[षष्ठ सर्ग]
भागसूचना
धनुर्भंग और विवाह
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रोऽथ तं प्राह राघवं सहलक्ष्मणम्।
गच्छामो वत्स मिथिलां जनकेनाभिपालिताम्॥ १॥
मूलम्
विश्वामित्रोऽथ तं प्राह राघवं सहलक्ष्मणम्।
गच्छामो वत्स मिथिलां जनकेनाभिपालिताम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी बोले—तदनन्तर विश्वामित्रजीने लक्ष्मणके सहित श्रीरामचन्द्रजीसे कहा,—‘‘वत्स! अब हम महाराज जनकसे पालित मिथिलापुरीको चलेंगे॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा क्रतुवरं पश्चादयोध्यां गन्तुमर्हसि।
इत्युक्त्वा प्रययौ गङ्गामुत्तर्तुं सहराघवः।
तस्मिन्काले नाविकेन निषिद्धो रघुनन्दनः॥ २॥
मूलम्
दृष्ट्वा क्रतुवरं पश्चादयोध्यां गन्तुमर्हसि।
इत्युक्त्वा प्रययौ गङ्गामुत्तर्तुं सहराघवः।
तस्मिन्काले नाविकेन निषिद्धो रघुनन्दनः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ यज्ञोत्सव देखकर फिर तुम अयोध्यापुरीको लौट सकते हो।’’ ऐसा कह वे रघुनाथजीके साथ गंगाजी पार करनेके लिये तटपर आये, तब नाविकने रघुनाथजीको नावपर चढ़नेसे रोक दिया॥ २॥
मूलम् (वचनम्)
नाविक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षालयामि तव पादपङ्कजं
नाथ दारुदृषदोः किमन्तरम्।
मानुषीकरणचूर्णमस्ति ते
पादयोरिति कथा प्रथीयसी॥ ३॥
मूलम्
क्षालयामि तव पादपङ्कजं
नाथ दारुदृषदोः किमन्तरम्।
मानुषीकरणचूर्णमस्ति ते
पादयोरिति कथा प्रथीयसी॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाविक बोला—हे नाथ! यह बात प्रसिद्ध है कि आपके चरणोंमें कोई मनुष्य बना देनेवाला चूर्ण है। (आपने अभी शिलाको स्त्री बना दिया, फिर) शिला और काष्ठमें भेद ही क्या है? अतः नौकापर चढ़ानेसे पूर्व मैं आपके चरणकमलोंको धोऊँगा॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादाम्बुजं ते विमलं हि कृत्वा
पश्चात्परं तीरमहं नयामि।
नोचेत्तरी सद्युवती मलेन
स्याच्चेद्विभो विद्धि कुटुम्बहानिः॥ ४॥
मूलम्
पादाम्बुजं ते विमलं हि कृत्वा
पश्चात्परं तीरमहं नयामि।
नोचेत्तरी सद्युवती मलेन
स्याच्चेद्विभो विद्धि कुटुम्बहानिः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आपके चरणोंको मलरहित करके मैं आपको श्रीगंगाजीके उस पार ले चलूँगा। नहीं तो हे विभो! आपके चरणरजके स्पर्शसे यदि मेरी नौका सुन्दरी युवती हो गयी तो मेरे कुटुम्बकी आजीविका ही मारी जायगी॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा क्षालितौ पादौ परं तीरं ततो गताः।
कौशिको रघुनाथेन सहितो मिथिलां ययौ॥ ५॥
मूलम्
इत्युक्त्वा क्षालितौ पादौ परं तीरं ततो गताः।
कौशिको रघुनाथेन सहितो मिथिलां ययौ॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर केवटने उनके चरण धोये और फिर गंगाजीके पार ले गया। वहाँसे राम और लक्ष्मणके सहित श्रीविश्वामित्रजी मिथिलापुरीको चले॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदेहस्य पुरं प्रातर्ऋषिवाटं समाविशत्।
प्राप्तं कौशिकमाकर्ण्य जनकोऽतिमुदान्वितः॥ ६॥
पूजाद्रव्याणि संगृह्य सोपाध्यायः समाययौ।
दण्डवत्प्रणिपत्याथ पूजयामास कौशिकम्॥ ७॥
मूलम्
विदेहस्य पुरं प्रातर्ऋषिवाटं समाविशत्।
प्राप्तं कौशिकमाकर्ण्य जनकोऽतिमुदान्वितः॥ ६॥
पूजाद्रव्याणि संगृह्य सोपाध्यायः समाययौ।
दण्डवत्प्रणिपत्याथ पूजयामास कौशिकम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रातःकाल होते ही वे विदेहनगरमें पहुँचकर ऋषियोंके निवासस्थानमें ठहर गये। उसी समय विश्वामित्रजीके आगमनकी सूचना पाकर जनकजी अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक पूजन-सामग्री लिये अपने पुरोहितके साथ वहाँ आये और साष्टांग दण्डवत् कर उन्होंने मुनिवर कौशिककी पूजा की॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पप्रच्छ राघवौ दृष्ट्वा सर्वलक्षणसंयुतौ।
द्योतयन्तौ दिशः सर्वाश्चन्द्रसूर्याविवापरौ॥ ८॥
मूलम्
पप्रच्छ राघवौ दृष्ट्वा सर्वलक्षणसंयुतौ।
द्योतयन्तौ दिशः सर्वाश्चन्द्रसूर्याविवापरौ॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर साक्षात् दूसरे सूर्य और चन्द्रमाके समान अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए उन सर्व-लक्षण-सम्पन्न रघुकुमारोंको देखकर पूछा—॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यैतौ नरशार्दूलौ पुत्रौ देवसुतोपमौ।
मनःप्रीतिकरौ मेऽद्य नरनारायणाविव॥ ९॥
मूलम्
कस्यैतौ नरशार्दूलौ पुत्रौ देवसुतोपमौ।
