०२ माहात्म्य

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं विश्वमयं वन्दे रामं वन्दे रघूद्वहम्।
रामं विप्रवरं वन्दे रामं श्यामाग्रजं भजे॥
यस्य वागंशुतश्च्यूतं रम्यं रामायणामृतम्।
शैलजासेवितं वन्दे तं शिवं सोमरूपिणम्॥
सच्चिदानन्दसंदोहं भक्तिभूतिविभूषणम्।
पूर्णानन्दमहं वन्दे सद्‍गुरुं शङ्करं स्वयम्॥
अज्ञानध्वान्तसंहर्त्री ज्ञानालोकविलासिनी।
चन्द्रचूडवचश्चन्द्रचन्द्रिकेयं विराजते॥
अप्रमेयत्रयातीतनिर्मलज्ञानमूर्तये।
मनोगिरां विदूराय दक्षिणामूर्तये नमः॥ १॥

मूलम्

रामं विश्वमयं वन्दे रामं वन्दे रघूद्वहम्।
रामं विप्रवरं वन्दे रामं श्यामाग्रजं भजे॥
यस्य वागंशुतश्च्यूतं रम्यं रामायणामृतम्।
शैलजासेवितं वन्दे तं शिवं सोमरूपिणम्॥
सच्चिदानन्दसंदोहं भक्तिभूतिविभूषणम्।
पूर्णानन्दमहं वन्दे सद्‍गुरुं शङ्करं स्वयम्॥
अज्ञानध्वान्तसंहर्त्री ज्ञानालोकविलासिनी।
चन्द्रचूडवचश्चन्द्रचन्द्रिकेयं विराजते॥
अप्रमेयत्रयातीतनिर्मलज्ञानमूर्तये।
मनोगिरां विदूराय दक्षिणामूर्तये नमः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे परे, त्रिगुणातीत, मलहीन, ज्ञानस्वरूप और मन, वाणी आदिके अविषय हैं उन दक्षिणामूर्ति भगवान् (सदाशिव)-को नमस्कार है॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचिन्नारदो योगी परानुग्रहवाञ्छया।
पर्यटन्सकलाल्ँलोकान् सत्यलोकमुपागमत्॥ २॥

मूलम्

कदाचिन्नारदो योगी परानुग्रहवाञ्छया।
पर्यटन्सकलाल्ँलोकान् सत्यलोकमुपागमत्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी बोले—एक समय योगिराज नारदजी दूसरोंपर कृपा करनेके लिये समस्त लोकोंमें विचरते हुए सत्यलोकमें पहुँचे॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र दृष्ट्वा मूर्तिमद्भिश्छन्दोभिः परिवेष्टितम्।
बालार्कप्रभया सम्यग्भासयन्तं सभागृहम्॥ ३॥
मार्कण्डेयादिमुनिभिः स्तूयमानं मुहुर्मुहुः।
सर्वार्थगोचरज्ञानं सरस्वत्या समन्वितम्॥ ४॥
चतुर्मुखं जगन्नाथं भक्ताभीष्टफलप्रदम्।
प्रणम्य दण्डवद्भक्त्या तुष्टाव मुनिपुङ्गवः॥ ५॥

मूलम्

तत्र दृष्ट्वा मूर्तिमद्भिश्छन्दोभिः परिवेष्टितम्।
बालार्कप्रभया सम्यग्भासयन्तं सभागृहम्॥ ३॥
मार्कण्डेयादिमुनिभिः स्तूयमानं मुहुर्मुहुः।
सर्वार्थगोचरज्ञानं सरस्वत्या समन्वितम्॥ ४॥
चतुर्मुखं जगन्नाथं भक्ताभीष्टफलप्रदम्।
प्रणम्य दण्डवद्भक्त्या तुष्टाव मुनिपुङ्गवः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ मूर्तिमान् वेदोंसे घिरे हुए, अपनी बालसूर्यके समान प्रभासे सभाभवनको पूर्णतया देदीप्यमान करते हुए, मार्कण्डेय आदि मुनिजनोंसे बारम्बार स्तुति किये जाते हुए सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान रखनेवाले और भक्तोंको इच्छित फल देनेवाले सरस्वतीयुक्त जगत्पति ब्रह्माजीको देखकर मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और भक्तिभावसे स्तुति की॥ ३—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्तुष्टस्तं मुनिं प्राह स्वयम्भूर्वैष्णवोत्तमम्।
किं प्रष्टुकामस्त्वमसि तद्वदिष्यामि ते मुने॥ ६॥

