[तृतीय सर्ग]
भागसूचना
भगवान् का जन्म और बाललीला
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ राजा दशरथः श्रीमान्सत्यपरायणः।
अयोध्याधिपतिर्वीरः सर्वलोकेषु विश्रुतः॥ १॥
सोऽनपत्यत्वदुःखेन पीडितो गुरुमेकदा।
वसिष्ठं स्वकुलाचार्यमभिवाद्येदमब्रवीत्॥ २॥
मूलम्
अथ राजा दशरथः श्रीमान्सत्यपरायणः।
अयोध्याधिपतिर्वीरः सर्वलोकेषु विश्रुतः॥ १॥
सोऽनपत्यत्वदुःखेन पीडितो गुरुमेकदा।
वसिष्ठं स्वकुलाचार्यमभिवाद्येदमब्रवीत्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—एक बार सकललोकप्रसिद्ध सत्यपरायण श्रीमान् अयोध्यापति वीरवर महाराज दशरथने पुत्रके न होनेसे अत्यन्त दुःखित हो अपने कुलके आचार्य गुरुवर वसिष्ठजीको बुला उन्हें प्रणामकर इस प्रकार कहा—॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वामिन्पुत्राः कथं मे स्युः सर्वलक्षणलक्षिताः।
पुत्रहीनस्य मे राज्यं सर्वं दुःखाय कल्पते॥ ३॥
मूलम्
स्वामिन्पुत्राः कथं मे स्युः सर्वलक्षणलक्षिताः।
पुत्रहीनस्य मे राज्यं सर्वं दुःखाय कल्पते॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘स्वामिन्! यह बताइये कि मेरे सर्वसुलक्षणोंसे सम्पन्न पुत्र किस प्रकार हो सकते हैं? क्योंकि बिना पुत्रके यह सम्पूर्ण राज्य मुझे दुःखरूप हो रहा है’’॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीद्वसिष्ठस्तं भविष्यन्ति सुतास्तव।
चत्वारः सत्त्वसम्पन्ना लोकपाला इवापराः॥ ४॥
मूलम्
ततोऽब्रवीद्वसिष्ठस्तं भविष्यन्ति सुतास्तव।
चत्वारः सत्त्वसम्पन्ना लोकपाला इवापराः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा दशरथसे वसिष्ठजीने कहा—‘‘तुम्हारे साक्षात् दूसरे लोकपालोंके समान अत्यन्त सामर्थ्यवान् चार पुत्र होंगे॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शान्ताभर्तारमानीय ऋष्यशृङ्गं तपोधनम्।
अस्माभिः सहितः पुत्रकामेष्टिं शीघ्रमाचर॥ ५॥
मूलम्
शान्ताभर्तारमानीय ऋष्यशृङ्गं तपोधनम्।
अस्माभिः सहितः पुत्रकामेष्टिं शीघ्रमाचर॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम शान्ताके पति तपोधन ऋष्यशृंग*-को बुलाकर शीघ्र ही हमें साथ लेकर पुत्रेष्टि-यज्ञका अनुष्ठान करो’’॥ ५॥
पादटिप्पनी
*ऋष्यशृंग मुनिवर विभाण्डकके पुत्र थे। एक बार विभाण्डक मुनि एक कुण्डमें समाधि लगाये बैठे थे, उसी समय उधरसे उर्वशी अप्सरा निकली। उसे देखकर मुनिका वीर्य स्खलित हो गया। उसे जलके साथ एक मृगी पी गयी। उसीसे इनका जन्म हुआ। माताके समान इनके सिरपर भी शृंग (सींग) होनेकी सम्भावना थी, इसलिये पिता विभाण्डकने इनका नाम ऋष्यशृंग रखा। एक बार अंग देशमें घोर अनावृष्टि हुई। उस समय मुनियोंने अंगनरेश रोमपादसे कहा—यदि बालब्रह्मचारी ऋष्यशृंगको यहाँ लाया जा सके तो वृष्टि हो। राजाके प्रयत्नसे वे आ गये। उनके अंगदेशमें आते ही पुष्कल वर्षा हो गयी। राजाने उनका ऐसा अद्भुत प्रभाव देखकर उन्हें अपनी कन्या शान्ता विवाह दी। कहीं-कहीं ऐसा भी कहा जाता है कि यह शान्ता महाराज दशरथकी पुत्री थी और इन्होंने इसे अपने मित्र रोमपादको गोद दे दिया था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति मुनिमानीय मन्त्रिभिः सहितः शुचिः।
यज्ञकर्म समारेभे मुनिभिर्वीतकल्मषैः॥ ६॥
मूलम्
तथेति मुनिमानीय मन्त्रिभिः सहितः शुचिः।
यज्ञकर्म समारेभे मुनिभिर्वीतकल्मषैः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने ‘‘बहुत अच्छा’’ कह मुनिवर ऋष्यशृंगको बुलाया और मन्त्रियोंके सहित पवित्र होकर निष्पाप मुनिजनोंकी सहायतासे यज्ञानुष्ठान आरम्भ किया॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धया हूयमानेऽग्नौ तप्तजाम्बूनदप्रभः।
पायसं स्वर्णपात्रस्थं गृहीत्वोवाच हव्यवाट्॥ ७॥
मूलम्
श्रद्धया हूयमानेऽग्नौ तप्तजाम्बूनदप्रभः।
पायसं स्वर्णपात्रस्थं गृहीत्वोवाच हव्यवाट्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञानुष्ठानके समय अग्निमें श्रद्धापूर्वक आहुति देनेपर तप्त सुवर्णके समान दीप्तिमान् हव्यवाहन भगवान् अग्नि एक स्वर्णपात्रमें पायस लेकर प्रकट हुए और बोले—॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाण पायसं दिव्यं पुत्रीयं देवनिर्मितम्।
