[द्वितीय सर्ग]
भागसूचना
भारपीडिता पृथिवीका ब्रह्मादि देवताओंके पास जाना और भगवान् का उनकी प्रार्थनासे प्रकट होकर उन्हें धैर्य बँधाना
मूलम् (वचनम्)
पार्वत्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यास्म्यनुगृहीतास्मि कृतार्थास्मि जगत्प्रभो।
विच्छिन्नो मेऽतिसन्देहग्रन्थिर्भवदनुग्रहात्॥ १॥
मूलम्
धन्यास्म्यनुगृहीतास्मि कृतार्थास्मि जगत्प्रभो।
विच्छिन्नो मेऽतिसन्देहग्रन्थिर्भवदनुग्रहात्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्वतीजी बोलीं—हे जगत्प्रभो! आपकी कृपासे अनुगृहीत होकर मैं धन्य और कृतकृत्य हो गयी तथा मेरी कठिन सन्देहग्रन्थि टूट गयी॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मुखाद्गलितं रामतत्त्वामृतरसायनम्।
पिबन्त्या मे मनो देव न तृप्यति भवापहम्॥ २॥
मूलम्
त्वन्मुखाद्गलितं रामतत्त्वामृतरसायनम्।
पिबन्त्या मे मनो देव न तृप्यति भवापहम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! आपके मुखसे चूते हुए भवभयहारी रामतत्त्वरूप अमृतमय रसायनका पान करते-करते मेरा मन तृप्त नहीं होता॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीरामस्य कथा त्वत्तः श्रुता संक्षेपतो मया।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण स्फुटाक्षरम्॥ ३॥
मूलम्
श्रीरामस्य कथा त्वत्तः श्रुता संक्षेपतो मया।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण स्फुटाक्षरम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने आपके मुखसे श्रीरामचन्द्रजीकी कथा संक्षेपसे सुनी। अब मैं उसे स्पष्ट शब्दोंमें विस्तारपूर्वक सुनना चाहती हूँ॥ ३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरं महत्।
अध्यात्मरामचरितं रामेणोक्तं पुरा मम॥ ४॥
मूलम्
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरं महत्।
अध्यात्मरामचरितं रामेणोक्तं पुरा मम॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे देवि! सुनो, मैं तुम्हें गुह्यसे भी गुह्य महान् अध्यात्मरामायण सुनाता हूँ, जो पहले मुझे श्रीरामचन्द्रजीने ही सुनायी थी॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्य कथयिष्यामि शृणु तापत्रयापहम्।
यच्छ्रुत्वा मुच्यते जन्तुरज्ञानोत्थमहाभयात्।
प्राप्नोति परमामृद्धिं दीर्घायुः पुत्रसन्ततिम्॥ ५॥
मूलम्
तदद्य कथयिष्यामि शृणु तापत्रयापहम्।
यच्छ्रुत्वा मुच्यते जन्तुरज्ञानोत्थमहाभयात्।
प्राप्नोति परमामृद्धिं दीर्घायुः पुत्रसन्ततिम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं तुम्हें वह तापत्रयहारी अध्यात्मरामायण सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनो। जिसके सुननेसे जीव अज्ञानजन्य महाभयसे छूट जाता है और परम ऐश्वर्य, दीर्घ आयु तथा पुत्र-पौत्रादि प्राप्त करता है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिर्भारेण मग्ना दशवदनमुखा
शेषरक्षोगणानां
धृत्वा गोरूपमादौ दिविजमुनिजनैः
साकमब्जासनस्य।
गत्वा लोकं रुदन्ती व्यसनमुपगतं
ब्रह्मणे प्राह सर्वं
ब्रह्मा ध्यात्वा मुहूर्तं सकलमपि हृदा-
वेदशेषात्मकत्वात्॥ ६॥
मूलम्
भूमिर्भारेण मग्ना दशवदनमुखा
शेषरक्षोगणानां
धृत्वा गोरूपमादौ दिविजमुनिजनैः
साकमब्जासनस्य।
गत्वा लोकं रुदन्ती व्यसनमुपगतं
ब्रह्मणे प्राह सर्वं
ब्रह्मा ध्यात्वा मुहूर्तं सकलमपि हृदा-
