[प्रथम सर्ग]
भागसूचना
श्रीरामहृदय
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पृथ्वीभरवारणाय दिविजैः
संप्रार्थितश्चिन्मयः
संजातः पृथिवीतले रविकुले
मायामनुष्योऽव्ययः।
निश्चक्रं हतराक्षसः पुनरगाद्
ब्रह्मत्वमाद्यं स्थिरां
कीर्तिं पापहरां विधाय जगतां
तं जानकीशं भजे॥ १॥
मूलम्
यः पृथ्वीभरवारणाय दिविजैः
संप्रार्थितश्चिन्मयः
संजातः पृथिवीतले रविकुले
मायामनुष्योऽव्ययः।
निश्चक्रं हतराक्षसः पुनरगाद्
ब्रह्मत्वमाद्यं स्थिरां
कीर्तिं पापहरां विधाय जगतां
तं जानकीशं भजे॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन चिन्मय अविनाशी प्रभुने पृथिवीका भार उतारनेके लिये देवताओंकी प्रार्थनासे पृथिवीतलपर सूर्यवंशमें माया-मानवरूपसे अवतार लिया और जो राक्षसोंके समूहको मारकर तथा संसारमें अपनी पाप-विनाशिनी अविचल कीर्ति स्थापितकर पुनः अपने आद्य ब्रह्मस्वरूपमें लीन हो गये, उन श्रीजानकीनाथका मैं भजन करता हूँ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यमूर्तिम्।
आनन्दसान्द्रममलं निजबोधरूपं
सीतापतिं विदिततत्त्वमहं नमामि॥ २॥
मूलम्
विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यमूर्तिम्।
आनन्दसान्द्रममलं निजबोधरूपं
सीतापतिं विदिततत्त्वमहं नमामि॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और लय आदिके एकमात्र कारण हैं, मायाके आश्रय होकर भी मायातीत हैं, अचिन्त्यस्वरूप हैं, आनन्दघन हैं, उपाधिकृत दोषोंसे रहित हैं तथा स्वयंप्रकाशस्वरूप हैं, उन तत्त्ववेत्ता श्रीसीतापतिको मैं नमस्कार करता हूँ॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठन्ति ये नित्यमनन्यचेतसः
शृण्वन्ति चाध्यात्मिकसंज्ञितं शुभम्।
रामायणं सर्वपुराणसंमतं
निर्धूतपापा हरिमेव यान्ति ते॥ ३॥
मूलम्
पठन्ति ये नित्यमनन्यचेतसः
शृण्वन्ति चाध्यात्मिकसंज्ञितं शुभम्।
रामायणं सर्वपुराणसंमतं
निर्धूतपापा हरिमेव यान्ति ते॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग इस सर्वपुराणसम्मत पवित्र अध्यात्म-रामायणका एकाग्रचित्तसे नित्य पाठ करते हैं और जो इसे सुनते हैं, वे पापरहित होकर श्रीहरिको ही प्राप्त करते हैं॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मरामायणमेव नित्यं
पठेद्यदीच्छेद्भवबन्धमुक्तिम्।
गवां सहस्रायुतकोटिदानात्
फलं लभेद्यः शृणुयात्स नित्यम्॥ ४॥
मूलम्
अध्यात्मरामायणमेव नित्यं
पठेद्यदीच्छेद्भवबन्धमुक्तिम्।
गवां सहस्रायुतकोटिदानात्
फलं लभेद्यः शृणुयात्स नित्यम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई संसार-बन्धनसे मुक्त होना चाहता हो तो वह अध्यात्मरामायणका ही नित्य पाठ करे। जो कोई मनुष्य इसका नित्य श्रवण करता है वह लाखों करोड़ गोदानका फल प्राप्त करता है॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरारिगिरिसंभूता श्रीरामार्णवसङ्गता।
अध्यात्मरामगङ्गेयं पुनाति भुवनत्रयम्॥ ५॥
मूलम्
पुरारिगिरिसंभूता श्रीरामार्णवसङ्गता।
अध्यात्मरामगङ्गेयं पुनाति भुवनत्रयम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशंकररूप पर्वतसे निकली हुई रामरूप समुद्रमें मिलनेवाली यह अध्यात्मरामायणरूपिणी गंगा त्रिलोकीको पवित्र कर रही है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैलासाग्रे कदाचिद्रविशतविमले
मन्दिरे रत्नपीठे
संविष्टं ध्याननिष्ठं त्रिनयनमभयं
सेवितं सिद्धसंघैः।
देवी वामाङ्कसंस्था गिरिवरतनया
पार्वती भक्तिनम्रा
प्राहेदं देवमीशं सकलमलहरं
वाक्यमानन्दकन्दम्॥ ६॥
मूलम्
कैलासाग्रे कदाचिद्रविशतविमले
मन्दिरे रत्नपीठे
संविष्टं ध्याननिष्ठं त्रिनयनमभयं
सेवितं सिद्धसंघैः।
देवी वामाङ्कसंस्था गिरिवरतनया
पार्वती भक्तिनम्रा
प्राहेदं देवमीशं सकलमलहरं
वाक्यमानन्दकन्दम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय कैलासपर्वतके शिखरपर सैकड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान शुभ्र भवनमें रत्नसिंहासनपर ध्यानावस्थित बैठे हुए, सिद्ध-समूहसेवित, नित्यनिर्भय, सर्वपापहारी आनन्दकन्द देवदेव भगवान् त्रिनयनसे उनके वामांकमें विराजमान श्रीगिरिराजकुमारी पार्वतीने भक्ति-भावसे नम्रतापूर्वक ये वाक्य कहे॥ ६॥
