०७

[सप्तम सर्ग]

भागसूचना

परशुरामजीसे भेंट

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ गच्छति श्रीरामे मैथिलाद्योजनत्रयम्।
निमित्तान्यतिघोराणि ददर्श नृपसत्तमः॥ १॥

मूलम्

अथ गच्छति श्रीरामे मैथिलाद्योजनत्रयम्।
निमित्तान्यतिघोराणि ददर्श नृपसत्तमः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—श्रीरामचन्द्रजीके मिथिलापुरीसे तीन योजन चले जानेपर नृपश्रेष्ठ दशरथजीने अत्यन्त घोर अपशकुन देखे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नत्वा वसिष्ठं पप्रच्छ किमिदं मुनिपुङ्गव।
निमित्तानीह दृश्यन्ते विषमाणि समन्ततः॥ २॥

मूलम्

नत्वा वसिष्ठं पप्रच्छ किमिदं मुनिपुङ्गव।
निमित्तानीह दृश्यन्ते विषमाणि समन्ततः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने वसिष्ठजीको प्रणाम करके पूछा—‘‘मुनिश्रेष्ठ! क्या कारण है कि चारों ओर भयंकर अपशकुन दिखायी दे रहे हैं?’’॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठस्तमथ प्राह भयमागामि सूच्यते।
पुनरप्यभयं तेऽद्य शीघ्रमेव भविष्यति॥ ३॥

मूलम्

वसिष्ठस्तमथ प्राह भयमागामि सूच्यते।
पुनरप्यभयं तेऽद्य शीघ्रमेव भविष्यति॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा—‘‘इन अपशकुनोंसे किसी आगामी भयकी सूचना होती है, किन्तु (साथ ही यह भी सूचित होता है कि) फिर शीघ्र ही अभय प्राप्त होगा॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगाः प्रदक्षिणं यान्ति पश्य त्वां शुभसूचकाः।
इत्येवं वदतस्तस्य ववौ घोरतरोऽनिलः॥ ४॥

मूलम्

मृगाः प्रदक्षिणं यान्ति पश्य त्वां शुभसूचकाः।
इत्येवं वदतस्तस्य ववौ घोरतरोऽनिलः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि देखो तुम्हारी दायीं ओर शुभसूचक मृगगण जा रहे हैं।’’ वसिष्ठजीके ऐसा कहते ही बड़ा प्रचण्ड वायु चलने लगा॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुष्णंश्चक्षूंषि सर्वेषां पांसुवृष्टिभिरर्दयन्।
ततो व्रजन्ददर्शाग्रे तेजोराशिमुपस्थितम्॥ ५॥

मूलम्

मुष्णंश्चक्षूंषि सर्वेषां पांसुवृष्टिभिरर्दयन्।
ततो व्रजन्ददर्शाग्रे तेजोराशिमुपस्थितम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने धूलि बरसाकर सबके नेत्रोंको मूँद दिया। फिर उन्होंने चलते-चलते तेजका पुंज अपने सम्मुख उपस्थित हुआ देखा॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटिसूर्यप्रतीकाशं विद्युत्पुञ्जसमप्रभम्।
तेजोराशिं ददर्शाथ जामदग्न्यं प्रतापवान्॥ ६॥
नीलमेघनिभं प्रांशुं जटामण्डलमण्डितम्।
धनुःपरशुपाणिं च साक्षात्कालमिवान्तकम्॥ ७॥

मूलम्

कोटिसूर्यप्रतीकाशं विद्युत्पुञ्जसमप्रभम्।
तेजोराशिं ददर्शाथ जामदग्न्यं प्रतापवान्॥ ६॥
नीलमेघनिभं प्रांशुं जटामण्डलमण्डितम्।
धनुःपरशुपाणिं च साक्षात्कालमिवान्तकम्॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने करोड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी, विद्युत्-पुंजके समान प्रभा-सम्पन्न, महाप्रतापी, तेजोराशि, नील-मेघकी-सी आभावाले, उन्नतकाय, जटा-जूटधारी, हाथमें धनुष और परशु लिये, प्राणियोंका नाश करनेवाले साक्षात् कालके समान परशुरामजीको आते देखा॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तवीर्यान्तकं रामं दृप्तक्षत्रियमर्दनम्।
प्राप्तं दशरथस्याग्रे कालमृत्युमिवापरम्॥ ८॥