वेदशेषात्मकत्वात्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार रावण आदि राक्षसोंके भारसे व्यथित हो पृथिवी गौका रूप धारण कर देवता और मुनिजनोंके सहित श्रीब्रह्माजीके लोकको गयी। वहाँ पहुँचकर उसने रोते हुए, अपनेपर पड़ा हुआ सारा दुःख ब्रह्माजीसे कहा। तब ब्रह्माजीने एक मुहूर्ततक ध्यानस्थ हो अपने मनमें उसकी दुःखनिवृत्तिका सम्पूर्ण उपाय जान लिया क्योंकि वे सर्वान्तर्यामी हैं॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्क्षीरसमुद्रतीरमगमद्
ब्रह्माथ देवैर्वृतो
देव्या चाखिललोकहृत्स्थमजरं
सर्वज्ञमीशं हरिम्।
अस्तौषीच्छ्रुतिसिद्धनिर्मलपदैः
स्तोत्रैः पुराणोद्भवै-
र्भक्त्या गद्गदया गिरातिविमलै-
रानन्दवाष्पैर्वृतः॥ ७॥
मूलम्
तस्मात्क्षीरसमुद्रतीरमगमद्
ब्रह्माथ देवैर्वृतो
देव्या चाखिललोकहृत्स्थमजरं
सर्वज्ञमीशं हरिम्।
अस्तौषीच्छ्रुतिसिद्धनिर्मलपदैः
स्तोत्रैः पुराणोद्भवै-
र्भक्त्या गद्गदया गिरातिविमलै-
रानन्दवाष्पैर्वृतः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वहाँसे समस्त देवताओंके सहित श्रीब्रह्माजी पृथिवीको साथ लेकर क्षीरसागरके तटपर गये और वहाँ उन्होंने अत्यन्त निर्मल आनन्दाश्रुओंसे परिप्लुत हो अखिल-लोकान्तर्यामी, अजर, सर्वज्ञ, भगवान् हरिकी अति निर्मल भक्तियुक्त गद्गदवाणीसे श्रुतिसिद्ध विमल पदों और पुराणोक्त स्तोत्रोंद्वारा स्तुति की॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्फुरत्सहस्रांशुसहस्रसदृशप्रभः।
आविरासीद्धरिः प्राच्यां दिशां व्यपनयंस्तमः॥ ८॥
मूलम्
ततः स्फुरत्सहस्रांशुसहस्रसदृशप्रभः।
आविरासीद्धरिः प्राच्यां दिशां व्यपनयंस्तमः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सहस्रों देदीप्यमान सूर्योंके समान प्रभाशाली भगवान् हरि (अपने तेजसे) सब दिशाओंके अन्धकारको दूर करते हुए पूर्वदिशामें प्रकट हुए॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथंचिद्दृष्टवान्ब्रह्मा दुर्दर्शमकृतात्मनाम्।
इन्द्रनीलप्रतीकाशं स्मितास्यं पद्मलोचनम्॥ ९॥
मूलम्
कथंचिद्दृष्टवान्ब्रह्मा दुर्दर्शमकृतात्मनाम्।
इन्द्रनीलप्रतीकाशं स्मितास्यं पद्मलोचनम्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्यहीन पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुर्दर्शनीय भगवान् हरिको (उनके अमित तेजके कारण) ब्रह्माजीने भी बड़ी कठिनतासे देख पाया। इन्द्रनीलमणिके समान उनका तेजोमय श्यामवर्ण था, मुखपर मधुर मुसकान थी और कमलके समान विशाल और मनोहर नेत्र थे॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरीटहारकेयूरकुण्डलैः कटकादिभिः।
विभ्राजमानं श्रीवत्सकौस्तुभप्रभयान्वितम्॥ १०॥
मूलम्
किरीटहारकेयूरकुण्डलैः कटकादिभिः।
विभ्राजमानं श्रीवत्सकौस्तुभप्रभयान्वितम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे किरीट, हार, केयूर, कुण्डल और कटक आदि आभूषणोंसे सुशोभित तथा श्रीवत्स और कौस्तुभमणिकी प्रभासे युक्त थे॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुवद्भिः सनकाद्यैश्च पार्षदैः परिवेष्टितम्।
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविराजितम्॥ ११॥
मूलम्
स्तुवद्भिः सनकाद्यैश्च पार्षदैः परिवेष्टितम्।
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविराजितम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें स्तुति करते हुए सनकादि पार्षद चारों ओरसे घेरे हुए थे और उनकी शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमालासे अपूर्व शोभा हो रही थी॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्णयज्ञोपवीतेन स्वर्णवर्णाम्बरेण च।
