०४

[चतुर्थ सर्ग]

भागसूचना

विश्वामित्रजीका आगमन; राम और लक्ष्मणका उनके साथ जाना और ताटकाका वध करना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचित्कौशिकोऽभ्यागादयोध्यां ज्वलनप्रभः।
द्रष्टुं रामं परात्मानं जातं ज्ञात्वा स्वमायया॥ १॥

मूलम्

कदाचित्कौशिकोऽभ्यागादयोध्यां ज्वलनप्रभः।
द्रष्टुं रामं परात्मानं जातं ज्ञात्वा स्वमायया॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—एक बार अग्निके समान तेजस्वी महर्षि विश्वामित्र परमात्माको अपनी ही मायासे रामरूपमें प्रकट हुए जान उनके दर्शन करनेके लिये अयोध्यापुरीमें आये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा दशरथो राजा प्रत्युत्थायाचिरेण तु।
वसिष्ठेन समागम्य पूजयित्वा यथाविधि॥ २॥
अभिवाद्य मुनिं राजा प्राञ्जलिर्भक्तिनम्रधीः।
कृतार्थोऽस्मि मुनीन्द्राहं त्वदागमनकारणात् ॥ ३॥

मूलम्

दृष्ट्वा दशरथो राजा प्रत्युत्थायाचिरेण तु।
वसिष्ठेन समागम्य पूजयित्वा यथाविधि॥ २॥
अभिवाद्य मुनिं राजा प्राञ्जलिर्भक्तिनम्रधीः।
कृतार्थोऽस्मि मुनीन्द्राहं त्वदागमनकारणात् ॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखते ही महाराज दशरथ तुरंत उठ खड़े हुए और वसिष्ठजीके सहित आगे आकर उनका स्वागत किया और यथाविधि पूजन तथा अभिवादन कर राजाने भक्ति-विनम्र-चित्तसे हाथ जोड़कर मुनिसे कहा—‘‘हे मुनीन्द्र! आपके शुभागमनसे आज मैं कृतकृत्य हो गया॥ २-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्विधा यद्‍ग्टहं यान्ति तत्रैवायान्ति संपदः।
यदर्थमागतोऽसि त्वं ब्रूहि सत्यं करोमि तत्॥ ४॥

मूलम्

त्वद्विधा यद्‍ग्टहं यान्ति तत्रैवायान्ति संपदः।
यदर्थमागतोऽसि त्वं ब्रूहि सत्यं करोमि तत्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस घरमें आप-जैसे महानुभाव पधारते हैं उसमें सभी सम्पत्तियाँ आ जाती हैं। अब आप यह बताइये कि आपका शुभागमन किसलिये हुआ है? मैं आपसे सत्य कहता हूँ, मैं आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा’’॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रोऽपि तं प्रीतः प्रत्युवाच महामतिः।
अहं पर्वणि संप्राप्ते दृष्ट्वा यष्टुं सुरान्पितॄन्॥ ५॥
यदारभे तदा दैत्या विघ्नं कुर्वन्ति नित्यशः।
मारीचश्च सुबाहुश्चापरे चानुचरास्तयोः॥ ६॥

मूलम्

विश्वामित्रोऽपि तं प्रीतः प्रत्युवाच महामतिः।
अहं पर्वणि संप्राप्ते दृष्ट्वा यष्टुं सुरान्पितॄन्॥ ५॥
यदारभे तदा दैत्या विघ्नं कुर्वन्ति नित्यशः।
मारीचश्च सुबाहुश्चापरे चानुचरास्तयोः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महामति विश्वामित्रजीने उनसे प्रसन्न होकर कहा—‘‘जब कभी पर्वकाल उपस्थित हुआ देखकर मैं देव और पितृगणोंके लिये यजन करना आरम्भ करता हूँ तो सदा ही मारीच, सुबाहु और उनके अन्यान्य अनुयायी दैत्यगण उसमें विघ्न डाल देते हैं॥ ५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्तयोर्वधार्थाय ज्येष्ठं रामं प्रयच्छ मे।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा तव श्रेयो भविष्यति॥ ७॥

