[पंचम सर्ग]
भागसूचना
मारीच और सुबाहुका दमन तथा अहल्योद्धार
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र कामाश्रमे रम्ये कानने मुनिसङ्कुले।
उषित्वा रजनीमेकां प्रभाते प्रस्थिताः शनैः॥ १॥
मूलम्
तत्र कामाश्रमे रम्ये कानने मुनिसङ्कुले।
उषित्वा रजनीमेकां प्रभाते प्रस्थिताः शनैः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! तदुपरान्त विश्वामित्रजीके सहित वे दोनों भाई एक रात मुनिजन-संकुलित अति सुन्दर उस कामाश्रम नामक वनमें रहकर प्रातःकाल होते ही धीरे-धीरे वहाँसे चले॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धाश्रमं गताः सर्वे सिद्धचारणसेवितम्।
विश्वामित्रेण संदिष्टा मुनयस्तन्निवासिनः॥२॥
पूजां च महतीं चक्रू रामलक्ष्मणयोर्द्रुतम्।
श्रीरामः कौशिकं प्राह मुने दीक्षां प्रविश्यताम्॥ ३॥
मूलम्
सिद्धाश्रमं गताः सर्वे सिद्धचारणसेवितम्।
विश्वामित्रेण संदिष्टा मुनयस्तन्निवासिनः॥२॥
पूजां च महतीं चक्रू रामलक्ष्मणयोर्द्रुतम्।
श्रीरामः कौशिकं प्राह मुने दीक्षां प्रविश्यताम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे सब सिद्ध और चारणोंसे सेवित सिद्धाश्रमपर आये। वहाँके रहनेवाले मुनिजनोंने विश्वामित्रजीकी आज्ञासे शीघ्रतापूर्वक राम और लक्ष्मणका बड़ा सत्कार किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने विश्वामित्रजीसे कहा—‘‘हे मुने! आप दीक्षामें स्थित होइये॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शयस्व महाभाग कुतस्तौ राक्षसाधमौ।
तथेत्युक्त्वा मुनिर्यष्टुमारेभे मुनिभिः सह॥ ४॥
मूलम्
दर्शयस्व महाभाग कुतस्तौ राक्षसाधमौ।
तथेत्युक्त्वा मुनिर्यष्टुमारेभे मुनिभिः सह॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे महाभाग! हमें केवल यह दिखा दीजिये कि वे राक्षसाधम कहाँ हैं?’’ तब मुनिवरने ‘बहुत अच्छा’ कहकर अन्य मुनियोंके साथ यज्ञ करना आरम्भ कर दिया॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्याह्ने ददृशाते तौ राक्षसौ कामरूपिणौ।
मारीचश्च सुबाहुश्च वर्षन्तौ रुधिरास्थिनी॥ ५॥
मूलम्
मध्याह्ने ददृशाते तौ राक्षसौ कामरूपिणौ।
मारीचश्च सुबाहुश्च वर्षन्तौ रुधिरास्थिनी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मध्याह्नके समय मारीच और सुबाहु नामक वे दोनों कामरूपी राक्षस रक्त और अस्थियोंकी वर्षा करते दिखायी दिये॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोऽपि धनुरादाय द्वौ बाणौ सन्दधे सुधीः।
आकर्णान्तं समाकृष्य विससर्ज तयोः पृथक्॥ ६॥
मूलम्
रामोऽपि धनुरादाय द्वौ बाणौ सन्दधे सुधीः।
आकर्णान्तं समाकृष्य विससर्ज तयोः पृथक्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् रामने भी दो बाण लेकर धनुषपर चढ़ाये और कर्णपर्यन्त खींचकर अलग-अलग उन दोनों राक्षसोंकी ओर छोड़े॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरेकस्तु मारीचं भ्रामयञ्छतयोजनम्।
पातयामास जलधौ तदद्भुतमिवाभवत्॥ ७॥
मूलम्
तयोरेकस्तु मारीचं भ्रामयञ्छतयोजनम्।
पातयामास जलधौ तदद्भुतमिवाभवत्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे एक बाणने मारीचको आकाशमें घुमाते हुए सौ योजनकी दूरीपर समुद्रमें गिरा दिया। यह एक बड़ा ही आश्चर्य-सा हो गया॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितीयोऽग्निमयो बाणः सुबाहुमजयत्क्षणात्।
अपरे लक्ष्मणेनाशु हतास्तदनुयायिनः॥ ८॥
मूलम्
द्वितीयोऽग्निमयो बाणः सुबाहुमजयत्क्षणात्।
अपरे लक्ष्मणेनाशु हतास्तदनुयायिनः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे अग्निमय बाणने क्षणभरमें सुबाहुको भस्म कर डाला तथा जो उनके अन्यान्य अनुयायी थे उन सबको तुरंत ही लक्ष्मणजीने मार डाला॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पौघैराकिरन्देवा राघवं सहलक्ष्मणम्।
देवदुन्दुभयो नेदुस्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः॥ ९॥
मूलम्
पुष्पौघैराकिरन्देवा राघवं सहलक्ष्मणम्।