लप्स्यसे परमात्मानं पुत्रत्वेन न संशयः॥ ८॥
मूलम्
गृहाण पायसं दिव्यं पुत्रीयं देवनिर्मितम्।
लप्स्यसे परमात्मानं पुत्रत्वेन न संशयः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राजन्! यह देवताओंकी बनायी हुई पुत्रप्रदायिनी दिव्य पायस (खीर) लो। इसके द्वारा तुम निस्सन्देह साक्षात् परमात्माको पुत्ररूपसे प्राप्त करोगे’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा पायसं दत्त्वा राज्ञे सोऽन्तर्दधेऽनलः।
ववन्दे मुनिशार्दूलौ राजा लब्धमनोरथः॥ ९॥
वसिष्ठऋष्यशृङ्गाभ्यामनुज्ञातो ददौ हविः।
कौसल्यायै सकैकेय्यै अर्धमर्धं प्रयत्नतः॥ १०॥
मूलम्
इत्युक्त्वा पायसं दत्त्वा राज्ञे सोऽन्तर्दधेऽनलः।
ववन्दे मुनिशार्दूलौ राजा लब्धमनोरथः॥ ९॥
वसिष्ठऋष्यशृङ्गाभ्यामनुज्ञातो ददौ हविः।
कौसल्यायै सकैकेय्यै अर्धमर्धं प्रयत्नतः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेव ऐसा कहकर और वह खीर राजाको देकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर राजाने सफलमनोरथ हो मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ और ऋष्यशृङ्गकी चरण-वन्दना की और उन दोनोंकी आज्ञासे बड़ी सावधानीके साथ वह हवि महारानी कौसल्या और कैकेयीमें आधी-आधी बाँट दी॥ ९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुमित्रा संप्राप्ता जगृध्नुः पौत्रिकं चरुम्।
कौसल्या तु स्वभागार्धं ददौ तस्यै मुदान्विता॥ ११॥
मूलम्
ततः सुमित्रा संप्राप्ता जगृध्नुः पौत्रिकं चरुम्।
कौसल्या तु स्वभागार्धं ददौ तस्यै मुदान्विता॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस पुत्र देनेवाले चरुको लेनेकी इच्छासे सुमित्राजी भी वहाँ आ पहुँचीं। इसपर कौसल्याजीने प्रसन्नतापूर्वक अपने भागमेंसे आधा उन्हें दे दिया॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेयी च स्वभागार्धं ददौ प्रीतिसमन्विता।
उपभुज्य चरुं सर्वाः स्त्रियो गर्भसमन्विताः॥ १२॥
मूलम्
कैकेयी च स्वभागार्धं ददौ प्रीतिसमन्विता।
उपभुज्य चरुं सर्वाः स्त्रियो गर्भसमन्विताः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा कैकेयीने भी प्रीतिपूर्वक अपने भागमेंसे आधा सुमित्राको दिया। इस प्रकार उस हविको खाकर सभी रानियाँ गर्भवती हो गयीं॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवता इव रेजुस्ताः स्वभासा राजमन्दिरे।
दशमे मासि कौसल्या सुषुवे पुत्रमद्भुतम्॥ १३॥
मूलम्
देवता इव रेजुस्ताः स्वभासा राजमन्दिरे।
दशमे मासि कौसल्या सुषुवे पुत्रमद्भुतम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे तीनों रानियाँ उस राजभवनमें अपनी कान्तिसे देवताओंके समान शोभा पाने लगीं। फिर दसवाँ महीना लगनेपर कौसल्याने एक अद्भुत बालकको जन्म दिया॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुमासे सिते पक्षे नवम्यां कर्कटे शुभे।
पुनर्वस्वृक्षसहिते उच्चस्थे ग्रहपञ्चके॥ १४॥
मेषं पूषणि संप्राप्ते पुष्पवृष्टिसमाकुले।
आविरासीज्जगन्नाथः परमात्मा सनातनः॥ १५॥
मूलम्
मधुमासे सिते पक्षे नवम्यां कर्कटे शुभे।
पुनर्वस्वृक्षसहिते उच्चस्थे ग्रहपञ्चके॥ १४॥
मेषं पूषणि संप्राप्ते पुष्पवृष्टिसमाकुले।
आविरासीज्जगन्नाथः परमात्मा सनातनः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
चैत्रमासके शुक्लपक्षकी नवमीके दिन शुभ कर्कलग्नमें पुनर्वसु-नक्षत्रके समय जब कि पाँच ग्रह उच्च स्थानमें तथा सूर्य मेषराशिपर थे तब (मध्याह्न-कालमें) सनातन परमात्मा जगन्नाथका आविर्भाव हुआ। उस समय आकाश दिव्य पुष्पोंकी वर्षासे पूर्ण हो गया॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलोत्पलदलश्यामः पीतवासाश्चतुर्भुजः।
जलजारुणनेत्रान्तः स्फुरत्कुण्डलमण्डितः॥ १६॥
मूलम्
नीलोत्पलदलश्यामः पीतवासाश्चतुर्भुजः।