मूलम् (वचनम्)
पार्वत्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु ते देव जगन्निवास
सर्वात्मदृक् त्वं परमेश्वरोऽसि।
पृच्छाम तत्त्वं पुरुषोत्तमस्य
सनातनं त्वं च सनातनोऽसि॥ ७॥
मूलम्
नमोऽस्तु ते देव जगन्निवास
सर्वात्मदृक् त्वं परमेश्वरोऽसि।
पृच्छाम तत्त्वं पुरुषोत्तमस्य
सनातनं त्वं च सनातनोऽसि॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपार्वतीजी बोलीं—हे देव! हे जगन्निवास! आपको नमस्कार है; आप सबके अन्तःकरणोंके साक्षी और परमेश्वर हैं। मैं आपसे श्रीपुरुषोत्तम भगवान् का सनातन तत्त्व पूछना चाहती हूँ, क्योंकि आप भी सनातन हैं॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्यं यदत्यन्तमनन्यवाच्यं
वदन्ति भक्तेषु महानुभावाः।
तदप्यहोऽहं तव देव भक्ता
प्रियोऽसि मे त्वं वद यत्तु पृष्टम्॥ ८॥
मूलम्
गोप्यं यदत्यन्तमनन्यवाच्यं
वदन्ति भक्तेषु महानुभावाः।
तदप्यहोऽहं तव देव भक्ता
प्रियोऽसि मे त्वं वद यत्तु पृष्टम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
महानुभावलोग जो अत्यन्त गोपनीय विषय होता है तथा अन्य किसीसे कहनेयोग्य नहीं होता उसे भी अपने भक्तजनोंसे कह देते हैं। हे देव! मैं भी आपकी भक्ता हूँ, मुझे आप अत्यन्त प्रिय हैं। इसलिये मैंने जो कुछ पूछा है वह वर्णन कीजिये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं सविज्ञानमथानुभक्ति-
वैराग्ययुक्तं च मितं विभास्वत्।
जानाम्यहं योषिदपि त्वदुक्तं
यथा तथा ब्रूहि तरन्ति येन॥ ९॥
मूलम्
ज्ञानं सविज्ञानमथानुभक्ति-
वैराग्ययुक्तं च मितं विभास्वत्।
जानाम्यहं योषिदपि त्वदुक्तं
यथा तथा ब्रूहि तरन्ति येन॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस ज्ञानके द्वारा मनुष्य संसार-समुद्रसे पार हो जाते हैं उस भक्ति और वैराग्यसे परिपूर्ण प्रकाशमय आत्मज्ञानका वर्णन आप विज्ञानसहित इस प्रकार स्वल्प शब्दोंमें कीजिये जिससे मैं स्त्री होनेपर भी आपके वचनोंको (सहज ही) समझ सकूँ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृच्छामि चान्यच्च परं रहस्यं
तदेव चाग्रे वद वारिजाक्ष।
श्रीरामचन्द्रेऽखिललोकसारे
भक्तिर्दृढा नौर्भवति प्रसिद्धा॥ १०॥
मूलम्
पृच्छामि चान्यच्च परं रहस्यं
तदेव चाग्रे वद वारिजाक्ष।
श्रीरामचन्द्रेऽखिललोकसारे
भक्तिर्दृढा नौर्भवति प्रसिद्धा॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कमलनयन! मैं एक परम गुह्य रहस्य आपसे और पूछती हूँ, कृपया आप पहले उसे ही वर्णन करें। यह तो प्रसिद्ध ही है कि अखिल-लोक-सार श्रीरामचन्द्रजीकी विशुद्ध भक्ति संसारसागरको तरनेके लिये सुदृढ़ नौका है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तिः प्रसिद्धा भवमोक्षणाय
नान्यत्ततः साधनमस्ति किञ्चित्।
तथापि हृत्संशयबन्धनं मे
विभेत्तुमर्हस्यमलोक्तिभिस्त्वम्॥ ११॥
मूलम्
भक्तिः प्रसिद्धा भवमोक्षणाय
नान्यत्ततः साधनमस्ति किञ्चित्।
तथापि हृत्संशयबन्धनं मे
विभेत्तुमर्हस्यमलोक्तिभिस्त्वम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारसे मुक्त होनेके लिये भक्ति ही प्रसिद्ध उपाय है उससे श्रेष्ठ और कोई भी साधन नहीं है; तथापि आप अपने विशुद्ध वचनोंसे मेरे हृदयकी संशय-ग्रन्थिका छेदन कीजिये॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वदन्ति रामं परमेकमाद्यं
निरस्तमायागुणसंप्रवाहम्।
भजन्ति चाहर्निशमप्रमत्ताः
परं पदं यान्ति तथैव सिद्धाः॥ १२॥
मूलम्
वदन्ति रामं परमेकमाद्यं
निरस्तमायागुणसंप्रवाहम्।
भजन्ति चाहर्निशमप्रमत्ताः
परं पदं यान्ति तथैव सिद्धाः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रमादरहित सिद्धगण श्रीरामचन्द्रजीको परम, अद्वितीय, सबके आदिकारण और प्रकृतिके गुण-प्रवाहसे परे बतलाते हैं तथा वे अहर्निश उनका भजन करके परमपद भी प्राप्त करते हैं॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वदन्ति केचित्परमोऽपि रामः
स्वाविद्यया संवृतमात्मसंज्ञम्।
जानाति नात्मानमतः परेण
सम्बोधितो वेद परात्मतत्त्वम्॥ १३॥
मूलम्
वदन्ति केचित्परमोऽपि रामः
स्वाविद्यया संवृतमात्मसंज्ञम्।
जानाति नात्मानमतः परेण