मूलम्

सन्तुष्टस्तं मुनिं प्राह स्वयम्भूर्वैष्णवोत्तमम्।
किं प्रष्टुकामस्त्वमसि तद्वदिष्यामि ते मुने॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब स्वयम्भू ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर वैष्णवाग्रणी श्रीनारदजीसे कहा—‘‘मुने! तुम क्या पूछना चाहते हो? मैं तुमसे वह सब कहूँगा’’॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य मुनिर्ब्रह्माणमब्रवीत्।
त्वत्तः श्रुतं मया सर्वं पूर्वमेव शुभाशुभम्॥ ७॥
इदानीमेकमेवास्ति श्रोतव्यं सुरसत्तम।
तद्रहस्यमपि ब्रूहि यदि तेऽनुग्रहो मयि॥ ८॥

मूलम्

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य मुनिर्ब्रह्माणमब्रवीत्।
त्वत्तः श्रुतं मया सर्वं पूर्वमेव शुभाशुभम्॥ ७॥
इदानीमेकमेवास्ति श्रोतव्यं सुरसत्तम।
तद्रहस्यमपि ब्रूहि यदि तेऽनुग्रहो मयि॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीके ये वचन सुनकर नारदजीने उनसे कहा—‘‘हे देवश्रेष्ठ! शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तो मैं आपसे पहले ही सुन चुका हूँ। अब मुझे एक ही बात और सुननी है; यदि मुझपर आपकी कृपा है तो गोपनीय होनेपर भी वह सुनाइये॥ ७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्ते कलियुगे घोरे नराः पुण्यविवर्जिताः।
दुराचाररताः सर्वे सत्यवार्तापराङ्मुखाः॥ ९॥

मूलम्

प्राप्ते कलियुगे घोरे नराः पुण्यविवर्जिताः।
दुराचाररताः सर्वे सत्यवार्तापराङ्मुखाः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब घोर कलियुगके आनेपर मनुष्य पुण्यकर्म छोड़ देंगे और सत्यभाषणसे विमुख होकर दुराचारमें प्रवृत्त हो जायँगे॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परापवादनिरताः परद्रव्याभिलाषिणः।
परस्त्रीसक्तमनसः परहिंसापरायणाः॥ १०॥

मूलम्

परापवादनिरताः परद्रव्याभिलाषिणः।
परस्त्रीसक्तमनसः परहिंसापरायणाः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दूसरोंकी निन्दामें तत्पर रहेंगे, दूसरोंके धनकी इच्छा करेंगे, परस्त्रीमें चित्त लगावेंगे और परायी हिंसा करेंगे॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहात्मदृष्टयो मूढा नास्तिकाः पशुबुद्धयः।
मातापितृकृतद्वेषाः स्त्रीदेवाः कामकिङ्कराः॥ ११॥

मूलम्

देहात्मदृष्टयो मूढा नास्तिकाः पशुबुद्धयः।
मातापितृकृतद्वेषाः स्त्रीदेवाः कामकिङ्कराः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मूढ़ देहमें ही आत्मबुद्धिवाले और नास्तिक होंगे, उनकी बुद्धि पशुओंके समान होगी और वे कामके गुलाम होकर स्त्रीके भक्त और माता-पिताके द्रोही बनेंगे॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रा लोभग्रहग्रस्ता वेदविक्रयजीविनः।
धनार्जनार्थमभ्यस्तविद्या मदविमोहिताः॥ १२॥

मूलम्

विप्रा लोभग्रहग्रस्ता वेदविक्रयजीविनः।
धनार्जनार्थमभ्यस्तविद्या मदविमोहिताः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणगण लोभरूपी ग्रहसे ग्रस्त और वेद बेचकर अपनी आजीविका चलानेवाले होंगे, वे धनोपार्जनके लिये ही विद्याभ्यास करेंगे और (विद्या तथा ब्राह्मणत्वके) मदसे उन्मत्त हो जायँगे॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्तस्वजातिकर्माणः प्रायशः परवञ्चकाः।
क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः स्वधर्मत्यागशीलिनः॥ १३॥

मूलम्

त्यक्तस्वजातिकर्माणः प्रायशः परवञ्चकाः।
क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः स्वधर्मत्यागशीलिनः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय और वैश्यगण भी स्वधर्मको त्यागनेवाले तथा अपने जाति-कर्मोंको छोड़कर प्रायः दूसरोंको ठगनेवाले ही होंगे॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्वच्छूद्राश्च ये केचिद्‍ब्राह्मणाचारतत्पराः।
स्त्रियश्च प्रायशो भ्रष्टा भर्त्रवज्ञाननिर्भयाः॥ १४॥

