[द्वितीय सर्ग]
भागसूचना
राज्याभिषेककी तैयारी तथा वसिष्ठजी और रघुनाथजीका संवाद
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ राजा दशरथः कदाचिद्रहसि स्थितः।
वसिष्ठं स्वकुलाचार्यमाहूयेदमभाषत॥ १॥
मूलम्
अथ राजा दशरथः कदाचिद्रहसि स्थितः।
वसिष्ठं स्वकुलाचार्यमाहूयेदमभाषत॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—एक दिन एकान्तमें बैठे हुए राजा दशरथने अपने कुल-पुरोहित वसिष्ठजीको बुलाकर कहा—॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् राममखिलाः प्रशंसन्ति मुहुर्मुहुः।
पौराश्च निगमा वृद्धा मन्त्रिणश्च विशेषतः॥ २॥
मूलम्
भगवन् राममखिलाः प्रशंसन्ति मुहुर्मुहुः।
पौराश्च निगमा वृद्धा मन्त्रिणश्च विशेषतः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भगवन्! सभी पुरवासी, वेदार्थाभिज्ञ बड़े-बूढ़े और मन्त्रिजन रामकी विशेषतया बारम्बार प्रशंसा किया करते हैं॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वगुणोपेतं रामं राजीवलोचनम्।
ज्येष्ठं राज्येऽभिषेक्ष्यामि वृद्धोऽहं मुनिपुङ्गव॥ ३॥
मूलम्
ततः सर्वगुणोपेतं रामं राजीवलोचनम्।
ज्येष्ठं राज्येऽभिषेक्ष्यामि वृद्धोऽहं मुनिपुङ्गव॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये हे मुनिश्रेष्ठ! मेरा विचार है कि मैं अपने सर्वगुणसम्पन्न ज्येष्ठ पुत्र कमलनयन रामको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दूँ; क्योंकि मैं अब वृद्ध हो गया हूँ॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतो मातुलं द्रष्टुं गतः शत्रुघ्नसंयुतः।
अभिषेक्ष्ये श्व एवाशु भवांस्तच्चानुमोदताम्॥ ४॥
मूलम्
भरतो मातुलं द्रष्टुं गतः शत्रुघ्नसंयुतः।
अभिषेक्ष्ये श्व एवाशु भवांस्तच्चानुमोदताम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय भरत शत्रुघ्नके साथ अपने मामाके यहाँ मिलने गया है, तथापि मैं कल शीघ्र ही रामका राज्याभिषेक करना चाहता हूँ। इस विषयमें आप भी अपनी सम्मति दे दीजिये॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां च गच्छ मन्त्रय राघवम्।
उच्छ्रीयन्तां पताकाश्च नानावर्णाः समन्ततः॥ ५॥
मूलम्
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां च गच्छ मन्त्रय राघवम्।
उच्छ्रीयन्तां पताकाश्च नानावर्णाः समन्ततः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिश्रेष्ठ! आप अभिषेककी सामग्री एकत्रित कराइये और रघुनाथजीके पास जाकर उनको यथोचित सम्मति दीजिये। इस समय नगरमें सब ओर रंग-बिरंगी झंडियाँ लगायी जानी चाहिये॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोरणानि विचित्राणि स्वर्णमुक्तामयानि वै।
आहूय मन्त्रिणं राजा सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तमम्॥ ६॥
आज्ञापयति यद्यत्त्वां मुनिस्तत्तत्समानय।
यौवराज्येऽभिषेक्ष्यामि श्वोभूते रघुनन्दनम्॥ ७॥
मूलम्
तोरणानि विचित्राणि स्वर्णमुक्तामयानि वै।
आहूय मन्त्रिणं राजा सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तमम्॥ ६॥
आज्ञापयति यद्यत्त्वां मुनिस्तत्तत्समानय।
यौवराज्येऽभिषेक्ष्यामि श्वोभूते रघुनन्दनम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा चित्र-विचित्र सुवर्ण और मोतियोंके तोरण (झालर) बाँधे जाने चाहिये।’’ उसी समय राजाने मन्त्रिश्रेष्ठ सुमन्त्रको बुलाकर आज्ञा दी कि मैं कल रघुनाथजीको युवराज-पदपर अभिषिक्त करूँगा, उसके लिये मुनिवर वसिष्ठजी जो-जो सामग्री बतायें वह सब एकत्रित करो॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति हर्षात्स मुनिं किं करोमीत्यभाषत।
तमुवाच महातेजा वसिष्ठो ज्ञानिनां वरः॥ ८॥
मूलम्
तथेति हर्षात्स मुनिं किं करोमीत्यभाषत।
तमुवाच महातेजा वसिष्ठो ज्ञानिनां वरः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दशरथसे ‘बहुत अच्छा’ कह सुमन्त्रने हर्षपूर्वक मुनिवरसे कहा कि ‘मैं क्या करूँ?’ तब ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी वसिष्ठजीने उससे कहा—॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वः प्रभाते मध्यकक्षे कन्यकाः स्वर्णभूषिताः।
तिष्ठन्तु षोडश गजः स्वर्णरत्नादिभूषितः॥ ९॥
चतुर्दन्तः समायातु ऐरावतकुलोद्भवः।
नानातीर्थोदकैः पूर्णाः स्वर्णकुम्भाः सहस्रशः॥ १०॥
मूलम्
श्वः प्रभाते मध्यकक्षे कन्यकाः स्वर्णभूषिताः।
तिष्ठन्तु षोडश गजः स्वर्णरत्नादिभूषितः॥ ९॥
चतुर्दन्तः समायातु ऐरावतकुलोद्भवः।
नानातीर्थोदकैः पूर्णाः स्वर्णकुम्भाः सहस्रशः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘कल प्रातःकाल मध्यद्वारपर सुवर्ण-भूषण-भूषित सोलह कन्याएँ खड़ी रहनी चाहिये; तथा सुवर्ण और रत्न आदिसे विभूषित ऐरावतके कुलमें उत्पन्न एक चार दाँतोंवाला हाथी रहना चाहिये; नाना तीर्थोंके जलसे पूर्ण हजारों सुवर्ण कलश मँगवाये जायँ॥ ९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थाप्यन्तां नववैयाघ्रचर्माणि त्रीणि चानय।