सम्बोधितो वेद परात्मतत्त्वम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु कोई-कोई कहते हैं कि राम परब्रह्म होनेपर भी अपनी मायासे आवृत हो जानेके कारण अपने आत्मस्वरूपको नहीं जानते थे। इसलिये अन्य (वसिष्ठादि)-के उपदेशसे उन्होंने आत्मतत्त्वको जाना॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि स्म जानाति कुतो विलापः
सीताकृतेऽनेन कृतः परेण।
जानाति नैवं यदि केन सेव्यः
समो हि सर्वैरपि जीवजातैः॥ १४॥
अत्रोत्तरं किं विदितं भवद्भि-
स्तद्भू मे संशयभेदि वाक्यम्॥१५॥
मूलम्
यदि स्म जानाति कुतो विलापः
सीताकृतेऽनेन कृतः परेण।
जानाति नैवं यदि केन सेव्यः
समो हि सर्वैरपि जीवजातैः॥ १४॥
अत्रोत्तरं किं विदितं भवद्भि-
स्तद्भू मे संशयभेदि वाक्यम्॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं पूछती हूँ कि यदि वे आत्मतत्त्वको जानते थे, तो उन परमात्माने सीताके लिये इतना विलाप क्यों किया? और यदि उन्हें आत्मज्ञान नहीं था तो वे अन्य सामान्य जीवोंके समान ही हुए; फिर उनका भजन क्यों किया जाना चाहिये? इस विषयमें आपका क्या विचार है सो ऐसे वाक्योंमें कहिये जिससे मेरा सन्देह निवृत्त हो जाय॥ १४-१५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यासि भक्तासि परात्मनस्त्वं
यज्ज्ञातुमिच्छा तव रामतत्त्वम्।
पुरा न केनाप्यभिचोदितोऽहं
वक्तुं रहस्यं परमं निगूढम्॥ १६॥
मूलम्
धन्यासि भक्तासि परात्मनस्त्वं
यज्ज्ञातुमिच्छा तव रामतत्त्वम्।
पुरा न केनाप्यभिचोदितोऽहं
वक्तुं रहस्यं परमं निगूढम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—देवि! तुम धन्य हो, तुम परमात्माकी परम भक्त हो, जो तुम्हें रामका तत्त्व जाननेकी इच्छा हुई है। इससे पूर्व, इस परमगूढ़ रहस्यका वर्णन करनेके लिये मुझसे और किसीने नहीं कहा॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयाद्य भक्त्या परिनोदितोऽहं
वक्ष्ये नमस्कृत्य रघूत्तमं ते।
रामः परात्मा प्रकृतेरनादि-
रानन्द एकः पुरुषोत्तमो हि॥ १७॥
मूलम्
त्वयाद्य भक्त्या परिनोदितोऽहं
वक्ष्ये नमस्कृत्य रघूत्तमं ते।
रामः परात्मा प्रकृतेरनादि-
रानन्द एकः पुरुषोत्तमो हि॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज तुमने मुझसे भक्तिपूर्वक प्रश्न किया है इसलिये मैं श्रीरघुनाथजीकी वन्दना कर तुम्हारे प्रश्नका उत्तर देता हूँ। श्रीरामचन्द्रजी निःसन्देह प्रकृतिसे परे, परमात्मा, अनादि, आनन्दघन, अद्वितीय और पुरुषोत्तम हैं॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा
नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः।
सर्वान्तरस्थोऽपि निगूढ आत्मा
स्वमायया सृष्टमिदं विचष्टे॥ १८॥
मूलम्
स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा
नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः।
सर्वान्तरस्थोऽपि निगूढ आत्मा
स्वमायया सृष्टमिदं विचष्टे॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी मायासे ही इस सम्पूर्ण जगत् को रचकर इसके बाहर-भीतर सब ओर आकाशके समान व्याप्त हैं तथा जो आत्मारूपसे सबके अन्तःकरणमें स्थित हुए अपनी मायासे इस विश्वको परिचालित कर रहे हैं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति
यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि।
एतन्न जानन्ति विमूढचित्ताः
स्वाविद्यया संवृतमानसा ये॥ १९॥
मूलम्
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति
यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि।
एतन्न जानन्ति विमूढचित्ताः
स्वाविद्यया संवृतमानसा ये॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
चुम्बकके निकट होनेसे जिस प्रकार जड लोहेमें गति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार जिनकी सन्निधिमात्रसे यह विश्व सदा सब ओर भ्रमता रहता है उन परमात्मा रामको, जिनका हृदय आत्माके अज्ञानसे ढका हुआ है वे मूढ़जन नहीं जान सकते॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाज्ञानमप्यात्मनि शुद्धबुद्धे
स्वारोपयन्तीह निरस्तमाये।
संसारमेवानुसरन्ति ते वै
पुत्रादिसक्ताः पुरुकर्मयुक्ताः॥ २०॥