देवदुन्दुभयो नेदुस्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवताओंने लक्ष्मणजीके सहित श्रीरघुनाथजीपर फूल बरसाये और देवदुन्दुभि आदि बाजोंका घोष किया तथा सिद्ध और चारणगण उनकी स्तुति करने लगे॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रस्तु संपूज्य पूजार्हं रघुनन्दनम्।
अङ्के निवेश्य चालिङ्ग्य भक्त्या वाष्पाकुलेक्षणः॥ १०॥
मूलम्
विश्वामित्रस्तु संपूज्य पूजार्हं रघुनन्दनम्।
अङ्के निवेश्य चालिङ्ग्य भक्त्या वाष्पाकुलेक्षणः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रजीने पूजनीय रघुनाथजीका भली प्रकार पूजन किया और उन्हें गोदमें ले नेत्रोंमें भक्तिपूर्वक प्रेमाश्रु भरकर गले लगा लिया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजयित्वा सह भ्रात्रा रामं पक्वफलादिभिः।
पुराणवाक्यैर्मधुरैर्निनाय दिवसत्रयम्॥ ११॥
मूलम्
भोजयित्वा सह भ्रात्रा रामं पक्वफलादिभिः।
पुराणवाक्यैर्मधुरैर्निनाय दिवसत्रयम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भाई लक्ष्मणके सहित रामको पके फल आदि खिलाकर पुराण और इतिहासादिकी मधुर कथाएँ सुनाते हुए तीन दिन बिताये॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थेऽहनि संप्राप्ते कौशिको राममब्रवीत्।
राम राम महायज्ञं द्रष्टुं गच्छामहे वयम्॥ १२॥
विदेहराजनगरे जनकस्य महात्मनः।
तत्र माहेश्वरं चापमस्ति न्यस्तं पिनाकिना॥ १३॥
मूलम्
चतुर्थेऽहनि संप्राप्ते कौशिको राममब्रवीत्।
राम राम महायज्ञं द्रष्टुं गच्छामहे वयम्॥ १२॥
विदेहराजनगरे जनकस्य महात्मनः।
तत्र माहेश्वरं चापमस्ति न्यस्तं पिनाकिना॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
चौथा दिन आनेपर विश्वामित्रजीने रामसे कहा—‘‘हे राम! महात्मा जनकजीका बड़ा भारी यज्ञ देखनेके लिये हमलोग जनकपुर चलेंगे। वहाँ श्रीमहादेवजीका धरोहरके रूपमें रखा हुआ एक बड़ा भारी धनुष है॥ १२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रक्ष्यसि त्वं महासत्त्वं पूज्यसे जनकेन च।
इत्युक्त्वा मुनिभिस्ताभ्यां ययौ गङ्गासमीपगम्॥ १४॥
गौतमस्याश्रमं पुण्यं यत्राहल्यास्थिता तपः।
दिव्यपुष्पफलोपेतपादपैः परिवेष्टितम्॥ १५॥
मूलम्
द्रक्ष्यसि त्वं महासत्त्वं पूज्यसे जनकेन च।
इत्युक्त्वा मुनिभिस्ताभ्यां ययौ गङ्गासमीपगम्॥ १४॥
गौतमस्याश्रमं पुण्यं यत्राहल्यास्थिता तपः।
दिव्यपुष्पफलोपेतपादपैः परिवेष्टितम्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सुदृढ़ धनुषको तुम देखोगे और महाराज जनक तुम्हारा भली प्रकार सत्कार करेंगे।’’ विश्वामित्रजी इस प्रकार कह मुनियोंको और राम-लक्ष्मणको साथ ले गंगाजीके निकट मुनिश्रेष्ठ गौतमजीके उस पवित्र आश्रमपर आये जो दिव्य और पवित्र फलोंवाले वृक्षोंसे घिरा हुआ था और जहाँ अहल्या तप कर रही थी॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगपक्षिगणैर्हीनं नानाजन्तुविवर्जितम्।
दृष्ट्वोवाच मुनिं श्रीमान् रामो राजीवलोचनः॥ १६॥
मूलम्
मृगपक्षिगणैर्हीनं नानाजन्तुविवर्जितम्।
दृष्ट्वोवाच मुनिं श्रीमान् रामो राजीवलोचनः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन श्रीमान् रामजीने उस आश्रमको मृग, पक्षी तथा नाना प्रकारके जीवोंसे रहित देख मुनिवर कौशिकसे कहा—॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यैतदाश्रमपदं भाति भास्वच्छुभं महत्।
पत्रपुष्पफलैर्युक्तं जन्तुभिः परिवर्जितम्॥ १७॥
आह्लादयति मे चेतो भगवन् ब्रूहि तत्त्वतः॥ १८॥
मूलम्
कस्यैतदाश्रमपदं भाति भास्वच्छुभं महत्।
पत्रपुष्पफलैर्युक्तं जन्तुभिः परिवर्जितम्॥ १७॥
आह्लादयति मे चेतो भगवन् ब्रूहि तत्त्वतः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘यह पत्र, पुष्प और फल आदिसे सम्पन्न तथा जीवशून्य महान् आश्रम जो बड़ा सुन्दर, रमणीय और पवित्र दीख पड़ता है, किसका है? भगवन्! इसे देखकर मेरा चित्त अति आह्लादित हो रहा है; आप इसका सब वृत्तान्त यथावत् कहिये’’॥ १७-१८॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राम पुरा वृत्तं गौतमो लोकविश्रुतः।
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठस्तपसाराधयन् हरिम्॥ १९॥
मूलम्
शृणु राम पुरा वृत्तं गौतमो लोकविश्रुतः।
