01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥113॥
मूल
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥113॥
भावार्थ
हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा दृष्टि से) देखकर आज्ञा दीजिए कि मैं क्या (सेवा) करूँ! इन्द्र के ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु श्रीरामजी बोले ॥113॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥1॥
मूल
सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥1॥
भावार्थ
हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पडे हैं। इन्होन्ने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जिला दो॥1॥
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बडाई॥2॥
मूल
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बडाई॥2॥
भावार्थ
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं -) हे गरुड! सुनिए प्रभु के ये वचन अत्यन्त गहन (गूढ) हैं। ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु श्रीरामजी त्रिलोकी को मारकर जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होन्ने केवल इन्द्र को बडाई दी है॥2॥
सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥3॥
मूल
सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥3॥
भावार्थ
इन्द्र ने अमृत बरसाकर वानर-भालुओं को जिला दिया। सब हर्षित होकर उठे और प्रभु के पास आए। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं॥3॥
रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूट भव बन्धन॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥4॥
मूल
रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूट भव बन्धन॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥4॥
भावार्थ
क्योङ्कि राक्षस के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत: वे मुक्त हो गए, उनके भवबन्धन छूट गए। किन्तु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान् की लीला के परिकर) थे। इसलिए वे सब श्रीरघुनाथजी की इच्छा से जीवित हो गए॥4॥
राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥5॥
मूल
राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥5॥
भावार्थ
श्रीरामचन्द्रजी के समान दीनों का हित करने वाला कौन है? जिन्होन्ने सारे राक्षसों को मुक्त कर दिया! दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वह गति पाई जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते॥5॥