मूलम्

कार्तवीर्यान्तकं रामं दृप्तक्षत्रियमर्दनम्।
प्राप्तं दशरथस्याग्रे कालमृत्युमिवापरम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा कि कार्तवीर्यका वध करनेवाले और गर्वीले क्षत्रियोंका मान मर्दन करनेवाले परशुरामजी जो दूसरे यमराजके समान हैं, महाराज दशरथके सामने खड़े हैं॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा भयसन्त्रस्तो राजा दशरथस्तदा।
अर्घ्यादिपूजां विस्मृत्य त्राहि त्राहीति चाब्रवीत्॥ ९॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा भयसन्त्रस्तो राजा दशरथस्तदा।
अर्घ्यादिपूजां विस्मृत्य त्राहि त्राहीति चाब्रवीत्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महाराज दशरथ उन्हें देखते ही भयभीत हो गये और अर्घ्यादिसे उनकी पूजा करना भूलकर ‘रक्षा करो, रक्षा करो’—ऐसा कहकर पुकारने लगे और दण्डवत्-प्रणाम करके बोले—‘मुझे पुत्रके प्राणोंका दान दीजिये’॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डवत्प्रणिपत्याह पुत्रप्राणं प्रयच्छ मे।
इति ब्रुवन्तं राजानमनादृत्य रघूत्तमम्॥ १०॥
उवाच निष्ठुरं वाक्यं क्रोधात्प्रचलितेन्द्रियः।
त्वं राम इति नाम्ना मे चरसि क्षत्रियाधम॥ ११॥

मूलम्

दण्डवत्प्रणिपत्याह पुत्रप्राणं प्रयच्छ मे।
इति ब्रुवन्तं राजानमनादृत्य रघूत्तमम्॥ १०॥
उवाच निष्ठुरं वाक्यं क्रोधात्प्रचलितेन्द्रियः।
त्वं राम इति नाम्ना मे चरसि क्षत्रियाधम॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रार्थना करते हुए राजाकी ओर कुछ भी ध्यान न देकर उन्होंने क्रोधसे व्याकुल हो कठोर वाणीसे रघूत्तम श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—‘‘अरे क्षत्रियाधम! तू मेरे ही समान ‘राम’ नामसे विख्यात होकर पृथ्वीमें विचरता है॥ १०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वन्द्वयुद्धं प्रयच्छाशु यदि त्वं क्षत्रियोऽसि वै।
पुराणं जर्जरं चापं भङ्‍क्तवा त्वं कत्थसे मुधा॥ १२॥

मूलम्

द्वन्द्वयुद्धं प्रयच्छाशु यदि त्वं क्षत्रियोऽसि वै।
पुराणं जर्जरं चापं भङ्‍क्तवा त्वं कत्थसे मुधा॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सो यदि तू वास्तवमें क्षत्रिय है तो मेरे साथ द्वन्द्वयुद्ध कर; एक पुराने जीर्ण-शीर्ण धनुषको तोड़कर व्यर्थ ही अपनी प्रशंसा कर रहा है?॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिंस्तु वैष्णवे चाप आरोपयसि चेद्‍गुणम्।
तदा युद्धं त्वया सार्धं करोमि रघुवंशज॥ १३॥

मूलम्

अस्मिंस्तु वैष्णवे चाप आरोपयसि चेद्‍गुणम्।
तदा युद्धं त्वया सार्धं करोमि रघुवंशज॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे रघुकुलोत्पन्न! यदि तू इस वैष्णव धनुषपर रोंदा चढ़ा देगा तो मैं तेरे साथ युद्ध करूँगा॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नो चेत्सर्वान्हनिष्यामि क्षत्रियान्तकरो ह्यहम्।
इति ब्रुवति वै तस्मिंश्चचाल वसुधा भृशम्॥ १४॥

मूलम्

नो चेत्सर्वान्हनिष्यामि क्षत्रियान्तकरो ह्यहम्।
इति ब्रुवति वै तस्मिंश्चचाल वसुधा भृशम्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो मैं अभी सबको मार डालूँगा; क्योंकि क्षत्रियोंका अन्त करना तो मेरा काम ही है।’’ परशुरामजीके ऐसा कहनेपर पृथ्वी बारम्बार काँपने लगी॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्धकारो बभूवाथ सर्वेषामपि चक्षुषाम्।
रामो दाशरथिर्वीरो वीक्ष्य तं भार्गवं रुषा॥ १५॥
धनुराच्छिद्य तद्धस्तादारोप्य गुणमञ्जसा।
तूणीराद्‍बाणमादाय संधायाकृष्य वीर्यवान्॥ १६॥
उवाच भार्गवं रामं शृणु ब्रह्मन्वचो मम।
लक्ष्यं दर्शय बाणस्य ह्यमोघो मम सायकः॥ १७॥