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठस्तपसाराधयन् हरिम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीविश्वामित्रजी बोले—हे राम! इस आश्रमका पूर्व-वृत्तान्त सुनो। पहले इस आश्रममें जगद्विख्यात धार्मिक-श्रेष्ठ मुनिवर गौतमजी तपस्याद्वारा श्रीहरिकी आराधना करते हुए रहते थे॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै ब्रह्मा ददौ कन्यामहल्यां लोकसुन्दरीम्।
ब्रह्मचर्येण सन्तुष्टः शुश्रूषणपरायणाम्॥ २०॥
मूलम्
तस्मै ब्रह्मा ददौ कन्यामहल्यां लोकसुन्दरीम्।
ब्रह्मचर्येण सन्तुष्टः शुश्रूषणपरायणाम्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ब्रह्मचर्यसे संतुष्ट होकर भगवान् ब्रह्माजीने उनकी सेवाके लिये उन्हें अहल्या नामकी एक लोकसुन्दरी सेवा-परायणा कन्या दी॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया सार्धमिहावात्सीद्गौतमस्तपतां वरः।
शक्रस्तु तां धर्षयितुमन्तरं प्रेप्सुरन्वहम्॥ २१॥
मूलम्
तया सार्धमिहावात्सीद्गौतमस्तपतां वरः।
शक्रस्तु तां धर्षयितुमन्तरं प्रेप्सुरन्वहम्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तापसप्रवर गौतमजी उस अहल्याके साथ यहाँ रहने लगे, इधर देवराज इन्द्र अहल्याके रूप-लावण्यपर मुग्ध होकर नित्यप्रति उसके साथ रमण करनेका अवसर देखने लगे॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिन्मुनिवेषेण गौतमे निर्गते गृहात्।
धर्षयित्वाथ निरगात्त्वरितं मुनिरप्यगात्॥ २२॥
मूलम्
कदाचिन्मुनिवेषेण गौतमे निर्गते गृहात्।
धर्षयित्वाथ निरगात्त्वरितं मुनिरप्यगात्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन मुनिवर गौतमके बाहर चले जानेपर वह गौतमके रूपसे अहल्याके साथ रमण कर जल्दीसे वहाँसे चलता बना, इसी समय मुनि भी वहाँ लौट आये॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा यान्तं स्वरूपेण मुनिः परमकोपनः।
पप्रच्छ कस्त्वं दुष्टात्मन्मम रूपधरोऽधमः॥ २३॥
मूलम्
दृष्ट्वा यान्तं स्वरूपेण मुनिः परमकोपनः।
पप्रच्छ कस्त्वं दुष्टात्मन्मम रूपधरोऽधमः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे अपना रूप धारणकर वहाँसे जाते देख गौतम मुनिने अत्यन्त कुपित होकर पूछा—‘‘रे दुष्टात्मन्! रे अधम! मेरे रूपको धारण करनेवाला तू कौन है?॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं ब्रूहि न चेद्भस्म करिष्यामि न संशयः।
सोऽब्रवीद्देवराजोऽहं पाहि मां कामकिङ्करम्॥ २४॥
मूलम्
सत्यं ब्रूहि न चेद्भस्म करिष्यामि न संशयः।
सोऽब्रवीद्देवराजोऽहं पाहि मां कामकिङ्करम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच-सच बता, नहीं तो मैं तुझे अभी भस्म कर दूँगा—इसमें सन्देह न करना।’’ तब वह बोला—‘‘भगवन्! मैं कामके वशीभूत देवराज इन्द्र हूँ, मेरी रक्षा कीजिये॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं जुगुप्सितं कर्म मया कुत्सितचेतसा।
गौतमः क्रोधताम्राक्षः शशाप दिविजाधिपम्॥ २५॥
मूलम्
कृतं जुगुप्सितं कर्म मया कुत्सितचेतसा।
गौतमः क्रोधताम्राक्षः शशाप दिविजाधिपम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझ पापात्माने बड़ा घृणित कार्य किया है।’’ तब गौतमने क्रोधसे आँखें लाल कर देवराजको शाप दिया॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योनिलम्पट दुष्टात्मन्सहस्रभगवान्भव।
शप्त्वा तं देवराजानं प्रविश्य स्वाश्रमं द्रुतम्॥ २६॥
दृष्ट्वाहल्यां वेपमानां प्राञ्जलिं गौतमोऽब्रवीत्।
दुष्टे त्वं तिष्ठ दुर्वृत्ते शिलायामाश्रमे मम॥ २७॥
मूलम्
योनिलम्पट दुष्टात्मन्सहस्रभगवान्भव।
शप्त्वा तं देवराजानं प्रविश्य स्वाश्रमं द्रुतम्॥ २६॥
दृष्ट्वाहल्यां वेपमानां प्राञ्जलिं गौतमोऽब्रवीत्।
दुष्टे त्वं तिष्ठ दुर्वृत्ते शिलायामाश्रमे मम॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे दुष्टात्मन्! तू योनिलम्पट है इसलिये तेरे शरीरमें सहस्र भग हो जायँ।’’ इस प्रकार देवराजको शाप देकर मुनिने अपने आश्रममें प्रवेश किया तो देखा कि अहल्या भयसे काँपती हुई हाथ जोड़े खड़ी है। उसे देखकर गौतमने कहा—‘‘हे दुष्टे! तू मेरे आश्रममें शिलामें निवास कर॥ २६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराहारा दिवारात्रं तपः परममास्थिता।