श्वेतच्छत्रं रत्नदण्डं मुक्तामणिविराजितम्॥ ११॥
मूलम्
स्थाप्यन्तां नववैयाघ्रचर्माणि त्रीणि चानय।
श्वेतच्छत्रं रत्नदण्डं मुक्तामणिविराजितम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीन नवीन व्याघ्र-चर्म लाकर रखो और मुक्तामणि-सुशोभित रत्नदण्डयुक्त एक श्वेत छत्र लाओ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यमाल्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च।
मुनयः सत्कृतास्तत्र तिष्ठन्तु कुशपाणयः॥ १२॥
मूलम्
दिव्यमाल्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च।
मुनयः सत्कृतास्तत्र तिष्ठन्तु कुशपाणयः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेकों दिव्य मालाएँ, दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण लाकर रखे जाने चाहिये तथा अभिषेक-स्थानपर भली प्रकार सम्मान किये हुए अनेकों मुनिजन हाथमें कुशा लिये हुए उपस्थित रहें॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर्तक्यो वारमुख्याश्च गायका वेणुकास्तथा।
नानावादित्रकुशला वादयन्तु नृपाङ्गणे॥ १३॥
मूलम्
नर्तक्यो वारमुख्याश्च गायका वेणुकास्तथा।
नानावादित्रकुशला वादयन्तु नृपाङ्गणे॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेकों नर्तकियाँ, मुख्य-मुख्य वारांगनाएँ, गायक, वेणुवादक तथा कुशल बाजे बजानेवाले महाराज दशरथके आँगनमें गाना-बजाना करें॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्त्यश्वरथपादाता बहिस्तिष्ठन्तु सायुधाः।
नगरे यानि तिष्ठन्ति देवतायतनानि च॥ १४॥
तेषु प्रवर्ततां पूजा नानाबलिभिरादृता।
राजानः शीघ्रमायान्तु नानोपायनपाणयः॥ १५॥
मूलम्
हस्त्यश्वरथपादाता बहिस्तिष्ठन्तु सायुधाः।
नगरे यानि तिष्ठन्ति देवतायतनानि च॥ १४॥
तेषु प्रवर्ततां पूजा नानाबलिभिरादृता।
राजानः शीघ्रमायान्तु नानोपायनपाणयः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिषेक-स्थानके बाहर हाथी, घोड़े, रथ और पदाति यह चतुरंगिणी सेना अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर खड़ी रहे। नगरमें जितने देवालय हैं उन सबमें नाना प्रकारकी बलि-सामग्रीसे देवोंकी पूजा की जाय तथा राजालोग शीघ्र ही नाना प्रकारकी भेंटें लेकर आवें’’॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यादिश्य मुनिः श्रीमान् सुमन्त्रं नृपमन्त्रिणम्।
स्वयं जगाम भवनं राघवस्यातिशोभनम्॥ १६॥
मूलम्
इत्यादिश्य मुनिः श्रीमान् सुमन्त्रं नृपमन्त्रिणम्।
स्वयं जगाम भवनं राघवस्यातिशोभनम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजमन्त्री सुमन्त्रको इस प्रकार आज्ञा दे श्रीमान् वसिष्ठजी स्वयं श्रीरघुनाथजीके परम सुन्दर महलमें गये॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथमारुह्य भगवान्वसिष्ठो मुनिसत्तमः।
त्रीणि कक्षाण्यतिक्रम्य रथात्क्षितिमवातरत्॥ १७॥
मूलम्
रथमारुह्य भगवान्वसिष्ठो मुनिसत्तमः।
त्रीणि कक्षाण्यतिक्रम्य रथात्क्षितिमवातरत्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीने रथपर चढ़कर रघुनाथजीके महलकी तीन पौरियाँ पार कीं और फिर पृथिवीपर उतर पड़े॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तः प्रविश्य भवनं स्वाचार्यत्वादवारितः।
गुरुमागतमाज्ञाय रामस्तूर्णं कृताञ्जलिः॥ १८॥
प्रत्युद्गम्य नमस्कृत्य दण्डवद् भक्तिसंयुतः।
स्वर्णपात्रेण पानीयमानिनायाशु जानकी॥ १९॥
मूलम्
अन्तः प्रविश्य भवनं स्वाचार्यत्वादवारितः।
गुरुमागतमाज्ञाय रामस्तूर्णं कृताञ्जलिः॥ १८॥
प्रत्युद्गम्य नमस्कृत्य दण्डवद् भक्तिसंयुतः।
स्वर्णपात्रेण पानीयमानिनायाशु जानकी॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आचार्य होनेके कारण बिना रोक-टोकके वे भीतर चले गये। उस समय गुरुजीको आये देख रामचन्द्रजीने तुरंत हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया और भक्तिपूर्वक दण्डवत्-प्रणाम किया। उसी समय सीताजी सुवर्णके पात्रमें जल ले आयीं॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नासने समावेश्य पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः।
तदपः शिरसा धृत्वा सीतया सह राघवः॥ २०॥
धन्योऽस्मीत्यब्रवीद्रामस्तव पादाम्बुधारणात्।
श्रीरामेणैवमुक्तस्तु प्रहसन्मुनिरब्रवीत्॥ २१॥
मूलम्
रत्नासने समावेश्य पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः।
तदपः शिरसा धृत्वा सीतया सह राघवः॥ २०॥
धन्योऽस्मीत्यब्रवीद्रामस्तव पादाम्बुधारणात्।
