तत्र वस मुन्यन्नभोजनः॥ ६५॥
मूलम्
तैरेव भरतोऽवश्यमभिषेच्यः प्रियो मम।
अपरेण वरेणाशु चीरवासा जटाधरः॥ ६४॥
वनं प्रयाहि शीघ्रं त्वमद्यैव पितुराज्ञया।
चतुर्दश समास्तत्र वस मुन्यन्नभोजनः॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके द्वारा निश्चय ही मेरे प्रिय पुत्र भरतका अभिषेक होना चाहिये। (यही मेरा प्रथम वर है।) दूसरे वरके अनुसार पिताकी आज्ञासे आज तुरंत ही तुम वल्कल-वस्त्र और जटा धारणाकर वनको जाओ और वहाँ मुनिजनोचित भोजन करते हुए चौदह वर्षतक रहो॥ ६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेव पितुस्तेऽद्य कार्यं त्वं कर्तुमर्हसि।
राजा तु लज्जते वक्तुं त्वामेवं रघुनन्दन॥ ६६॥
मूलम्
एतदेव पितुस्तेऽद्य कार्यं त्वं कर्तुमर्हसि।
राजा तु लज्जते वक्तुं त्वामेवं रघुनन्दन॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
बस, तुम्हारे पिताका यही कार्य है, जो तुम्हें करना चाहिये। किन्तु राजा इन सब बातोंको तुमसे कहनेमें संकोच करते हैं’’॥ ६६॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतस्यैव राज्यं स्यादहं गच्छामि दण्डकान्।
किन्तु राजा न वक्तीह मां न जानेऽत्र कारणम्॥ ६७॥
मूलम्
भरतस्यैव राज्यं स्यादहं गच्छामि दण्डकान्।
किन्तु राजा न वक्तीह मां न जानेऽत्र कारणम्॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—माता! भरत आनन्दसे यह राज्य भोगें और मैं भी अभी दण्डकारण्यको जाता हूँ। किन्तु इसका कारण मालूम नहीं होता कि महाराज मुझसे क्यों नहीं कहते?॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतद्रामवचनं दृष्ट्वा रामं पुरः स्थितम्।
प्राह राजा दशरथो दुःखितो दुःखितं वचः॥ ६८॥
मूलम्
श्रुत्वैतद्रामवचनं दृष्ट्वा रामं पुरः स्थितम्।
प्राह राजा दशरथो दुःखितो दुःखितं वचः॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामके ये वचन सुनकर और उन्हें अपने सामने बैठे देखकर दुःखातुर महाराज दशरथने इस प्रकार अति दुःखभरे वचन कहे—॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीजितं भ्रान्तहृदयमुन्मार्गपरिवर्तिनम्।
निगृह्य मां गृहाणेदं राज्यं पापं न तद्भवेत्॥ ६९॥
मूलम्
स्त्रीजितं भ्रान्तहृदयमुन्मार्गपरिवर्तिनम्।
निगृह्य मां गृहाणेदं राज्यं पापं न तद्भवेत्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राम! मुझ स्त्रीपरवश, भ्रान्तचित्त, कुमार्गगामी पापात्माको बाँधकर यह राज्य ले लो; इससे तुम्हें कोई पाप न लगेगा॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चेदनृतं नैव मां स्पृशेद्रघुनन्दन।
इत्युक्त्वा दुःखसन्तप्तो विललाप नृपस्तदा॥ ७०॥
मूलम्
एवं चेदनृतं नैव मां स्पृशेद्रघुनन्दन।
इत्युक्त्वा दुःखसन्तप्तो विललाप नृपस्तदा॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनन्दन! ऐसा होनेपर मुझे भी असत्य स्पर्श न करेगा।’’ ऐसा कह राजा दशरथ दुःखातुर होकर विलाप करने लगे॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा राम हा जगन्नाथ हा मम प्राणवल्लभ।
मां विसृज्य कथं घोरं विपिनं गन्तुमर्हसि॥ ७१॥
मूलम्
हा राम हा जगन्नाथ हा मम प्राणवल्लभ।
मां विसृज्य कथं घोरं विपिनं गन्तुमर्हसि॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हा राम! हा जगन्नाथ! हा प्राणप्यारे! मुझे छोड़कर तुम घोर वनमें जाना कैसे उचित समझ रहे हो?’॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति रामं समालिङ्ग्य मुक्तकण्ठो रुरोद ह।
विमृज्य नयने रामः पितुः सजलपाणिना॥ ७२॥
मूलम्
इति रामं समालिङ्ग्य मुक्तकण्ठो रुरोद ह।
विमृज्य नयने रामः पितुः सजलपाणिना॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर उन्होंने रामको गले लगा लिया और जी खोलकर रोने लगे। तब रामने हाथमें जल लेकर पिताके आँसू पोंछे॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्वासयामास नृपं शनैः स नयकोविदः।
किमत्र दुःखेन विभो राज्यं शासतु मेऽनुजः॥ ७३॥