आतपानिलवर्षादिसहिष्णुः परमेश्वरम्॥ २८॥
ध्यायन्ती राममेकाग्रमनसा हृदि संस्थितम्।
नानाजन्तुविहीनोऽयमाश्रमो मे भविष्यति॥ २९॥
मूलम्
निराहारा दिवारात्रं तपः परममास्थिता।
आतपानिलवर्षादिसहिष्णुः परमेश्वरम्॥ २८॥
ध्यायन्ती राममेकाग्रमनसा हृदि संस्थितम्।
नानाजन्तुविहीनोऽयमाश्रमो मे भविष्यति॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ तू निराहार रहकर धूप, वायु और वर्षा आदिको सहन करती हुई दिन-रात तपस्या कर और एकाग्रचित्तसे हृदयमें विराजमान परमात्मा रामका ध्यान कर। अबसे यह मेरा आश्रम विविध प्रकारके जीव-जन्तुओंसे रहित हो जायगा॥ २८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वर्षसहस्रेषु ह्यनेकेषु गतेषु च।
रामो दाशरथिः श्रीमानागमिष्यति सानुजः॥ ३०॥
मूलम्
एवं वर्षसहस्रेषु ह्यनेकेषु गतेषु च।
रामो दाशरथिः श्रीमानागमिष्यति सानुजः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार कई हजार वर्ष बीत जानेपर यहाँ दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी भाई लक्ष्मणके साथ आयेंगे॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा त्वदाश्रयशिलां पादाभ्यामाक्रमिष्यति।
तदैव धूतपापा त्वं रामं संपूज्य भक्तितः॥ ३१॥
परिक्रम्य नमस्कृत्य स्तुत्वा शापाद्विमोक्ष्यसे।
पूर्ववन्मम शुश्रूषां करिष्यसि यथासुखम्॥ ३२॥
मूलम्
यदा त्वदाश्रयशिलां पादाभ्यामाक्रमिष्यति।
तदैव धूतपापा त्वं रामं संपूज्य भक्तितः॥ ३१॥
परिक्रम्य नमस्कृत्य स्तुत्वा शापाद्विमोक्ष्यसे।
पूर्ववन्मम शुश्रूषां करिष्यसि यथासुखम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय वे तेरी आश्रयभूत शिलापर अपने दोनों चरण रखेंगे उसी समय तू पापमुक्त हो जायगी तथा भक्तिपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीका पूजन कर उनकी परिक्रमा और नमस्कारपूर्वक स्तुति कर शापसे छूट जायगी और फिर पूर्ववत् मेरी सुखपूर्वक सेवा करने लगेगी’’॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा गौतमः प्रागाद्धिमवन्तं नगोत्तमम्।
तदाद्यहल्या भूतानामदृश्या स्वाश्रमे शुभे॥ ३३॥
तव पादरजःस्पर्शं काङ्क्षते पवनाशना।
आस्तेऽद्यापि रघुश्रेष्ठ तपो दुष्करमास्थिता॥ ३४॥
मूलम्
इत्युक्त्वा गौतमः प्रागाद्धिमवन्तं नगोत्तमम्।
तदाद्यहल्या भूतानामदृश्या स्वाश्रमे शुभे॥ ३३॥
तव पादरजःस्पर्शं काङ्क्षते पवनाशना।
आस्तेऽद्यापि रघुश्रेष्ठ तपो दुष्करमास्थिता॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर महर्षि गौतम पर्वतश्रेष्ठ हिमालयपर चले गये। हे रघुश्रेष्ठ! उसी दिनसे यह अहल्या वायु भक्षण करती हुई कठोर तपस्यामें स्थित हो आपके चरण-रजके स्पर्शकी कामनासे आजतक प्राणियोंसे अलक्षिता रहकर अपने शुभ आश्रममें रहती है॥ ३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पावयस्व मुनेर्भार्यामहल्यां ब्रह्मणः सुताम्।
इत्युक्त्वा राघवं हस्ते गृहीत्वा मुनिपुङ्गवः॥ ३५॥
दर्शयामास चाहल्यामुग्रेण तपसा स्थिताम्।
रामः शिलां पदा स्पृष्ट्वा तां चापश्यत्तपोधनाम्॥ ३६॥
मूलम्
पावयस्व मुनेर्भार्यामहल्यां ब्रह्मणः सुताम्।
इत्युक्त्वा राघवं हस्ते गृहीत्वा मुनिपुङ्गवः॥ ३५॥
दर्शयामास चाहल्यामुग्रेण तपसा स्थिताम्।
रामः शिलां पदा स्पृष्ट्वा तां चापश्यत्तपोधनाम्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! अब तुम ब्रह्माजीकी पुत्री गौतमपत्नी अहल्याका उद्धार करो।
मुनिवर विश्वामित्रजीने ऐसा कह रघुनाथजीका हाथ पकड़ उन्हें उग्र तपमें स्थित अहल्याको दिखलाया। तब श्रीरामचन्द्रजीने अपने चरणसे उस शिलाको स्पर्शकर तपस्विनी अहल्याको देखा॥ ३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननाम राघवोऽहल्यां रामोऽहमिति चाब्रवीत्।
ततो दृष्ट्वा रघुश्रेष्ठं पीतकौशेयवाससम्॥ ३७॥
मूलम्
ननाम राघवोऽहल्यां रामोऽहमिति चाब्रवीत्।