मनःप्रीतिकरौ मेऽद्य नरनारायणाविव॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘ये देवपुत्रोंके समान दो नरशार्दूल किसके पुत्र हैं; ये मेरे हृदयमें इस समय नर और नारायणके समान प्रीति उत्पन्न करते हैं’’॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्युवाच मुनिः प्रीतो हर्षयन् जनकं तदा।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ १०॥
मूलम्
प्रत्युवाच मुनिः प्रीतो हर्षयन् जनकं तदा।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनिवर विश्वामित्रजीने महाराज जनकको आनन्दित करते हुए प्रसन्नतापूर्वक कहा—‘‘ये दोनों भाई राम और लक्ष्मण कोसल-नरेश दशरथजीके पुत्र हैं॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मखसंरक्षणार्थाय मयानीतौ पितुः पुरात्।
आगच्छन् राघवो मार्गे ताटकां विश्वघातिनीम्॥ ११॥
शरेणैकेन हतवान्नोदितो मेऽतिविक्रमः।
ततो ममाश्रमं गत्वा मम यज्ञविहिंसकान्॥ १२॥
सुबाहुप्रमुखान्हत्वा मारीचं सागरेऽक्षिपत्।
ततो गङ्गातटे पुण्ये गौतमस्याश्रमं शुभम्॥ १३॥
गत्वा तत्र शिलारूपा गौतमस्य वधूः स्थिता।
पादपङ्कजसंस्पर्शात्कृता मानुषरूपिणी॥ १४॥
मूलम्
मखसंरक्षणार्थाय मयानीतौ पितुः पुरात्।
आगच्छन् राघवो मार्गे ताटकां विश्वघातिनीम्॥ ११॥
शरेणैकेन हतवान्नोदितो मेऽतिविक्रमः।
ततो ममाश्रमं गत्वा मम यज्ञविहिंसकान्॥ १२॥
सुबाहुप्रमुखान्हत्वा मारीचं सागरेऽक्षिपत्।
ततो गङ्गातटे पुण्ये गौतमस्याश्रमं शुभम्॥ १३॥
गत्वा तत्र शिलारूपा गौतमस्य वधूः स्थिता।
पादपङ्कजसंस्पर्शात्कृता मानुषरूपिणी॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं इन्हें अपने यज्ञकी रक्षाके लिये अयोध्यासे ले आया था। मार्गमें आते समय मेरी प्रेरणासे इन अति पराक्रमी रघुनाथजीने एक ही बाणसे विश्वघातिनी ताटकाको मार डाला, फिर मेरे आश्रममें पहुँचकर मेरा यज्ञ विध्वंस करनेवाले सुबाहु आदि राक्षसोंको मार डाला तथा मारीचको समुद्रमें फेंक दिया। तदनन्तर ये गंगातटपर महर्षि गौतमके पुनीत आश्रममें आये और वहाँ शिलारूपसे स्थित गौतम-पत्नीको देख अपने चरणकमलके स्पर्शसे उसे मनुष्यरूप बना दिया॥ ११—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वाहल्यां नमस्कृत्य तया सम्यक्प्रपूजितः।
इदानीं द्रष्टुकामस्ते गृहे माहेश्वरं धनुः॥ १५॥
मूलम्
दृष्ट्वाहल्यां नमस्कृत्य तया सम्यक्प्रपूजितः।
इदानीं द्रष्टुकामस्ते गृहे माहेश्वरं धनुः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहल्याको देखकर रामजीने उसे नमस्कार किया, फिर उससे भलीप्रकार पूजा ग्रहणकर इस समय तुम्हारे यहाँ शंकरका धनुष देखनेके लिये आये हैं॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजितं राजभिः सर्वैर्दृष्टमित्यनुशुश्रुवे।
अतो दर्शय राजेन्द्र शैवं चापमनुत्तमम्।
दृष्ट्वायोध्यां जिगमिषुः पितरं द्रष्टुमिच्छति॥ १६॥
मूलम्
पूजितं राजभिः सर्वैर्दृष्टमित्यनुशुश्रुवे।
अतो दर्शय राजेन्द्र शैवं चापमनुत्तमम्।
दृष्ट्वायोध्यां जिगमिषुः पितरं द्रष्टुमिच्छति॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है उस धनुषकी तुम्हारे यहाँ बड़ी पूजा होती है और सब राजा लोग उसे देख गये हैं। अतः हे राजेन्द्र! आप महादेवजीका वह उत्तम धनुष इन्हें दिखा दीजिये, क्योंकि ये उसे देखकर शीघ्र ही अपने माता-पितासे मिलनेके लिये अयोध्या जाना चाहते हैं’’॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो मुनिना राजा पूजार्हाविति पूजया।
पूजयामास धर्मज्ञो विधिदृष्टेन कर्मणा॥ १७॥
मूलम्
इत्युक्तो मुनिना राजा पूजार्हाविति पूजया।
पूजयामास धर्मज्ञो विधिदृष्टेन कर्मणा॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिवर विश्वामित्रके ऐसा कहनेपर धर्मज्ञ राजा जनकने राम और लक्ष्मणको पूजनीय समझकर उनकी विधिपूर्वक पूजा की॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्प्रेषयामास मन्त्रिणं बुद्धिमत्तरम्।
मूलम्
ततः सम्प्रेषयामास मन्त्रिणं बुद्धिमत्तरम्।
मूलम् (वचनम्)
जनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रमानय विश्वेशचापं रामाय दर्शय॥ १८॥
मूलम्
शीघ्रमानय विश्वेशचापं रामाय दर्शय॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर अपने बुद्धिमान् मन्त्रीको यह कहकर भेजा कि तुम शीघ्र ही श्रीविश्वेश्वरका धनुष लाकर रामचन्द्रजीको दिखाओ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गते मन्त्रिवरे राजा कौशिकमब्रवीत्।
यदि रामो धनुर्धृत्वा कोट्यामारोपयेद्गुणम्॥ १९॥
तदा मयात्मजा सीता दीयते राघवाय हि।
तथेति कौशिकोऽप्याह रामं संवीक्ष्य सस्मितम्॥ २०॥