मूलम्

अन्धकारो बभूवाथ सर्वेषामपि चक्षुषाम्।
रामो दाशरथिर्वीरो वीक्ष्य तं भार्गवं रुषा॥ १५॥
धनुराच्छिद्य तद्धस्तादारोप्य गुणमञ्जसा।
तूणीराद्‍बाणमादाय संधायाकृष्य वीर्यवान्॥ १६॥
उवाच भार्गवं रामं शृणु ब्रह्मन्वचो मम।
लक्ष्यं दर्शय बाणस्य ह्यमोघो मम सायकः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सबके नेत्रोंके सामने अन्धकार छा गया। तब दशरथ-नन्दन वीरवर रामने परशुरामजीकी ओर रोषपूर्वक देखते हुए उनके हाथसे धनुष छीन लिया और उसपर अनायास ही रोंदा चढ़ाकर अपने तरकशसे बाण निकालकर उसपर रखा और उसे खींचकर भृगुनन्दन परशुरामजीसे कहा—‘‘ब्रह्मन्! मेरी बात सुनो, मेरा बाण अमोघ है—यह व्यर्थ नहीं जाता। इसके लिये शीघ्र ही लक्ष्य दिखाओ॥ १५—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकान्पादयुगं वापि वद शीघ्रं ममाज्ञया।
अयं लोकः परो वाथ त्वया गन्तुं न शक्यते॥ १८॥
एवं त्वं हि प्रकर्तव्यं वद शीघ्रं ममाज्ञया।
एवं वदति श्रीरामे भार्गवो विकृताननः॥ १९॥

मूलम्

लोकान्पादयुगं वापि वद शीघ्रं ममाज्ञया।
अयं लोकः परो वाथ त्वया गन्तुं न शक्यते॥ १८॥
एवं त्वं हि प्रकर्तव्यं वद शीघ्रं ममाज्ञया।
एवं वदति श्रीरामे भार्गवो विकृताननः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अपने पुण्यसे जीते हुए) लोक अथवा अपने चरण—इन दोनोंमेंसे मेरी आज्ञासे शीघ्र ही किसी एकको बताओ। (उसीको इस बाणसे बेध डालूँगा) अब तुम इस लोक या परलोकमें कहीं नहीं जा सकते अब तुम्हारे साथ मेरा जो कुछ कर्तव्य है वह तुम मेरी आज्ञासे शीघ्र ही बताओ’’। रामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर भृगुनन्दन परशुरामजीका मुख मलिन हो गया॥ १८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्मरन्पूर्ववृत्तान्तमिदं वचनमब्रवीत्।
राम राम महाबाहो जाने त्वां परमेश्वरम्॥ २०॥

मूलम्

संस्मरन्पूर्ववृत्तान्तमिदं वचनमब्रवीत्।
राम राम महाबाहो जाने त्वां परमेश्वरम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने पूर्व वृत्तान्तको स्मरणकर यह कहा—‘‘हे राम! हे राम! हे महाबाहो! मैंने आप परमेश्वरको जान लिया॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणपुरुषं विष्णुं जगत्सर्गलयोद्भवम्।
बाल्येऽहं तपसा विष्णुमाराधयितुमञ्जसा॥ २१॥
चक्रतीर्थं शुभं गत्वा तपसा विष्णुमन्वहम्।
अतोषयं महात्मानं नारायणमनन्यधीः॥ २२॥

मूलम्

पुराणपुरुषं विष्णुं जगत्सर्गलयोद्भवम्।
बाल्येऽहं तपसा विष्णुमाराधयितुमञ्जसा॥ २१॥
चक्रतीर्थं शुभं गत्वा तपसा विष्णुमन्वहम्।
अतोषयं महात्मानं नारायणमनन्यधीः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप साक्षात् संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण, पुराण-पुरुष भगवान् विष्णु हैं! मैं बाल्यावस्थामें तपके द्वारा विष्णुभगवान् की आराधना करनेके लिये अकस्मात् परम पवित्र चक्रतीर्थमें पहुँचा और वहाँ प्रतिदिन अनन्यभावसे तपस्या करते हुए मैंने परमात्मा नारायण भगवान् विष्णुको प्रसन्न किया॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रसन्नो देवेशः शङ्खचक्रगदाधरः।
उवाच मां रघुश्रेष्ठ प्रसन्नमुखपङ्कजः॥ २३॥