श्रीरामेणैवमुक्तस्तु प्रहसन्मुनिरब्रवीत्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रघुनाथजीने गुरुजीको रत्नसिंहासनपर बैठाकर उनके चरण धोये और सीताजीके सहित उस चरणोदकको भक्तिपूर्वक अपने सिरपर रखकर कहा—‘‘हे मुने! आपके चरणोदकको धारणकर आज मैं कृतकृत्य हो गया।’’ भगवान् रामके इस प्रकार कहनेपर मुनिवर वसिष्ठने हँसकर कहा—॥ २०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्पादसलिलं धृत्वा धन्योऽभूद् गिरिजापतिः।
ब्रह्मापि मत्पिता ते हि पादतीर्थहताशुभः॥ २२॥
मूलम्
त्वत्पादसलिलं धृत्वा धन्योऽभूद् गिरिजापतिः।
ब्रह्मापि मत्पिता ते हि पादतीर्थहताशुभः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! आपके पादोदकको मस्तकपर धारणकर पार्वतीवल्लभ भगवान् शंकर धन्य-धन्य हो गये तथा मेरे पिता ब्रह्माजी भी आपके पादतीर्थका सेवन करनेसे ही निष्पाप हो गये हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं भाषसे यत्त्वं लोकानामुपदेशकृत्।
जानामि त्वां परात्मानं लक्ष्म्या संजातमीश्वरम्॥ २३॥
मूलम्
इदानीं भाषसे यत्त्वं लोकानामुपदेशकृत्।
जानामि त्वां परात्मानं लक्ष्म्या संजातमीश्वरम्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय केवल संसारको यह उपदेश करनेके लिये ही कि ‘गुरुके साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये’ आप इस प्रकार सम्भाषण कर रहे हैं। मैं भली प्रकार जानता हूँ आप लक्ष्मीके सहित प्रकट हुए साक्षात् परमात्मा विष्णु हैं॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं भक्तानां भक्तिसिद्धये।
रावणस्य वधार्थाय जातं जानामि राघव॥ २४॥
मूलम्
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं भक्तानां भक्तिसिद्धये।
रावणस्य वधार्थाय जातं जानामि राघव॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राघव! मैं जानता हूँ आपने देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये, भक्तोंकी भक्ति सफल करनेके लिये और रावणका वध करनेके लिये ही अवतार लिया है॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि देवकार्यार्थं गुह्यं नोद्घाटयाम्यहम्।
यथा त्वं मायया सर्वं करोषि रघुनन्दन॥ २५॥
तथैवानुविधास्येऽहं शिष्यस्त्वं गुरुरप्यहम्।
गुरुर्गुरूणां त्वं देव पितॄणां त्वं पितामहः॥ २६॥
मूलम्
तथापि देवकार्यार्थं गुह्यं नोद्घाटयाम्यहम्।
यथा त्वं मायया सर्वं करोषि रघुनन्दन॥ २५॥
तथैवानुविधास्येऽहं शिष्यस्त्वं गुरुरप्यहम्।
गुरुर्गुरूणां त्वं देव पितॄणां त्वं पितामहः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथापि देवताओंकी कार्य-सिद्धिके लिये मैं इस गुप्त रहस्यको प्रकट नहीं करता। हे रघुनन्दन! जिस प्रकार मायाके आश्रयसे आप सब कार्य करेंगे उसी प्रकार मैं भी ‘तुम शिष्य हो और मैं गुरु हूँ’ इस सम्बन्धके अनुकूल व्यवहार करूँगा। किन्तु हे देव! वास्तवमें तो आप ही गुरुओंके गुरु और पितृगणोंके भी पितामह हैं॥ २५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्यामी जगद्यात्रावाहकस्त्वमगोचरः।
शुद्धसत्त्वमयं देहं धृत्वा स्वाधीनसम्भवम्॥ २७॥
मनुष्य इव लोकेऽस्मिन् भासि त्वं योगमायया।
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्॥ २८॥
मूलम्
अन्तर्यामी जगद्यात्रावाहकस्त्वमगोचरः।
शुद्धसत्त्वमयं देहं धृत्वा स्वाधीनसम्भवम्॥ २७॥
मनुष्य इव लोकेऽस्मिन् भासि त्वं योगमायया।
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अन्तर्यामी, जगद्व्यवहारके प्रवर्तक और मन-वाणीके अविषय हैं और स्वेच्छासे यह शुद्ध सत्त्वमय शरीर धारणकर इस लोकमें अपनी योगमायासे मनुष्यके समान प्रतीत होते हैं। मैं यह जानता हूँ कि पुरोहिताई अति निन्दनीय और दूषित जीविका है॥ २७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक्ष्वाकूणां कुले रामः परमात्मा जनिष्यते।
इति ज्ञातं मया पूर्वं ब्रह्मणा कथितं पुरा॥ २९॥
मूलम्
इक्ष्वाकूणां कुले रामः परमात्मा जनिष्यते।
इति ज्ञातं मया पूर्वं ब्रह्मणा कथितं पुरा॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तो भी जब पूर्वकालमें ब्रह्माजीके कहनेसे मुझे यह मालूम हुआ कि इक्ष्वाकुवंशमें परमात्मा राम अवतार लेंगे॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहमाशया राम तव सम्बन्धकाङ्क्षया।
अकार्षं गर्हितमपि तवाचार्यत्वसिद्धये॥ ३०॥
मूलम्
ततोऽहमाशया राम तव सम्बन्धकाङ्क्षया।
अकार्षं गर्हितमपि तवाचार्यत्वसिद्धये॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब हे राम! आपसे सम्बन्ध जोड़नेकी इच्छासे आपका आचार्य बननेके लिये इस निन्दनीय पदको भी मैंने स्वीकार कर लिया॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मनोरथो मेऽद्य फलितो रघुनन्दन।
त्वदधीना महामाया सर्वलोकैकमोहिनी॥ ३१॥
मां यथा मोहयेन्नैव तथा कुरु रघूद्वह।
गुरुनिष्कृतिकामस्त्वं यदि देह्येतदेव मे॥ ३२॥
मूलम्
ततो मनोरथो मेऽद्य फलितो रघुनन्दन।
त्वदधीना महामाया सर्वलोकैकमोहिनी॥ ३१॥
मां यथा मोहयेन्नैव तथा कुरु रघूद्वह।