श्रिया भूम्या च सहितं गरुडोपरि संस्थितम्॥ १२॥
हर्षगद्गदया वाचा स्तोतुं समुपचक्रमे॥ १३॥
मूलम्
स्वर्णयज्ञोपवीतेन स्वर्णवर्णाम्बरेण च।
श्रिया भूम्या च सहितं गरुडोपरि संस्थितम्॥ १२॥
हर्षगद्गदया वाचा स्तोतुं समुपचक्रमे॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोनेके यज्ञोपवीत और पीताम्बरसे सुशोभित एवं लक्ष्मी और भूमिके सहित गरुडपर विराजमान थे। (उनकी ऐसी दिव्य छविको देखकर) पितामह ब्रह्माजी हर्षसे गद्गदकण्ठ हो स्तुति करने लगे॥ १२-१३॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नतोऽस्मि ते पदं देव प्राणबुद्धीन्द्रियात्मभिः।
यच्चिन्त्यते कर्मपाशाद्धृदि नित्यं मुमुक्षुभिः॥ १४॥
मूलम्
नतोऽस्मि ते पदं देव प्राणबुद्धीन्द्रियात्मभिः।
यच्चिन्त्यते कर्मपाशाद्धृदि नित्यं मुमुक्षुभिः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले—हे देव! कर्मपाशसे मुक्त होनेके लिये मुमुक्षुजन अपने प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और मनसे जिनका नित्य चिन्तन करते हैं आपके उन चरणारविन्दोंको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायया गुणमय्या त्वं सृजस्यवसि लुम्पसि।
जगत्तेन न ते लेप आनन्दानुभवात्मनः॥ १५॥
मूलम्
मायया गुणमय्या त्वं सृजस्यवसि लुम्पसि।
जगत्तेन न ते लेप आनन्दानुभवात्मनः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अपनी त्रिगुणमयी मायाका आश्रय करके ही इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और लय करते हैं; किन्तु ज्ञानानन्दस्वरूप आप उससे लिप्त नहीं होते॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा शुद्धिर्न दुष्टानां दानाध्ययनकर्मभिः।
शुद्धात्मता ते यशसि सदा भक्तिमतां यथा॥ १६॥
मूलम्
तथा शुद्धिर्न दुष्टानां दानाध्ययनकर्मभिः।
शुद्धात्मता ते यशसि सदा भक्तिमतां यथा॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भगवन्! आपके विमल यशमें सदा प्रेम रखनेवाले भक्तोंका अन्तःकरण जैसा शुद्ध होता है वैसी शुद्धि मलिन अन्तःकरणवाले पुरुष दान और अध्ययन आदि शुभ कर्मोंसे नहीं प्राप्त कर सकते॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्तवाङ्घ्रिर्मे दृष्टश्चित्तदोषापनुत्तये।
सद्योऽन्तर्हृदये नित्यं मुनिभिः सात्वतैर्वृतः॥ १७॥
मूलम्
अतस्तवाङ्घ्रिर्मे दृष्टश्चित्तदोषापनुत्तये।
सद्योऽन्तर्हृदये नित्यं मुनिभिः सात्वतैर्वृतः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः भक्त मुनिजन जिनका निरन्तर अपने हृदयमें ध्यान करते हैं ऐसे आपके चरण-कमलोंका आज मैंने अपने अन्तःकरणके दोषोंका तत्क्षण नाश करनेके लिये दर्शन किया है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्माद्यैः स्वार्थसिद्ध्यर्थमस्माभिः पूर्वसेवितः।
अपरोक्षानुभूत्यर्थं ज्ञानिभिर्हृदि भावितः॥ १८॥
मूलम्
ब्रह्माद्यैः स्वार्थसिद्ध्यर्थमस्माभिः पूर्वसेवितः।
अपरोक्षानुभूत्यर्थं ज्ञानिभिर्हृदि भावितः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके इन चरण-कमलोंका पहले भी हम ब्रह्मा आदि देवगणने अपनी स्वार्थ-सिद्धिके लिये सेवन किया है और ज्ञानी मुनिजनोंने अपरोक्षानुभवके लिये अपने हृदयमें निरन्तर ध्यान किया है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवाङ्घ्रिपूजानिर्माल्यतुलसीमालया विभो।
