०१

[प्रथम सर्ग]

भागसूचना

भगवान् रामके पास नारदजीका आना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा सुखमासीनं रामं स्वान्तःपुराजिरे।
सर्वाभरणसंपन्नं रत्नसिंहासने स्थितम्॥ १॥

मूलम्

एकदा सुखमासीनं रामं स्वान्तःपुराजिरे।
सर्वाभरणसंपन्नं रत्नसिंहासने स्थितम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! एक दिन जब सर्वालंकारविभूषित श्रीरामचन्द्रजी अपने अन्तःपुरके आँगनमें एक रत्नसिंहासनपर सुखपूर्वक बैठे हुए थे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलोत्पलदलश्यामं कौस्तुभामुक्तकन्धरम्।
सीतया रत्नदण्डेन चामरेणाथ वीजितम्॥ २॥

मूलम्

नीलोत्पलदलश्यामं कौस्तुभामुक्तकन्धरम्।
सीतया रत्नदण्डेन चामरेणाथ वीजितम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जिस समय नीलोत्पलदलश्याम कौस्तुभमणिमण्डित उन रघुनाथजीपर श्रीसीताजी रत्नदण्डयुक्त चँवर डुला रही थीं॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनोदयन्तं ताम्बूलचर्वणादिभिरादरात्।
नारदोऽवतरद्‍द्रष्टुमम्बराद्यत्र राघवः॥ ३॥

मूलम्

विनोदयन्तं ताम्बूलचर्वणादिभिरादरात्।
नारदोऽवतरद्‍द्रष्टुमम्बराद्यत्र राघवः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वे आदरपूर्वक दिये हुए ताम्बूल-चर्वणादिसे आनन्दित हो रहे थे, उसी समय उन्हें देखनेके लिये देवर्षि नारदजी आकाशसे उतरे॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धस्फटिकसङ्काशः शरच्चन्द्र इवामलः।
अतर्कितमुपायातो नारदो दिव्यदर्शनः॥ ४॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय रामः प्रीत्या कृताञ्जलिः।
ननाम शिरसा भूमौ सीतया सह भक्तिमान्॥ ५॥

मूलम्

शुद्धस्फटिकसङ्काशः शरच्चन्द्र इवामलः।
अतर्कितमुपायातो नारदो दिव्यदर्शनः॥ ४॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय रामः प्रीत्या कृताञ्जलिः।
ननाम शिरसा भूमौ सीतया सह भक्तिमान्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्ध स्फटिक मणिके समान स्वच्छ और शरच्चन्द्रके समान निर्मल दिव्यमूर्ति श्रीनारदजीको इस प्रकार अचानक आते देख भगवान् राम सहसा उठ खड़े हुए और सीताजीके सहित प्रेम और भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर पृथिवीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया॥ ४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच नारदं रामः प्रीत्या परमया युतः।
संसारिणां मुनिश्रेष्ठ दुर्लभं तव दर्शनम्।
अस्माकं विषयासक्तचेतसां नितरां मुने॥ ६॥
अवाप्तं मे पूर्वजन्मकृतपुण्यमहोदयैः।
संसारिणापि हि मुने लभ्यते सत्समागमः॥ ७॥

मूलम्

उवाच नारदं रामः प्रीत्या परमया युतः।
संसारिणां मुनिश्रेष्ठ दुर्लभं तव दर्शनम्।
अस्माकं विषयासक्तचेतसां नितरां मुने॥ ६॥
अवाप्तं मे पूर्वजन्मकृतपुण्यमहोदयैः।
संसारिणापि हि मुने लभ्यते सत्समागमः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भगवान् रामने परम प्रीतिपूर्वक नारदजीसे कहा—‘‘हे मुनिश्रेष्ठ! हम-जैसे विषयासक्त संसारी मनुष्योंके लिये आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। हे मुने! आज अपने पूर्वजन्म-कृत पुण्य-पुंजके उदय होनेसे ही मुझे आपका दर्शन हुआ है, क्योंकि हे मुने! पुण्योदय होनेपर संसारी पुरुषको भी सत्संग प्राप्त हो जाता है॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्त्वद्दर्शनादेव कृतार्थोऽस्मि मुनीश्वर।
किं कार्यं ते मया कार्यं ब्रूहि तत्करवाणि भोः॥ ८॥