गुरुनिष्कृतिकामस्त्वं यदि देह्येतदेव मे॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनन्दन! आज मेरी इच्छा पूर्ण हो गयी। अब यदि आप गुरु-ऋणसे उऋण होना चाहते हैं तो मुझे यही दीजिये कि आपके अधीन रहनेवाली आपकी सर्वलोकविमोहिनी महामाया मुझे मोहित न करे॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसङ्गात्सर्वमप्युक्तं न वाच्यं कुत्रचिन्मया।
राज्ञा दशरथेनाहं प्रेषितोऽस्मि रघूद्वह॥ ३३॥
त्वामामन्त्रयितुं राज्ये श्वोऽभिषेक्ष्यति राघव।
अद्य त्वं सीतया सार्धमुपवासं यथाविधि॥ ३४॥
कृत्वा शुचिर्भूमिशायी भव राम जितेन्द्रियः।
गच्छामि राजसान्निध्यं त्वं तु प्रातर्गमिष्यसि॥ ३५॥
मूलम्
प्रसङ्गात्सर्वमप्युक्तं न वाच्यं कुत्रचिन्मया।
राज्ञा दशरथेनाहं प्रेषितोऽस्मि रघूद्वह॥ ३३॥
त्वामामन्त्रयितुं राज्ये श्वोऽभिषेक्ष्यति राघव।
अद्य त्वं सीतया सार्धमुपवासं यथाविधि॥ ३४॥
कृत्वा शुचिर्भूमिशायी भव राम जितेन्द्रियः।
गच्छामि राजसान्निध्यं त्वं तु प्रातर्गमिष्यसि॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुश्रेष्ठ! इस समय प्रसंगवश मैंने ये सब बातें आपसे कह दी हैं, मैं ऐसा और कहीं भी न कहूँगा। हे राघव! महाराज दशरथने इस बातकी सूचना देनेके लिये कि कल वे आपको राजपदपर अभिषिक्त करेंगे—मुझे आपके पास भेजा है। आज आप सीताके सहित विधिपूर्वक उपवास और शुद्धता तथा इन्द्रियजयपूर्वक पृथिवीपर शयन करें। अब मैं राजाके पास जाता हूँ, आप कल प्रातःकाल वहाँ पधारें’’॥ ३३—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा रथमारुह्य ययौ राजगुरुर्द्रुतम्।
रामोऽपि लक्ष्मणं दृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥ ३६॥
मूलम्
इत्युक्त्वा रथमारुह्य ययौ राजगुरुर्द्रुतम्।
रामोऽपि लक्ष्मणं दृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह राजपुरोहित वसिष्ठजी रथपर चढ़कर तुरंत ही चले गये। तब रामचन्द्रजीने लक्ष्मणजीकी ओर देखकर हँसते हुए कहा—॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रे यौवराज्ये मे श्वोऽभिषेको भविष्यति।
निमित्तमात्रमेवाहं कर्ता भोक्ता त्वमेव हि॥ ३७॥
मूलम्
सौमित्रे यौवराज्ये मे श्वोऽभिषेको भविष्यति।
निमित्तमात्रमेवाहं कर्ता भोक्ता त्वमेव हि॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे सुमित्रानन्दन! कल मेरा युवराज-पदपर अभिषेक होगा, सो मैं तो केवल निमित्तमात्र ही होऊँगा, उसके कर्ता-भोक्ता तो तुम्हीं होगे॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम त्वं हि बहिःप्राणो नात्र कार्या विचारणा।
ततो वसिष्ठेन यथा भाषितं तत्तथाकरोत्॥ ३८॥
मूलम्
मम त्वं हि बहिःप्राणो नात्र कार्या विचारणा।
ततो वसिष्ठेन यथा भाषितं तत्तथाकरोत्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि मेरे बाह्यप्राण तो तुम्हीं हो—इसमें कोई विशेष सोच-विचारकी आवश्यकता नहीं है।’’ तदनन्तर वसिष्ठजी जैसा कह गये थे रघुनाथजीने वैसा ही किया॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठोऽपि नृपं गत्वा कृतं सर्वं न्यवेदयत्।
वसिष्ठस्य पुरो राज्ञा ह्युक्तं रामाभिषेचनम्॥ ३९॥
यदा तदैव नगरे श्रुत्वा कश्चित्पुमान् जगौ।
कौसल्यायै राममात्रे सुमित्रायै तथैव च॥ ४०॥
मूलम्
वसिष्ठोऽपि नृपं गत्वा कृतं सर्वं न्यवेदयत्।
वसिष्ठस्य पुरो राज्ञा ह्युक्तं रामाभिषेचनम्॥ ३९॥
यदा तदैव नगरे श्रुत्वा कश्चित्पुमान् जगौ।
कौसल्यायै राममात्रे सुमित्रायै तथैव च॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर वसिष्ठजीने भी राजा दशरथके पास आकर जो कुछ किया था, सो सब सुना दिया। जिस समय महाराज दशरथ वसिष्ठजीसे रामचन्द्रजीके अभिषेकके विषयमें कह रहे थे उसी समय किसी पुरुषने यह समाचार सुनकर सम्पूर्ण नगरमें सुना दिया और राममाता कौसल्या तथा सुमित्राको भी यह सूचना दे दी॥ ३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा ते हर्षसम्पूर्णे ददतुर्हारमुत्तमम्।
तस्मै ततः प्रीतमनाः कौसल्या पुत्रवत्सला॥ ४१॥
लक्ष्मीं पर्यचरद्देवीं रामस्यार्थप्रसिद्धये।
सत्यवादी दशरथः करोत्येव प्रतिश्रुतम्॥ ४२॥
मूलम्
श्रुत्वा ते हर्षसम्पूर्णे ददतुर्हारमुत्तमम्।
तस्मै ततः प्रीतमनाः कौसल्या पुत्रवत्सला॥ ४१॥
लक्ष्मीं पर्यचरद्देवीं रामस्यार्थप्रसिद्धये।
सत्यवादी दशरथः करोत्येव प्रतिश्रुतम्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंने सुनते ही अति हर्षपूर्ण हो उसे एक अत्युत्तम हार दिया। तदुपरान्त पुत्रवत्सला कौसल्याने रामचन्द्रजीकी इष्ट-सिद्धिके लिये लक्ष्मीदेवीका पूजन किया। ‘राजा दशरथ सत्यवादी हैं और उनके विषयमें यह प्रसिद्ध है कि वे अपनी प्रतिज्ञाका पालन करते हैं॥ ४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेयीवशगः किन्तु कामुकः किं करिष्यति।