मूलम्
ततो गते मन्त्रिवरे राजा कौशिकमब्रवीत्।
यदि रामो धनुर्धृत्वा कोट्यामारोपयेद्गुणम्॥ १९॥
तदा मयात्मजा सीता दीयते राघवाय हि।
तथेति कौशिकोऽप्याह रामं संवीक्ष्य सस्मितम्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्रीके चले जानेपर राजाने श्रीविश्वामित्रजीसे कहा,—‘‘यदि रामचन्द्रजी उस धनुषको उठाकर उसकी कोटियोंपर रोंदा चढ़ा देंगे तो निश्चय मैं उन्हें ही अपनी कन्या सीता विवाह दूँगा।’’ तब विश्वामित्रजीने रामजीकी ओर देखते हुए मुसकराकर कहा—‘‘ठीक है॥ १९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रं दर्शय चापाग्र्यं रामायामिततेजसे।
एवं ब्रुवति मौनीश आगताश्चापवाहकाः॥ २१॥
चापं गृहीत्वा बलिनः पञ्चसाहस्रसङ्ख्यकाः।
घण्टाशतसमायुक्तं मणिवज्रादिभूषितम्॥ २२॥
मूलम्
शीघ्रं दर्शय चापाग्र्यं रामायामिततेजसे।
एवं ब्रुवति मौनीश आगताश्चापवाहकाः॥ २१॥
चापं गृहीत्वा बलिनः पञ्चसाहस्रसङ्ख्यकाः।
घण्टाशतसमायुक्तं मणिवज्रादिभूषितम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आप शीघ्र ही वह श्रेष्ठ धनुष अमिततेजस्वी रघुनाथजीको दिखाइये।’’ मुनीश्वरके ऐसा कहते ही बड़े बलवान् पाँच हजार धनुष-वाहक उस धनुष-श्रेष्ठको लेकर वहाँ आ पहुँचे। उस धनुषमें सैकड़ों घंटियाँ बँधी हुई थीं तथा वह हीरे और मणि आदि रत्नोंसे सुसज्जित था॥ २१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शयामास रामाय मन्त्री मन्त्रयतां वरः।
दृष्ट्वा रामः प्रहृष्टात्मा बद्ध्वा परिकरं दृढम्॥ २३॥
गृहीत्वा वामहस्तेन लीलया तोलयन् धनुः।
आरोपयामास गुणं पश्यत्स्वखिलराजसु॥ २४॥
मूलम्
दर्शयामास रामाय मन्त्री मन्त्रयतां वरः।
दृष्ट्वा रामः प्रहृष्टात्मा बद्ध्वा परिकरं दृढम्॥ २३॥
गृहीत्वा वामहस्तेन लीलया तोलयन् धनुः।
आरोपयामास गुणं पश्यत्स्वखिलराजसु॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब परामर्श-दाताओंमें श्रेष्ठ उन मन्त्रिवरने रामको वह धनुष दिखाया। प्रसन्नचित्त श्रीरामजीने उसे देखते ही दृढ़तासे कमर कसकर उस धनुषको खेल करते हुए बायें हाथसे उठाकर थाम लिया और सब राजाओंके देखते-देखते उसपर रोंदा चढ़ा दिया॥ २३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईषदाकर्षयामास पाणिना दक्षिणेन सः।
बभञ्जाखिलहृत्सारो दिशः शब्देन पूरयन्॥ २५॥
मूलम्
ईषदाकर्षयामास पाणिना दक्षिणेन सः।
बभञ्जाखिलहृत्सारो दिशः शब्देन पूरयन्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सबके हृदयसर्वस्व भगवान् रामने अपने दायें हाथसे उस धनुषको थोड़ा-सा खींचा और दसों दिशाओंको गुंजायमान करते हुए तोड़ डाला॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशश्च विदिशश्चैव स्वर्गं मर्त्यं रसातलम्।
तदद्भुतमभूत्तत्र देवानां दिवि पश्यताम्॥ २६॥
मूलम्
दिशश्च विदिशश्चैव स्वर्गं मर्त्यं रसातलम्।
तदद्भुतमभूत्तत्र देवानां दिवि पश्यताम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिशा, विदिशा, स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और रसातल आदि समस्त पातालोंमें वह शब्द गूँज उठा। स्वर्गलोकसे देवगणोंके देखते-देखते यह एक बड़ा आश्चर्य-सा हो गया॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आच्छादयन्तः कुसुमैर्देवाः स्तुतिभिरीडिरे।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ २७॥
मूलम्
आच्छादयन्तः कुसुमैर्देवाः स्तुतिभिरीडिरे।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने पुष्प बरसाकर भगवान् को ढँक दिया और दुन्दुभी आदि बाजे बजाते हुए उनकी स्तुति की तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विधा भग्नं धनुर्दृष्ट्वा राजालिङ्ग्य रघूद्वहम्।
विस्मयं लेभिरे सीतामातरोऽन्तःपुराजिरे॥ २८॥
मूलम्
द्विधा भग्नं धनुर्दृष्ट्वा राजालिङ्ग्य रघूद्वहम्।
विस्मयं लेभिरे सीतामातरोऽन्तःपुराजिरे॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुषके दो खण्ड हुए देख महाराज जनकने रघुनाथजीका आलिंगन किया और अन्तःपुरके आँगनमें स्थित सीताजीकी माताएँ अत्यन्त विस्मित हुईं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता स्वर्णमयीं मालां गृहीत्वा दक्षिणे करे।
स्मितवक्त्रा स्वर्णवर्णा सर्वाभरणभूषिता॥ २९॥
मूलम्
सीता स्वर्णमयीं मालां गृहीत्वा दक्षिणे करे।
स्मितवक्त्रा स्वर्णवर्णा सर्वाभरणभूषिता॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सर्वालंकारविभूषिता, सुवर्ण-वर्णा श्रीसीताजी अपने दाहिने हाथमें सुवर्णमयी माला लिये मन्द-मन्द मुसकाती हुई वहाँ आयीं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुक्ताहारैः कर्णपत्रौः क्वणच्चरणनूपुरा।