जलजारुणनेत्रान्तः स्फुरत्कुण्डलमण्डितः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नीलकमलदलके समान श्यामवर्ण हैं, पीताम्बर पहने हुए हैं और चार भुजाएँ धारण किये हैं तथा जिनके नेत्रोंके भीतरका भाग अरुण कमलके समान शोभायमान है, कानोंमें कान्तिमान् कुण्डल सुशोभित हैं॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रार्कप्रतीकाशः किरीटी कुञ्चितालकः।
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविराजितः॥ १७॥
मूलम्
सहस्रार्कप्रतीकाशः किरीटी कुञ्चितालकः।
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविराजितः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हजारों सूर्योंके समान जिनका प्रकाश है, जिनके सिरपर प्रकाशमान मुकुट और घुँघराली अलकें हैं, हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म तथा गलेमें वैजयन्ती माला विराजमान है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्रहाख्यहृत्स्थेन्दुसूचकस्मितचन्द्रिकः।
करुणारससम्पूर्णविशालोत्पललोचनः।
श्रीवत्सहारकेयूरनूपुरादिविभूषणः॥ १८॥
मूलम्
अनुग्रहाख्यहृत्स्थेन्दुसूचकस्मितचन्द्रिकः।
करुणारससम्पूर्णविशालोत्पललोचनः।
श्रीवत्सहारकेयूरनूपुरादिविभूषणः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके मुख-कमलपर हृदयस्थ अनुग्रहरूप चन्द्रमाकी सूचना देनेवाली मुसकानरूप चन्द्रिका छिटक रही है, जिनके करुणा-रस-पूर्ण नयन कमलदलके समान विशाल हैं तथा जो श्रीवत्स, हार, केयूर और नूपुर आदि आभूषणोंसे विभूषित हैं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तं परमात्मानं कौसल्या विस्मयाकुला।
हर्षाश्रुपूर्णनयना नत्वा प्राञ्जलिरब्रवीत्॥ १९॥
मूलम्
दृष्ट्वा तं परमात्मानं कौसल्या विस्मयाकुला।
हर्षाश्रुपूर्णनयना नत्वा प्राञ्जलिरब्रवीत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्ररूपसे प्रकट हुए उन परमात्माको देखकर कौसल्याने विस्मयसे व्याकुल हो, नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भर, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए कहा॥ १९॥
मूलम् (वचनम्)
कौसल्योवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेव नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर।
परमात्माच्युतोऽनन्तः पूर्णस्त्वं पुरुषोत्तमः॥ २०॥
मूलम्
देवदेव नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर।
परमात्माच्युतोऽनन्तः पूर्णस्त्वं पुरुषोत्तमः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकौसल्याजी बोलीं—हे देवदेव! आपको नमस्कार है; हे शंख-चक्र-गदाधर! आप अच्युत और अनन्त परमात्मा हैं तथा सर्वत्र पूर्ण पुरुषोत्तम हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वदन्त्यगोचरं वाचां बुद्ध्यादीनामतीन्द्रियम्।
त्वां वेदवादिनः सत्तामात्रं ज्ञानैकविग्रहम्॥ २१॥
मूलम्
वदन्त्यगोचरं वाचां बुद्ध्यादीनामतीन्द्रियम्।
त्वां वेदवादिनः सत्तामात्रं ज्ञानैकविग्रहम्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदवादीगण आपको मन और वाणी आदिके अविषय तथा इन्द्रियोंसे अतीत सत्तामात्र और एकमात्र ज्ञानस्वरूप बतलाते हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव मायया विश्वं सृजस्यवसि हंसि च।
सत्त्वादिगुणसंयुक्तस्तुर्य एवामलः सदा॥ २२॥
मूलम्
त्वमेव मायया विश्वं सृजस्यवसि हंसि च।
सत्त्वादिगुणसंयुक्तस्तुर्य एवामलः सदा॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही अपनी मायासे सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंसे युक्त होकर इस विश्वकी रचना, पालन और संहार करते हैं तथापि वास्तवमें आप सदा निर्मल तुरीय पदमें स्थित हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोषीव न कर्ता त्वं गच्छसीव न गच्छसि।
शृणोषि न शृणोषीव पश्यसीव न पश्यसि॥ २३॥
मूलम्
करोषीव न कर्ता त्वं गच्छसीव न गच्छसि।