मूलम्

अतस्त्वद्दर्शनादेव कृतार्थोऽस्मि मुनीश्वर।
किं कार्यं ते मया कार्यं ब्रूहि तत्करवाणि भोः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे मुनीश्वर! आज आपके दर्शनसे ही मैं कृतार्थ हो गया, अब मुझे आपका क्या कार्य करना होगा सो कहिये, उसे मैं (इस समय) पूर्ण करूँ’’॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तं नारदोऽप्याह राघवं भक्तवत्सलम्।
किं मोहयसि मां राम वाक्यैर्लोकानुसारिभिः॥ ९॥

मूलम्

अथ तं नारदोऽप्याह राघवं भक्तवत्सलम्।
किं मोहयसि मां राम वाक्यैर्लोकानुसारिभिः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नारदजीने भक्तवत्सल भगवान् रामसे कहा—‘‘हे राम! आप सामान्य मनुष्योंके-से इन वाक्योंसे मुझे क्यों मोहित कर रहे हैं॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसार्यहमिति प्रोक्तं सत्यमेतत्त्वया विभो।
जगतामादिभूता या सा माया गृहिणी तव॥ १०॥

मूलम्

संसार्यहमिति प्रोक्तं सत्यमेतत्त्वया विभो।
जगतामादिभूता या सा माया गृहिणी तव॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विभो! आपने जो यह कहा कि ‘मैं संसारी हूँ’ सो ठीक ही है, क्योंकि सम्पूर्ण संसारकी जो आदिकारण है वह माया आपकी गृहिणी है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्सन्निकर्षाज्जायन्ते तस्यां ब्रह्मादयः प्रजाः।
त्वदाश्रया सदा भाति माया या त्रिगुणात्मिका॥ ११॥
सूतेऽजस्रं शुक्लकृष्णलोहिताः सर्वदा प्रजाः।
लोकत्रयमहागेहे गृहस्थस्त्वमुदाहृतः॥ १२॥

मूलम्

त्वत्सन्निकर्षाज्जायन्ते तस्यां ब्रह्मादयः प्रजाः।
त्वदाश्रया सदा भाति माया या त्रिगुणात्मिका॥ ११॥
सूतेऽजस्रं शुक्लकृष्णलोहिताः सर्वदा प्रजाः।
लोकत्रयमहागेहे गृहस्थस्त्वमुदाहृतः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपकी सन्निधिमात्रसे ही उस मायासे ब्रह्मा आदि सब प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं, वह सत्त्व-रज-तमोमयी त्रिगुणात्मिका माया सदा आपके आश्रित होकर ही भासमान होती है तथा स्वगुणानुरूप शुक्ल, लोहित और कृष्णवर्ण प्रजा उत्पन्न करती है। इस त्रिलोकीरूप महागृहके आप गृहस्थ कहे गये हैं॥ ११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं विष्णुर्जानकी लक्ष्मीः शिवस्त्वं जानकी शिवा।
ब्रह्मा त्वं जानकी वाणी सूर्यस्त्वं जानकी प्रभा॥ १३॥

मूलम्

त्वं विष्णुर्जानकी लक्ष्मीः शिवस्त्वं जानकी शिवा।
ब्रह्मा त्वं जानकी वाणी सूर्यस्त्वं जानकी प्रभा॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप भगवान् विष्णु हैं और जानकीजी लक्ष्मीजी हैं; आप शिव हैं और जानकीजी पार्वती हैं। आप ब्रह्मा हैं और जानकीजी सरस्वती हैं तथा आप सूर्यदेव हैं और जानकीजी प्रभा हैं॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवान् शशाङ्कः सीता तु रोहिणी शुभलक्षणा।
शक्रस्त्वमेव पौलोमी सीता स्वाहानलो भवान्॥ १४॥