इति व्याकुलचित्ता सा दुर्गां देवीमपूजयत्॥ ४३॥
मूलम्
कैकेयीवशगः किन्तु कामुकः किं करिष्यति।
इति व्याकुलचित्ता सा दुर्गां देवीमपूजयत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु वे कामी और कैकेयीके वशीभूत हैं ऐसी अवस्थामें क्या वे इस प्रतिज्ञाको पूर्ण कर सकेंगे!’ इस प्रकारकी चिन्तासे व्याकुल होकर वह दुर्गादेवीका पूजन करने लगीं॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे देवा देवीं वाणीमचोदयन्।
गच्छ देवि भुवो लोकमयोध्यायां प्रयत्नतः॥ ४४॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे देवा देवीं वाणीमचोदयन्।
गच्छ देवि भुवो लोकमयोध्यायां प्रयत्नतः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय देवताओंने सरस्वतीदेवीसे आग्रह किया कि ‘‘हे देवि! तुम यत्नपूर्वक भूलोकमें अयोध्यापुरीमें जाओ॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामाभिषेकविघ्नार्थं यतस्व ब्रह्मवाक्यतः।
मन्थरां प्रविशस्वादौ कैकेयीं च ततः परम्॥ ४५॥
मूलम्
रामाभिषेकविघ्नार्थं यतस्व ब्रह्मवाक्यतः।
मन्थरां प्रविशस्वादौ कैकेयीं च ततः परम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और वहाँ ब्रह्माजीकी आज्ञासे रामचन्द्रजीके राज्याभिषेकमें विघ्न उपस्थित करनेके लिये यत्न करो। प्रथम तो तुम मन्थरामें प्रवेश करना और फिर कैकेयीमें॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विघ्ने समुत्पन्ने पुनरेहि दिवं शुभे।
तथेत्युक्त्वा तथा चक्रे प्रविवेशाथ मन्थराम्॥ ४६॥
मूलम्
ततो विघ्ने समुत्पन्ने पुनरेहि दिवं शुभे।
तथेत्युक्त्वा तथा चक्रे प्रविवेशाथ मन्थराम्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शुभे! इस प्रकार विघ्न उपस्थित हो जानेपर तुम फिर स्वर्गलोकको लौट आना।’’ इसपर सरस्वतीने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वैसा ही किया और प्रथम मन्थरामें प्रवेश किया॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापि कुब्जा त्रिवक्रा तु प्रासादाग्रमथारुहत्।
नगरं परितो दृष्ट्वा सर्वतः समलङ्कृतम्॥ ४७॥
मूलम्
सापि कुब्जा त्रिवक्रा तु प्रासादाग्रमथारुहत्।
नगरं परितो दृष्ट्वा सर्वतः समलङ्कृतम्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब तीन स्थानमें टेढ़ी वह कुबड़ी मन्थरा महलकी अट्टालिकापर चढ़ी और उसने देखा कि नगर सब ओरसे सजाया गया है॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानातोरणसम्बाधं पताकाभिरलङ्कृतम्।
सर्वोत्सवसमायुक्तं विस्मिता पुनरागमत्॥ ४८॥
मूलम्
नानातोरणसम्बाधं पताकाभिरलङ्कृतम्।
सर्वोत्सवसमायुक्तं विस्मिता पुनरागमत्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें नाना प्रकारकी बन्दनवारें बँधी हुई हैं, चित्र-विचित्र पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं और सब ओर उत्सव हो रहे हैं। यह देखकर वह अत्यन्त विस्मिता हो नीचे उतर आयी॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धात्रीं पप्रच्छ मातः किं नगरं समलङ्कृतम्।
नानोत्सवसमायुक्ता कौसल्या चातिहर्षिता॥ ४९॥
ददाति विप्रमुख्येभ्यो वस्त्राणि विविधानि च।
तामुवाच तदा धात्री रामचन्द्राभिषेचनम्॥ ५०॥
श्वो भविष्यति तेनाद्य सर्वतोऽलङ्कृतं पुरम्।
तच्छ्रुत्वा त्वरितं गत्वा कैकेयीं वाक्यमब्रवीत्॥ ५१॥
मूलम्
धात्रीं पप्रच्छ मातः किं नगरं समलङ्कृतम्।
नानोत्सवसमायुक्ता कौसल्या चातिहर्षिता॥ ४९॥
ददाति विप्रमुख्येभ्यो वस्त्राणि विविधानि च।
तामुवाच तदा धात्री रामचन्द्राभिषेचनम्॥ ५०॥
श्वो भविष्यति तेनाद्य सर्वतोऽलङ्कृतं पुरम्।
तच्छ्रुत्वा त्वरितं गत्वा कैकेयीं वाक्यमब्रवीत्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
और धायसे पूछा—‘‘मैया! आज नगर क्यों सजाया गया है और महारानी कौसल्या भी नाना प्रकारसे उत्सव मनाती हुई अत्यन्त हर्षपूर्वक उत्तमोत्तम ब्राह्मणोंको विविध वस्त्राभूषण क्यों दे रही हैं!’’ तब धायने उससे कहा—‘‘कल श्रीरामजीका राज्याभिषेक होगा, इसीलिये आज सब ओरसे नगर सजाया गया है।’’ यह सुनते ही उसने तुरंत ही कैकेयीके पास जाकर कहा—॥ ४९—५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यङ्कस्थां विशालाक्षीमेकान्ते पर्यवस्थिताम्।
किं शेषे दुर्भगे मूढे महद्भयमुपस्थितम्॥ ५२॥
मूलम्
पर्यङ्कस्थां विशालाक्षीमेकान्ते पर्यवस्थिताम्।
किं शेषे दुर्भगे मूढे महद्भयमुपस्थितम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशालाक्षी कैकेयी उस समय एकान्तमें पलंगपर बैठी थी, उससे मन्थरा बोली—‘‘अयि अभागिनि मूढे! कैसे सो रही हो, तुम्हारे लिये बड़ा भारी संकट उपस्थित हुआ है॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानीषेऽतिसौन्दर्यमानिनी मत्तगामिनी॥ ५३॥
रामस्यानुग्रहाद्राज्ञः श्वोऽभिषेको भविष्यति।