मूलम्

तद्वच्छूद्राश्च ये केचिद्‍ब्राह्मणाचारतत्पराः।
स्त्रियश्च प्रायशो भ्रष्टा भर्त्रवज्ञाननिर्भयाः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो शूद्र होंगे वे भी ब्राह्मणोंके आचारमें तत्पर हो जायँगे तथा स्त्रियाँ प्रायः भ्रष्टाचारिणी और अपने पतिका अपमान करनेमें निडर होंगी॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वशुरद्रोहकारिण्यो भविष्यन्ति न संशयः।
एतेषां नष्टबुद्धीनां परलोकः कथं भवेत्॥ १५॥

मूलम्

श्वशुरद्रोहकारिण्यो भविष्यन्ति न संशयः।
एतेषां नष्टबुद्धीनां परलोकः कथं भवेत्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

निस्सन्देह वे अपने सास-ससुरोंसे द्रोह करेंगी। इन नष्ट-बुद्धियोंका परलोक किस प्रकार सुधरेगा?॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति चिन्ताकुलं चित्तं जायते मम सन्ततम्।
लघूपायेन येनैषां परलोकगतिर्भवेत्।
तमुपायमुपाख्याहि सर्वं वेत्ति यतो भवान्॥ १६॥

मूलम्

इति चिन्ताकुलं चित्तं जायते मम सन्ततम्।
लघूपायेन येनैषां परलोकगतिर्भवेत्।
तमुपायमुपाख्याहि सर्वं वेत्ति यतो भवान्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस चिन्तासे मेरा चित्त निरन्तर व्याकुल रहता है। जिस सुगम उपायसे इनका परलोक सुधर सकता हो वह आप मुझे बतलाइये क्योंकि आप सभी कुछ जानते हैं’’॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यृषेर्वाक्यमाकर्ण्य प्रत्युवाचाम्बुजासनः।
साधु पृष्टं त्वया साधो वक्ष्ये तच्छृणु सादरम्॥ १७॥

मूलम्

इत्यृषेर्वाक्यमाकर्ण्य प्रत्युवाचाम्बुजासनः।
साधु पृष्टं त्वया साधो वक्ष्ये तच्छृणु सादरम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदजीके ये वचन सुनकर कमलासन ब्रह्माजी बोले—‘‘हे साधो! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। मैं उसे बतलाता हूँ, तुम श्रद्धापूर्वक सुनो॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा त्रिपुरहन्तारं पार्वती भक्तवत्सला।
श्रीरामतत्त्वं जिज्ञासुः पप्रच्छ विनयान्विता॥ १८॥

मूलम्

पुरा त्रिपुरहन्तारं पार्वती भक्तवत्सला।
श्रीरामतत्त्वं जिज्ञासुः पप्रच्छ विनयान्विता॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें भक्तवत्सला पार्वतीजीने श्रीराम-तत्त्वकी जिज्ञासासे त्रिपुर-विनाशक भगवान् शंकरसे विनयपूर्वक प्रश्न किया था॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियायै गिरिशस्तस्यै गूढं व्याख्यातवान् स्वयम्।
पुराणोत्तममध्यात्मरामायणमिति स्मृतम्॥ १९॥

मूलम्

प्रियायै गिरिशस्तस्यै गूढं व्याख्यातवान् स्वयम्।
पुराणोत्तममध्यात्मरामायणमिति स्मृतम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अपनी प्रियासे श्रीमहादेवजीने जिस गूढ़ रहस्यका वर्णन किया था वह उत्तम पुराण अध्यात्मरामायणके नामसे प्रसिद्ध हुआ॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्पार्वती जगद्धात्री पूजयित्वा दिवानिशम्।
आलोचयन्ती स्वानन्दमग्ना तिष्ठति साम्प्रतम्॥ २०॥

मूलम्

तत्पार्वती जगद्धात्री पूजयित्वा दिवानिशम्।
आलोचयन्ती स्वानन्दमग्ना तिष्ठति साम्प्रतम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब जगज्जननी पार्वतीजी उसका पूजन कर रात-दिन उसीका मनन करती आत्मानन्दमें मग्न रहती हैं॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रचरिष्यति तल्लोके प्राण्यदृष्टवशाद्यदा।
तस्याध्ययनमात्रेण जना यास्यन्ति सद्गतिम्॥ २१॥

