107

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त॥107॥

मूल

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त॥107॥

भावार्थ

(जानकीजी ने कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्‌! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥

मूल

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥

भावार्थ

हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचन्द्रजी के पास जाकर हनुमान्‌जी ने जानकीजी का कुशल समाचार सुनाया॥1॥

सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥

मूल

सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥

भावार्थ

सूर्य कुलभूषण श्री रामजी ने सन्देश सुनकर युवराज अङ्गद और विभीषण को बुला लिया (और कहा-) पवनपुत्र हनुमान्‌ के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥

तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥

मूल

तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥

भावार्थ

वे सब तुरन्त ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होन्ने बहुत प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥

बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥

मूल

बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥

भावार्थ

बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुन्दर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढीं॥4॥

बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥

मूल

बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥

भावार्थ

चारों ओर हाथों में छडी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमङ्ग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौडे॥5॥

कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥

मूल

कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥

भावार्थ

श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी॥7॥

मूल

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी॥7॥

भावार्थ

प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान्‌ उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