मूलम्

भवान् शशाङ्कः सीता तु रोहिणी शुभलक्षणा।
शक्रस्त्वमेव पौलोमी सीता स्वाहानलो भवान्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप चन्द्रमा हैं, शुभलक्षणा सीताजी रोहिणी हैं; आप इन्द्र हैं और सीता पुलोम-कन्या शची हैं तथा आप अग्नि हैं और सीताजी स्वाहा हैं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमस्त्वं कालरूपश्च सीता संयमिनी प्रभो।
निर्ऋतिस्त्वं जगन्नाथ तामसी जानकी शुभा॥ १५॥

मूलम्

यमस्त्वं कालरूपश्च सीता संयमिनी प्रभो।
निर्ऋतिस्त्वं जगन्नाथ तामसी जानकी शुभा॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आप सबके कालरूप यम हैं और सीता संयमिनी हैं, हे जगन्नाथ! आप निर्ऋति हैं और जानकीजी तामसी हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम त्वमेव वरुणो भार्गवी जानकी शुभा।
वायुस्त्वं राम सीता तु सदागतिरितीरिता॥ १६॥

मूलम्

राम त्वमेव वरुणो भार्गवी जानकी शुभा।
वायुस्त्वं राम सीता तु सदागतिरितीरिता॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप वरुण हैं और शुभलक्षणा जानकी भृगु-कन्या वारुणी हैं, आप वायु हैं तथा सीताजी सदागति हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुबेरस्त्वं राम सीता सर्वसंपत्प्रकीर्तिता।
रुद्राणी जानकी प्रोक्ता रुद्रस्त्वं लोकनाशकृत् ॥ १७॥

मूलम्

कुबेरस्त्वं राम सीता सर्वसंपत्प्रकीर्तिता।
रुद्राणी जानकी प्रोक्ता रुद्रस्त्वं लोकनाशकृत् ॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप कुबेर हैं और सीताजी उनकी सब सम्पत्ति हैं तथा आप लोकसंहारकारी रुद्र हैं और सीताजी रुद्राणी कहलाती हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोके स्त्रीवाचकं यावत्तत्सर्वं जानकी शुभा।
पुन्नामवाचकं यावत्तत्सर्वं त्वं हि राघव॥ १८॥
तस्माल्लोकत्रये देव युवाभ्यां नास्ति किञ्चन॥ १९॥

मूलम्

लोके स्त्रीवाचकं यावत्तत्सर्वं जानकी शुभा।
पुन्नामवाचकं यावत्तत्सर्वं त्वं हि राघव॥ १८॥
तस्माल्लोकत्रये देव युवाभ्यां नास्ति किञ्चन॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राघव! निस्सन्देह संसारमें जो कुछ पुरुषवाचक है वह सब आप हैं और स्त्रीवाचक सब श्रीजानकीजी हैं; अतः हे देव! त्रिलोकीमें आप दोनोंसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है॥ १८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वदाभासोदिताज्ञानमव्याकृतमितीर्यते।
तस्मान्महांस्ततः सूत्रं लिङ्गं सर्वात्मकं ततः॥ २०॥

मूलम्

त्वदाभासोदिताज्ञानमव्याकृतमितीर्यते।
तस्मान्महांस्ततः सूत्रं लिङ्गं सर्वात्मकं ततः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपहीके आभाससे प्रकट हुआ अज्ञान अव्याकृत कहलाता है, उससे महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे सूत्रात्मा (हिरण्यगर्भ) और सूत्रात्मासे सर्वात्मक लिंगदेह उत्पन्न होता है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहङ्कारश्च बुद्धिश्च पञ्चप्राणेन्द्रियाणि च।
लिङ्गमित्युच्यते प्राज्ञैर्जन्ममृत्युसुखादिमत्॥ २१॥

मूलम्

अहङ्कारश्च बुद्धिश्च पञ्चप्राणेन्द्रियाणि च।
लिङ्गमित्युच्यते प्राज्ञैर्जन्ममृत्युसुखादिमत्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहंकार, बुद्धि, पंचप्राण और दस इन्द्रियाँ इनके समूहको ही प्राज्ञजन जन्म, मृत्यु और सुख-दुःखादि धर्मोंवाला लिंगदेह बताते हैं॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव जीवसंज्ञश्च लोके भाति जगन्मयः।
अवाच्यानाद्यविद्यैव कारणोपाधिरुच्यते॥ २२॥