दुकूलपरिसंवीता वस्त्रान्तर्व्यञ्जितस्तनी॥ ३०॥
मूलम्
मुक्ताहारैः कर्णपत्रौः क्वणच्चरणनूपुरा।
दुकूलपरिसंवीता वस्त्रान्तर्व्यञ्जितस्तनी॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मुक्ताहार, कर्णफूल और झमझमाते हुए पायजेब आदि आभूषणोंसे विभूषिता थीं तथा शरीरमें अति उत्तम साड़ी पहने हुए थीं जिसमेंसे उनके पीन-पयोधर झलक रहे थे॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्योपरि निक्षिप्य स्मयमाना मुदं ययौ।
ततो मुमुदिरे सर्वे राजदाराः स्वलङ्कृतम्॥ ३१॥
गवाक्षजालरन्ध्रेभ्यो दृष्ट्वा लोकविमोहनम्।
ततोऽब्रवीन्मुनिं राजा सर्वशास्त्रविशारदः॥ ३२॥
मूलम्
रामस्योपरि निक्षिप्य स्मयमाना मुदं ययौ।
ततो मुमुदिरे सर्वे राजदाराः स्वलङ्कृतम्॥ ३१॥
गवाक्षजालरन्ध्रेभ्यो दृष्ट्वा लोकविमोहनम्।
ततोऽब्रवीन्मुनिं राजा सर्वशास्त्रविशारदः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजी नम्रतापूर्वक मुसकाते हुए वह जयमाल रामचन्द्रजीके ऊपर डालकर प्रसन्न हुईं। उस समय श्रीरामचन्द्रजीके सर्वालंकारविभूषित भुवनमोहन रूपको झरोखोंमेंसे देखकर समस्त रानियाँ अति आनन्दित हुईं। फिर सर्वशास्त्रज्ञ महाराज जनकने मुनिवर विश्वामित्रजीसे कहा—॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो कौशिक मुनिश्रेष्ठ पत्रं प्रेषय सत्वरम्।
राजा दशरथः शीघ्रमागच्छतु सपुत्रकः॥ ३३॥
विवाहार्थं कुमाराणां सदारः सहमन्त्रिभिः।
तथेति प्रेषयामास दूतांस्त्वरितविक्रमान्॥ ३४॥
मूलम्
भो कौशिक मुनिश्रेष्ठ पत्रं प्रेषय सत्वरम्।
राजा दशरथः शीघ्रमागच्छतु सपुत्रकः॥ ३३॥
विवाहार्थं कुमाराणां सदारः सहमन्त्रिभिः।
तथेति प्रेषयामास दूतांस्त्वरितविक्रमान्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मुनिवर कौशिकजी! आप तुरंत ही महाराज दशरथके पास पत्र भेजिये; वे कुमारोंके विवाहोत्सवके लिये शीघ्र ही पुत्र, महिषियों और मन्त्रियोंके साथ यहाँ पधारें।’’ तब विश्वामित्रजीने ‘बहुत अच्छा’ कह शीघ्रगामी दूतोंको भेजा॥ ३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते गत्वा राजशार्दूलं रामश्रेयो न्यवेदयन्।
श्रुत्वा रामकृतं राजा हर्षेण महताप्लुतः॥ ३५॥
मूलम्
ते गत्वा राजशार्दूलं रामश्रेयो न्यवेदयन्।
श्रुत्वा रामकृतं राजा हर्षेण महताप्लुतः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूतोंने जाकर राजशार्दूल दशरथसे रामका कुशलक्षेम कहा। उनसे रामचन्द्रजीके अद्भुत कृत्यका वृत्तान्त सुनकर महाराज परमानन्दमें डूब गये॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथिलागमनार्थाय त्वरयामास मन्त्रिणः।
गच्छन्तु मिथिलां सर्वे गजाश्वरथपत्तयः॥ ३६॥
मूलम्
मिथिलागमनार्थाय त्वरयामास मन्त्रिणः।
गच्छन्तु मिथिलां सर्वे गजाश्वरथपत्तयः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर आपने मिथिलापुरीको चलनेके लिये शीघ्रता करते हुए मन्त्रियोंसे कहा—‘‘हाथी, घोड़े, रथ और पदातियोंके सहित सब लोग मिथिलापुरीको चलो॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथमानय मे शीघ्रं गच्छाम्यद्यैव मा चिरम्।
वसिष्ठस्त्वग्रतो यातु सदारः सहितोऽग्निभिः॥ ३७॥
राममातॄः समादाय मुनिर्मे भगवान् गुरुः।
एवं प्रस्थाप्य सकलं राजर्षिर्विपुलं रथम्॥ ३८॥
महत्या सेनया सार्धमारुह्य त्वरितो ययौ।
आगतं राघवं श्रुत्वा राजा हर्षसमाकुलः॥ ३९॥
प्रत्युज्जगाम जनकः शतानन्दपुरोधसा।
यथोक्तपूजया पूज्यं पूजयामास सत्कृतम्॥ ४०॥
मूलम्
रथमानय मे शीघ्रं गच्छाम्यद्यैव मा चिरम्।
वसिष्ठस्त्वग्रतो यातु सदारः सहितोऽग्निभिः॥ ३७॥
राममातॄः समादाय मुनिर्मे भगवान् गुरुः।
एवं प्रस्थाप्य सकलं राजर्षिर्विपुलं रथम्॥ ३८॥
महत्या सेनया सार्धमारुह्य त्वरितो ययौ।
आगतं राघवं श्रुत्वा राजा हर्षसमाकुलः॥ ३९॥
प्रत्युज्जगाम जनकः शतानन्दपुरोधसा।
यथोक्तपूजया पूज्यं पूजयामास सत्कृतम्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा रथ भी तुरंत ले आओ, देरी न करो, मैं भी आज ही चलूँगा। अग्नियोंके और अरुन्धतीके सहित मेरे गुरु मुनिश्रेष्ठ भगवान् वसिष्ठजी रामकी माताओंको लेकर सबसे आगे चलें।’’ इस प्रकार सबका कूच करा एक विशाल रथपर आरूढ़ हो राजर्षि दशरथजी बड़े दलबलके सहित शीघ्रतापूर्वक मिथिलापुरीको चले। रघुकुल-तिलक दशरथजीको आये हुए सुन महाराज जनक हर्षपूर्वक पुरोहित शतानन्दजीको ले उन्हें लेने गये और उन पूजनीय राजाका यथोचित रीतिसे सत्कार कर पूजन किया॥ ३७—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तु लक्ष्मणेनाशु ववन्दे चरणौ पितुः।
