114

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन बरषि सब सुर चले चढि चढि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ सम्भु सुजान॥114॥ (क) ॥

मूल

सुमन बरषि सब सुर चले चढि चढि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ सम्भु सुजान॥114॥ (क) ॥

भावार्थ

फूलों की वर्षा करके सब देवता सुन्दर विमानों पर चढ-चढकर चले। तब सुअवसर जानकार सुजान शिवजी प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के पास आए- ॥1॥

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥2॥

मूल

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥2॥

भावार्थ

और परम प्रेम से दोनों हाथ जोडकर, कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, पुलकित शरीर और गद्गद् वाणी से त्रिपुरारी शिवजी विनती करने लगे - ॥2॥

02 छन्द

मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥
मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन॥1॥

मूल

मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥
मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन॥1॥

भावार्थ

हे रघुकुल के स्वामी! सुन्दर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुन्दर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघसमूह के (उडाने के) लिए प्रचण्ड पवन हैं, संशयरूपी वन के (भस्म करने के) लिए अग्नि हैं और देवताओं को आनन्द देने वाले हैं॥1॥

अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन॥2॥

मूल

अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन॥2॥

भावार्थ

आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुन्दर हैं। भ्रमरूपी अन्धकार के (नाश के) लिए प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियों के (वध के) लिए सिंह के समान आप इस सेवक के मनरूपी वन में निरन्तर वास कीजिए॥2॥

बिषय मनोरथ पुञ्ज कुञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥3॥

मूल

बिषय मनोरथ पुञ्ज कुञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥3॥

भावार्थ

विषयकामनाओं के समूह रूपी कमलवन के (नाश के) लिए आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मन से परे हैं। भवसागर (को मथने) के लिए आप मन्दराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भय को दूर कीजिए और हमें दुस्तर संसार सागर से पार कीजिए॥3॥

स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन॥
अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर॥
मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन॥ 4-5॥

मूल

स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन॥
अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर॥
मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन॥ 4-5॥

भावार्थ

हे श्यामसुन्दर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबन्धु! हे शरणागत को दु:ख से छुडाने वाले! हे राजा रामचन्द्रजी! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी सहित निरन्तर मेरे हृदय के अन्दर निवास कीजिए। आप मुनियों को आनन्द देने वाले, पृथ्वीमण्डल के भूषण, तुलसीदास के प्रभु और भय का नाश करने वाले हैं॥ 4-5॥