मूलम्

प्रचरिष्यति तल्लोके प्राण्यदृष्टवशाद्यदा।
तस्याध्ययनमात्रेण जना यास्यन्ति सद्गतिम्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय प्राणियोंके सौभाग्यसे उसका लोकमें प्रचार होगा उस समय उसके अध्ययनमात्रसे लोग शुभगति प्राप्त करेंगे॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावद्विजृम्भते पापं ब्रह्महत्यापुरःसरम्।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २२॥

मूलम्

तावद्विजृम्भते पापं ब्रह्महत्यापुरःसरम्।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें ब्रह्महत्यादि पाप तभीतक रहेंगे जबतक अध्यात्मरामायणका प्रादुर्भाव नहीं होगा॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत्कलिमहोत्साहो निःशङ्कं सम्प्रवर्तते।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २३॥

मूलम्

तावत्कलिमहोत्साहो निःशङ्कं सम्प्रवर्तते।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगका महान् उत्साह तभीतक निःशंक रहेगा जबतक संसारमें अध्यात्मरामायणका उदय न होगा॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावद्यमभटाः शूराः सञ्चरिष्यन्ति निर्भयाः।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २४॥

मूलम्

तावद्यमभटाः शूराः सञ्चरिष्यन्ति निर्भयाः।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमराजके शूरवीर दूत तभीतक निर्भय विचरते रहेंगे जबतक जगत् में अध्यात्मरामायण प्रकट नहीं होगा॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत्सर्वाणि शास्त्राणि विवदन्ते परस्परम्॥ २५॥
तावत्स्वरूपं रामस्य दुर्बोधं महतामपि।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २६॥

मूलम्

तावत्सर्वाणि शास्त्राणि विवदन्ते परस्परम्॥ २५॥
तावत्स्वरूपं रामस्य दुर्बोधं महतामपि।
यावज्जगति नाध्यात्मरामायणमुदेष्यति॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परस्पर विवाद तभीतक रहेगा तथा महापुरुषोंको भी भगवान् रामका स्वरूप तभीतक दुर्बोध रहेगा जबतक संसारमें अध्यात्म-रामायणका प्रकाश नहीं होगा॥ २५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मरामायणसङ्कीर्तनश्रवणादिजम्।
फलं वक्तुं न शक्नोमि कात्स्नर््ये मुनिसत्तम॥ २७॥
तथापि तस्य माहात्म्यं वक्ष्ये किञ्चित्तवानघ।
शृणु चित्तं समाधाय शिवेनोक्तं पुरा मम॥ २८॥

मूलम्

अध्यात्मरामायणसङ्कीर्तनश्रवणादिजम्।
फलं वक्तुं न शक्नोमि कात्स्नर््ये मुनिसत्तम॥ २७॥
तथापि तस्य माहात्म्यं वक्ष्ये किञ्चित्तवानघ।
शृणु चित्तं समाधाय शिवेनोक्तं पुरा मम॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे मुनिश्रेष्ठ! मैं अध्यात्मरामायणके कीर्तन और श्रवण आदिसे होनेवाले फलका पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकता, तथापि हे अनघ! मैं तुम्हें उसका थोड़ा-सा माहात्म्य सुनाता हूँ। इसे पूर्वकालमें मुझसे शिवजीने कहा था; तुम सावधान होकर सुनो—॥ २७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मरामायणतः श्लोकं श्लोकार्धमेव वा।
यः पठेद्भक्तिसंयुक्तः स पापान्मुच्यते क्षणात्॥ २९॥

मूलम्

अध्यात्मरामायणतः श्लोकं श्लोकार्धमेव वा।
यः पठेद्भक्तिसंयुक्तः स पापान्मुच्यते क्षणात्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अध्यात्मरामायणका एक अथवा आधा श्लोक भी भक्तिपूर्वक पढ़ता है वह तत्क्षण पापमुक्त हो जाता है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु प्रत्यहमध्यात्मरामायणमनन्यधीः।
यथाशक्ति वदेद्भक्त्या स जीवन्मुक्त उच्यते॥ ३०॥

मूलम्

यस्तु प्रत्यहमध्यात्मरामायणमनन्यधीः।
यथाशक्ति वदेद्भक्त्या स जीवन्मुक्त उच्यते॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस अध्यात्मरामायणको नित्यप्रति अनन्य बुद्धिसे भक्तिपूर्वक यथाशक्ति सुनाता है वह जीवन्मुक्त कहलाता है॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो भक्त्यार्चयतेऽध्यात्मरामायणमतन्द्रितः।
दिने दिनेऽश्वमेधस्य फलं तस्य भवेन्मुने॥ ३१॥