ततो हृष्टो दशरथो रामं वचनमब्रवीत्॥ ४१॥
मूलम्
रामस्तु लक्ष्मणेनाशु ववन्दे चरणौ पितुः।
ततो हृष्टो दशरथो रामं वचनमब्रवीत्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर लक्ष्मणके सहित रामजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया; तब राजा दशरथने प्रसन्न होकर रामसे कहा—॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या पश्यामि ते राम मुखं फुल्लाम्बुजोपमम्।
मुनेरनुग्रहात्सर्वं सम्पन्नं मम शोभनम्॥ ४२॥
मूलम्
दिष्ट्या पश्यामि ते राम मुखं फुल्लाम्बुजोपमम्।
मुनेरनुग्रहात्सर्वं सम्पन्नं मम शोभनम्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राम! आज बड़े भाग्यसे मैं तुम्हारा विकसित कमलके समान मुख देख रहा हूँ; मुनिवरके अनुग्रहसे सब प्रकार मेरा कल्याण ही हुआ’’॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वाघ्राय मूर्धानमालिङ्ग्य च पुनः पुनः।
हर्षेण महताविष्टो ब्रह्मानन्दं गतो यथा॥ ४३॥
मूलम्
इत्युक्त्वाघ्राय मूर्धानमालिङ्ग्य च पुनः पुनः।
हर्षेण महताविष्टो ब्रह्मानन्दं गतो यथा॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह वे उन्हें पुनः-पुनः हृदयसे लगा और उनका मस्तक सूँघ अत्यन्त हर्षसे मानो ब्रह्मानन्दमें डूब गये॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जनकराजेन मन्दिरे सन्निवेशितः।
शोभने सर्वभोगाढ्ये सदारः ससुतः सुखी॥ ४४॥
मूलम्
ततो जनकराजेन मन्दिरे सन्निवेशितः।
शोभने सर्वभोगाढ्ये सदारः ससुतः सुखी॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महाराज जनकने उन्हें रानियों और राजकुमारोंके सहित समस्त भोग-सामग्रियोंसे पूर्ण एक परम सुन्दर महलमें सुखपूर्वक ठहराया॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शुभे दिने लग्ने सुमुहूर्ते रघुत्तमम्।
आनयामास धर्मज्ञो रामं सभ्रातृकं तदा॥ ४५॥
मूलम्
ततः शुभे दिने लग्ने सुमुहूर्ते रघुत्तमम्।
आनयामास धर्मज्ञो रामं सभ्रातृकं तदा॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर शुभ दिनमें शुभ मुहूर्त और लग्नके समय धर्मज्ञ जनकजीने भाइयोंसहित रामको बुलाया॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नस्तम्भसुविस्तारे सुविताने सुतोरणे।
मण्डपे सर्वशोभाढ्ये मुक्तापुष्पफलान्विते॥ ४६॥
वेदविद्भिः सुसम्बाधे ब्राह्मणैः स्वर्णभूषितैः।
सुवासनीभिः परितो निष्ककण्ठीभिरावृते॥ ४७॥
भेरीदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतनृत्यैः समाकुले।
दिव्यरत्नाञ्चिते स्वर्णपीठे रामं न्यवेशयत्॥ ४८॥
मूलम्
रत्नस्तम्भसुविस्तारे सुविताने सुतोरणे।
मण्डपे सर्वशोभाढ्ये मुक्तापुष्पफलान्विते॥ ४६॥
वेदविद्भिः सुसम्बाधे ब्राह्मणैः स्वर्णभूषितैः।
सुवासनीभिः परितो निष्ककण्ठीभिरावृते॥ ४७॥
भेरीदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतनृत्यैः समाकुले।
दिव्यरत्नाञ्चिते स्वर्णपीठे रामं न्यवेशयत्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और एक सर्वशोभासम्पन्न विस्तीर्ण मण्डपमें जिसमें रत्नजटित स्तम्भ, सुन्दर वितान, मनोहर तोरण तथा मोतियोंके पुष्प और फल लगे हुए थे तथा जो सुवर्ण-भूषण-भूषित वेदपाठी ब्राह्मणोंसे खचाखच भरा हुआ था और सुन्दर वस्त्र धारण किये निष्ककण्ठी (सुहागिन) नारियोंसे समाकुल था, श्रीरामचन्द्रजीको एक दिव्य-रत्न-जटित सुवर्ण-सिंहासनपर बैठाया। उस समय भेरी और दुन्दुभि आदि बाजों तथा नृत्य और गान आदिका बड़ा तुमुल कोलाहल हो रहा था॥ ४६—४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठं कौशिकं चैव शतानन्दः पुरोहितः।
यथाक्रमं पूजयित्वा रामस्योभयपार्श्वयोः॥ ४९॥
स्थापयित्वा स तत्राग्निं ज्वालयित्वा यथाविधि।
सीतामानीय शोभाढ्यां नानारत्नविभूषिताम्॥ ५०॥
सभार्यो जनकः प्रायाद्रामं राजीवलोचनम्।
पादौ प्रक्षाल्य विधिवत्तदपो मूर्ध्न्यधारयत्॥ ५१॥
मूलम्
वसिष्ठं कौशिकं चैव शतानन्दः पुरोहितः।
यथाक्रमं पूजयित्वा रामस्योभयपार्श्वयोः॥ ४९॥
स्थापयित्वा स तत्राग्निं ज्वालयित्वा यथाविधि।
सीतामानीय शोभाढ्यां नानारत्नविभूषिताम्॥ ५०॥
सभार्यो जनकः प्रायाद्रामं राजीवलोचनम्।