मूलम्

अतस्तयोर्वधार्थाय ज्येष्ठं रामं प्रयच्छ मे।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा तव श्रेयो भविष्यति॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतएव उनका वध करनेके लिये तुम अपने बड़े पुत्र रामको भाई लक्ष्मणके सहित मुझे दो इससे तुम्हारा भी परम कल्याण होगा॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठेन सहामन्त्र्य दीयतां यदि रोचते।
पप्रच्छ गुरुमेकान्ते राजा चिन्तापरायणः॥ ८॥

मूलम्

वसिष्ठेन सहामन्त्र्य दीयतां यदि रोचते।
पप्रच्छ गुरुमेकान्ते राजा चिन्तापरायणः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें वसिष्ठजीसे सम्मति करके यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम मुझे दोनों कुमारोंको दे दो।’’ तब राजाने चिन्ताकुल होकर एकान्तमें गुरुजीसे पूछा—॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं करोमि गुरो रामं त्यक्तुं नोत्सहते मनः।
बहुवर्षसहस्रान्ते कष्टेनोत्पादिताः सुताः॥ ९॥
चत्वारोऽमरतुल्यास्ते तेषां रामोऽतिवल्लभः।
रामस्त्वितो गच्छति चेन्न जीवामि कथञ्चन॥ १०॥

मूलम्

किं करोमि गुरो रामं त्यक्तुं नोत्सहते मनः।
बहुवर्षसहस्रान्ते कष्टेनोत्पादिताः सुताः॥ ९॥
चत्वारोऽमरतुल्यास्ते तेषां रामोऽतिवल्लभः।
रामस्त्वितो गच्छति चेन्न जीवामि कथञ्चन॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे गुरो! सहस्रों वर्ष बीतनेपर बड़े कष्टसे मुझे ये देवताओंके सदृश चार पुत्र मिले हैं। इनमें राम मुझे बहुत ही प्रिय है, सो अब मैं क्या करूँ? मेरा चित्त तो रामको छोड़नेके लिये तैयार नहीं है। यदि राम यहाँसे चला जायगा तो मैं किसी प्रकार भी जी नहीं सकूँगा॥ ९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्यातो यदि मुनिः शापं दास्यत्यसंशयः।
कथं श्रेयो भवेन्मह्यमसत्यं चापि न स्पृशेत्॥ ११॥

मूलम्

प्रत्याख्यातो यदि मुनिः शापं दास्यत्यसंशयः।
कथं श्रेयो भवेन्मह्यमसत्यं चापि न स्पृशेत्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु यदि मैं सूखा जवाब दूँ तो यह निश्चय है कि मुनि मुझे शाप दे देंगे। अतः अब यह बताइये कि मेरा हित किस प्रकार हो और मैं असत्य-भाषणसे भी कैसे बचूँ?’’॥ ११॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्देवगुह्यं गोपनीयं प्रयत्नतः।
रामो न मानुषो जातः परमात्मा सनातनः॥ १२॥

मूलम्

शृणु राजन्देवगुह्यं गोपनीयं प्रयत्नतः।
रामो न मानुषो जातः परमात्मा सनातनः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी बोले—राजन्! देवताओंसे भी गुप्त रखनेयोग्य बात सुनो, इसे किसी प्रकार प्रकट न होने देना चाहिये। ये राम मनुष्य नहीं हैं, साक्षात् पुराणपुरुष परमात्मा ही (अपनी मायासे) इस रूपमें प्रकट हुए हैं॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमेर्भारावताराय ब्रह्मणा प्रार्थितः पुरा।
स एव जातो भवने कौसल्यायां तवानघ॥ १३॥