मूलम्

ततः प्रसन्नो देवेशः शङ्खचक्रगदाधरः।
उवाच मां रघुश्रेष्ठ प्रसन्नमुखपङ्कजः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! उस समय शंख-चक्र-गदाधारी प्रसन्नवदन देवेश्वर विष्णुने मुझसे प्रसन्न होकर कहा—॥ २३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ तपसो ब्रह्मन्फलितं ते तपो महत्।
मच्चिदंशेन युक्तस्त्वं जहि हैहयपुङ्गवम्॥ २४॥
कार्तवीर्यं पितृहणं यदर्थं तपसः श्रमः।
ततस्त्रिःसप्तकृत्वस्त्वं हत्वा क्षत्रियमण्डलम्॥ २५॥

मूलम्

उत्तिष्ठ तपसो ब्रह्मन्फलितं ते तपो महत्।
मच्चिदंशेन युक्तस्त्वं जहि हैहयपुङ्गवम्॥ २४॥
कार्तवीर्यं पितृहणं यदर्थं तपसः श्रमः।
ततस्त्रिःसप्तकृत्वस्त्वं हत्वा क्षत्रियमण्डलम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले—हे ब्रह्मन्! तपस्या छोड़कर खड़े हो, तुम्हारा महान् तप सफल हो गया! तुम मेरे चिदंशसे युक्त होकर, जिसके लिये यह तपस्या करनेका कष्ट उठाया है उस पितृघाती हैहयश्रेष्ठ कार्तवीर्यका वध करो और फिर इक्कीस बार समस्त क्षत्रियोंको मारकर॥ २४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्स्नां भूमिं कश्यपाय दत्त्वा शान्तिमुपावह।
त्रेतामुखे दाशरथिर्भूत्वा रामोऽहमव्ययः॥ २६॥
उत्पत्स्ये परया शक्त्या तदा द्रक्ष्यसि मां ततः।
मत्तेजः पुनरादास्ये त्वयि दत्तं मया पुरा॥ २७॥

मूलम्

कृत्स्नां भूमिं कश्यपाय दत्त्वा शान्तिमुपावह।
त्रेतामुखे दाशरथिर्भूत्वा रामोऽहमव्ययः॥ २६॥
उत्पत्स्ये परया शक्त्या तदा द्रक्ष्यसि मां ततः।
मत्तेजः पुनरादास्ये त्वयि दत्तं मया पुरा॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण पृथिवी कश्यपजीको दे शान्ति लाभ करो। मैं अविनाशी परमात्मा त्रेतायुगमें दशरथके यहाँ ‘राम’ नामसे जन्म लूँगा। उस समय मेरी परमशक्ति (सीता)-के सहित तुम मुझे देखोगे। तब (पहले) इस समय तुम्हें दिया हुआ अपना तेज मैं फिर ग्रहण कर लूँगा॥ २६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा तपश्चरल्ँलोके तिष्ठ त्वं ब्रह्मणो दिनम्।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवस्तथा सर्वं कृतं मया॥ २८॥

मूलम्

तदा तपश्चरल्ँलोके तिष्ठ त्वं ब्रह्मणो दिनम्।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवस्तथा सर्वं कृतं मया॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तबसे तुम तपस्या करते हुए कल्पान्तपर्यन्त पृथिवीमें रहोगे। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये और मैंने जैसा उन्होंने कहा था वैसा ही किया॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव विष्णुस्त्वं राम जातोऽसि ब्रह्मणार्थितः।
मयि स्थितं तु त्वत्तेजस्त्वयैव पुनराहृतम्॥ २९॥

मूलम्

स एव विष्णुस्त्वं राम जातोऽसि ब्रह्मणार्थितः।
मयि स्थितं तु त्वत्तेजस्त्वयैव पुनराहृतम्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप वही विष्णु हैं। ब्रह्माकी प्रार्थनासे आपने जन्म लिया है। आपका जो तेज मुझमें स्थित था वह आज आपने फिर ले लिया॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य मे सफलं जन्म प्रतीतोऽसि मम प्रभो।
ब्रह्मादिभिरलभ्यस्त्वं प्रकृतेः पारगो मतः॥ ३०॥