ततो दृष्ट्वा रघुश्रेष्ठं पीतकौशेयवाससम्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर भगवान् रामने ‘‘मैं राम हूँ’’ ऐसा कहकर प्रणाम किया। तब अहल्याने रेशमी पीताम्बर धारण किये श्रीरघुनाथजीको देखा॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भुजं शङ्खचक्रगदापङ्कजधारिणम्।
धनुर्बाणधरं रामं लक्ष्मणेन समन्वितम्॥ ३८॥
मूलम्
चतुर्भुजं शङ्खचक्रगदापङ्कजधारिणम्।
धनुर्बाणधरं रामं लक्ष्मणेन समन्वितम्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी चारों भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित थे, कंधेपर धनुष-बाण विराजमान थे तथा साथमें श्रीलक्ष्मणजी थे॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मितवक्त्रं पद्मनेत्रं श्रीवत्साङ्कितवक्षसम्।
नीलमाणिक्यसङ्काशं द्योतयन्तं दिशो दश॥ ३९॥
मूलम्
स्मितवक्त्रं पद्मनेत्रं श्रीवत्साङ्कितवक्षसम्।
नीलमाणिक्यसङ्काशं द्योतयन्तं दिशो दश॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका मुख मुसकानयुक्त, नेत्र कमलदलके समान और वक्षःस्थल श्रीवत्सांकसे सुशोभित था। अपने नीलमणिसदृश श्याम विग्रहसे वे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा रामं रमानाथं हर्षविस्फारितेक्षणा।
गौतमस्य वचः स्मृत्वा ज्ञात्वा नारायणं परम्॥ ४०॥
संपूज्य विधिवद्राममर्घ्यादिभिरनिन्दिता।
हर्षाश्रुजलनेत्रान्ता दण्डवत्प्रणिपत्य सा॥ ४१॥
मूलम्
दृष्ट्वा रामं रमानाथं हर्षविस्फारितेक्षणा।
गौतमस्य वचः स्मृत्वा ज्ञात्वा नारायणं परम्॥ ४०॥
संपूज्य विधिवद्राममर्घ्यादिभिरनिन्दिता।
हर्षाश्रुजलनेत्रान्ता दण्डवत्प्रणिपत्य सा॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
रमानाथ श्रीरामचन्द्रको देखकर अहल्याके नेत्र हर्षसे खिल गये और उसे मुनिवर गौतमके वाक्योंका स्मरण हो आया। तब उन्हें साक्षात् श्रीनारायण जान उस अनिन्दिताने अर्घ्यादिसे उनका विधिवत् पूजन किया और नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया॥ ४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थाय च पुनर्दृष्ट्वा रामं राजीवलोचनम्।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गा गिरा गद्गदयैलत॥ ४२॥
मूलम्
उत्थाय च पुनर्दृष्ट्वा रामं राजीवलोचनम्।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गा गिरा गद्गदयैलत॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर खड़ी होकर वह कमलनयन भगवान् रामको देख सर्वांगसे पुलकित हो गद्गदवाणीसे उनकी स्तुति करने लगी॥ ४२॥
मूलम् (वचनम्)
अहल्योवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो कृतार्थास्मि जगन्निवास ते
पादाब्जसंलग्नरजःकणादहम्।
स्पृशामि यत्पद्मजशङ्करादिभि-
र्विमृग्यते रन्धितमानसैः सदा॥ ४३॥
मूलम्
अहो कृतार्थास्मि जगन्निवास ते
पादाब्जसंलग्नरजःकणादहम्।
स्पृशामि यत्पद्मजशङ्करादिभि-
र्विमृग्यते रन्धितमानसैः सदा॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहल्या बोली—हे जगन्निवास! आपके चरण-कमलोंके रजःकणका स्पर्श कर आज मैं कृतार्थ हो गयी। अहो! (बड़े भाग्यकी बात है कि) आपके जिन पदारविन्दोंका ब्रह्मा और शंकर आदि एकाग्रचित्तसे सर्वदा अनुसन्धान किया करते हैं उन्हींका आज मैं स्पर्श कर रही हूँ॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो विचित्रं तव राम चेष्टितं
मनुष्यभावेन विमोहितं जगत्।
चलस्यजस्रं चरणादिवर्जितः
सम्पूर्ण आनन्दमयोऽतिमायिकः॥ ४४॥
मूलम्
अहो विचित्रं तव राम चेष्टितं
मनुष्यभावेन विमोहितं जगत्।
चलस्यजस्रं चरणादिवर्जितः
सम्पूर्ण आनन्दमयोऽतिमायिकः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आपकी लीलाएँ बड़ी विचित्र हैं, आपके मानुष-भावसे सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है। आप पूर्णानन्दमय और अति मायावी हैं; क्योंकि चरणादिहीन होकर भी आप निरन्तर चलते रहते हैं॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पादपङ्कजपरागपवित्रगात्रा
भागीरथी भवविरिञ्चिमुखान्पुनाति।
साक्षात्स एव मम दृग्विषयो यदास्ते
किं वर्ण्यते मम पुराकृतभागधेयम्॥ ४५॥
मूलम्
यत्पादपङ्कजपरागपवित्रगात्रा