तच्छ्रुत्वा सहसोत्थाय कैकेयी प्रियवादिनी॥ ५४॥
मूलम्
न जानीषेऽतिसौन्दर्यमानिनी मत्तगामिनी॥ ५३॥
रामस्यानुग्रहाद्राज्ञः श्वोऽभिषेको भविष्यति।
तच्छ्रुत्वा सहसोत्थाय कैकेयी प्रियवादिनी॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मतवाली चालवाली! तुम्हें अपनी सुन्दरताका बड़ा घमण्ड है इसीलिये तुम्हें किसी बातका पता ही नहीं रहता। देखो, महाराजकी कृपासे कल रामका राज्याभिषेक होनेवाला है।’’ यह सुनकर प्रियवादिनी कैकेयी सहसा उठ खड़ी हुई॥ ५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यै दिव्यं ददौ स्वर्णनूपुरं रत्नभूषितम्।
हर्षस्थाने किमिति मे कथ्यते भयमागतम्॥ ५५॥
मूलम्
तस्यै दिव्यं ददौ स्वर्णनूपुरं रत्नभूषितम्।
हर्षस्थाने किमिति मे कथ्यते भयमागतम्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उसे अति दिव्य रत्नजटित सुवर्णनूपुर देकर कहा—‘‘अरी! यह तो बड़े आनन्दकी बात है, इसमें तू संकट उपस्थित हुआ कैसे बतलाती है॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतादधिको रामः प्रियकृन्मे प्रियंवदः।
कौसल्यां मां समं पश्यन् सदा शुश्रूषते हि माम्॥ ५६॥
रामाद्भयं किमापन्नं तव मूढे वदस्व मे।
तच्छ्रुत्वा विषसादाथ कुब्जाकारणवैरिणी॥ ५७॥
मूलम्
भरतादधिको रामः प्रियकृन्मे प्रियंवदः।
कौसल्यां मां समं पश्यन् सदा शुश्रूषते हि माम्॥ ५६॥
रामाद्भयं किमापन्नं तव मूढे वदस्व मे।
तच्छ्रुत्वा विषसादाथ कुब्जाकारणवैरिणी॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
राम तो भरतकी अपेक्षा मेरा अधिक प्रिय करनेवाला और मधुरभाषी है, वह तो कौसल्या तथा मुझे समान भावसे देखता हुआ सदा ही मेरी सेवा किया करता है अरी मूर्खे! तू यह तो बता कि तुझे रामसे क्या भय उपस्थित हुआ है?’’ यह सुनकर बिना कारण वैर करनेवाली मन्थरा विषाद करने लगी॥ ५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु मद्वचनं देवि यथार्थं ते महद्भयम्।
त्वां तोषयन् सदा राजा प्रियवाक्यानि भाषते॥ ५८॥
मूलम्
शृणु मद्वचनं देवि यथार्थं ते महद्भयम्।
त्वां तोषयन् सदा राजा प्रियवाक्यानि भाषते॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोली, ‘‘देवि! मेरी बात सुनो, वास्तवमें तुम्हारे लिये बड़ा संकट उपस्थित हुआ है। राजा तुम्हें सन्तुष्ट करनेके लिये ही सदा चिकनी-चुपड़ी बातें बना दिया करते हैं॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामुकोऽतथ्यवादी च त्वां वाचा परितोषयन्।
कार्यं करोति तस्या वै राममातुः सुपुष्कलम्॥ ५९॥
मूलम्
कामुकोऽतथ्यवादी च त्वां वाचा परितोषयन्।
कार्यं करोति तस्या वै राममातुः सुपुष्कलम्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बड़े कामी और मिथ्यावादी हैं, तुम्हें इस प्रकार केवल बातोंसे ही बहलाकर रामकी माताका ही पूरा-पूरा कार्य किया करते हैं॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनस्येतन्निधायैव प्रेषयामास ते सुतम्।
भरतं मातुलकुले प्रेषयामास सानुजम्॥ ६०॥
मूलम्
मनस्येतन्निधायैव प्रेषयामास ते सुतम्।
भरतं मातुलकुले प्रेषयामास सानुजम्॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने मनमें यही ठानकर उन्होंने छोटे भाई शत्रुघ्नके सहित तुम्हारे पुत्र भरतको ननिहाल भेज दिया है॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमित्रायाः समीचीनं भविष्यति न संशयः।
लक्ष्मणो राममन्वेति राज्यं सोऽनुभविष्यति॥ ६१॥
मूलम्
सुमित्रायाः समीचीनं भविष्यति न संशयः।
लक्ष्मणो राममन्वेति राज्यं सोऽनुभविष्यति॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सुमित्राके लिये तो निस्सन्देह सब कुछ ठीक ही होगा, क्योंकि लक्ष्मण रामके अनुगामी हैं इसलिये वे तो राज्य ही भोगेंगे॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतो राघवस्याग्रे किङ्करो वा भविष्यति।
विवास्यते वा नगरात्प्राणैर्वा हाप्यतेऽचिरात्॥ ६२॥
मूलम्
भरतो राघवस्याग्रे किङ्करो वा भविष्यति।
विवास्यते वा नगरात्प्राणैर्वा हाप्यतेऽचिरात्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु भरतको या तो रामका दास होकर रहना पड़ेगा या उन्हें शीघ्र ही नगरसे निकाल दिया जायगा अथवा उनका प्राणघात किया जायगा॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु दासीव कौसल्यां नित्यं परिचरिष्यसि।
ततोऽपि मरणं श्रेयो यत्सपत्न्याः पराभवः॥ ६३॥
मूलम्
त्वं तु दासीव कौसल्यां नित्यं परिचरिष्यसि।
ततोऽपि मरणं श्रेयो यत्सपत्न्याः पराभवः॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तुम्हें दासीके समान सदा कौसल्याकी सेवा करनी पड़ेगी। इस प्रकार सौतसे अपमानित होकर रहनेकी अपेक्षा तो मरना ही अच्छा है॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः शीघ्रं यतस्वाद्य भरतस्याभिषेचने।
रामस्य वनवासार्थं वर्षाणि नव पञ्च च॥ ६४॥