मूलम्

भूमेर्भारावताराय ब्रह्मणा प्रार्थितः पुरा।
स एव जातो भवने कौसल्यायां तवानघ॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अनघ! पूर्वकालमें पृथिवीका भार उतारनेके लिये ब्रह्माजीने भगवान् से प्रार्थना की थी, उसे पूर्ण करनेके लिये उन परमेश्वरने तुम्हारे यहाँ कौसल्याके गर्भसे जन्म लिया है॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तु प्रजापतिः पूर्वं कश्यपो ब्रह्मणः सुतः।
कौसल्या चादितिर्देवमाता पूर्वं यशस्विनी।
भवन्तौ तप उग्रं वै तेपाथे बहुवत्सरम्॥ १४॥
अग्राम्यविषयौ विष्णुपूजाध्यानैकतत्परौ।
तदा प्रसन्नो भगवान् वरदो भक्तवत्सलः॥ १५॥
वृणीष्व वरमित्युक्ते त्वं मे पुत्रो भवामल।
इति त्वया याचितोऽसौ भगवान्भूतभावनः॥ १६॥
तथेत्युक्त्वाद्य पुत्रस्ते जातो रामः स एव हि।
शेषस्तु लक्ष्मणो राजन् राममेवान्वपद्यत॥ १७॥

मूलम्

त्वं तु प्रजापतिः पूर्वं कश्यपो ब्रह्मणः सुतः।
कौसल्या चादितिर्देवमाता पूर्वं यशस्विनी।
भवन्तौ तप उग्रं वै तेपाथे बहुवत्सरम्॥ १४॥
अग्राम्यविषयौ विष्णुपूजाध्यानैकतत्परौ।
तदा प्रसन्नो भगवान् वरदो भक्तवत्सलः॥ १५॥
वृणीष्व वरमित्युक्ते त्वं मे पुत्रो भवामल।
इति त्वया याचितोऽसौ भगवान्भूतभावनः॥ १६॥
तथेत्युक्त्वाद्य पुत्रस्ते जातो रामः स एव हि।
शेषस्तु लक्ष्मणो राजन् राममेवान्वपद्यत॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वजन्ममें तुम ब्रह्माजीके पुत्र प्रजापति कश्यप थे और यशस्विनी कौसल्या देवमाता अदिति थीं। उस समय तुम दोनोंने बहुत वर्षोंतक ग्राम्य-विषयोंसे रहित और एकमात्र भगवान् विष्णुकी पूजा तथा ध्यानमें तत्पर रहकर बड़ा उग्र तप किया। तब कालान्तरमें भक्तवत्सल वरदायक भगवान् ने तुम दोनोंपर प्रसन्न होकर कहा कि ‘वर माँगो’ तो तुमने (भगवान् से) यही माँगा कि ‘हे निरंजन! आप हमारे पुत्र हों’ तब भूतभावन भगवान् ने कहा कि ‘ऐसा ही हो।’ इसलिये वे ही विष्णुभगवान् इस समय रामरूपसे तुम्हारे पुत्र हुए हैं और (उनकी सेवा करनेके लिये) शेषजी लक्ष्मणके रूपमें प्रकट होकर उनके अनुयायी हुए हैं॥ १४—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातौ भरतशत्रुघ्नौ शङ्खचक्रे गदाभृतः।
योगमायापि सीतेति जाता जनकनन्दिनी॥ १८॥

मूलम्

जातौ भरतशत्रुघ्नौ शङ्खचक्रे गदाभृतः।
योगमायापि सीतेति जाता जनकनन्दिनी॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् गदाधरके शंख और चक्रने भरत और शत्रुघ्नके रूपसे अवतार लिया है तथा योगमाया जनकदुलारी सीताजी होकर प्रकट हुई हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रोऽपि रामाय तां योजयितुमागतः।
एतद्‍गुह्यतमं राजन्न वक्तव्यं कदाचन॥ १९॥

मूलम्

विश्वामित्रोऽपि रामाय तां योजयितुमागतः।
एतद्‍गुह्यतमं राजन्न वक्तव्यं कदाचन॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय विश्वामित्रजी रामसे सीताका संयोग करानेके लिये ही आये हैं। राजन्! यह रहस्य अत्यन्त गुह्य है, इसे कभी प्रकाशित मत करना॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः प्रीतेन मनसा पूजयित्वाथ कौशिकम्।
प्रेषयस्व रमानाथं राघवं सहलक्ष्मणम्॥ २०॥