मूलम्

स एव जीवसंज्ञश्च लोके भाति जगन्मयः।
अवाच्यानाद्यविद्यैव कारणोपाधिरुच्यते॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह (लिंगदेहाभिमानी चेतनाभास) ही जगत् में तन्मय हुआ जीव नामसे विख्यात है। अनिर्वचनीय और अनादि अविद्या ही (इस जीवकी) कारण-उपाधि कही जाती है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थूलं सूक्ष्मं कारणाख्यमुपाधित्रितयं चितेः।
एतैर्विशिष्टो जीवः स्याद्वियुक्तः परमेश्वरः॥ २३॥

मूलम्

स्थूलं सूक्ष्मं कारणाख्यमुपाधित्रितयं चितेः।
एतैर्विशिष्टो जीवः स्याद्वियुक्तः परमेश्वरः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्ध चेतनकी स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीन उपाधियाँ हैं। इन उपाधियोंसे युक्त होनेसे वह जीव कहलाता है और इससे रहित होनेसे परमेश्वर कहा जाता है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या संसृतिर्या प्रवर्तते।
तस्या विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रस्त्वं रघूत्तम॥ २४॥

मूलम्

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या संसृतिर्या प्रवर्तते।
तस्या विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रस्त्वं रघूत्तम॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति—ऐसी जो तीन प्रकारकी सृष्टि है उससे आप विलक्षण हैं और उसके चेतनमात्र साक्षी हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्त एव जगज्जातं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
त्वय्येव लीयते कृत्स्नं तस्मात्त्वं सर्वकारणम्॥ २५॥

मूलम्

त्वत्त एव जगज्जातं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
त्वय्येव लीयते कृत्स्नं तस्मात्त्वं सर्वकारणम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है, आपहीमें स्थित है और आपहीमें लीन होता है। इसलिये आप ही सबके कारण हैं॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रज्जावहिमिवात्मानं जीवं ज्ञात्वा भयं भवेत्।
परात्माहमिति ज्ञात्वा भयदुःखैर्विमुच्यते॥ २६॥

मूलम्

रज्जावहिमिवात्मानं जीवं ज्ञात्वा भयं भवेत्।
परात्माहमिति ज्ञात्वा भयदुःखैर्विमुच्यते॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

रज्जुमें सर्प-भ्रमके समान अपनेको जीव माननेसे मनुष्यको भय होता है, पर वही जब यह समझ लेता है कि ‘मैं परमात्मा हूँ’ तो सम्पूर्ण भय और दुःखोंसे छूट जाता है॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्मात्रज्योतिषा सर्वाः सर्वदेहेषु बुद्धयः।
त्वया यस्मात्प्रकाश्यन्ते सर्वस्यात्मा ततो भवान्॥ २७॥

मूलम्

चिन्मात्रज्योतिषा सर्वाः सर्वदेहेषु बुद्धयः।
त्वया यस्मात्प्रकाश्यन्ते सर्वस्यात्मा ततो भवान्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि चिन्मात्र ज्योतिःस्वरूप आप ही सबके शरीरोंमें स्थित होकर उनकी बुद्धियोंको प्रकाशित कर रहे हैं इसलिये आप ही सबके आत्मा हैं॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानान्न्यस्यते सर्वं त्वयि रज्जौ भुजङ्गवत्।
त्वज्ज्ञानाल्लीयते सर्वं तस्माज्ज्ञानं सदाभ्यसेत्॥ २८॥

