01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥111॥
मूल
बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥111॥
भावार्थ
इस प्रकार ब्रह्माजी ने अत्यन्त प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र श्रीरामजी के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे॥111॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥
अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥1 ॥
मूल
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥
अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥1 ॥
भावार्थ
उसी समय दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु ने उनकी वन्दना की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया॥1॥
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढी। नयन सलिल रोमावलि ठाढी॥2॥
मूल
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढी। नयन सलिल रोमावलि ठाढी॥2॥
भावार्थ
(श्रीरामजी ने कहा-) हे तात! यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है, जो मैन्ने अजेय राक्षसराज को जीत लिया। पुत्र के वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यन्त बढ गई। नेत्रों में जल छा गया और रोमावली खडी हो गई॥2॥
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ ग्याना॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥3॥
मूल
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ ग्याना॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥3॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी ने पहले के (जीवितकाल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप का दृढ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथजी ने भेद-भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होन्ने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया॥3॥
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥4॥
मूल
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥4॥
भावार्थ
(मायारहित सच्चिदानन्दमय स्वरूपभूत दिव्यगुणयुक्त) सगुण स्वरूप की उपासना करने वाले भक्त इस प्रकार मोक्ष लेते भी नहीं। उनको श्रीरामजी अपनी भक्ति देते हैं। प्रभु को (इष्टबुद्धि से) बार-बार प्रणाम करके दशरथजी हर्षित होकर देवलोक को चले गए॥4॥