01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥1॥
मूल
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥1॥
भावार्थ
यों कहकर कृपालु श्री रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर श्री रामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥1॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥2॥
मूल
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥2॥
भावार्थ
फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥
मूल
प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥
भावार्थ
तदनन्तर प्रभु ने हनुमान्जी को समझाकर कहा- तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना॥1॥
तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥
मूल
तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥
भावार्थ
पवनपुत्र हनुमान्जी तुरन्त ही चल दिए। तब प्रभु भरद्वाजजी के पास गए। मुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया॥2॥
मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥3॥
मूल
मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥3॥
भावार्थ
दोनों हाथ जोडकर तथा मुनि के चरणों की वन्दना करके प्रभु विमान पर चढकर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने ‘नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?’ पुकारते हुए लोगों को बुलाया॥3॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥4॥
मूल
सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥4॥
भावार्थ
इतने में ही विमान गङ्गाजी को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा। तब सीताजी बहुत प्रकार से गङ्गाजी की पूजा करके फिर उनके चरणों पर गिरीं॥4॥
दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख सङ्कुल॥5॥
मूल
दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख सङ्कुल॥5॥
भावार्थ
गङ्गाजी ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया- हे सुन्दरी! तुम्हारा सुहाग अखण्ड हो। भगवान् के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौडा। परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया,॥5॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥6॥
मूल
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥6॥
भावार्थ
और श्री जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह (आनन्द-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर पडा, उसे शरीर की सुधि न रही। श्री रघुनाथजी ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया॥6॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥
मूल
लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥
भावार्थ
सुजानों के राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकान्त, कृपानिधान भगवान् ने उसको हृदय से लगा लिया और अत्यन्त निकट बैठकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा- आपके जो चरणकमल ब्रह्माजी और शङ्करजी से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम श्री रामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ॥1॥
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥
मूल
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥
भावार्थ
सब प्रकार से नीच उस निषाद को भगवान् ने भरतजी की भाँति हृदय से लगा लिया। तुलसीदासजी कहते हैं- इस मन्दबुद्धि ने (मैन्ने) मोहवश उस प्रभु को भुला दिया। रावण के शत्रु का यह पवित्र करने वाला चरित्र सदा ही श्री रामजी के चरणों में प्रीति उत्पन्न करने वाला है। यह कामादि विकारों को हरने वाला और (भगवान् के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करने वाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनन्दित होकर इसे गाते हैं॥2॥