शृणोषि न शृणोषीव पश्यसीव न पश्यसि॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप कर्ता नहीं हैं तथापि करते-से प्रतीत होते हैं, चलते नहीं हैं फिर भी चलते-से मालूम पड़ते हैं, न सुनते हुए भी सुनते-से दिखायी देते हैं और न देखकर भी देखते हुए-से प्रतीत होते हैं॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्राणो ह्यमनाः शुद्ध इत्यादि श्रुतिरब्रवीत्।
समः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्नपि न लक्ष्यसे॥ २४॥
अज्ञानध्वान्तचित्तानां व्यक्त एव सुमेधसाम्।
जठरे तव दृश्यन्ते ब्रह्माण्डाः परमाणवः॥ २५॥
त्वं ममोदरसम्भूत इति लोकान्विडम्बसे।
भक्तेषु पारवश्यं ते दृष्टं मेऽद्य रघूत्तम॥ २६॥
मूलम्
अप्राणो ह्यमनाः शुद्ध इत्यादि श्रुतिरब्रवीत्।
समः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्नपि न लक्ष्यसे॥ २४॥
अज्ञानध्वान्तचित्तानां व्यक्त एव सुमेधसाम्।
जठरे तव दृश्यन्ते ब्रह्माण्डाः परमाणवः॥ २५॥
त्वं ममोदरसम्भूत इति लोकान्विडम्बसे।
भक्तेषु पारवश्यं ते दृष्टं मेऽद्य रघूत्तम॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवती श्रुति भी कहती है कि आप ‘‘प्राण और मनसे रहित तथा शुद्ध’’ हैं। आप समस्त प्राणियोंमें समानभावसे स्थित हैं, तथापि जिनका अन्तःकरण अज्ञानान्धकारसे ढँका हुआ है उन्हें आप दिखायी नहीं देते, आपका साक्षात्कार सुबुद्धि पुरुषोंको ही होता है। हे भगवन्! आपके उदरमें अनेकों ब्रह्माण्ड परमाणुओंके समान दिखायी देते हैं तथापि ‘‘आपने मेरे पेटसे जन्म लिया’’ ऐसा जो आप लोगोंमें प्रकट कर रहे हैं इससे मैंने आज आपकी भक्तवत्सलता देख ली॥ २४—२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसारसागरे मग्ना पतिपुत्रधनादिषु।
भ्रमामि मायया तेऽद्य पादमूलमुपागता॥ २७॥
मूलम्
संसारसागरे मग्ना पतिपुत्रधनादिषु।
भ्रमामि मायया तेऽद्य पादमूलमुपागता॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! मैं आपकी मायासे मोहित होकर संसार-सागरमें डूबी हुई पति, पुत्र और धन आदिके फेरमें पड़ रही थी; आज परम सौभाग्यवश आपके चरण-कमलोंकी शरणमें आयी हूँ॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव त्वद्रूपमेतन्मे सदा तिष्ठतु मानसे।
आवृणोतु न मां माया तव विश्वविमोहिनी॥ २८॥
मूलम्
देव त्वद्रूपमेतन्मे सदा तिष्ठतु मानसे।
आवृणोतु न मां माया तव विश्वविमोहिनी॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! आपकी यह मनोहर मूर्ति सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहे और आपकी विश्वविमोहिनी माया मुझे न व्यापे॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।
दर्शयस्व महानन्दबालभावं सुकोमलम्।
ललितालिङ्गनालापैस्तरिष्याम्युत्कटं तमः॥ २९॥
मूलम्
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।
दर्शयस्व महानन्दबालभावं सुकोमलम्।
ललितालिङ्गनालापैस्तरिष्याम्युत्कटं तमः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विश्वात्मन्! अपने इस अलौकिक रूपका उपसंहार कीजिये और परम आनन्ददायक सुकोमल बालरूप धारण कीजिये जिसके अति सुखद आलिंगन और सम्भाषणादिसे मैं घोर अज्ञानान्धकारको पार कर जाऊँगी॥ २९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यदिष्टं तवास्त्यम्ब तत्तद्भवतु नान्यथा॥ ३०॥
अहं तु ब्रह्मणा पूर्वं भूमेर्भारापनुत्तये।
प्रार्थितो रावणं हन्तुं मानुषत्वमुपागतः॥ ३१॥
मूलम्
यद्यदिष्टं तवास्त्यम्ब तत्तद्भवतु नान्यथा॥ ३०॥
अहं तु ब्रह्मणा पूर्वं भूमेर्भारापनुत्तये।
प्रार्थितो रावणं हन्तुं मानुषत्वमुपागतः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले—हे मातः! आप जो-जो चाहती हैं, वही हो, उसके विरुद्ध कुछ भी न हो। पूर्वकालमें मुझसे पृथिवीका भार उतारनेके लिये ब्रह्माने प्रार्थना की थी, अतः रावणादि निशाचरोंको मारनेके लिये ही मैंने मनुष्यरूपसे अवतार लिया है॥ ३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया दशरथेनाहं तपसाराधितः पुरा।
मत्पुत्रत्वाभिकाङ्क्षिण्या तथा कृतमनिन्दिते॥ ३२॥
मूलम्
त्वया दशरथेनाहं तपसाराधितः पुरा।