भागीरथी भवविरिञ्चिमुखान्पुनाति।
साक्षात्स एव मम दृग्विषयो यदास्ते
किं वर्ण्यते मम पुराकृतभागधेयम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके चरण-कमलके परागसे पवित्र हुई श्रीगंगाजी, शिव और ब्रह्मा आदि जगदीश्वरोंको भी पवित्र करती हैं, आज साक्षात् वे ही मेरे नेत्रोंके विषय हो रहे हैं—मैं अपने पूर्वकृत पुण्यकर्मोंका किस प्रकार वर्णन करूँ?॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मर्त्यावतारे मनुजाकृतिं हरिं
रामाभिधेयं रमणीयदेहिनम्।
धनुर्धरं पद्मविशाललोचनं
भजामि नित्यं न परान्भजिष्ये॥ ४६॥
मूलम्
मर्त्यावतारे मनुजाकृतिं हरिं
रामाभिधेयं रमणीयदेहिनम्।
धनुर्धरं पद्मविशाललोचनं
भजामि नित्यं न परान्भजिष्ये॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने परम सुन्दर मानवदेहसे मर्त्यलोकमें अवतार लिया है, मैं उन धनुषधारी कमलदल-लोचन भगवान् रामको सर्वदा भजती हूँ और किसीको भी नहीं भजना चाहती॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पादपङ्कजरजः श्रुतिभिर्विमृग्यं
यन्नाभिपङ्कजभवः कमलासनश्च।
यन्नामसाररसिको भगवान्पुरारि-
स्तं रामचन्द्रमनिशं हृदि भावयामि॥ ४७॥
मूलम्
यत्पादपङ्कजरजः श्रुतिभिर्विमृग्यं
यन्नाभिपङ्कजभवः कमलासनश्च।
यन्नामसाररसिको भगवान्पुरारि-
स्तं रामचन्द्रमनिशं हृदि भावयामि॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके चरण-कमलोंकी रजको श्रुतियाँ भी ढूँढ़ती रहती हैं, जिनकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमलसे ब्रह्माजी प्रकट हुए हैं तथा जिनके नामामृतके भगवान् शंकर रसिक हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीका मैं अपने हृदयमें अहर्निश ध्यान करती हूँ॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यावतारचरितानि विरिञ्चिलोके
गायन्ति नारदमुखा भवपद्मजाद्याः।
आनन्दजाश्रुपरिषिक्तकुचाग्रसीमा
वागीश्वरी च तमहं शरणं प्रपद्ये॥ ४८॥
मूलम्
यस्यावतारचरितानि विरिञ्चिलोके
गायन्ति नारदमुखा भवपद्मजाद्याः।
आनन्दजाश्रुपरिषिक्तकुचाग्रसीमा
वागीश्वरी च तमहं शरणं प्रपद्ये॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके अवतार-चरित्रोंका नारदादि देवर्षिगण, ब्रह्मा और महादेव आदि देवेश्वरगण तथा आनन्दाश्रुओंसे जिनके कुचमण्डल भीगे हुए हैं वे सरस्वतीजी भी ब्रह्मलोकमें निरन्तर गान किया करती हैं उन प्रभुकी मैं शरण लेती हूँ॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं परात्मा पुरुषः पुराण
एकः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः।
मायातनुं लोकविमोहनीयां
धत्ते परानुग्रह एष रामः॥ ४९॥
मूलम्
सोऽयं परात्मा पुरुषः पुराण
एकः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः।
मायातनुं लोकविमोहनीयां
धत्ते परानुग्रह एष रामः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं पुराणपुरुष परमात्मा रामने संसारपर परम अनुग्रह करनेके लिये एक स्वयंप्रकाश, अनन्त और सबके आदिकारण होते हुए भी यह जगन्मोहन मायामय रूप धारण किया है॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं हि विश्वोद्भवसंयमाना-
मेकः स्वमायागुणबिम्बितो यः।
विरिञ्चिविष्ण्वीश्वरनाम भेदान्
धत्ते स्वतन्त्रः परिपूर्ण आत्मा॥ ५०॥
मूलम्
अयं हि विश्वोद्भवसंयमाना-
मेकः स्वमायागुणबिम्बितो यः।
विरिञ्चिविष्ण्वीश्वरनाम भेदान्
धत्ते स्वतन्त्रः परिपूर्ण आत्मा॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अकेले ही संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशके लिये अपनी मायाके गुणोंका आश्रय कर ब्रह्मा, विष्णु और महादेव नामक विभिन्न रूप धारण करते हैं वे स्वतन्त्र और परिपूर्ण आत्मा आप ही हैं॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु ते राम तवाङ्घ्रिपङ्कजं
श्रिया धृतं वक्षसि लालितं प्रियात्।
आक्रान्तमेकेन जगत्त्रयं पुरा
ध्येयं मुनीन्द्रैरभिमानवर्जितैः॥ ५१॥
मूलम्
नमोऽस्तु ते राम तवाङ्घ्रिपङ्कजं
श्रिया धृतं वक्षसि लालितं प्रियात्।
आक्रान्तमेकेन जगत्त्रयं पुरा