पादौ प्रक्षाल्य विधिवत्तदपो मूर्ध्न्यधारयत्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पुरोहित शतानन्दने श्रीवसिष्ठ और विश्वामित्रजीका क्रमशः पूजन कर उनको रामचन्द्रजीके दोनों ओर बैठा दिया। फिर वहाँ विधिपूर्वक अग्नि प्रज्वलित की गयी तथा नाना-रत्न-विभूषिता सीताको साथ लेकर महारानीसहित महाराज जनकजी कमलनयन रामजीके पास आये और विधिपूर्वक उनके चरण धोकर अपने सिरपर चरणोदक रखा॥ ४९—५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या धृता मूर्ध्नि शर्वेण ब्रह्मणा मुनिभिः सदा।
ततः सीतां करे धृत्वा साक्षतोदकपूर्वकम्॥ ५२॥
रामाय प्रददौ प्रीत्या पाणिग्रहविधानतः।
सीता कमलपत्राक्षी स्वर्णमुक्तादिभूषिता॥ ५३॥
दीयते मे सुता तुभ्यं प्रीतो भव रघूत्तम।
इति प्रीतेन मनसा सीतां रामकरेऽर्पयन्॥ ५४॥
मुमोद जनको लक्ष्मीं क्षीराब्धिरिव विष्णवे।
उर्मिलां चौरसीं कन्यां लक्ष्मणाय ददौ मुदा॥ ५५॥
मूलम्
या धृता मूर्ध्नि शर्वेण ब्रह्मणा मुनिभिः सदा।
ततः सीतां करे धृत्वा साक्षतोदकपूर्वकम्॥ ५२॥
रामाय प्रददौ प्रीत्या पाणिग्रहविधानतः।
सीता कमलपत्राक्षी स्वर्णमुक्तादिभूषिता॥ ५३॥
दीयते मे सुता तुभ्यं प्रीतो भव रघूत्तम।
इति प्रीतेन मनसा सीतां रामकरेऽर्पयन्॥ ५४॥
मुमोद जनको लक्ष्मीं क्षीराब्धिरिव विष्णवे।
उर्मिलां चौरसीं कन्यां लक्ष्मणाय ददौ मुदा॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे शिव, ब्रह्मा और अन्यान्य मुनिजन भी सदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं। फिर सीताजीका हाथ पकड़कर उसे जल और चावलसहित पाणिग्रहणकी विधिसे प्रीतिपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीके करकमलोंमें दे दिया और कहा—‘‘रघुश्रेष्ठ! मैं सुवर्ण और मुक्ता आदिसे विभूषिता अपनी पुत्री कमललोचना सीता आपको सौंपता हूँ, आप प्रसन्न होइये।’’ इस प्रकार सीताजीको प्रसन्न चित्तसे श्रीरामचन्द्रजीके कर-कमलोंमें सौंपकर जनकजी ऐसे आनन्दमग्न हो गये जैसे क्षीरसागर श्रीविष्णुभगवान् के करकमलोंमें लक्ष्मीको सौंपकर हुआ था। फिर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी औरसी कन्या उर्मिला लक्ष्मणजीको विवाह दी॥ ५२—५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव श्रुतकीर्तिं च माण्डवीं भ्रातृकन्यके।
भरताय ददावेकां शत्रुघ्नायापरां ददौ॥ ५६॥
मूलम्
तथैव श्रुतकीर्तिं च माण्डवीं भ्रातृकन्यके।
भरताय ददावेकां शत्रुघ्नायापरां ददौ॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अपने भाईकी पुत्रियाँ माण्डवी और श्रुतकीर्ति क्रमशः भरत और शत्रुघ्नको दीं॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वारो दारसम्पन्ना भ्रातरः शुभलक्षणाः।
विरेजुः प्रभया सर्वे लोकपाला इवापरे॥ ५७॥
मूलम्
चत्वारो दारसम्पन्ना भ्रातरः शुभलक्षणाः।
विरेजुः प्रभया सर्वे लोकपाला इवापरे॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सुलक्षणसम्पन्न चारों भाई पत्नियोंके सहित साक्षात् दूसरे लोकपालोंके समान अपने प्रकाशसे सुशोभित हुए॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीद्वसिष्ठाय विश्वामित्राय मैथिलः।
जनकः स्वसुतोदन्तं नारदेनाभिभाषितम्॥ ५८॥
मूलम्
ततोऽब्रवीद्वसिष्ठाय विश्वामित्राय मैथिलः।
जनकः स्वसुतोदन्तं नारदेनाभिभाषितम्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मिथिलापति महाराज जनकने पुत्री जानकीके विषयमें देवर्षि नारदने जो कुछ कहा था वह सब वृत्तान्त वसिष्ठ और विश्वामित्रजीको सुनाया॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञभूमिविशुद्ध्यर्थं कर्षतो लाङ्गलेन मे।
सीतामुखात्समुत्पन्ना कन्यका शुभलक्षणा॥ ५९॥
मूलम्
यज्ञभूमिविशुद्ध्यर्थं कर्षतो लाङ्गलेन मे।
सीतामुखात्समुत्पन्ना कन्यका शुभलक्षणा॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बोले—‘‘एक बार मैं यज्ञभूमिकी शुद्धिके लिये हल जोत रहा था, उसी समय मेरे हलके सीता (अग्रभाग)-से यह शुभलक्षणा कन्या प्रकट हुई॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामद्राक्षमहं प्रीत्या पुत्रिकाभावभाविताम्।
अर्पिता प्रियभार्यायै शरच्चन्द्रनिभानना॥ ६०॥
मूलम्
तामद्राक्षमहं प्रीत्या पुत्रिकाभावभाविताम्।
अर्पिता प्रियभार्यायै शरच्चन्द्रनिभानना॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मैंने इसे देखा और इसमें मुझे पुत्रीवत् प्रीति हुई, इसलिये मैंने इस चन्द्रमुखीको अपनी प्रियपत्नीको सौंप दिया॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा नारदोऽभ्यागाद्विविक्ते मयि संस्थिते।
रणयन्महतीं वीणां गायन्नारायणं विभुम्॥ ६१॥
मूलम्
एकदा नारदोऽभ्यागाद्विविक्ते मयि संस्थिते।