मूलम्

यो भक्त्यार्चयतेऽध्यात्मरामायणमतन्द्रितः।
दिने दिनेऽश्वमेधस्य फलं तस्य भवेन्मुने॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुने! जो पुरुष आलस्य छोड़कर भक्ति-भावसे प्रतिदिन अध्यात्मरामायणका पूजन करता है उसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छयापि योऽध्यात्मरामायणमनादरात्।
अन्यतः शृणुयान्मर्त्यः सोऽपि मुच्येत पातकात्॥ ३२॥

मूलम्

यदृच्छयापि योऽध्यात्मरामायणमनादरात्।
अन्यतः शृणुयान्मर्त्यः सोऽपि मुच्येत पातकात्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य दूसरोंसे अनियमपूर्वक अनादरसे भी अध्यात्मरामायण श्रवण करता है वह भी पातकसे छूट जाता है॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्करोति योऽध्यात्मरामायणमदूरतः।
सर्वदेवार्चनफलं स प्राप्नोति न संशयः॥ ३३॥

मूलम्

नमस्करोति योऽध्यात्मरामायणमदूरतः।
सर्वदेवार्चनफलं स प्राप्नोति न संशयः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई अध्यात्मरामायणके निकट जाकर उसे नमस्कार करता है वह समस्त देवताओंकी पूजाका फल पाता है—इसमें सन्देह नहीं॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लिखित्वा पुस्तकेऽध्यात्मरामायणमशेषतः।
यो दद्याद्रामभक्तेभ्यस्तस्य पुण्यफलं शृणु॥ ३४॥

मूलम्

लिखित्वा पुस्तकेऽध्यात्मरामायणमशेषतः।
यो दद्याद्रामभक्तेभ्यस्तस्य पुण्यफलं शृणु॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो पुरुष अध्यात्मरामायणकी सम्पूर्ण पुस्तक लिखकर राम-भक्तोंको देता है उसे जो पुण्य होता है उसका फल सुनो॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीतेषु च वेदेषु शास्त्रेषु व्याकृतेषु च।
यत्फलं दुर्लभं लोके तत्फलं तस्य सम्भवेत्॥ ३५॥

मूलम्

अधीतेषु च वेदेषु शास्त्रेषु व्याकृतेषु च।
यत्फलं दुर्लभं लोके तत्फलं तस्य सम्भवेत्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे वह फल मिलता है जो वेदोंके पढ़नेसे और शास्त्रोंकी व्याख्या करनेसे भी संसारमें दुर्लभ है॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकादशीदिनेऽध्यात्मरामायणमुपोषितः।
यो रामभक्तः सदसि व्याकरोति नरोत्तमः॥ ३६॥
तस्य पुण्यफलं वक्ष्ये शृणु वैष्णवसत्तम।
प्रत्यक्षरं तु गायत्रीपुरश्चर्याफलं भवेत्॥ ३७॥

मूलम्

एकादशीदिनेऽध्यात्मरामायणमुपोषितः।
यो रामभक्तः सदसि व्याकरोति नरोत्तमः॥ ३६॥
तस्य पुण्यफलं वक्ष्ये शृणु वैष्णवसत्तम।
प्रत्यक्षरं तु गायत्रीपुरश्चर्याफलं भवेत्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नरश्रेष्ठ राम-भक्त एकादशीको उपवास करके सभामें अध्यात्मरामायणकी व्याख्या करता है, हे वैष्णवश्रेष्ठ! उसके पुण्यका फल बतलाता हूँ, सुनो। उसे एक-एक अक्षरके पढ़नेमें गायत्रीके पुरश्चरणका फल मिलता है॥ ३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासव्रतं कृत्वा श्रीरामनवमीदिने।
रात्रौ जागरितोऽध्यात्मरामायणमनन्यधीः।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि तस्य पुण्यं वदाम्यहम्॥ ३८॥

मूलम्

उपवासव्रतं कृत्वा श्रीरामनवमीदिने।
रात्रौ जागरितोऽध्यात्मरामायणमनन्यधीः।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि तस्य पुण्यं वदाम्यहम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष रामनवमीके दिन निराहार रहकर और फिर रात्रिको जागरण कर अनन्य बुद्धिसे अध्यात्मरामायणको पढ़ता या सुनता है, अब मैं उसका पुण्य बतलाता हूँ॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरुक्षेत्रादिनिखिलपुण्यतीर्थेष्वनेकशः।
आत्मतुल्यं धनं सूर्यग्रहणे सर्वतोमुखे॥ ३९॥
विप्रेभ्यो व्यासतुल्येभ्यो दत्त्वा यत्फलमश्नुते।
तत्फलं सम्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं न संशयः॥ ४०॥