ध्येयं मुनीन्द्रैरभिमानवर्जितैः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आपके जिन चरण-कमलोंको श्रीलक्ष्मीजी अपने वक्षःस्थलपर रखकर बड़े प्रेमसे लाड़ लड़ाती हैं, जिन्होंने पूर्वकालमें (बलि-बन्धनके समय) एक ही पगमें सम्पूर्ण त्रिलोकी माप ली थी तथा अभिमान-हीन मुनिजन जिनका निरन्तर ध्यान किया करते हैं उन आपके चरण-कमलोंको मैं नमस्कार करती हूँ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगतामादिभूतस्त्वं जगत्त्वं जगदाश्रयः।
सर्वभूतेष्वसंयुक्त एको भाति भवान्परः॥ ५२॥
मूलम्
जगतामादिभूतस्त्वं जगत्त्वं जगदाश्रयः।
सर्वभूतेष्वसंयुक्त एको भाति भवान्परः॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आप ही जगत् के आदिकारण, आप ही जगत्-रूप और आप ही उसके आश्रय हैं, तथापि आप समस्त प्राणियोंसे पृथक् हैं और अद्वितीय परब्रह्मरूपसे प्रकाशमान हैं॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओंकारवाच्यस्त्वं राम वाचामविषयः पुमान्।
वाच्यवाचकभेदेन भवानेव जगन्मयः॥ ५३॥
मूलम्
ओंकारवाच्यस्त्वं राम वाचामविषयः पुमान्।
वाच्यवाचकभेदेन भवानेव जगन्मयः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप ओंकारके वाच्य हैं तथा आप ही वाणीके अगोचर परम पुरुष हैं। हे प्रभो! वाच्य-वाचक (शब्द-अर्थ) भेदसे आप ही सम्पूर्ण जगत्-रूप हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यकारणकर्तृत्वफलसाधनभेदतः।
एको विभासि राम त्वं मायया बहुरूपया॥ ५४॥
मूलम्
कार्यकारणकर्तृत्वफलसाधनभेदतः।
एको विभासि राम त्वं मायया बहुरूपया॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप अकेले ही बहु-रूपमयी मायाके आश्रयसे कार्य, कारण, कर्तृत्व, फल और साधनाके भेदसे अनेक रूपोंमें भासमान हो रहे हैं॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मायामोहितधियस्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः।
मानुषं त्वाभिमन्यन्ते मायिनं परमेश्वरम्॥ ५५॥
मूलम्
त्वन्मायामोहितधियस्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः।
मानुषं त्वाभिमन्यन्ते मायिनं परमेश्वरम्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी मायासे जिनकी बुद्धि मोहित हो रही है वे लोग आपका वास्तविक रूप नहीं जान सकते। आप मायापति परमेश्वरको वे मूढ़जन साधारण मनुष्य समझते हैं॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशवत्त्वं सर्वत्र बहिरन्तर्गतोऽमलः।
असङ्गो ह्यचलो नित्यः शुद्धो बुद्धः सदव्ययः॥ ५६॥
मूलम्
आकाशवत्त्वं सर्वत्र बहिरन्तर्गतोऽमलः।
असङ्गो ह्यचलो नित्यः शुद्धो बुद्धः सदव्ययः॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप आकाशके समान बाहर-भीतर सब ओर विराजमान, निर्मल, असंग, अचल, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सत्यस्वरूप और अव्यय हैं॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योषिन्मूढाहमज्ञा ते तत्त्वं जाने कथं विभो।
तस्मात्ते शतशो राम नमस्कुर्यामनन्यधीः॥ ५७॥
मूलम्
योषिन्मूढाहमज्ञा ते तत्त्वं जाने कथं विभो।
तस्मात्ते शतशो राम नमस्कुर्यामनन्यधीः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विभो! मैं मूढ़ और अज्ञानी स्त्री-जाति भला आपके तत्त्वको क्या जानूँ? अतः हे राम! मैं अनन्यभावसे आपको सैकड़ों बार केवल नमस्कार ही करती हूँ॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव मे यत्र कुत्रापि स्थिताया अपि सर्वदा।
त्वत्पादकमले सक्ता भक्तिरेव सदास्तु मे॥ ५८॥
मूलम्
देव मे यत्र कुत्रापि स्थिताया अपि सर्वदा।
त्वत्पादकमले सक्ता भक्तिरेव सदास्तु मे॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! मैं जहाँ-कहीं भी रहूँ वहीं सर्वदा आपके चरणकमलोंमें मेरी आसक्तिपूर्ण भक्ति बनी रहे॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सल।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश नारायण नमोऽस्तु ते॥ ५९॥
मूलम्