मूलम्
आश्वासयामास नृपं शनैः स नयकोविदः।
किमत्र दुःखेन विभो राज्यं शासतु मेऽनुजः॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और नीतिकुशल रामजीने धीरे-धीरे उन्हें ढाढ़स बँधाया। वे कहने लगे—‘प्रभो! यदि मेरे छोटे भाई भरत राज्यशासन करें तो इसमें दुःखकी क्या बात है?॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं प्रतिज्ञां निस्तीर्य पुनर्यास्यामि ते पुरम्।
राज्यात्कोटिगुणं सौख्यं मम राजन् वने सतः॥ ७४॥
मूलम्
अहं प्रतिज्ञां निस्तीर्य पुनर्यास्यामि ते पुरम्।
राज्यात्कोटिगुणं सौख्यं मम राजन् वने सतः॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भी इस प्रतिज्ञाका पालन कर फिर आपके पास अयोध्या लौट ही आऊँगा और हे राजन्! वनमें रहनेसे तो मुझे राज्यसे भी करोड़ गुना सुख होगा॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्सत्यपालनं देवकार्यं चापि भविष्यति।
कैकेय्याश्च प्रियो राजन् वनवासो महागुणः॥ ७५॥
मूलम्
त्वत्सत्यपालनं देवकार्यं चापि भविष्यति।
कैकेय्याश्च प्रियो राजन् वनवासो महागुणः॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें आपके सत्यकी रक्षा होगी, देवताओंका कार्य सिद्ध होगा और कैकेयीका भी हित होगा; अतः हे राजन्! वनवासमें सब प्रकार महान् गुण है॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं गन्तुमिच्छामि व्येतु मातुश्च हृज्ज्वरः।
सम्भाराश्चोपह्रीयन्तामभिषेकार्थमाहृताः॥ ७६॥
मूलम्
इदानीं गन्तुमिच्छामि व्येतु मातुश्च हृज्ज्वरः।
सम्भाराश्चोपह्रीयन्तामभिषेकार्थमाहृताः॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं शीघ्र ही जाना चाहता हूँ; माता कैकेयीकी हार्दिक व्यथा शान्त हो। अभिषेक के लिये एकत्रित की हुई यह सामग्री अलग रख दी जाय॥ ७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरं च समाश्वास्य अनुनीय च जानकीम्।
आगत्य पादौ वन्दित्वा तव यास्ये सुखं वनम्॥ ७७॥
मूलम्
मातरं च समाश्वास्य अनुनीय च जानकीम्।
आगत्य पादौ वन्दित्वा तव यास्ये सुखं वनम्॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता कौसल्याको सान्त्वना देकर और जानकीको समझा-बुझाकर मैं अभी आता हूँ और आपके चरणोंकी वन्दना कर आनन्दपूर्वक वनको जाता हूँ॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तु परिक्रम्य मातरं द्रष्टुमाययौ।
कौसल्यापि हरेः पूजां कुरुते रामकारणात्॥ ७८॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तु परिक्रम्य मातरं द्रष्टुमाययौ।
कौसल्यापि हरेः पूजां कुरुते रामकारणात्॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह उन्होंने पिताकी परिक्रमा की और मातासे मिलनेके लिये आये। इस समय माता कौसल्या रामके मंगलके लिये श्रीविष्णुभगवान् की पूजा कर रही थीं॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होमं च कारयामास ब्राह्मणेभ्यो ददौ धनम्।
ध्यायते विष्णुमेकाग्रमनसा मौनमास्थिता॥ ७९॥
मूलम्
होमं च कारयामास ब्राह्मणेभ्यो ददौ धनम्।
ध्यायते विष्णुमेकाग्रमनसा मौनमास्थिता॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कुछ पहले हवन कराके ब्राह्मणोंको बहुत-सा धन दिया था और इस समय वह मौन धारणकर एकाग्रचित्तसे श्रीविष्णुभगवान् का ध्यान कर रही थीं॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःस्थमेकं घनचित्प्रकाशं
निरस्तसर्वातिशयस्वरूपम्।
विष्णुं सदानन्दमयं हृदब्जे
सा भावयन्ती न ददर्श रामम्॥ ८०॥
मूलम्
अन्तःस्थमेकं घनचित्प्रकाशं
निरस्तसर्वातिशयस्वरूपम्।
विष्णुं सदानन्दमयं हृदब्जे
सा भावयन्ती न ददर्श रामम्॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने हृदयमें अन्तर्यामी, अद्वितीय, चिद्घनस्वरूप, तेजोमय, निरतिशयस्वरूप, सदानन्दमय भगवान् विष्णुका ध्यान करती रहनेके कारण वे श्रीरामचन्द्रजीको नहीं देख पायीं॥ ८०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