01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढीं बिमान॥1॥
मूल
बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढीं बिमान॥1॥
भावार्थ
देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डङ्के बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढी अप्सराएँ नाचने लगीं॥1॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥2॥
मूल
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥2॥
भावार्थ
श्री जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी की अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार श्री रघुनाथजी की जय बोलने लगे॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥
मूल
तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥
भावार्थ
तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इन्द्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बडे परमार्थी हों॥1॥
दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥
मूल
दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥
भावार्थ
हे दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बडी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलने वाला रावण अपने ही पाप से नष्ट हो गया॥2॥
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥
मूल
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥
भावार्थ
आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखण्ड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं॥3॥
मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥
मूल
मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥
भावार्थ
आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया॥4॥
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥
मूल
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥
भावार्थ
यह दुष्ट मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यन्त क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का हमारे मन में आश्चर्य हुआ॥5॥
हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥
भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥
मूल
हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥
भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥
भावार्थ
हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरन्तर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पडे हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए॥6॥