मूलम्

कुरुक्षेत्रादिनिखिलपुण्यतीर्थेष्वनेकशः।
आत्मतुल्यं धनं सूर्यग्रहणे सर्वतोमुखे॥ ३९॥
विप्रेभ्यो व्यासतुल्येभ्यो दत्त्वा यत्फलमश्नुते।
तत्फलं सम्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं न संशयः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुक्षेत्रादि सम्पूर्ण पवित्र तीर्थोंमें सर्वग्रस्त सूर्यग्रहणके समय अनेकों बार व्यासजीके समान ब्राह्मणोंको अपने बराबर धन देनेसे जो फल होता है उसे वही फल मिलता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, यह सर्वथा सत्य है, सर्वथा सत्य है॥ ३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो गायते मुदाध्यात्मरामायणमहर्निशम्।
आज्ञां तस्य प्रतीक्षन्ते देवा इन्द्रपुरोगमाः॥ ४१॥

मूलम्

यो गायते मुदाध्यात्मरामायणमहर्निशम्।
आज्ञां तस्य प्रतीक्षन्ते देवा इन्द्रपुरोगमाः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य अहर्निश प्रसन्नचित्तसे अध्यात्मरामायणका गान करता है उसकी आज्ञाकी इन्द्रादि देवगण प्रतीक्षा किया करते हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पठन्प्रत्यहमध्यात्मरामायणमनुव्रतः।
यद्यत्करोति तत्कर्म ततः कोटिगुणं भवेत्॥ ४२॥

मूलम्

पठन्प्रत्यहमध्यात्मरामायणमनुव्रतः।
यद्यत्करोति तत्कर्म ततः कोटिगुणं भवेत्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्यात्मरामायणका नित्यप्रति नियमपूर्वक पाठ करनेसे मनुष्य जो कुछ पुण्यकर्म करता है वह करोड़गुना हो जाता है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र श्रीरामहृदयं यः पठेत्सुसमाहितः।
स ब्रह्मघ्नोऽपि पूतात्मा त्रिभिरेव दिनैर्भवेत्॥ ४३॥

मूलम्

तत्र श्रीरामहृदयं यः पठेत्सुसमाहितः।
स ब्रह्मघ्नोऽपि पूतात्मा त्रिभिरेव दिनैर्भवेत्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘इस (अध्यात्मरामायण)-मेंसे जो पुरुष खूब समाहित होकर श्रीरामहृदयका पाठ करता है वह ब्रह्महत्यारा भी हो तो भी तीन दिनमें ही पवित्र हो जाता है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरामहृदयं यस्तु हनूमत्प्रतिमान्तिके।
त्रिःपठेत्प्रत्यहं मौनी स सर्वेप्सितभाग्भवेत्॥ ४४॥

मूलम्

श्रीरामहृदयं यस्तु हनूमत्प्रतिमान्तिके।
त्रिःपठेत्प्रत्यहं मौनी स सर्वेप्सितभाग्भवेत्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष हनुमान् जी की प्रतिमाके समीप प्रतिदिन तीन बार मौन होकर श्रीरामहृदयका पाठ करता है वह समस्त इच्छित फल प्राप्त करता है॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पठन् श्रीरामहृदयं तुलस्यश्वत्थयोर्यदि।
प्रत्यक्षरं प्रकुर्वीत ब्रह्महत्यानिवर्तनम्॥ ४५॥

मूलम्

पठन् श्रीरामहृदयं तुलस्यश्वत्थयोर्यदि।
प्रत्यक्षरं प्रकुर्वीत ब्रह्महत्यानिवर्तनम्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यदि कोई पुरुष तुलसी या पीपलके निकट श्रीराम-हृदयका पाठ करे तो वह एक-एक अक्षरपर (अपनी) ब्रह्महत्या (-जैसे पापों)-को दूर कर देता है॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरामगीतामाहात्म्यं कृत्स्नं जानाति शङ्करः।
तदर्धं गिरिजा वेत्ति तदर्धं वेद्‍म्यहं मुने॥ ४६॥