स्पर्धते वक्षसि पदं लब्ध्वापि श्रीः सपत्निवत्॥ १९॥
मूलम्
तवाङ्घ्रिपूजानिर्माल्यतुलसीमालया विभो।
स्पर्धते वक्षसि पदं लब्ध्वापि श्रीः सपत्निवत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विभो! लक्ष्मीजी आपके वक्षःस्थलमें स्थान पाकर भी आपकी चरणपूजाके समय चढ़ी हुई तुलसीकी मालासे सौतकी तरह डाह करती हैं॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वत्पादभक्तेषु तव भक्तिः श्रियोऽधिका।
भक्तिमेवाभिवाञ्छन्ति त्वद्भक्ताः सारवेदिनः॥ २०॥
मूलम्
अतस्त्वत्पादभक्तेषु तव भक्तिः श्रियोऽधिका।
भक्तिमेवाभिवाञ्छन्ति त्वद्भक्ताः सारवेदिनः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके चरण-कमलोंमें प्रेम रखनेवाले भक्तोंमें आपका प्रेम लक्ष्मीजीसे भी बढ़कर है। इसलिये आपके सारग्राही भक्तजन केवल आपकी भक्तिकी ही इच्छा करते हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वत्पादकमले भक्तिरेव सदास्तु मे।
संसारामयतप्तानां भेषजं भक्तिरेव ते॥ २१॥
मूलम्
अतस्त्वत्पादकमले भक्तिरेव सदास्तु मे।
संसारामयतप्तानां भेषजं भक्तिरेव ते॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतएव हे देव! आपके चरण-कमलोंमें मेरी सर्वदा भक्ति रहे; क्योंकि संसार-रोगके रोगियोंके लिये आपकी भक्ति ही एकमात्र औषध है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवन्तं ब्रह्माणं बभाषे भगवान् हरिः।
किं करोमीति तं वेधाः प्रत्युवाचातिहर्षितः॥ २२॥
मूलम्
इति ब्रुवन्तं ब्रह्माणं बभाषे भगवान् हरिः।
किं करोमीति तं वेधाः प्रत्युवाचातिहर्षितः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार स्तुति करते हुए ब्रह्मासे भगवान् हरिने कहा—‘‘मैं तुम्हारा क्या कार्य करूँ?’’ तब ब्रह्माने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे कहा—॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् रावणो नाम पौलस्त्यतनयो महान्।
राक्षसानामधिपतिर्मद्दत्तवरदर्पितः॥ २३॥
मूलम्
भगवन् रावणो नाम पौलस्त्यतनयो महान्।
राक्षसानामधिपतिर्मद्दत्तवरदर्पितः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भगवन्! पुलस्त्यनन्दन विश्रवाका पुत्र रावण राक्षसोंका राजा है। वह मेरे वरके प्रभावसे अत्यन्त अभिमानी हो गया है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिलोकीं लोकपालांश्च बाधते विश्वबाधकः।
मानुषेण मृतिस्तस्य मया कल्याण कल्पिता।
अतस्त्वं मानुषो भूत्वा जहि देवरिपुं प्रभो॥ २४॥
मूलम्
त्रिलोकीं लोकपालांश्च बाधते विश्वबाधकः।
मानुषेण मृतिस्तस्य मया कल्याण कल्पिता।
अतस्त्वं मानुषो भूत्वा जहि देवरिपुं प्रभो॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सम्पूर्ण विश्वका बाधक तीनों लोकों और लोकपालोंको पीड़ा पहुँचाता है। हे कल्याणरूप! मैंने उसकी मृत्यु मनुष्यके हाथ रखी है। इसलिये हे प्रभो! आप मनुष्यरूप धारणकर उस देवशत्रुका वध कीजिये’’॥ २४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्यपस्य वरो दत्तस्तपसा तोषितेन मे॥ २५॥
याचितः पुत्रभावाय तथेत्यङ्गीकृतं मया।
स इदानीं दशरथो भूत्वा तिष्ठति भूतले॥ २६॥
मूलम्
कश्यपस्य वरो दत्तस्तपसा तोषितेन मे॥ २५॥
याचितः पुत्रभावाय तथेत्यङ्गीकृतं मया।