मत्पुत्रत्वाभिकाङ्क्षिण्या तथा कृतमनिन्दिते॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अनिन्दिते! दशरथजीके सहित तुमने भी मुझे पुत्ररूपसे प्राप्त करनेकी इच्छासे तपस्या करते हुए मेरी आराधना की थी। उसीको मैंने इस समय प्रकट होकर पूर्ण किया है॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपमेतत्त्वया दृष्टं प्राक्तनं तपसः फलम्।
मद्दर्शनं विमोक्षाय कल्पते ह्यन्यदुर्लभम्॥ ३३॥
मूलम्
रूपमेतत्त्वया दृष्टं प्राक्तनं तपसः फलम्।
मद्दर्शनं विमोक्षाय कल्पते ह्यन्यदुर्लभम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने अपनी पूर्व तपस्याके फलसे ही मेरा यह दिव्य रूप देखा है। मेरा दर्शन मोक्षपद देनेवाला होता है; पुण्यहीन जनोंके लिये इसका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवादमावयोर्यस्तु पठेद्वा शृणुयादपि।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत्॥ ३४॥
मूलम्
संवादमावयोर्यस्तु पठेद्वा शृणुयादपि।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो व्यक्ति हमारे इस संवादको पढ़ेगा या सुनेगा वह मेरी सारूप्य मुक्ति (समानरूपता) प्राप्त करेगा और मरणकालमें उसे मेरी स्मृति बनी रहेगी॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा मातरं रामो बालो भूत्वा रुरोद ह।
बालत्वेऽपीन्द्रनीलाभो विशालाक्षोऽतिसुन्दरः॥ ३५॥
मूलम्
इत्युक्त्वा मातरं रामो बालो भूत्वा रुरोद ह।
बालत्वेऽपीन्द्रनीलाभो विशालाक्षोऽतिसुन्दरः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातासे इस प्रकार कह भगवान् बालरूप होकर रोने लगे। उनका बालरूप भी इन्द्रनीलमणिके समान श्यामवर्ण बड़े-बड़े नेत्रोंवाला और अति सुन्दर था॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालारुणप्रतीकाशो लालिताखिललोकपः।
अथ राजा दशरथः श्रुत्वा पुत्रोद्भवोत्सवम्।
आनन्दार्णवमग्नोऽसावाययौ गुरुणा सह॥ ३६॥
मूलम्
बालारुणप्रतीकाशो लालिताखिललोकपः।
अथ राजा दशरथः श्रुत्वा पुत्रोद्भवोत्सवम्।
आनन्दार्णवमग्नोऽसावाययौ गुरुणा सह॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह प्रभातकालीन बालसूर्यके समान अरुणज्योतिर्मय था। भगवान् ने अवतरित होकर उस सुमनोहर बालरूपसे सभी लोकपालोंको परम आनन्दित कर दिया। तत्पश्चात् जब महाराज दशरथजीने पुत्रोत्पत्तिरूप उत्सवका शुभ समाचार सुना तो वे मानो आनन्द-समुद्रमें डूब गये और गुरु वसिष्ठजीके साथ राजभवनमें आये॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं राजीवपत्राक्षं दृष्ट्वा हर्षाश्रुसंप्लुतः।
गुरुणा जातकर्माणि कर्तव्यानि चकार सः॥ ३७॥
मूलम्
रामं राजीवपत्राक्षं दृष्ट्वा हर्षाश्रुसंप्लुतः।
गुरुणा जातकर्माणि कर्तव्यानि चकार सः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर कमलनयन रामको देखकर वे आनन्दाश्रुओंसे पूर्ण हो गये और गुरुजीद्वारा उनके जातकर्म आदि आवश्यक संस्कार कराये॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकेयी चाथ भरतमसूत कमलेक्षणा।
सुमित्रायां यमौ जातौ पूर्णेन्दुसदृशाननौ॥ ३८॥
मूलम्
कैकेयी चाथ भरतमसूत कमलेक्षणा।
सुमित्रायां यमौ जातौ पूर्णेन्दुसदृशाननौ॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कमलनयनी कैकेयीसे भरतका जन्म हुआ और सुमित्रासे पूर्णचन्द्रके समान मुखवाले दो यमज बालक उत्पन्न हुए॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा ग्रामसहस्राणि ब्राह्मणेभ्यो मुदा ददौ।
सुवर्णानि च रत्नानि वासांसि सुरभीः शुभाः॥ ३९॥
मूलम्
तदा ग्रामसहस्राणि ब्राह्मणेभ्यो मुदा ददौ।
सुवर्णानि च रत्नानि वासांसि सुरभीः शुभाः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महाराज दशरथने अति उत्साहपूर्वक सहस्रों ग्राम, बहुत-सा सुवर्ण, अनेक रत्न, नाना प्रकारके वस्त्र और शुभलक्षणोंवाली अनेकों गौएँ ब्राह्मणोंको दीं॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् रमन्ते मुनयो विद्ययाऽज्ञानविप्लवे।
तं गुरुः प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यपि॥ ४०॥
मूलम्