मूलम्
अतः शीघ्रं यतस्वाद्य भरतस्याभिषेचने।
रामस्य वनवासार्थं वर्षाणि नव पञ्च च॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अब तुम शीघ्र ही भरतके राज्याभिषेक और रामके चौदह वर्षतक वनवासके लिये प्रयत्न करो॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रूढोऽभये पुत्रस्तव राज्ञि भविष्यति।
उपायं ते प्रवक्ष्यामि पूर्वमेव सुनिश्चितम्॥ ६५॥
मूलम्
ततो रूढोऽभये पुत्रस्तव राज्ञि भविष्यति।
उपायं ते प्रवक्ष्यामि पूर्वमेव सुनिश्चितम्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रानी! ऐसा होनेपर तुम्हारे पुत्र भरत निष्कण्टक राज्यपदपर आरूढ़ हो जायँगे। इसके लिये मैंने जो पहलेसे ही सोच रखा है वह उपाय तुम्हें बताती हूँ॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा देवासुरे युद्धे राजा दशरथः स्वयम्।
इन्द्रेण याचितो धन्वी सहायार्थं महारथः॥ ६६॥
मूलम्
पुरा देवासुरे युद्धे राजा दशरथः स्वयम्।
इन्द्रेण याचितो धन्वी सहायार्थं महारथः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें देवासुर-संग्रामके समय स्वयं इन्द्रने धनुर्धर महारथी राजा दशरथसे सहायताके लिये प्रार्थना की थी॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगाम सेनया सार्धं त्वया सह शुभानने।
युद्धं प्रकुर्वतस्तस्य राक्षसैः सह धन्विनः॥ ६७॥
तदाक्षकीलो न्यपतच्छिन्नस्तस्य न वेद सः।
त्वं तु हस्तं समावेश्य कीलरन्ध्रेऽतिधैर्यतः॥ ६८॥
मूलम्
जगाम सेनया सार्धं त्वया सह शुभानने।
युद्धं प्रकुर्वतस्तस्य राक्षसैः सह धन्विनः॥ ६७॥
तदाक्षकीलो न्यपतच्छिन्नस्तस्य न वेद सः।
त्वं तु हस्तं समावेश्य कीलरन्ध्रेऽतिधैर्यतः॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सुमुखि! उस समय सेनाके सहित वे तुम्हें साथ लेकर वहाँ गये थे। जिस समय धनुर्धर महाराज दशरथ राक्षसोंसे युद्ध करनेमें निमग्न थे, उस समय उनके बिना जाने रथकी धुरीकी कील टूटकर गिर गयी, तब अत्यन्त धैर्यपूर्वक तुमने अपना हाथ उस कीलके छिद्रमें लगा दिया॥ ६७-६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थितवत्यसितापाङ्गि पतिप्राणपरीप्सया।
ततो हत्वासुरान्सर्वान् ददर्श त्वामरिन्दमः॥ ६९॥
मूलम्
स्थितवत्यसितापाङ्गि पतिप्राणपरीप्सया।
ततो हत्वासुरान्सर्वान् ददर्श त्वामरिन्दमः॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे कृष्णाक्षि! पतिकी प्राणरक्षाके लिये तुम बहुत देरतक इसी स्थितिमें रही। तदनन्तर समस्त दैत्योंको मार चुकनेपर शत्रुदमन महाराज दशरथने तुम्हें देखा॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्चर्यं परमं लेभे त्वामालिङ्ग्य मुदान्वितः।
वृणीष्व यत्ते मनसि वाञ्छितं वरदोऽस्म्यहम्॥ ७०॥
मूलम्
आश्चर्यं परमं लेभे त्वामालिङ्ग्य मुदान्वितः।
वृणीष्व यत्ते मनसि वाञ्छितं वरदोऽस्म्यहम्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हें ऐसी स्थिति में देखकर उन्हें अति आश्चर्य हुआ और अति प्रसन्नतासे तुम्हें गले लगाकर वे बोले—‘‘मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ, जो इच्छा हो सो माँग लो॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरद्वयं वृणीष्व त्वमेवं राजावदत्स्वयम्।
त्वयोक्तो वरदो राजन्यदि दत्तं वरद्वयम्॥ ७१॥
मूलम्
वरद्वयं वृणीष्व त्वमेवं राजावदत्स्वयम्।
त्वयोक्तो वरदो राजन्यदि दत्तं वरद्वयम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय तुम दो वर माँग सकती हो।’’ राजाके इस प्रकार कहनेपर तुमने कहा—‘‘राजन्! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे दो वर देना चाहते हैं॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वय्येव तिष्ठतु चिरं न्यासभूतं ममानघ।
यदा मेऽवसरो भूयात्तदा देहि वरद्वयम्॥ ७२॥
मूलम्
त्वय्येव तिष्ठतु चिरं न्यासभूतं ममानघ।
यदा मेऽवसरो भूयात्तदा देहि वरद्वयम्॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तो हे अनघ! मेरी यह धरोहर बहुत समयतक आप ही रखिये, जिस समय इनका अवसर आवे उस समय आप ये दोनों वर मुझे दे दीजियेगा’’॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा स्वयं राजा मन्दिरं व्रज सुव्रते।
त्वत्तः श्रुतं मया पूर्वमिदानीं स्मृतिमागतम्॥ ७३॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा स्वयं राजा मन्दिरं व्रज सुव्रते।
त्वत्तः श्रुतं मया पूर्वमिदानीं स्मृतिमागतम्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर तुमसे कहा— ‘हे सुव्रते! अब घर चलो।’ महारानीजी! यह सम्पूर्ण वृत्तान्त पहले तुम्हींसे मैंने सुना था, इस समय मुझे यह स्मरण हो आया है॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः शीघ्रं प्रविश्याद्य क्रोधागारं रुषान्विता।
विमुच्य सर्वाभरणं सर्वतो विनिकीर्य च।