स इदानीं दशरथो भूत्वा तिष्ठति भूतले॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले—मैंने कश्यपकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर उन्हें वर दिया था। उन्होंने मुझसे पुत्ररूपसे उत्पन्न होनेकी प्रार्थना की थी, तब मैंने ‘बहुत अच्छा’ कह उसे स्वीकार कर लिया था। इस समय वे पृथ्वीपर राजा दशरथ होकर विद्यमान हैं॥ २५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याहं पुत्रतामेत्य कौसल्यायां शुभे दिने।
चतुर्धात्मानमेवाहं सृजामीतरयोः पृथक्॥ २७॥
मूलम्
तस्याहं पुत्रतामेत्य कौसल्यायां शुभे दिने।
चतुर्धात्मानमेवाहं सृजामीतरयोः पृथक्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींके यहाँ पुत्ररूपसे पृथक्-पृथक् चार अंशोंमें प्रकट होकर मैं शुभ दिनोंमें कौसल्याके और अन्य दो माताओंके गर्भसे जन्म लूँगा॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगमायापि सीतेति जनकस्य गृहे तदा।
उत्पत्स्यते तया सार्धं सर्वं सम्पादयाम्यहम्।
इत्युक्त्वान्तर्दधे विष्णुर्ब्रह्मा देवानथाब्रवीत्॥ २८॥
मूलम्
योगमायापि सीतेति जनकस्य गृहे तदा।
उत्पत्स्यते तया सार्धं सर्वं सम्पादयाम्यहम्।
इत्युक्त्वान्तर्दधे विष्णुर्ब्रह्मा देवानथाब्रवीत्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय मेरी योगमाया भी जनकजीके घरमें सीतारूपसे उत्पन्न होगी; उसको साथ लेकर मैं तुम्हारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध करूँगा। ऐसा कह भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये; तब ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा॥ २८॥
अनुवाद (समाप्ति)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुर्मानुषरूपेण भविष्यति रघोः कुले॥ २९॥
यूयं सृजध्वं सर्वेऽपि वानरेष्वंशसम्भवान्।
विष्णोः सहायं कुरुत यावत्स्थास्यति भूतले॥ ३०॥
मूलम्
विष्णुर्मानुषरूपेण भविष्यति रघोः कुले॥ २९॥
यूयं सृजध्वं सर्वेऽपि वानरेष्वंशसम्भवान्।
विष्णोः सहायं कुरुत यावत्स्थास्यति भूतले॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले—भगवान् विष्णु रघुकुलमें मनुष्यरूपसे अवतार लेंगे। तुमलोग भी सब अपने-अपने अंशसे वानरवंशमें पुत्र उत्पन्न करो तथा जबतक श्रीविष्णुभगवान् भूलोक में रहें तबतक उनकी सहायता करते रहो॥ २९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति देवान्समादिश्य समाश्वास्य च मेदिनीम्।
ययौ ब्रह्मा स्वभवनं विज्वरः सुखमास्थितः॥ ३१॥
मूलम्
इति देवान्समादिश्य समाश्वास्य च मेदिनीम्।
ययौ ब्रह्मा स्वभवनं विज्वरः सुखमास्थितः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार देवताओंको आज्ञा दे और पृथ्वीको ढाढ़स बँधा ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और वहाँ निश्चिन्त होकर सुखपूर्वक रहने लगे॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवाश्च सर्वे हरिरूपधारिणः
स्थिताः सहायार्थमितस्ततो हरेः।
महाबलाः पर्वतवृक्षयोधिनः
प्रतीक्षमाणा भगवन्तमीश्वरम्॥ ३२॥
मूलम्
देवाश्च सर्वे हरिरूपधारिणः
स्थिताः सहायार्थमितस्ततो हरेः।
महाबलाः पर्वतवृक्षयोधिनः
प्रतीक्षमाणा भगवन्तमीश्वरम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर समस्त देवगण पर्वत और वृक्षोंद्वारा लड़नेवाले महाबलवान् वानरोंका रूप धारणकर भगवान् की सहायताके लिये उनकी प्रतीक्षा करते हुए जहाँ-तहाँ रहने लगे॥ ३२॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