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सल।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश नारायण नमोऽस्तु ते॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है;हे भक्तवत्सल! आपको नमस्कार है; हे हृषीकेश! आपको नमस्कार है; हे नारायण! आपको बारम्बार नमस्कार है॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवभयहरमेकं भानुकोटिप्रकाशं
करधृतशरचापं कालमेघावभासम्।
कनकरुचिरवस्त्रं रत्नवत्कुण्डलाढ्यं
कमलविशदनेत्रं सानुजं राममीडे॥ ६०॥
मूलम्
भवभयहरमेकं भानुकोटिप्रकाशं
करधृतशरचापं कालमेघावभासम्।
कनकरुचिरवस्त्रं रत्नवत्कुण्डलाढ्यं
कमलविशदनेत्रं सानुजं राममीडे॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो संसारके एकमात्र भय दूर करनेवाले हैं, करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान हैं, कर-कमलोंमें धनुष और बाण धारण किये हैं, श्याम मेघके समान आभावाले हैं, सुवर्णके समान पीत वस्त्र धारण किये हैं, रत्न-जटित कुण्डलोंसे सुशोभित हैं तथा जिनके कमल-दलके समान अति सुन्दर विशाल नेत्र हैं, भाई लक्ष्मणसहित उन श्रीरघुनाथजीकी मैं स्तुति करती हूँ॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुत्वैवं पुरुषं साक्षाद्राघवं पुरतः स्थितम्।
परिक्रम्य प्रणम्याशु सानुज्ञाता ययौ पतिम्॥ ६१॥
मूलम्
स्तुत्वैवं पुरुषं साक्षाद्राघवं पुरतः स्थितम्।
परिक्रम्य प्रणम्याशु सानुज्ञाता ययौ पतिम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सम्मुख खड़े हुए साक्षात् परमपुरुष श्रीरघुनाथजीकी स्तुति, परिक्रमा और वन्दना कर वह उनकी आज्ञा ले शीघ्र ही अपने पतिके पास चली गयी॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहल्यया कृतं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुतः।
स मुच्यतेऽखिलैः पापैः परं ब्रह्माधिगच्छति॥ ६२॥
मूलम्
अहल्यया कृतं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुतः।
स मुच्यतेऽखिलैः पापैः परं ब्रह्माधिगच्छति॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष अहल्याके किये हुए इस स्तोत्रको भक्तिपूर्वक पढ़ता है वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर परब्रह्मपदको प्राप्त कर लेता है॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्राद्यर्थे पठेद्भक्त्या रामं हृदि निधाय च।
संवत्सरेण लभते वन्ध्या अपि सुपुत्रकम्॥ ६३॥
सर्वान्कामानवाप्नोति रामचन्द्रप्रसादतः॥ ६४॥
मूलम्
पुत्राद्यर्थे पठेद्भक्त्या रामं हृदि निधाय च।
संवत्सरेण लभते वन्ध्या अपि सुपुत्रकम्॥ ६३॥
सर्वान्कामानवाप्नोति रामचन्द्रप्रसादतः॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वन्ध्या स्त्री भी श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें धारणकर पुत्रकी कामनासे इसका भक्तिपूर्वक पाठ करे तो एक वर्षमें ही उसे श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त हो सकता है तथा श्रीरामचन्द्रजीकी कृपासे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं॥ ६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगोऽपि पुरुषः
स्तेयी सुरापोऽपि वा
मातृभ्रातृविहिंसकोऽपि सततं
भोगैकबद्धातुरः।
नित्यं स्तोत्रमिदं जपन् रघुपतिं
भक्त्या हृदिस्थं स्मरन्
ध्यायन्मुक्तिमुपैति किं पुनरसौ
स्वाचारयुक्तो नरः॥६५॥
मूलम्
ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगोऽपि पुरुषः
स्तेयी सुरापोऽपि वा
मातृभ्रातृविहिंसकोऽपि सततं
भोगैकबद्धातुरः।
नित्यं स्तोत्रमिदं जपन् रघुपतिं
भक्त्या हृदिस्थं स्मरन्
ध्यायन्मुक्तिमुपैति किं पुनरसौ
स्वाचारयुक्तो नरः॥६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणका वध करनेवाला, गुरु-स्त्रीसे भोग करनेवाला, चोर, मद्यप, माता-पिता और भाईकी हिंसा करनेवाला तथा निरन्तर भोगासक्त रहनेवाला पुरुष भी यदि अपने हृदयमें विराजमान श्रीरघुनाथजीका भक्तिपूर्वक नित्य स्मरण करता है और उनका ध्यान करते हुए इस स्तोत्रका पाठ करता है तो मुक्त हो जाता है; फिर स्वधर्म-परायण पुरुषोंकी तो बात ही क्या है?॥ ६५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे अहल्योद्धरणं नाम पञ्चमः सर्गः॥ ५॥