यस्मिन् रमन्ते मुनयो विद्ययाऽज्ञानविप्लवे।
तं गुरुः प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यपि॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
विज्ञानके द्वारा अज्ञानके नष्ट हो जानेपर मुनिजन जिनमें रमण करते हैं अथवा जो अपनी सुन्दरतासे भक्त जनोंके चित्तोंको रमाते (आनन्दमय करते) हैं उनका नाम गुरु वसिष्ठजीने ‘राम’ रखा॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरणाद्भरतो नाम लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्।
शत्रुघ्नं शत्रुहन्तारमेवं गुरुरभाषत॥ ४१॥
मूलम्
भरणाद्भरतो नाम लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्।
शत्रुघ्नं शत्रुहन्तारमेवं गुरुरभाषत॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार गुरुजीने संसारका पोषण करनेवाला होनेसे दूसरे पुत्रका नाम ‘भरत’, समस्त सुलक्षणसम्पन्न होनेसे तीसरेका नाम ‘लक्ष्मण’ और शत्रुओंका घातक होनेसे चौथे पुत्रका नाम ‘शत्रुघ्न’ रखा॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणो रामचन्द्रेण शत्रुघ्नो भरतेन च।
द्वन्द्वीभूय चरन्तौ तौ पायसांशानुसारतः॥ ४२॥
मूलम्
लक्ष्मणो रामचन्द्रेण शत्रुघ्नो भरतेन च।
द्वन्द्वीभूय चरन्तौ तौ पायसांशानुसारतः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौसल्या और कैकेयीके दिये हुए पायसांशोंके अनुसार लक्ष्मणजी रामचन्द्रजीके और शत्रुघ्नजी भरतजीके जोड़ीदार होकर रहने लगे॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तु लक्ष्मणेनाथ विचरन्बाललीलया।
रमयामास पितरौ चेष्टितैर्मुग्धभाषितैः॥ ४३॥
मूलम्
रामस्तु लक्ष्मणेनाथ विचरन्बाललीलया।
रमयामास पितरौ चेष्टितैर्मुग्धभाषितैः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीके साथ विचरते हुए श्रीरामचन्द्रजी अपनी बाललीलाओं, चेष्टाओं और भोली-भाली बातोंसे माता-पिताको आनन्दित करने लगे॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाले स्वर्णमयाश्वत्थपर्णमुक्ताफलप्रभम्।
कण्ठे रत्नमणिव्रातमध्यद्वीपिनखाञ्चितम्॥ ४४॥
मूलम्
भाले स्वर्णमयाश्वत्थपर्णमुक्ताफलप्रभम्।
कण्ठे रत्नमणिव्रातमध्यद्वीपिनखाञ्चितम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके ललाटपर मोतियोंसे सजाया हुआ देदीप्यमान सुवर्णमय अश्वत्थपत्र (पीपलका पत्ता) तथा गलेमें रत्न और मणिसमूहके साथ बीच-बीचमें व्याघ्रनख सजाकर गूँथी हुई लड़ियाँ सुशोभित हैं॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णयोः स्वर्णसम्पन्नरत्नार्जुनसटालुकम्।
शिञ्जानमणिमञ्जीरकटिसूत्राङ्गदैर्वृतम्॥ ४५॥
मूलम्
कर्णयोः स्वर्णसम्पन्नरत्नार्जुनसटालुकम्।
शिञ्जानमणिमञ्जीरकटिसूत्राङ्गदैर्वृतम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
कानोंमें अर्जुनवृक्षके कच्चे फलोंके समान रत्नजटित सुवर्णके आभूषण लटक रहे हैं, तथा जो झनकारते हुए मणिमय नूपुर, सुवर्णमेखला और बाजूबंदसे विभूषित हैं॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मितवक्त्राल्पदशनमिन्द्रनीलमणिप्रभम्।
अङ्गणे रिङ्गमाणं तं तर्णकाननु सर्वतः॥ ४६॥
दृष्ट्वा दशरथो राजा कौसल्या मुमुदे तदा।
भोक्ष्यमाणो दशरथो राममेहीति चासकृत्॥ ४७॥
आह्वयत्यतिहर्षेण प्रेम्णा नायाति लीलया।
आनयेति च कौसल्यामाह सा सस्मिता सुतम्॥ ४८॥
धावत्यपि न शक्नोति स्प्रष्टुं योगिमनोगतिम्।
प्रहसन्स्वयमायाति कर्दमाङ्कितपाणिना।
किञ्चिद् गृहीत्वा कवलं पुनरेव पलायते॥ ४९॥
मूलम्
स्मितवक्त्राल्पदशनमिन्द्रनीलमणिप्रभम्।
अङ्गणे रिङ्गमाणं तं तर्णकाननु सर्वतः॥ ४६॥
दृष्ट्वा दशरथो राजा कौसल्या मुमुदे तदा।
भोक्ष्यमाणो दशरथो राममेहीति चासकृत्॥ ४७॥
आह्वयत्यतिहर्षेण प्रेम्णा नायाति लीलया।
आनयेति च कौसल्यामाह सा सस्मिता सुतम्॥ ४८॥
धावत्यपि न शक्नोति स्प्रष्टुं योगिमनोगतिम्।
प्रहसन्स्वयमायाति कर्दमाङ्कितपाणिना।
