01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥
मूल
करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥
भावार्थ
विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोडे खडे रहे। तब अत्यन्त प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्माजी स्तुति करने लगे– ॥110॥
02 छन्द
जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥
मूल
जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥
भावार्थ
हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं॥1॥
तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥
मूल
तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥
भावार्थ
आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परन्तु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को गरुड की तरह क्रोध करके पकड लिया॥2॥
जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गत क्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनं॥3॥
मूल
जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गत क्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनं॥3॥
भावार्थ
हे प्रभो! आप सेवकों को आनन्द देने वाले, शोक और भय का नाश करने वाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणों वाला, पृथ्वी का भार उतारने वाला और ज्ञान का समूह है॥3॥
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥4॥
मूल
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥4॥
भावार्थ
(किन्तु अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणा की खान श्रीरामजी! मैं आपको बडे ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारने वाले तथा समस्त दोषों को हरने वाले! विभिषण दीन था, उसे आपने (लङ्का का) राजा बना दिया॥4॥
गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलं॥5॥
मूल
गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलं॥5॥
भावार्थ
हे गुण और ज्ञान के भण्डार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित श्रीराम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदण्डों का प्रताप और बल प्रचण्ड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं॥5॥
बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरं॥6॥
मूल
बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरं॥6॥
भावार्थ
हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम! मैं श्रीजानकीजी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारने वाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन दोषों को हरने वाले हैं॥6॥
सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥7॥
मूल
सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥7॥
भावार्थ
आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मन्दिर, सुन्दर, श्री (लक्ष्मीजी) के वल्लभ तथा मद (अहङ्कार), काम और झूठी ममता के नाश करने वाले हैं॥7॥
अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥8॥
मूल
अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥8॥
भावार्थ
आप अनिन्द्य या दोषरहित हैं, अखण्ड हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दन्तकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी है, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं॥8॥
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तनानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥9॥
मूल
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तनानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥9॥
भावार्थ
हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। (और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पडे हैं॥9॥
अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥10॥
मूल
अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥10॥
भावार्थ
हे दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करने वाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दु:ख है, उसे सुख मानकर आनन्द से विचरता हूँ॥10॥
खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेमु सदा सुभदं॥11॥
मूल
खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेमु सदा सुभदं॥11॥
भावार्थ
आप दुष्टों का खण्डन करने वाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरणकमल श्री शिव-पार्वती द्वारा सेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरणकमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो॥11॥