मूलम्
स्वाज्ञानमप्यात्मनि शुद्धबुद्धे
स्वारोपयन्तीह निरस्तमाये।
संसारमेवानुसरन्ति ते वै
पुत्रादिसक्ताः पुरुकर्मयुक्ताः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मूढ़ उन मायातीत शुद्ध-बुद्ध परमात्मामें भी अपने अज्ञानको आरोपित करते हैं अर्थात् उन्हें भी अपने समान ही अज्ञानी मानते हैं, तथा सर्वदा वे स्त्री-पुत्रादिमें आसक्त रहनेवाले पामर जीव बहुत-से कर्मोंमें लगे रहकर संसार-चक्रमें ही पड़े रहते हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानन्ति नैवं हृदये स्थितं वै
चामीकरं कण्ठगतं यथाज्ञाः।
मूलम्
जानन्ति नैवं हृदये स्थितं वै
चामीकरं कण्ठगतं यथाज्ञाः।
अनुवाद (हिन्दी)
वे अज्ञजन अपने गलेमें पड़े हुए कण्ठेको न जाननेके समान अपने ही हृदयमें स्थित परमात्मा रामको नहीं जानते (इसीलिये उनमें अज्ञानादिका आरोप करते हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाप्रकाशो न तु विद्यते रवौ
ज्योतिःस्वभावे परमेश्वरे तथा।
विशुद्धविज्ञानघने रघूत्तमे-
ऽविद्या कथं स्यात्परतः परात्मनि॥ २१॥
मूलम्
यथाप्रकाशो न तु विद्यते रवौ
ज्योतिःस्वभावे परमेश्वरे तथा।
विशुद्धविज्ञानघने रघूत्तमे-
ऽविद्या कथं स्यात्परतः परात्मनि॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें तो जिस प्रकार सूर्यमें कभी अन्धकार नहीं रहता उसी प्रकार प्रकृत्यादिसे अतीत, विशुद्ध-विज्ञानघन, ज्योतिःस्वरूप, परमेश्वर परमात्मा राममें भी अविद्या नहीं रह सकती॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि चाक्ष्णा भ्रमता गृहादिकं
विनष्टदृष्टेर्भ्रमतीव दृश्यते।
तथैव देहेन्द्रियकर्तुरात्मनः
कृतं परेऽध्यस्य जनो विमुह्यति॥ २२॥
मूलम्
यथा हि चाक्ष्णा भ्रमता गृहादिकं
विनष्टदृष्टेर्भ्रमतीव दृश्यते।
तथैव देहेन्द्रियकर्तुरात्मनः
कृतं परेऽध्यस्य जनो विमुह्यति॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और जिस प्रकार चक्कर लगाते समय मनुष्यको नेत्रोंके घूमनेसे गृह आदि भी घूमते हुए प्रतीत होते हैं उसी प्रकार लोग अपने देह और इन्द्रियरूप कर्ताके किये हुए कर्मोंका आत्मामें आरोप करके मोहित हो जाते हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहो न रात्रिः सवितुर्यथा भवेत्
प्रकाशरूपाव्यभिचारतः क्वचित्।
ज्ञानं तथाज्ञानमिदं द्वयं हरौ
रामे कथं स्थास्यति शुद्धचिद्घने॥ २३॥
मूलम्
नाहो न रात्रिः सवितुर्यथा भवेत्
प्रकाशरूपाव्यभिचारतः क्वचित्।
ज्ञानं तथाज्ञानमिदं द्वयं हरौ
रामे कथं स्थास्यति शुद्धचिद्घने॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकाशरूपताका कभी व्यभिचार न होनेसे जिस प्रकार सूर्यमें रात-दिनका भेद नहीं होता—वह सर्वदा एक समान प्रकाशमान रहता है—उसी प्रकार शुद्धचेतनघन भगवान् राममें ज्ञान और अज्ञान दोनों कैसे रह सकते हैं?॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्परानन्दमये रघूत्तमे
विज्ञानरूपे हि न विद्यते तमः।
अज्ञानसाक्षिण्यरविन्दलोचने
मायाश्रयत्वान्न हि मोहकारणम्॥ २४॥
मूलम्
तस्मात्परानन्दमये रघूत्तमे
विज्ञानरूपे हि न विद्यते तमः।
अज्ञानसाक्षिण्यरविन्दलोचने
मायाश्रयत्वान्न हि मोहकारणम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतएव परानन्दस्वरूप विज्ञानघन अज्ञान-साक्षी कमलनयन भगवान् राममें अज्ञानका लेश भी नहीं है; क्योंकि वे मायाके अधिष्ठान हैं इसलिये वह उन्हें मोहित नहीं कर सकती॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते कथयिष्यामि रहस्यमपि दुर्लभम्।
सीताराममरुत्सूनुसंवादं मोक्षसाधनम्॥ २५॥
मूलम्
अत्र ते कथयिष्यामि रहस्यमपि दुर्लभम्।
सीताराममरुत्सूनुसंवादं मोक्षसाधनम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पार्वति! इस विषयमें मैं तुम्हें सीता, राम और हनुमान् जी के मोक्षका साधनरूप संवाद सुनाता हूँ जो अत्यन्त गोपनीय और परम दुर्लभ है॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा रामायणे रामो रावणं देवकण्टकम्।
हत्वा रणे रणश्लाघी सपुत्रबलवाहनम्॥ २६॥
सीतया सह सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां समन्वितः।