किञ्चिद् गृहीत्वा कवलं पुनरेव पलायते॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस इन्द्रनील-मणिकी-सी आभावाले तथा स्वल्प दाँतोंसे युक्त मुसकाते हुए मुखवाले बालकको राजभवनके आँगनमें बछड़ेके पीछे-पीछे सब ओर बालगतिसे दौड़ते देख महाराज दशरथ और माता कौसल्या अति आनन्दित होते थे। जिस समय महाराज भोजन करने बैठते तो ‘राम! आ’ ऐसा कह-कहकर अति हर्ष और प्रेमपूर्वक उन्हें बारम्बार बुलाते। जब खेलमें लगे रहनेके कारण वे न आते तो वे कौसल्यासे ‘इसे पकड़ ला’ ऐसा कहकर उन्हें लानेके लिये कहते। किन्तु जो योगजनोंके चित्तके एकमात्र आश्रय हैं ऐसे पुत्रको कौसल्याजी हँसकर दौड़ती हुई भी न पकड़ पातीं। (उस समय माताको थकी देखकर) वे स्वयं ही कीचमें सने हुए हाथोंसे हँसते-हँसते वहाँ आ जाते और एक-आध ग्रास खाकर ही फिर भाग जाते॥ ४६—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसल्या जननी तस्य मासि मासि प्रकुर्वती।
वायनानि विचित्राणि समलङ्कृत्य राघवम्॥ ५०॥
अपूपान्मोदकान्कृत्वा कर्णशष्कुलिकास्तथा।
कर्णपूरांश्च विविधान् वर्षवृद्धौ च वायनम्॥ ५१॥
मूलम्
कौसल्या जननी तस्य मासि मासि प्रकुर्वती।
वायनानि विचित्राणि समलङ्कृत्य राघवम्॥ ५०॥
अपूपान्मोदकान्कृत्वा कर्णशष्कुलिकास्तथा।
कर्णपूरांश्च विविधान् वर्षवृद्धौ च वायनम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता कौसल्या रामको भली प्रकार वस्त्राभूषण पहनाकर प्रतिमास नाना प्रकारकी मिठाई बनाकर उत्सव मनाया करती थी और वर्षगाँठके दिन भी पूआ, लड्डू, जलेबी, कचौड़ी आदि विविध व्यंजन बनाकर उत्सव मनाती थीं॥ ५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहकृत्यं तया त्यक्तं तस्य चापल्यकारणात्।
एकदा रघुनाथोऽसौ गतो मातरमन्तिके॥ ५२॥
मूलम्
गृहकृत्यं तया त्यक्तं तस्य चापल्यकारणात्।
एकदा रघुनाथोऽसौ गतो मातरमन्तिके॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामकी चपलताके कारण कौसल्याने घरका काम करना छोड़ दिया था। एक दिन रामजी माताके पास गये॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनं देहि मे मातर्न श्रुतं कार्यसक्तया।
ततः क्रोधेन भाण्डानि लगुडेनाहनत्तदा॥ ५३॥
मूलम्
भोजनं देहि मे मातर्न श्रुतं कार्यसक्तया।
ततः क्रोधेन भाण्डानि लगुडेनाहनत्तदा॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा—‘‘माता! मुझे कुछ खानेको दे।’’ किन्तु काममें लगी होनेसे माताने न सुना। तब क्रोधित होकर उन्होंने डंडेसे सब बर्तन फोड़ डाले॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिक्यस्थं पातयामास गव्यं च नवनीतकम्।
लक्ष्मणाय ददौ रामो भरताय यथाक्रमम्॥ ५४॥
शत्रुघ्नाय ददौ पश्चाद्दधि दुग्धं तथैव च।
सूदेन कथिते मात्रे हास्यं कृत्वा प्रधावति॥ ५५॥
मूलम्
शिक्यस्थं पातयामास गव्यं च नवनीतकम्।
लक्ष्मणाय ददौ रामो भरताय यथाक्रमम्॥ ५४॥
शत्रुघ्नाय ददौ पश्चाद्दधि दुग्धं तथैव च।
सूदेन कथिते मात्रे हास्यं कृत्वा प्रधावति॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा छीकेपर रखे हुए गोरस और माखनको गिरा लिया और उसे तथा वहाँ रखे हुए समस्त दूध-दहीको भी क्रमशः लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्नको बाँट दिया। तब रसोइयेने जाकर माता कौसल्यासे कहा। वह हँसती हुई पकड़नेको दौड़ीं॥ ५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतां तां विलोक्याथ ततः सर्वैः पलायितम्।
कौसल्या धावमानापि प्रस्खलन्ती पदे पदे॥ ५६॥
मूलम्
आगतां तां विलोक्याथ ततः सर्वैः पलायितम्।
कौसल्या धावमानापि प्रस्खलन्ती पदे पदे॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
माताको आती देखकर वे सब बालक भाग गये। माता कौसल्या भी उनके पीछे दौड़ीं, किन्तु वे पग-पगपर फिसलने लगीं॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुनाथं करे धृत्वा किञ्चिन्नोवाच भामिनी।
बालभावं समाश्रित्य मन्दं मन्दं रुरोद ह॥ ५७॥
मूलम्
रघुनाथं करे धृत्वा किञ्चिन्नोवाच भामिनी।
बालभावं समाश्रित्य मन्दं मन्दं रुरोद ह॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें उन्होंने रामको पकड़ लिया, किन्तु कहा कुछ भी नहीं। उस समय रामजी बालभावसे धीरे-धीरे रोने लगे॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सर्वे लालिता मात्रा गाढमालिङ्ग्य यत्नतः।