मूलम्

अज्ञानान्न्यस्यते सर्वं त्वयि रज्जौ भुजङ्गवत्।
त्वज्ज्ञानाल्लीयते सर्वं तस्माज्ज्ञानं सदाभ्यसेत्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रज्जुमें सर्प-भ्रमके समान अज्ञानसे ही आपमें सम्पूर्ण जगत् की कल्पना की जाती है, सो आपका ज्ञान होनेसे वह सब लीन हो जाती है। सुतरां मनुष्यको सदा ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्पादभक्तियुक्तानां विज्ञानं भवति क्रमात्।
तस्मात्त्वद्भक्तियुक्ता ये मुक्तिभाजस्त एव हि॥ २९॥

मूलम्

त्वत्पादभक्तियुक्तानां विज्ञानं भवति क्रमात्।
तस्मात्त्वद्भक्तियुक्ता ये मुक्तिभाजस्त एव हि॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके चरण-कमलोंकी भक्तिसे युक्त पुरुषोंको ही क्रमशः ज्ञानकी प्राप्ति होती है, अतः जो पुरुष आपकी भक्तिसे युक्त हैं वे ही वास्तवमें मुक्तिके पात्र हैं॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वद्भक्तभक्तानां तद्भक्तानां च किङ्करः।
अतो मामनुगृह्णीष्व मोहयस्व न मां प्रभो॥ ३०॥

मूलम्

अहं त्वद्भक्तभक्तानां तद्भक्तानां च किङ्करः।
अतो मामनुगृह्णीष्व मोहयस्व न मां प्रभो॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मैं आपके भक्तोंके भक्त और उनके भी भक्तोंका दास हूँ, अतः आप मुझे मोहित न कर मुझपर अनुग्रह कीजिये॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा मे जनकः प्रभो।
अतस्तवाहं पौत्रोऽस्मि भक्तं मां पाहि राघव॥ ३१॥

मूलम्

त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा मे जनकः प्रभो।
अतस्तवाहं पौत्रोऽस्मि भक्तं मां पाहि राघव॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजी मेरे पिता हैं, अतः मैं आपका पौत्र हूँ। हे राघव! आप मुझ भक्तकी रक्षा कीजिये’’॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा बहुशो नत्वा स्वानन्दाश्रुपरिप्लुतः।
उवाच वचनं राम ब्रह्मणा नोदितोऽस्म्यहम्॥ ३२॥
रावणस्य वधार्थाय जातोऽसि रघुसत्तम।
इदानीं राज्यरक्षार्थं पिता त्वामभिषेक्ष्यति॥ ३३॥

मूलम्

इत्युक्त्वा बहुशो नत्वा स्वानन्दाश्रुपरिप्लुतः।
उवाच वचनं राम ब्रह्मणा नोदितोऽस्म्यहम्॥ ३२॥
रावणस्य वधार्थाय जातोऽसि रघुसत्तम।
इदानीं राज्यरक्षार्थं पिता त्वामभिषेक्ष्यति॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कहकर और बारम्बार प्रणाम कर श्रीनारदजीने नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भरकर कहा—‘‘हे रघुश्रेष्ठ! मुझे ब्रह्माजीने आपके पास भेजा है; आपका अवतार रावणका वध करनेके लिये हुआ है, किन्तु अब पिता दशरथ आपको राज्यशासनके लिये अभिषिक्त करनेवाले हैं॥ ३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि राज्याभिसंसक्तो रावणं न हनिष्यसि।
प्रतिज्ञा ते कृता राम भूभारहरणाय वै॥ ३४॥
तत्सत्यं कुरु राजेन्द्र सत्यसंधस्त्वमेव हि।
श्रुत्वैतद्गदितं रामो नारदं प्राह सस्मितम्॥ ३५॥

मूलम्

यदि राज्याभिसंसक्तो रावणं न हनिष्यसि।
प्रतिज्ञा ते कृता राम भूभारहरणाय वै॥ ३४॥
तत्सत्यं कुरु राजेन्द्र सत्यसंधस्त्वमेव हि।
श्रुत्वैतद्गदितं रामो नारदं प्राह सस्मितम्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! यदि राज्यमें आसक्त होकर आप रावणको न मारेंगे तो पृथिवीका भार उतारनेके लिये जो आपने प्रतिज्ञा की थी उसका क्या होगा! अतः हे राजेन्द्र! आप उसे सत्य कीजिये; क्योंकि आप सत्यप्रतिज्ञ ही हैं’’। नारदजीके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने मुसकराकर कहा—॥ ३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु नारद मे किञ्चिद्विद्यतेऽविदितं क्वचित्।
प्रतिज्ञातं च यत्पूर्वं करिष्ये तन्न संशयः॥ ३६॥