अयोध्यामगमद्रामो हनूमत्प्रमुखैर्वृतः॥ २७॥
मूलम्
पुरा रामायणे रामो रावणं देवकण्टकम्।
हत्वा रणे रणश्लाघी सपुत्रबलवाहनम्॥ २६॥
सीतया सह सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां समन्वितः।
अयोध्यामगमद्रामो हनूमत्प्रमुखैर्वृतः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें रामावतारके समय जब युद्धप्रिय श्रीरामचन्द्रजी देवताओंके कण्टकरूप रावणको सन्तान, सेना और वाहनोंके सहित युद्धमें मारकर सीता, सुग्रीव और लक्ष्मणके सहित हनुमान् आदि वानरोंसे घिरे हुए अयोध्यापुरीमें आये॥ २६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषिक्तः परिवृतो वसिष्ठाद्यैर्महात्मभिः।
सिंहासने समासीनः कोटिसूर्यसमप्रभः॥ २८॥
मूलम्
अभिषिक्तः परिवृतो वसिष्ठाद्यैर्महात्मभिः।
सिंहासने समासीनः कोटिसूर्यसमप्रभः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और वहाँ आकर राज्याभिषेक होनेपर वसिष्ठ आदि महात्माओंसे घिरकर करोड़ों सूर्योंकी प्रभा धारण कर जब सिंहासनपर विराजमान हुए॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तदा हनूमन्तं प्राञ्जलिं पुरतः स्थितम्।
कृतकार्यं निराकाङ्क्षं ज्ञानापेक्षं महामतिम्॥ २९॥
रामः सीतामुवाचेदं ब्रूहि तत्त्वं हनूमते।
निष्कल्मषोऽयं ज्ञानस्य पात्रं नौ नित्यभक्तिमान्॥ ३०॥
मूलम्
दृष्ट्वा तदा हनूमन्तं प्राञ्जलिं पुरतः स्थितम्।
कृतकार्यं निराकाङ्क्षं ज्ञानापेक्षं महामतिम्॥ २९॥
रामः सीतामुवाचेदं ब्रूहि तत्त्वं हनूमते।
निष्कल्मषोऽयं ज्ञानस्य पात्रं नौ नित्यभक्तिमान्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय, जो सेवाके समस्त कार्य कर चुका है और उनका कोई बदला नहीं चाहता है ऐसे भोगेच्छारहित महामति हनुमान् जी को ज्ञानाभिलाषासे अपने सम्मुख हाथ जोड़े खड़े देखकर श्रीरामचन्द्रजीने सीताजीसे ऐसा कहा—‘‘सीते! यह हनुमान् हम दोनोंमें अत्यन्त भक्ति रखता है, इसलिये यह निष्पाप है और ज्ञानका सुयोग्य पात्र है। अतः तुम इसे मेरे तत्त्वका उपदेश करो’’॥ २९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति जानकी प्राह तत्त्वं रामस्य निश्चितम्।
हनूमते प्रपन्नाय सीता लोकविमोहिनी॥ ३१॥
मूलम्
तथेति जानकी प्राह तत्त्वं रामस्य निश्चितम्।
हनूमते प्रपन्नाय सीता लोकविमोहिनी॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लोक-विमोहिनी जनकनन्दिनी सीताजी श्रीरामचन्द्रजीसे ‘बहुत अच्छा’ कह शरणागत हनुमान् को भगवान् रामका निश्चित तत्त्व बताने लगीं॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं विद्धि परं ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम्।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सत्तामात्रमगोचरम्॥ ३२॥
आनन्दं निर्मलं शान्तं निर्विकारं निरञ्जनम्।
सर्वव्यापिनमात्मानं स्वप्रकाशमकल्मषम्॥ ३३॥
मूलम्
रामं विद्धि परं ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम्।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सत्तामात्रमगोचरम्॥ ३२॥
आनन्दं निर्मलं शान्तं निर्विकारं निरञ्जनम्।
सर्वव्यापिनमात्मानं स्वप्रकाशमकल्मषम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजीने कहा—‘‘वत्स हनुमन्! तुम रामको साक्षात् अद्वितीय सच्चिदानन्दघन परब्रह्म समझो; ये निस्सन्देह समस्त उपाधियोंसे रहित, सत्तामात्र, मन तथा इन्द्रियोंके अविषय, आनन्दघन, निर्मल, शान्त, निर्विकार, निरंजन, सर्वव्यापक, स्वयंप्रकाश और पापहीन परमात्मा ही हैं॥ ३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां विद्धि मूलप्रकृतिं सर्गस्थित्यन्तकारिणीम्।
तस्य सन्निधिमात्रेण सृजामीदमतन्द्रिता॥ ३४॥
मूलम्
मां विद्धि मूलप्रकृतिं सर्गस्थित्यन्तकारिणीम्।
तस्य सन्निधिमात्रेण सृजामीदमतन्द्रिता॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मुझे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करनेवाली मूल-प्रकृति जानो। मैं ही निरालस्य होकर इनकी सन्निधिमात्रसे इस विश्वकी रचना किया करती हूँ॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्सान्निध्यान्मया सृष्टं तस्मिन्नारोप्यतेऽबुधैः।