मूलम्

अतः प्रीतेन मनसा पूजयित्वाथ कौशिकम्।
प्रेषयस्व रमानाथं राघवं सहलक्ष्मणम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अब सम्पूर्ण रहस्य तुमको मालूम हो गया है) इसलिये अब तुम प्रसन्नचित्तसे श्रीविश्वामित्रजीका सत्कार करके लक्ष्मीपति श्रीरघुनाथजीको लक्ष्मणसहित इनके साथ भेज दो॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठेनैवमुक्तस्तु राजा दशरथस्तदा।
कृतकृत्यमिवात्मानं मेने प्रमुदितान्तरः॥ २१॥
आहूय रामरामेति लक्ष्मणेति च सादरम्।
आलिङ्‍ग्य मूर्ध्न्यवघ्राय कौशिकाय समर्पयत्॥ २२॥

मूलम्

वसिष्ठेनैवमुक्तस्तु राजा दशरथस्तदा।
कृतकृत्यमिवात्मानं मेने प्रमुदितान्तरः॥ २१॥
आहूय रामरामेति लक्ष्मणेति च सादरम्।
आलिङ्‍ग्य मूर्ध्न्यवघ्राय कौशिकाय समर्पयत्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीके इस प्रकार कहनेपर राजा दशरथने उस समय अपनेको कृतकृत्य माना और प्रसन्नचित्तसे आदरपूर्वक ‘हे राम! हे राम! हे लक्ष्मण!’ ऐसा कहकर पुकारा तथा उन दोनों भाइयोंके आनेपर उन्हें हृदयसे लगाकर और सिर सूँघकर श्रीविश्वामित्रजीको सौंप दिया॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिहृष्टो भगवान्विश्वामित्रः प्रतापवान्।
आशीर्भिरभिनन्द्याथ आगतौ रामलक्ष्मणौ॥ २३॥
गृहीत्वा चापतूणीरबाणखड्गधरौ ययौ।
किञ्चिद्देशमतिक्रम्य राममाहूय भक्तितः॥ २४॥
ददौ बलां चातिबलां विद्ये द्वे देवनिर्मिते।
ययोर्ग्रहणमात्रेण क्षुत्क्षामादि न जायते॥ २५॥

मूलम्

ततोऽतिहृष्टो भगवान्विश्वामित्रः प्रतापवान्।
आशीर्भिरभिनन्द्याथ आगतौ रामलक्ष्मणौ॥ २३॥
गृहीत्वा चापतूणीरबाणखड्गधरौ ययौ।
किञ्चिद्देशमतिक्रम्य राममाहूय भक्तितः॥ २४॥
ददौ बलां चातिबलां विद्ये द्वे देवनिर्मिते।
ययोर्ग्रहणमात्रेण क्षुत्क्षामादि न जायते॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अति प्रतापी भगवान् विश्वामित्रजीने उन्हें अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद देकर सम्मानित किया और फिर धनुष, तरकश, बाण एवं खड्ग आदिसे सुसज्जित होकर अपने पास आये हुए राम और लक्ष्मणको साथ लेकर वहाँसे चल पड़े। थोड़ी दूर जानेपर विश्वामित्रजीने भक्तिपूर्वक रामको बुलाया और उन्हें देवनिर्मित बला और अतिबला नामकी ऐसी दो विद्याएँ दीं, जिनके ग्रहण करनेसे ही क्षुधा और दुर्बलता आदिकी बाधा नहीं होती॥ २३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्तीर्य गङ्गां ते ताटकावनमागमन्।
विश्वामित्रस्तदा प्राह रामं सत्यपराक्रमम्॥ २६॥