मूलम्

अद्य मे सफलं जन्म प्रतीतोऽसि मम प्रभो।
ब्रह्मादिभिरलभ्यस्त्वं प्रकृतेः पारगो मतः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आज मेरा जन्म सफल हो गया जो मैंने आपको पहचान लिया; क्योंकि आप तो ब्रह्मा आदिसे भी अप्राप्य और प्रकृतिसे भी परे माने गये हैं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि जन्मादिषड्भावा न सन्त्यज्ञानसंभवाः।
निर्विकारोऽसि पूर्णस्त्वं गमनादिविवर्जितः॥ ३१॥

मूलम्

त्वयि जन्मादिषड्भावा न सन्त्यज्ञानसंभवाः।
निर्विकारोऽसि पूर्णस्त्वं गमनादिविवर्जितः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपमें अज्ञानजन्य जन्मादि छः भाव-विकार नहीं हैं तथा आप गमनादिसे रहित निर्विकार और पूर्ण हैं॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जले फेनजालं धूमो वह्नौ तथा त्वयि।
त्वदाधारा त्वद्विषया माया कार्यं सृजत्यहो॥ ३२॥

मूलम्

यथा जले फेनजालं धूमो वह्नौ तथा त्वयि।
त्वदाधारा त्वद्विषया माया कार्यं सृजत्यहो॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! जलके फेन-समूह और अग्निके धूएँके समान आपके आश्रित और आपहीको विषय करनेवाली माया नाना प्रकारके विचित्र कार्योंकी रचना करती है॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्मायावृता लोकास्तावत्त्वां न विजानते।
अविचारितसिद्धैषाविद्या विद्याविरोधिनी॥ ३३॥

मूलम्

यावन्मायावृता लोकास्तावत्त्वां न विजानते।
अविचारितसिद्धैषाविद्या विद्याविरोधिनी॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जबतक मायासे आवृत रहते हैं तबतक आपको नहीं जान सकते। विद्याकी विरोधिनी यह अविद्या जबतक विचार नहीं किया जाता तभीतक रहती है॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्याकृतदेहादिसङ्घाते प्रतिबिम्बिता।
चिच्छक्तिर्जीवलोकेऽस्मिन् जीव इत्यभिधीयते॥ ३४॥

मूलम्

अविद्याकृतदेहादिसङ्घाते प्रतिबिम्बिता।
चिच्छक्तिर्जीवलोकेऽस्मिन् जीव इत्यभिधीयते॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अविद्याजन्य देहादि संघातोंमें प्रतिबिम्बित हुई चित्-शक्ति ही इस जीव-लोकमें ‘जीव’ कहलाती है॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद्देहमनःप्राणबुद्‍ध्यादिष्वभिमानवान्।
तावत्कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखदुःखादिभाग्भवेत्॥ ३५॥

मूलम्

यावद्देहमनःप्राणबुद्‍ध्यादिष्वभिमानवान्।
तावत्कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखदुःखादिभाग्भवेत्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जीव जबतक देह, मन, प्राण और बुद्धि आदिमें अभिमान करता है तभीतक कर्तृत्व, भोक्तृत्व और सुख-दुःखादिको भोगता है॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनः संसृतिर्नास्ति बुद्धेर्ज्ञानं न जात्विति।
अविवेकाद्‍द्वयं युङ्‍क्त्वा संसारीति प्रवर्तते॥ ३६॥

मूलम्

आत्मनः संसृतिर्नास्ति बुद्धेर्ज्ञानं न जात्विति।
अविवेकाद्‍द्वयं युङ्‍क्त्वा संसारीति प्रवर्तते॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें आत्मामें जन्म-मरणादि संसार किसी भी अवस्थामें नहीं है और बुद्धिमें कभी ज्ञानशक्ति नहीं है। अविवेकसे इन दोनोंको मिलाकर जीव ‘संसारी हूँ’ ऐसा मानकर कर्ममें प्रवृत्त हो जाता है॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जडस्य चित्समायोगाच्चित्त्वं भूयाच्चितेस्तथा।
जडसङ्गाज्जडत्वं हि जलाग्न्योर्मेलनं यथा॥ ३७॥

मूलम्

जडस्य चित्समायोगाच्चित्त्वं भूयाच्चितेस्तथा।
जडसङ्गाज्जडत्वं हि जलाग्न्योर्मेलनं यथा॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जल और अग्निका मेल होनेसे जैसे जलमें उष्णता और अग्निमें शान्तता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार जड (-बुद्धि)-का चेतन (आत्मा)-से संयोग होनेसे उसमें चेतनता और चेतन आत्माका जड-बुद्धिसे संयोग होनेसे उसमें (कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि) जडता प्रकट हो जाती है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत्त्वत्पादभक्तानां सङ्गसौख्यं न विन्दति।
तावत्संसारदुःखौघान्न निवर्तेन्नरः सदा॥ ३८॥