रणयन्महतीं वीणां गायन्नारायणं विभुम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन जब मैं एकान्तमें बैठा हुआ था, मेरे पास महर्षि नारदजी अपनी महती नामकी वीणा बजाते और सर्वव्यापक श्रीहरिका गुण गाते हुए आये॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजितः सुखमासीनो मामुवाच सुखान्वितः।
शृणुष्व वचनं गुह्यं तवाभ्युदयकारणम्॥ ६२॥
मूलम्
पूजितः सुखमासीनो मामुवाच सुखान्वितः।
शृणुष्व वचनं गुह्यं तवाभ्युदयकारणम्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पूजा-सत्कारादि कर चुकनेपर वे सुखपूर्वक बैठकर प्रसन्नतापूर्वक मुझसे बोले—‘राजन्! अपने कल्याणका कारणरूप यह परम गुप्त वचन सुनो—॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमात्मा हृषीकेशो भक्तानुग्रहकाम्यया।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं रावणस्य वधाय च॥ ६३॥
जातो राम इति ख्यातो मायामानुषवेषधृक्।
आस्ते दाशरथिर्भूत्वा चतुर्धा परमेश्वरः॥ ६४॥
मूलम्
परमात्मा हृषीकेशो भक्तानुग्रहकाम्यया।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं रावणस्य वधाय च॥ ६३॥
जातो राम इति ख्यातो मायामानुषवेषधृक्।
आस्ते दाशरथिर्भूत्वा चतुर्धा परमेश्वरः॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्मा हृषीकेश भक्तोंपर कृपा, देवताओंकी कार्य-सिद्धि और रावणका वध करनेके लिये माया-मानवरूपसे अवतीर्ण होकर ‘राम’ नामसे विख्यात हुए हैं। वे परमेश्वर अपने चार अंशोंसे दशरथके पुत्र होकर अयोध्यामें रहते हैं॥ ६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगमायापि सीतेति जाता वै तव वेश्मनि।
अतस्त्वं राघवायैव देहि सीतां प्रयत्नतः॥ ६५॥
नान्येभ्यः पूर्वभार्यैषा रामस्य परमात्मनः।
इत्युक्त्वा प्रययौ देवगतिं देवमुनिस्तदा॥ ६६॥
मूलम्
योगमायापि सीतेति जाता वै तव वेश्मनि।
अतस्त्वं राघवायैव देहि सीतां प्रयत्नतः॥ ६५॥
नान्येभ्यः पूर्वभार्यैषा रामस्य परमात्मनः।
इत्युक्त्वा प्रययौ देवगतिं देवमुनिस्तदा॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और इधर योगमायाने तुम्हारे यहाँ सीताके रूपसे जन्म लिया है। अतः तुम प्रयत्नपूर्वक इस सीताका पाणिग्रहण रघुनाथजीके साथ ही करना और किसीसे नहीं—क्योंकि यह पहलेसे ही परमात्मा रामकी ही भार्या है, ऐसा कहकर देवर्षि नारदजी आकाश-मार्गसे चले गये॥ ६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदारभ्य मया सीता विष्णोर्लक्ष्मीर्विभाव्यते।
कथं मया राघवाय दीयते जानकी शुभा॥ ६७॥
इति चिन्तासमाविष्टः कार्यमेकमचिन्तयम्।
मत्पितामहगेहे तु न्यासभूतमिदं धनुः॥ ६८॥
ईश्वरेण पुरा क्षिप्तं पुरदाहादनन्तरम्।
धनुरेतत्पणं कार्यमिति चिन्त्य कृतं तथा॥ ६९॥
सीतापाणिग्रहार्थाय सर्वेषां माननाशनम्।
त्वत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ रामो राजीवलोचनः॥ ७०॥
आगतोऽत्र धनुर्द्रष्टुं फलितो मे मनोरथः।
अद्य मे सफलं जन्म राम त्वां सह सीतया॥ ७१॥
एकासनस्थं पश्यामि भ्राजमानं रविं यथा।
त्वत्पादाम्बुधरो ब्रह्मा सृष्टिचक्रप्रवर्तकः॥ ७२॥
मूलम्
तदारभ्य मया सीता विष्णोर्लक्ष्मीर्विभाव्यते।
कथं मया राघवाय दीयते जानकी शुभा॥ ६७॥
इति चिन्तासमाविष्टः कार्यमेकमचिन्तयम्।
मत्पितामहगेहे तु न्यासभूतमिदं धनुः॥ ६८॥
ईश्वरेण पुरा क्षिप्तं पुरदाहादनन्तरम्।
धनुरेतत्पणं कार्यमिति चिन्त्य कृतं तथा॥ ६९॥
सीतापाणिग्रहार्थाय सर्वेषां माननाशनम्।
त्वत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ रामो राजीवलोचनः॥ ७०॥
आगतोऽत्र धनुर्द्रष्टुं फलितो मे मनोरथः।
अद्य मे सफलं जन्म राम त्वां सह सीतया॥ ७१॥
एकासनस्थं पश्यामि भ्राजमानं रविं यथा।
त्वत्पादाम्बुधरो ब्रह्मा सृष्टिचक्रप्रवर्तकः॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तबसे इस सीताको मैं विष्णुभगवान् की भार्या लक्ष्मी ही समझता हूँ। फिर यह सोचते हुए कि ‘शुभलक्षणा जानकीको किस प्रकार रघुनाथजीको दूँ, मैंने एक युक्ति विचारी। पूर्वकालमें श्रीमहादेवजीने त्रिपुरासुरको भस्म करनेके अनन्तर यह धनुष मेरे दादाके यहाँ धरोहरके रूपमें रखा था। मैंने यह सोचकर कि ‘सीताके पाणिग्रहणके लिये सबके गर्वनाशक इस धनुषको ही पण (बाजी) बनाना चाहिये’ वैसा ही किया। हे मुनिश्रेष्ठ! आपकी कृपासे यहाँ कमलनयन रामजी धनुष देखने आ गये; इससे मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया। हे राम! आज मेरा जन्म सफल हो गया जो मैं सूर्यके समान देदीप्यमान और सीताके साथ एक आसनपर विराजमान आपको देख रहा हूँ। प्रभो! आपके चरणोदकको सिरपर धारण करके ही ब्रह्माजी सृष्टि-चक्रके प्रवर्तक हुए हैं॥ ६७—७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिस्त्वत्पादसलिलं धृत्वाभूद्दिविजाधिपः।