भूमावेव शयाना त्वं तूष्णीमातिष्ठ भामिनि॥ ७४॥
यावत्सत्यं प्रतिज्ञाय राजाभीष्टं करोति ते।
श्रुत्वा त्रिवक्रयोक्तं तत्तदा केकयनन्दिनी॥ ७५॥
तथ्यमेवाखिलं मेने दुःसङ्गाहितविभ्रमा।
तामाह कैकेयी दुष्टा कुतस्ते बुद्धिरीदृशी॥ ७६॥
मूलम्
अतः शीघ्रं प्रविश्याद्य क्रोधागारं रुषान्विता।
विमुच्य सर्वाभरणं सर्वतो विनिकीर्य च।
भूमावेव शयाना त्वं तूष्णीमातिष्ठ भामिनि॥ ७४॥
यावत्सत्यं प्रतिज्ञाय राजाभीष्टं करोति ते।
श्रुत्वा त्रिवक्रयोक्तं तत्तदा केकयनन्दिनी॥ ७५॥
तथ्यमेवाखिलं मेने दुःसङ्गाहितविभ्रमा।
तामाह कैकेयी दुष्टा कुतस्ते बुद्धिरीदृशी॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे भामिनि! अब तुम शीघ्र ही रोषपूर्वक कोपभवनमें जाओ और अपने समस्त आभूषण उतारकर इधर-उधर बखेर दो तथा जबतक सत्य प्रतिज्ञापूर्वक राजा तुम्हारा अभीष्ट कार्य करनेको तत्पर न हों तबतक चुपचाप पृथिवीपर पड़ी रहो’’। त्रिवक्रा मन्थराकी ये बातें सुनकर दुःसंगवश बुद्धि भ्रष्ट हो जानेके कारण दुष्टा कैकेयीने उससमय उसका कथन सर्वथा ठीक मान लिया और उससे कहा—‘‘तुझमें ऐसी बुद्धि कहाँसे आ गयी?॥ ७४—७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं त्वां बुद्धिसम्पन्नां न जाने वक्रसुन्दरि।
भरतो यदि राजा मे भविष्यति सुतः प्रियः॥ ७७॥
ग्रामान् शतं प्रदास्यामि मम त्वं प्राणवल्लभा।
इत्युक्त्वा कोपभवनं प्रविश्य सहसा रुषा॥ ७८॥
मूलम्
एवं त्वां बुद्धिसम्पन्नां न जाने वक्रसुन्दरि।
भरतो यदि राजा मे भविष्यति सुतः प्रियः॥ ७७॥
ग्रामान् शतं प्रदास्यामि मम त्वं प्राणवल्लभा।
इत्युक्त्वा कोपभवनं प्रविश्य सहसा रुषा॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरी बाँकी सुन्दरी! मैं तुझे इतनी बुद्धिमती नहीं जानती थी! यदि मेरा प्रिय पुत्र भरत राजा हो गया तो मैं तुझे सौ गाँव दूँगी; तू तो मुझे प्राणोंके समान प्यारी है।’ ऐसा कहकर कैकेयीने रोषपूर्वक कोपभवनमें प्रवेश किया॥ ७७-७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुच्य सर्वाभरणं परिकीर्य समन्ततः।
भूमौ शयाना मलिना मलिनाम्बरधारिणी॥ ७९॥
प्रोवाच शृणु मे कुब्जे यावद्रामो वनं व्रजेत्।
प्राणांस्त्यक्ष्येऽथ वा वक्रे शयिष्ये तावदेव हि॥ ८०॥
मूलम्
विमुच्य सर्वाभरणं परिकीर्य समन्ततः।
भूमौ शयाना मलिना मलिनाम्बरधारिणी॥ ७९॥
प्रोवाच शृणु मे कुब्जे यावद्रामो वनं व्रजेत्।
प्राणांस्त्यक्ष्येऽथ वा वक्रे शयिष्ये तावदेव हि॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अपने सब आभूषण उतारकर इधर-उधर बखेर दिये तथा मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर अति मलिन दशामें पृथिवीमें पड़कर बोली,—‘‘अरी कुब्जे! सुन, जबतक राम वनको न जायँगे, प्राण भले ही छूट जायँ, मैं इसी प्रकार पड़ी रहूँगी’’॥ ७९-८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चयं कुरु कल्याणि कल्याणं ते भविष्यति।
इत्युक्त्वा प्रययौ कुब्जा गृहं सापि तथाकरोत्॥ ८१॥
मूलम्
निश्चयं कुरु कल्याणि कल्याणं ते भविष्यति।
इत्युक्त्वा प्रययौ कुब्जा गृहं सापि तथाकरोत्॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुब्जा यह समझाकर कि ‘हे कल्याणि! तुम निस्सन्देह ऐसा ही करना, इससे अवश्य तुम्हारा कल्याण होगा—अपने घर चली गयी और कैकेयीने भी वैसा ही किया॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धीरोऽत्यन्तदयान्वितोऽपि सगुणा-
चारान्वितो वाथवा
नीतिज्ञो विधिवाददेशिकपरो
विद्याविवेकोऽथवा।
दुष्टानामतिपापभावितधियां
सङ्गं सदा चेद्भजे-
त्तद्बुद्ध्या परिभावितो व्रजति तत्
साम्यं क्रमेण स्फुटम्॥ ८२॥
मूलम्
धीरोऽत्यन्तदयान्वितोऽपि सगुणा-
चारान्वितो वाथवा
नीतिज्ञो विधिवाददेशिकपरो
विद्याविवेकोऽथवा।
दुष्टानामतिपापभावितधियां
सङ्गं सदा चेद्भजे-
त्तद्बुद्ध्या परिभावितो व्रजति तत्
साम्यं क्रमेण स्फुटम्॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच है, कोई पुरुष अत्यन्त धैर्यवान्, दयालु, सद्गुणी, सदाचारी, नीतिज्ञ, कर्तव्यनिष्ठ और गुरुका भक्त अथवा विद्या-विवेक-सम्पन्न भी क्यों न हो, यदि निरन्तर अत्यन्त पापबुद्धि दुष्ट पुरुषोंका संग करेगा तो अवश्य ही क्रमशः उन्हींकी बुद्धिसे प्रभावित होकर उन्हींके समान हो जायगा॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः सङ्गः परित्याज्यो दुष्टानां सर्वदैव हि।
दुःसङ्गी च्यवते स्वार्थाद्यथेयं राजकन्यका॥ ८३॥
मूलम्
अतः सङ्गः परित्याज्यो दुष्टानां सर्वदैव हि।
दुःसङ्गी च्यवते स्वार्थाद्यथेयं राजकन्यका॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये सदा ही दुष्ट पुरुषोंका संग छोड़ना चाहिये, क्योंकि दुःसंगसे पुरुष इस राजकन्या (कैकेयी)-के समान ही पुरुषार्थच्युत हो जाता है॥ ८३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