01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज॥106॥
मूल
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज॥106॥
भावार्थ
प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकडते हैं॥106॥
02 चौपाई
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥
मूल
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥
भावार्थ
फिर प्रभु ने हनुमान्जी को बुला लिया। भगवान् ने कहा- तुम लङ्का जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥
तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥
मूल
तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥
भावार्थ
तब हनुमान्जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए) दौडे। उन्होन्ने बहुत प्रकार से हनुमान्जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी को दिखला दिया॥2॥
दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥
मूल
दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥
भावार्थ
हनुमान्जी ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥
मूल
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥
भावार्थ
(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होन्ने सङ्ग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान्जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा गया॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयं॥
मूल
अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयं॥
भावार्थ
श्री जानकीजी के हृदय में अत्यन्त हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनन्दाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैन्ने आज निःसन्देह सारे जगत् का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री रामजी को देख रहा हूँ।