मूलम्

यावत्त्वत्पादभक्तानां सङ्गसौख्यं न विन्दति।
तावत्संसारदुःखौघान्न निवर्तेन्नरः सदा॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! जबतक मनुष्य आपके चरण-कमलोंके भक्तोंका संगसुख निरन्तर अनुभव नहीं करता तबतक संसारके दुःख-समूहसे पार नहीं होता॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्सङ्गलब्धया भक्त्या यदा त्वां समुपासते।
तदा माया शनैर्याति तानवं प्रतिपद्यते॥ ३९॥

मूलम्

तत्सङ्गलब्धया भक्त्या यदा त्वां समुपासते।
तदा माया शनैर्याति तानवं प्रतिपद्यते॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह भक्तजनोंके संगसे प्राप्त हुई भक्तिद्वारा आपकी उपासना करता है तब आपकी माया शनैः-शनैः चली जाती है और वह क्षीण होने लगती है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वज्ज्ञानसम्पन्नः सद्‍गुरुस्तेन लभ्यते।
वाक्यज्ञानं गुरोर्लब्ध्वा त्वत्प्रसादाद्विमुच्यते॥ ४०॥

मूलम्

ततस्त्वज्ज्ञानसम्पन्नः सद्‍गुरुस्तेन लभ्यते।
वाक्यज्ञानं गुरोर्लब्ध्वा त्वत्प्रसादाद्विमुच्यते॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उस साधकको आपके ज्ञानसे सम्पन्न सद्‍गुरुकी प्राप्ति होती है और उन सद्‍गुरुदेवसे महावाक्यका बोध पाकर वह आपकी कृपासे मुक्त हो जाता है॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्त्वद्भक्तिहीनानां कल्पकोटिशतैरपि।
न मुक्तिशङ्का विज्ञानशङ्का नैव सुखं तथा॥ ४१॥

मूलम्

तस्मात्त्वद्भक्तिहीनानां कल्पकोटिशतैरपि।
न मुक्तिशङ्का विज्ञानशङ्का नैव सुखं तथा॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आपकी भक्तिसे शून्य पुरुषोंको सौ करोड़ कल्पोंमें भी मुक्ति अथवा ब्रह्मज्ञान प्राप्त होनेकी सम्भावना नहीं है और इसीलिये उन्हें वास्तविक सुख मिलनेकी भी सम्भावना नहीं है॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्त्वत्पादयुगले भक्तिर्मे जन्मजन्मनि।
स्यात्त्वद्भक्तिमतां सङ्गोऽविद्या याभ्यां विनश्यति॥ ४२॥

मूलम्

अतस्त्वत्पादयुगले भक्तिर्मे जन्मजन्मनि।
स्यात्त्वद्भक्तिमतां सङ्गोऽविद्या याभ्यां विनश्यति॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मैं यही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मान्तरमें आपके चरण-युगलमें मेरी भक्ति हो और मुझे आपके भक्तोंका संग मिले; क्योंकि इन्हीं दोनों साधनोंसे अविद्याका नाश होता है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोके त्वद्भक्तिनिरतास्त्वद्धर्मामृतवर्षिणः।
पुनन्ति लोकमखिलं किं पुनःस्वकुलोद्भवान्॥ ४३॥

मूलम्

लोके त्वद्भक्तिनिरतास्त्वद्धर्मामृतवर्षिणः।
पुनन्ति लोकमखिलं किं पुनःस्वकुलोद्भवान्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें आपकी भक्तिमें तत्पर और भगवद्धर्मरूप अमृतकी वर्षा करनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण लोकको पवित्र कर देते हैं, फिर वे अपने कुलमें उत्पन्न हुए पुरुषोंको पवित्र कर देते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है?॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमोऽस्तु जगतां नाथ नमस्ते भक्तिभावन।
नमः कारुणिकानन्त रामचन्द्र नमोऽस्तु ते॥ ४४॥