मूलम्

श्रीरामगीतामाहात्म्यं कृत्स्नं जानाति शङ्करः।
तदर्धं गिरिजा वेत्ति तदर्धं वेद्‍म्यहं मुने॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे मुने! श्रीरामगीताका माहात्म्य पूरा-पूरा तो श्रीमहादेवजी ही जानते हैं; उनसे आधा पार्वतीजी जानती हैं और उनसे आधा मैं जानता हूँ॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्ते किञ्चित्प्रवक्ष्यामि कृत्स्नं वक्तुं न शक्यते।
यज्ज्ञात्वा तत्क्षणाल्लोकश्चित्तशुद्धिमवाप्नुयात्॥ ४७॥

मूलम्

तत्ते किञ्चित्प्रवक्ष्यामि कृत्स्नं वक्तुं न शक्यते।
यज्ज्ञात्वा तत्क्षणाल्लोकश्चित्तशुद्धिमवाप्नुयात्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सो उसे पूरा कह भी नहीं सकता, उसमेंसे थोड़ा-सा तुम्हें सुनाता हूँ, जिसके जाननेमात्रसे चित्त तत्काल शुद्ध हो जाता है॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरामगीता यत्पापं न नाशयति नारद।
तन्न नश्यति तीर्थादौ लोके क्वापि कदाचन।
तन्न पश्याम्यहं लोके मार्गमाणोऽपि सर्वदा॥ ४८॥

मूलम्

श्रीरामगीता यत्पापं न नाशयति नारद।
तन्न नश्यति तीर्थादौ लोके क्वापि कदाचन।
तन्न पश्याम्यहं लोके मार्गमाणोऽपि सर्वदा॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नारद! जिस पापको श्रीरामगीताने नष्ट नहीं किया वह संसारमें कभी किसी तीर्थादिसे भी नष्ट नहीं हो सकता, मैं सदा ढूँढ़नेपर भी उस पापको नहीं देख पाता अर्थात् ऐसा कोई पाप ही नहीं है जो श्रीरामगीतासे नष्ट नहीं होता॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेणोपनिषत्सिन्धुमुन्मथ्योत्पादितां मुदा।
लक्ष्मणायार्पितां गीतासुधां पीत्वामरो भवेत्॥ ४९॥

मूलम्

रामेणोपनिषत्सिन्धुमुन्मथ्योत्पादितां मुदा।
लक्ष्मणायार्पितां गीतासुधां पीत्वामरो भवेत्॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस गीतामृतको भगवान् रामने उपनिषत्सागरका मन्थन कर निकाला और फिर बड़ी प्रसन्नतासे लक्ष्मणजीको दिया (मनुष्यको चाहिये कि) उसका पान करके अमर हो जाय॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जमदग्निसुतः पूर्वं कार्तवीर्यवधेच्छया।
धुनर्विद्यामभ्यसितुं महेशस्यान्तिके वसन्॥ ५०॥

मूलम्

जमदग्निसुतः पूर्वं कार्तवीर्यवधेच्छया।
धुनर्विद्यामभ्यसितुं महेशस्यान्तिके वसन्॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें सहस्रार्जुनके वधकी इच्छासे जमदग्निनन्दन परशुरामजी धनुर्विद्याका अभ्यास करनेके लिये श्रीमहादेवजीके पास रहते थे॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीयमानां पार्वत्या रामगीतां प्रयत्नतः।
श्रुत्वा गृहीत्वाशु पठन्नारायणकलामगात्॥ ५१॥

मूलम्

अधीयमानां पार्वत्या रामगीतां प्रयत्नतः।
श्रुत्वा गृहीत्वाशु पठन्नारायणकलामगात्॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय रामगीताका अध्ययन करती हुई पार्वतीजीसे इसे यत्नपूर्वक सुनकर और तुरंत ही हृदयंगम कर इसका पाठ करते-करते वे श्रीनारायणके कलारूप हो गये॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्महत्यादिपापानां निष्कृतिं यदि वाञ्छति।
रामगीतां मासमात्रं पठित्वा मुच्यते नरः॥ ५२॥

मूलम्

ब्रह्महत्यादिपापानां निष्कृतिं यदि वाञ्छति।
रामगीतां मासमात्रं पठित्वा मुच्यते नरः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई पुरुष ब्रह्महत्या आदि घोर पापोंसे मुक्त होना चाहे तो केवल एक मास रामगीताका पाठ करनेसे छूट सकता है॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्प्रतिग्रहदुर्भोज्यदुरालापादिसम्भवम्।
पापं यत्तत्कीर्तनेन रामगीता विनाशयेत्॥ ५३॥