एवमानन्दसन्दोहजगदानन्दकारकः॥ ५८॥
मायाबालवपुर्धृत्वा रमयामास दम्पती।
अथ कालेन ते सर्वे कौमारं प्रतिपेदिरे॥ ५९॥
मूलम्
ते सर्वे लालिता मात्रा गाढमालिङ्ग्य यत्नतः।
एवमानन्दसन्दोहजगदानन्दकारकः॥ ५८॥
मायाबालवपुर्धृत्वा रमयामास दम्पती।
अथ कालेन ते सर्वे कौमारं प्रतिपेदिरे॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन सबको भयभीत देखकर माताने उन्हें बड़े प्रेमसे हृदय लगाकर प्यार किया। इस प्रकार जगदानन्दकारक आनन्दघन भगवान् राम मायामय बालरूप धारणकर राजदम्पति दशरथ और कौसल्याको आनन्दित करने लगे। तदुपरान्त कुछ काल बीतनेपर उन चारों भाइयोंने कौमार-अवस्थामें प्रवेश किया॥ ५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपनीता वसिष्ठेन सर्वविद्याविशारदाः।
धनुर्वेदे च निरताः सर्वशास्त्रार्थवेदिनः॥ ६०॥
बभूवुर्जगतां नाथा लीलया नररूपिणः।
लक्ष्मणस्तु सदा राममनुगच्छति सादरम्॥ ६१॥
सेव्यसेवकभावेन शत्रुघ्नो भरतं तथा।
रामश्चापधरो नित्यं तूणीबाणान्वितः प्रभुः॥ ६२॥
अश्वारूढो वनं याति मृगयायै सलक्ष्मणः।
हत्वा दुष्टमृगान्सर्वान्पित्रे सर्वं न्यवेदयत्॥ ६३॥
मूलम्
उपनीता वसिष्ठेन सर्वविद्याविशारदाः।
धनुर्वेदे च निरताः सर्वशास्त्रार्थवेदिनः॥ ६०॥
बभूवुर्जगतां नाथा लीलया नररूपिणः।
लक्ष्मणस्तु सदा राममनुगच्छति सादरम्॥ ६१॥
सेव्यसेवकभावेन शत्रुघ्नो भरतं तथा।
रामश्चापधरो नित्यं तूणीबाणान्वितः प्रभुः॥ ६२॥
अश्वारूढो वनं याति मृगयायै सलक्ष्मणः।
हत्वा दुष्टमृगान्सर्वान्पित्रे सर्वं न्यवेदयत्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वसिष्ठजीने उनका उपनयन-संस्कार किया और लीलासे ही नररूप धारण करनेवाले सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी (चारों भाई) समस्त शास्त्रोंका मर्म जाननेवाले तथा धनुर्वेद आदि सम्पूर्ण विद्याओंके पारगामी हो गये। उन सब भाइयोंमें लक्ष्मणजी सेव्य-सेवकभावसे आदरपूर्वक सदा रामचन्द्रजीका अनुगमन करते थे और उसी प्रकार शत्रुघ्नजी सदा भरतजीकी सेवामें उपस्थित रहते थे। भगवान् राम नित्यप्रति लक्ष्मणजीके सहित धनुष, बाण और तरकश धारणकर घोड़ेपर सवार हो दुष्ट पशुओंको मारनेके लिये वनको जाते और वहाँ उन सिंह-व्याघ्रादिको मारकर उन सबकी बात पिताजीको निवेदन कर देते॥ ६०—६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातरुत्थाय सुस्नातः पितरावभिवाद्य च।
पौरकार्याणि सर्वाणि करोति विनयान्वितः॥ ६४॥
मूलम्
प्रातरुत्थाय सुस्नातः पितरावभिवाद्य च।
पौरकार्याणि सर्वाणि करोति विनयान्वितः॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रातःकाल उठकर स्नान करनेके अनन्तर वे माता-पिताको प्रणाम करते और फिर नम्रतापूर्वक नगर-निवासियोंके समस्त कार्य करते॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुभिः सहितो नित्यं भुक्त्वा मुनिभिरन्वहम्।
धर्मशास्त्ररहस्यानि शृणोति व्याकरोति च॥ ६५॥
मूलम्
बन्धुभिः सहितो नित्यं भुक्त्वा मुनिभिरन्वहम्।
धर्मशास्त्ररहस्यानि शृणोति व्याकरोति च॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भाइयोंसहित भोजन करके नित्यप्रति मुनिजनोंसे धर्मशास्त्रोंका मर्म सुनते और स्वयं भी उनकी व्याख्या करते॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं परात्मा मनुजावतारो
मनुष्यलोकाननुसृत्य सर्वम्।
चक्रेऽविकारी परिणामहीनो
विचार्यमाणे न करोति किञ्चित्॥ ६६॥
मूलम्
एवं परात्मा मनुजावतारो
मनुष्यलोकाननुसृत्य सर्वम्।
चक्रेऽविकारी परिणामहीनो
विचार्यमाणे न करोति किञ्चित्॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अविकारी और परिणामहीन परमात्माने मनुष्यावतार लेकर मनुष्योंके आचरणका अनुगमन करते हुए समस्त कार्य किये; पर विचार करके देखा जाय तो वे कुछ भी नहीं करते॥ ६६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे तृतीयः सर्गः॥ ३॥