मूलम्

नमोऽस्तु जगतां नाथ नमस्ते भक्तिभावन।
नमः कारुणिकानन्त रामचन्द्र नमोऽस्तु ते॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जगन्नाथ! आपको नमस्कार है। हे भक्तिभावन! आपको नमस्कार है। हे करुणामय! हे अनन्त! आपको नमस्कार है। हे रामचन्द्र! आपको बारम्बार नमस्कार है॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव यद्यत्कृतं पुण्यं मया लोकजिगीषया।
तत्सर्वं तव बाणाय भूयाद्राम नमोऽस्तु ते॥ ४५॥

मूलम्

देव यद्यत्कृतं पुण्यं मया लोकजिगीषया।
तत्सर्वं तव बाणाय भूयाद्राम नमोऽस्तु ते॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! मैंने पुण्यलोक-प्राप्तिके लिये जो कुछ पुण्य कर्म किये हैं वे सब आपके इस बाणके लक्ष्य हों। हे राम! आपको नमस्कार है’’॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रसन्नो भगवान् श्रीरामः करुणामयः।
प्रसन्नोऽस्मि तव ब्रह्मन्यत्ते मनसि वर्तते॥ ४६॥
दास्ये तदखिलं कामं मा कुरुष्वात्र संशयम्।
ततः प्रीतेन मनसा भार्गवो राममब्रवीत्॥ ४७॥

मूलम्

ततः प्रसन्नो भगवान् श्रीरामः करुणामयः।
प्रसन्नोऽस्मि तव ब्रह्मन्यत्ते मनसि वर्तते॥ ४६॥
दास्ये तदखिलं कामं मा कुरुष्वात्र संशयम्।
ततः प्रीतेन मनसा भार्गवो राममब्रवीत्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब करुणामय भगवान् श्रीरामचन्द्रने प्रसन्न होकर कहा—‘‘हे ब्रह्मन्! मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे हृदयमें जो-जो कामनाएँ हैं उन सभीको मैं पूर्ण करूँगा, इसमें सन्देह न करना।’’ तब परशुरामजीने प्रसन्न-चित्त होकर रामसे कहा—॥ ४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मेऽनुग्रहो राम तवास्ति मधुसूदन।
त्वद्भक्तसङ्गस्त्वत्पादे दृढा भक्तिः सदास्तु मे॥ ४८॥

मूलम्

यदि मेऽनुग्रहो राम तवास्ति मधुसूदन।
त्वद्भक्तसङ्गस्त्वत्पादे दृढा भक्तिः सदास्तु मे॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे मधुसूदन राम! यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो मुझे सदा आपके भक्तोंका संग रहे और आपके चरण-कमलोंमें मेरी सुदृढ़ भक्ति हो॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु भक्तिहीनोऽपि सर्वदा।
त्वद्भक्तिस्तस्य विज्ञानं भूयादन्ते स्मृतिस्तव॥ ४९॥

मूलम्

स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु भक्तिहीनोऽपि सर्वदा।
त्वद्भक्तिस्तस्य विज्ञानं भूयादन्ते स्मृतिस्तव॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा कोई भक्तिहीन पुरुष भी यदि इस स्तोत्रका पाठ करे तो उसे सर्वदा आपकी भक्ति मिले और ज्ञान प्राप्त हो तथा अन्तमें आपकी स्मृति रहे’’॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति राघवेणोक्तः परिक्रम्य प्रणम्य तम्।
पूजितस्तदनुज्ञातो महेन्द्राचलमन्वगात्॥ ५०॥

मूलम्

तथेति राघवेणोक्तः परिक्रम्य प्रणम्य तम्।
पूजितस्तदनुज्ञातो महेन्द्राचलमन्वगात्॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रघुनाथजीके ‘ऐसा ही हो’ इस प्रकार कहनेपर परशुरामजीने उनकी परिक्रमा कर उन्हें प्रणाम किया और उनसे पूजित हो उनकी आज्ञासे महेन्द्रपर्वतपर चले गये॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा दशरथो हृष्टो रामं मृतमिवागतम्।
आलिङ्‍ग्यालिङ्‍ग्य हर्षेण नेत्राभ्यां जलमुत्सृजत्॥ ५१॥

मूलम्

राजा दशरथो हृष्टो रामं मृतमिवागतम्।
आलिङ्‍ग्यालिङ्‍ग्य हर्षेण नेत्राभ्यां जलमुत्सृजत्॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दशरथने रामको मानो मृत्युसे लौटे हुए समझ अत्यन्त हर्षसे बारम्बार आलिंगन किया और नेत्रोंसे आनन्दाश्रुओंकी वर्षा करने लगे॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रीतेन मनसा स्वस्थचित्तः पुरं ययौ।
रामलक्ष्मणशत्रुघ्नभरता देवसंमिताः।
स्वां स्वां भार्यामुपादाय रेमिरे स्वस्वमन्दिरे॥ ५२॥