मूलम्

दुष्प्रतिग्रहदुर्भोज्यदुरालापादिसम्भवम्।
पापं यत्तत्कीर्तनेन रामगीता विनाशयेत्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुरे दान, निषिद्ध भोजन और खोटी बोलचाल आदिसे जो पाप होता है उसे रामगीता पाठमात्रसे नष्ट कर देती है॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शालग्रामशिलाग्रे च तुलस्यश्वत्थसन्निधौ।
यतीनां पुरतस्तद्वद्रामगीतां पठेत्तु यः॥ ५४॥
स तत्फलमवाप्नोति यद्वाचोऽपि न गोचरम्॥ ५५॥

मूलम्

शालग्रामशिलाग्रे च तुलस्यश्वत्थसन्निधौ।
यतीनां पुरतस्तद्वद्रामगीतां पठेत्तु यः॥ ५४॥
स तत्फलमवाप्नोति यद्वाचोऽपि न गोचरम्॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष शालग्राम-शिलाके आगे, तुलसी या पीपलके पास अथवा यतिजनोंके सामने रामगीताका पाठ करता है उसे वह फल मिलता है जो वाणीका भी विषय नहीं है॥ ५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामगीतां पठन्भक्त्या यः श्राद्धे भोजयेद् द्विजान्।
तस्य ते पितरः सर्वे यान्ति विष्णोः परं पदम्॥ ५६॥

मूलम्

रामगीतां पठन्भक्त्या यः श्राद्धे भोजयेद् द्विजान्।
तस्य ते पितरः सर्वे यान्ति विष्णोः परं पदम्॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य श्राद्धमें रामगीताका भक्तिपूर्वक पाठ करके ब्राह्मणोंको भोजन कराता है उसके वे समस्त पितृगण भगवान् विष्णुके परम धामको जाते हैं॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकादश्यां निराहारो नियतो द्वादशीदिने।
स्थित्वागस्त्यतरोर्मूले रामगीतां पठेत्तु यः।
स एव राघवः साक्षात्सर्वदेवैश्च पूज्यते॥ ५७॥

मूलम्

एकादश्यां निराहारो नियतो द्वादशीदिने।
स्थित्वागस्त्यतरोर्मूले रामगीतां पठेत्तु यः।
स एव राघवः साक्षात्सर्वदेवैश्च पूज्यते॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष एकादशीके दिन निराहार और जितेन्द्रिय रहकर द्वादशीको अगस्त्य-वृक्षके नीचे बैठकर रामगीताका पाठ करता है वह साक्षात् रामरूप ही है, उसकी समस्त देवगण पूजा करते हैं॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विना दानं विना ध्यानं विना तीर्थावगाहनम्।
रामगीतां नरोऽधीत्य तदनन्तफलं लभेत्॥ ५८॥

मूलम्

विना दानं विना ध्यानं विना तीर्थावगाहनम्।
रामगीतां नरोऽधीत्य तदनन्तफलं लभेत्॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामगीताका पाठ करनेसे मनुष्य बिना किसी दान, ध्यान अथवा तीर्थ-स्नानके ही अक्षय फल पाता है॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुना किमिहोक्तेन शृणु नारद तत्त्वतः।
श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासागमशतानि च।
अर्हन्ति नाल्पमध्यात्मरामायणकलामपि॥ ५९॥

मूलम्

बहुना किमिहोक्तेन शृणु नारद तत्त्वतः।
श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासागमशतानि च।
अर्हन्ति नाल्पमध्यात्मरामायणकलामपि॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नारद! और अधिक क्या कहा जाय जो वास्तविक बात है वह सुन—श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास आदि सैकड़ों शास्त्र श्रीअध्यात्मरामायणकी एक तुच्छ कलाके समान भी नहीं हैं’’॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मरामचरितस्य मुनीश्वराय
माहात्म्यमेतदुदितं कमलासनेन।
यः श्रद्धया पठति वा शृणुयात्स मर्त्यः
प्राप्नोति विष्णुपदवीं सुरपूज्यमानः॥ ६०॥

मूलम्

अध्यात्मरामचरितस्य मुनीश्वराय
माहात्म्यमेतदुदितं कमलासनेन।
यः श्रद्धया पठति वा शृणुयात्स मर्त्यः
प्राप्नोति विष्णुपदवीं सुरपूज्यमानः॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अध्यात्मरामायणका माहात्म्य श्रीब्रह्माजीने मुनिराज नारदसे कहा है। इसे जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक पढ़ता या सुनता है वह देवताओंसे पूजित होकर श्रीविष्णु-भगवान् का पद प्राप्त करता है॥ ६०॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे उत्तरखण्डेऽध्यात्मरामायणमाहात्म्यं सम्पूर्णम्।