अयोध्यानगरे जन्म रघुवंशेऽतिनिर्मले॥ ३५॥
मूलम्
तत्सान्निध्यान्मया सृष्टं तस्मिन्नारोप्यतेऽबुधैः।
अयोध्यानगरे जन्म रघुवंशेऽतिनिर्मले॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तो भी इनकी सन्निधिमात्रसे की हुई मेरी रचनाको बुद्धिहीन लोग इनमें आरोपित कर लेते हैं। अतएव, अयोध्यापुरीमें अत्यन्त पवित्र रघुकुलमें इनका जन्म लेना॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रसहायत्वं मखसंरक्षणं ततः।
अहल्याशापशमनं चापभङ्गो महेशितुः॥ ३६॥
मूलम्
विश्वामित्रसहायत्वं मखसंरक्षणं ततः।
अहल्याशापशमनं चापभङ्गो महेशितुः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर विश्वामित्रजीकी सहायता करना, उनके यज्ञकी रक्षा करना, अहल्याको शापमुक्त करना, श्रीमहादेवजीके धनुषको तोड़ना॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्पाणिग्रहणं पश्चाद्भार्गवस्य मदक्षयः।
अयोध्यानगरे वासो मया द्वादशवार्षिकः॥ ३७॥
मूलम्
मत्पाणिग्रहणं पश्चाद्भार्गवस्य मदक्षयः।
अयोध्यानगरे वासो मया द्वादशवार्षिकः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् मेरा पाणिग्रहण करना, परशुरामजीका गर्व खण्डन करना तथा बारह वर्षतक मेरे साथ अयोध्यापुरीमें रहना॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डकारण्यगमनं विराधवध एव च।
मायामारीचमरणं मायासीताहृतिस्तथा॥ ३८॥
मूलम्
दण्डकारण्यगमनं विराधवध एव च।
मायामारीचमरणं मायासीताहृतिस्तथा॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर दण्डकारण्यमें जाना, विराधका वध करना, माया-मृगरूप मारीचका मारा जाना, मायामयी सीताका हरा जाना॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटायुषो मोक्षलाभः कबन्धस्य तथैव च।
शबर्याः पूजनं पश्चात्सुग्रीवेण समागमः॥ ३९॥
मूलम्
जटायुषो मोक्षलाभः कबन्धस्य तथैव च।
शबर्याः पूजनं पश्चात्सुग्रीवेण समागमः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जटायु और कबन्धका मुक्त होना, शबरीद्वारा भगवान् का पूजित होना और सुग्रीवसे मित्रता होना॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वालिनश्च वधः पश्चात्सीतान्वेषणमेव च।
सेतुबन्धश्च जलधौ लंकायाश्च निरोधनम्॥ ४०॥
मूलम्
वालिनश्च वधः पश्चात्सीतान्वेषणमेव च।
सेतुबन्धश्च जलधौ लंकायाश्च निरोधनम्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर बालिका वध करना, सीताजीकी खोज करना, समुद्रका पुल बँधवाना और लंकापुरीको घेर लेना॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्य वधो युद्धे सपुत्रस्य दुरात्मनः।
विभीषणे राज्यदानं पुष्पकेण मया सह॥ ४१॥
अयोध्यागमनं पश्चाद्राज्ये रामाभिषेचनम्।
एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि।
आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि॥ ४२॥
मूलम्
रावणस्य वधो युद्धे सपुत्रस्य दुरात्मनः।
विभीषणे राज्यदानं पुष्पकेण मया सह॥ ४१॥
अयोध्यागमनं पश्चाद्राज्ये रामाभिषेचनम्।
एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि।
आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा पुत्रोंके सहित दुरात्मा रावणको युद्धमें मारना एवं विभीषणको लंकाका राज्य देकर पुष्पक विमानद्वारा मेरे साथ अयोध्या लौट आना, फिर श्रीरामजीका राज्यपदपर अभिषिक्त होना—इत्यादि समस्त कर्म यद्यपि मेरे ही किये हुए हैं तो भी अज्ञानीलोग उन्हें इन निर्विकार सर्वात्मा भगवान् राममें आरोपित करते हैं॥ ४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो न गच्छति न तिष्ठति नानुशोच-
त्याकाङ्क्षते त्यजति नो न करोति किञ्चित्।
आनन्दमूर्तिरचलः परिणामहीनो
मायागुणाननुगतो हि तथा विभाति॥ ४३॥
मूलम्
रामो न गच्छति न तिष्ठति नानुशोच-
त्याकाङ्क्षते त्यजति नो न करोति किञ्चित्।
आनन्दमूर्तिरचलः परिणामहीनो
मायागुणाननुगतो हि तथा विभाति॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये राम तो (वास्तवमें) न चलते हैं, न ठहरते हैं, न शोक करते हैं, न इच्छा करते हैं, न त्यागते हैं और न कोई अन्य क्रिया ही करते हैं। ये आनन्दस्वरूप, अविचल और परिणामहीन हैं, केवल मायाके गुणोंसे व्याप्त होनेके कारण ही ये वैसे प्रतीत होते हैं’’॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामः स्वयं प्राह हनूमन्तमुपस्थितम्।
शृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥ ४४॥
मूलम्
ततो रामः स्वयं प्राह हनूमन्तमुपस्थितम्।
शृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने सम्मुख खड़े हुए पवनपुत्र हनुमान् से स्वयं कहा—‘‘मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और परमात्माका तत्त्व बताता हूँ, (सावधान होकर) सुनो॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशस्य यथा भेदस्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्तदवच्छिन्न एव हि।
प्रतिबिम्बाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः॥ ४५॥
मूलम्
आकाशस्य यथा भेदस्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्तदवच्छिन्न एव हि।
प्रतिबिम्बाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलाशयमें आकाशके तीन भेद स्पष्ट दिखायी देते हैं—एक महाकाश१ दूसरा जलावच्छिन्न आकाश२ और तीसरा प्रतिबिम्बाकाश३। जैसे आकाशके ये तीन बड़े-बड़े भेद दिखायी देते हैं॥ ४५॥
पादटिप्पनी
१. जो सर्वत्र व्याप्त है। २. जो केवल जलाशयमें ही परमित है। ३. जो जलमें प्रतिबिम्बित है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्यवच्छिन्नचैतन्यमेकं पूर्णमथापरम्।
आभासस्त्वपरं बिम्बभूतमेवं त्रिधा चितिः॥ ४६॥
मूलम्
बुद्ध्यवच्छिन्नचैतन्यमेकं पूर्णमथापरम्।
आभासस्त्वपरं बिम्बभूतमेवं त्रिधा चितिः॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकारका है—एक तो बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन (जो बुद्धिमें व्याप्त है), दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है और तीसरा जो बुद्धिमें प्रतिबिम्बित होता है—जिसको आभासचेतन कहते हैं॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साभासबुद्धेः कर्तृत्वमविच्छिन्नेऽविकारिणि।
साक्षिण्यारोप्यते भ्रान्त्या जीवत्वं च तथाबुधैः॥ ४७॥
मूलम्
साभासबुद्धेः कर्तृत्वमविच्छिन्नेऽविकारिणि।
साक्षिण्यारोप्यते भ्रान्त्या जीवत्वं च तथाबुधैः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमेंसे केवल आभासचेतनके सहित बुद्धिमें ही कर्तृत्व है अर्थात् चिदाभासके सहित बुद्धि ही सब कार्य करती है। किन्तु अज्ञजन भ्रान्तिवश निरवच्छिन्न, निर्विकार, साक्षी आत्मामें कर्तृत्व और जीवत्वका आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता-भोक्ता मान लेते हैं॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आभासस्तु मृषा बुद्धिरविद्याकार्यमुच्यते।
अविच्छिन्नं तु तद्ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पतः॥ ४८॥
मूलम्
आभासस्तु मृषा बुद्धिरविद्याकार्यमुच्यते।
अविच्छिन्नं तु तद्ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पतः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
(हमने जिसे जीव कहा है उसमें) आभास-चेतन तो मिथ्या है (क्योंकि सभी आभास मिथ्या ही हुआ करते हैं), बुद्धि अविद्याका कार्य है और परब्रह्म परमात्मा वास्तवमें विच्छेदरहित है, अतः उसका विच्छेद भी विकल्पसे ही माना हुआ है॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते।
तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्च साभासस्याहमस्तथा॥ ४९॥
मूलम्
अवच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते।
तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्च साभासस्याहमस्तथा॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इसी प्रकार उपाधियोंका बाध करते हुए) साभास अहंरूप अवच्छिन्न चेतन (जीव)-की ‘तत्त्वमसि’ (तू वह है) आदि महावाक्योंद्वारा पूर्ण चेतन (ब्रह्म)-के साथ एकता बतलायी जाती है॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः।
तदाविद्या स्वकार्यैश्च नश्यत्येव न संशयः॥ ५०॥
मूलम्
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः।