मूलम्

ततः प्रीतेन मनसा स्वस्थचित्तः पुरं ययौ।
रामलक्ष्मणशत्रुघ्नभरता देवसंमिताः।
स्वां स्वां भार्यामुपादाय रेमिरे स्वस्वमन्दिरे॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे सब प्रसन्नचित्तसे अपनी अयोध्यापुरीमें आये। वहाँ पहुँचकर राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ देवताओंके समान अपने-अपने महलोंमें रमण करने लगे॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातापितृभ्यां संहृष्टो रामः सीतासमन्वितः।
रेमे वैकुण्ठभवने श्रिया सह यथा हरिः॥ ५३॥

मूलम्

मातापितृभ्यां संहृष्टो रामः सीतासमन्वितः।
रेमे वैकुण्ठभवने श्रिया सह यथा हरिः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताके सहित श्रीरामचन्द्रजी अपने पिता-माताओंका आनन्द बढ़ाते हुए इस प्रकार रमण करने लगे जैसे वैकुण्ठलोकमें भगवान् विष्णु लक्ष्मीके साथ विहार करते हैं॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधाजिन्नाम कैकेयीभ्राता भरतमातुलः।
भरतं नेतुमागच्छत्स्वराज्यं प्रीतिसंयुतः॥ ५४॥

मूलम्

युधाजिन्नाम कैकेयीभ्राता भरतमातुलः।
भरतं नेतुमागच्छत्स्वराज्यं प्रीतिसंयुतः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय कैकेयीके भाई भरतजीके मामा युधाजित् भरतको प्रीतिपूर्वक अपने यहाँ ले जानेके लिये आये॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेषयामास भरतं राजा स्नेहसमन्वितः।
शत्रुघ्नं चापि संपूज्य युधाजितमरिन्दमः॥ ५५॥

मूलम्

प्रेषयामास भरतं राजा स्नेहसमन्वितः।
शत्रुघ्नं चापि संपूज्य युधाजितमरिन्दमः॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन महाराज दशरथने भी युधाजित् का सत्कार कर उनके स्नेहवश भरत और शत्रुघ्नको उनके साथ भेज दिया॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौसल्या शुशुभे देवी रामेण सह सीतया।
देवमातेव पौलोम्या शच्या शक्रेण शोभना॥ ५६॥

मूलम्

कौसल्या शुशुभे देवी रामेण सह सीतया।
देवमातेव पौलोम्या शच्या शक्रेण शोभना॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदुपरान्त देवी कौसल्या राम और सीताके सहित इस प्रकार सुशोभित हुईं जैसे पुलोम-पुत्री शची और इन्द्रके सहित देवमाता अदिति शोभायमान होती हैं॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकेते लोकनाथप्रथितगुणगणो
लोकसङ्गीतकीर्तिः
श्रीरामः सीतयास्तेऽखिलजननिकरा-
नन्दसन्दोहमूर्तिः।
नित्यश्रीर्निर्विकारो निरवधिविभवो
नित्यमायानिरासो
मायाकार्यानुसारी मनुज इव सदा
भाति देवोऽखिलेशः॥ ५७॥

मूलम्

साकेते लोकनाथप्रथितगुणगणो
लोकसङ्गीतकीर्तिः
श्रीरामः सीतयास्तेऽखिलजननिकरा-
नन्दसन्दोहमूर्तिः।
नित्यश्रीर्निर्विकारो निरवधिविभवो
नित्यमायानिरासो
मायाकार्यानुसारी मनुज इव सदा
भाति देवोऽखिलेशः॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके गुणगण ब्रह्मा आदि सकल लोकपालोंमें प्रसिद्ध हैं, जिनकी कीर्ति सम्पूर्ण लोकोंमें गायी जाती है, जो सारे मनुष्योंके आनन्द-समूहकी मूर्ति हैं, जो नित्य, शोभाधाम, निर्विकार, अनन्त-वैभव और सदा मायातीत होकर भी माया-कार्योंका अनुसरण करते हुए सदा मनुष्यके समान प्रतीत होते हैं वे अखिलेश्वर भगवान् राम सीताजीके साथ साकेत (अयोध्या) धाममें विराजने लगे॥ ५७॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे सप्तमः सर्गः॥ ७॥
समाप्तमिदं बालकाण्डम्