मूलम्

तत उत्तीर्य गङ्गां ते ताटकावनमागमन्।
विश्वामित्रस्तदा प्राह रामं सत्यपराक्रमम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गंगाजीको पारकर वे ताटकावनमें आये, तब विश्वामित्रजीने सत्यपराक्रमी रामसे कहा॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रास्ति ताटका नाम राक्षसी कामरूपिणी।
बाधते लोकमखिलं जहि तामविचारयन्॥ २७॥

मूलम्

अत्रास्ति ताटका नाम राक्षसी कामरूपिणी।
बाधते लोकमखिलं जहि तामविचारयन्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘यहाँ एक ताटका नामकी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली राक्षसी रहती है जो इस प्रदेशके समस्त निवासियोंको अत्यन्त कष्ट पहुँचाती है, तुम बिना कुछ सोच-विचार किये उसे मार डालो’’॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति धनुरादाय सगुणं रघुनन्दनः।
टङ्कारमकरोत्तेन शब्देनापूरयद्वनम्॥ २८॥

मूलम्

तथेति धनुरादाय सगुणं रघुनन्दनः।
टङ्कारमकरोत्तेन शब्देनापूरयद्वनम्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रघुनाथजीने ‘बहुत अच्छा’ कह धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर टंकार किया, जिसके शब्दसे वह सम्पूर्ण वन गुंजायमान हो गया॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वासहमाना सा ताटका घोररूपिणी।
क्रोधसंमूर्च्छिता राममभिदुद्राव मेघवत्॥ २९॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वासहमाना सा ताटका घोररूपिणी।
क्रोधसंमूर्च्छिता राममभिदुद्राव मेघवत्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शब्दको सुनकर घोररूपिणी ताटका उसे सहन न कर सकनेके कारण क्रोधसे पागल होकर मेघके समान रामकी ओर दौड़ी॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामेकेन शरेणाशु ताडयामास वक्षसि।
पपात विपिने घोरा वमन्ती रुधिरं बहु॥ ३०॥

मूलम्

तामेकेन शरेणाशु ताडयामास वक्षसि।
पपात विपिने घोरा वमन्ती रुधिरं बहु॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामने तुरंत ही उसके वक्षःस्थलमें एक बाण मारा, जिससे वह घोर राक्षसी बहुत-सा रुधिर उगलती हुई उस वनमें गिर पड़ी॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिसुन्दरी यक्षी सर्वाभरणभूषिता।
शापात्पिशाचतां प्राप्ता मुक्ता रामप्रसादतः॥ ३१॥
नत्वा रामं परिक्रम्य गता रामाज्ञया दिवम्॥ ३२॥

मूलम्

ततोऽतिसुन्दरी यक्षी सर्वाभरणभूषिता।
शापात्पिशाचतां प्राप्ता मुक्ता रामप्रसादतः॥ ३१॥
नत्वा रामं परिक्रम्य गता रामाज्ञया दिवम्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर शापवश पिशाचताको प्राप्त हुई वह ताटका श्रीरामचन्द्रजीकी कृपासे शापमुक्त होकर एक सर्वालंकार-विभूषिता परम सुन्दरी यक्षिणी हो गयी तथा रामचन्द्रजीकी परिक्रमा करके उन्हें प्रणामकर उनकी आज्ञासे स्वर्गलोकको चली गयी॥ ३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिहृष्टः परिरभ्य रामं
मूर्धन्यवघ्राय विचिन्त्य किञ्चित्।
सर्वास्त्रजालं सरहस्यमन्त्रं
प्रीत्याभिरामाय ददौ मुनीन्द्रः॥ ३३॥

मूलम्

ततोऽतिहृष्टः परिरभ्य रामं
मूर्धन्यवघ्राय विचिन्त्य किञ्चित्।
सर्वास्त्रजालं सरहस्यमन्त्रं
प्रीत्याभिरामाय ददौ मुनीन्द्रः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिवर विश्वामित्रजीने अति हर्षित होकर रामजीका आलिंगन किया और उनका सिर सूँघकर कुछ सोच-विचारकर रहस्य और मन्त्रादिके सहित समस्त अस्त्र-शस्त्र प्रीतिपूर्वक अभिराम रामको दिये॥ ३३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