तदाविद्या स्वकार्यैश्च नश्यत्येव न संशयः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब महावाक्यद्वारा (इस प्रकार) जीवात्मा और परमात्माकी एकताका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है उस समय अपने कार्योंसहित अविद्या नष्ट हो ही जाती है—इसमें कोई सन्देह नहीं॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद्विज्ञाय मद्भक्तो मद्भावायोपपद्यते।
मद्भक्तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥ ५१॥
मूलम्
एतद्विज्ञाय मद्भक्तो मद्भावायोपपद्यते।
मद्भक्तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा भक्त इस उपर्युक्त तत्त्वको समझकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होनेका पात्र हो जाता है पर जो लोग मेरी भक्तिको छोड़कर शास्त्ररूप गढ़ेमें पड़े भटकते रहते हैं उन्हें सौ जन्मतक भी न तो ज्ञान होता है और न मोक्ष ही प्राप्त होता है॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं रहस्यं हृदयं ममात्मनो
मयैव साक्षात्कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठाय न त्वया
दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम्॥ ५२॥
मूलम्
इदं रहस्यं हृदयं ममात्मनो
मयैव साक्षात्कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठाय न त्वया
दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अनघ! यह परम रहस्य मुझ आत्मस्वरूप रामका हृदय है और साक्षात् मैंने ही तुम्हें सुनाया है। यदि तुम्हें इन्द्रलोकके राज्यसे भी अधिक सम्पत्ति मिले तो भी तुम इसे मेरी भक्तिसे हीन किसी दुष्ट पुरुषको मत सुनाना’’॥ ५२॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्तेऽभिहितं देवि श्रीरामहृदयं मया।
अतिगुह्यतमं हृद्यं पवित्रं पापशोधनम्॥ ५३॥
मूलम्
एतत्तेऽभिहितं देवि श्रीरामहृदयं मया।
अतिगुह्यतमं हृद्यं पवित्रं पापशोधनम्॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे देवि! मैंने तुम्हें यह अत्यन्त गोपनीय, हृदयहारी, परम पवित्र और पापनाशक ‘श्रीरामहृदय’ सुनाया है॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साक्षाद्रामेण कथितं सर्ववेदान्तसंग्रहम्।
यः पठेत्सततं भक्त्या स मुक्तो नात्र संशयः॥ ५४॥
मूलम्
साक्षाद्रामेण कथितं सर्ववेदान्तसंग्रहम्।
यः पठेत्सततं भक्त्या स मुक्तो नात्र संशयः॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह समस्त वेदान्तका सार-संग्रह साक्षात् श्रीरामचन्द्रजीका कहा हुआ है। जो कोई इसे भक्तिपूर्वक सदा पढ़ता है वह निस्सन्देह मुक्त हो जाता है॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्महत्यादिपापानि बहुजन्मार्जितान्यपि।
नश्यन्त्येव न सन्देहो रामस्य वचनं यथा॥ ५५॥
मूलम्
ब्रह्महत्यादिपापानि बहुजन्मार्जितान्यपि।
नश्यन्त्येव न सन्देहो रामस्य वचनं यथा॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पठनमात्रसे अनेक जन्मोंके संचित ब्रह्महत्यादि समस्त पाप निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि श्रीरामके वचन ऐसे ही हैं॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽतिभ्रष्टोऽतिपापी परधनपर-
दारेषु नित्योद्यतो वा
स्तेयी ब्रह्मघ्नमातापितृवधनिरतो
योगिवृन्दापकारी।
यः संपूज्याभिरामं पठति च हृदयं
रामचन्द्रस्य भक्त्या
योगीन्द्रैरप्यलभ्यं पदमिह लभते
सर्वदेवैः स पूज्यम्॥ ५६॥
मूलम्
योऽतिभ्रष्टोऽतिपापी परधनपर-
दारेषु नित्योद्यतो वा
स्तेयी ब्रह्मघ्नमातापितृवधनिरतो
योगिवृन्दापकारी।
यः संपूज्याभिरामं पठति च हृदयं
रामचन्द्रस्य भक्त्या
योगीन्द्रैरप्यलभ्यं पदमिह लभते
सर्वदेवैः स पूज्यम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कोई अत्यन्त भ्रष्ट अतिशय पापी, परधन और परस्त्रियोंमें सदा प्रवृत्त रहनेवाला, चोर, ब्रह्म-हत्यारा, माता-पिताका वध करनेमें लगा हुआ और योगिजनोंका अहित करनेवाला मनुष्य भी श्रीरामचन्द्रजीका पूजन कर इस श्रीरामहृदयका भक्तिपूर्वक पाठ करता है वह समस्त देवताओंके पूज्य उस परमपदको प्राप्त होता है जो योगिराजोंको भी परम दुर्लभ है॥ ५६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे श्रीरामहृदयं नाम प्रथमः सर्गः॥ १॥