त्वत्पादपांसुसंस्पर्शादहल्या भर्तृशापतः॥ ७३॥
सद्य एव विनिर्मुक्ता कोऽन्यस्त्वत्तोऽधिरक्षिता॥ ७४॥
मूलम्
बलिस्त्वत्पादसलिलं धृत्वाभूद्दिविजाधिपः।
त्वत्पादपांसुसंस्पर्शादहल्या भर्तृशापतः॥ ७३॥
सद्य एव विनिर्मुक्ता कोऽन्यस्त्वत्तोऽधिरक्षिता॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके चरणोदकके प्रतापसे बलिको इन्द्र-पद प्राप्त हुआ है और आपकी ही चरण-धूलिके स्पर्शसे अहल्या तुरंत पतिके शापसे मुक्त हो गयी। आपसे बढ़कर हमारा रक्षक और कौन है॥ ७३-७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पादपङ्कजपरागसुरागयोगि-
वृन्दैर्जितं भवभयं जितकालचक्रैः
यन्नामकीर्तनपरा जितदुःखशोका
देवास्तमेव शरणं सततं प्रपद्ये॥ ७५॥
मूलम्
यत्पादपङ्कजपरागसुरागयोगि-
वृन्दैर्जितं भवभयं जितकालचक्रैः
यन्नामकीर्तनपरा जितदुःखशोका
देवास्तमेव शरणं सततं प्रपद्ये॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके चरण-कमल-परागके रसिक, काल-चक्रको जीतनेवाले योगिजनोंने संसारभयको भी जीत लिया है तथा जिनके नाम-कीर्तनमें लगे रहकर देवगण दुःख और शोकको जीत लेते हैं, उन आपकी मैं निरन्तर शरण ग्रहण करता हूँ’’॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति स्तुत्वा नृपः प्रादाद्राघवाय महात्मने।
दीनाराणां कोटिशतं रथानामयुतं तदा॥ ७६॥
अश्वानां नियुतं प्रादाद्गजानां षट्शतं तथा।
पत्तीनां लक्षमेकं तु दासीनां त्रिशतं ददौ॥ ७७॥
मूलम्
इति स्तुत्वा नृपः प्रादाद्राघवाय महात्मने।
दीनाराणां कोटिशतं रथानामयुतं तदा॥ ७६॥
अश्वानां नियुतं प्रादाद्गजानां षट्शतं तथा।
पत्तीनां लक्षमेकं तु दासीनां त्रिशतं ददौ॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा रघुनाथजीकी इस प्रकार स्तुति कर महाराज जनकने उन्हें दहेजमें सौ करोड़ दीनार (सुवर्णमुद्रा), दस हजार रथ, दस लक्ष घोड़े, छः सौ हाथी, एक लाख पदाति और तीन सौ दासियाँ दीं॥ ७६-७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्याम्बराणि हारांश्च मुक्तारत्नमयोज्ज्वलान्।
सीतायै जनकः प्रादात्प्रीत्या दुहितृवत्सलः॥ ७८॥
मूलम्
दिव्याम्बराणि हारांश्च मुक्तारत्नमयोज्ज्वलान्।
सीतायै जनकः प्रादात्प्रीत्या दुहितृवत्सलः॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा सीताजीको भी पुत्रीवत्सल जनकजीने प्रेमपूर्वक अनेकों दिव्य वस्त्र तथा मोती और रत्न-जटित उज्ज्वल हार दिये॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठादीन्सुसंपूज्य भरतं लक्ष्मणं तथा।
पूजयित्वा यथान्यायं तथा दशरथं नृपम्॥ ७९॥
प्रस्थापयामास नृपो राजानं रघुसत्तमम्।
सीतामालिङ्ग्य रुदतीं मातरः साश्रुलोचनाः॥ ८०॥
मूलम्
वसिष्ठादीन्सुसंपूज्य भरतं लक्ष्मणं तथा।
पूजयित्वा यथान्यायं तथा दशरथं नृपम्॥ ७९॥
प्रस्थापयामास नृपो राजानं रघुसत्तमम्।
सीतामालिङ्ग्य रुदतीं मातरः साश्रुलोचनाः॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्होंने वसिष्ठादिकी पूजा की; फिर भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और राजा दशरथका धन-दानादिसे यथोचित सत्कार कर रघुश्रेष्ठ महाराज दशरथको विदा किया। फिर माताओंने रोती हुई सीताको गले लगा नेत्रोंमें जल भरकर कहा—॥ ७९-८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वश्रूशुश्रूषणपरा नित्यं राममनुव्रता।
पातिव्रत्यमुपालम्ब्य तिष्ठ वत्से यथासुखम्॥ ८१॥
मूलम्
श्वश्रूशुश्रूषणपरा नित्यं राममनुव्रता।
पातिव्रत्यमुपालम्ब्य तिष्ठ वत्से यथासुखम्॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘वत्से! तुम सासुकी सेवा करती हुई सदा रामचन्द्रजीकी अनुगामिनी रह पातिव्रत-धर्मका अवलम्बन कर सुखपूर्वक रहना’’॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयाणकाले रघुनन्दनस्य
भेरीमृदङ्गानकतूर्यघोषः।
स्वर्वासिभेरीघनतूर्यशब्दैः
संमूर्च्छितो भूतभयङ्करोऽभूत्॥ ८२॥
मूलम्
प्रयाणकाले रघुनन्दनस्य
भेरीमृदङ्गानकतूर्यघोषः।
स्वर्वासिभेरीघनतूर्यशब्दैः
संमूर्च्छितो भूतभयङ्करोऽभूत्॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रघुकुलतिलक श्रीरघुनाथजीके कूच करते समय भेरी, मृदंग, आनक और तूर्य आदि बाजोंका घोष, आकाशमें देवताओंके बजाये हुए भेरी, झाँझ और तूर्य आदिके शब्द मिलकर प्राणियोंको भय उपजानेवाला हुआ॥ ८२॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे षष्ठः सर्गः॥ ६॥