मूलम्

शृणु नारद मे किञ्चिद्विद्यतेऽविदितं क्वचित्।
प्रतिज्ञातं च यत्पूर्वं करिष्ये तन्न संशयः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘नारदजी! सुनिये, क्या कोई ऐसी बात भी है जिसे मैं न जानता होऊँ! मैंने पहले जो कुछ प्रतिज्ञा की है वह मैं निस्सन्देह पूर्ण करूँगा॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्तु कालानुरोधेन तत्तत्प्रारब्धसंक्षयात्।
हरिष्ये सर्वभूभारं क्रमेणासुरमण्डलम्॥ ३७॥

मूलम्

किन्तु कालानुरोधेन तत्तत्प्रारब्धसंक्षयात्।
हरिष्ये सर्वभूभारं क्रमेणासुरमण्डलम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु कालक्रमसे जिन-जिनका प्रारब्ध क्षीण होता जायगा, उन-उन दैत्योंको ही मारकर मैं क्रमशः पृथिवीका भार उतारूँगा॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्य विनाशार्थं श्वो गन्ता दण्डकाननम्।
चतुर्दश समास्तत्र ह्युषित्वा मुनिवेषधृक्॥ ३८॥
सीतामिषेण तं दुष्टं सकुलं नाशयाम्यहम्।
एवं रामे प्रतिज्ञाते नारदः प्रमुमोद ह॥ ३९॥

मूलम्

रावणस्य विनाशार्थं श्वो गन्ता दण्डकाननम्।
चतुर्दश समास्तत्र ह्युषित्वा मुनिवेषधृक्॥ ३८॥
सीतामिषेण तं दुष्टं सकुलं नाशयाम्यहम्।
एवं रामे प्रतिज्ञाते नारदः प्रमुमोद ह॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणका वध करनेके लिये मैं कल दण्डकारण्यको जाऊँगा और वहाँ चौदह वर्ष मुनिवेष धारण कर रहूँगा। उस दुष्टको सीता-हरणके मिषसे मैं कुटुम्बके सहित नष्ट कर दूँगा।’’ रामचन्द्रजीके इस प्रकार प्रतिज्ञा करनेपर नारदजी अति प्रसन्न हुए॥ ३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदक्षिणत्रयं कृत्वा दण्डवत्प्रणिपत्य तम्।
अनुज्ञातश्च रामेण ययौ देवगतिं मुनिः॥ ४०॥

मूलम्

प्रदक्षिणत्रयं कृत्वा दण्डवत्प्रणिपत्य तम्।
अनुज्ञातश्च रामेण ययौ देवगतिं मुनिः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्होंने रामजीकी तीन परिक्रमाएँ कीं और उन्हें दण्डवत्-प्रणाम कर उनकी आज्ञा ले आकाश-मार्गसे देवलोकको चले गये॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवादं पठति शृणोति संस्मरेद्वा
यो नित्यं मुनिवररामयोः स भक्त्या।
संप्राप्नोत्यमरसुदुर्लभं विमोक्षं
कैवल्यं विरतिपुरःसरं क्रमेण॥ ४१॥

मूलम्

संवादं पठति शृणोति संस्मरेद्वा
यो नित्यं मुनिवररामयोः स भक्त्या।
संप्राप्नोत्यमरसुदुर्लभं विमोक्षं
कैवल्यं विरतिपुरःसरं क्रमेण॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य नारद और रामचन्द्रजीके इस संवादको नित्य भक्तिपूर्वक पढ़ता, सुनता या स्मरण करता है वह वैराग्यपूर्वक क्रमशः देवताओंको अत्यन्त दुर्लभ कैवल्य मोक्षपद प्राप्त कर लेता है॥ ४१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे प्रथमः सर्गः॥ १॥